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मित्रता की परख

डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव

रमानाथ और दीनानाथ में गहरी दोस्ती थी। दोनों ही एक-दूसरे पर जान छिड़कने का दम भरा करते थे। एक दिन दोनों घने जंगल से होकर गुजर रहे थे कि मार्ग में उन्हें एक भालू आता दिखाई दिया। वह उनकी तरफ़ ही आ रहा था। रमानाथ तेजी से भागकर निकट के पेड़ पर चढ़ गया। उसने अपने मित्र दीनानाथ की तनिक भी चिंता नही की। वह बोला, ‘भाई दीनानाथ! जान है तो जहान है। तुम भी अपने बचाव का रास्ता खोजो।’
दीनानाथ को पेड़ पर चढ़ना नही आता था और न ही उसके पास वहाँ से भागने का कोई मौका था। अचानक उसके मस्तिष्क में एक सुनी-सुनाई बात याद आई कि मृतक को भालू नही खाते वह तुरंत ही साँस रोककर बेजान-सा होकर लेट गया। उसने अपनी आँखें बंद कर ली। भालू दीनानाथ के पास आया और उसके शरीर को सूँघकर चुपचाप आगे बढ़ गया।
जब भालू कुछ दूर निकल गया तब दीनानाथ उठ बैठा और रमानाथ भी पेड़ से नीचे उतर आया। उसने दीनानाथ से पूछा, ‘भालू ने तुम्हारे कान में क्या कहा था?’
दीनानाथ बोला, ‘उसने कहा कि स्वार्थी मित्रों से हमेशा दूर रहना चाहिए।’
सार - मित्रता करने का दम भरना बेशक अच्छी बात है। लेकिन यदि मित्रता निभानी नही आती तो सब बेकार है। सच्चे मित्र की परख तो संकटकाल में ही होती है। भालू ने बेशक दीनानाथ के कान में कुछ नही कहा, परंतु वह समझ गया कि रमानाथ से किनारा करना ही ठीक होगा। अतः स्वार्थी मित्रों से बचकर रहना चाहिए।

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