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  • आवरण

    सुमन द्विवेदी धाड़… धाड़… धाड़… सविता का कलेजा तेज़ी से धड़कने लगा। ऐसा लग रहा था जैसे वह बहुत दूर से दौड़ कर आ रही हो। ठंड के मौसम में भी उसके कानों के पीछे पसीने की बूंदें चुहचुहा आई थीं। जो कुछ भी उसकी आंखें देख रही थीं, उस पर वह स्वप्न में भी विश्‍वास नहीं कर सकती थी। विश्‍वास! हां विश्‍वास ही तो किया था उसने कामिनी पर। सगी बहन से भी ज़्यादा विश्‍वास। वही कामिनी विश्‍वास की इमारत को गिरा इतनी रात देवेश के कमरे में जा रही थी। पतन की पराकाष्ठा! छल की प्रत्यंचा पर चढ़ा बाण सविता की अंतरात्मा को बींधे डाल रहा था। क्रोध की अधिकता से उसने अपनी आंखें बंद कर लीं, तो पिछले दो माह की घटनाएं क्षणांस में आंखों के सामने तैर गईं। “हेलो।” उस दिन मोबाइल की रिंग सुन उसने फोन उठाया। “हेलो सवि कैसी हो?” उधर से अपनत्व भरा स्वर सुनाई पड़ा। “अरे कामिनी तू? कैसी है? कहां चली गई थी? इतने वर्षो बाद आज मेरी याद कैसे आ गई? तू बोल कहां से बोल रही है?” सविता ने एक सांस में प्रश्‍नों की झड़ी लगा दी। वह अपने बचपन की सहेली कामिनी को पहचान गई थी। “इतने सारे प्रश्‍न एक साथ…” कामिनी खिलखिलाकर हंसी। फिर बोली, “अच्छा चल, सभी के उत्तर सुन। मैं तेरे शहर से ही बोल रही हूं। मैं बिल्कुल ठीक हूं। भले ही वर्षो से हमारी मुलाक़ात न हुई हो, लेकिन मैं तुझे एक पल के लिए भी भूल नहीं सकी हूं। कुछ और पूछना है तो बता?” “बहुत कुछ पूछना है तुझसे। शायद इतना कि तू बता भी न सकेगी। अरे बचपन की दोस्ती को तूने एक झटके में तोड़ दिया और फिर पलट कर भी नहीं देखा। क्या खता थी मेरी? कौन-सा गुनाह किया था मैंने?” बोलते-बोलते सविता का स्वर भारी हो गया। “जब हम मिलेंगे, तब धीरे-धीरे तू स्वयं सब कुछ जान जाएगी, मेरे बताने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। वैसे इसमें खता तेरी नहीं, बल्कि मेरी ही थी।” कामिनी का भी स्वर भारी हो गया। “तू हैदराबाद कब आई और यहां कब तक रहेगी?” “इन्होंने हैदराबाद की एक बड़ी कंपनी को टेकओवर किया है और अब हम लोग यहीं रहेंगे।” “तब तो बहुत मज़ा आएगा। शाम को तुम लोग घर आ जाओ। देवेश भी तुम्हें देख कर बहुत ख़ुश होंगे।” सविता उत्साह से भर उठी। “मैं अकेले आ जाऊंगी।” “और जीजाजी?” “वे नहीं आ पाएंगे। नया शहर और नया काम है, इसलिए उनकी व्यस्तताएं बहुत ज़्यादा हैं।” कामिनी ने ठंडी  सांस भरी। “ठीक है तू ही आ जा। जीजाजी से बाद में मिल लूंगी। वैसे उनसे मिलने का बहुत मन है। मैं भी तो देखूं कि वो कौन है कामदेव का अवतार जिसने हमसे हमारी हुस्न परी को छीन लिया है।” सविता हंसते हुए बोली। अचानक फोन कट गया। सविता ‘हेलो हेलो…’ करती रह गई। उसने कई बार कोशिश की, लेकिन कामिनी का मोबाइल स्विच ऑफ था। उसे कामिनी से बहुत सारी बातें पूछनी थीं, लेकिन अब शाम की प्रतीक्षा करने के अलावा और कोई चारा न था। कामिनी और सविता में बचपन से दांत काटी दोस्ती थी। सविता की शादी पहले हो गई थी। उसकी कोई बहन नहीं थी, लेकिन कामिनी ने कभी उसे बहन की कमी महसूस नहीं होने दी थी। उसकी शादी में भी उसने नटखट साली की भूमिका बख़ूबी निभाई थी। जूता चुराने से लेकर दरवाज़ा रोकने की रस्म पूरी करते-करते उसने देवेश को नाकों चने चबवा दिए थे। ससुराल जाने के बाद भी सविता और कामिनी के मधुर संबध बने रहे। सविता जब मायके आती दोनों दिनभर साथ रहतीं। देवेश की खातिरदारी की ज़िम्मेदारी भी कामिनी अपने ही सिर ले लेती थी। फिर अचानक सब कुछ बिखर-सा गया। कामिनी ने बिना किसी कारण सारे सम्पर्क सूत्र तोड़ लिए थे। उड़ते-उड़ते ख़बर मिली थी कि किसी अरबपति से कामिनी का विवाह हो गया है। उसके पति रवि के माता-पिता का काफ़ी पहले देहांत हो गया था। अनाथ रवि ने ट्यूशन करके पढ़़ाई पूरी की थी। इंजीनियरिंग के दौरान ही उसने एक नया सॉफ्टवेयर बना लिया था। दो साल नौकरी करने के बाद उसने अपना स्टार्टअप शुरू कर दिया। आई.टी. इंडस्ट्री ने उसके बनाए सॉफ्टवेयर को हाथोंहाथ ले लिया था। रवि की कंपनी सफलता के नित नए कीर्तिमान स्थापित करने लगी थी। एक समारोह में कामिनी को देख उन्होंने स्वयं उसके माता-पिता से उसका हाथ मांग लिया था। बिना दहेज के अपनी बेटी का विवाह एक मल्टी मिलेनियर से कर कामिनी के माता-पिता अभिभूत थे। कामिनी का विवाह अरबपति से हुआ है, ये जान सविता को बहुत प्रसन्नता हुई थी। किन्तु उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि आख़िर कामिनी ने उसे अपने विवाह की सूचना क्यों नहीं दी? उसका दिल यह मानने के लिए तैयार नहीं था कि अकूत पैसेवाले से विवाह होने के कारण उसकी सहेली के मन में घमंड आ गया होगा। वैसे इस रहस्य पर से आज पर्दा उठ ही जाएगा। सविता ने जब देवेश को कामिनी के आने की सूचना दी, तो उनका चेहरा भी प्रसन्नता से खिल उठा। उन्होंने कहा, “तुमने पूछा कि उसने अपनी शादी में हम लोगों को क्यों नहीं बुलाया और इतने दिनों तक सम्पर्क क्यूं नहीं रखा?” “पूछा था, लेकिन उसने बताया नहीं। कहने लगी कि धीरे-धीरे स्वयं सब जान जाओगी।” सविता के स्वर में  न चाहते हुए भी उदासी उभर आई। “ज़रूर कोई ख़ास बात होगी, लेकिन अगर वह स्वयं न बताना चाहे तो तुम भी कुछ मत पूछना।” सविता, देवेश की राय से सहमत नहीं थी, फिर भी उसने इस संबंध में चुप रहने का ही निश्‍चय किया। कामिनी आते ही किसी बच्चे की तरह सविता के गले से लिपट गई। उसका प्यार देख सविता की आंखें छलछला आईं। सारे गिले-शिकवे पल भर में दूर हो गए। कामिनी के पीछे उसका वर्दीधारी शोफर ढेर सारे पैकेट लिए खड़ा था। “ये सब क्या है?” “तेरे लिए साड़ी, जीजाजी के लिए सूट और सनी के लिए खिलौने और चॉकलेट।” कामिनी ने बताया। “अरे, इसकी क्या आवश्यकता थी।” सविता अचकचा उठी। उपहारों  की पैकेजिंग देख उसे उनकी क़ीमत का  अंदाज़ा हो गया था। “चुप्प, दादी अम्मा की तरह भाषण मत झाड़ और सनी को बुला।” कामिनी ने साधिकार डपटा। सनी चंद क्षणों तक तो शर्माता रहा, लेकिन कामिनी की मीठी-मीठी बातों और उपहारों ने उसकी झिझक दूर कर दी। वह उसकी गोद में ऐसे चढ़ कर बैठ गया जैसे बहुत पुरानी जान-पहचान हो। थोड़ी देर बाद जब सविता चाय बनाने के लिए उठी तो कामिनी ने ज़बरदस्ती उसे सोफे पर ढकेलते हुए कहा, “तू यहीं बैठ, चाय मैं बना कर लाती हूं।” “तू चाय बनाएगी?” “क्या मैं नहीं बना सकती? क्या मेरे हाथ-पैर टूट गए हैं?” कामिनी ने आंखें तरेरी। “अरे तू मेहमान है…” “मेहमान होगी तू…” कामिनी ने सविता के गालों पर चुटकी काटी, फिर आंखें नचाते हुए बोली, “इतने दिनों से जीजाजी की सेवा तू कर रही है। आज मुझे कर लेने दे।” कामिनी ने यह बात ऐसे अंदाज़ में कही कि सविता मुस्कुरा कर रह गई और देवेश ठहाका लगाते हुए बोले, “भाई, साली साहिबा के नाज़ुक हाथों के बने स्वादिष्ट व्यंजन खाए एक ज़माना बीत गया है। जल्दी कीजिए, मेरे मुंह में पानी आ रहा है।” “चिंता मत करिए, आज ऐसे व्यंजन खिलाउंगी कि उंगलियां चाटते रह जाइएगा।” कामिनी मुस्कुराई। “किसकी? अपनी या तुम्हारी।” देवेश ने नहले पर दहला जड़ा। इसी के साथ एक सम्मिलित ठहाका गूंज पड़ा। कामिनी थोड़ी ही देर में गर्मागर्म पकौड़ियां और चाय बना लाई। देवेश ने एक पकौड़ी उठाकर मुंह में रखी और कामिनी की ओर देख मुस्कुराते हुए बोले, “अरे वाह, मज़ा आ गया। ये तो तुम्हारी ही तरह स्वादिष्ट हैं।” “एक पकौड़ी मेरे हाथ से खाकर देखिए, स्वाद और बढ़ जाएगा।” कामिनी ने बड़े इसरार के साथ एक पकौड़ी  देवेश की ओर बढ़ाई। देवेश ने बड़ा-सा मुंह फैलाकर गप्प से पकौड़ी मुंह में रख ली, पर अगले ही पल उनके मुंह से सिसकारी निकल गई और वे चीखने लगे। “क्या हुआ जीजाजी।” कामिनी ने मासूमियत से पलकें झपकाईं। “हाय मार डाला। पकौड़ी में मिर्च ही मिर्च भर दी हैं।” देवेश सिसकारी भरते हुए बोले। जलन के कारण उनका चेहरा लाल हो गया था। उसकी हालत देख दोनों सहेलियां खिलखिला कर हंस पड़ीं। काफ़ी देर तक यूं ही हंसी-मज़ाक होता रहा। डिनर कर कामिनी वापस चली गई। उसकी संगत में समय कितनी जल्दी बीत गया, पता ही नहीं चला। इतने वर्षो की रहस्यमय चुप्पी के बारे में न तो सविता ने कुछ पूछा और न ही कामिनी ने कुछ बताया। अगले दिन कामिनी फिर आई, तो सनी के लिए ढेर सारी मिठाई और चॉकलेट ले आई। उसके बाद दो दिनों तक वह नहीं आई। रविवार की सुबह वह बिना बताए ही आ गई और बोली, “चलो आज लुंबनी पार्क में पिकनिक मनाते हैं। बहुत नाम सुना है उसका।” “अगर तू पहले बता देती, तो मैं लंच तैयार कर लेती।” सविता ने टोका। “उसकी चिंता मत कर। मैंने ताज में लंच पैक करने के लिए फोन कर दिया है। रास्ते में ले लेंगे।” कामिनी ने बताया। यह सुन सविता का चेहरा फक्क हो गया। वह जानती थी कि पांच सितारा ताज शहर का सबसे महंगा होटल है। वहां का लंच लेने में पूरे महीने का बजट गड़बड़ा जाएगा। ऐसा ही कुछ देवेश भी सोच रहे थे। “क्या हुआ, आप लोग इस तरह मुंह लटका कर क्यों बैठे हैं? फटाफट तैयार हो जाइए।” कामिनी ने टोका। सविता की समझ में नहीं आया कि क्या कहे। तभी देवेश ने गंभीर स्वर में कहा, “कामिनी, तुम हमारे परिवार की सदस्य की तरह हो, इसलिए मैं तुमसे कुछ छुपाना नहीं चाहता।” “मैं कुछ समझी नहीं।” कामिनी अचकचा उठी। “मैं एक मध्यमश्रेणी का वेतन भोगी इंसान हूं। मेरी इतनी हैसियत नहीं कि पांच सितारा होटल में सबको लंच करा सकूं।” “इसकी चिंता मत करिए, आज का लंच मेरी तरफ़ से है। प्लीज़ ये मत कहिएगा कि बड़ा होने के नाते यह अधिकार आपका ही है। क्या मेरा कोई अधिकार नही?” कामिनी ने उसकी बात काटते हुए कहा। उसकी आंखें अचानक छलछला आई थीं। उसकी आंखों से छलक रहे अश्रुकणों को देख देवेश आवाक रह गए। वे अपनी भूमिका तय नहीं कर पा रहे थे। तभी कामिनी ने गंभीर स्वर में कहा, “आपको शायद पता नहीं कि हम पति-पत्नी ने अपने-अपने कामों का बंटवारा कर रखा है। वे स़िर्फ कमाते हैं और मैं स़िर्फ ख़र्च करती हूं। भरसक प्रयत्न करती हूं कि धन से उफनाती उनकी गागर को खाली कर दूं, लेकिन लगता है उसमें सागर समाया हुआ है, जो कभी खाली ही नहीं होता। मैं गैरों पर पानी की तरह पैसे बहाती हूं, लेकिन आप लोग तो मेरे अपने हैं। आपके लिए कुछ करके मुझे रूहानी ख़ुशी हासिल होती है। प्लीज़, मुझसे ये ख़ुशी मत छीनिए।” कहते-कहते कामिनी फफक पड़ी। उसका यह रूप देवेश और सविता के लिए नितान्त अप्रत्याशित था। बहुत मुश्किल से वे उसे चुप करा सके। वातावरण काफ़ी गंभीर हो गया था, किन्तु लुंबनी पार्क तक पहुंचते-पहुंचते कामिनी सामान्य हो गई थी। सनी को गोद में उठा वह बहुत उत्साह के साथ सभी चीज़ों को दिखा रही थी। आधा पार्क घूमने के बाद सभी एक फव्वारे के पास बैठ गए। सविता और कामिनी ने मिलकर लंच लगा दिया। खाना बहुत ही स्वादिष्ट था। देवेश ने उसकी तारीफ़ करते हुए कहा, “कामिनी, अगर तुम्हारे पति भी साथ आए होते, तो मज़ा दोगुना हो जाता।” अचानक कामिनी के मुंह में कौर अटक गया। खांसते-खांसते उसका ख़ूबसूरत चेहरा लाल हो गया। सविता ने मिनरल वॉटर की बोतल उसकी ओर बढ़ा दी और उसकी पीठ सहलाने लगी। पानी पीने से कामिनी को कुछ राहत मिली। इस बीच बातचीत का विषय बदल गया था। पिकनिक से वापस घर लौटने पर सविता ने कहा, “अगली बार जीजाजी को साथ लेकर ही आना।” “क्या मैं अकेले नहीं आ सकती?” कामिनी ने अपनी पलकें उठाईं। “मेरा यह मतलब नहीं था। दरअसल, उनसे मिलने का बहुत मन था।” “वे बहुत व्यस्त रहते हैं। इधर-उधर जाने का समय ही नहीं निकाल पाते।” कामिनी ने बताया। “अब ऐसी भी क्या व्यस्तता कि इंसान अपनों से एक बार भी मिलने का समय न निकाल सके?” सविता के स्वर में उसका रोष झलक उठा। “अब तुम्हें कैसे समझाऊं।” कामिनी ने ठंडी सांस भरी फिर बिना कुछ कहे चली गई। सविता को उसका व्यवहार बहुत अजीब-सा लगा। वह देवेश की ओर मुड़ते हुए बोली, “लगता है कि रवि जी को अपने पैसों पर बहुत घमंड है। तभी हम लोगों से मेलजोल नहीं रखना चाहते।” “ऐसी बात नहीं है। रवि जी तो बहुत अच्छे इंसान हैं। घमंड तो उन्हें छू भी नहीं गया है।” “क्या आप उन्हें जानते हैं?” “हां, उनकी कंपनी का खाता मेरे बैंक में ही है। वे अक्सर वहां आते रहते हैं। मैनेजर से लेकर पूरा स्टाफ उनकी बहुत इज़्ज़त करता है। वे सेल्फमेड आदमी हैं। शून्य से शिखर तक पहुंचने की उनकी कहानी किसी के लिए भी प्रेरणा का काम कर सकती है।” देवेश ने बताया। “आपने अभी तक उन्हें घर आने का निमंत्रण क्यूं नहीं दिया?” सविता के स्वर में रोष उभर आया। “जब तक कामिनी स्वयं उनसे हमारा परिचय न करा दे, तब तक अपनी तरफ़ से परिचय गांठना ठीक नहीं होगा। पता नहीं क्या बात है, जो कामिनी उनसे हमारी दूरी बनाए रखना चाहती है।” देवेश ने समझाया। सविता को कोई जवाब नहीं सूझा, तो चुप हो गई। कामिनी का उसके घर आना-जाना पूर्ववत जारी था। जब भी आती, ऐसा घुल-मिल जाती जैसे इसी परिवार की सदस्य हो। लेकिन भूल कर भी किसी को अपने घर चलने के लिए न कहती। न ही कभी रवि को साथ लेकर आती। सविता का मन कभी-कभी क्रोध से भर उठता। किन्तु कामिनी का निश्छल व्यवहार देख चुप रह जाती। एक दिन सुबह वह कपड़े फैलाने छत पर गई, तो सीढ़ियों से पैर फिसल गया। फ्रैक्चर तो नहीं हुआ, किन्तु चोट काफ़ी लगी थी। कामिनी को ख़बर मिली, तो भागी-भागी आई। सविता को दवा देने से लेकर सनी को खिलाने-पिलाने तक की ज़िम्मेदारी उसने संभाल ली। उसके आ जाने से देवेश को काफ़ी राहत मिल गई थी, वरना उनके तो हाथ-पैर ही फूल गए थे। सविता को काफ़ी दर्द हो रहा था, अत: कामिनी रात में वहीं रुक गई। उसके पति तीन दिनों के लिए बाहर गए हुए थे। सविता ने कामिनी को अपने साथ बेडरूम में सुला लिया। देवेश ड्रॉइंगरूम में दीवान पर सो गए। देर रात कुछ आहट सुन सविता की आंख खुली, तो उसने कामिनी को दबे पांव ड्रॉइंगरूम की ओर जाते देखा। आहिस्ता से दरवाज़ा खोल कामिनी भीतर घुसी, फिर बहुत सावधानी से दरवाज़े को बंद कर लिया। सविता का कलेजा बुरी तरह धड़क उठा। माथे पर पसीने की बूंदें छलछला आईं और सांसें फूलने-सी लगीं। जिस नग्न सत्य की वह स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकती थी, वह पूर्ण प्रचंडता के साथ सामने उपस्थित था। कामिनी का रोम-रोम सुलग उठा। वह बिस्तर से उठकर दरवाज़े के क़रीब पहुंची और उसकी झिर्री पर अपनी आंख लगा दी। दीवान पर लेटे देवेश के चेहरे पर अभूतपूर्व शांति छाई हुई थी। कामिनी उनके बगल में लेट गई और अपना हाथ देवेश के चौड़े सीने पर रख दिया। देवेश के चेहरे पर मुस्कान तैर गई और उसने कामिनी को अपनी बांहों में समेट लिया। उनका यह रूप देख सविता का खून खौल उठा, कामिनी को वह अपनी बहन मानती थी और वह उसकी आंखों में धूल झोंक वासना का गंदा खेल खेल रही थी। देवेश पर उसने हमेशा अपने से ज़्यादा विश्‍वास किया था और वह उसके साथ इतना बड़ा विश्‍वासघात कर रहा था। क्रोध की अधिकता से सविता की मुट्ठियां भिंच गईं। उसने दरवाज़ा खोलने के लिए हाथ आगे बढ़ाया, तभी देवेश ने अपनी आंखें खोलीं और कामिनी को देख हड़बड़ाते हुए उठ बैठे और आश्‍चर्य से बोले, “कामिनी तुम?” “हां मैं।” कामिनी फुसफुसाई। सविता के बढ़े हुए हाथ अपनी जगह रुक गए। तभी देवेश का स्वर सुनाई पड़ा, “तुम यहां क्या कर रही हो?” “जीजाजी, आज की रात के लिए मुझे अपना बना लीजिए।” “ये तुम क्या कह रही हो?” देवेश झटके से दीवान से नीचे उतर पड़े। “मुझे निराश मत करिए। जब से हैदराबाद आई हूं, इसी मौ़के की तलाश में थी। आज जाकर अवसर मिल पाया है।” कामिनी ने देवेश का हाथ थाम लिया। देवेश ने उसका हाथ झटक दिया और नफ़रत भरे स्वर में बोले, “शर्म आनी चाहिए तुम्हें। अगर शरीर की आग ही बुझानी थी, तो दुनिया में मर्दों की कौन-सी कमी थी, जो अपनी बहन जैसी सहेली के मांग के सिंदूर को कलंकित करने चली आयी हो?” “आप मुझे ग़लत समझ रहे हैं।” कामिनी का स्वर कातर हो उठा। “तुम्हारा यह रूप देखने के बाद अब समझने को रह ही क्या जाता है… ” देवेश के स्वर से  उनकी  घृणा  टपक  रही थी। “अभी बहुत कुछ समझना बाकी है।” कामिनी ने सिसकारी-सी भरी फिर बोली, “मैं तन की प्यास बुझाने आपके पास नहीं आई थी।” “तो फिर?” “अपनी वंश बेल चलाने के लिए मुझे एक बच्चा चाहिए। मैं कोई बाज़ारू औरत नहीं हूं, जो किसी ऐरे-गैरे मर्द को अपने शरीर पर हाथ लगाने दूंगी। आप मुझे अपने लगे थे, इसीलिए आपसे अपनी कोख के लिए वरदान चाहती थी।” कामिनी नज़रें झुकाते हुए बोली। शर्म और अपमान से उसका चेहरा लाल हो रहा था। “क्या रवि बाबू में कोई कमी है?” “नहीं वे एक शक्तिशाली पुरुष हैं और अपनी इस शक्ति का भरपूर प्रयोग मुझ पर करते रहते हैं। शादी के पहले वर्ष ही मैं उनके बच्चे की मां बनने वाली थी, लेकिन मैंने उन्हें बताए बिना एर्बाशन करवा दिया था। उसके बाद से मैं पूरी सावधानी बरतती हूं।” कामिनी ने अंगूठे से फ़र्श खुरचते हुए बताया। “तुम क्या कह रही हो, मेरी तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा? अगर रवि बाबू पूर्णतया सक्षम हैं, तो तुम्हें दूसरा सहारा खोजने की क्या आवश्यकता है?” देवेश झल्ला उठे। “आप मेरे पति को नहीं जानते, इसीलिए ऐसा कह रहे हैं।” “मैं उनको अच्छी तरह जानता हूं। उनका खाता हमारे ही बैंक में है। वे अक्सर हमारे यहां आते रहते हैं। तुमने उनसे हमारा परिचय नहीं करवाया था, इसलिए मैंने भी उनसे कभी कुछ नहीं कहा।” “आप उन्हें जानते हैं फिर भी मुझसे कारण पूछ रहे हैं?” कामिनी का स्वर आश्‍चर्य से भर उठा। “कामिनी, पहेलियां मत बुझाओ। साफ़-साफ़ बताओ बात क्या है।” देवेश खीजते हुए बोले। उनकी अकुलाहट बढ़ती जा रही थी। कामिनी के चेहरे पर दर्द की रेखाएं तैर गईं। उसने अपनी आंखें बंद कर ली। ऐसा लग रहा था जैसे उसके अंदर कोई संघर्ष चल रहा हो। चंद क्षणों पश्‍चात उसने अपनी आंखें खोलीं, फिर भारी स्वर में बोली, “उन्होंने मुझसे शादी नहीं की है, बल्कि अपने पैसों के दम पर ख़रीदा है। दुनिया की कोई भी औरत उनके जैसे काले कलूटे व्यक्ति से शादी नहीं करना चाहेगी, लेकिन मेरे मां-बाप को उनके पैसों के चकाचौंध के आगे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा। मैं उनके साथ घर के बाहर कदम नहीं रख सकती, क्योंकि लोग हमारी बेमल जोड़ी को देखकर जब मुस्कुराते हैं, तब मेरा दम घुटने लगता है।” इतना कहकर कामिनी पल भर के लिए रुकी, फिर बोली, “औरत अपने पति को प्यार किए बिना ज़िंदा रह सकती है, लेकिन अपनी संतान को प्यार किए बिना ज़िंदा नहीं रह सकती। यह सोच कर मेरा कलेजा दहल उठता है कि अगर मेरी औलाद भी अपने बाप की ही तरह कुरूप हुई और मैं उसे भी प्यार न कर सकी, तो क्या होगा? अपने बाप के कारण उस मासूम को अकारण ही दंड भोगना पड़ेगा, इसलिए मैंने आज तक रवि के बच्चे को जन्म नहीं दिया।” यह सुन देवेश का चेहरा संज्ञाशून्य-सा हो गया। ऐसा लग रहा था जैसे वे किसी तूफ़ान का सामना कर रहे हों। चंद क्षणों पश्‍चात उन्होंने अपने को संभाला और कामिनी की आंखों में झांकते हुए बोले, “मैं तुम्हें बहुत समझदार समझता था, लेकिन तुम भी स़िर्फ बाहरी सुंदरता पर विश्‍वास करती हो। प्रतिभा, योग्यता और शराफ़त जैसे शब्द तुम्हारे लिए अर्थहीन हैं?” “आप कहना क्या चाहते हैं?” कामिनी अचकचा उठी। “रवि की आरम्भिक दरिद्रता, उनके परिश्रम, स्वावलंबन और सफलता की कहानी आज देश के सभी उद्योगपतियों की ज़ुबान पर है। पूरा समाज उस प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति को सम्मान की दृष्टि से देखता है। हर संघर्षशील व्यक्ति उन्हें अपना आदर्श मानता है, लेकिन सफलता के शिखर पर बैठा वह व्यक्ति तुम्हारी दृष्टि में इतना हीन है, मुझे मालूम न था।” देवेश ने एक-एक शब्द पर ज़ोर देते हुए कहा। फिर गहरी सांस भरते हुए बोले, “तुम्हारी भावनाएं क्या हैं तुम्हीं जानो, लेकिन मैं एक बच्चे का बाप हूं और इस हैसियत से कह सकता हूं कि दुनिया का हर बाप चाहेगा कि उसका बच्चा रवि बाबू जैसा ही सुयोग्य हो। वह इंसान घृणा का नहीं, बल्कि पूजा के योग्य है, लेकिन तुम…” देवेश ने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया था, लेकिन उसके निहितार्थ ने कामिनी की अंतरात्मा तक को झकझोर दिया था। उसके होंठ कांप कर रह गए, वह चाहकर भी कुछ कह नहीं पा रही थी। तस्वीर का जो रुख देवेश ने प्रस्तुत किया था, उस ओर आज तक उसने देखा ही न था। अपनी बात का प्रभाव होता देख देवेश ने स्नेह भरे स्वर में समझाया, “नारी, पुरुष की अर्धांगिनी होती है। रवि बाबू सर्वगुण सम्पन्न हैं, स़िर्फ शारीरिक सुंदरता नामक नश्‍वर गुण की कमी है उनमें। एक अर्धांगिनी के रूप में तुम उनकी इस कमी को पूरा कर सकती हो। यदि तुम्हारी सुंदरता और उनकी योग्यता का एक अंश भी तुम्हारी संतान में आ गया, तो वह लाखों में एक होगी।” “जीजाजी…” कामिनी के होंठ कांप कर रह गए। “सूर्य की अर्धांगिनी हो तुम और जुगनुओं से अपने घर में उजियारा करना चाहती हो? अमृत कलश तुम्हारे हाथ में है और तुम विषपान को तत्पर हो? अलौकिक सौंदर्य को बिसरा कर लौकिक सौंदर्य के मोहपाश में बंधना चाहती हो?” देवेश अपने रौ में कहे जा रहे थे। किंतु उनके मुंह से निकला एक-एक शब्द कामिनी के अंर्तमन में उतरता चला जा रहा था। आज तक वह कोयले के बाहरी आवरण को ही देखती रही थी, उसके भीतर छुपे हीरे को पहचान ही नहीं पाई थी। रवि उसकी छोटी-सी-छोटी ख़ुशी का ध्यान रखते थे और उसने आज तक उन्हें जीवन की सबसे बड़ी ख़ुशी से वंचित रखा था? सोचते-सोचते कामिनी की आंखें भर आईं और वह देवेश के सामने हाथ जोड़ फफक पड़ी, “जीजाजी, मुझे माफ़ कर दीजिए। रूप के झूठे अहंकार के कारण मैं आज तक अंधेरे में भटकती रही। अज्ञानतावश मैंने अपने साथ-साथ रवि की ख़ुशियों को भी निगल डाला है, लेकिन आपने मेरी आंखें खोल दी हैं। आपका यह उपकार मैं जीवनभर नहीं भूलूंगी।” “मैंने तुम्हें हमेशा अपनी छोटी बहन की दृष्टि से देखा है। मुझे विश्‍वास है कि तुम्हारे कदम फिर कभी नहीं डगमगाएंगे।” देवेश ने स्नेह से कामिनी के सिर पर हाथ फेरा, फिर बोले, “सौभाग्यशाली हो तुम, जो तुम्हें रवि बाबू जैसे महान व्यक्ति की पत्नी और उनकी संतान की जननी होने का अवसर मिला है। मुझे विश्‍वास है कि तुम अपने वरदान को अभिशाप में बदलने की नादानी नहीं करोगी।” “मैं आपका यह विश्‍वास जीवन भर बनाए रखूंगी, लेकिन एक अनुरोध है।” “क्या?” “हमारे बीच आज जो कुछ भी हुआ, उसे सविता को मत बताइएगा।” कामिनी ने हाथ जोड़ते हुए प्रार्थना की। “पति-पत्नी का रिश्ता विश्‍वास का होता है। मैं सविता को अच्छी तरह जानता हूं, मुझे विश्‍वास है कि अगर मैं उसे पूरी बात बता दूंगा, तब भी तुम्हारे प्रति उसके व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आएगा। वह तुम्हें बहुत प्यार करती है।” “लेकिन तब मैं उसकी नज़रों का सामना नहीं कर पाऊंगी। अपनी नादानियों के कारण मैं पहले ही बहुत कुछ खो चुकी हूं। अब मैं सविता जैसी दोस्त को नहीं खोना चाहती।”  कामिनी  का  स्वर  कातर  हो  गया  और  वह  सिसक  उठी। “ठीक है, अगर तुम नहीं चाहती, तो मैं उसे कुछ नहीं बताऊंगा। अब जाओ चुपचाप सो जाओ।”  देवेश  ने  स्नेहपूर्वक  कहा। इससे पहले कि कामिनी दरवाज़े की तरफ़ बढ़ती, सविता फुर्ती से आकर बिस्तर पर लेट गई। उसकी आंखें बंद थीं, लेकिन उसमें देवेश की मुस्कुराती हुई तस्वीर कैद थी। उसकी दृष्टि में आज देवेश का कद बहुत ऊंचा हो गया था। उसे इस बात का गर्व था कि वह देवेश जैसे इंसान की पत्नी है। *****

  • लाख का शेर

    प्रवीण कुमार फारस का राजा और बादशाह अकबर बहुत अच्छे दोस्त थे। वे दोनों एक दूसरे को पहेलियाँ व चुटकले भेजा करते थे। उन्हें एक दूसरे से उपहार प्राप्त करने में आनंद प्राप्त होता था, जिससे उन्हें अपनी दोस्ती बनाये रखने में मदद मिलती थी। एक दिन बादशाह अकबर को फारस के राजा से एक बड़ा सा पिंजरा और उसमे नकली शेर तथा एक पत्र प्राप्त हुआ। पत्र में लिखा था, “क्या आपके राज्य का कोई बुद्धिमान व्यक्ति बिना पिंजरा खोले शेर को बाहर निकाल सकता है। यदि पिंजरा खाली नहीं हुआ तो मुग़ल साम्राज्य, फारस साम्राज्य की संप्रभुता के आधीन आ जाएगा।” अकबर ने उत्सुकता भरी नज़रो से एक के बाद एक सारे दरबारियों की ओर देखा और कहा, मैं जानता हूँ कि आप सभी अपने क्षेत्र में बुद्धिमान और विशेषज्ञ हैं। क्या कोई बिना पिंजरा खोले शेर को बाहर ला सकता है?” उसने फिर अपने दरबारियों की ओर उम्मीद भरी नज़रो से देखा। प्रत्येक दरबारी अपने अपने आसन पर जमा हुआ बैठा था। सारे के सारे हैरान और परेशांन थे, क्योकि यह उनकी समझ से परे था। वे एक दूसरे को देख रहे थे। वे सब निराश थे। उस दिन बीरबल दरबार में अनुपस्थित था। वह कही सरकारी कार्य से व्यस्त था। अकबर ने सोचा कि काश बीरबल इस समय यहाँ होता। उन्होंने बीरबल को बुलाने के लिए दूतो को आदेश दिया। अगले दिन अक़बर अपने सिंघासन पर आराम से बैठे हुए थे। बाकी असानो पर अधिकृत दरबारी बैठे हुए थे। एक आसन बीरबल के ना आने से खाली था। तभी बीरबल ने दरबार में प्रवेश किया। उसने झुककर बादशाह का अभिवादन किया और कहा, जहाँपनाह! मैं आप की सेवा में उपस्थित हूं। मेरे लिए क्या आदेश है?” अकबर ने संक्षेप में उसे पूरी बात बताई और फारस के राजा द्वारा भेजा गया पत्र उसके हाथ में रख दिया। बीरबल ने पत्र पढ़ा और पिंजरे की और नज़र डाली। बीरबल ने नौकर को बुलाया और एक लोहे की गरम छड़ लाने को कहा। नौकर ने तुरंत आदेश का पालन किया। बीरबल ने लोहे की गरम छड़ से शेर को छूआ। शेर उस जगह से थोड़ा सा पिघल गया। वह तब तक उसे छूता रहा जब तक पूरा शेर पिघल नहीं गया। फारस का दूत बीरबल की प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुआ। अकबर ने बीरबल से पूछा, “तुमने कैसे जान लिया की यह शेर लाख का बना हुआ है?” “बीरबल ने उत्तर दिया हुजूर! पत्र के अनुसार यह पिंजरा बिना खोले खाली करना था। लेकिन यह नहीं कहा गया था कि शेर को बरक़रार ऱखना है। मैंने बस यह सोचने की कोशिश की यह लाख का भी बना हो सकता है।” फारस का दूत दरबारी अपने राज्य वापस चला आया और उसने बीरबल के बुद्धिमानी की एक और कहानी बताई। *****

  • लक्ष्य

    डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव बहुत मुश्किल से पापा ने आज मुझे आगे की पढ़ाई के लिए शहर भेजने की बात को मान लिया, अम्मा आज मैं बहुत खुश हूं प्यारी अम्मा कहकर मैं गले में लग गई। कमला भी चाहती थी कि बेटी पढ़ लिखकर अपने पैरो पर खड़ी हो तभी उसका विवाह करेंगे, लेकिन पढ़ाई के लिए शहर भेजने से डर भी लगता था कही कुछ ऊंच नीच न कर दे बिट्टो। कमला ने अनिला को पास बिठाया अब मेरी बात सुन बिट्टी। तुम हुआ़ पढ़ाई छोड़ घूमा फिरी न करियो, कौनाऊ अगर गलत बात सुनाई दी तो ऑन दिनई तुमका वापस बुलाई लाई समझी। बहुत भरोसा करके पापा तुमको पढ़ने को भेज रहे हैं। अरे मेरी अम्मा हम पढ़ाई छोड़ कुछ नही घूमा फिरी करिये मुझे पढ़कर अच्छी अफसर बनना है। घर से दूर जाने का डर भी था, परंतु आगे पढ़ने का मन भी था। इसी सब खयालों से आज मैं सो नहीं सकी। सुबह जब पक्षियों ने बोलना शुरू किया तभी उठकर अम्मा के पास आकर लेट गई। क्या हुआ बिट्टी सोई नहीं? तुम्हारे साथ सोई जाई अम्मा कहकर जो सोई तो सूरज चढ़े आंख खुली। पापा ने कानपुर के गर्ल्स डिग्री कॉलेज में मेरा एडमिशन करवा दिया। पापा खुद एक अच्छे टीचर हैं। उनकी गांव में बड़ी इज्जत है। बहुत मुश्किल से एक गर्ल्स हॉस्टल में मेरे लिए जगह मिल गई। एक कमरे में दो लड़कियों को रहना था। मेरे साथ भी एक लड़की रुचिता थी। देखने में बहुत सुंदर फैशन पसंद। मेरा तो पहनना कस्बे की लड़की जैसा था। मुझे तो पढ़ना था, एस. एस. सी. की परिक्षा पास करनी थी। रूचिता की दोस्ती कुछ लड़कों से थी। वह उनके साथ घूमती रहती कभी थोड़ी बहुत पढ़ाई कर लेती। मेरा तो उद्देश्य पढ़ाई और कंप्टीशन की तैयारी था। वह अक्सर अच्छी-अच्छी गिफ्ट लेकर आती। मुझे अब उससे बचकर रहना था। वह मुझे दोस्तों के किस्से उनके साथ की मौज मस्ती सुनाती थी। मै उसके साथ फूक-फूक के कदम रखकर रह रही थी कोई दूसरा कमरा भी मुझे नही मिल रहा था। मुझे अम्मा की बात भी याद आती थी, एक कमरे में रहते उससे दूरी बनाना चाहती थी परंतु वह भी संभव नहीं हो रहा था। एक दिन वह अपने जन्म दिन की पार्टी की बात कहकर मुझे अपने साथ चलने को मजबूर करने लगी। उसने दो तीन लड़कियों के नाम बताए कि वह भी आएंगी। हम लोग एक रेस्टोरेंट में चाय पार्टी करेंगे। मेरी दोस्त ने केक बनने को ऑर्डर किया है प्लीज तुम भी चलो। मैने साथ रहते हुए नही जाना ठीक नही समझा। मैं उसके साथ चली गई उसकी दो लड़कियां दोस्त थी और तीनों के ब्वॉय फ्रेंड थे। मुझे बहुत अजीब लग रहा था। मुझे डर लग रहा था कि कहीं मेरे घर का या पास का कोई मुझे देखेगा और पापा से कहेगा कि मैं यहां मस्ती कर रही हूं तो क्या होगा? मेरे सिर में बहुत दर्द है, मुझे उलटी आ रही है, मुझे रूम पर जाना है। रेस्टोरेंट से निकल कर एक ऑटो रोका और मैं उनसे बचकर अपने कमरे पर आ गई। हॉस्टल के नियम सख्त थे। उसके दोस्त कमरे में नही आ सकते थे। वह मुझे साथ चलने को कहती तो मैने उसे साफ कह दिया मेरे पापा अम्मा ने मुझे पढ़ने बहुत विश्वास के साथ भेजा है, कोई घूमने मौज करने नही। किसी तरह एक साल बीता। अगली साल हमारी तरह की लड़की के रूम में जगह खाली होने पर मैं उसके साथ रहने लगी। अनीता हमारी संस्कृति और सोच की लड़की थी। हम दोनों का उद्देश्य भी एक था। मेहनत और लगन से हमारा लक्ष्य पूरा हुआ था। आज अम्मा और पापा के आखों में खुशी के आंसू थे। सार : एकाग्रता, समर्पण और लगन ही वह गुण हैं, जिसको अपना कर हम मनचाही सफलता प्राप्त कर सकते हैं। ******

  • आदर

    रमा कांत द्विवेदी ट्रेन से उतर मैं और दादी ने गाँव  की बस पकड़ी। बस भी गाँव के अंदर तक कहाँ जाती थी। सरकारी योजना के तहत बनी पक्की सड़क ने हम दोनों को करीब गाँव से छः किलोमीटर की दूरी पर उतार दिया। सड़क के किनारे बिसना बैल गाड़ी लिये खड़ा हुआ था। दादी के उसने पैर छुए। बिसना दादी के देवर का पोता। बैलगाड़ी में बैठ दादी मुझसे बोली - "बिटिया! हमाई बैग से चादर निकाल दो सफेद वाली।" उन्होंने चादर सिर पर से ओढ़ ली। बैलगाड़ी कच्चे पक्के रास्ते से हिचकोले खाते गाँव की तरफ चल पड़ी। दादी, अपलक उन रास्तों को देख रही थी। अपनी यादों से जैसे आज को जोड़ रही हों। दो दिन हुए मैने अपनी कंपनी से आते ही दादी को सूचना दी - दादी चलो आपको आपके गाँव घुमा लाते हैं। मेरी चार दिन की छुट्टी स्वीकृत हो गई है। "खुशी से दादी का चेहरा भर गया। बहुत दिनों से ज़िद कर रहीं थीं। गाँव, अपने ससुराल जाने की। मैने मज़ाक मे कहा भी था - दादी, लड़कियाँ तो मायके की याद करती हैं, आप ससुराल की याद करती हो।" "बिटिया मायका तो ऐसा, कि हमें भाई का सहारा रहा। चौदह साल के ब्याह के ससुराल आ गये। बीस साल तुम्हारे दादा जी के साथ वहीं रहे। उनकी यादें बसी हैं वहाँ। तुम्हारे पापा दस बरस के रहे होँगे तब। तुम्हारे दादा जी को एक रोज ताप चढ़ा, हकीम जी को दिखाया दो दिन दवा ली होगी। कोई आराम नही आया। बस चटपट सब निपट गया। तुम्हारे पापा के मामा आके हम मां बेटे को शहर ले आये।" मैने जबसे होश सम्भाला, हमेशा दादी को सफेद कलफ की साड़ी, माथे पर चन्दन का गोल टीका, हाथ मे बंधी घड़ी, इस रुप मे ही देखा। इकहरा बदन, गोरा रंग, चेहरे पर तेज दिखाई पड़ता। जीवन का संघर्ष व्यक्ति को तपा कर कंचन बना देता है। भाई ने उन्हें प्राईवेट पढ़ाया। प्राईमरी स्कूल में शिक्षिका की नौकरी मिली। अब दादी रिटायर है। पापा कॉलेज मे प्रोफेसर है। मम्मी गृहिणी है। मेरा छोटा भाई इंटर कॉलेज में पढ़ रहा है। अस्सी बरस की दादी कई दिनों से गाँव जाने की रट लगाए थीं। पापा के पास समय नहीं, मम्मी छोटे भाई की पढ़ाई के कारण, कुछ खुद की अस्वस्थता के चलते, जाने में असमर्थ थीं। गाँव के रास्ते में पड़ती अमराई, पोखरो मे सिंघाड़े तोड़ते बच्चे, कुओं से पानी भरती औरतें, दादी अपनी आँखों में भर लेना चाहती थी। बड़े दिनों की प्यासी आँखे तृप्त होना चाहती थी। पैतीस की उम्र में छोड़ा गाँव अस्सी की उम्र में बहुत बदल गया था। दादी से बड़ी उम्र के अधिकतर लोग दुनियाँ छोड़ चुके थे। छोटे बच्चे बूढ़े हो गये थे। बैल गाड़ी घर के सामने आकर रुकी। दादी ने लम्बा सा घूँघट खींच लिया। मैं हँसी बोली--दादी तुमसे बड़े तो यहाँ कोई है नहीं। तुम्हारे बराबर, और तुमसे छोटे ही यहाँ पर होँगे। फिर ये घूँघट किसके लिये।" "बिटिया, ये जो घर है न, घूँघट डाल के इसमे आईं थीं हम। जब तेरे पापा को लेकर निकली तब भी घूँघट था। ये घर, ये गाँव तो मुझ्से बड़ा है न। बस इसी के आदर सम्मान में मैने सिर पर चादर डाली है। *****

  • तारीफ़

    चंदन जेडी   “यार, तुम ना पराँठे कितने करारे कर देती हो। जल्दबाजी बहुत करती हो, गैस को तेज़ मत रखा करो। मीडियम पर सिकते हैं पराँठे और पकौड़े तो।” नीरजा कुछ न बोली बस चुपचाप गैस की ऑंच मीडियम कर दी। “सब्ज़ियों में तड़का मारो, तब मसालों की ख़ुशबू आएगी और हाँ, मसालों को थोड़ी देर तेल में रहने दिया करो, तुरंत सब्ज़ियॉं मत डाला करो।” “जब भी पुलाव बनाओ तो उसे चमचे से खोंसा मत करो। काहे की जल्दी में रहती हो भई तुम।” ये कुछ ऐसे डायलॉग्स हैं जो शायद हर उस घर में सुनाई देते होंगे जहॉं पर मर्द को खाना बनाना आता होगा। अब नीरजा विनोद को कैसे समझाएँ कि घर में कुल मिलाकर सात लोग हैं और अगर वो एक पराँठे पर 5-7 मिनट लगाएगी तो घरवाले उसे खा जाएँगे। विनोद अच्छा खाना बनाता है पर बनाता कितना है…. दो पकौड़े, एकाध पराँठे, कभी-कभार चाय और कभी बनती हुई सब्ज़ी में आकर चम्मच हिला जाना... बस। पर नुक़्स निकालना तो आदत सी हो गई है। पिछली बार जब नीरजा की ननद आयी थी तो भाई की तारीफ़ करके बोली, “कुछ भी कहो भैया के हाथों में जो स्वाद है वो भाभी के हाथ में नहीं।” “अरे! खाना बनाना एक आर्ट है और नीरू तो बस उसे काम समझ कर पूरा करती है। जब तक हम खाना बनाने को काम समझेंगे, तब तक उसमें वो स्वाद सामने वाला कभी महसूस नहीं कर पाएगा।” विनोद गर्व से ख़ुश होकर बोला। “ऐसी बात नहीं है, खाने को बनने में जितना वक़्त लगता है मैं उतना वक़्त देती हूँ विनोद और जिस तरह की डेकोरेशन चाहिए वो भी करती हूँ। रही बात आपके अनुसार समय की तो वो पॉसिबल नहीं है। अगर मैं एक पराँठे के लिए इतना टाइम देने लगी तो बच्चे भूखे रह जाएंगे। तुम तो बिना सोचे समझे जो हाथ लगता है वो सब डाल देते हो....पर मुझे तो सबकी हेल्थ भी देखनी पड़ती है और घर का बजट भी।”  लेकिन  उसकी  भीगती  आवाज़  सी  को  सुनाई  नहीं पड़ी। “सुनो, शाम को कुछ दोस्त डिनर पर आ रहे हैं तो कुछ अच्छा और सुन्दर बनाने की कोशिश करना।” नीरजा ने पूरे मन से ढेर सारी तैयारियाँ करीं। काफ़ी कुछ बनाया। स्टार्टर, मेन कोर्स और डेजर्ट ...सब कुछ तैयार था। सब कुछ बहुत अच्छा और टेस्टी लग रहा था। बस विनोद का अप्रूवल बाक़ी था। “सुन, नीरू ने सारी तैयारियॉं कर ली हैं, पूरे दिन से लगी हुई थी।” “तो क्या हुआ? काम है उसका और फिर मैंने भी तो उसको टाइम से पहले ही बता दिया था ना तो प्रीपेयर तो होना ही था।” “हॉं, पर तू तारीफ़ ही करना उसकी....” मॉं की बात को अनसुना करता हुआ विनोद किचन में पहुँचा। बहुत अच्छी ख़ुशबू आ रही थी पर विनोद ने कहा, “ये मंचूरियन की ग्रेवी इतनी पतली क्यों बना दी। मंचूरियन बनाया है तो फिर कोफ्ते क्यूँ बनाए साथ में और कम से कम हरा धनिया तो डाल देतीं। अगर खाना देखने में अच्छा नहीं लगेगा तो खाने में भी मज़ा नहीं आएगा। पर तुम तो....कम से कम मुझसे मेन्यू डिस्कस ही कर लेती।” “विनोद, जब तक वो लोग आएँगे, मंचूरियन की ग्रेवी गाढ़ी हो जाएगी इसलिए पतली रखी और ये कोफ्ते मेन कोर्स के लिए है ग्रेवी बना रखी है, बाद में उसमें डालूँगी। हरा धनिया भी काट के रखा है अभी से डाल दूँगी तो काला हो जाएगा। और देखो ना, मैंने डेज़र्ट में....” “रुको नीरू....” मम्मी जी ने बीच में आकर बोला। “कोई ज़रूरत नहीं है इसको सफ़ाई देने की। विनोद, अगर तुझे ये खाना अच्छा नहीं लग रहा, सुंदर नहीं दिख रहा है तो तू उनके लिए या तो बाहर से ऑर्डर कर दें या फिर ख़ुद बना ले। ये खाना हम खा लेंगे।” ख़ैर! ऐसा तो होना नहीं था। मेहमानों को नीरजा के हाथ का बनाया हुआ खाना बहुत पसंद आया। दिल खोलकर तारीफ़ भी करी। तारीफ़ होनी भी थी क्योंकि खाना तो नीरजा अच्छा ही बनाती थी, बस विनोद को ऐसा नहीं लगता था। अगले दिन सन्डे था तो मम्मी जी ने विनोद को किचन की ज़िम्मेदारी दे दी। उनका कहना था कि विनोद पहले एक दिन उस सो कोल्ड आर्ट को करके दिखाए, जिसके बारे में वो हर दिन नीरू के पीछे पड़ा रहता है। अब सन्डे को तो विनोद सोकर लेट उठता है तो आठ बजे तक विनोद उठा। मम्मी जी-पापा जी की सुबह की चाय स्किप हुई। किसी तरह विनोद ने साढ़े आठ तक चाय चढ़ाई पर भूल ही गया कि पापा जी चाय में चीनी नहीं लेते। बच्चों को नीरजा दूध में तुलसी और अदरक उबाल कर देती है पर विनोद ने सादा दूध पकड़ाया। अब बारी आई नाश्ते की जो ब्रेड बटर से पूरी हुई। दोपहर में बच्चों ने फ़रमाइश की कि पापा आज आप खाना बना रहे हो तो हमें मिक्स वेज पकौड़ा ही चाहिए। हमेशा जब विनोद कुछ बनाने किचन में आता तो नीरजा एक सहयोगी की तरह सब कुछ रेडी रखती। उसे सिर्फ़ आकर मेकिंग करना होता पर आज तो मेकिंग से पहले कटिंग भी करना था। सब्ज़ियों की कटिंग को लेकर हमेशा नीरजा पर छींटाकशी करने वाला आज ख़ुद आलू प्याज़ की मोटाई को नज़रअंदाज़ कर रहा था। जो नीरजा से हरी मिर्च कटवाने के बजाय कुटवाता था, आज उसी ने हाथ से ही उसके तीन-चार टुकड़े करके डाल दी है। अदरक लहसुन की स्मॉल चॉपिंग के लिए उसने नीरजा की जान खा रखी थी, आज सब कुछ भूल-भाल कर बस मोटे मोटे टुकड़े डाल रहा था। “अरे अरे..!!! ये क्या कर रहा है विनोद, तू तो अपनी ही आर्ट भूल गया। तूने ही बताया था कि पकौड़ों को मीडियम पर तलते हैं और सब्ज़ियाँ भी बहुत मोटी-मोटी काटी है तूने तो। प्लेटफ़ॉर्म भी कितना गंदा कर रखा है, तुझे तो गंदा पसंद ही नहीं था और क्या तू आज सेल्फ़ी नहीं लेगा अपनी आर्ट के साथ।” “नहीं मम्मी, कहॉं इतना टाइम है कि सेल्फ़ी भी लूँ और ये सब भी करूँ। प्लेटफ़ॉर्म पड़ा रहने दें, एक साथ ही साफ़ कर लूँगा। सब्जियॉं कैसी भी कटी हो, स्वाद तो सेम ही रहेगा। बच्चे इतनी जल्दी मचा रहे हैं कि ये सब फ़ालतूगिरी करने का टाइम कहॉं.....” बोलते बोलते रुक गया। उसे नीरजा की कही हर एक बात याद आ गई। उसे समझ आ गया था कि नीरजा उसे क्या समझाना चाहती थी। “मेरी ज्ञानी माता जी और अन्नपूर्णा पत्नीजी, मैंने अपनी भूल मान ली। समझ गया कि मैं इसको दिमाग़ के आर्ट से जोड़ रहा था और तुम दिल की भावनाओं से खाना बना रही थी। मुझे माफ़ कर दो और अपना किचन सँभालो। आज के बाद तुम्हारे डिपार्टमेंट में मैं इंटरफ़ेयर नहीं करूँगा, ये मेरा वादा।” विनोद ने हाथ जोड़ लिए। “पापा, क्या आज पकौड़े मिलेंगे या बाहर से ऑर्डर करें।” सोनू की बात से सब खिलखिला उठे। ******

  • मकान के पहरेदार

    डॉ. कृष्णा कांत श्रीवास्तव एक पुरानी सोसाइटी है। पूरे सैक्टर में हर गली में लोहे के गेट लगे हैं। जिनपर गार्ड रहते हैं, कुछ गार्ड तो हमारे टाईम से अब तक हैं। सोसाइटी में पहुंच कर गार्ड से बात कर रहा था कि और क्या हाल है आप लोगों का, तभी मोटरसाइकिल पर एक आदमी आया और उसने झुक कर प्रणाम किया। मैंने पहचानने की कोशिश की। बहुत पहचाना-पहचाना लग रहा था, पर नाम याद नहीं आ रहा था। उसी ने कहा, पहचाने नहीं? हम बाबू हैं, बाबू। उधर वाली आंटी के जी के घर काम करते थे। मैंने पहचान लिया। अरे ये तो बाबू है। पिछली गली में 1287 नं० वाली आंटी जी का नौकर। एक ही बेटा था आंटी का, अंकल पहले ही गुजर चुके थे, बेटा स्नातक के बाद ही ऑस्ट्रेलिया चला गया था, वहीं पढ़ाई की, अब व्यवसाय, विवाह, घर सब ऑस्ट्रेलिया ही है। “अरे बाबू, तुम तो बहुत तंदुरुस्त हो गए हो। आंटी कैसी हैं?”

  • निर्णय...

    रमाकांत शुक्ला लड़की की मंगनी को सात महीने हो गए थे। मगर लड़के वालों को मनमुताबिक शुभ मुहूर्त नहीं मिल रहा था, सो शादी में देर हो रही थी। लड़के वालों के पंडित जी ने एक अच्छा मुहूर्त बताया भी तो इस बीच लड़के के दादा जी लम्बी बीमारी के चलते भगवान को प्यारे हो गए। ऐसे में एकबार फिर से शादी की तारीख आगे बढ़ गई। खैर मंगनी को साल भर बीत गया था। जैसे-तैसे एक अच्छे दिन पर शादी की तारीख तय हुई। ऐसे में लड़के के परिवार वाले लड़की के घर आए थे। चाय नाश्ते का प्रोग्राम चल ही रहा था कि लड़की के पिता ने जानकारी लेने के लिए लड़के के पिता से पूछा बारात में कितने लोग आएंगे भाई साहब तीन साढ़े तीन सौ बाराती तो मान कर चलिए। लड़के के पिता ने मूंछों पर ताव देते हुए कहा। जी...तीन साढ़े तीन सौ तो बहुत ज्यादा हो जाएंगे, लड़की के पिता ने धीमे और चिंतित होते हुए कहा। अब क्या करें भाई साहब हमारा इतना बड़ा परिवार है और ये तो अपने ही बन्दे हैं। सच कहूं तो अभी बाहर के लोगो को तो गिना ही नही है। लड़की का मामा जो वहां बैठे थे और लड़के की दादाजी के भोग में भी शामिल हुए थे। उसे याद आया कि उसके भोग में तो साठ सत्तर से भी कम लोग शामिल हुए थे। उनमें भी दस बारह तो उनके ही परिवार के ही थे। चूंकि मामला लड़की के रिश्तेदारी का था तो .... उसने अपने जीजा जी की ओर देखा, जिनका चेहरा उतर गया था। वहीं अपनी भांजी की ओर देखा तो वो भी अपने पिता की आर्थिक स्थिति से अवगत थी। सो उसके चेहरे पर भी चिंता की रेखाएं उभर रही थी। उनकी चुप्पी और लड़के वालों की यूं बारातियों की डिमांड को देख लड़की के मामा खड़े होकर बोले भाई साहब आपके पिता जी की अंतिम क्रियाओं में तो आप से सौ लोग भी इकट्ठा ना हो सके थे, तो बारात में आने वाले ये तीन साढ़े तीन सौ लोग कौन से अपने है। अब लड़के वाले लड़की के मामा की बात सुनकर शर्मिंदगी से एक-दूसरे की शक्ल देख रहे थे। तब लड़की के मामा ने कहा भाईसाहब अपने वो होते हैं जो दुःख में साथ खड़े हो ना की खुशी में खाने पीने वाले, कहकर उसने दोनों हाथों को जोड़कर अपना निर्णय सुना दिया। *****

  • एक बेटा ऐसा भी

    डॉ. कृष्णा कांत श्रीवास्तव माँ, मुझे कुछ महीने के लिये विदेश जाना पड़ रहा है। तेरे रहने का इन्तजाम मैंने करा दिया है।" तक़रीबन 32 साल के, अविवाहित डॉक्टर सुदीप ने देर रात घर में घुसते ही कहा। "बेटा, तेरा विदेश जाना ज़रूरी है क्या?" माँ की आवाज़ में चिन्ता और घबराहट झलक रही थी। "माँ, मुझे इंग्लैंड जाकर कुछ रिसर्च करनी है। वैसे भी कुछ ही महीनों की तो बात है।" सुदीप ने कहा। "जैसी तेरी इच्छा।" मरी से आवाज़ में माँ बोली। और छोड़ आया सुदीप अपनी माँ 'प्रभा देवी' को पड़ोस वाले शहर में स्थित एक वृद्धा-आश्रम में। वृद्धा-आश्रम में आने पर शुरू-शुरू में हर बुजुर्ग के चेहरे पर जिन्दगी के प्रति हताशा और निराशा साफ झलकती थी। पर प्रभा देवी के चेहरे पर वृद्धा-आश्रम में आने के बावजूद कोई शिकन तक न थी। एक दिन आश्रम में बैठे कुछ बुजुर्ग आपस में बात कर रहे थे। उनमें दो-तीन महिलायें भी थीं। उनमें से एक ने कहा, "डॉक्टर का कोई सगा-सम्बन्धी नहीं था जो अपनी माँ को यहाँ छोड़ गया।" तो वहाँ बैठी एक महिला बोली, "प्रभा देवी के पति की मौत जवानी में ही हो गयी थी। तब सुदीप कुल चार साल का था। पति की मौत के बाद, प्रभा देवी और उसके बेटे को रहने और खाने के लाले पड़ गये। तब किसी भी रिश्तेदार ने उनकी मदद नहीं की। प्रभा देवी ने लोगों के कपड़े सिल-सिल कर अपने बेटे को पढ़ाया। बेटा भी पढ़ने में बहुत तेज था, तभी तो वो डॉक्टर बन सका।"

  • स्त्री की हत्या

    अदनान कफ़ील दरवेश   कुर्सियाँ उल्टी पड़ी हैं तंदूर बुझ चुका है आस-पास पानी गिरने से ज़मीन काफ़ी हँचाड़ हो गई है पत्तलों के ऊढे़ लगे हुए हैं जगह-जगह डिसपोज़ेबल गिलास और दोने बिखरे हुए हैं कुत्ते पत्तल चाटते-चाटते थक गए हैं और अब खेल कर रहे हैं तंबू और शामियाने अब उजाड़े जा रहे हैं चमकदार परदे और रॉड उतारे जा रहे हैं शाम को यहाँ शादी के भोज का एहतमाम था शाम को यहाँ बत्तियों की जगर-मगर थी आदमी-बूढ़े-जवान और बच्चियों की चहल-पहल थी शाम को यहाँ एक नशा-सा था फ़ज़ा में एक उत्साह, एक उत्सव का माहौल अब कनिया की बिदाई हो रही है माहौल में एक अजीब उजाड़-सा है स्त्रियों का सामूहिक दिखावटी विलाप चल रहा है कनिया रोकर चुप हो गई है वधू पक्ष के लोग जहेज़ का सामान और झपोलियाँ लदवा रहे हैं सबके पास कोई न कोई काम है कन्या का पिता बाहर रसोइए की चौकी पर बैठा है उसकी आँखों में तसल्ली और दुःख दोनों की रेखाएँ मौजूद हैं कन्या को दूल्हे की सजी-धजी गाड़ी में अब बिठाया जा रहा है वह फिर से बिलख रही है सब उसे सांत्वना दिला रहे हैं इस वक़्त कन्या के मन में क्या चल रहा है ये तो शायद वह भी नहीं जानती आज जिस पुरुष की वह स्त्री मान ली गई है उसे बिल्कुल नहीं जानती आज उस स्त्री के प्रथम सहवास का दिन है आज ही एक पुरुष ने उसे बड़ी धूमधाम से ख़रीद लिया है आज ही उसकी हत्या होगी आज ही उसका एक नए घर में पुनर्जन्म होगा नया सजा-धजा घर नया शरीर नए हाव-भाव नई हँसी नए विचार नई संवेदना इतनी नई कि कुछ दिनों में ही भूल जाएगी अपना पिछला जन्म उस प्रेमी का चेहरा भी जिसे उसने अपने सीने के तहख़ाने में छुपा दिया था पिता के घर की देहरी लाँघने के बाद ही कुछ महीनों बाद वह शायद माँ बनेगी वंश-वृद्धि करेगी अपनी औलाद को चूमेगी और ढूँढ़ेगी उसमें अपने प्रेमी का खोया चेहरा लेकिन ऐसा कभी-कभी ही होगा… मैं ये वाक़या इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि इन सारी चीज़ों का मैं भी गवाह हूँ लेकिन अब कुछ कहा नहीं जा रहा मुझसे बस सिर झुकाए खड़ा हूँ क्योंकि मैं भी उस स्त्री की हत्या में शामिल हूँ। *****

  • मर्द

    मनोरंजन तिवारी आज हमेशा के मुकाबले ट्रेन में कम भीड़ थी। सुरेखा ने खाली जगह पर अपना ऑफिस बैग रखा और खुद बाजू में बैठ गई। पूरे डिब्बे में कुछ मर्दों के अलावा सिर्फ सुरेखा थी। रात का समय था सब उनींदे से सीट पर टेक लगाये शायद बतिया रहे थे या ऊँघ रहे थे। अचानक डिब्बे में 3-4 तृतीय पंथी तालिया बजाते हुए पहुँचे और मर्दों से 5-10 रूपये वसूलने लगे। कुछ ने चुपचाप दे दिए कुछ उनींदे से बड़बड़ाने लगे। "क्या मौसी रात को तो छोड़ दिया करो हफ्ता वसूली..." वे सुरेखा की तरफ रुख न करते हुए सीधा आगे बढ गए। फिर ट्रेन कुछ देर रुकी कुछ लडके चढ़े फिर दौड़ ली आगे की ओर, सुरेखा की मंजिल अभी 1 घंटे के फासले पर थी। वे 4-5 लड़के सुरेखा के नजदीक खड़े हो गए और उनमे से एक ने नीचे से उपर तक सुरेखा को ललचाई नजरों से देखा और बोला... "मैडम अपना ये बैग तो उठा लो सीट बैठने के लिए है, सामान रखने के लिए नहीं..." साथी लडको ने विभत्स हंसी से उसका साथ दिया।

  • आत्मनिर्भर

    अल्पना सिंह भवानी रिटायर्ड हो कर घर आई, तो उसका मन बहुत भारी-भारी लग रहा था। 30 साल सर्विस किया भवानी ने, पति के मृत्यु के बाद। इस सर्विस ने बहुत सहारा दिया था। पति की जगह तो कोई नहीं भर सकता लेकिन फिर भी दोनों बच्चों को पढ़ा-लिखा कर अपने पैरों पर खड़ा करने में। बेटी की शादी में कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाने दिया इस नौकरी ने। आज तक अपने आत्म सम्मान के साथ जी पाई तो इसी नौकरी के बदौलत, और आगे भी पेंशन ही सहारा बनेगी। भवानी मन ही मन यहीं सोच रही थी, तभी भवानी का बेटा कुछ कागज ले कर कमरे दाखिल होता हैं, और अपनी माँ से बोलता है- “माँ, ये आपके पेंशन के कागज हैं, थोड़े दिनों में आपका पेंशन चालू हो जायेगा, लेकिन माँ आप हमें छोड़ कर गाँव क्यों जा रही है। मुझसे या सेजल से कोई गलती हो गयी है क्या?” भवानी- “अरे नहीं रे पगले मुझे तुझसे या सेजल से कोई शिकायत नहीं हैं, बल्कि सेजल तो मेरा इतना ख्याल रखती कि मुझे खुद से डर लगता हैं कि कही मैं आलसी न बन जाऊँ।,” इतना बोल कर भवानी हँसने लगी। दरअसल बात ये है बेटे कि तेरी बड़ी चाची जी ने मुझे अपनी मदद के लिए बुलाया हैं। सुमन के लिए अहम फैसला लेने में मेरी मदद चाहिए उन्हें। ओम ने आश्चर्य से अपनी माँ की ओर देखा और बोला- “चाची जी ने! ” आप एक बार फिर सोच लो माँ, चाचा जी बहुत ही अकडू हैं वे आपकी बात कभी नहीं मानेंगे। तेरे चाचा जी मेरी बात मानें या ना मानें लेकिन मैं फिर भी जाउंगी। जनता हैं ओम, सालों पहले यदि तेरी दादी माँ ने हार मान ली होती तो ना आज मैं यहाँ होती, और ना तुम। सालो पहले जब अकस्मात तेरे पिता जी का साया हम लोगों के सर से उठ गया और उनकी जगह अनुकम्पा के आधार पर मुझे नौकरी मिली। तब घर के सारे लोग मेरे खिलाफ हो गये थे।  घर की जवान विधवा बहु घर की दहलीज लाँघ कर काम करने जाये ये, किसी को मंजूर नहीं था। तुम्हारे चाचा जी को ही नहीं बल्कि तुम्हारे नाना जी को भी मंजूर नहीं था। लेकिन सिर्फ तुम्हारी दादा माँ थी जो मेरे साथ खड़ी थी, और मेरे लिए सारे घर वालो से लड़ गयी थीं। आज यदि मैं बिना किसी पर आश्रित, आत्म सम्मान के साथ यहाँ खड़ी हूँ, और तुम दोनों को पढ़ा-लिखा कर अपने पैरो पर खड़ा कर पाई हूँ, तो इसका श्रेय सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी दादा माँ को जाता हैं। और ओम यदि मैं दो औरतों की भी मदद कर पाई और उनके घर वालों को समझाने में कामयाब हो पाई कि पति के मर जाने से पत्नी की जरूरते नहीं मर जाती, उसकी इच्छा, उसकी ख्वाहिसे नहीं मर जाती। पत्नी को अपनी जरूरते पूरी करने के लिए आत्मनिर्भर होना बहुत जरुरी हैं, ताकि उसे अपनी और अपने बच्चो के जरूरतों के लिए दुसरे का मुहँ ना देखना पड़े। सही मायने में यही सच्ची श्रधांजलि होगी तुम्हारी दादी माँ को। थोड़ी देर रुक कर भवानी एक गहरी साँस ले कर बोली- “और ओम मैं तो चाहूंगी कि तुम्हारे चाचा जी सुमन की दूसरी शादी ही कर दें। अभी उम्र ही क्या हो रही हैं उसकी, शादी के केवल पाँच साल ही तो हुए थे और भगवान् ने.....इतना बोलते-बोलते भवानी का गला भर आया और आँखों में आँसू छल-छला आये। ओम ने आगे बढ़ अपनी माँ के हाथो को अपने हाथो में लेते हुए बोला- “आप बिलकुल सही बोल रही हैं माँ, लेकिन सुमन की एक बेटी है।” भवानी बोली- “हां, इसीलिए तो मैं गाँव जा रही हूँ, यदि सुमन की इच्छा हुई तो उसकी बेटी को मैं गोद लेना चाहती हूँ। मेरी सारी जिम्मेदारियां ख़तम हो गयी हैं। मैं अपने पेंशन से भी उस बच्ची को पाल सकती हूँ। अच्छी शिक्षा दे सकती हूँ। थोड़ी देर रुक कर, भवानी गहरी साँस लेते हुए बोली- “चल मुझे बस स्टैंड तक छोड़ दे।” ओम- बस से क्यों? मैं छोड़ देता हूँ अपनी कार से। तभी सेजल बोलती हैं- “रुकिए माँ जी ये लेते जाईये, सेजल ने एक छोटा सा गणपति बप्पा की मूर्ति भवानी की हाथो में रखते हुए बोली- “माँ जी इन्हें लेते जाईये ये विध्नहर्ता हैं, इनकी कृपा से सब कुछ सही होगा, और माँ जी आप अकेली नहीं हैं हम सब आपके साथ हैं। ******

  • सासु माँ का सबक

    लक्ष्मी कुमावत मीनल अभी तक बाजार से घर नहीं लौटी थी। शाम के 6:00 बजने को आ चुके थे। ममता जी बार-बार घर के बाहर आकर देख रही थी। सुबह 10:00 की मार्केट गई हुई है लेकिन अभी तक उसका कोई अता-पता नहीं था। कई बार फोन भी ट्राई कर लिए लेकिन फोन उठाए तब ना। मीनल ममता जी की बहू है। अभी तीन महीने पहले ही उनके इकलौते बेटे तरुण के साथ शादी होकर इस घर में आई है। पर बहू जैसी कोई बात नहीं है उसमें। हर बात में अपनी ही चलाती है। जब ममता जी अपने पति महेश जी के साथ उसे देखने गई थी तो उसकी मम्मी ने उसकी तारीफों के बड़े पुल बांधे थे। मम्मी पापा के अलावा उसके दो बड़े भाई और भाभी है। भरे पूरे परिवार को देखकर उन्होंने ये सोचकर हां कर दी कि लड़की परिवार में ही रही है तो संस्कारी तो होगी ही। पर कहते हैं ना ऊंची दुकान फीके पकवान। ठीक वैसा ही हाल मीनल का निकला। जैसे सब कहते हैं कि हम तो बहू को बेटी बनाकर रखेंगे। ठीक वैसे ही ममता जी ने भी मीनल के लिए कहा था। लेकिन बेटी बना कर रखना और बेटी होने में फर्क होता है। इस महीन रेखा को मीनल नहीं समझ पाई। शादी के बाद उसने बहू जैसे कोई लक्षण नहीं दिखाएं। घर में शॉर्ट्स पहन कर घूमना, जब चाहे पार्टी करना, किसी भी समय बाहर से खाना ऑर्डर कर लेना, घर के काम न करना और सबसे बड़ी बात ममता जी से छोटी-छोटी बातों पर बहस कर लेना। ये उसके लिए बहुत ही साधारण सी बात थी। अगर ममता जी समझाती भी तो मीनल बात को हमेशा उल्टा ही लेकर जाती, "मैं तो आपकी बहू हूं ना। इसलिए मेरे साथ हमेशा ऐसा व्यवहार होता है। क्या आप अपनी सगी बेटी को इतना रोकती टोकती। जब मुझे देखने आई थी तभी कह देना चाहिए था कि हम तुझे बेटी बनाकर नहीं रखेंगे" ममता जी घर की शांति के लिए चुप रह जाती। महेश जी से बोलती तो महेश जी भी ममता जी को ही समझाते, "अरे अभी बच्ची है। कुछ दिनों में समझ जाएगी। तुम थोड़ा सब्र करो" तरुण से कुछ कहती तो तरुण कहता, "मम्मी आपके जमाने में और आज के जमाने में बहुत फर्क है। पहले बहुएं सिर्फ बहुएं होती थी, पर आजकल बेटियां होती है। थोड़ा वक्त दो वो सब समझ जाएगी" आखिर जब पति और बेटा ही कह रहे हैं तो ममता जी उसके आगे कुछ कह ही नहीं पाती। पर आज तो हद ही हो गई। सुबह तरुण और महेश जी के ऑफिस जाने के बाद से ही मीनल गई हुई है, लेकिन अभी तक नहीं आई। ममता जी फोन कर रही है तो फोन भी उठा नहीं रही है। 'भला ये कोई बहू बेटी के लक्षण है। आने दो उसे आज। आज तो साफ-साफ बात करूंगी' ममता जी बड़बडाने लगी। इतने में तरुण और महेश जी भी घर आ गए। आते ही महेश जी बोले, "अरे क्या हो गया श्रीमती जी? घर के बाहर खड़ी होकर किसका इंतजार कर रही हो? हमारा तो आज तक इस तरह से इंतजार नहीं किया। कौन खुश नसीब है वो।" महेश जी के सवाल को सुनकर ममता जी उन्हें घूरते हुए बोली, "आपको मजाक सूझ रहा है। यहाँ शाम हो चुकी है लेकिन बहू अभी तक घर पर नहीं आई। पता नहीं कहां रह गई। कह कर तो गई थी कि थोड़ी देर में आती हूं।" "अरे तो कोई काम हो गया होगा। मम्मी आप भी क्या चिंता करती हो। कोई छोटी बच्ची थोड़ी ना है। आ जाएगी" तरुण ने बीच में ही कहा। "आ जाएगी से क्या मतलब? आजकल जमाना कितना खराब है, पता नहीं है क्या। कब से फोन लगा रही हूँ। कम से कम फोन तो उठा कर जवाब दे सकती है। भला ये कोई बहू बेटी के लक्षण होते हैं।" तरुण की बात सुनकर ममता जी खींझते हुए बोली। "अच्छा अच्छा! तुम दोनों मां बेटे बात करो। मैं जाकर चेंज कर रहा हूं और थोड़ी देर आराम करूंगा। फिर सब लोग मिलकर खाना खाएंगे। खाना तो बना लिया होगा आपने श्रीमती जी?" महेश जी की बात सुनकर ममता जी बोली, "हां हां, सब्जी और दाल बना दी है। बस रोटियां सेकनी है।" इतने में बाहर कैब आकर रुकी। उसमें से मीनल उतरकर आई तो उसके हाथ में काफी सारे शॉपिंग बैग्स थे। अंदर आते ही बैग्स एक तरफ पटक कर सोफे पर बैठते हुए बोली, "आज तो सचमुच बहुत थक गई हूं। पर शॉपिंग करके मजा आ गया।" "बहु तुम इतना सब कुछ क्या लेकर आई हो" ममता जी ने बैग्स की तरफ देखते हुए कहा। "कुछ नहीं मम्मी जी, मेरी जरूरत का सामान है। मैं अपने लिए सेल में से खूब अच्छी-अच्छी साड़ियां लेकर आई हूं। कुछ मेकअप का सामान है और डेली यूज के कपड़े लाई हूं।" मीनल ने ममता जी को जवाब दिया। "पर तुम्हारी शादी तो अभी तीन महीने पहले ही तो हुई है। अभी तो कई सारे कपड़े ऐसे है जो तुमने पहने भी नहीं है। फिर और शॉपिंग करने की क्या जरूरत थी। और मैं तुम्हें कब से फोन लगा रही हूं। तुम फोन उठा कर जवाब तक नहीं दे रही हो मुझे। भला ये कोई बात होती है। मुझे चिंता हो रही थी" ममता जी ने कहा। "मम्मी जी मैं कोई छोटी बच्ची नहीं हूं। शॉपिंग करने ही तो गई थी, लौट कर आ ही जाती ना। जो आप बार-बार फोन पर फोन कर रहे थे। कितना एंबेरेस लग रहा था मुझे अपने दोस्तों के सामने। इसलिए मैंने फोन का वॉल्यूम ही बंद कर दिया। और रही बात शॉपिंग की तो मुझे जिन चीजों की जरूरत थी मैं वो ले आई। इसमें बात का बतंगढ़ बनाने की क्या जरूरत पड़ गई। मेरी मम्मी ने तो मुझे कभी नहीं रोका" मीनल ने बिगड़ते हुए कहा। "बेटा तुम्हारी मम्मी ने तुम्हें कभी रोका नहीं क्योंकि वो तुम्हारा मायका था। वहाँ तुम बेफिक्र होकर रहती थी। जी किया तो काम किया नहीं तो छोड़ दिया। दो दो भाभियाँ थी, संभाल लिया था उन्होंने। पर ये तो तुम्हारा ससुराल है। तुम खुद यहां एक बहू हो, वो भी इकलौती। इस घर का भला बुरा सब तुम्हें सोचना है। आखिर अपनी जिम्मेदारियां कब उठाओगी?" ममता जी ने मीनल की बात का जवाब दिया। तब मीनल चिड़ते हुए बोली, "मम्मी जी फिर तो आपको शादी से पहले बोलना ही नहीं चाहिए था कि हम बहू को बेटी बनाकर रखेंगे। इतनी रोक-टोक तो कभी मुझ पर मेरी मम्मी ने भी नहीं की, जितना आप टोकती हैं।" कहकर मीनल कमरे में चली गई। ममता जी ने उदास होकर तरुण की तरफ देखा। तो तरुण उल्टा ममता जी को समझाने लगा, "क्या मम्मी, आप भी चिल करो ना। क्यों सास बन रही हो। सात ही तो बजे है। आ तो गई टाइम से। आपकी बेटी होती तो क्या आप उसके साथ भी इस तरह से बिहेव करते हैं।" कहकर तरुण भी अपने कमरे में चलता बना। ममता जी को बहुत बुरा लगा। उदास मन से ममता जी कमरे में आ गई और पलंग पर बैठ गई। उन्हें इस तरह उदास देखकर महेश जी बोले, "ममता तुम्हें नहीं लगता कि तुम मीनल के सास बनने की कोशिश कर रही हो? अभी बाहर जो भी हुआ, उसमें तुम्हारा हाथ है। अच्छी खासी घर में शांति थी। बेवजह तुमने हंगामा कर दिया।" उनकी बात सुनकर ममता जी बोली, "आपको भी लगता है कि मेरी ही गलती है। बहू का यूँ लेट तक आना, मेरा फोन ना उठाना, घर की कोई जिम्मेदारी ना लेना, ये गलत नहीं है।" "अरे, तुम छोटी सी बात को क्यों बड़ा बना रही हो। अगर उसे बेटी की तरह मानोगी तो खुश रहोगी। अब तुम्हारी अपनी बेटी होती तो.. " कहते-कहते महेश जी चुप हो गए। पर ये बात ममता जी के दिल पर जा लगी। उन्होंने कहा तो कुछ भी नहीं पर अपना मोबाइल लेकर बाहर बरामदे में आ गई। घुटन महसूस हो रही थी इसलिए अपनी एक सहेली अनु को फोन लगा दिया। और बातों ही बातों में मिनाल के बारे में बता दिया। तब अनु ने कहा, "देख ममता, बहु और बेटी के बीच में फर्क तो होता है। यह बात मीनल को समझना ही पड़ेगी। और रही बात महेश जी और तरुण की। तो जब तक इंसान को पका पकाया मिलता रहेगा, तब तक वो हाथ पैर क्यों चलाएगा। महेश जी और तरुण के सारे काम तो तू कर देती है। इसलिए उन लोगों को क्या फर्क पड़ेगा कि मीनल घर का काम करती है या नहीं। अपनी जिम्मेदारियां को समझती है या नहीं। तुझे खुद ही कोई कदम उठाना पड़ेगा। तभी तू खुद की मदद कर सकती है।" अनु की बात धीरे-धीरे ममता जी को समझ में आने लगी थी। उन्होंने फोन कट करने के बाद कैब बुक की और अपने कमरे में आ गई। अपने कमरे में आकर अपना सामान एक बैग में पैक करने लगी। उन्हें सामान पैक करते देखकर महेश जी ने कहा, "तुम सामान क्यों पैक कर रही हो? कहीं जा रही हो क्या?" "हां, मैं अपने मायके जा रही हूं। भाई कितने दिनों से बुला रहा था। सोचा कुछ दिन वही रहकर आऊंगी।" उनकी बात सुनकर महेश जी हैरान होते हुए बोले, "अरे! अचानक मायके जाने की क्या लगी तुम्हें? और अभी तक तो हमने खाना भी नहीं खाया। रोटियां कौन सेकेगा?" "अरे! आपकी लाडली बेटी है ना। उससे बोलो। अब क्या हमेशा जिम्मेदारी मैं ही निभाती रहूंगी।" "ओह! तो लगता है बात का बुरा लग गया। इसलिए अब ये तमाशा कर रही हो" "इसमें तमाशे की क्या बात है? अभी मैं अपने मायके जाती तो क्या मेरी बेटी मुझे मायके जाने से रोकती। वही तो पीछे से पूरा घर संभालती" "अब तुम बेवजह की बातें कर रही हो। तुम... " लेकिन ममता जी ने महेश जी की बात को पूरा होने ही नहीं दिया। वो चुपचाप अपना बैग लेकर बाहर आ गई। तब तक कैब भी आ चुकी थी। इतने में तरुण और मीनल भी बाहर आए। तरुण ने आते हुए कहा, "मम्मी खाना बन ...." ममता जी को बैग के साथ देखकर तरुण ने बात को पलटकर पूछा, "आप कही जा रही हो?" "हां मैं कुछ दिन तुम्हारे मामा के घर रहने जा रही हूं। बहुत दिन हो गये मुझे मायके गए हुए। इसलिए सोचा थोड़ा चेंज हो जाएगा।" कहकर ममता जी बिना किसी की बात सुने ही वहाँ से रवाना हो गई। ममता जी के इस कदम से सब हक्के बक्के रह गए। लेकिन भूख तो जोरो से लगी ही थी। तरुण ने मीनल की तरफ देखकर कहा, "अब खाना?" "अरे! मैं भी थक गई हूं।" मीनल ने धीरे से कहा। लेकिन तब तक महेश जी ने बाहर आते हुए कहा, "तो मीनल बेटा, आज तुम खाना खिला दो। वैसे भी तुम्हारी मम्मी सब कुछ तैयार करके ही गई है। तुम्हें सिर्फ रोटियां ही सेकनी है।" मीनल महेश जी से कुछ कह ना पाई और तरुण को घूरती हुई रसोई में आ गई। रोटियां सेक कर सबको खाना खिलाया और फिर खुद खाना खाकर अपने कमरे में जाकर सो गई। यहां तक कि ना रसोई साफ की और ना ही बर्तन धोए। दूसरे दिन सुबह के 8:00 बज गए। लेकिन किसी की नींद तक नहीं खुली। अचानक तरुण हड़बढाकर उठा। और मीनल को जगाते हुए बोला, "मीनल जल्दी उठो। सुबह के 8:00 बज चुके हैं। आज तो बहुत देर हो गई। अब तो ऑफिस के लिए पक्का लेट हो जाऊंगा। पता नहीं पापा भी उठे हैं या नहीं। तुम फटाफट चाय नाश्ता बनाओ।" कहकर तरुण अपने पापा के कमरे की तरफ भागा। तब तक मीनल भी चिड़चिड़ा कर उठी, "क्या तमाशा है ये? मम्मी जी को भी मायके जाना जरूरी था क्या? बुढ़ापे में भी मायके का शौक नहीं गया। नींद खराब हो गई मेरी। अब रसोई में घुसकर नाश्ता और बनाओ।" तरुण ने कमरे में जाकर देखा तो महेश जी भी अभी तक सो रहे थे। उसने उन्हें भी उठाया और फटाफट तैयार होने को कहा। इधर मीनल रसोई में गई तो रसोई रात की ही बिखरी पड़ी थी। बर्तन झूठे पड़े हुए थे। उसे कुछ समझ ही नहीं आया कि क्या बनाऊं। इतने में तरुण रसोई में आया और बोला, "मीनल कमलाबाई का फोन आया था। वो आज भी नहीं आएगी इसलिए घर के साफ-सफाई भी तुम्हें ही देखनी है।" "तरुण मैं ये सब कैसे करूंगी। रसोई बिखरी पड़ी है। रात के झूठे बर्तन पड़े हुए हैं। ऊपर से तुम कह रहे हो कमलाबाई भी नहीं आएगी। पिछले तीन दिन से वो छुट्टी ले रही है। और कितनी छुट्टी लेगी? मुझसे नहीं होगा ये सब। या तो तुम यहां रुक कर मेरी मदद करो वरना मैं भी अपने मायके चली जाऊंगी।" मीनल चिड़चिड़ाते से बोली। उसकी बात सुनकर तरुण एक पल के लिए बिल्कुल चुप हो गया। और फिर बोला, "मीनल मम्मी भी तो ये सब अकेले संभालती थी। तुम तो कभी उनकी मदद भी नहीं करवाती थी।" "मुझे नहीं पता ये सब। तुम्हारी मम्मी ने ये सब जानबूझकर किया है मुझे परेशान करने के लिए। मैं अपने मायके जा रही हूं। तुम देख लो तुम्हें क्या करना है।" मीनल बड़बड़ाते हुई अपने कमरे में चली गई। उसकी ये बात महेश जी ने भी सुन ली। वाकई उन्हें काफी हैरानी हुई कि बहू एक दिन घर नहीं संभाल पा रही जबकि वो और तरूण उसी का साथ देते थे। तभी महेश जी तरुण से बोले, "बेटा मैं ऑफिस जा रहा हूं। चाय नाश्ता वही कर लूंगा। आज तुम घर पर रहकर मीनल की मदद करवा दो।" कहकर महेश जी घर से बिना चाय नाश्ता किए ही रवाना हो गए। इधर मीनल ने अपनी मम्मी को फोन लगाया ये बताने के लिए कि वो मायके आ रही है तो उसकी मम्मी ने पूछा, "आज अचानक कैसे मायके आ रही है? सब ठीक तो है?" "यहाँ कुछ भी ठीक नहीं है मम्मी। मेरी सास तो रुठकर मायके जाकर बैठ गई। पता नहीं लोग शादी से पहले ऐसा क्यों कहते हैं कि हम तो बहू को बेटी बना कर रखेंगे। सच, बोलने में और करने में बहुत फर्क होता है।" बड़बड़ाती हुई मीनल ने कल का पूरा किस्सा अपनी मम्मी को कह सुनाया। उसकी बात सुनकर उसकी मम्मी ने कहा, "अच्छा! तो तू काम के डर से भाग कर आ रही है। तुझे तो मेरे जैसे सास मिलनी चाहिए थी जो बहूओं को डांट डपटकर एक तरफ बिठाकर रखती है। खबरदार! जो तू मेरे घर आई तो। तेरी बात सुन-सुन कर मेरी बहुएं बिगड़ जाएगी। और मेरे सिर पर चढ़कर नाचेगी।" "मम्मी आप मुझे मेरे ही मायके आने से रोक रही हो" मीनल हैरान होते हुए बोली। "क्यों ना रोकूँ तुझे। अपना घर संभाल नहीं पा रही है। और मेरे घर में आग लगा देगी। इज्जत से आए तो तेरा स्वागत है। लेकिन इस तरह से लड़ झगड़ कर आई तो मेरे घर के दरवाजे तेरे लिए बंद हैं।" कहकर उसकी मम्मी ने फोन रख दिया। मीनल हैरान रह गई कि उसकी मम्मी उसे ये जवाब दे रही थी। अब तो मजबूरन उसे घर का काम करना ही था, इसलिए रसोई में पहुंच गई। मीनल को काम करता देखकर तरुण की भी जान में जान आई और वो भी घर की साफ सफाई में उसकी मदद करने लगा। दोनों ने मिलकर ही घर का काम किया था लेकिन उसमें ही दोनों थक गए। इसलिए दोपहर में खाना दोनों ने बाहर से मंगवाया। लेकिन शाम आते आते तक सबको अपनी गलती का एहसास हो चुका था। इसलिए महेश जी आते समय ममता जी को मनाकर अपने साथ ही लेकर आए। ममता जी के घर आते ही मीनल और तरुण ने भी उनसे माफी मांगी। आखिर धीरे-धीरे सब कुछ नॉर्मल हो गया यह तो कहानी थी इसलिए आसानी से सब कुछ नॉर्मल हो गया। पर सच्चाई तो इससे काफी परे होती है। ******