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- बूट पॉलिश
रमाकांत शुक्ला एक सज्जन रेलवे स्टेशन पर बैठे गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे तभी जूते पॉलिश करने वाला एक लड़का आकर बोला, ‘‘साहब! बूट पॉलिश कर दूँ?’’ उसकी दयनीय सूरत देखकर उन्होंने अपने जूते आगे बढ़ा दिये, बोले- ‘‘लो, पर ठीक से चमकाना।’’ लड़के ने काम तो शुरू किया परंतु अन्य पॉलिशवालों की तरह उसमें स्फूर्ति नहीं थी। वे बोले, ‘‘कैसे ढीले-ढीले काम करते हो? जल्दी-जल्दी हाथ चलाओ!’’ वह लड़का मौन रहा। इतने में दूसरा लड़का आया। उसने इस लड़के को तुरंत अलग कर दिया और स्वयं फटाफट काम में जुट गया। पहले वाला गूँगे की तरह एक ओर खड़ा रहा। दूसरे ने जूते चमका दिये। ‘पैसे किसे देने हैं?’ इस पर विचार करते हुए उन्होंने जेब में हाथ डाला। उन्हें लगा कि ‘अब इन दोनों में पैसों के लिए झगड़ा या मारपीट होगी।’ फिर उन्होंने सोचा, ‘जिसने काम किया, उसे ही दाम मिलना चाहिए।’ इसलिए उन्होंने बाद में आनेवाले लड़के को पैसे दे दिये। उसने पैसे ले तो लिये परंतु पहले वाले लड़के की हथेली पर रख दिये। प्रेम से उसकी पीठ थपथपायी और चल दिया। वह आदमी विस्मित नेत्रों से देखता रहा। उसने लड़के को तुरंत वापस बुलाया और पूछा, ‘‘यह क्या चक्कर है?’’ लड़का बोला, ‘‘साहब! यह तीन महीने पहले चलती ट्रेन से गिर गया था। हाथ-पैर में बहुत चोटें आयी थीं। ईश्वर की कृपा से बेचारा बच गया नहीं तो इसकी वृद्धा माँ और बहनों का क्या होता, बहुत स्वाभिमानी है... भीख नहीं मांग सकता....!’’ फिर थोड़ा रुककर वह बोला, ‘‘साहब! यहाँ जूते पॉलिश करनेवालों का हमारा समूह है और उसमें एक देवता जैसे हम सबके प्यारे चाचाजी हैं जिन्हें सब ‘सत्संगी चाचाजी’ कहकर पुकारते हैं। वे सत्संग में जाते हैं और हमें भी सत्संग की बातें बताते रहते हैं। उन्होंने ही ये सुझाव रखा कि ‘साथियो! अब यह पहले की तरह स्फूर्ति से काम नहीं कर सकता तो क्या हुआ? ईश्वर ने हम सबको अपने साथी के प्रति सक्रिय हित, त्याग-भावना, स्नेह, सहानुभूति और एकत्व का भाव प्रकट करने का एक अवसर दिया है। जैसे पीठ, पेट, चेहरा, हाथ, पैर भिन्न-भिन्न दिखते हुए भी हैं एक ही शरीर के अंग, ऐसे ही हम सभी शरीर से भिन्न-भिन्न दिखाई देते हुए भी हैं एक ही आत्मा! हम सब एक हैं। स्टेशन पर रहने वाले हम सब साथियों ने मिलकर तय किया कि हम अपनी एक जोड़ी जूते पॉलिश करने की आय प्रतिदिन इसे दिया करेंगे और जरूरत पड़ने पर इसके काम में सहायता भी करेंगे।’’ जूते पॉलिश करनेवालों के दल में आपसी प्रेम, सहयोग, एकता तथा मानवता की ऐसी ऊँचाई देखकर वे सज्जन चकित रह गये औऱ खुशी से उसकी पीठ थपथपाई औऱ सोंचने लगे शायद इंसानियत अभी तक जिंदा है। *****
- ममता
अभिलाषा कक्कड़ पंडित बृजमोहन जैसे ही नहा कर आये तो स्वयं बहुत ही को असहज सा महसूस करने लगे। पत्नी मंगला ने पूछा कि क्या हुआ तो कहने लगे कि कुछ अच्छा नहीं लग रहा, जी बहुत घबरा रहा है। तो आज की सारी पूजा कैंसल कर दीजिए। माना कि शादियों का समय चल रहा है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि आप एक दिन में दो-दो शादियों करवायें मंगला समझाने के इरादे से बोली। अरी पगली हमारे लिए भी यही वक़्त तो है चार पैसे कमाने का बेटियाँ शादी के लायक़ हो रही हैं। बहुत जल्दी अब उनके हाथ भी पीले करने हैं। यह कहते पंडित जी तकिये पर गिर गये। पति की हालत देख मंगला ज़ोर ज़ोर से रतन और रेशम को बुलाने लगी। दोनों भाग कर आई, रतन पिता की गिरती हालत देख पड़ोसी को गाड़ी में ले जाने के लिए बुला ले आई। अस्पताल जाते ही डाक्टर ने बताया कि इन्हें दिल का दौरा पड़ा और देखते ही देखते एक ओर आघात ने पंडित जी के शरीर का आधा हिस्सा मार दिया। परिवार पर अचानक से संकटों का पहाड़ टूट पड़ा। घर का मुखिया और एक मात्र आमदनी का सहारा, बीमारी भी ऐसी कि चार दिनों में जाने वाली नहीं। पंडित जी की दो बेटियाँ रतन और रेशम दोनों ही बहुत संस्कारी रूप और गुणों से सम्पन्न थी। माँ को घर चलाने में कई कामों में संघर्ष करते देख रतन जो कि बड़ी बेटी उसने अपने कालेज की आख़िरी पढ़ाई घर में बैठकर ही पूरी करने का फ़ैसला लिया और ट्यूशन चलाकर माँ की मदद करने लगी। धीरे-धीरे चरमराती हुईं आर्थिक स्थिति नियन्त्रण में आने लगी। फिर एक दिन ख़बर सुनकर पंडित जी के एक बहुत ही पुराने मित्र पंडित सुबोध कांत उनसे मिलने आये। मित्र की ऐसी हालत देखकर उनका चित दुख से भर गया। पैसे से परिवार की मदद कर सके ऐसी उनकी माली हालत ना थी फिर भी मन में एक विचार लेकर वहाँ से निकले कि उनसे जितना बन पड़ेगा वो अपने मित्र के परिवार की अवश्य मदद करेंगे। फिर एक दिन सुबोधकांत बड़ी बेटी रतन के विवाह हेतु एक प्रस्ताव लेकर आयें। बहुत ही उच्च कोटि के विचारों वाले लोग हैं, दहेज धूमधाम से शादी खर्चा सामने बिठाकर लड़की देखना इन सबसे कोसो मील दूर उनकी बस हाँ है। ऐसा सुनते ही मंगला की आँखें चमक गई और बोली लड़का क्या करता है? सुबोध कांत - लड़का हरिप्रसाद पेशे से वकील हैं अच्छी ख़ासी उसकी वकालत चल रही है। लड़का बहुत ही नेक और उदार दिल का इन्सान है। ऐसा सब कहते हैं। बस छोटी सी कमी है दिखने में वो बहुत सामान्य है। रतन बिटिया जैसा सुन्दर नहीं है। सोच लो अच्छे से आपका परिवार और परवरिश की बात सुनकर उनकी तो हाँ है पाँच सात लोग लेकर आयेंगे और यही घर में मैं ही ब्याह करवा दूँगा। मंगला - लड़कों की शक्ल सूरत नहीं कामकाज और घर परिवार देखा जाता है क्यूँ जी आप क्या कहते हैं? बिस्तर पर लेटे पति की तरफ़ देखकर बोली पति ने भी हाँ में सिर हिला दिया। तो ठीक है हमारी भी हाँ है। रतन भी सब सुन रही थी। जानती थी माँ ने जो फ़ैसला ले लिया उससे पीछे हटने वाली नहीं और घर के हालात भी यही कहते हैं कि चुपचाप जो हो रहा है उसे स्वीकार करो। ब्याह का दिन तय हुआ और एक छोटी सी बारात पंडित जी के द्वार निश्चित दिन पर आ पहुँची। दुल्हन बनी रतन को जब बाहर लाया गया तो वकील साहब देखते ही रह गये। शक्ल सूरत में वो रतन के आसपास भी नहीं थे। श्यामल रंग मोटी चपटी नाक आँखों पर मोटा चश्मा, देखते ही उन्हें फेरे लेने से पहले रतन से बात करना ज़रूरी लगा। दोनों को एक कमरे में बिठाया गया। वकील साहब ने कहा मैं नहीं चाहता कि तुम्हें बाद में पछतावा हो कि तुम्हारे साथ धोखा हुआ है। मैं दिखने में तुमसे काफ़ी कम हूँ। तुम चाहो तो अपना फ़ैसला बदल सकती हो मुझे बिलकुल बुरा नहीं लगेगा। रतन को वकील साहब की यह पहली सादगी पसन्द आई और उसने कहा कि मैं दिल से इस शादी के लिए तैयार हूँ आप तनिक भी चिन्ता ना करें। पूरे रस्मों रिवाज के साथ रतन की विदाई हुई और पति देव के घर में कुछ ही देर में पहुँच गई। सुबह रतन की जब नींद खुली तो सुबह के दस बज चुके थे। घड़ी देख कर रतन झटके से उठी और जल्दी से तैयार होकर रसोई में सासु माँ के पास चली गई। उनके पाँव छूने के लिए झुकी तो सास ने दिल से लगा लिया। और जल्दी से बहू के लिए चाय बनाकर ले आई और बातें करने लगी। हरिप्रसाद हमारी एकमात्र औलाद है। शादी के दस साल तक हम बच्चे के लिए तरसते रहे। ना जाने कितने तीर्थ स्थानों मंदिरों में जाकर मन्नतों के बाद ईश्वर ने हमारी पुकार सुनी और हमें माता-पिता बनने का सुख मिला। ईश्वर की ही देन हैं। हरिप्रसाद और जैसे उसी का ही रूप हैं। दिल का बहुत ही साफ़ और नेक दिल इन्सान है। इन्सान तो क्या एक छोटे से जानवर का भी दुख नहीं देख सकता। ह्रदय इसका प्रेम से भरा हुआ है। सबकी मदद करता है। किसी को निराश नहीं करता। इस जन्म का तू मुझे नहीं पता लेकिन पिछले जन्म में ज़रूर अच्छे करम किये होगे जो हमें हरिप्रसाद जैसा पुत्र मिला। वो जल्दी से बेटी अपनी मन की बात नहीं कहता तू अब उसकी जीवनसंगिनी है अब तुझे ही उसे समझना होगा इन बातों के साथ घटों सास बहू बैठी बतियाती रही। अगले दिन माँ ने बहू बेटा को मंदिर जाने के लिए भेजा। रतन बहुत अच्छे से तैयार हुई। पति के साथ उसका पहला गमन था। मंदिर ज़्यादा घर से दूर नहीं था। दोनों बातें करते हुए साथ-साथ चलने लगे। अभी कुछ कदम चले ही थे कि रतन हैरान हुई देख कर पति ने रास्ते में जो भी चीज़ पैरों के लिए हानिकारक लगी जैसे काँच पत्थर काँटे झाडी सब अपने हाथ से हटाये। गली के कुकर छोटे पिल्ले सबको बैठकर प्यार किया। जो भी रास्ते में मिला सबसे बड़े प्रेम अदबी से मिला। रतन पति की यह उदारता देख कर मुस्कराती रही। मन से वह भी कोमल भाव रखती थी लेकिन पति के आगे वो बहुत कम थे। बीतते वक़्त के साथ रतन घर के अन्दर की बातें जानने लगी। घर का खर्चा पिता जो कि एक रिटायर्ड अध्यापक थे उनकी पेंशन से चलता था। पति की पुरानी सी गाड़ी घर के लिए कम लोगों की मदद के लिए ज़्यादा थी। राशन सामग्री का बहुत हिस्सा दर पर आये ज़रूरत मदों भिखारियों को खिलाने में जाता था। पति की वकालत अच्छी जा रही थी लेकिन पैसा घर में कहीं आता नज़र नहीं आ रहा था। सासु माँ से पुछने पर पता चला कि हरिप्रसाद ग़रीब निर्बल लोगों के मुक़दमे की फ़ीस नहीं लेता। बचपन में किसी मजबूर पर ज़ुल्म होता देखता तो आकर कहता मैं बड़ा होकर इनके इन्साफ़ के लिए लड़ूँगा और देखो ईश्वर ने इसे वकील बनाकर इसका लक्ष्य पूरा किया। पति ज़रूरत से ज़्यादा सत्कर्मी था लेकिन एक बात रतन देख कर खुश हुई हरिप्रसाद में कुछ तो आम लोगों जैसा भी था, वो था कपड़ों से प्यार। कपड़े साफ़ सुथरे स्त्री किये हो ऐसी तमन्ना उनकी आँखों में सदा दिखती। कपड़ों पर दाग छींटा ना लगे इस बात से सदा सजग रहते। पति की इस इच्छा का रतन अच्छे से ख़्याल रखने लगी। बीतते वक़्त के साथ ज़िन्दगी आगे बढ़ी। रतन और हरिप्रसाद दो बच्चों के माता-पिता बने। हरिप्रसाद के माता-पिता एक के बाद एक इस दुनिया से विदा ले गये। रतन पूरी तरह अपनी गृहस्थी सम्भालने में व्यस्त हो गई। उसके लिए उसके बच्चे और उनकी ख़ुशियों से बढ़कर कुछ नहीं था। पति की नेकियाँ जब राहों में आकर खड़ी होने लगी तो रतन एकदम से स्वार्थी हो गई। पति को दुनिया से काटने के लिए झूठ बोलने लगी बातें छुपाने लगी। मुफ़्त में मुक़दमे लड़ने पर पति से झगड़ा करती। कोई मदद माँगने आता है तो ना करने में देर ना लगाती। उसे भगवान नहीं इन्सान चाहिए था अपना पति अपने बच्चों का पिता चाहिए था। धीरे-धीरे हरिप्रसाद दुनिया से कट कर अपने घर और बच्चों तक सीमित रह गया। रतन बहुत खुश थी। फिर एक दिन बहुत मुबारक दिन आया रतन की छोटी बहन रेशम की शादी का, रतन जोरशोर से तैयारियों ख़रीदारियों में लग गई। सबके लिए कपड़े ख़रीदे पति के लिए भी क़ीमती पेट कोट टाई सूट ख़रीद कर लाई। सूट देखकर हरिप्रसाद बहुत खुश हुए। जाने में समय से बहुत देर पहले ही तैयार होकर बैठ गये और ना जाने कितनी बार ख़ुद को आईने में देखकर आये। तभी रतन ने आकर कहा कि शगुन डालने का लिफ़ाफ़ा नहीं मिल रहा और थोड़ी देर में गाड़ी भी आने वाली है। हरिप्रसाद बोले तुम लोग तैयार हो मैं लेकर आता हूँ। लिफ़ाफ़े लेकर जब वापिस लौट रहे थे सामने दलदल में एक छोटे से सूअर का बच्चा धँसा हुआ था और बाहर निकलने का निरन्तर प्रयत्न कर रहा था। दलदल के बाहर कीचड़ से सनी उसकी माँ भी खड़ी थी। शायद अपने बच्चे को बचाने में अपनी सब कोशिशों में हार चुकी थी। वकील साहब को आसपास एक छोटे से बच्चे के अलावा कोई दिखाई नहीं दिया। उन्होंने अपना कोट उतार कर उस बच्चे को पकड़ाया और स्वयं उस मासूम की मदद के लिए कीचड़ में उतर गये। दलदल काफ़ी गहरा था लेकिन वकील साहब भी आसपास के उठे हुए पत्थरों को पकड़कर बच्चे तक पहुँच गये। इधर जाने के लिए गाड़ी आ गई और पति का कुछ पता नहीं तो घबराकर रतन फ़ोन करने लगी। फ़ोन कोट की जेब में था, बच्चे ने बताया कि जिन अंकल का यह फ़ोन है वो दलदल में फँसे हुए हैं। रतन सुनते ही दौड़ीं, बच्चे भी माँ के पीछे दौड़े। वहाँ देखते रतन जड़ सी हो गई पति दूर दलदल से एक छोटे से सुअर के बच्चे को उठाकर आ रहे थे ख़ुद गिर गिर कर भी उस बच्चे को सँभाले हुए थे। आज पति की करूणा में रतन भी बह गई। गला रूँध गया आँखों से आँसू बह गये। अन्तरिम में सभी वासनाओं की विसंगति टूट गई। प्रेम की ऐसी पावन गंगा उसके घर में स्वयं परमात्मा ने बहाईं थी और वो उसमें दूषित सोच की गंदगी डाल रही थी। इस दलदल में हरि की जान भी जा सकती थी, वहाँ कोई बचाने वाला भी नहीं था लेकिन उनके लिए इनसानियत पहले थी। बच्चे की माँ भी सबके साथ खड़ी हरिप्रसाद का इन्तज़ार कर रही थी। किनारे पर आते ही रतन ने भागकर पति को हाथ का सहारा दिया। फिर उन्होंने नल के नीचे उस बच्चे की सारी गंदगी साफ़ की रतन सामने खड़ी सब देख रही थी और भीतर ही भीतर पति के सद्भाव के आगे झुकी जा रही थी। पत्नी को देखकर वकील साहब बोले माफ़ करना रतन तुम्हारा लाया क़ीमती सूट ख़राब हो गया। भीगी आँखों से रतन बोली ऐसा ना कहिए मैंने आज जो पाया है उससे अधिक क़ीमती कुछ भी नहीं। भगवान का शुक्र आप सही सलामत हैं। सुनकर वकील साहब बोले मुझे कुछ कैसे हो सकता था रतन मेरे साथ उस माँ की ममता थी। अपने बच्चे के लिए उसकी प्रार्थना थी और मैं भी उस प्रार्थना के साथ बाहर आ गया। आज इस माँ का दर्द दूर करके जो ख़ुशी मिली वो मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता और फिर साड़ी तो तुम्हारी भी इस नेकी में रंग गई वकील साहब ने मज़ाक़ के मूड में कहा तो एक हंसी की खिल खिलाहट से रौनक़ भर गई। सूअर माँ और बच्चा जैसे लाखों दुआयें देकर चल दिए और रतन अपने घर में में एक मंदिर जैसा दिल लेकर वापिस लौट आई। ****
- चैन से जीने दो
उर्मिला तिवारी "तुम बिन मैं कुछ नहीं, तुम्हारा साथ हर मुश्किल को पार करने के लिए काफी है। तुम हो, तो मैं हूँ, वरना कुछ भी नहीं।" पढ़ते पढ़ते शारदा जी ने कहा, "आपने वाकई बहुत अच्छा लिखा है" सुनकर दीपक जी बस मुस्कुरा कर रह गए। यह हैं दीपक जी और उनकी पत्नी शारदा जी। कभी दोनों सरकारी नौकरी में थे, पर आज दोनों रिटायर हो चुके हैं और अपने बड़े से घर में दोनों अकेले रहते हैं। यह घर उन्होंने अपने परिवार के लिए बनाया था। उनके परिवार में तीन बेटियां, दो बेटे थे। धीरे-धीरे बच्चे बड़े हुए तो पढ़ाई पूरी होने के बाद एक-एक करके सब का विवाह कर दिया। बड़े बेटे की अमेरिका में नौकरी लगी तो वह अपने परिवार सहित वहां चला गया। और छोटा बेटा मुंबई में अपने परिवार के साथ शिफ्ट हो गया। बेटियों का ससुराल भी दूसरे शहर में था इसलिए दोनों यहां अकेले रहते थे। बड़े बेटे ने अपने साथ पढ़ने वाली अंजलि से प्रेम विवाह किया था, पर अंजलि इस परिवार में कभी भी एडजस्ट नहीं कर पाई। उसे ऐसा लगता जैसे उसे बंदिशों में रखा जाता है। जिस कारण से आए दिन घर में झगड़े होने लगे। जिस कारण उनके बड़े बेटे ने बाहर नौकरी करना ही ठीक समझा और अमेरिका में जॉब प्लेसमेंट हुई तो उस नौकरी को उसने ना नहीं कहा। अब वह दो-तीन साल में एक बार मिलने आ जाता। वहीं दीपक जी और शारदा जी ने अपने छोटे बेटे की शादी अपनी मर्जी से करवाई। यह सोच कर कि प्रेम विवाह सफल नहीं होते, लेकिन वहाँ भी किस्मत ने साथ नहीं दिया। छोटे बेटे की पत्नी अंजू को ऐसा लगता था कि सारी सेवा मैं ही क्यों करूं? घर की बड़ी बहू भी तो है! इसलिए आए दिन वह भी घर में झगड़ा करने लगी, जिस कारण से छोटा बेटा भी मुंबई शिफ्ट हो गया। अब दीपक जी और शारदा जी अकेले रह गए। कुछ दिनों बाद शारदा जी की तबीयत बहुत ज्यादा बिगड़ गई। इस कारण से उनका पूरा परिवार वहां मौजूद था। तो दीपक जी ने अपने बेटों से कहा, "तुम्हारी माँ तुम्हें दिन रात याद करती रहती है। तुम लोग यहीं रुक जाओ। यही रह कर कोई नौकरी कर लो।" सुनकर दोनों बेटे एक दूसरे की शक्ल देखने लगे और उनकी पत्नियों का मुंह बन गया। अंजलि ने कहा, "हम इस तरह की किसी बंदिश में नहीं रहना चाहते। हमें खुलकर जीने की आदत है।" "मैं अकेली ही सेवा करने के लिए थोड़ी ना हूं। भाभी तो अपने पति के साथ अमेरिका चली जाएगी। मैं अकेली ही यह क्या खटती रहूंगी।" छोटी बहू ने भी अपना राग अलापा। "यहाँ कौन सी बंदिश है। तुम तुम्हारे मन मुताबिक कपड़े पहन सकती हो, घूम सकती हो, किसी चीज की मनाही तो नहीं है।" दीपक जी ने समझाना चाहा। "हमसे आप लोगों की कोई सेवा नहीं होती। आप बड़ी बहू से पूछ लो" छोटी बहू ने कहा। इस पर बड़ी बहू का मुंह बन गया और वह रूठ कर के अपने पीहर चली गई। इस बात पर अच्छी खासी बहस हो गई। दोनों बेटे कहने लगे कि हमारी जिंदगी हैं हमें जीने दीजिए। क्यों हमें परेशान कर रहे हैं। आप लोगों ने तो अपनी जिंदगी जी ली, अब हमारी जिंदगी में क्यों दखलअंदाजी कर रहे हो। वैसे भी हमें पाल पोस कर कोई एहसान नहीं किया आपने। ये आपका फर्ज था, वही निभाया है। आपको चाहिए तो, और पैसों की जरूरत हो तो, हम वह देने को तैयार हैं पर हम यहां नहीं रह सकते। दोनों की बातें सुनकर दीपक जी मौन हो गए अपने ही खून की इस तरह की चल रही जुबान को देखकर वो हैरान रह गए थे। दूसरे दिन दोनों बेटे वहां से रवाना हो गए। बेटियां जरूर थोड़े दिन रुकी। हालांकि बेटियां हर दो-तीन महीने में आकर मिल जरूर जाती। पर फिर भी अकेलापन तो था ही। इस इस कारण धीरे-धीरे शारदा जी की तबियत खराब रहने लगी। फिर एक दिन दीपक जी ने फैसला किया और शारदा जी से कहा, "बच्चों को हमारी जरूरत नहीं। वह अपनी जिंदगी जीना चाहते हैं तो उन्हें जीने दो। हम अपनी जिंदगी अपने आप जिएंगे। हमें अपनी जो इच्छाएं अपनी जिम्मेदारियों को पूरी करते हुए पूरी नहीं कर पाये, उन्हें अब हम पूरा करेंगे। बस इसमें मुझे तुम्हारा साथ चाहिए।" शारदा जी ने मुस्कुराकर हां कहा। शारदा जी और दीपक जी को मूवी देखने का बहुत शौक था, किंतु जिम्मेदारियों को चलते वे दोनों अपनी इच्छा मार लेते थे। पर आज सत्तर साल की उम्र में दीपक जी ने कार चलाना सीखी और अपनी नई कार में शारदा जी को बिठाकर मूवी देखने गए। जब उनके बेटों को पता चला कि पापा ने नई कार खरीद ली तो उन लोगों ने कहा, "पापा क्यों बेवजह पैसे खर्च कर रहे हो? इस उम्र में कहां गाड़ी का शौक चढ़ा है आपको? क्या यह सब शोभा देता है?" "बेटा, तुम लोगों की पढ़ाई लिखाई और परवरिश में बहुत पैसा खर्च कर दिया पर माफ करना उसका तो कोई रिटर्न भी नहीं है। पर चिंता मत करो। वह हम तुमसे मांग नहीं रहे। रही बात इस उम्र में नए शौक की, तो शौक तो पहले से ही था, पर हर बार हम अपनी इच्छाओं को दबा दिया करते थे, क्योकि पहले हमें तुम नजर आते थे। और आखिरी और जरूरी बात। यह हमारी जिंदगी है, हमें चैन से जीने दो। बहुत इच्छाएँ मार ली अब तक, अब वक्त है तो उसे जीने दो" दोनों बेटों की उसके आगे कुछ कहने की हिम्मत भी ना हुई। ******
- मोहन का पेपर
रमाकांत शर्मा आज फिर बेटा बिना कुछ खाए घर से जा रहा था, तो मां ने बेटे से कहा – बेटा थोड़ा खाना खाकर जा। दो दिन से तूने कुछ नहीं खाया – तो बेटे ने कहा देखो मम्मी मैंने मेरी 12वीं बोर्ड की परीक्षा के बाद सेकंड हैंड बाइक मांगी थी और पापा ने प्रॉमिस किया था कि जरूर लेकर देंगे। आज मेरा आखिरी पेपर है दीदी को कह देना कि जैसे ही मैं परीक्षा देकर बाहर आऊंगा। तब वह पैसे लेकर बाहर खड़ी रहे। मेरे दोस्त की पुरानी बाइक मुझे आज ही लेनी है और हां यदि दीदी वहां पैसे लेकर नहीं आई तो मैं घर वापस नहीं आऊंगा। एक गरीब घर में बेटे मोहन की जिद और माता की लाचारी आमने-सामने टकरा रही थी। मां ने कहा बेटा तेरे पापा तुझे बाइक लेकर देने ही वाले थे। लेकिन पिछले महीने एक्सीडेंट, इससे पहले के मां अपनी बात पूरी कर पाती उससे पहले मोहन बोला मैं कुछ नहीं जानता मुझे तो बाइक चाहिए ही चाहिए। ऐसा बोलकर मोहन अपनी मम्मी को गरीबी और लाचारी की मझदार में छोड़कर घर से बाहर निकल गया। 12वीं बोर्ड की परीक्षा के बाद भागवत सर एक अनोखी परीक्षा का आयोजन करते थे। हालांकि भागवत सर का विषय गणित था। किंतु विद्यार्थियों को जीवन का गणित भी समझाते थे। उनके सभी विद्यार्थी यह परीक्षा जरूर देने आते थे। इस साल परीक्षा का विषय था – मेरी पारिवारिक भूमिका। मोहन परीक्षा कक्षा में आकर बैठ गया। उसने मन में गांठ बांध ली थी कि यदि मुझे बाइक नहीं लेकर देंगे तो मैं घर नहीं जाऊंगा। भागवत सर ने क्लास में सभी को पेपर बांट दिए। पेपर में कुल 10 प्रश्न थे। उत्तर देने के लिए 1 घंटे का समय दिया गया था। मोहन ने पहले प्रश्न पढ़ा – आपके घर में आपके पिताजी, माताजी, बहन, भाई और आप कितने घंटे काम करते हो? बिस्तार में बताइए? मोहन ने तुरंत जवाब लिखना शुरू कर दिया पापा सुबह 6:00 बजे टिफिन के साथ अपनी ऑटो रिक्शा लेकर निकल जाते हैं और रात को 9:00 बजे वापस आते हैं। ऐसे में वह लगभग 15 घंटे काम करते हैं। मम्मी सुबह 4:00 बजे उठकर पापा का टिफिन तैयार करती है। बाद में घर का सारा काम करती है। दोपहर को सिलाई का काम करती है और सभी लोगों के सो जाने के बाद वह सोती है। लगभग रोज 16 घंटे काम करती है। दीदी सुबह कॉलेज जाती है और शाम को 4:00 से 8:00 बजे तक पार्ट टाइम जॉब करती है और रात को मम्मी के काम में मदद करती है। लगभग 12 से 13 घंटे काम करती है। मैं सुबह 6:00 बजे उठता हूं और दोपहर को स्कूल से आकर खाना खाकर सो जाता हूं। शाम को अपने दोस्तों के साथ टहलता हूं। रात को 11:00 तक पढ़ता हूं तो लगभग 10 घंटे तक मैं व्यस्त रहता हूं। पहले सवाल के जवाब के बाद मोहन ने दूसरा प्रश्न पढ़ा – आपके घर की मासिक कुल आमदनी कितनी है? तो मोहन ने जवाब लिखना शुरू किया मेरे पापा की आमदनी लगभग ₹10000 है। मम्मी और दीदी मिलकर 5000 कुल जोड़ लेते हैं। कुल आमदनी 15000 रुपए है। प्रश्न नंबर तीन था – मोबाइल रिचार्ज प्लान, आपकी मनपसंद टीवी पर आ रही तीन सीरियल के नाम, शहर के एक सिनेमा हॉल का पता और अभी वहां चल रही मूवी का नाम बताइए? सभी प्रश्नों के जवाब आसान होने के कारण मोहन ने फटाफट 2 मिनट में लिख दिए। अब बारी थी प्रश्न नंबर चार की और चार नंबर प्रश्न था 1 किलो आलू और भिंडी की कीमत क्या है? 1 किलो गेहूं चावल और तेल की कीमत बताइए और जहां पर घर का गेहूं पिसाने जाते हो उस आटा चक्की का पता भी बताइए? मोहन को इस सवाल का जवाब नहीं आया उसे समझ में आया कि हमारे दैनिक आवश्यक जरूरत की चीजों के बारे में तो उसे थोड़ा भी पता नहीं है। मम्मी जब भी कोई काम बताती थी तो मना कर देता था। आज उसे समझ में आया कि बेकार की चीज मोबाइल रिचार्ज, मूवी का ज्ञान ही जरूरी नहीं है। अपने घर के कामों की समझ होना भी बहुत जरूरी है। प्रश्न नंबर पांच था – आप अपने घर में भोजन को लेकर कभी तकरार या गुस्सा करते हैं? तो मोहन ने सोच कर जवाब लिखा – हां मुझे आलू के सिवा कोई भी सब्जी पसंद नहीं है। यदि मम्मी और कोई सब्जी बनाएं तो मेरे घर में झगड़ा होता है। कई बार मैं बिना खाना खा उठ खड़ा हो जाता हूं। इतना लिखते ही मोहन को याद आया की आलू की सब्जी से मम्मी को गैस की तकलीफ होती है। पेट मे दर्द होता है। मम्मी अपनी सब्जी में एक बड़ी चमच्च अजवाइन डालकर खाती है। एक दिन मैंने गलती से मम्मी की सब्जी खा ली थी और फिर मैं थूक दिया था और फिर पूछा था कि मम्मी तुम इतनी कड़वी सब्जी क्यों खाती हो? तब दीदी ने बताया था कि हमारे घर की स्थिति अच्छी नहीं है, कि हम दो सब्जी बनाकर खाएं। तुम्हारी जिद के कारण मम्मी बेचारी क्या करें? मोहन ने अपनी यादों से बाहर आकर अगले प्रश्न को पढ़ा – अगला प्रश्न नंबर छः था – आपने अपने घर में की हुई आखिरी जिद के बारे में लिखिए? मोहन ने जवाब लिखना शुरू किया मेरी बोर्ड की परीक्षा पूर्ण होने के बाद दूसरे ही दिन बाइक के लिए जिद की थी। पापा ने कोई जवाब नहीं दिया था और मम्मी ने समझाया था कि घर में पैसे नहीं है। लेकिन मैं नहीं माना मैंने दो दिन से घर में खाना खाना भी छोड़ दिया है। जब तक बाइक नहीं लेकर देंगे मैं खाना नहीं खाऊंगा और आज तो मैं वापस घर ही नहीं जाऊंगा। यह कहकर निकला हूं। अब बारी थी प्रश्न नंबर 7 की और प्रश्न था – आपको अपने घर में मिल रही पॉकेट मनी का आप क्या करते हैं? आपके भाई बहन अपनी पॉकेट मनी कैसे खर्च करते हैं। तो मोहन में जवाब लिखना शुरू किया हर महीने पापा मुझे ₹100 देते हैं उसमें से मैं मनपसंद परफ्यूम और चश्मा लेता हूं या अपने दोस्तों के साथ छोटी-मोटी पार्टियों में खर्च करता हूं। मेरी दीदी को भी पापा ₹100 देते हैं। वह खुद भी कमाती है और पगार के पैसे से मम्मी को आर्थिक मदद भी करती हैं। हां उसको दिए गए पॉकेट मनी को वह गुल्लक में डालकर बचत करती हैं। उसके किसी प्रकार के कोई शौक नहीं है क्योंकि वह कंजूस भी है। इसके बाद प्रश्न था आठ – आप अपनी खुद की पारिवारिक जिम्मेदारी को समझते हैं? यह प्रश्न अटपटा और मुश्किल होने के बाद भी मोहन ने जवाब लिखना शुरू किया। परिवार के साथ जुड़े रहना चाहिए। एक दूसरे के प्रति समझदारी से व्यवहार करना चाहिए। एक दूसरे की मदद करनी चाहिए और ऐसे अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। यह लिखते लिखते ही अंतरात्मा से आवाज ए आर मोहन तुम खुद अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी को योग्य रूप से निभा रहे हो क्या और अंतरात्मा से ही जवाब आया नहीं बिल्कुल नहीं। प्रश्न नंबर 9 – आपके परिणाम से आपके माता-पिता खुश हैं? क्या वह अच्छे परिणाम के लिए आपसे जिद करते हैं? आपको डांटते रहते हैं? इस प्रश्न का जवाब लिखने से पहले मोहन की आंखें भर आई। अब वह परिवार के प्रति अपनी भूमिका बराबर समझ चुका था। उसने लिखने की शुरुआत की वैसे तो मैं कभी भी मेरे माता-पिता को आज तक संतोषजनक परिणाम नहीं दे पाया हूं। लेकिन इसके लिए उन्होंने कभी भी जिद नहीं की। मैंने बहुत बार अच्छे रिजल्ट के प्रॉमिस तोड़े हैं। फिर भी हल्की सी डाँट के बाद वहीं प्रेम बना रहता है। इसके बाद आखरी प्रश्न था प्रश्न नंबर 10 – पारिवारिक जीवन में असर कारक भूमिका निभाने के लिए इन छुट्टियों में आप कैसे अपने परिवार की मदद करेंगे? जवाब में मोहन की कलम चले इससे पहले उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। जवाब लिखने से पहले ही कलम रुक गई। बेंच के नीचे मुंह रखकर रोने लगा फिर से कलम उठाई तब भी वह कुछ ना लिख पाया। दसवें प्रश्न का जवाब दिए बगैर उसने पेपर सबमिट कर दिया और बाहर आ गया। स्कूल के दरवाजे पर दीदी को देखकर मोहन उसकी ओर दौड़ पड़ा। जैसे ही दीदी के पास पहुंचा दीदी ने कहा – भाई यह ले ₹8000 मम्मी ने कहा है कि बाइक लेकर ही आना। दीदी ने मोहन को पैसे पकड़ा दिए। मोहन ने पूछा – कहां से लाई हो पैसे? तब दीदी ने बताया मैंने मेरे ऑफिस से एक महीने की सैलरी एडवांस मांग ली। मम्मी भी जहां काम करती है वहीं से उधार ले लिया और मेरी पॉकेट मनी की बचत से निकाल लिए। ऐसा करके तुम्हारी बाइक के पैसे की व्यवस्था हो गई है। मोहन की दृष्टि पैसों पर स्थिर हो गई थी। दीदी फिर बोली – भाई मम्मी को बोलकर निकले थे कि पैसे नहीं दोगे तो मैं घर पर नहीं आऊंगा। अब तुम्हें समझना चाहिए कि तुम्हारी भी घर के प्रति जिम्मेदारी है। मुझे भी बहुत शौक है। लेकिन मै अपने शौक की बजाय अपने परिवार को ज्यादा महत्व देती हूँ। तुम हमारे घर के सबसे लाडले हो इसलिए पापा के पैर में फ्रैक्चर होने के बावजूद भी रोज ऑटो चलाते हैं ताकि तुझे बाइक दिलाने का प्रामिस पूरा कर सके। बाकी तुमने तो अनेकों बार अपने प्रामिस तोड़े ही है न? मोहन के हाथ में पैसे देकर दीदी घर चली गई। उसी समय मोहन का दोस्त वहाँ अपनी बाइक लेकर आ गया। उसने अच्छे से बाइक को चमका दिया था। दोस्त ने कहा – ले मोहन आज से यह बाइक तुम्हारी। सब 12000 रुपए में मांग रहे थे मगर यह तुम्हारे लिए ₹8000 में। मोहन बाइक की ओर एक टक देख रहा था और थोड़ी देर बाद बोला – दोस्त तुम अपनी बाइक उसे 12000 वाले को ही दे देना। मेरे पास पैसे की व्यवस्था नहीं हो पाई है और होने की संभावना भी नहीं है। यह कहकर मोहन सीधा भागवत सर की केबिन में जा पहुंचा। भागवत सर ने मोहन की ओर देखा और पूछा – अरे मोहन कैसा लिखा है पेपर में? तब मोहन बोला सर यह कोई पेपर नहीं था यह तो मेरे जीवन के लिए दिशा निर्देश था। मैंने एक प्रश्न का जवाब छोड़ दिया है किंतु वह जवाब लिखकर नहीं अपने जीवन की जवाबदेही निभा कर दूंगा और इतना कहकर भागवत सर के चरण स्पर्श किए और अपने घर की ओर निकल पड़ा। घर पहुंचते ही मोहन ने देखा कि मम्मी पापा दीदी सब उसकी राह देख रहे थे। मोहन को देखते ही मम्मी ने पूछा बेटा बाइक कहां है? मोहन ने दीदी के हाथों में पैसे थमा दिए और कहा सॉरी मुझे बाइक नहीं चाहिए और पापा मुझे ऑटो की चाभी दो। आज से मैं पूरी छुट्टियां ऑटो चलाऊंगा और आप थोड़े दिन आराम करेंगे और मम्मी आज मेरी पहली कमाई शुरू होगी। इसलिए तुम अपनी पसंद की सब्जी ले आना। रात को हम सब साथ मिलकर खाना खाएंगे। मोहन के स्वभाव में आए परिवर्तन को देखकर मम्मी ने उसको गले लगा लिया और कहा बेटा सुबह जो कहकर तुम गए थे। वह बात मैंने तुम्हारे पापा को बताई थी और इसलिए तुम्हारे पापा दुखी हो गए। काम छोड़कर घर वापस आ गए। भले ही मुझे पेट में दर्द होता हो लेकिन आज तो मैं तेरी पसंद की ही सब्जी बनाऊंगी। तब मोहन ने कहा – नहीं मम्मी अब मैं समझ गया हूं कि मेरे घर परिवार में मेरी भूमिका क्या है? मैं रात को आपकी पसंद की सब्जी ही खाऊंगा। परीक्षा में मैं आखरी जवाब नहीं लिखा वह प्रेक्टिकल करके दिखाना है। और हां मम्मी हम गेहूं को पीसने कहां जाते हैं उस आटा चक्की का नाम और पता भी मुझे दे दो। इसी समय भागवत सर ने घर में प्रवेश किया और बोले वाह मोहन वाह जो जवाब तुमने लिखकर नहीं दिया वह प्रैक्टिकल जीवन में करके दोगे। मोहन भागवत सर को देखकर आश्चर्य चकित हो गया और बोला – सर आप और यहां? तब भागवत सर बोले मुझे मिलकर तुम चले गए उसके बाद मैंने तुम्हारा पेपर पढ़ा। इसलिए तुम्हारे घर की ओर निकल पड़ा। मैंने बहुत देर से तुम्हारे अंदर आए परिवर्तन को सुना। मेरी अनोखी परीक्षा सफल रही और उस परीक्षा में तुमने पहले नंबर पाया है। ऐसा बोलकर भागवत सर ने मोहन के सर पर हाथ रख दिया और उसे आशीर्वाद दिया। मोहन ने तुरंत ही भागवत सर के पैर छुए और ऑटो रिक्शा चलाने के लिए निकल पड़ा। *****
- कागज की नाव
नीरजा कृष्णा अमिता को मुंबई में नया ऑफिस ज्वाइन किए हुए साल भर होने जा रहा है पर वो नितांत अकेली है। चुपचाप आना, अपना काम करना और फिर उसी तरह चुपचाप घर की बस पकड़ लेना... यही उसकी दिनचर्या है। असीम को उससे हमदर्दी तो है पर वो भी चुप्पा इंसान है। आज कंपनी की तरफ़ से एक पिकनिक के आयोजन में सभी कर्मचारियों का जमावड़ा हैंगिंग गार्डन में है। मुंबई की बारिश तो मशहूर है ही...कब उमड़घुमड़ जाए...कोई नहीं जानता। उस दिन भी यही हुआ। एकाएक झमाझम शुरू हो गई। सब एक बड़े से शेड के नीचे दुबक गए थे। बगल के छोटे से गड्ढे में पानी बहने लगा था। अमिता का उदास मन खिल उठा... बैग में सुबह का पेपर पड़ा था। झट से उसने तीन चार नावें बना कर उसमें डाल दी और खुशी से ताली बजाने लगी। सभी का ध्यान उधर चला गया। असीम को ये सब देख कर अपना बचपन याद आने लगा...कैसे गाँव में सब बच्चे बारिश में कागज की नावें बना कर मस्ती करते थे। उसे छुटकी याद आ गई... कितनी फटाफट सुंदर सुंदर नाव बना डालती थी और उसकी नाव तेजी से आगे भी निकल जाती थी...तब वो असीम को बहुत चिढ़ाती थी। सहसा असीम भी जोश से भर गया। अपने मित्र से पेपर लेकर उसने भी नाव बना कर उसी गड्ढे में तैरा दी। उसकी नाव को आगे बढ़ते देख अमिता के मुँह से निकला,"अरे तुम्हारी नाव तो आगे निकल गई।" एकाएक उसके भी मुँह से निकल गया,"हाँ, आज तो मैं ही जीतूँगा।" "अरे साहब, ये कागज की नाव है...कब डूब जाएगी... कौन जानता है?" ये अमिता चहक रही थी। वो चौंक गया और पूछ बैठा,"तुम पालमपुर वाली छुटकी हो क्या? "हाँ! और तुम सरपंच जी के बेटे मुन्ना हो?" उसने हाथ बढ़ा दिया,"हाँ भाई हाँ।" दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़ कर हँसने लगे। कागज की नावों ने बचपन के मित्रों को मिला दिया था। ******
- प्यार जितना पुराना। उतना ही सुहाना है।
डॉ. जहान सिंह जहान प्यार जितना पुराना। उतना ही सुहाना है। क्या हुआ अगर यह नया ज़माना है।। आज का प्यार तो बहुत बौना है। कुछ पल खेलने का खिलौना है। मन भर जाए तो झटपट बदलना है।। आज की मुद्रा सौ पचास, एक रूपया और अठन्नी। कहाँ वो चांदी, सोने के सिक्के और गिन्नी।। ये टू बीएचके का फ्लैट। कहाँ वो पुरानी हवेली। अब तो जीन्स, टॉप, स्कर्ट। कहाँ वो घागरा चोली।। नया परिधान, हाई हील, गौगल, कोट। कहाँ वो चुनर और घूंघट की ओट।। इनके कंधों पर हैंड बैग पड़ा। कहाँ वो कमर पर पानी का घड़ा। कहाँ ये स्ट्रॉबेरी, पाइन एप्पल, कीवी फ्रूट की टोकरी। कहाँ वो ठंडे तालाब के किनारे आम का बाग।। प्यार जितना पुराना, उतना ही सुहाना है। ये तो है टू मिनट मैगी विद स्पाइस। कहाँ वो धीमी आंच में पका बासमती राइस।। ये क्रोकरी, बेकरी और बुफे का स्टाइल है। वो चौके में सजा भोजन का थाल है।। ये परफ्यूम की शीशी में लेमन ड्यू है। और वो पसीने में बदन की खुशबू है।। यह रेप सॉन्ग, शोर शराबे का गीत है। वो क्लासिक शहनाई का संगीत है।। प्यार जितना पुराना, उतना ही सुहाना है। कहाँ ये बेड रोल की फोल्डिंग चारपाई। कहाँ वो मसहेरी, बिंद गद्दा रजाई।। अब तो सुबह हैं दो बिस्कुट, एक चाय छोटी। कहाँ वो ताजा मक्खन, बासी रोटी।। अब पति, पत्नी नाम से जैसे सेवक बुलाते हैं। वहाँ अजी सुनती हो। अजी सुनते हो, कहलाते हैं।। नया प्यार, निराश न हो। वक्त के साथ वो भी पुराना होकर सुहाना हो जाएगा। पर शर्त है। ‘जहान’ दिल बड़ा रखना निभाना आ जाएगा। *****
- बहु भी बेटी
मनीषा सहाय करीब तीन माह पहले ही रीना नये फ्लैट में शिफ्ट हुई थी। तब से ही रोज सुबह ही बगल के फ्लैट से सुबह-सुबह आती आवाजें ... "अरे राधा मेरे स्नान के लिये गर्म पानी रख दिया, तभी किसी ने जोरों से कहा- "साढे़ छह बज रहें है निर्मला!! ये बहु क्या कर रही है, अभी तक चाय नहीं बनाई। तभी एक अन्य आवाज "यार राधा टिंकू की स्कूल बस आती ही होगी, पता नही क्या कर रही हो? तभी भाभी कहाँ हो, मेरे बालों में मेंहदी लगानी याद है न! ?... इन बुलंद आवाजों के बीच-बीच में एक हल्की आवाज भी आ रही थी.. जी हाँ! आई, बस ला रहीं हूँ! हाँ जीजी! रीना का कोतूहल और संवेदना आज तो सीमा पार कर उस फ्लैट तक जा पहुँचे और उसने डोरबेल बजा दी....ट्रिन-ट्रिन ट्रिन ! सामने से एक दबंग महिला ने दरवाजा खोला और पूछा -- "कौन हो जी?" रीना ----"जी पड़ोसी!" "अच्छा! आओ!! कहाँ से हो? शादीशुदा हो या कँवारी? जाति क्या है तुम्हारी? वह क्या है न आजकल बड़े शहरों में इसी तरह लोग मीठी-मीठी बातें बना नजदिकियाँ बढ़ाते हैं और फिर कुछ कांड कर भाग जातें हैं। अच्छा कितना पढ़ी लिखी हो? ब्वाय फ्रेंड तो जरूर होगा! आजकल की लडकियाँ तो बेशर्मी में लड़कों से भी आगे निकल गई है। नौकरी, पढाई के नाम पर मनमानी ढ़ग से जिंदगी बिताने का सपना लिये रहती हैं न बड़ों का सम्मान ना आँखों में लिहाज वगैरह वगैरह ........ रीना ने कहा -- "जी! मैं यूपी से हूँ, संस्कारी हूँ, सरकारी नौकरी करने के लिये दिल्ली आई हूँ। रोज सुबह-सुबह आपलोगों की ढेरों फरमाईश की आवाजें सुन कर उत्सुक हो उठती हूँ और बस आज रहा नही गया तो आपके दर्शन को चली आई। आपके घर में सब काम आपकी बहू ही करती है ना! सो कॉल! आज की लड़कियाँ! आप लोगों को नही लगता कि घर के काम में आपको उसकी मदद करनी चाहिए! तभी उनकी लड़की --- ओए ! तुम होती कौन हो? तभी वह दबंग महिला गर्दन ऐंठी, तमतमाती हुई कहती है,- "मैं सोसायटी की हेड हूँ। ऐ लड़की देख तुझसे कैसे फ्लेट खाली करवाती हूँ, तू क्या मेरी पहुँच उँचे लोगों तक है।" रीना ---" मैं महिला आयोग दिल्ली की अधिकारी हूँ।" तभी बहु सामने आ गई और सास को बचाते हुए कहने लगी -- "जी बैठिए न! महिला आयोग में काम करती हैं तो इसका मतलब यह नही कि किसी को भी आप पड़ताड़ित करेंगी, यह मेरा घर है मैं यहाँ खुशी से सभी की सेवा करती हूँ।" बस फिर क्या था, वह गर्दन ऐंठी सासू ने बढ़कर बहू का माथा चूमा लिया, और रीना को घर से बाहर जाने का रास्ता दिखाया गया। खैर दो पल के लिये ही सही पर बहु को बेटी का मान तो मिला। *****
- वक्त का बदला
डॉ. कृष्णा कांत श्रीवास्तव एक बार की बात है। एक बूढ़ा बाप अपने बेटे और बहू के साथ रहने के लिए उनके शहर गया। उनके अत्यंत बूढ़े हो जाने के कारण उनके हाथ कांपने लगे थे और उन्हें दिखाई भी कम देता था। उनके बेटा और बहू एक छोटे से घर में रहते थे। उनका पूरा परिवार और उसका 4 वर्ष का एक पोता भी था। वह हर रोज एक साथ बैठकर ही खाना खाते थे। तो वह भी उनके साथ खाना खाने लगा। लेकिन बूढ़े होने के कारण उस व्यक्ति को खाने में बहुत दिक्कत होती थी। खाते समय चम्मच से दाने नीचे गिर जाते थे और उनका हाथ कांपने लगता था। कभी-कभी हाथ से दूध भी गिर जाया करता था। तो बेटा बहू कुछ दिनों तक यह सब सहन करते रहे। पर कुछ दिनों बाद उन्हें अपने पिता की इन कामों पर से नफ़रत होने लगी। तभी बेटे ने कहा कि हमें इनका कुछ करना पड़ेगा और बहू ने भी उनकी हां में हां मिलाई। और कहा आखिर कब तक हम इनकी वजह से अपने खाने का मजा किरकिरा करते रहेंगे। इनकी वजह से हमारे कितनी चीजों का नुकसान भी हो गया है और यह सब मुझसे देखा नहीं जाता। तो अगले दिन बेटे ने अपने पिता के लिए कमरे के कोने में एक पुराना मेज़ लगा दिया। अपने बूढ़े बाप से कहा कि पिताजी आप यहां पर बैठ कर खाना खाया करो तब से बूढ़ा बाप अकेले ही बैठ कर अपना भोजन करने लगा। यहां तक कि उसे खाने और पीने के लिए भी लकड़ी के बर्तन दिए गए ताकि उनके टूटने पर उनका नुकसान ना हो। और वह तीनों लोग पहले की तरह ही भोजन करने लगे। जब कभी बेटा और बहू अपने बूढ़े बाप की तरफ देखते थे तो उनकी आंखों में कुछ आंसू आ जाते थे। लेकिन फिर भी उन्होंने अपना मन नहीं बदला। वे उनकी छोटी-छोटी गलतियों के कारण उन्हें ढेर सारी बातें सुना देते थे। उनका 4 साल का बेटा यह सब कुछ बड़े ध्यान से देखता रहता था। इसलिए एक दिन खाने से पहले छोटा बेटा अपने माता-पिता के साथ जमीन पर बैठ गया और कुछ करने लगा। तभी बेटे के बाप ने पूछा कि तुम यह क्या बना रहे हो तो बच्चे ने मासूमियत के साथ जवाब दिया कि मैं आप लोगों के लिए लकड़ी का एक कटोरा बना रहा हूं। ताकि जब आप बूढ़े हो जाओ तो मैं आपको इसमें खाना दे सकूं और यह कह कर वह बच्चा अपने काम पर फिर से लग गया। इस बात पर उसके माता-पिता को बहुत गहरा असर पड़ा। उनके मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला और उनकी आंखों से आंसू बहने लगे। उन दोनों को अपनी गलती का एहसास हुआ वे दोनों बिना कुछ बोले ही समझ चुके थे कि उन्हें क्या करना है। उस रात वे अपने बूढ़े पिता को वापिस डिनर टेबल पर ले आए और उनके साथ दुर्व्यवहार नहीं किया। हमारी जिंदगी भी बिल्कुल ऐसे ही हैं हम अच्छे कर्म करें या बुरे कर्म। हमें अपने कर्मों का फल इसी जन्म में भोगना पड़ता है। इसीलिए समय रहते ही अपने बुरे कर्मों को अच्छे कर्मों में बदल दें क्योंकि अगर वक्त ने बदला तो बहुत तकलीफ होगी। *****
- कोई है?
उषा "क्या कह रही हैं आप? ऐसा भी कभी हो सकता है? आप नाम तो बताएं? मैं उड़वा दूंगी।" आवाज़ उत्तेजना से एकदम तेज हो गयी थी। भौंचक्की सी रचना के हाथ से रिसीवर छूटते-छूटते बचा। "आप यह कौन सी फिल्म के डायलॉग बोलने लगीं?" "आप मज़ाक समझ रही हैं क्या? ऐसों को ख़ूब पहचानती हूं और उनसे डील करना भी मुझे आता है। मेरे पास तगड़े सोसर्से हैं। ऐसी हरकत कर उसे जीने का कोई अधिकार नहीं है।" "बस उसे यह समझ में आना चाहिए कि एक जान चली गई। एक हंसता-खेलता परिवार बिखर गया। आगे से वह चेत जाए, बस केवल इतना ही करना है। इससे ज़्यादा हमें कुछ नहीं चाहिए।" "फिर भी आप नाम तो बताएं। आप जैसे छोड़ देनेवाले लोगों के कारण ही तो ये लोग इतने लापरवाह होते जा रहे हैं। जब तक सज़ा नहीं दी जाएगी, ये लोग नहीं समझेंगे। आख़िर आपको नाम बताने में क्या परेशानी है।" "ना.., मुझे नाम मालूम नहीं है, तो बताऊं क्या?" किसी तरह उस उद्वेलित होती महिला को समझा के शांत करने की चेष्टा की। "मत बताइए। मैं ख़ुद मालूम कर लूंगी। अस्पताल में मेरी जान-पहचान ख़ूब है।" और खटाक से फोन रखने की आवाज़ आई। रचना चुप सी बैठी रह गयी। उस हादसे को हुए अभी चार दिन हुए। नन्दन मामा का घर रचना के घर से बहुत दूर था, पर स्नेह की डोर में हर वक़्त फोन पर हंसते-बतियाते रहते। लगता था, दूसरे ही कमरे में बैठे हों। उसी बीच मामा को एस्केमिया हो गया, हाई ब्लड प्रेशर पहले से ही था। ऑफिस में तनाव ज़्यादा बढ़ता जा रहा था और लम्बे-लम्बे रास्ते तय करके ऑफिस आते-जाते थकान भी ज़्यादा रहने लगी थी। रह-रहकर दर्द उठता, छाती दबाते और चुप पड़ जाते। ऐसे में एक दिन ट्रेन से घर आते-आते पसीने में हांफते-कराहते नन्दन मामा को उनके ट्रेन के साथी ही सहारा देकर घर लाए। बदहवास सी मीता उन्हें संभालने में जुट गई और तभी घर लौटी बेटी श्रेया सामने के डॉक्टर के पास दौड़ गई। उस दिन का दिन था और परसों का दिन, जो ईसीजी निकलने शुरू हुए तब से तो जाने कितने निकलते चले गए, हिसाब ही नहीं रहा। पास ही में अच्छे कार्डियोलोजिस्ट को ढूंढ़ना, जहां आपातकालीन चिकित्सा सुविधा हो (इमरजेन्सी अटेन्ड कर सके) ऐसे अच्छे अस्पताल की खोज में दोनों बहनें श्रुति और श्रेया जुट गईं। ऐसे में श्रुति की डॉक्टर जेठानी दीदी ने बहुत साथ दिया। उनका ख़ुद का क्लीनिक दूर उपनगर में था, पर डॉक्टर की अपनी पहुंच बहुत होती है। नहीं तो अस्पताल का हाल तो यह है कि मरीज़ मरता हो, पर बेड दस दिन बाद मिलेगा। डॉक्टर महीने भर बाद मिलने का अप्वाइंटमेंट देंगे। ऐसे में डॉक्टर घर का हो, तो बड़ा सहारा हो जाता है, दूसरे डॉक्टर भी ख़्याल रखते हैं। डॉक्टर और अस्पताल ढूंढ़ते-समझते मीता, श्रुति और श्रेया ने पहला काम किया नन्दन मामा के सेल्फ रिटायरमेन्ट लेने के पीछे पड़ गईं। पहले मनुहार करके फिर झगड़ा करके कि बस बहुत हो लिया, यह दिलवा ही दिया। यह कह कर कि दिल के मरीज़ के लिए इतनी दूर ऑफिस आना-जाना, ठीक नहीं। छोटा-सा परिवार। नाज उठानेवाली पत्नी और लाड़ लड़ाने वाले बेटियां। कहीं बाप बच्चों को हथेली पर रख कर संवारता होगा, पर यहां बेटियां पिता को हथेली पर लिए हर धूप-छांव, अन्धड़ से बचाने में एक लग गयी थीं। ब्लड प्रेशर नापने की मशीन आ गयी। बेटियां नब्ज़ देखना पलक झपकने में सीख गयीं। ईसीजी पढ़ने में छोटे-मोटे डॉक्टरों को पछाड़ने लगीं। ज़रा-सी लीक से हटकर थोड़ा-सा भी ऊपर-नीचे जी होता कि घर में भगदड़ मच जाती। डॉक्टर मशीन लिए हाज़िर हो जाते। घर अस्पताल बन जाता। कुछ दिन के लिए चुपचाप सन्नाटा सा खिंचा रहता। आगे-पीछे बीवी-बच्चे पलकों का उठना-गिरना देखते रहते। तबियत सुधरते ही नन्दन मामा उस सारे दुलार को चौगुना करके फेरने लगते। श्रेया के पांव में मोच क्या आ गयी, घर सिर पर उठा लिया। दुनियाभर के तेल और ट्यूब की लाइन लग गयी। आते-जाते दोस्तों से मालिश करनेवाले का पता लगाने को कहते-कहते ख़ुद रोज़ तेल मालिश और सेंक करने लगे और ठीक करके ही चैन पाया। वे मेरे लिए हैं, मैं उनके लिए हूं। पर ऐसे संभालते-संभालते भी दो बार अस्पताल के आई.सी.यू. में जाकर लेटना पड़ा, नलियों और मशीनों से घिर कर। पर वहां भी हज़ार बार नर्सों के समझाने पर भी उनके पास तीनों में से एक बना ही रहा। बाक़ी दो दरवाज़े के बाहर पहरेदारी करती रहीं। भला जिसके घन्टे-घन्टे के बीतने का क्रम तय हो गया हो, वह लीक से हटकर चलने की हिम्मत कर कैसे सकता है? और वह भी ऐसा आदमी, जो घर की इतनी स्नेह डूबी चिन्तातुर आंखों को देखकर ख़ुद भी जी जान से लड़ने को तैयार हो गया हो। बिना नमक का उबला सा खाना, चिकनी-चुपड़ी रोटी का छूना भी दूर। सब तीज-त्योहार पर पकवानों को दूसरे के मुंह में देकर, अपना मुंह फेर लेना, वही एक मात्र जाप सा करते हुए, "वे मेरे लिए हैं मैं उनके लिए हूं।" सेल्फ रिटायरमेन्ट के लिए भी कितनी मुश्किलों से तैयार हुए थे कि श्रेया की ज़िम्मेदारी से अभी मुक्त नहीं हुआ हूं। कैसे घर बैठ जाऊं। तब श्रुति-श्रेया दोनों अड़ गयी थीं कि बेटा नहीं है, तो क्या कमानेवाली बेटियां तो हैं। सदी इक्कीसवीं में पांव रख रही है और आप अठारहवीं सदी का पांव पकड़े बैठे हैं। श्रुति घरवाली हो गयी है। अपने ही घर के ख़र्चे पूरे नहीं पड़ते, पर ब्याहा बेटा ही कौन सा साथ दे पाता है? श्रेया की नौकरी अच्छी है। पहले उसकी नौकरी देखकर लड़केवाले मुड़-मुड़कर आते थे, पर पापा की बीमारी और मां की असहायता देखकर वह टालती रही। अब कोई मुंह नहीं मोड़ता, तो वह भी नहीं देखती। महानगर में उस जैसी हज़ारों हैं अपनी नौकरी पर आती-जाती। दूसरे की ग़ुलाम तो नहीं है, कमाती है, तो अपने सबसे निकटवालों के ही हाथ में रखना होता है। कितने क़िस्से देखकर और सुन चुकी थी कि ब्याह के पीछे तो डबल नौकरी करनी पड़ती है। ऑफिस जाओ ऊपर से सास-ससुर, पति की नौकरी अलग, और फेरे लेते ही अपनी मेहनत से कमाकर लाए पैसों पर से भी ख़ुद अपना भी अधिकार पराया हो जाता है। जिन्होंने पढ़ाया, कुछ कमा सकने के लायक़ बनाया, साथ में भरपूर दहेज भी पकड़ाया, वे बेगाने हो जाते हैं। वक़्त पड़ने पर आवाज़ देने से भी मजबूर। श्रुति दीदी के सास-ससुर नहीं, पर अपनी गृहस्थी, पति और काम तो हैं। उनका ढेर सारा काम, फिर भी करती हैं। ऐसी बेड़ियां उसे नहीं डालनी, वह ज़्यादा मौज में है। कम से कम थके-हारे घर आती है, तो बेटे जैसा आराम करने को तो मिल जाता है। सुकून से लेटकर बतियाओ या टी.वी. देख लो। कभी छुट्टी में मन हुआ तो रसोई में झांक लिया। दोनों बहनों और पेन्शन के बूते पर ही नन्दन मामा मुश्किल से राजी हुए थे रिटायरमेन्ट लेने के लिए। दिवाली आ रही थी। उस रोज़ बड़े शौक़ से विभिन्न आकार के दीये ख़रीदे। श्रुति के बच्चों के लिए पटाखे, फुलझड़ी, श्रेया के लिए छोटा-सा टिफिन बॉक्स नए डिज़ाइन का, जो उसके चौड़े पर्स में आराम से बैठ सके, तब मीता के लिए भी एक साड़ी उठा ली। मीता की साड़ी शौक से गिफ्ट पैक कराई, पर घर आते-आते जीना चढ़ते ही उन्हें हल्का-सा दर्द महसूस हुआ। पहली ही मंज़िल है, इतना तो डॉक्टर ने भी ना नहीं कहा है, पर दिल है कि गाहे-बगाहे अपनी स्पीड बढ़ा देता है, सो आते ही लेट गए। घर में मीता अकेली थी। तुरंत ही उसके हाथ-पांव फूल जाते हैं, इसलिए उससे ज़्यादातर बात छिपा ली जाती है। दो मिनट पानी ग्लास लिए वह पास खड़ी रही पहले, पर दर्द की रेखा बढ़ती देख उसका अपना जी घबराने लगा। श्रेया पास ही में सर्विस करती है। डॉक्टर के साथ-साथ उसने घर में पांव रखा। डॉक्टर का मुंह और ईसीजी पर खिंचते नक्शे देखकर उसका मुंह भी सुन्न होता गया। एम्बुलेंस बुलाने के साथ ही श्रुति को फोन लगा दिया। फिर वही 'देवाजू' शुरू हुआ। लगता था ऐसा तो पहले भी हो चुका है। वैसे ही आई.सी.यू. में मशीनों के बीच नन्दन मामा का लेटना। पास में स्टूल पर एक का बैठ कर चौकीदारी करना। आई.सी.यू. में बैठने की सुविधा श्रुति की जेठानी डॉक्टर दीदी के कारण मयस्सर है। तरह-तरह के टेस्ट होते चले गए। कार्डियोग्राम भी हो गया। "स्थिति सामान्य है, परेशान होने की ज़रूरत नहीं…" सुन कर तीनों जनी उन्हें घेरे रहीं। "अरे भई, कल कमरे में शिफ्ट हो जाएंगे और दीवाली तक घर में।" डॉक्टर दीदी के आश्वासन देने पर ही तीनों के चेहरों पर खिंची तनाव की रेखा ढीली हो गई। दिवाली घर कर सकेंगे जान कर एक मीठा सा सुकून मीता के अन्दर उतर आया। तय हुआ दो दिन कमरे में रह कर फिर घर का रुख दीवाली की सुबह कर लेंगे। पर ऊपर, उस रात क्या भगवान नहीं बैठा था? अपनी जगह वह किस नौसिखिये को बैठा गया था आसन पर? नंदन मामा को बेचनी सी हो रही थी। बैठी मीता घबराकर अधसोये डॉक्टर को बुला लाई। "कोई बात नहीं है।" मरीज़ को नींद नहीं आ रही। ख़ुद को कितना तेज बुखार चढ़ा है। सो जाएंगे तो अपने को भी कुछ तो सोने को मिलेगा। सोच कर वह इंजेक्शन तैयार करने लगा। तब तक मीता घबरा कर बाहर भागी। श्रुति बाहर बेंच पर बैठी ऊंघ रही थी। मां की बदहवासी देखकर वह अन्दर लपकी। "आप कौन-सा इंजेक्शन दे रहे हैं।" पापा की ओर आते डॉक्टर को रोक कर उसने पूछा। "डॉक्टर मैं हूं कि आप?" "फिर भी!" "फिर भी क्या? कम्पोज है। हटिए काम करने दीजिए।" "पर रात में तो यह दिया था न एक।" श्रुति फिर भी जोर दे रही थी। "ओ श्रुति बेटा, मेरा पेट फूल रहा है, मुझे बड़ी बेचैनी हो रही है।" छटपटाते हुए नन्दन मामा ने श्रुति का हाथ कस कर पकड़ लिया। उसे एक ओर धक्का देकर हटाते हुए डॉक्टर ने नन्दन मामा को इन्ट्राविनस इंजेक्शन दे दिया। नन्दन मामा को मांसपेशियों को आराम देने के लिए इंजेक्शन पहले लगा था। उससे मांसपेशियां ढीली हो गयी थीं। देर रात वे उठे, बाथरूम जाना चाहा पर जा न सकें। पेट फूलने लगा तनाव से बेचैनी बढ़ने लगी। पहले भी उन्हें एक बार यह परेशानी हुई थी, तब केथेटर लगा कर सुकून पाया था। उधर रात की शिफ्ट में नये डॉक्टर ख़ुद ट्रेनिंग पर थे। कोर्स पूरा कर हाउस जॉब में थे। ना तो तजुर्बा, न देर रात तक जागने की आदत। नोंक-झोंक कर सिर को झटका देकर जगे रहने की कोशिश में नाकाम होते हुए। उधर नन्दन मामा एक बेचैनी से घिरे और उसके बाद सब फेल होता चला गया। नन्दन मामा की छटपटाहट और बढ़ी। गो-गो करते वे हलाल होते बकरे की तरह रंभा रहे थे। घबरा कर मीता उनके एक ओर हाथ कस कर पकड़े खड़ी थी कि उसके हाथ के ढीले होते ही वे कहीं खिसक न जाएं और दूसरी ओर श्रेया व श्रुति डॉक्टर को आवाज़ें दे रही थीं। डॉक्टर घबरा कर उनके केस की रिपोर्ट ढूंढ़ रहा था। उसे क्या देना, क्या नहीं देना चाहिए था, अब जानने के लिए। बता गयीं वे रोते-रोते इंजेक्शन की कहानी। किस तरह पहले एक इंजेक्शन लगा था नींद का, फिर इन्ट्राविनस का लगा दिया, जो सारे नसों को सुलाता हुआ, दौड़ता हुआ हार्ट तक पहुंचा, और गो-गो करते छटपटाते मामा को सदा के लिए सुला गया। छटपटाहट शान्त हो गई। धनतेरस थी। घर में धन, नया सामान लाते-नन्दन मामा आए घर वापस… औरों के कंधों पर आंख भींचे धरती पर लिटा दिए गए। डॉक्टर दीदी आई थीं। पैरों के पास चुपचाप रोती रहीं। श्रेया व श्रुति पर हाथ फेरती। क्या जवाब दे मीता को, वो तो रूम में शिफ्ट होने की कह गयी थीं, पर कौन से रूम में गए वे। आंख चुराती-सी बैठी थीं। आंसुओं के तूफ़ान में जैसे ज्वालामुखी का मुंह खुल गया हो। जिनकी हर नब्ज़ को उंगली से थाम ब्लड प्रेशर को जांचते-संभालते रहे थे, वे नौसिखिए के हाथ यूं ही चले गए। चले गए या मारे गए। इसे तो मारना ही कहते हैं। ऐसे कोई मार देता, तो पुलिस केस होगा, सत्ता मिलेगी, पर यहां अस्पताल में ऐसे हुआ तो? बस, एक डॉक्टर के हाथ से हुआ। सज़ा का हक़दार नहीं है क्या वह? विलाप का वेग चौगुना हो गया। हर आए-गए मुंह पर एक ही बात… चले जाते घर पर होते, बिना इलाज यहां सब कराके अफ़सोस रहता कि हाय करा नहीं अस्पताल में ले गए। यमदूत क्या ऐसे को ही कहते हैं! रचना मामाजी की प्यारी भांजी थी। हर तीज-त्योहार, सुख-दुख में हाज़िरी देने चली आती। मामी का मूक रूदन श्रुति-श्रेया का छटपटाना उसकी आंखों के आगे गुज़र रहा था। अपनी हर सांस में वह उनके दुख को जी रही थी। उसी तिलमिलाहट में वह सहेली को बता बैठी मामा का जाना और ऐसे जाना। उसका रिएक्शन देख कर लगा हां, दुनिया है अभी। दूसरे के दुख-दर्द में लोग अपना समझते हैं, और अभी भी लोगों में अन्याय के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने का ताव है। भूचाल खड़ा करने की हिम्मत बची है। पर हे भगवान! क्या ग़ज़ब की औरत है। ऐसा रिएक्शन, "उड़ा दूंगी।" वह भी औरत के मुंह से, लगता था जैसे फूलन देवी बोल रही हो। अपनी उपमा पर झल्लाहट हो आई उसे। होता है कुछ लोग रिएक्ट अलग तरह से करते हैं, पर चलो, हमारे दुख में कोई तो शरीक है। साथ दे रहा है। अभी भी सब मरा नहीं है। एक शांति की सांस अंदर आई। चौथे पर पंडित आए, हवन हुआ। सब घर के जुड़े, शहर और बाहर से आए भी और सब चले गए। उनकी आत्मा को शांति और रह गए लोगों को धैर्य मिले की प्रार्थना करते हुए। पर धैर्य कैसे मिले। कलेजे में तो जब से कारण पता लगा, हुक सी उठ रही है और सब आए हुए लोग भी उसे हवा देते जा रहे हैं। श्रुति ने हवन से निबटते अगले दिन ही बाहर से आए जीतू भाई को ऐथॉरिटी लेटर देकर भेज दिया, अस्पताल से सारी रिपोर्ट लाने। उसकी तो सभी रिपोर्ट देखी, क्या रटी पड़ी थी। एक बार हाथ में यह सब रिपोर्ट आ जाए और डॉक्टर दीदी तो साथ में हैं ही फिर कन्ज्यूमर कोर्ट खटखटाना तो है। अपने तो चले गए, पर औरों के तो ना जाएं ऐसी लापरवाही से। आवाज़ उठाने पर ही डॉक्टर व अस्पताल चेतेंगे, नहीं तो यह हादसे तो बढ़ते ही जाएंगे। इन्हें रोक सकें यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी पापा के प्रति। जीतू भाई ने रिपोर्ट लाकर हाथ में दे दी। सब पढ़ी-पढ़ाई है क्या देखनी। मन में आया, फिर भी फ़ालतू बैठी यूं ही लिफ़ाफ़े का मुंह खोल डाला। ब्लड टेस्ट वही है। शुगर ठीक है। पर यह… यह क्या… यह ईसीजी। यह तो पापा का नहीं है। इतनी ऊपर-नीची कूदती-फूदती लाइनें उसमें नहीं थी। पापा के इतने ईसीजी उसने पढ़े हैं कि उससे रचे-बसे, छिपते-दिखते सभी वॉल्व वह पहचान जाती है झट से। चौंक कर उसने इको कार्डियोग्राम देखा। "अरे, यह… यह सब क्या लिखा है।" घबरा कर श्रुति ने रिपोर्ट्स श्रेया की ओर बढ़ाई और दूसरी रिपोर्ट उठाई। 'डेथ बाई हार्ट अटैक।' श्रेया का सिर घूमने लगा। लगा चक्कर आकर वह गिर जाएगी। सहारे के लिए उसने सिर कुर्सी की पीठ पर टिका दिया। तेज़ तीखी पर परिचित आवाज़ सुनकर चौंक कर उसने पीछे मुड़ कर देखा। कमरे में घुसती डॉक्टर दीदी मम्मी पर बरस रही थीं, "आपसे किसने कहा इंजेक्शन ग़लत लगा? आपको है समझ इतनी? सब इलाज ठीक हुआ। वे तो हार्ट पेशेन्ट थे। हार्ट अटैक तेज़ पड़ा उसी में चले गए। मैं कहती हूं ना?" पास खड़ी रचना व श्रुति हैरान सी उनका मुख देखती रह गईं। जब डॉक्टर दीदी ने नन्दन मामा के घर से उठने पर बात बताई थी, तब वह क्या, उसके पास बैठी कितने नाते-रिश्तेदारों ने यह सुना था और ज़ोर डाला था, अस्पताल के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने को। दुख के आवेग में कह डाले सच को, अब यथार्थ की धरती पर खड़े हो, अपने क्लीनिक पर आंच न आ जाए। उस अस्पताल और डॉक्टर के ख़िलाफ़ कुछ बोल देने के डर से वे ऐसी मुकर गईं। श्रेया ने डबडबाई आंसू भरी आंखों से मुड़कर देखा। जीतू भाई के चेहरे पर कैसा भाव था। एक अफ़सोस सा, जो अंकलजी के जाने पर शायद कम था उनकी मौत को सनसनीखेज बनाने पर ज़्यादा। तड़प कर रचना ने कहा, "हां, सच में उड़ा दिया। एक डॉक्टर क्या, उसने तो पूरी की पूरी रिपोर्ट ही अस्पताल से उड़ा दी। ज़रूर वह डॉक्टर या अस्पताल की मैनेजिंग कमेटी का कोई उसका सगेवाला रहा होगा। तभी उन्हें पहले से आगाह करके उसने यह उड़ा दी।" मीता, श्रुति और श्रेया ने सिसक कर सोचा, 'आज सच मर नहीं दफ़न भी हो गया है। और अस्पताल के गलियारे में नहीं मुख्य आई.सी.यू. में एक बूचर को खुला छोड़ दिया गया है। कोई है, जो उसे टोकेगा? रोकेगा? *****
- सच्चा उपहार
आनंद किशोर एक बहुत ही बड़े उद्योगपति का पुत्र कॉलेज में अंतिम वर्ष की परीक्षा की तैयारी में लगा रहता है। तो उसके पिता उसकी परीक्षा के विषय में पूछते है तो वो जवाब में कहता है कि हो सकता है कॉलेज में अव्वल आऊँ। अगर मैं अव्वल आया तो मुझे वो महंगी वाली कार ला दोगे जो मुझे बहुत पसन्द है। तो पिता खुश होकर कहते हैं क्यों नहीं अवश्य ला दूंगा। ये तो उनके लिए आसान था। उनके पास पैसो की कोई कमी नहीं थी। जब पुत्र ने सुना तो वो दो गुने उत्साह से पढाई में लग गया। रोज कॉलेज आते जाते वो शो रुम में रखी कार को निहारता और मन ही मन कल्पना करता कि वह अपनी मनपसंद कार चला रहा है। दिन बीतते गए और परीक्षा खत्म हुई। परिणाम आया वो कॉलेज में अव्वल आया उसने कॉलेज से ही पिता को फोन लगाकर बताया कि वे उसका इनाम कार तैयार रखे मैं घर आ रहा हूं। घर आते आते वो ख्यालों में गाडी को घर के आँगन में खड़ा देख रहा था। जैसे ही घर पंहुचा उसे वहाँ कोई कार नही दिखी। वो बुझे मन से पिता के कमरे में दाखिल हुआ। उसे देखते ही पिता ने गले लगाकर बधाई दी और उसके हाथ में कागज में लिपटी एक वस्तु थमाई और कहा लो यह तुम्हारा गिफ्ट। पुत्र ने बहुत ही अनमने दिल से गिफ्ट हाथ में लिया और अपने कमरे में चला गया। मन ही मन पिता को कोसते हुए उसने कागज खोल कर देखा उसमे सोने के कवर में रामायण दिखी ये देखकर अपने पिता पर बहुत गुस्सा आया। लेकिन उसने अपने गुस्से को संयमित कर एक चिठ्ठी अपने पिता के नाम लिखी कि पिता जी आपने मेरी कार गिफ्ट न देकर ये रामायण दी शायद इसके पीछे आपका कोई अच्छा राज छिपा होगा। लेकिन मैं यह घर छोड़ कर जा रहा हूँ और तब तक वापस नही आऊंगा जब तक मैं बहुत पैसा ना कमा लू। और चिठ्ठी रामायण के साथ पिता के कमरे में रख कर घर छोड कर चला गया। समय बीतता गया.. पुत्र होशियार था और होनहार भी। जल्दी ही बहुत धनवान बन गया। शादी की और शान से अपना जीवन जीने लगा। कभी-कभी उसे अपने पिता की याद आ जाती तो उसकी चाहत पर पिता से गिफ्ट ना पाने की खीज हावी हो जाती, वो सोचता माँ के जाने के बाद मेरे सिवा उनका कौन था। इतना पैसा रहने के बाद भी मेरी छोटी सी इच्छा भी पूरी नहीं की। यह सोचकर वो पिता से मिलने से कतराता था। एक दिन उसे अपने पिता की बहुत याद आने लगी। उसने सोचा क्या छोटी सी बात को लेकर अपने पिता से नाराज हुआ अच्छा नहीं हुआ। ये सोचकर उसने पिता को फोन लगाया बहुत दिनों बाद पिता से बात कर रहा हूँ। ये सोच धड़कते दिल से रिसीवर थामे खड़ा रहा। तभी सामने से पिता के नौकर ने फ़ोन उठाया और उसे बताया की मालिक तो दस दिन पहले स्वर्ग सिधार गए और अंत तक तुम्हें याद करते रहे और रोते हुए चल बसे। जाते जाते कह गए कि मेरे बेटे का फोन आया तो उसे कहना कि आकर अपना व्यवसाय सम्भाल ले। तुम्हारा कोई पता नही होने से तुम्हें सूचना नहीं दे पाये। यह जानकर पुत्र को गहरा दुःख हुआ और दुखी मन से अपने पिता के घर रवाना हुआ। घर पहुँच कर पिता के कमरे जाकर उनकी तस्वीर के सामने रोते हुए रुंधे गले से उसने पिता का दिया हुआ गिफ्ट रामायण को उठाकर माथे पर लगाया और उसे खोलकर देखा। पहले पन्ने पर पिता द्वारा लिखे वाक्य पढ़ा जिसमें लिखा था "मेरे प्यारे पुत्र, तुम दिन दुनी रात चौगुनी तरक्की करो और साथ ही साथ मैं तुम्हें कुछ अच्छे संस्कार दे पाऊं.. ये सोचकर ये रामायण दे रहा हूँ।", पढ़ते वक्त उस रामायण से एक लिफाफा सरक कर नीचे गिरा जिसमें उसी गाड़ी की चाबी और नगद भुगतान वाला बिल रखा हुआ था। ये देखकर उस पुत्र को बहुत दुख हुआ और धड़ाम से जमींन पर गिर रोने लगा। हम हमारा मनचाहा उपहार हमारी पैकिंग में ना पाकर उसे अनजाने में खो देते हैं। पिता तो ठीक है। ईश्वर भी हमें अपार गिफ्ट देते हैं, लेकिन हम अज्ञानी हमारे मन पसन्द पैकिंग में ना देखकर, पा कर भी खो देते हैं। हमें अपने माता पिता के प्रेम से दिये ऐसे अनगिनत उपहारों का प्रेम का सम्मान करना चाहिए और उनका धन्यवाद करना चाहिये। *****
- घर का भोजन
सरला सिंह एक स्त्री के पास एक बड़ा सा घर था, बड़े-बड़े १२ कमरों वाला। वह स्त्री अकेली रहती थी, तो उसने सोचा क्यों न वह उसमें नवयुवकों को पेइंग गेस्ट के रूप में रख लूं। आमदनी भी होगी एवं मेरा अकेलापन भी दूर हो जाएगा। उसने हर कमरे में दो-दो पलंग बिछवा कर शेष सारी सुविधाएं जुटा लीं। उसे भोजन बनाने और खिलाने का भी बहुत शौक था। सुबह सब को नाश्ता करवाती और दोपहर के लिए भी पैकेट बना कर देती। रात को तो खैर सबको गर्मागर्म भोजन मिलता ही था। और वह स्त्री यह सब पूरा महीना बिना कोई छुट्टी लिए प्रेम पूर्वक करती थी। छह माह बीत गए। एक दिन उसकी बहुत पुरानी सखी उससे मिलने आई। बातचीत में उस स्त्री ने अपनी सहेली को बताया कि वह अब महीने में केवल २८ दिन ही भोजन बनाती है। बाकी के दो या तीन दिन सब को अपने भोजन की व्यवस्था स्वयं करनी होती है। सहेली को कुछ आश्चर्य हुआ और उसने पूछा, “ऐसा क्यों? पहले तो तुम इन्हें पूरा महीना प्यार से भोजन करवाती थी।" स्त्री ने कहा, “मैं पैसे भी अब २८ दिन के ही लेती हूं।” “पर यह लोग तो तुम्हें पूरे महीने के देने को तैयार है न! अब यह बेचारे युवक दो दिन क्या खाते होंगे?” “बात पैसों की नहीं है।” “तो फिर?” “मैं पूरे मन से खाना बनाती थी और खिलाती भी प्यार से थी, परन्तु मुझे हर समय शिकायतें ही सुनने को मिलती। हर दिन कोई न कोई कमी निकाल ही लेते। कभी "नमक कम है" और कभी "रोटी ठंडी है” कह कर मुझे सुनाते। परन्तु जब से उन्हें दो दिन भोजन ढंग का नहीं मिलता और बाहर पैसे भी अधिक देने पड़ते हैं, तो अब वह मेरे बनाए भोजन की कद्र करने लगे हैं और बिना त्रुटि निकाले खाते हैं। मैं अपनी ग़लती सुधारने को तैयार हूं, परंतु बिना बात नुक़्ताचीनी सुनने को नहीं।” *****
- जलील
निर्मला ठाकुर बच्चों को स्कूल भेज, पतिदेव को ऑफिस विदा कर, घर का काम निपटाकर, नहा-धोकर एक कप चाय लेकर लॉन में आ बैठी। मार्च की सुबह की कुनकुनाती धूप बड़ी भली लग रही थी। पिंकू के लिए स्वेटर बुन रही थी। उसका गोला भी हाथ में था। इतने में पड़ोस की नीता आती दिखाई दी। "हम आ जाएं भाभी?" बोलती हुई वह गेट खोलकर अंदर आ गई। मैं भी उठने का उपक्रम करते हुए बोली, "अरे आओ नीता।" नीता को मालूम है कि इस वक़्त मैं खाली होती हूं, इसीलिए जब भी कभी आती है, इसी वक़्त आती है। "नीता, तुम बैठो। मैं एक कप चाय बना लाऊं।" कहते हुए उठ ही रही थी कि उसने हाथ पकड़कर बैठा लिया, बोली, "भाभी, बिल्कुल इच्छा नहीं है।" नीता बहुत बेचैन सी लग रही थी। मैं भी उसकी इस बैचेनी का कारण पूछे बिना नहीं रह सकी। वैसे तो जब से वो विवाह के बाद आई है, मुझसे इतनी घुलमिल गई है कि हम दोनों ही अपने मन की बातें एक-दूसरे से करती रहती हैं। पड़ोस में ही अग्रवाल आंटी रहती हैं, उनके बच्चे भी मुझसे काफ़ी खुले हुए हैं, ख़ासतौर से छोटा वाला आशु। जब आशु का विवाह हुआ, तो आंटी ने काजल डालने की रस्म मुझसे ही करवाई और बड़ी भाभी होने का नेग भी दिया। मुंह दिखाई की रस्म के दिन जब मैंने नीता के हाथ में अपना तोहफ़ा रखा तो आंटी के कहने पर उसने मेरे पैर भी छुए, तब मैंने ही कहा था, "आंटी, प्लीज़ इसे मैं अपने पैर नहीं छूने दूंगी, इसे तो गले से लगाऊंगी। मुझे तो इसे देखकर अपनी छोटी बहन की याद आ गई।" उस दिन के बाद से हमारे बीच एक अजीब सा रिश्ता बन गया। कहती तो वो मुझे भाभी थी, पर मानती बड़ी बहन की तरह थी। शुरू-शुरू में नए घर-परिवार में सामंजस्य बैठाने में तकलीफ़ आती है, मैं भी गुज़र चुकी थी उस दौर से। अतः मैं हर बात की सीख छोटी बहन के नाते से उसे देती। धीरे-धीरे वह घर में घुलमिल गई। हमारे रिश्ते और प्रगाढ़ होते चले गए। बड़ी बहुएं अपने-अपने घर जा चुकी थीं, क्योंकि दोनों बड़े भैया बाहर नौकरी करते थे। आशु मां के साथ रहता था, अतः नीता को ही घर संभालना था। नीता इस बीच प्यारी-सी बेटी की मां बन गई। अब तो वह घर-परिवार में व्यस्त हो गई। फिर भी समय निकालकर कभी-कभी आ जाती। अग्रवाल आंटी और नीता दोनों में काफ़ी पटती थी, अतः घर का वातावरण सौहार्दपूर्ण रहता था। नीता को देखकर कोई कह नहीं सकता था कि वह एक बच्चे की मां है। गोरा रंग, सुतवां नाक, बड़ी-बड़ी बोलती सी आंखें, घने काले बाल, अच्छा क़द, कुल मिलाकर ऐसा लगता मानो अप्सरा ही पृथ्वी पर उतर आई हो। मैं तो आशु से कभी-कभी मज़ाक भी करती, "तेरे जैसे लंगूर को यह हूर की परी कैसे मिल गई?" इस पर वह, "भाभी आप भी…" कहकर रह जाता। बेटी भी मां पर गई थी, बिल्कुल गुड़िया-सी। "भाभी, आज हम काफ़ी तनाव में हैं, पर कैसे कहें सारी बातें, समझ नहीं आ रहा, आप भी न जाने क्या सोचेंगी सुनकर हमारे बारे में।" "अरे पगली, ऐसी भी क्या बात हो गई? क्या आशु से लड़ाई हो गई या आंटी से कुछ कहासुनी हो गई?" "नहीं भाभी! ऐसी कोई बात नहीं है। भाभी, आप क़सम खाइए, किसी से कुछ नहीं बताएंगी, यहां तक कि भाई साहब से भी नहीं।" "लो, तुम्हारी कसम खाती हूं। अब तो बोलो, ऐसी क्या बात हो गई?" मेरा यह कहना था कि उसका रोना शुरू हो गया। मैं स्तब्ध रह गई, ऐसी क्या बात हो गई? अभी तक कभी मैंने उसे इतना बेहाल नहीं देखा था। मेरे चुप कराने पर, सांत्वना देने पर उसने जो कुछ बताया, चुपचाप सुनती रही मैं। "भाभी। बात हमारी शादी के पहले की है। हम गर्मी की छुट्टियों में अक्सर मम्मी के साथ अपनी नानी के यहां जाया करते थे। हम भाई-बहन, हमारे मामाओं के बच्चे, सब हमउम्र होने के कारण आपस में काफ़ी घुलमिल गए थे। हमारे मंझले मामाजी का बेटा तुषार उम्र में हमसे साल भर बड़ा है। धीरे-धीरे हमारी दोस्ती गहरी होती चली गई। शुरू-शुरू में हमने विशेष ध्यान नहीं दिया कि वो हमसे कुछ ज़्यादा ही खुला हुआ क्यों है, लेकिन बाद में आभास हुआ कि उसके मन में हमारे लिए कुछ और ही भावना थी। उसका व्यक्तित्व इतना आकर्षक कि हम भी उसके प्रति आकर्षित होते चले गए। पिक्चर जाना, घूमना-फिरना, घंटों बातें करना, ये सब हमें और क़रीब लाता गया। उम्र के उस मोड़ पर भावनाओं की रौ में बहकर हमने ऊंच-नीच का ख़्याल नहीं किया। हमारी नानी कभी-कभी हमारी मम्मी से कहती भी थीं कि इस तरह इनका ज़्यादा मेलजोल ठीक नहीं। तब मम्मी कहती, "मां, आप अब पुराने ज़माने की हो गई हो। आजकल के बच्चे अपने हमउम्र भाई-बहनों के साथ दोस्त सा व्यवहार करते हैं। आपकी आशंका निर्मूल है।" इस पर नानी भी चुप हो जातीं, काश! उस समय नानी की बातों पर मम्मी ने ध्यान दिया होता। उम्र के उस नाज़ुक मोड़ पर जो रिश्ते बने, उनकी नैतिकता का आभास हमें तब हुआ, जब तुषार हमारे लौट जाने पर भी हमें पत्र लिखता, घंटों फोन पर अपनी भावनाओं का इज़हार करता। हमारी शादी पक्की हो जाने पर उसके आक्रोश भरे पत्र आने लगे। हालांकि उसकी शादी हमसे पहले ही हो गई थी और वो दो बच्चों का पिता भी है, पर हमारी तरफ़ उसका आकर्षण बना रहा। हमने उसे पत्र लिखने, फोन करने के लिए मना किया, तो वो हमें ही दोषी ठहराने लगा कि हमने उसकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है। भाभी, हम मानते हैं कि ग़लती हमारी भी थी, जो हमने उसको अपनी ओर आकर्षित होते देखकर भी ख़ुद सचेत होने की बजाय उसके आकर्षण में बह गए। हद तो यह है भाभी कि वो अब हमारे यहां भी फोन करने लगा है। हमने उसे फोन करने से मना किया, तो उल्टी-सीधी बातें करने लगा। अब तो हमारी हालत यह हो गई है कि अपने किए पर ग्लानि तो होती ही है, साथ ही यह डर भी लगा रहता है कि आशु और मम्मीजी को पता चलेगा तो क्या होगा? भाभी, हम तो शर्म से डूबकर मर ही जाएंगे। आशु इतने अच्छे हैं कि हमने उनके साथ ऐसा विश्वासघात किया, यह सोचकर ही हम बहुत शर्मिन्दगी महसूस करते हैं। अब कल ही की बात है। तुषार का रात को फोन आया था। फिर वही रटी-रटाई बातें कह रहा था। इस पर हमने उसे बुरी तरह डांट दिया कि क्या तुमको ऐसी बातें करते शर्म नहीं आती? तुम्हारी बीवी है, बच्चे हैं, मैं भी एक बच्चे की मां हूं, क्या अब यह तुम्हें शोभा देता है? आगे फोन किया, तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। इस पर वह बेशर्मी से बोला, "जरूर फोन करूंगा। एक बार नहीं, बार-बार करूंगा बोलो, क्या बिगाड़ लोगी मेरा?" यह तो गनीमत थी भाभी कि उस वक़्त तक ये ऑफिस से लौटे नहीं थे और मम्मीजी भी सो चुकी थीं। अब आप ही कोई रास्ता बताइए, हमें तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा।" और फिर वह सिसक-सिसक कर रो पड़ी। मैंने भी दुनिया देखी है, इतना लिखती-पढ़ती हूं, उसकी मनोव्यथा सुनकर समस्या का क्या निदान हो, यह सोचने लग गई। परेशान तो मैं भी हो उठी थी। नहीं चाहती थी कि कोई ऐसी घटना हो, जिससे दो परिवार उजड़ें। नीता तो रो-रो कर बेहाल हो रही थी और मैं असमंजस की स्थिति में थी। उसे दिलासा दिया कि कोई-न-कोई उपाय ज़रूर निकल आएगा। चूंकि ग़लती नीता की भी थी, अतः मामला ज़्यादा उलझ गया था। अक्सर हम देखते हैं कि उम्र के उस नाजुक मोड़ पर जरा-सा भी पांव फिसला नहीं कि गर्त में धकेल देता है। पर उस समय अच्छे-बुरे की समझ किसे होती है? बड़े-बूढ़े कुछ दख़लअंदाज़ी करते हैं, तो उन्हें दक़ियानूसी या उम्र का फासला कहकर, अनजाने ही किशोर वर्ग ऐसी ग़लतियां कर बैठता है, जिसका नतीज़ा कभी-कभी बहुत भयावह हो सकता है। नीता तो पूरी बात बताकर चली गई, पर मेरा मन बहुत असहज हो उठा। सोचती रही कि इस समस्या का क्या निराकरण हो? पर कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। कहते हैं ना कि भगवान सारे दरवाज़े एक साथ बंद नहीं करता, एक-न-एक दरवाज़ा तो खुला छोड़ ही देता है। हर भूल को सुधारने के लिए रास्ता भी वही सुझाता है। हुआ यूं कि ऑफिस के काम से आशु को छह-सात दिनों के लिए टूर पर जाना था। पर सिर्फ़ आशु के जाने से रास्ता निकल नहीं रहा था। इसी बीच खुदा के करम से अग्रवाल आंटी के सत्संग की स्त्रियां हरिद्वार जा रही थीं। आंटी की भी जाने की इच्छा थी, पर नीता अकेली रह जाएगी, यह सोचकर वह प्रोग्राम नहीं बना रही थीं। तब मौक़े का फ़ायदा उठाने के लिए मैंने आंटी को दिलासा दिया कि नीता की देखरेख मैं कर लूंगी। आंटी को मुझ पर पूरा विश्वास था, अतः उन्होंने निश्चिंत होकर प्रोग्राम बना लिया। आशु और आंटी के जाने के बाद रात को सोने के लिए मैं उसके घर जाने लगी। पहली रात शांति से गुज़री। तुषार का फोन आने पर क्या करना था, यह हमने पहले ही सोच लिया था। भगवान ने हमारी जल्दी ही सुन ली। दूसरी रात तुषार का फोन आया, तो नीता ने ही फोन उठाया। हालचाल पूछने के बाद कहा, "तुषार, मम्मीजी यानी मेरी सासूजी तुमसे कुछ बात करना चाहती हैं।" इस पर वह हकलाते हुए बोला, "क्यों? आंटीजी को मुझसे क्या बात करनी है?" वह आगे कुछ बोल पाता, इससे पहले ही मैंने रिसीवर ले लिया। मेरी आवाज़ सुनते ही वह घबरा गया। मैंने कहा, "बेटा, मैं नीता की सास ही नहीं, उसकी मां भी हूं। और वह भी मेरी बहू नहीं, बेटी है। उसने तुम्हारे बारे में मुझे सब कुछ बता दिया है। अब ज़रा अपनी पत्नी को फोन देना, उसको भी तुम्हारी जलील हरकतों के बारे में बता दूं।" इस पर वह माफ़ी मांगने लगा, कहने लगा, "आंटी, मैं क़सम खाता हूं, आगे से नीता को परेशान नहीं करूंगा, मेरी पत्नी को पता चल गया, तो हंगामा खड़ा हो जाएगा। वैसे ही वह बहुत शक्की स्वभाव की है। मेरी गृहस्थी उजड़ जाएगी। प्लीज़ आंटी, ऐसा मत करना, प्लीज़।" मैंने धमकाते हुए कहा, "आगे कभी तुमने नीता को तंग करने की कोशिश भी की, तो उसका अंजाम बहुत बुरा होगा।" और मैंने फोन रख दिया। नीता सारी बातें सुन रही थी। अपनी समस्या का यूं समाधान होते देख ख़ुशी के मारे रो पड़ी और मेरे गले लग गई। तब मैंने ही उसको प्यार से कहा, "पगली, दुख में भी रोती है और ख़ुशी में भी। जब तक ये तेरी बड़ी बहन कम भाभी तेरे साथ है, किसी दुख की छाया भी तुझ पर नहीं पड़ने दूंगी। अरे! यह तो अब ज़िंदगीभर तुमसे डरता रहेगा। ऐसे लोगों से निबटने का तरीक़ा आना चाहिए। ज़िंदगी में भूल किससे नहीं होती, पर अपनी भूल का एहसास समय रहते ही कर लो, तो नौबत यहां तक नहीं पहुंचती।" उस रात हम काफ़ी देर तक बातें करते रहे। नीता बार-बार मेरा शुक्रिया अदा कर रही थी। इतने दिनों के मानसिक तनाव के बाद अब वह काफ़ी सुकून का अनुभव कर रही थी। मम्मीजी और आशु के लौट आने के दिन क़रीब आ रहे थे। मुझे भी ख़ुशी थी कि समय पर ही सारी समस्याओं का अंत हो गया। इस घटना के बाद से नीता और मैं और क़रीब आ गए। आज नीता दो प्यारे बच्चों की मां है। ख़ुशहाल गृहस्थ जीवन व्यतीत कर रही है। नीता की सुखी गृहस्थी देखकर संतोष होता है। कभी-कभी विचार आता है कि न जाने ऐसे कितने तुषार पैदा होते रहेंगे, जिनके चंगुल में नीता जैसी भोली-भाली बालिकाएं फंस जाती हैं। ऐसी स्थिति में यह फ़र्ज़ है हम बड़ों का कि अपने बच्चों का सही मार्गदर्शन करें। जीवन की ऊंच-नीच समझाएं, रिश्तों के नैतिक मूल्यों का बोध कराएं। मेरी बेटी भी बड़ी हो रही है और मैं काफ़ी सचेत रहती हूं। मेरी टोकाटाकी की आदत से कभी-कभी वह कह उठती है, "जेनरेशन गैप मम्मी, जेनरेशन गैप।" पर जीवन के अनुभवों से जो दिखा है, वही संस्कार अपनी बेटी में डालने की कोशिश करती हूं। चाहती हूं कि उसे सही दिशा, ज्ञान और सही मार्गदर्शन मिले, ताकि वह जीवन के मूल्यों का सही विश्लेषण कर सके और वही आगे आनेवाली पीढ़ी को भी विरासत में दे सके। *****











