खुशी...
- मंजू सक्सेना
- Mar 28
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मंजू सक्सेना
उसके पास चालीस की उम्र होते होते सब कुछ था। अच्छी सरकारी नौकरी, सुंदर और सुलक्षणा पत्नी, दो प्यारे बच्चे, अपना मकान पर फिर भी वो प्रसन्न नहीं था, कहीं कुछ भीतर जैसे चिटका हुआ था। जिससे वो ख़ुद भी अपरिचित था। पर उस टूटन की भड़ास उसकी ज़ुबान और भावभंगिमा से जबतब हर किसी पर निकलती रहती थी।
दफ़्तर में मातहत उससे थरथर काँपते तो घर में पत्नी और बच्चे उसके सामने दबे सहमें रहते। पर उसे इसमें भी सुकून नहीं था। न जाने भीतर क्या बेचैनी थी जिस के ताप से वो जैसे उछलता रहता था। उस दिन बेध्यानी में वो बंगले के पीछे रहने वाले माली के घर की ओर पँहुच गया था।
"अरे मालिक आप…", ज़मीन पर बैठ कर एक ही थाली में पत्नी और बच्चों के साथ खाना खाता ननकू हड़बड़ा कर खड़ा हो गया।
"खाना खाओ तुम, "कहने के साथ ही उसकी नज़र उसकी पत्नी पर पड़ी जिसने उसे देखते ही घूंघट कर लिया था। पर उसके पहले ही वो उसके सांवले चेहरे की चमक देखकर हैरान था, कितनी खुश लग रही थी और दोनों छोटी लड़कियां भी जैसे खुशी से भरपूर थीं।
वो घर वापस आया तो पत्नी का बुझा चेहरा और सहमें बच्चे देख कर फिर उसका क्रोध उतर आया।
दो दिन बाद फिर न चाहते हुए भी उसके क़दम ननकू के घर की ओर मुड़ गये।
"अरे सब्जी ना है तो नोन मिर्च से खा लेंगे, तू चिंता काहे करत है", भीतर से ननकू का हँसता हुआ स्वर उभरा और साथ ही दोनों बच्चों की किलकारियां गूँज उठीं, "हाँ, अम्मा, बप्पा ठीक कहत हैं"।
उसकी आँखों के सामने ननकू की छवि घूम गई। दिन की झुलसाती धूप में भी वो हर बंगले में सुबह से शाम तक गुड़ाई निराई करता है, पर फिर भी कितना संतुष्ट सा है।
"ननकू, तू दिन भर इतनी मेहनत करता है। साहब लोगों की डाँट भी खाता है। पर तू भी खुश रहता है और तेरा परिवार भी, क्या तुझे क्रोध नहीं आता", आज हिम्मत करके उसने पूछ ही लिया तो हैरान सा ननकू उसकी तरफ़ देख कर मुस्कुरा दिया, "साहब., गलती माफ़ हो तो एक बात पूछूँ?"
"हाँ, पूछ"
"हम इत्ती मेहनत जिनकी ख़ातिर करत हैं अगर वही खुश नहीं हैं तो हमार मेहनत का का फ़ायदा"
"मतलब…?"
"मतलब, अगर हम उन्हीं पर गुस्सा गुस्सी करते रहे तो वो कैसे खुश रहेंगे और वो खुश नहीं तो हम ख़ुद कैसे खुश रह पाएंगे?"
उसने चौंक कर उस अनपढ़ गंवार माली को देखा। 'ज़िंदगी की कितनी बड़ी फ़िलासफ़ी हल्के में समझा गया था जिसे वो कितनी ही डिग्रियां लेने के बाद भी नहीं समझ पाया था'।
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