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परिंदे

निर्मल वर्मा

अँधियारे गलियारे में चलते हुए लतिका ठिठक गई। दीवार का सहारा लेकर उसने लैंप की बत्ती बढ़ा दी। सीढ़ियों पर उसकी छाया एक बेडौल फटी-फटी आकृति खींचने लगी। सात नंबर कमरे से लड़कियों की बातचीत और हँसी-ठहाकों का स्वर अभी तक आ रहा था। लतिका ने दरवाज़ा खटखटाया। शोर अचानक बंद हो गया।
‘कौन है?’
लतिका चुपचाप खड़ी रही। कमरे में कुछ देर तक घुसुर-पुसुर होती रही, फिर दरवाज़े की चटखनी के खुलने का स्वर आया। लतिका कमरे की देहरी से कुछ आगे बढ़ी, लैंप की झपकती लौ में लड़कियों के चेहरे सिनेमा के पर्दे पर ठहरे हुए क्लोज़-अप की भाँति उभरने लगे।
‘कमरे में अँधेरा क्यों कर रखा है?’ लतिका के स्वर में हल्की-सी झिड़क का आभास था।
‘लैंप में तेल ही ख़त्म हो गया, मैडम!’
यह सुधा का कमरा था, इसलिए उसे ही उत्तर देना पड़ा। होस्टल में शायद वह सबसे अधिक लोकप्रिय थी। क्योंकि सदा छुट्टी के समय या रात के डिनर के बाद आस-पास के कमरों में रहने वाली लड़कियों का जमघट उसी के कमरे में लग जाता था। देर तक गपशप, हँसी-मज़ाक़ चलता रहता।
‘तेल के लिए करीमुद्दीन से क्यों नहीं कहा?’
‘कितनी बार कहा मैडम, लेकिन उसे याद रहे तब तो!’
कमरे में हँसी की फुहार एक कोने में दूसरे कोने तक फैल गई। लतिका के कमरे में आने से अनुशासन की जो घुटन घिर आई थी, वह अचानक बह गई। करीमुद्दीन होस्टल का नौकर था। उसके आलस और काम में टालमटोल करने के क़िस्से होस्टल की लड़कियों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आते थे।
लतिका को हठात् कुछ स्मरण हो आया। अँधेरे में लैंप घुमाते हुए चारों ओर निगाहें दौड़ाई। कमरे में चारों ओर घेरा बनाकर वे बैठी थी—पास-पास एक-दूसरे से सटकर। सबके चेहरे परिचित थे, किंतु लैंप के पीले मद्धिम प्रकाश में मानो कुछ बदल गया था, या जैसे वह उन्हें पहली बार देख रही थी।
‘जूली, अब तक तुम इस ब्लॉक में क्या कर रही हो?’
जूली खिड़की के पास पलंग के सिरहाने बैठी थी। उसने चुपचाप आँखें नीची कर ली। लैंप का प्रकाश चारों ओर से सिमटकर अब केवल उसके चेहरे पर गिर रहा था।
‘नाइट-रजिस्टर पर दस्तख़त कर दिए?’
‘हाँ, मैडम।’
‘फिर...?’ लतिका का स्वर कड़ा हो आया। जूली सकुचाकर खिड़की से बाहर देखने लगी।
जब से लतिका इस स्कूल में आई है, उसने अनुभव किया है कि होस्टल के इस नियम का पालन डाँट-फटकार के बावजूद नहीं होता।
‘मैडम, कल से छुट्टियाँ शुरू हो जाएँगी, इसलिए आज रात हम सबने मिलकर... और सुधा पूरी बात न कहकर हेमंती की ओर देखते हुए मुस्कुराने लगी।
‘हेमंती के गाने का प्रोग्राम है; आप भी कुछ देर बैठिए न!’
लतिका को उलझन मालूम हुई। इस समय यहाँ आकर उसने उनके मज़े को किरकिरा कर दिया। इस छोटे-से हिल स्टेशन पर रहते उसे ख़ासा अर्सा हो गया, लेकिन कब समय पतझड़ और गर्मियों का घेरा पार कर सर्दी की छुट्टियों की गोद में सिमट जाता है, उसे कभी याद नहीं रहता।
चोरों की तरह चुपचाप वह देहरी से बाहर हो गई। उसके चेहरे का तनाव ढीला पड़ गया। वह मुस्कुराने लगी।

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