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- शराब की पार्टी
नेकराम सूरज, सुरेश, रमन तीनों दोस्तों ने अलग से समीर को पार्टी करने के लिए कहा था। देख समीर तेरे जन्मदिन पर शराब की बोतले खुलेंगी। जमकर डांस होगा। सूरज के दो फ्लैट हैं, एक फ्लैट खाली पड़ा है, सूरज वही पार्टी की व्यवस्था कर देगा। दोपहर 12:00 बजे पार्टी शुरू करेंगे, शाम तक पार्टी चलेगी। यह बात समीर को दो दिन पहले ही सुरेश ने बता दी थी। समीर ने घड़ी में देखा तो दोपहर के ग्यारह बज चुके थे। समीर मां के नजदीक आकर कहने लगा, मैं जानता हूं शाम को पापा मेरे लिए केक लेकर आएंगे। हर साल आप मेरा जन्मदिन मनाते आ रहे हो, लेकिन अब मैं बड़ा हो चुका हूं। मेरे दोस्त भी बड़े हो चुके हैं। मां ने समीर को खुश रखने के लिए कहा, तुम अपने दोस्तों को पार्टी देना चाहते हो मैं सब जानती हूं, मैं तुम्हें एक हजार रुपए दे रही हूं, दोस्तों के साथ तुम पार्टी कर सकते हो। समीर का चेहरा उतरा देख मां ने एक हजार रुपए और देते हुए कहा, अब तो ठीक है पूरे दो हजार रुपए तुम्हें मिल चुके हैं। समीर को याद आया सुरेश ने कहा था पूरे पांच हजार रुपए मांगना अपनी मां से तभी हम खुलकर पार्टी कर सकते हैं। समीर ने जिद्द करते हुए मां को बताया मुझे पूरे पांच हजार रुपए चाहिए। हम सब दोस्त खुलकर इंजॉय करेंगे। खूब खाना-पीना होगा। तब मां ने चिंता भरे स्वर में कहा समीर बेटा शाम को पापा भी तेरे जन्मदिन पर तेरे लिए तोहफा लाएंगे। समीर ने गुस्से से कहा इसका मतलब तुम अपने बेटे से प्यार नहीं करती हो। तुम मुझे पांच हजार रुपए दे दो यह बात पिताजी को मत बताना। मां ने पांच हजार रुपए देते हुए समीर से कहा, इन पैसों का गलत इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। मां का चेहरा थोड़ा उतर सा गया था। लेकिन समीर का ध्यान कहीं और ही था। समीर ने घड़ी में देखा तो 12 बजने वाले हैं। समीर ने बाइक निकाली हेलमेट पहना, इतने में सुरेश का कॉल आया। सुरेश ने कहा, हां समीर कहां पर हो? घर से पांच हजार रुपए मिले कि नहीं मिले? समीर ने सुरेश को बताया मैं पहले ठेके जाऊंगा वहां से शराब की बोतलें खाने-पीने का सामान लेकर तुम्हारे पास अभी 10 मिनट में पहुंचता हूं। 1 घंटे के बाद…… सुरेश ने सूरज से कहा दोपहर का 1:00 बज चुका है। समीर अभी तक नहीं आया। रमन ने कॉल मिलाया, मगर समीर का फोन स्विच ऑफ जा रहा था। सुरेश ने घड़ी में देखा तो दोपहर के 2:00 बज गए। रमन ने सुरेश को कहा शराब की दुकान तो पास में ही है, इतना समय समीर को कैसे लग रहा है। फोन भी स्विच ऑफ जा रहा है। घड़ी देखते-देखते तीनों दोस्तों की शाम हो गई। तीनों आपस में बोले समीर ने हमें धोखा दिया है। शाम के 6:00 बज चुके थे। समीर के तीनों दोस्त समीर के घर चल पड़े। यह पता लगाने के लिए कि समीर घर पर है कि नहीं। समीर के घर आस-पड़ोसी जमा हो चुके थे। कुछ रिश्तेदार भी आ चुके थे। केक की तैयारी हो चुकी थी। तभी समीर की मां ने सूरज, सुरेश, रमन तीनों दोस्तों को आते देखकर कहा, समीर शायद तुम तीनों के पास गया था, पार्टी के लिए…… अभी तक समीर घर नहीं आया। रमन ने बताया आंटी जी 12:00 बजे समीर का कॉल आया था। वह कह रहा था रास्ते में हूं। फिर उसके बाद कॉल स्विच ऑफ आने लगा। यह बात सुनकर घर में एकदम सन्नाटा छा गया। फ्लैट में खड़े लोग कुछ और सोचते इससे पहले तभी समीर दरवाजे पर आता नजर आया। सब ने समीर को घेर लिया। समीर के पिता समीर का हाथ पकड़ के केक के पास ले आए। सब लोगों के मुरझाए चेहरे पर मुस्कान लौट आई। सुरेश ने पूछ लिया समीर तुम घर से 12:00 बजे निकले थे। अब शाम के 6:00 बजे आए हो 6 घंटे से कहां लापता थे। मां ने भी गुस्से से पूछ लिया, मैंने दोपहर को पांच हजार रुपए दिए थे। तुमने उन रूपयों का क्या किया सबको बताओ? तब एक पड़ोसन बोली तुम्हारा बेटा समीर अब बड़ा हो गया है। गलत जगह पैसा खर्च करके आया है। इतनी बड़ी रकम तो हमने भी अपने बच्चों को नहीं दी। समीर बिगड़ चुका है, हमें तो शक है किसी लड़की बाजी में पैसे उड़ा कर आया होगा। कुछ रिश्तेदार तो मन ही मन आनंदित हुए जा रहे थे आस-पड़ोसी भी यही चाहते थे कि समीर से गलती हो। तभी दरवाजे से एक अधेड़ आदमी झांकता दिखा, फिर घर के भीतर आ गया। समीर के पास खड़ा होकर बोला भगवान सबको ऐसा बेटा दे। दोपहर 12:00 बजे सड़क किनारे मेरी आंखों के आगे अंधेरा छा गया। मेरा दिमाग एकदम सुन हो गया। मेरा एक हाथ जेब में था। आते-जाते लोग मुझे देखते फिर चले जाते ना तो मैं बोल पा रहा था ना सुन पा रहा था। लेकिन दिखाई दे रहा था। तभी एक बाइक मेरे पास आकर रुकी। उसने तुरंत पास की दुकान से पानी की बोतल खरीदी और मुझे पानी पिलाते हुए कहा, अंकल जी सड़क किनारे क्यों बैठे हो क्या घरबार नहीं है, चलो मैं तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ दूं। तब मैंने कहा घर जाकर क्या करूंगा। कबाड़ी का काम करता हूं। मेरे पिता जी का आज देहांत हो गया, लेकिन घर में एक फूटी कोड़ी भी नहीं थी। इसलिए जहां मैं कबाड़ी का सामान बेंचता था, वहां से बड़ी मुश्किल से पांच हजार रुपए उधार लिए थे कि पिताजी का अंतिम संस्कार कर दूंगा। लेकिन बस में चढ़ने से पहले ही किसी ने मेरी जेब काट ली। अब वह कबाड़ी वाला भी दोबारा पैसे नहीं देगा। बीवी बच्चे मेरी राह देख रहे होंगे आस-पड़ोसी सब जमा हो चुके हैं। मैं खाली हाथ किस मुंह से जाऊं मैं बिलख बिलख कर रोने लगा। हम गरीबों के पास दौलत तो नहीं होती, साहब, लेकिन बस एक सम्मान ही होता है। तब उसने मुझे मोटरसाइकिल पर बिठाया और मुझे मेरे घर ले गया। लोगों का जमावड़ा बढ़ता ही जा रहा था। मेरे घर आते ही मेरा छोटा बेटा दीपू बोला पापा तुमने रुपए लाने में इतनी देर क्यों लगा दी। पड़ोसी तरह-तरह की बातें बना रहे थे। तब उसने पांच हजार रुपए निकाल कर मेरी बीवी कुसुम देवी को देते हुए कहा, अंकल जी को बस नहीं मिल रही थी इसलिए अंकल जी को मैंने बाइक पर बिठा लिया और उनके रुपए रास्ते में गिर ना जाए इसलिए मैंने अपनी जेब में रख लिए थे। यह लो अंकल जी के पांच हजार रुपए तब मेरी बीवी ने कहा इन रूपयों को तुम अपने पास रखो जहां-जहां खर्च होंगे करते चले जाना। शाम को वह शमशान से हमारे घर आया। मोटरसाइकिल पर बैठा और कहा कुछ दूरी पर हमारा घर है। आज मेरा जन्मदिन है, तुम्हें घर आना है। उसने अपना पता बता दिया तब मैं इस समीर को जन्मदिन की बधाई देने चला आया। मां की आंखों में आंसू थे। वह सोचने लगी मैंने कहा था समीर इन पैसों का गलत इस्तेमाल नहीं होना चाहिए, आज एक बेटे ने मां की लाज रख ली। समीर के तीनों दोस्त आज बहुत खुश थे कि हमें समीर जैसा मित्र मिला। रिश्तेदारों के तो गाल फूल चुके थे, समीर का यह पुण्य का काम सुनकर। समीर के एक दूर के रिश्तेदार ने कहा-अपनी खुशियों से बढ़कर किसी जरूरतमंद की मदद करना ही हमारी संस्कृति हमें सिखाती है। फ्लैट में खड़े मौजूद सभी लोगों ने एक साथ कहा, समीर जैसा बेटा भगवान सबको दे। केक कटा और सब में बंटा। समीर ने एक बड़े से डिब्बे में बहुत सा खाना पैक करके उन अंकल जी के हाथ में थमा दिया। वे अंकल जी जब घर पहुंचे बच्चों से कहा तुम सुबह से भूखे हो लो मैं तुम लोगों के लिए खाना लाया हूं। बच्चों ने जब डिब्बे खोले तो एक डिब्बे में नोट रखे हुए थे। साथ में एक लेटर भी। लेटर में लिखा था मैं समीर का पिता आपको पांच हजार रुपए और दे रहा हूं। इस समय तुम्हें पैसों की जरूरत होगी और आपके पिता की तेरहवीं का पूरा खर्चा भी हम उठाएंगे। मैं आज आपको धन्यवाद दे रहा हूं इसलिए कि आपकी वजह से आज मेरा बेटा एक गुनाह करने से बच गया, वह गुनाह है,शराब की पार्टी। *****
- जीवन का एहसास
एक जंगल में कैसोवैरी जाति की एक चिड़िया रहती थी। यह चिड़िया उड़ सकने में असमर्थ थी। कैसोवैरी चिड़िया को बचपन से ही बाकी चिड़ियों के बच्चे चिढ़ाते थे। कोई कहता, “जब तुम्हें उड़ना नहीं आता तो कुछ नहीं आता, तुम चिड़िया किस काम की।”तो कोई उसे ऊपर पेड़ की डाल पर बैठ कर चिढ़ाता कि, “अरे कभी हमारे पास भी पेड़ पर आ जाया करो। जब देखो जानवरों की तरह नीचे ही चरती रहती हो।” और ऐसा बोल-बोल कर सब के सब खूब हँसते। कैसोवैरी चिड़िया शुरुआत में तो इन बातों का बुरा नहीं मानती थी लेकिन किसी भी चीज की एक सीमा होती है। बार-बार चिढ़ाये जाने से वह बहुत दुखी हो गई। वह उदास बैठ गयी और आसमान की तरफ निहारते हुए बोली, “हे ईश्वर, तुमने मुझे चिड़िया क्यों बनाया। जब मुझे उड़ने की काबिलियत नहीं देनी थी। देखो सब मुझे कितना चिढ़ाते हैं। अब मैं यहाँ एक पल भी नहीं रह सकती, मैं इस जंगल को हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ कर चली जा रही हूँ।” और ऐसा कहते हुए कैसोवैरी चिड़िया जंगल को छोड़कर उड़ने लगी। अभी उसने कुछ दूरी ही तय की थी कि पीछे से एक भारी-भरकम आवाज़ आई, “रुको कैसोवैरी, तुम कहाँ जा रही हो, बहन।” कैसोवैरी आश्चर्यचकित रह गई और उसने पीछे मुड़ कर देखा, वहां खड़ा जामुन का पेड़ उससे कुछ कह रहा था। “कृपया तुम जंगल छोड़कर मत जाओ। हमें तुम्हारी बहुत ज़रुरत है। पूरे जंगल में तुम ही हो जिसकी वजह से हम सबसे अधिक फल-फूल रहे हैं। वो तुम ही हो जो अपनी मजबूत चोंच से फलों को अन्दर तक खाती हो और हमारे बीजों को पूरे जंगल में बिखेरती हो। ऐसा संभव है कि बाकी चिड़ियों के लिए तुम मायने ना रखती हो लेकिन हम पेड़ों के लिए तुमसे बढ़कर सहायक कोई दूसरी चिड़िया नहीं सकती, तुम मत जाओ। तुम्हारी जगह कोई और नहीं ले सकता।” जामुन के पेड़ की बात सुन कर कैसोवैरी चिड़िया को जीवन में पहली बार एहसास हुआ कि उसकी भी इस धरती में किसी को आवश्यकता है वह इस धरती पर बेकार नहीं है, भगवान् ने उसे एक बेहद ज़रूरी काम के लिए भेजा है और सिर्फ न उड़ पाने का गुण बाकी चिड़ियों से उसे छोटा नहीं बनाता। आज एक बार फिर कैसोवैरी चिड़िया बहुत खुश थी, वह ख़ुशी-ख़ुशी अपना दर्द भूलकर जंगल में वापस लौट गयी। सार - हर किसी के अन्दर कोई न कोई ऐसा गुण होता है जो उसे औरों से अलग करता है। हताशा मत पालिए और उसके लिए कार्य कीजिए जिसको आपकी जरूरत है। ******
- सोने का कंगन
डॉ. कृष्णा कांत श्रीवास्तव एक जंगल में एक बूढ़ा बाघ रहता था। बुढ़ापे के कारण उसका शरीर जवाब देने लगा था। उसके दांत और पंजे कमज़ोर हो गए थे। उसके शरीर में पहले जैसी शक्ति और फुर्ती नहीं बची थी। ऐसी हालत में उसके लिए शिकार करना दुष्कर हो गया था। वह दिन भर भटकता, तब कहीं कोई छोटा जीव शिकार कर पाता। उसके दिन ऐसे ही बीत रहे थे। एक दिन वह शिकार की तलाश में भटक रहा था। पूरा दिन निकल जाने के बाद भी उसके हाथ कोई शिकार न लगा। चलते-चलते वह एक नदी के पास पहुँचा और पानी पीकर सुस्ताने के लिए वहीं बैठ गया। वह वहाँ बैठा ही था कि उसकी दृष्टि एक चमकती चीज़ पर पड़ी। पास जाकर उसने देखा, तो पाया कि वह एक सोने का कंगन था। सोने का कंगन देखते ही उसके दिमाग में शिकार को अपने जाल में फंसाने का एक उपाय सूझ गया। वह सोने का कंगन हर आने-जाने वाले राहगीर को दिखाता और उसे यह कहकर अपने पास बुलाता, “मुझे ये सोने का कंगन मिला है। मैं इसका क्या करूंगा? मेरे जीवन के कुछ ही दिन शेष है। सोचता हूँ इसका दान कर कुछ पुण्य कमाँ लूं। ताकि कम से कम मरने के बाद मुझे स्वर्ग की प्राप्ति हो। मेरे पास आओ और ये कंगन ले लो।” बाघ जैसे ख़तरनाक जानवर का भला कौन विश्वास करता? कोई उसके पास नहीं आया और दूर से ही भाग खड़ा हुआ। बहुत देर हो गई और कोई सोने के कंगन के लालच में उसके पास नहीं आया। बाघ को लगने लगा कि उसका उपाय काम नहीं करने वाला है। तभी नदी के दूसरी किनारे पर उसे एक राहगीर दिखाई पड़ा। बाघ सोने का कंगन हिलाते हुए जोर से चिल्लाया, “महानुभाव! मैं ये सोने का कंगन दान कर रहा हूँ। क्या आप इसे लेकर पुण्य प्राप्ति में मेरी सहायता करेंगे?” बाघ की बात सुनकर राहगीर ठिठक गया। सोने के कंगन की चमक से उसका मन लालच से भर उठा। किंतु उसे बाघ का भी डर था। वह बोला, “तुम एक ख़तरनाक जीव हो। मैं तुम्हारा विश्वास कैसे करूं? तुम मुझे मारकर खा गए तो?” इस पर बाघ बोला, “अपने युवा काल में मैंने बहुत शिकार किया है। लेकिन अब मैं वृद्ध हो चला हूँ। मैंने शिकार करना छोड़ दिया है। मैं पूरी तरह शाकाहारी हो गया हूँ। बस अब मैं पुण्य कमाना चाहता हूँ। आओ मेरे पास आकर ये कंगन ले लो।” राहगीर सोच में पड़ गया। लेकिन लालच उसकी बुद्धि भ्रष्ट कर चुका था। बाघ तक पहुँचने के लिए उसने नदी में छलांग लगा दी। वह तैरते-तैरते दूसरे किनारे पहुँचने ही वाला था कि उसने अपना पैर कीचड़ में धंसा पाया। वहाँ एक दलदल था। दलदल से बाहर निकलने वह जितना हाथ-पैर मारता, उतना ही उसमें धंसता चला जाता। ख़ुद को बचाने के लिए उसने बाघ को आवाज़ लगाई। बाघ तो इसी मौके की तलाश में था। उसने अपने पंजे में दबोचकर राहगीर को दलदल से बाहर खींच लिया और उसके सोचने-समझने के पहले ही उसका सीना चीर दिया। इस तरह सोने के कंगन के लालच में राहगीर अपनी जान गंवा बैठा। सीख – लालच बुरी बाला है। *****
- मायका
रमेश कुमार संतोष करवाचौथ को एक दिन ही बचा है। उस का ध्यान बार-बार भैया और भाभी की तरफ जा रहा है। मन होता है, फ़ोन करूँ। परन्तु करती नहीं है। कहीं यह न समझ लें कि लेने के लिए फोन कर रही है। पर फिर भी उस के भीतर भाई और भाभी के फ़ोन को सुनने के लिए उत्सुकता हो रही है। आखिर एक ही शहर में तो रहते हैं। जेठानी के मायके वाले भी आ कर अपनी बेटी को करवाचौथ दे गये हैं। सास के मायके वालों ने भी पैसे ट्रांसफर कर दिए हैं, परन्तु उस के मायके से कोई संदेश नहीं। मां होती थी अपनी बेटी को देने के लिए कोई त्योहार खाली जाने नहीं देती थी। करवाचौथ हो या लोहड़ी या दिवाली वह तो निमानी काश्ती को भी कुछ न कुछ भेज देती थी। पता नहीं क्यों मां बहुत याद आ रही है। कितनी यादें स्मरण हो आई हैं। आज सुबह ही सुबह सासु मां ने भी पैसे दिए थे कि करवाचौथ के लिए वह कुछ खरीद ले, पर पता नहीं उस का मन कुछ भी खरीदने के लिए नहीं हो रहा। बार-बार ध्यान फोन की बैल और गेट की ओर ही जा रहा था। वह कई बार मन को समझा बैठी है कि तुम्हें किसी भी चीज की कमी है, परन्तु न जाने मन क्यों भटक जाता है। रात आठ बजे के करीब उसे पता चलता है कि उसके भाई और भाभी आये हैं। सुनते ही उसकी आंखें भर आईं। नहीं जानती कि उसकी आंखें क्यों भर आईं बहुत सम्भाल रही थी अपने को, परन्तु भाभी के गले मिल कर मन का सारा गुभार निकल गया। भाभी ने भी उस के बालों को सहलाते हुए कहा, "पगली" और उस की आंखें भी भीग गई। आज उसे वह अपनी ननद नहीं अपनी बेटी लग रही थी। और उसे वह भाभी नहीं मां लग रही थी। उसे लगने लगा कि उसका मायका है। ******
- आत्महत्या
राजीव रंजन आज कचहरी में एक अजीब सा मुकद्दमा आया था। जिसका फैसला सुनने के लिए इतने लोग आये थे कि कचहरी खचाखच भरी थी। जितने लोग थे उतनी बातें। कोई कह रहा था “उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था। जान बहुत कीमती है भाई। परेशानियां तो आती जाती रहती हैं। जिंदगी गयी तो दुबारा नहीं मिलती।” इसी तरह सभी का अपना अपना तर्क था। आत्महत्या की कोशिश करने वाले नवयुवक को कटघरे में लाया गया। देखने में तो पढ़ा लिखा लगता है और हरकत तो देखो।” लोगों के बीच से आवाज आई। बोलने वाले पर उसकी निगाहें जा कर रुक गयी।वो देख कर चुपचाप मुस्कराया और शांत कटघरे में खड़ा रहा। तभी जज साहब आये और सब खड़े हो गए।कार्यवाही शुरू की गयी। सरकारी वकील ने अपनी दलीलें पेश करनी शुरू की। आत्महत्या की कोशिश शहर के बाहर बहने वाली नदी में की गयी थी। पर वहां लोगों का आना जाना लगा रहता था। इस कारण उसकी जान बचायी जा सकी। पर जब जान बचायी गयी उस वक़्त उसे होश नहीं था। पुलिस को बुलाया गया तो पुलिस कर्मचारी उसे सरकारी अस्पताल ले के गए। वहां जब पुछा गया तो पता चला की उसने जिंदगी से मुक्ति पाने के लिए आत्महत्या की कोशिश की थी। इसके पीछे और किसी का हाथ नहीं है। बहुत जोर देने पर भी उसने और कुछ ना बताया। सरकारी वकील ने कार्यवाही शुरू की – “जज साहब ये शख्स जिसका नाम विश्वास है, ने अपनी आत्महत्या की कोशिश पूरे होश-ओ-हवास में की है। कारण पूछे जाने पर इसका बस इतना कहना है कि ये जिंदगी से आजादी चाहता था। पर ये कानूनन जुर्म है। इसलिए मैं चाहूँगा इसे दफा 309 के तहत 1 साल की सजा दी जाए।” इतना सुनने के बाद भी उसके चेहरे पर एक अजीब सी मुस्कान थी। जज साहब ने पुछा, “क्या तुम्हें अपनी सफाई में कुछ कहना है?” उसने मुसकुराते हुए अपना सर ना में हिलाया। बस फिर क्या बाकी था। जज साहब ने अपना फैसला सुनाया और उसे 1 साल कैद की सजा हुयी। उसे जेल में ले जाया गया। धीरे-धीरे दिन बीतने लगे। उसकी जेल के अन्य कैदियों से दोस्ती हो गयी थी। सब बड़े दिलवाले थे। कोई चोरी करते पकड़ा गया था, तो कोई क़त्ल कर के आया था। सब में अच्छी बनती थी वहां, एक दूसरे के हमदर्द से बन गए थे सब। सब एक दूसरे से अपने दिल की बातें किया करते थे। अचानक एक दिन किसी ने उससे पूछा, “तुमने बताया नहीं कि तुमने मरने की कोशिश क्यों की और कोशिश की तो फिर नदी में क्यों कोई और तरीका क्यों नहीं अपनाया?” “और किसी तरीके से शायद मैं बस बच ना पाता।” “क्या मतलब?” “मैं स्टेट लेवल चैंपियन हूँ तैराकी का।” इतना सुनते ही सब के होश उड़ गए कि ये क्या बोल रहा है। उसने बोलना जारी रखा। “बचपन से ही मैं गरीबी देखता आया हूँ। जिसने जीवन में डूबता हुआ पाया गया था उसी नदी में तैरना सीख कर मैंने 50 से ज्यादा मेडल जीते हैं और उस नदी में कैसे डूब सकता था। मैंने यह कदम अपनी गरीबी के चलते उठाया। जिसके कारण मेरे पास खाने को एक वक्त की रोटी नहीं थी और ना ही कोई काम मिल रहा था। तभी अचानक मैंने सोचा कि क्यों ना आत्महत्या कर लूँ। फिर याद आया कि आत्महत्या गैर कानूनी है। और 1 साल की सजा है। इसलिए मैंने ये सब किया और अब दफा 309 के तहत मेरे सर पर छत है, खाने को 2 वक्त की रोटी है। और तो और यहाँ पर अगर बीमार भी होता हूँ तो फ्री में इलाज है। बस इसीलिए यहाँ आ गया।” इतना सुनते ही सब असमंजस में पड़ गए कि हंसे या अफ़सोस जताएं। तभी रात के खाने के लिए सबको आवाज दी गयी और सब अपनी-अपनी थाली उठा कर चल पड़े। शिक्षा - देश के लिए विश्वास जैसे बहुत से खिलाड़ियों ने मैडल जीते हैं। लेकिन बहुत से ऐसे भी खिलाड़ी है जो गरीबी में जी रहे हैं, ऐसे खिलाड़ियों के लिए सरकार को पेंशन दी जानी चाहिए जो देश के लिए खेलता है मैडल जीतता है। औऱ हम आम नागरिकों को भी सहयोग करना चाहिए। ******
- एक बार तो सोचती
विभा गुप्ता रत्ना के हाथ रखने से पहले ही उसके ननदोई श्रीधर ने अपना हाथ पुस्तक पर से हटा लिया तो वह तिलमिला गई। अपनी इच्छा पर पानी फिरते देख उसने श्रीधर को नीचा दिखाने का ठान लिया। आठ साल पहले रत्ना की छोटी ननद दीपाली के साथ श्रीधर का विवाह हुआ था। श्रीधर शहर के नामी कॉलेज़ में इतिहास के प्रोफ़ेसर थें। देखने में हैंडसम, स्वभाव के सरल श्रीधर का कॉलेज़ में बहुत सम्मान था। उनके बारे में कहा जाता था कि एक बार चाँद में दाग हो सकता है लेकिन श्रीधर के चरित्र पर नहीं। उनके चरित्र पर ऊँगली उठाना तो चाँद पर थूकने के समान है। शादी के बाद श्रीधर जब भी अपने ससुराल आते तो रत्ना उनकी खूब खातिरदारी करती। शुरु-शुरु में उन्होंने सोचा कि बड़ी सलहज है तो लेकिन फिर उन्हें रत्ना की नीयत में खोट नज़र आने लगा। इस बारे में उन्होंने दीपाली से कहा तो उसने हँसकर टाल दिया। श्रीधर का बेटा जब पाँच बरस का था तो एक असाध्य बीमारी के कारण दीपाली की मृत्यु हो गई। घर में माँ और छोटी बहन थी, इसलिये उन्होंने दूसरे विवाह के बारे में सोचा नहीं। जब भी समय मिलता तो वे अपने बेटे को लेकर ससुराल आ जाते ताकि वह अपने ननिहाल वालों के साथ समय बिता सके। उस समय रत्ना श्रीधर के स्पर्श का कोई न कोई बहाना ढ़ूँढ लेती। रिश्तों का लिहाज़ करके श्रीधर चुप रह जाते जिससे रत्ना के हौंसले बुलंद थें। आज फिर से जब श्रीधर ने उसे हताश कर दिया तो उसने अपने पति से कहा कि आपके बहनोई की नीयत ठीक नहीं है। वे जब भी यहाँ आते हैं तो गाहे-बेगाहे मुझे छूने का...। "बस भी करो रत्ना...अपनी नहीं, तो उनकी प्रतिष्ठा का तो ख्याल करो। वे एक सम्मानित प्रोफ़ेसर ही नहीं, इस घर के दामाद भी हैं। शर्म आनी चाहिये तुम्हें।" पति की डाँट का उस पर कोई ख़ास असर नहीं हुआ। कुछ दिनों बाद यही बात उसने अपनी सास से भी कही। लेकिन सास ने भी उसकी बात अनसुनी कर दी क्योंकि उन्हें अपने दामाद पर पूरा भरोसा था। एक दिन दसवीं में पढ़ने वाली रत्ना की बेटी काजल शाम तक स्कूल से नहीं लौटी। स्कूल में फ़ोन करने पर पता चला कि अपनी सहेलियों के साथ वह स्कूल से जा चुकी है। अब तो रत्ना बहुत घबराई पति को बोली कि पुलिस को फ़ोन कीजिये कहीं कुछ गलत। तभी काजल श्रीधर के साथ घर आई। सबने दोनों पर प्रश्नों की झड़ी लगा दी, कहाँ रह गई थी, क्या हुआ। तब काजल ने रत्ना को बताया कि मम्मी, रास्ते में दो लड़कों ने मेरा रास्ता रोक लिया था। वे मेरे साथ बत्तमीज़ी करने लगे थें। तभी फूफ़ाजी आ गये और मुझे उन बदमाशों के चंगुल से बचाया। मम्मी, आज फूफ़ाजी न होते तो...।" और वह रोने लगी। तब रत्ना का पति बोला, "रत्ना, श्रीधर के कारण ही आज तुम्हारी बेटी सुरक्षित घर लौटी है और तुम उन्हीं पर। चाँद पर थूकने से पहले एक बार तो सोचती।" "जी, मुझे माफ़ कर दीजिये।" कहते हुए उसने अपनी गरदन नीची कर ली। तभी श्रीधर मुस्कुराते हुए बोले, "क्यों भाभी, अपने ननदोई को चाय नहीं पिलाएँगी।" "अभी लाई....।" रत्ना के कहते ही सभी मुस्कुरा उठे। ******
- कितना मुश्किल है...
सन्दीप तोमर एक लंबे अरसे से करती रही थी वह मिलने की फरमाइश वक़्त टालता रहा था हमारे मिलने को उसने फिर कहा- बस बातें ही करते हो मिलना कब होगा तुमसे फिर वक़्त ने कर दिया प्रबंध मिलने का और तय हुआ समय, स्थान सब वह तय समय मिलने पहुँच गयी थी उसने चुना होगा बहुत सी पोशाको में से किसी एक को घण्टों देखा होगा खुद को आईने में उसकी चुनी हुई पोशाक में वह षोढसी लग रही थी उसे इंतज़ार करते हुए मैंने निहारा था कुछ पल पास जाकर बढ़ाया था हाथ उसने थाम लिए अंगुली के पोर अपनी अंगुलियों में हम बढ़ चले एक केफिटेरिया की ओर बैठने के बाद वो देखती रही थी मुझे एक टक बातों के बीच यकायक आ जाता एक मौन उसे लगा जैसे मेरे मौन हो जाने में कोई तीसरा आ उपस्थित हुआ है उसने कहा- खुश नहीं हो तो चले वापिस मैं झेंप गया उस पल हॉट कॉफी के कप बढ़ा न पाए मन की गर्माहट उसने असहज हो, कहा- कितना मुश्किल है टूटे दिल इंसान से डेट करना उफ़्फ़ कैसे ढोते हो खुद के अंदर दो-दो प्रेमी ऐसा करो, जब उस तीसरे शख़्स के बिना आ पाओ वो समय तय करना मिलने को पुरानी प्रेमिका को हृदय में रख नहीं कर पाओगे डेट और मैं उसकी अंगुली के पोर देखता रहा एकटक मेरे हाथ बढ़ गए उन्हें फिर से छूने को। *****
- फर्ज
मंजू लता ये क्या कर रही हो निशा तुम। अपनी पत्नी निशा को कमरे में एक और चारपाई बिछाते देख मोहन ने टोकते हुए कहा। निशा - मां के लिए बिस्तर लगा रही हूं आज से मां हमारे पास सोएगी। मोहन – क्या, तुम पागल हो गई हो क्या? यहां हमारे कमरे में, और हमारी प्राइवेसी का क्या? और जब अलग से कमरा है उनके लिए तो इसकी क्या जरूरत। निशा - जरूरत है मोहन, जब से बाबूजी का निधन हुआ है तबसे मां का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। तुमने तो स्वयं देखा है, पहले बाबूजी थे तो अलग कमरे में दोनों को एकदूसरे का सहारा था। मगर अब, मोहन बाबूजी के बाद मां बहुत अकेली हो गई है। दिन में तो मैं आराध्या और आप उनका ख़्याल रखने की भरपूर कोशिश करते हैं ताकि उनका मन लगा रहे। वो अकेलापन महसूस ना करे मगर रात को अलग कमरे में अकेले, नहीं वो अबसे यही सोएगी। मोहन - मगर अचानक ये सब, कुछ समझ नहीं पा रहा तुम्हारी बातों को। निशा - मोहन हर बच्चे का ध्यान उसके माता पिता बचपन में रखते हैं। सब इसे उनका फर्ज कहते हैं। वैसे ही बुढ़ापे में बच्चों का भी तो यही फर्ज होना चाहिए ना और मुझे याद है मेरा तो दादी से गहरा लगाव था। मगर दादी को मम्मी पापा ने अलग कमरा दिया हुआ था। और उस रात दादी सोई तो सुबह उठी ही नहीं। डाक्टर कहते थे कि आधी रात उन्हें अटैक आया था। जाने कितनी घबराहट परेशानी हुई होगी और शायद हम में से कोई वहां उनके पास होता तो शायद दादी कुछ और वक्त हमारे साथ। मोहन जो दादी के साथ हुआ वो मै मां के साथ होते हुए नहीं देखना चाहती और फिर बच्चे वहीं सीखते हैं जो वो बड़ो को करते देखते हैं। मैं नहीं चाहती कल आराध्या भी अपने ससुराल में अपने सास ससुर को अकेला छोड़ दे। उनकी सेवा ना करें। आखिर यही तो संस्कारों के वो बीज है जोकि आनेवाले वक्त में घनी छाया देनेवाले वृक्ष बनेंगे। मोहन उठा और निशा को सीने से लगाते बोला - मुझे माफ करना निशा। अपने स्वार्थ में, मैं अपनी मां को भूल गया। अपने बेटे होने के फर्ज को भूल गया और फिर दोनों मां के पास गए और आदरपूर्वक उन्हें अपने कमरे में ले आए....!! ******
- सबसे प्रेम किया
नवीन रांगियाल मैं उन सीढ़ियों से भी प्रेम करता हूँ जिन पर चलकर उससे मिलने जाया करता था और उस खिड़की से भी जिसके बाहर देखती थीं उसकी उदास आँखें मुझे अब भी उस अँधेरे से प्रेम है जिसके उजालों में चलकर पहुँचा था उसके पास मैंने उन सारी चीज़ों से प्रेम किया जो उसके हाथों से छुई गई थीं कभी न कभी जैसे दीवार काजल लगा आईना कपड़े सुखाने की रस्सियाँ कमरे की चाबियाँ और कमरे की सारी खूँटियाँ जहाँ हमने अपनी प्रार्थनाएँ लटकाई थीं कभी मैंने अलमारी में लटके उन सारे हैंगर्स से भी प्रेम किया जिनमें सफ़ेद झाग वाले सर्फ़ की तरह महकते थे उसके हाथ मैंने उन सारी चीज़ों से प्रेम किया जिन्हें उसके तलवों ने छुआ था जैसे पृथ्वी जैसे यह सारा संसार इस तरह मैंने दुनिया की हर एक चीज़ से प्रेम किया— उसके प्रेम में। *****
- बहू की बंदिशे
संगीता शर्मा आशी आज बहुत गुस्से में थी, और होती भी क्यों ना? उसे लगता था, मोहल्ले की सभी बहुओं में सबसे ज्यादा दुखी वही है। शाम को जब अभिषेक आशी के पति घर आए तो आशि का सारा गुस्सा उन पर निकला। आशी ने कहा सारे घर का काम मुझे ही करना पड़ता हैl अब सामने वाले पड़ोसी शर्मा अंकल की बहू को देखो वह तो कभी नहीं निकलती बाहर उसे तो कभी भी बाहर जाते हुए भी नहीं देखा हैl और एक मैं जो दिन भर घर के कामों से स्कूटी लेकर बाजारों में घूमती रहती हूंl और आकर फिर घर का काम करो खाना बनाओ और तो और बच्चों की सारी जिम्मेदारी भी मेरे ऊपर हैl आपसे तो इतना भी नहीं होता कि बच्चों की स्कूल की डायरी भी चेक कर ले। वह भी मुझे ही करनी है, आशी गुस्से में सारी बातें अभिषेक को बोले जा रही थीl और अभिषेक चुपचाप खड़े हुए चेहरे पर थोड़ी सी मुस्कान लिए उसे हाव भाव दे रहे थेl अभिषेक के मजाक के हाव भाव देखकर आशी और ज्यादा नाराज हो गई। और चिल्लाते हुए बोली, सही है आपका यहां में जल रही हूं और आप मेरे मजे ले कर हंस रहे होl तब अभिषेक ने हंसते हुए कहा यार आशी अब तुम्हारी इन बेकार की बातों पर हंसी नहीं तो क्या सीरियस हूं? तुम अपनी तुलना शर्मा अंकल की बहू से कर रही हो? तुम्हें पता है शर्मा अंकल और आंटी दोनों अपनी बहू को घर से बाहर खड़ा तो होने नहीं देतेl वह बाहर कैसे निकलेगी? तुम तो शुक्र करो तुम्हारे ऊपर ऐसी कोई बंदिश नहीं है। तुम चाहे जहां जाओ और तुम्हारा मन करे वह पहनो फिर भी तुम संतुष्ट नहीं हो। तब आशी ने कहा यह कोई आजादी है मेरी..l सारे दिन लगे रहो बाजारों मेंl मैं भी चाहती हूं कि कभी-कभी मुझे किसी चीज के लिए बाजार जाने का मन ना करें तो वह चीज तुम मुझे लाकर घर पर दे दो। पर तुमसे तो उम्मीद करना ही बेकार है। तभी तो मेरा एक पैर घर में होता है और एक पैर बाजार में। तब अभिषेक ने कैसे जैसे आशी को मनाया और फिर रात का खाना खाकर सब सो गए। अगले दिन आशी किसी काम से बाजार के लिए निकली ही थी, तभी उसे आवाज आई..l दीदी इधर देखो...! आशी आवाज सुनकर भी अपना वहम समझकर आगे बढ़ने लगी। फिर दोबारा उसे वही आवाज आई तब उसने देखा शर्मा अंकल की बहू अपने कमरे की खिड़की से उसे आवाज दे रही थी। जब आशी ने उसकी तरफ देखा तो उसने इशारा करते हुए अपने पास बुलाया और कहा भाभी क्या आप मुझे लाल रंग की नेल पॉलिश ला दोगे? मैंने अपने पति से कहा था पर उनके पास समय की कमी होने की वजह से उन्होंने मुझे टाल दिया था। कहा कभी और बाद में ला दूंगा। तब आशी ने कहा अरे तो ऐसा करो तुम चलो ना मेरे साथ। तुम बाजार भी घूम आओगी और तुम्हें जो भी सामान चाहिए वह ले लेना और साथ में अपन दोनों गोल गप्पे भी खाएंगे..!!! इतना सुनते ही शर्मा अंकल की बहू की आंखों में आंसू आ गए और बोली दीदी मेरी किस्मत आपकी जैसी नहीं है। मैं अपनी पसंद से कुछ भी नहीं खरीद सकती हूं। जो भी कुछ घर वाले अपनी पसंद से लाकर देते हैं वही पहन लेती हूं l मैं बहू हूं ना तो यह लोग मुझे कहते हैं बहू तुम चारदीवारी में ही रहो। तभी हमारे घर की शोभा है। आज के जमाने में भी मेरी सांस मुझे घर से बाहर जाने नहीं देती है, और ना ही पड़ोस में किसी से बात करने देती है। तभी पीछे से आवाज आई बहू.....!!! और वह अपनी अधूरी बातों को बिना पूरा करे ही अंदर चली गई। और उसके अंदर जाने के बाद, आशी यह सोचने पर मजबूर हो गई कि किस्मत किसकी खराब निकली? मेरी कि मुझे अपने घर और बाहर दोनों का काम संभालना पड़ता है। या शर्मा अंकल की बहू की जो अपने घर के बाहर भी खड़ी नहीं हो सकती है। आशी सोचने लगी कि मैं तो हमेशा यही सोचती थी कि, शर्मा अंकल की बहू के तो ऐश है जो, उसे घर पर बैठे बिठाए हर सामान मिल जाता है। पर आज वह अपनी किस्मत को सराह रही थी, क्योंकि चाहे काम के बहाने ही सही वह घर से बाहर निकल तो सकती है। जिससे चाहे उससे बात कर सकती है, अपनी पसंद का कुछ भी खरीद सकती है। अगर मुझे ऐसे चारदीवारी में कैद कर दिया जाता तो आज वह भी ऐसे ही तड़पती जैसे शर्मा अंकल की बहू आज झटपटा रही है। आज आशी को समझ आ गया था कि जैसा हमें दूर से दिखाई देता है सच्चाई में अक्सर ऐसा होता नहीं है। ******
- रेशमा का घर
भगवती प्रसाद वर्मा मेरी शादी को लगभग 6 महीने हो चुके थे। अपनी पसंद की शादी करने के लिए मैंने बहुत पापड़ बेले थे। हमारे घर में यह पहली एक ऐसी शादी थी, जो घर वालों की मर्जी से नहीं हुई थी। लड़की मैंने खुद पसंद की थी। मुश्किल तो बहुत आई सभी को मनाने में, पर बहुत कोशिश करने के बाद मां-बाबा मान गए और फिर बाकी रिश्तेदारों को भी धीरे-धीरे उन्होंने मना लिया। मैंने अपनी मर्जी से शादी तो कर ली, परंतु 6 महीने के बाद कुछ ऐसा महसूस हो रहा है, जैसे बहुत सारी बातों को मैंने नजर अंदाज कर दिया। जो कि परिवार में रहने के लिए लाजमी होती हैं। मां ने तो बहुत समझाया था, परंतु मैंने अपनी जिद् पकड़ रखी थी, तो फिर मां बाबा भी मान गए थे। आज 6 महीने बाद जब बैठकर उन सारी बातों का निचोड़ निकालता हूं तो समझ में आता है कि बहुत कमी रह गई.. जो कि पहले नजर नहीं आई। रेशमा जब हमारे घर में नई-नई आई थी, तो मां बाबा ने काफी प्यार दिया और घर के रीति रिवाज सीखाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। परंतु रेशमा ने काफी जगह पर बचपना दिखाया। वह शादी से पहले जैसा बर्ताव करती थी, शादी के बाद भी वैसी ही रही। उसने कभी भी यह महसूस नहीं किया कि अब वह एक परिवार में है। परिवार में रहकर हमें कुछ जिम्मेदारियां निभानी पड़ती हैं। मां आए दिन मुझे कहती रहती थी कि "बेटा तुम्हारी बहू सजने सवरने पर ज्यादा ध्यान देती है, और घर के काम में उसका योगदान बहुत कम है... वैसे तो पहले भी यह सब काम मैं करती थी, परंतु बहू के आने के बाद थोड़ा बहुत आराम तो मिलना ही चाहिए।" मैं सोच में पड़ जाता था कि अब रेशमा को क्या कहूं ....क्योंकि बच्चों को तो समझाया जा सकता है, परंतु ऐसा इंसान जिसकी शादी हो चुकी है, उसको यह छोटी-छोटी बातें क्या ही समझाई जाएं। आखिर एक दिन मैंने रेशमा को अपने पास बैठा ही लिया और पूछने लगा कि "रेशमा तुम जो खाना खाती हो वह कौन बनाता है?" तो उसने जवाब दिया, "मां बनती है।" फिर मैंने पूछा, "कपड़े कौन धोता है?" तो उसने जवाब दिया: "मां धोती है।" फिर मैंने पूछा, "घर की साफ सफाई कौन करता है?" तो उसने कहा, "मां करती है।" फिर मैंने उससे पूछा, "तुम दिन भर क्या करती हो? तुम्हारा मन कमरे में उदास नहीं होता?" तो उसने जवाब दिया, "मैं आपके दफ्तर जाने के बाद अपना कमरा ठीक करती हूं, और फिर नहा कर तैयार हो जाती हूं। फिर मां जी नाश्ते के लिए आवाज देती है, और मैं नाश्ता करके फिर अपने कमरे में आ जाती हूं और उसके बाद कुछ देर टेलीविजन देख लेती हूं या फिर इंटरनेट पर कुछ शो देख लेती हूं। जब तक शाम हो जाती है और आप आ जाते हो" फिर मैंने रेशमा से कहा, "यदि हम मां बाबा से अल्ग रहे तो कैसा होगा?" तो उसने कहा, "यह तो अच्छा ही होगा। कम से काम मैं खुलकर जी तो पाऊंगी।" मैंने रेशमा से कहा, "तो अभी तुम्हारे जीवन में क्या दिक्कत है?" तो उसने कहा, "मुझसे मिलने मेरी सहेलियां नहीं आ सकती उन्हें मेरी सास से डर लगता है और मुझे भी कहीं जाना हो तो बहुत बार पूछना पड़ता है। बहुत बंधन सा लगता है।" फिर मैंने उससे पूछा कि "जब हम अलग रहेंगे तो, फिर मां तो वहां नहीं होगी, तो तुम खाना कैसे खाओगी? तुम्हें खाना कौन बना कर देगा?" तो उसने कहा, "हम नौकर रख लेंगे।" फिर मैंने उससे कहा कि क्या तुम मेरे घर को अपना घर नहीं समझती हो? उसने कहा क्यों नहीं समझती जब आप मेरे हो तो, आपका सब कुछ मेरा है। तो फिर मैंने कहा, कि जब घर तुम्हारा है, तो तुमसे अधिक उसका ध्यान और कौन रख सकता है? क्या तुम मुझे भी किसी और को सौंप सकती हो? जैसे तुमने वह घर नौकरों के हवाले सौंपने की बात की। तो उसने कहा, बिल्कुल नहीं यह तो बहुत गलत बात हो जाएगी। फिर मैंने कहा, ऐसे ही मेहनत करके जो घर हमने बनाया है और मेहनत करके जो अनाज हम घर में ला रहे हैं, उसे पकाने में या उस घर की देखभाल करने में तुम अपना योगदान नहीं दे रही है। मतलब तुम सिर्फ खुद से ही प्यार करती हो और मुझे नहीं" तब लगा कि शायद रेशमा के दिमाग में बातें समझ में आई क्योंकि उसकी आंखें थोड़ी सी नम हो गई थी। वह बुरी लड़की नहीं थी, बस थोड़ा बचपना था और बिन मां-बाप की बच्ची थी, इसलिए घरेलू लोगों के साथ कैसे रहा जाता है, वह नहीं जानती थी। मैंने उसे समझाया कि मां पहले भी घर का सारा काम करती थी क्योंकि वह इस घर को अपना समझती है। तो यदि तुम भी उनके साथ मिलकर काम कर लिया करो तो कुछ समय मां भी आराम कर लेगी। मिलजुल कर काम करने से काम जल्दी खत्म हो जाता है। काम किसी बाहर के लोगों का नहीं है, वह तो हमारे अपने घर का ही है और जब जरूरत होगी तो हम घर में नौकर भी रख लेंगे। जो तुम लोगों की मदद कर दिया करेगा परंतु ऐसे पूरा दिन अपने कमरे में बैठे रहना और बस सजना सवरना या फिर अपना मनोरंजन करना तो, यह अच्छी बात नहीं है। क्योंकि मां भी पूरा दिन काम में उलझी रहती है उनका भी मन करता है कुछ समय आराम करने का। रेशमा को कुछ शर्मिंदगी महसूस हुई और वह मां के पास जाकर बात करने लगी। मां ने उसे प्यार से गले लगा लिया। अगले दिन से रेशमा मां के साथ मदद करवाने लगी और घर के काम खत्म करके दोनों अपने-अपने कमरे में आराम करती थी। कहीं ना कहीं मेरे मन पर भी जो भार चढ़ गया था, वह भी कुछ खाली हो गया क्योंकि मुझे लगा कि मैंने जो अपनी मर्जी से शादी की है, उससे मैंने घर वालों को किसी मुसीबत में डाल दिया। परंतु रेशमा ने मेरा मन हल्का कर दिया और घर वाले भी कुछ चिंता मुक्त हो गए। *****
- नया मकान
संतोष कुमार पटेल "भैया, परसों नये मकान पर हवन है। छुट्टी (इतवार) का दिन है। आप सभी को आना है, मैं गाड़ी भेज दूँगा।" छोटे भाई लक्ष्मण ने बड़े भाई भरत से मोबाईल पर बात करते हुए कहा। "क्या छोटे, किराये के किसी दूसरे मकान में शिफ्ट हो रहे हो?" "नहीं भैया, ये अपना मकान है, किराये का नहीं।" “अपना मकान”, भरपूर आश्चर्य के साथ भरत के मुँह से निकला। "छोटे तूने बताया भी नहीं कि तूने अपना मकान ले लिया है।" "बस भैया", कहते हुए लक्ष्मण ने फोन काट दिया। "अपना मकान", "बस भैया" ये शब्द भरत के दिमाग़ में हथौड़े की तरह बज रहे थे। भरत और लक्ष्मण दो सगे भाई और उन दोनों में उम्र का अंतर था करीब पन्द्रह साल। लक्ष्मण जब करीब सात साल का था तभी उनके माँ-बाप की एक दुर्घटना में मौत हो गयी। अब लक्ष्मण के पालन-पोषण की सारी जिम्मेदारी भरत पर थी। इस चक्कर में उसने जल्द ही शादी कर ली कि जिससे लक्ष्मण की देख-रेख ठीक से हो जाये।