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  • वादा

    रश्मि भारद्वाज उस दिन बारिश हो रही थी। रोहन अपनी खिड़की से बाहर देख रहा था। मन ही मन सोच रहा था, "आज कॉलेज जाने का मन नहीं है।" पर माँ का डाँटा हुआ नाश्ता खाकर वह निकल पड़ा। बस स्टॉप पर भीड़ थी। अचानक उसकी नज़र एक लड़की पर पड़ी। सफ़ेद सलवार-कुर्ती, काले बालों में गुलाबी रिबन... वह किसी परी से कम नहीं लग रही थी। वह उससे आँखें मिलाते ही मुस्कुरा दी। रोहन का दिल धक से रह गया। दो हफ़्ते बाद, कॉलेज के कैंटीन में वही लड़की उसके सामने बैठी थी। नाम था प्रिया। धीरे-धीरे दोनों में दोस्ती हो गई। रोहन को उसकी हँसी पसंद थी, और प्रिया को उसकी शर्मीली चुप्पी। एक दिन, प्रिया ने पूछा, "तुम्हारे सपने क्या हैं?" रोहन ने जवाब दिया, "मेरा सपना... तुम्हारे सपनों को पूरा करना है।" प्रिया की आँखें चमक उठीं। पर जिंदगी आसान नहीं थी। प्रिया के पिता का ट्रांसफर हो गया। विदाई की रात, रोहन ने उसे एक चिट्ठी दी, जिसमें लिखा था: "तुम्हारी याद बिना, हर पल अधूरा है। मुझे यकीन है, हम फिर मिलेंगे।" प्रिया ने आँसूओं के बीच वादा किया, "मैं तुम्हें कभी नहीं भूलूँगी।" साल बीत गए। रोहन एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर बन गया, पर उसका दिल हमेशा उस पार्क में अटका रहा जहाँ प्रिया से पहली मुलाकात हुई थी। एक शाम, वहाँ बैठे-बैठे उसने फेसबुक खोला और अचानक एक नोटिफिकेशन आया। "प्रिया शर्मा ने आपको मैसेज भेजा है।" उसका हाथ काँप गया। मैसेज में लिखा था: "क्या तुम्हारा वादा अब भी कायम है?" अगले दिन, वही पार्क। सूरज ढल रहा था। दूर से प्रिया आती दिखी, उसी सलवार-कुर्ती में। रोहन ने उसकी आँखों में वही चमक देखी। बिना कुछ कहे, दोनों एक-दूसरे से लिपट गए। प्रिया ने कहा, "पापा ने मेरी शादी तय कर दी थी... पर मैंने सब कुछ बता दिया। मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती।" रोहन ने उसके हाथ थामे और कहा, "अब कोई हमें अलग नहीं करेगा।" उस रात, बारिश फिर से शुरू हो गई... पर इस बार, यह बारिश उनके नए सफ़र की गवाह बनी। *****

  • पहली नजर का प्यार

    नीरज मिश्रा हर रोज की तरह आज की सुबह भी सामान्य-सी हुई थी। परदे के पीछे से झांकती सूरज की किरणें नीरज को सोने नही दे रही थी। नीरज एक बड़े हॉस्पिटल का मालिक था साथ ही डॉक्टर भी। क्योंकि जल्दी उसको हॉस्पिटल जाना होता था और देर रात कहीं जाकर घर आने का मौका मिलता था। न खाने का पता न सोने का बस अल्हड़ सी ज़िंदगी चल रही थी नीरज की। जिसमें नीरज खुश भी था। सुबह उठते ही होम थेटर चला देता, ताकि लगे घर में उसके अलावा भी और कोई है। रोमांटिक गाने चलते रहते और वह उसके बजते रहने से काम भी करता रहता है और उसका मन भी लगा रहता है। नीरज को अपना नाश्ता स्वयं ही बनाना अच्छा लगता था। जिसमें डबलरोटी और दूध का ग्लास, बस, हो गया नाश्ता। दोपहर का भोजन वह अस्पताल की कैंटीन में कर लेता और रात का, काम वाली बाई आकर बना जाती थी। नीरज बहुत साधारण जीवन जीता था। किडनी रोग विशेषज्ञ डॉ. नीरज वर्मा अपने काम में पूरी तरह समर्पित रहते, अपने क्षेत्र में नाम चलता था। वर्षों से इस प्राइवेट अस्पताल को चला रहे थे। शहर में तो नाम था ही साथ ही आसपास के शहरों से भी मरीज़ कंसल्टेंट के लिए आते थे। आज दिन भर बहुत मरीज रहे। डॉ नीरज बहुत थक चुके थे, बस अब सबको बोल दिया आज सभी रेस्ट कर लो। तभी “बाहर एक आख़िरी मरीज़ है” नर्स ने बताया और एक महिला को व्हीलचेयर पर भीतर लाया गया। डॉक्टर ने उसे परीक्षण मेज़ पर लिटाने को कहा। जब मरीज के पास पहुँचे तो चेहरा कुछ परिचित सा लगा, पर जिसका ध्यान आया, यह उसकी परछाई मात्र थी। ओपीडी स्लिप पर नाम देखा- गुंजन ही है। बीमारी से अशक्त शरीर, मुरझाया चेहरा, बेहोश तो नहीं, परंतु पूर्णत: सजग भी नहीं। साथ में देखभाल करनेवाली आया और घर का पुराना नौकर रामु। साहब अपने काम से विदेश गए हुए हैं ऐसा बताया। गुंजन की हालत नाज़ुक थी और उसे तुरंत भर्ती करना आवश्यक था और उतना ही आवश्यक था, इस प्राइवेट अस्पताल में अग्रिम राशि जमा करवाना। लेकिन नौकर के पास इतना पैसा कहां से आता? नीरज ने अपनी ओर से पैसे जमा करवा दिया और गुंजन का अस्पताल में दाख़िल करवा दिया, ताकि फ़ौरन इलाज शुरू हो सके। जांच हुई तो पता चला किडनी का कृटनाइन बढ़ा हुआ है डाइसिस शुरू करना होगा। दवा शुरू हुई गुंजन को आराम लगना शुरू हुआ। गुंजन का नौकर रामु ही उसको देखने हॉस्पिटल आता था। जब गुंजन को पता चला कि साहब तो आये थे एक विदेशी लड़की के साथ। दो चार दिन रुके फिर उसी के साथ लौट गए हैं। उन्हें पत्नी की गंभीर अवस्था का पता है और रामु ने उन्हें पैसों के लिए भी कहा है, पर उनका कहना है कि बचना तो वैसे भी नहीं है, तो उन्हें किसी सरकारी अस्पताल में क्यों नहीं ले जाते हो? पैसा फालतू में क्यों खर्चा करना, रामु मालकिन को सरकारी हॉस्पिटल में फेक कर तुम भी अपने घर चले जाओ सुकूँ से जियो। साहब घर पर ताला लगा कर गए हैं मालकिन। ये सब सुनकर जैसे गुंजन के पैरो तले जमींन खिसक गई। दूसरे से प्यार होने के बाद भी पति रूप में मिले विमल को पूरे मन से अपनाया था। गुंजन ने कोई कमी नही रखी थी फिर भी शादी के इतने सालों के बाद विमल ने धोख़ा दिया। एक बार फ़िर गुंजन की हालत सदमे से खराब हो गई। नीरज ने इस बार जी जान लगा दी, खुद पूरा ध्यान दे रहा था। गुंजन एक बार फिर ठीक होने लगी और नीरज की इतनी केयर देख कर अतीत में खो गई। नीरज और गुंजन एक ही कॉलोनी में रहते थे। दोनों एक ही पार्क में खेलकर बड़े हुए थे। बचपन का वह धमा-चौकड़ीवाला दौर धीरे-धीरे लड़कियों के लिए पार्क में चक्कर लगाने और लड़कों के लिए क्रिकेट फुटबॉल खेलने में बदल गया। इन सब के बीच एक उम्र ऐसी आती है, जब परिचित लड़कों की निगाहें बचपन संग खेली लड़कियों को एक अलग नज़र से देखने लगती हैं और जो बचपन की नज़र से बहुत अलग होती हैं। उन्हें देखकर कुछ अलग तरह का महसूस होने लगता है। यह बदलाव धीरे-धीरे आता है कि उन्हें स्वयं भी इस बात का पता नहीं चल पाता, बहुत नया-सा अनुभव होता है यह पहली नज़र वाला प्यार। स्कूल के बाद नीरज मेडिकल करने लगा, और गुंजन एम ए, पर रहते तो आसपास ही थे, सो मिलना होता रहा। मेडिकल करते हुए गुंजन और नीरज ने निश्‍चय कर लिया था कि जीवन तो साथ ही बिताना है। नीरज का मेडिकल पूरा हो चुका था। उसे गुंजन से पता चला कि उसके माता-पिता उसके विवाह की सोच रहे हैं, तो वह उनसे मिलने गया। गुंजन के पिता ने बड़ी देर तक बात की और कड़े शब्दों में समझाया कि जाति अलग है शादी नही हो सकती और गुंजन की पसन्द से तो बिल्कुल नही। वो इतनी बड़ी हो गई कि खुद का रिश्ता कर लेगी परिवार की नाक कटवाएगीI बस यही से गुंजन और नीरज के रास्ते अलग हो गए। गुंजन की दूसरी जगह शादी और नीरज को पढ़ने विदेश भेज दिया गया। जिससे दोनों के सर से प्यार का भूत उतारा जा सके। रूम पर खट की आवाज़ से गुंजन की आँख खुली। वो सपनों से तो बाहर थी पर उसकी आँखों में आँसू देख नर्स ने पूछ लिया क्या हुआ मैडम, आप को कोई दिक्कत है क्या। गुंजन ने हँसते हुए बोला आप लोगों के रहते मुझे क्या दिक्कत। अब गुंजन की तबियत काफी ठीक हो चुकी थी। पूरे हॉस्पिटल में चक्कर लगा कर आ जाती। शाम अधिकतर डॉ नीरज गुंजन के साथ ही डिनर करके जाते। पूरे दो महीने बाद गुंजन एक दम ठीक हो गई और हॉस्पिटल से डिस्चार्ज होने का टाइम आ गया। अब गुंजन का कोई ठिकाना नही था। जाए भी तो कहाँ इसी सोच में डूबी गुंजन को डॉ नीरज की आवाज़ आती है। गुंजन एक बार फिर मैं तुम्हारा हाँथ थामना चाहता हूँ अगर तुम तैयार हो तो। एक फाइल डॉ नीरज ने गुंजन को थमाया और शाम तक उत्तर देने का बोल कर चला गया। गुंजन, डॉ नीरज के ही केबिन में बैठ कर उनके द्वारा दी हुई फाइल पढ़ने लगी। फाइल पढ़ते ही गुंजन की आँख से आँसू की धारा बहने लगी। उसमें लिखा था, गुंजन मेरा पहला प्यार तुम थी और रहोगी। लेकिन आज मैं जो कर रहा हूँ तुम पर कोई एहसान नही बल्कि जब जॉब में आया तभी से सोच लिया था, तुम मेरा हिस्सा हो। भले हमारी शादी न हुई हो। मेरा घर और हॉस्पिटल की आधी जमीन और मेरी कमाई का आधा हिस्सा जो तुम्हारा अलग रखा था आज तुम्हे सौप कर मैं बोझ मुक्त हो जाऊँ। अगर तुम तैयार हो तो एक दोस्त के रूप में में सैदव तुम्हारे साथ हूँ, पर तुम्हारी मर्जी से। ये लाईन पढ़ते पढ़ते गुंजन रोने और सोचने लगी, तीन मर्दो के बारे में, जो उसके जीवन में आये थे। एक उसके पिता जिन्होंने कभी गुंजन की इच्छा चलने नही थी, दूसरा गुंजन का पति जिसने कभी इच्छा पूछी ही नही और तीसरे डॉ नीरज जिन्होंने पूरी इच्छा ही गुंजन पर छोड़ दिया था। गुंजन का अतीत उसकी आँखों से बह रहा था और डॉ नीरज उसको भगवान के स्वरूप लग रहे थे। ******

  • दोस्त

    रंजन यादव उन चारों को होटल में बैठा देख, रमेश हड़बड़ा गया। लगभग 25 सालों बाद वे फिर उसके सामने थे। शायद अब वो बहुत बड़े और संपन्न आदमी हो गये थे। रमेश को अपने स्कूल के दोस्तों का खाने का आर्डर लेकर परोसते समय बड़ा अटपटा लग रहा था। उनमे से दो मोबाईल फोन पर व्यस्त थे और दो लैपटाप पर। रमेश पढ़ाई पूरी नही कर पाया था। उन्होंने उसे पहचानने का प्रयास भी नही किया। वे खाना खा कर बिल चुका कर चले गये। रमेश को लगा उन चारों ने शायद उसे पहचाना नहीं या उसकी गरीबी देखकर जानबूझ कर कोशिश नहीं की। उसने एक गहरी लंबी सांस ली और टेबल साफ करने लगा। टिश्यु पेपर उठाकर कचरे मे डलने ही वाला था, शायद उन्होंने उस पे कुछ जोड़-घटाया था। अचानक उसकी नजर उस पर लिखे हुये शब्दों पर पड़ी। लिखा था - अबे साले तू हमें खाना खिला रहा था तो तुझे क्या लगा तुझे हम पहचानें नहीं? अबे 20 साल क्या अगले जनम बाद भी मिलता तो तुझे पहचान लेते। तुझे टिप देने की हिम्मत हममें नही थी। हमने पास ही फैक्ट्री के लिये जगह खरीदी है और अब हमारा इधर आन-जाना तो लगा ही रहेगा। आज तेरा इस होटल का आखरी दिन है। हमारे फैक्ट्री की कैंटीन कौन चलाएगा बे, तू चलायेगा ना? तुझसे अच्छा पार्टनर और कहां मिलेगा?  याद हैं न स्कूल के दिनों हम पांचो एक दुसरे का टिफिन खा जाते थे। आज के बाद रोटी भी मिल बाँट कर साथ-साथ खाएंगे। रमेश की आंखें भर आई। सच्चे दोस्त वही तो होते हैं जो दोस्त की कमजोरी नही सिर्फ दोस्त देख कर ही खुश हो जाते हैं। *****

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  • Terms and condition | Rachnakunj

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