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- वादा
रश्मि भारद्वाज उस दिन बारिश हो रही थी। रोहन अपनी खिड़की से बाहर देख रहा था। मन ही मन सोच रहा था, "आज कॉलेज जाने का मन नहीं है।" पर माँ का डाँटा हुआ नाश्ता खाकर वह निकल पड़ा। बस स्टॉप पर भीड़ थी। अचानक उसकी नज़र एक लड़की पर पड़ी। सफ़ेद सलवार-कुर्ती, काले बालों में गुलाबी रिबन... वह किसी परी से कम नहीं लग रही थी। वह उससे आँखें मिलाते ही मुस्कुरा दी। रोहन का दिल धक से रह गया। दो हफ़्ते बाद, कॉलेज के कैंटीन में वही लड़की उसके सामने बैठी थी। नाम था प्रिया। धीरे-धीरे दोनों में दोस्ती हो गई। रोहन को उसकी हँसी पसंद थी, और प्रिया को उसकी शर्मीली चुप्पी। एक दिन, प्रिया ने पूछा, "तुम्हारे सपने क्या हैं?" रोहन ने जवाब दिया, "मेरा सपना... तुम्हारे सपनों को पूरा करना है।" प्रिया की आँखें चमक उठीं। पर जिंदगी आसान नहीं थी। प्रिया के पिता का ट्रांसफर हो गया। विदाई की रात, रोहन ने उसे एक चिट्ठी दी, जिसमें लिखा था: "तुम्हारी याद बिना, हर पल अधूरा है। मुझे यकीन है, हम फिर मिलेंगे।" प्रिया ने आँसूओं के बीच वादा किया, "मैं तुम्हें कभी नहीं भूलूँगी।" साल बीत गए। रोहन एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर बन गया, पर उसका दिल हमेशा उस पार्क में अटका रहा जहाँ प्रिया से पहली मुलाकात हुई थी। एक शाम, वहाँ बैठे-बैठे उसने फेसबुक खोला और अचानक एक नोटिफिकेशन आया। "प्रिया शर्मा ने आपको मैसेज भेजा है।" उसका हाथ काँप गया। मैसेज में लिखा था: "क्या तुम्हारा वादा अब भी कायम है?" अगले दिन, वही पार्क। सूरज ढल रहा था। दूर से प्रिया आती दिखी, उसी सलवार-कुर्ती में। रोहन ने उसकी आँखों में वही चमक देखी। बिना कुछ कहे, दोनों एक-दूसरे से लिपट गए। प्रिया ने कहा, "पापा ने मेरी शादी तय कर दी थी... पर मैंने सब कुछ बता दिया। मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती।" रोहन ने उसके हाथ थामे और कहा, "अब कोई हमें अलग नहीं करेगा।" उस रात, बारिश फिर से शुरू हो गई... पर इस बार, यह बारिश उनके नए सफ़र की गवाह बनी। *****
- पहली नजर का प्यार
नीरज मिश्रा हर रोज की तरह आज की सुबह भी सामान्य-सी हुई थी। परदे के पीछे से झांकती सूरज की किरणें नीरज को सोने नही दे रही थी। नीरज एक बड़े हॉस्पिटल का मालिक था साथ ही डॉक्टर भी। क्योंकि जल्दी उसको हॉस्पिटल जाना होता था और देर रात कहीं जाकर घर आने का मौका मिलता था। न खाने का पता न सोने का बस अल्हड़ सी ज़िंदगी चल रही थी नीरज की। जिसमें नीरज खुश भी था। सुबह उठते ही होम थेटर चला देता, ताकि लगे घर में उसके अलावा भी और कोई है। रोमांटिक गाने चलते रहते और वह उसके बजते रहने से काम भी करता रहता है और उसका मन भी लगा रहता है। नीरज को अपना नाश्ता स्वयं ही बनाना अच्छा लगता था। जिसमें डबलरोटी और दूध का ग्लास, बस, हो गया नाश्ता। दोपहर का भोजन वह अस्पताल की कैंटीन में कर लेता और रात का, काम वाली बाई आकर बना जाती थी। नीरज बहुत साधारण जीवन जीता था। किडनी रोग विशेषज्ञ डॉ. नीरज वर्मा अपने काम में पूरी तरह समर्पित रहते, अपने क्षेत्र में नाम चलता था। वर्षों से इस प्राइवेट अस्पताल को चला रहे थे। शहर में तो नाम था ही साथ ही आसपास के शहरों से भी मरीज़ कंसल्टेंट के लिए आते थे। आज दिन भर बहुत मरीज रहे। डॉ नीरज बहुत थक चुके थे, बस अब सबको बोल दिया आज सभी रेस्ट कर लो। तभी “बाहर एक आख़िरी मरीज़ है” नर्स ने बताया और एक महिला को व्हीलचेयर पर भीतर लाया गया। डॉक्टर ने उसे परीक्षण मेज़ पर लिटाने को कहा। जब मरीज के पास पहुँचे तो चेहरा कुछ परिचित सा लगा, पर जिसका ध्यान आया, यह उसकी परछाई मात्र थी। ओपीडी स्लिप पर नाम देखा- गुंजन ही है। बीमारी से अशक्त शरीर, मुरझाया चेहरा, बेहोश तो नहीं, परंतु पूर्णत: सजग भी नहीं। साथ में देखभाल करनेवाली आया और घर का पुराना नौकर रामु। साहब अपने काम से विदेश गए हुए हैं ऐसा बताया। गुंजन की हालत नाज़ुक थी और उसे तुरंत भर्ती करना आवश्यक था और उतना ही आवश्यक था, इस प्राइवेट अस्पताल में अग्रिम राशि जमा करवाना। लेकिन नौकर के पास इतना पैसा कहां से आता? नीरज ने अपनी ओर से पैसे जमा करवा दिया और गुंजन का अस्पताल में दाख़िल करवा दिया, ताकि फ़ौरन इलाज शुरू हो सके। जांच हुई तो पता चला किडनी का कृटनाइन बढ़ा हुआ है डाइसिस शुरू करना होगा। दवा शुरू हुई गुंजन को आराम लगना शुरू हुआ। गुंजन का नौकर रामु ही उसको देखने हॉस्पिटल आता था। जब गुंजन को पता चला कि साहब तो आये थे एक विदेशी लड़की के साथ। दो चार दिन रुके फिर उसी के साथ लौट गए हैं। उन्हें पत्नी की गंभीर अवस्था का पता है और रामु ने उन्हें पैसों के लिए भी कहा है, पर उनका कहना है कि बचना तो वैसे भी नहीं है, तो उन्हें किसी सरकारी अस्पताल में क्यों नहीं ले जाते हो? पैसा फालतू में क्यों खर्चा करना, रामु मालकिन को सरकारी हॉस्पिटल में फेक कर तुम भी अपने घर चले जाओ सुकूँ से जियो। साहब घर पर ताला लगा कर गए हैं मालकिन। ये सब सुनकर जैसे गुंजन के पैरो तले जमींन खिसक गई। दूसरे से प्यार होने के बाद भी पति रूप में मिले विमल को पूरे मन से अपनाया था। गुंजन ने कोई कमी नही रखी थी फिर भी शादी के इतने सालों के बाद विमल ने धोख़ा दिया। एक बार फ़िर गुंजन की हालत सदमे से खराब हो गई। नीरज ने इस बार जी जान लगा दी, खुद पूरा ध्यान दे रहा था। गुंजन एक बार फिर ठीक होने लगी और नीरज की इतनी केयर देख कर अतीत में खो गई। नीरज और गुंजन एक ही कॉलोनी में रहते थे। दोनों एक ही पार्क में खेलकर बड़े हुए थे। बचपन का वह धमा-चौकड़ीवाला दौर धीरे-धीरे लड़कियों के लिए पार्क में चक्कर लगाने और लड़कों के लिए क्रिकेट फुटबॉल खेलने में बदल गया। इन सब के बीच एक उम्र ऐसी आती है, जब परिचित लड़कों की निगाहें बचपन संग खेली लड़कियों को एक अलग नज़र से देखने लगती हैं और जो बचपन की नज़र से बहुत अलग होती हैं। उन्हें देखकर कुछ अलग तरह का महसूस होने लगता है। यह बदलाव धीरे-धीरे आता है कि उन्हें स्वयं भी इस बात का पता नहीं चल पाता, बहुत नया-सा अनुभव होता है यह पहली नज़र वाला प्यार। स्कूल के बाद नीरज मेडिकल करने लगा, और गुंजन एम ए, पर रहते तो आसपास ही थे, सो मिलना होता रहा। मेडिकल करते हुए गुंजन और नीरज ने निश्चय कर लिया था कि जीवन तो साथ ही बिताना है। नीरज का मेडिकल पूरा हो चुका था। उसे गुंजन से पता चला कि उसके माता-पिता उसके विवाह की सोच रहे हैं, तो वह उनसे मिलने गया। गुंजन के पिता ने बड़ी देर तक बात की और कड़े शब्दों में समझाया कि जाति अलग है शादी नही हो सकती और गुंजन की पसन्द से तो बिल्कुल नही। वो इतनी बड़ी हो गई कि खुद का रिश्ता कर लेगी परिवार की नाक कटवाएगीI बस यही से गुंजन और नीरज के रास्ते अलग हो गए। गुंजन की दूसरी जगह शादी और नीरज को पढ़ने विदेश भेज दिया गया। जिससे दोनों के सर से प्यार का भूत उतारा जा सके। रूम पर खट की आवाज़ से गुंजन की आँख खुली। वो सपनों से तो बाहर थी पर उसकी आँखों में आँसू देख नर्स ने पूछ लिया क्या हुआ मैडम, आप को कोई दिक्कत है क्या। गुंजन ने हँसते हुए बोला आप लोगों के रहते मुझे क्या दिक्कत। अब गुंजन की तबियत काफी ठीक हो चुकी थी। पूरे हॉस्पिटल में चक्कर लगा कर आ जाती। शाम अधिकतर डॉ नीरज गुंजन के साथ ही डिनर करके जाते। पूरे दो महीने बाद गुंजन एक दम ठीक हो गई और हॉस्पिटल से डिस्चार्ज होने का टाइम आ गया। अब गुंजन का कोई ठिकाना नही था। जाए भी तो कहाँ इसी सोच में डूबी गुंजन को डॉ नीरज की आवाज़ आती है। गुंजन एक बार फिर मैं तुम्हारा हाँथ थामना चाहता हूँ अगर तुम तैयार हो तो। एक फाइल डॉ नीरज ने गुंजन को थमाया और शाम तक उत्तर देने का बोल कर चला गया। गुंजन, डॉ नीरज के ही केबिन में बैठ कर उनके द्वारा दी हुई फाइल पढ़ने लगी। फाइल पढ़ते ही गुंजन की आँख से आँसू की धारा बहने लगी। उसमें लिखा था, गुंजन मेरा पहला प्यार तुम थी और रहोगी। लेकिन आज मैं जो कर रहा हूँ तुम पर कोई एहसान नही बल्कि जब जॉब में आया तभी से सोच लिया था, तुम मेरा हिस्सा हो। भले हमारी शादी न हुई हो। मेरा घर और हॉस्पिटल की आधी जमीन और मेरी कमाई का आधा हिस्सा जो तुम्हारा अलग रखा था आज तुम्हे सौप कर मैं बोझ मुक्त हो जाऊँ। अगर तुम तैयार हो तो एक दोस्त के रूप में में सैदव तुम्हारे साथ हूँ, पर तुम्हारी मर्जी से। ये लाईन पढ़ते पढ़ते गुंजन रोने और सोचने लगी, तीन मर्दो के बारे में, जो उसके जीवन में आये थे। एक उसके पिता जिन्होंने कभी गुंजन की इच्छा चलने नही थी, दूसरा गुंजन का पति जिसने कभी इच्छा पूछी ही नही और तीसरे डॉ नीरज जिन्होंने पूरी इच्छा ही गुंजन पर छोड़ दिया था। गुंजन का अतीत उसकी आँखों से बह रहा था और डॉ नीरज उसको भगवान के स्वरूप लग रहे थे। ******
- दोस्त
रंजन यादव उन चारों को होटल में बैठा देख, रमेश हड़बड़ा गया। लगभग 25 सालों बाद वे फिर उसके सामने थे। शायद अब वो बहुत बड़े और संपन्न आदमी हो गये थे। रमेश को अपने स्कूल के दोस्तों का खाने का आर्डर लेकर परोसते समय बड़ा अटपटा लग रहा था। उनमे से दो मोबाईल फोन पर व्यस्त थे और दो लैपटाप पर। रमेश पढ़ाई पूरी नही कर पाया था। उन्होंने उसे पहचानने का प्रयास भी नही किया। वे खाना खा कर बिल चुका कर चले गये। रमेश को लगा उन चारों ने शायद उसे पहचाना नहीं या उसकी गरीबी देखकर जानबूझ कर कोशिश नहीं की। उसने एक गहरी लंबी सांस ली और टेबल साफ करने लगा। टिश्यु पेपर उठाकर कचरे मे डलने ही वाला था, शायद उन्होंने उस पे कुछ जोड़-घटाया था। अचानक उसकी नजर उस पर लिखे हुये शब्दों पर पड़ी। लिखा था - अबे साले तू हमें खाना खिला रहा था तो तुझे क्या लगा तुझे हम पहचानें नहीं? अबे 20 साल क्या अगले जनम बाद भी मिलता तो तुझे पहचान लेते। तुझे टिप देने की हिम्मत हममें नही थी। हमने पास ही फैक्ट्री के लिये जगह खरीदी है और अब हमारा इधर आन-जाना तो लगा ही रहेगा। आज तेरा इस होटल का आखरी दिन है। हमारे फैक्ट्री की कैंटीन कौन चलाएगा बे, तू चलायेगा ना? तुझसे अच्छा पार्टनर और कहां मिलेगा? याद हैं न स्कूल के दिनों हम पांचो एक दुसरे का टिफिन खा जाते थे। आज के बाद रोटी भी मिल बाँट कर साथ-साथ खाएंगे। रमेश की आंखें भर आई। सच्चे दोस्त वही तो होते हैं जो दोस्त की कमजोरी नही सिर्फ दोस्त देख कर ही खुश हो जाते हैं। *****
- संयम का महत्व
अंजलि सक्सेना कहने को तो संयम बहुत ही छोटा सा शब्द है पर समझने को बहुत ही बड़ा है आज मैं आपको एक छोटी की घटना का उल्लेख कर रहा हूँ जो समझ गया समझो जीवन का गूढ़ रहस्य समझ गया और जो न समझा सका उसे ईश्वर ही सदबुद्धि दे। एक देवरानी और जेठानी में किसी बात पर जोरदार बहस हुई और दोनों में बात इतनी बढ़ गई कि दोनों ने एक दूसरे का मुँह तक न देखने की कसम खा ली और अपने-अपने कमरे में जा कर दरवाजा बंद कर लिया। परंतु थोड़ी देर बाद जेठानी के कमरे के दरवाजे पर खट-खट हुई। जेठानी तनिक ऊँची आवाज में बोली कौन है, बाहर से आवाज आई दीदी मैं! जेठानी ने जोर से दरवाजा खोला और बोली अभी तो बड़ी कसमें खा कर गई थी। अब यहाँ क्यों आई हो? देवरानी ने कहा दीदी सोच कर तो वही गई थी, परंतु माँ की कही एक बात याद आ गई कि जब कभी किसी से कुछ कहा सुनी हो जाए तो उसकी अच्छाइयों को याद करो और मैंने भी वही किया और मुझे आपका दिया हुआ प्यार ही प्यार याद आया और मैं आपके लिए चाय ले कर आ गई। बस फिर क्या था दोनों रोते रोते, एक दूसरे के गले लग गईं और साथ बैठ कर चाय पीने लगीं। जीवन मे क्रोध को क्रोध से नहीं जीता जा सकता, बोध से जीता जा सकता है। अग्नि अग्नि से नहीं बुझती जल से बुझती है। समझदार व्यक्ति बड़ी से बड़ी बिगड़ती स्थितियों को दो शब्द प्रेम के बोलकर संभाल लेते हैं। हर स्थिति में संयम और बड़ा दिल रखना ही श्रेष्ठ है। *****
- आदर्श सलाह
डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव एक चूहा एक कसाई के घर में बिल बना कर रहता था। एक दिन चूहे ने देखा कि उस कसाई और उसकी पत्नी एक थैले से कुछ निकाल रहे हैं। चूहे ने सोचा कि शायद कुछ खाने का सामान है। उत्सुकतावश देखने पर उसने पाया कि वो एक चूहेदानी थी। ख़तरा भाँपने पर उस ने पिछवाड़े में जा कर कबूतर को यह बात बताई कि घर में चूहेदानी आ गयी है। कबूतर ने मज़ाक उड़ाते हुए कहा कि मुझे क्या? मुझे कौनसा उस में फँसना है? निराश चूहा ये बात मुर्गे को बताने गया। मुर्गे ने खिल्ली उड़ाते हुए कहा… जा भाई.. ये मेरी समस्या नहीं है। हताश चूहे ने बाड़े में जा कर बकरे को ये बात बताई… और बकरा हँसते हँसते लोटपोट होने लगा। उसी रात चूहेदानी में खटाक की आवाज़ हुई, जिस में एक ज़हरीला साँप फँस गया था। अँधेरे में उसकी पूँछ को चूहा समझ कर उस कसाई की पत्नी ने उसे निकाला और साँप ने उसे डस लिया। तबीयत बिगड़ने पर उस व्यक्ति ने हकीम को बुलवाया। हकीम ने उसे कबूतर का सूप पिलाने की सलाह दी। कबूतर अब पतीले में उबल रहा था। खबर सुनकर उस कसाई के कई रिश्तेदार मिलने आ पहुँचे जिनके भोजन प्रबंध हेतु अगले दिन उसी मुर्गे को काटा गया। कुछ दिनों बाद उस कसाई की पत्नी सही हो गयी, तो खुशी में उस व्यक्ति ने कुछ अपने शुभचिंतकों के लिए एक दावत रखी तो बकरे को काटा गया। चूहा अब दूर जा चुका था, बहुत दूर ……….। अगली बार कोई आपको अपनी समस्या बताये और आप को लगे कि ये मेरी समस्या नहीं है, तो रुकिए और दुबारा सोचिये। समाज का एक अंग, एक तबका, एक नागरिक खतरे में है तो पूरा देश खतरे में है। अपने-अपने दायरे से बाहर निकलिये। स्वयं तक सीमित मत रहिये। सामाजिक बनिये.."और हंसी बनाने से पहले सोचिए जरुर। ******
- सच्चा आशिर्वाद
चन्द्र शेखर मोहन ने अपनी शिक्षा पूरी कर ली थी और उसे एक सरकारी स्कूल में नौकरी भी मिल चुकी थी। बीते कुछ ही दिनों पहले एक बेहद सम्पन्न परिवार में उसकी शादी तय हुई थी। आज शाम जब वह अपने विद्यालय से लौटकर बच्चों की पेपर्स चेक करने में उलझा हुआ था कि अचानक उसके कमरे में उसके पिताजी और बड़े भाईसाहब के साथ उसके होने वाले ससुर ने भी एकसाथ प्रवेश किया। आदतनुसार मोहन ने सबको प्रणाम किया। अभी कुछ ही देर वह कुर्सी पर बैठे थे कि उसके होने वाले ससुरजी ने कमरे में चारों तरफ नज़र दौड़ाते हुए कहा,“एसी लगाने के लिए ये दीवार ठीक रहेगी और इस दीवार पर एल ई डी, यहां अलमारी, ड्रेसिंग टेबल, दीवार पर इस रंग का पेंट, कमरे का पूरा साज-सज्जा तय कर पुनः ड्राइंग रूम में आ गए गहने, कपड़े, मिठाई, फ़्रिज, वाशिंग मशीन आदि-आदि का ब्रांड बताते हुए मोहन की तरफ मुखातिब होते हुए बोले - बेटा जिस ब्रांड की कार जिस कलर में चाहिए बता देना शोरूम चलकर वहीं ले दूंगा।” होने वाले ससुर की ये बातें मोहन के स्वाभिमान को बड़ा ठेस पहुंचा रही थी। उसे लग रहा था जैसे उसकी खुद्दारी पर कोई हथौड़ा चला रहा हो। अब तो उसके बर्दाश्त से बाहर हो गया। उसने एक कठोर निर्णय लिया और दो टूक कहा - आदरणीय मुझे ए सी, टी वी, कार लाने वाली दुल्हन नहीं चाहिए। मुझे मेरे साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाली पत्नी चाहिए। मेहनत की कमाई से मिलने वाली नून खिचड़ी में खुश रहने वाली सहधर्मिणी चाहिए। दामाद खरीदने वाला ससुराल नहीं चाहिए। यदि आपको और आपकी बेटी को अपने पति की कमाई और यही समान स्थिति में रहकर जीवन व्यतीत करना मंजूर हो तो आगे से अपना आशीर्वाद देने के लिए पधारिएगा, वरना आप किसी अन्य रिश्ते को देखिए। कहकर मोहन ने दोनों हाथों को जोड़कर ससुर जी को अपना निर्णय सुना दिया। होनेवाले ससुरजी ने एकबारगी मोहन और फिर उसके पिताजी के साथ साथ बड़े भाईसाहब की ओर देखा। पिताजी ने भी मोहन की और देखकर मुस्कुरा कर कहा, “कहा था ना आपसे .... मेरे बच्चे स्वाभिमानी है और संस्कारी ...” “मतलब ...”मोहन ने पिताजी की और देखकर पूछा। बेटा जैसा कि तुम और हमारे परिवार में सभी दहेज विरोधी है। मगर भाईसाहब ने कहा ये उनका आशीर्वाद जो उपहार स्वरूप वो तुम्हे देना चाहते है। मुझे लगा जब तुम सामने से अपना निर्णय सुनाओगे तो भाईसाहब समझ पाएंगे। असल में आशिर्वाद क्या है और दहेज क्या है। भाईसाहब सच कहूं तो दुल्हन ही सबसे अनमोल उपहार होता है। एक पिता अपने कलेजे का टुकड़ा अपनी बेटी एक दूसरे परिवार को उनका वंश बढ़ाने, एक व्यक्ति को उसका जीवनसाथी, उसके सुख दुख की साथी देता है। ये अनमोल उपहार है जोकि एक कन्यादान करनेवाले पिता को ईश्वर की ओर से वरदान स्वरूप मिलता है। अब आप समझ ही गए होंगे कि आखिर हमें क्या आशिर्वाद और क्या दहेज चाहिए कयुं ... मुस्कुराते हुए मोहन के पिताजी बोले। धन्य है भाईसाहब आप और आपके परिवार में ये संस्कार। ईश्वर करे ये स्वाभिमान और संस्कार ईश्वर हर लडके और उसके परिवार में सभी को दे। ताकि दुनिया में कभी किसी लड़की के जन्म पर एक पिता टेंशन में नहीं बल्कि खुशियों से झूमता हुआ कहे कि ईश्वर ने उसे कन्यादान करने का सौभाग्य दिया है। कहते हुए मोहन के पिताजी के गले लग गये और अपने हाथ आशिर्वाद स्वरूप मोहन के सिर पर रख दिए.....!! *****
- खुशी...
मंजू सक्सेना उसके पास चालीस की उम्र होते होते सब कुछ था। अच्छी सरकारी नौकरी, सुंदर और सुलक्षणा पत्नी, दो प्यारे बच्चे, अपना मकान पर फिर भी वो प्रसन्न नहीं था, कहीं कुछ भीतर जैसे चिटका हुआ था। जिससे वो ख़ुद भी अपरिचित था। पर उस टूटन की भड़ास उसकी ज़ुबान और भावभंगिमा से जबतब हर किसी पर निकलती रहती थी। दफ़्तर में मातहत उससे थरथर काँपते तो घर में पत्नी और बच्चे उसके सामने दबे सहमें रहते। पर उसे इसमें भी सुकून नहीं था। न जाने भीतर क्या बेचैनी थी जिस के ताप से वो जैसे उछलता रहता था। उस दिन बेध्यानी में वो बंगले के पीछे रहने वाले माली के घर की ओर पँहुच गया था। "अरे मालिक आप…", ज़मीन पर बैठ कर एक ही थाली में पत्नी और बच्चों के साथ खाना खाता ननकू हड़बड़ा कर खड़ा हो गया। "खाना खाओ तुम, "कहने के साथ ही उसकी नज़र उसकी पत्नी पर पड़ी जिसने उसे देखते ही घूंघट कर लिया था। पर उसके पहले ही वो उसके सांवले चेहरे की चमक देखकर हैरान था, कितनी खुश लग रही थी और दोनों छोटी लड़कियां भी जैसे खुशी से भरपूर थीं। वो घर वापस आया तो पत्नी का बुझा चेहरा और सहमें बच्चे देख कर फिर उसका क्रोध उतर आया। दो दिन बाद फिर न चाहते हुए भी उसके क़दम ननकू के घर की ओर मुड़ गये। "अरे सब्जी ना है तो नोन मिर्च से खा लेंगे, तू चिंता काहे करत है", भीतर से ननकू का हँसता हुआ स्वर उभरा और साथ ही दोनों बच्चों की किलकारियां गूँज उठीं, "हाँ, अम्मा, बप्पा ठीक कहत हैं"। उसकी आँखों के सामने ननकू की छवि घूम गई। दिन की झुलसाती धूप में भी वो हर बंगले में सुबह से शाम तक गुड़ाई निराई करता है, पर फिर भी कितना संतुष्ट सा है। "ननकू, तू दिन भर इतनी मेहनत करता है। साहब लोगों की डाँट भी खाता है। पर तू भी खुश रहता है और तेरा परिवार भी, क्या तुझे क्रोध नहीं आता", आज हिम्मत करके उसने पूछ ही लिया तो हैरान सा ननकू उसकी तरफ़ देख कर मुस्कुरा दिया, "साहब., गलती माफ़ हो तो एक बात पूछूँ?" "हाँ, पूछ" "हम इत्ती मेहनत जिनकी ख़ातिर करत हैं अगर वही खुश नहीं हैं तो हमार मेहनत का का फ़ायदा" "मतलब…?" "मतलब, अगर हम उन्हीं पर गुस्सा गुस्सी करते रहे तो वो कैसे खुश रहेंगे और वो खुश नहीं तो हम ख़ुद कैसे खुश रह पाएंगे?" उसने चौंक कर उस अनपढ़ गंवार माली को देखा। 'ज़िंदगी की कितनी बड़ी फ़िलासफ़ी हल्के में समझा गया था जिसे वो कितनी ही डिग्रियां लेने के बाद भी नहीं समझ पाया था'। *****
- डर के आगे जीत
डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव एक दिन एक कुत्ता जंगल में रास्ता खो गया। तभी उसने देखा कि एक शेर बहुत तेजी से उसकी तरफ आ रहा है। कुत्ते की सांस रूक गयी औऱ उसने मन ही मन सोचा, "आज तो काम तमाम मेरा..!" तभी फिर अचानक उसने अपने सामने कुछ सूखी हड्डियाँ पड़ी देखीं। वो आते हुए शेर की तरफ पीठ कर के बैठ गया और एक सूखी हड्डी को चूसने लगा और जोर-जोर से बोलने लगा, "वाह! शेर को खाने का मज़ा ही कुछ और है, एक और मिल जाए तो पूरी दावत हो जायेगी! " और उसने जोर से डकार मारी। कुत्ते की बात सुनकर शेर सोच में पड़ गया। उसने सोचा, "ये कुत्ता तो शेर का भी शिकार करसकता है! अपनी जान बचाकर भागने में ही भलाई है!" शेर वहां से जान बचा कर भाग गया। पेड़ पर बैठा एक बन्दर यह सब तमाशा बहुत गौर से देख रहा था। उसने सोचा यह अच्छा मौका है। शेर को सारी कहानी बता देता हूँ। शेर से दोस्ती भी हो जायेगी और उससे ज़िन्दगी भर के लिए जान का खतरा भी दूर हो जाएगा। वो फटाफट शेर के पीछे भागा। कुत्ते ने बन्दर को जाते हुए देख लिया और समझ गया कि जरुर कोई साज़िश करने वाला है, यह बंदर। उधर बन्दर ने शेर को सारी कहानी बता दी कि कैसे कुत्ते ने उसे बेवकूफ बनाया है। शेर जोर से दहाड़ा, "चल मेरे साथ, अभी उसकी जीवन लीला समाप्त करता हूँ" और बन्दर को अपनी पीठ पर बैठा कर शेर कुत्ते की तरफ चल दिया। कुत्ते ने शेर को अपनी तरफ आते देखा तो उसे महसूस हुआ कि एक बार फिर उसकी जान को ख़तरा है। मगर फिर भी वह हिम्मत कर उन दोनों की तरफ अपनी पीठ करके बैठ गया और जोर-जोर से चिल्लाकर बोलने लगा, "साला, इस बन्दर को भेजे दो घंटे हो गए, कमीना अब तक एक शेर को फंसा कर नहीं ला सका, बहुत जोर की भूख लगी है!" यह सुनते ही शेर ने बंदर को वहीं पटका और वापस पीछे खूब तेज़ भाग गया। इसलिए मुश्किल समय में अपना आत्मविश्वास कभी नहीं खोएं, आपकी ऊर्जा, समय और ध्यान भटकाने वाले कई बन्दर आपके आस-पास हैं, उन्हें पहचानिए और उनसे सावधान रहिये। याद रखिए, डर के आगे जीत है। *******
- सच्चे रिश्ते
कर्माकर गुप्ता पूनम की डोली जब ससुराल पहुँची, तो उसके मन में अनगिनत सपने और खुशियाँ थीं। उसका पति, आदित्य, एक प्रतिष्ठित कंपनी में काम करता था और घर में उसके ससुर, सुदर्शन और ननद, माया, के अलावा कोई और सदस्य नहीं था। आदित्य का स्वभाव शांत और समझदार था, और जल्दी ही पूनम का परिवार के हर सदस्य के साथ अच्छा तालमेल हो गया। ससुर उसे बेटी की तरह मानते, और आदित्य उसे बेहद चाहते। इस तरह, पूनम सबकी प्यारी बहु बन गई। सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन उसकी ननद माया उससे ज्यादा घुलमिल नहीं पाती थी। माया को पूनम की सुंदरता और पढ़ाई-लिखाई से हमेशा एक अजीब-सी जलन होती। माया जब भी मौका पाती, किसी न किसी बात पर पूनम को ताने देती। पूनम यह सब सुनकर भी मुस्कुरा देती और कभी जवाब नहीं देती। वह समझती थी कि सच्चे रिश्ते सहनशीलता और प्रेम से ही बनते हैं। समय बीतता गया और माया की भी शादी हो गई। वह अपने ससुराल चली गई और वहां खुद का परिवार बसा लिया। इधर, पूनम के ससुर सुदर्शन की उम्र भी बढ़ रही थी और अब उन्हें अक्सर बीमारियाँ घेरने लगीं। उनकी तबीयत धीरे-धीरे बिगड़ती जा रही थी। एक दिन सुदर्शन ने आदित्य को बुलाकर कहा, "बेटा, मैं सोचता हूँ कि गांव की ज़मीन बेच देते हैं। वहाँ तो अब कोई जाता नहीं, और इसे बेचने से मिलने वाले पैसे हमारे लिए काम आएँगे।" आदित्य ने सहमति जताते हुए कहा, "जैसा आप ठीक समझें, पिताजी।" अगले ही दिन, सुदर्शन ने एक ब्रोकर से संपर्क किया और ज़मीन बेचने की प्रक्रिया शुरू कर दी। कुछ दिनों बाद ब्रोकर ने फोन करके बताया कि डील फाइनल हो चुकी है और जल्द ही पैसा मिल जाएगा। इस बात से परिवार में थोड़ी राहत महसूस हुई, क्योंकि अब पैसों की कमी का हल निकलने वाला था। लेकिन कुछ ही दिनों बाद, अचानक माया ने अपनी भाभी पूनम को ताने देते हुए कहा, "तुम्हें क्या लगता है, तुम्हारे जैसी पढ़ी-लिखी और खूबसूरत बहू को इस परिवार में सब कुछ मिल जाएगा? ससुराल में कभी-कभी कुछ चीजें सहनी पड़ती हैं।" पूनम ने शांत स्वभाव से जवाब दिया, "माया, हर इंसान की अलग सोच होती है। मैं मानती हूँ कि हमें एक-दूसरे की आदतों और खामियों को समझकर स्वीकार करना चाहिए।" समय का पहिया और तेजी से घूमने लगा। सुदर्शन की तबीयत अब इतनी बिगड़ चुकी थी कि डॉक्टरों ने कह दिया कि उनके पास ज्यादा समय नहीं है। इस खबर से परिवार में उदासी छा गई, और पूनम ने अपने पति से कहा, "हमें जल्दी से ज़मीन का सौदा पूरा करवा लेना चाहिए, ताकि पिताजी के इलाज के लिए पैसों की कोई कमी न हो।" आदित्य को यह विचार समझ में आया और उसने ब्रोकर से संपर्क किया, ताकि सौदा शीघ्रता से पूरा हो सके। इधर, जब माया को इस बारे में पता चला, तो उसने सोचा कि ज़मीन बेचने के बाद आदित्य और पूनम अधिक संपत्ति के मालिक बन जाएंगे, और हो सकता है कि वे परिवार की देखभाल में पीछे हट जाएं। यह सोच माया के मन में एक बार फिर ईर्ष्या का कारण बनी। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, माया को पूनम की सच्चाई का एहसास होने लगा। पूनम ने कभी भी दिखावे या कोई स्वार्थपूर्ण उद्देश्य नहीं रखा था। वह हमेशा सच्चे दिल से सबकी भलाई चाहती थी। धीरे-धीरे माया का नज़रिया बदलने लगा। उसे यह भी समझ में आया कि पूनम ने हर कठिनाई में इस परिवार का साथ दिया है और सच्ची रिश्तों की कद्र करती है। कुछ समय बाद, पूनम और माया के बीच की कड़वाहट दूर हो गई। माया ने अपने पिछले व्यवहार के लिए पूनम से माफी माँगी। पूनम ने माया को गले लगाते हुए कहा, "असली रिश्ते तब ही मजबूत होते हैं जब हम एक-दूसरे के सुख-दुख में साथ खड़े रहते हैं।" इस तरह, परिवार में पुनः प्रेम, समझदारी और सामंजस्य का माहौल बन गया। पूनम की सहनशीलता और सच्चे प्रेम ने माया के दिल में भी उसके प्रति आदर भर दिया। सुदर्शन भी अपने जीवन के अंतिम दिनों में अपनी बहू और बेटी को एक-दूसरे के प्रति इस प्रेम से संतुष्ट महसूस करने लगे। ******
- मूंछ का बाल
डॉ. कृष्णा कांत श्रीवास्तव बहुत समय पहले की बात है, एक वृद्ध सन्यासी हिमालय की पहाड़ियों में कहीं रहता था। वह बड़ा ज्ञानी था और उसकी बुद्धिमत्ता की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। एक दिन एक औरत उसके पास पहुंची और अपना दुखड़ा रोने लगी, ”बाबा, मेरा पति मुझसे बहुत प्रेम करता था, लेकिन वह जबसे युद्ध से लौटा है ठीक से बात तक नहीं करता।” “युद्ध लोगों के साथ ऐसा ही करता है।”, सन्यासी बोला। “लोग कहते हैं कि आपकी दी हुई जड़ी-बूटी इंसान में फिर से प्रेम उत्पन्न कर सकती है, कृपया आप मुझे वो जड़ी-बूटी दे दें।”, महिला ने विनती की। सन्यासी ने कुछ सोचा और फिर बोला, “देवी मैं तुम्हें वह जड़ी-बूटी ज़रूर दे देता लेकिन उसे बनाने के लिए एक ऐसी चीज चाहिए जो मेरे पास नहीं है।” “आपको क्या चाहिए मुझे बताइए मैं लेकर आउंगी।”, महिला बोली। “मुझे बाघ की मूंछ का एक बाल चाहिए।”, सन्यासी बोला। अगले ही दिन महिला बाघ की तलाश में जंगल में निकल पड़ी, बहुत खोजने के बाद उसे नदी के किनारे एक बाघ दिखा, बाघ उसे देखते ही दहाड़ा, महिला सहम गयी और तेजी से वापस चली गयी। अगले कुछ दिनों तक यही हुआ, महिला हिम्मत कर के उस बाघ के पास पहुँचती और डर कर वापस चली जाती। महीना बीतते-बीतते बाघ को महिला की मौजूदगी की आदत पड़ गयी, और अब वह उसे देख कर सामान्य ही रहता। अब तो महिला बाघ के लिए मांस भी लाने लगी, और बाघ बड़े चाव से उसे खाता। उनकी दोस्ती बढ़ने लगी और अब महिला बाघ को थपथपाने भी लगी। और देखते-देखते एक दिन वो भी आ गया जब उसने हिम्मत दिखाते हुए बाघ की मूंछ का एक बाल भी निकाल लिया। फिर क्या था, वह बिना देरी किये सन्यासी के पास पहुंची, और बोली “मैं बाल ले आई बाबा।” “बहुत अच्छे।” और ऐसा कहते हुए सन्यासी ने बाल को जलती हुई आग में फ़ेंक दिया। “अरे ये क्या बाबा, आप नहीं जानते इस बाल को लाने के लिए मैंने कितने प्रयत्न किये और आपने इसे जला दिया ……अब मेरी जड़ी-बूटी कैसे बनेगी?” महिला घबराते हुए बोली। “अब तुम्हें किसी जड़ी-बूटी की ज़रुरत नहीं है।” सन्यासी बोला।” जरा सोचो, तुमने बाघ को किस तरह अपने वश में किया। जब एक हिंसक पशु को धैर्य और प्रेम से जीता जा सकता है तो क्या एक इंसान को नहीं? जाओ जिस तरह तुमने बाघ को अपना मित्र बना लिया उसी तरह अपने पति के अन्दर प्रेम भाव जागृत करो।” महिला सन्यासी की बात समझ गयी, अब उसे उसकी जड़ी-बूटी मिल चुकी थी। ******
- सच्ची खुशी
डॉ. कृष्णा कांत श्रीवास्तव जवानी के समय में शारीरिक चाहतें आसमान छू कर बोलने लगती हैं, और पहले 20 साल तेजी से समाप्त हो जाते हैं। इसके बाद धन की आवश्यकता पड़ने पर नौकरी की खोज शुरू होती है। यह नौकरी नहीं, वह नौकरी नहीं, दूर नहीं, पास नहीं। कई नौकरियाँ बदलने के बाद आखिरकार एक नौकरी स्थिरता की शुरुआत करती है। पहली तनख्वाह का चेक हाथ में आते ही उसे बैंक में जमा किया जाता है, और शून्यों का अंतहीन खेल शुरू हो जाता है। दो-तीन साल और बीत जाते हैं और बैंक में शून्यों की संख्या बढ़ने लगती है। 25 की उम्र होते-होते विवाह करने के लिए घर के सदस्यों द्वारा फोर्स किया जाता उसके बाद थोडे-बहुत विवाद होने के बाद परिवार के सदस्यों की बात पर राजी होना फिर विवाह हो जाता है और जीवन की एक नई कहानी की शुरूआत होती है। शुरू के एक-दो साल गुलाबी और सपनीले होते हैं। हाथ में हाथ डालकर घूमना, रंग-बिरंगे सपने देखना। लेकिन यह सब जल्दी ही खत्म हो जाता है। बच्चे के आने की आहट होती है और पालना झूलने लगता है। अब सारा ध्यान बच्चे पर केंद्रित हो जाता है, उठना, बैठना, खाना-पीना, लाड़-दुलार। समय कैसे बीत जाता है, पता ही नहीं चलता। इस बीच, धीरे-धीरे एक-दूसरे से दूरी बढती जाती हैं, बातें करना, एक दूसरे के साथ समय बिताना, साथ रहना और घूमना-फिरना बंद हो जाता है। और इसी बीच धीरे-धीरे बच्चे बड़ा होता जाता है और वह समय बच्चे में व्यस्त हो जाती है, जबकि मैं अपने काम में व्यस्त रहता हूँ। घर, गाड़ी की किस्त, बच्चे की जिम्मेदारी, शिक्षा, भविष्य की चिंता, और बैंक में शून्यों की बढ़ती संख्या, इन सब में जीवन व्यस्त हो जाता है। 35 साल की उम्र में आते आते, घर, गाड़ी, परिवार और बैंक में बढ़ते शून्य सब कुछ होते हुए भी एक कमी महसूस होती है। चिड़चिड़ाहट बढ़ती जाती है, काम का प्रेशर होना और मैं उदासीन हो जाता हूँ। दिन बीतते जाते हैं, बच्चा बड़ा होता जाता है और खुद का संसार तैयार होता जाता है। कब 10वीं कक्षा आई और चली गई, पता ही नहीं चलता। चालीस की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते बैंक में शून्यों की संख्या बढ़ती जाती है। एकांत क्षण में गुजरे हुए पल, दिनों की यादें ताज़ा होती हैं और मैंने कहा, "जरा पास में आओ, पास बैठो। चलो हाथ में हाथ डालकर कहीं घूमने-फिरने चलते हैं।" उसने अजीब नजरों से देखा और कहा, "तुम्हें बातें सूझ रही हैं, यहाँ ढेर सारा काम पड़ा है।" कमर में पल्लू खोंसकर वह चली जाती है। पैंतालीस की उम्र में, आँखों पर चश्मे का नंबर बढ़ता जाता है, बाल सफेद होने लगते हैं, और दिमाग में उलझनें बढ़ जाती हैं। बेटा कॉलेज में होता है और बैंक में शून्यों की संख्या बढ़ती जाती है। बेटे के कॉलेज खत्म होने और परदेश चले जाने के बाद, घर अब बोझ लगने लगता है। 55 की उम्र की ओर बढ़ते हुए, बैंक के शून्यों की कोई खबर नहीं होती। बाहर जाने-आने के कार्यक्रम बंद हो जाते हैं। दवाइयों का दिन और समय तय हो जाते हैं। बच्चे बड़े हो जाते हैं और अब हमें सोचने की जरूरत होती है कि वे कब लौटेंगे। एक दिन, सोफे पर बैठा ठंडी हवा का आनंद ले रहा था। वह पूजा में व्यस्त थी। तभी फोन की घंटी बजी। बेटे ने बताया कि उसने शादी कर ली है और परदेश में ही रहेगा। उसने यह भी कहा कि बैंक के शून्यों को किसी एक वृद्धाश्रम में दे देना और खुद भी वहीं चले जाओ, और वही पर रहना शुरु कर दो | मैं उसी की बातों में खोए हुए दिल में भावना के साथ आकर सोफ़े पर बैठ गया। उसकी पूजा खत्म होने को आई थी। मैंने उसे आवाज दी, "चलो, आज फिर पुरानी यादें ताजा करते हैं हाथ में हाथ डालकर बातें करते हैं।" वह तुरंत जवाब दी, "अभी आई।" मुझे विश्वास नहीं हुआ। चेहरा खुशी से चमक उठा। आँखे भर आईं और आँसुओं से गाल भीग गए। लेकिन अचानक आँखों की चमक फीकी पड़ गई और मैं निस्तेज हो गया हमेशा के लिए। उसने शेष पूजा की और मेरे पास आकर बैठ गई। "बोलो, क्या बोल रहे थे?" लेकिन मैंने कुछ नहीं कह सका। उसने मेरे शरीर को छूकर देखा ठंडा पड़ चुका था। मैंने उसकी ओर एकटक देखा। पलभर के लिए वह शून्य हो गई। "क्या करूँ?" उसे कुछ समझ में नहीं आया। लेकिन एक-दो मिनट में ही वह चेतन्य हो गई। धीरे से उठी, पूजा घर में गई, एक अगरबत्ती जलाई, ईश्वर को प्रणाम किया और फिर से आकर सोफे पर बैठ गई। मेरा ठंडा हाथ अपने हाथों में लिया और बोली, "चलो, कहाँ घूमने चलना है तुम्हें? क्या बातें करनी हैं तुम्हें?" ऐसा कहते हुए उसकी आँखें भर आईं। वह एकटक मुझे देखती रही। आँसुओं की धारा बह निकली। मेरा सिर उसके कंधे पर गिर गया। ठंडी हवा का झोंका अब भी चल रहा था। क्या यही जीवन है? इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि जीवन को अपने तरीके से जीना चाहिए। धन और भौतिक सुख-सुविधाएँ महज एक भाग हैं, लेकिन सच्ची खुशी और संतोष प्रेम, समझदारी, और एक-दूसरे के साथ बिताए समय में होता है। *******
- परिंदे
निर्मल वर्मा अँधियारे गलियारे में चलते हुए लतिका ठिठक गई। दीवार का सहारा लेकर उसने लैंप की बत्ती बढ़ा दी। सीढ़ियों पर उसकी छाया एक बेडौल फटी-फटी आकृति खींचने लगी। सात नंबर कमरे से लड़कियों की बातचीत और हँसी-ठहाकों का स्वर अभी तक आ रहा था। लतिका ने दरवाज़ा खटखटाया। शोर अचानक बंद हो गया। ‘कौन है?’ लतिका चुपचाप खड़ी रही। कमरे में कुछ देर तक घुसुर-पुसुर होती रही, फिर दरवाज़े की चटखनी के खुलने का स्वर आया। लतिका कमरे की देहरी से कुछ आगे बढ़ी, लैंप की झपकती लौ में लड़कियों के चेहरे सिनेमा के पर्दे पर ठहरे हुए क्लोज़-अप की भाँति उभरने लगे। ‘कमरे में अँधेरा क्यों कर रखा है?’ लतिका के स्वर में हल्की-सी झिड़क का आभास था। ‘लैंप में तेल ही ख़त्म हो गया, मैडम!’ यह सुधा का कमरा था, इसलिए उसे ही उत्तर देना पड़ा। होस्टल में शायद वह सबसे अधिक लोकप्रिय थी। क्योंकि सदा छुट्टी के समय या रात के डिनर के बाद आस-पास के कमरों में रहने वाली लड़कियों का जमघट उसी के कमरे में लग जाता था। देर तक गपशप, हँसी-मज़ाक़ चलता रहता। ‘तेल के लिए करीमुद्दीन से क्यों नहीं कहा?’ ‘कितनी बार कहा मैडम, लेकिन उसे याद रहे तब तो!’ कमरे में हँसी की फुहार एक कोने में दूसरे कोने तक फैल गई। लतिका के कमरे में आने से अनुशासन की जो घुटन घिर आई थी, वह अचानक बह गई। करीमुद्दीन होस्टल का नौकर था। उसके आलस और काम में टालमटोल करने के क़िस्से होस्टल की लड़कियों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आते थे। लतिका को हठात् कुछ स्मरण हो आया। अँधेरे में लैंप घुमाते हुए चारों ओर निगाहें दौड़ाई। कमरे में चारों ओर घेरा बनाकर वे बैठी थी—पास-पास एक-दूसरे से सटकर। सबके चेहरे परिचित थे, किंतु लैंप के पीले मद्धिम प्रकाश में मानो कुछ बदल गया था, या जैसे वह उन्हें पहली बार देख रही थी। ‘जूली, अब तक तुम इस ब्लॉक में क्या कर रही हो?’ जूली खिड़की के पास पलंग के सिरहाने बैठी थी। उसने चुपचाप आँखें नीची कर ली। लैंप का प्रकाश चारों ओर से सिमटकर अब केवल उसके चेहरे पर गिर रहा था। ‘नाइट-रजिस्टर पर दस्तख़त कर दिए?’ ‘हाँ, मैडम।’ ‘फिर...?’ लतिका का स्वर कड़ा हो आया। जूली सकुचाकर खिड़की से बाहर देखने लगी। जब से लतिका इस स्कूल में आई है, उसने अनुभव किया है कि होस्टल के इस नियम का पालन डाँट-फटकार के बावजूद नहीं होता। ‘मैडम, कल से छुट्टियाँ शुरू हो जाएँगी, इसलिए आज रात हम सबने मिलकर... और सुधा पूरी बात न कहकर हेमंती की ओर देखते हुए मुस्कुराने लगी। ‘हेमंती के गाने का प्रोग्राम है; आप भी कुछ देर बैठिए न!’ लतिका को उलझन मालूम हुई। इस समय यहाँ आकर उसने उनके मज़े को किरकिरा कर दिया। इस छोटे-से हिल स्टेशन पर रहते उसे ख़ासा अर्सा हो गया, लेकिन कब समय पतझड़ और गर्मियों का घेरा पार कर सर्दी की छुट्टियों की गोद में सिमट जाता है, उसे कभी याद नहीं रहता। चोरों की तरह चुपचाप वह देहरी से बाहर हो गई। उसके चेहरे का तनाव ढीला पड़ गया। वह मुस्कुराने लगी।