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  • और क्या चाहिए?

    सरला सिंह   सुबह पांच बजे अलार्म बजा, सुभी आज बेमन से उठी। अंग-अंग दर्द कर रहा था, दो मिनट और लेट जाती हूं। उसमें ही दस मिनट निकल गये। आखिर सवा पांच पर तो उठना ही पड़ा। अलसाई आंखों को खोला और बाथरूम में जाकर मुंह धो आई। फिर फटाफट किचन में गई, एक बर्नर पर पानी चढ़ाया, सास को गर्म पानी दिया फिर सब्जियों को फ्रिज से निकाला। क्या बनाऊं, कल इसके लिए सोच नहीं पाई थी। कल अचानक से पास में रह रहा बुआ सास का परिवार आ गया, डिनर भी यहीं था। रात को वो देर तक बैठे फिर उनके जाने‌ में देर हो गई फिर सोने में और सुबह आंख खुलने में। भिंडी बना लेती हूं। ये सोचते ही लग गई भिंडी काटने में, सास आराम से गर्म पानी घूंट घूंट कर पी रही थी। मन में तो आया कह दे, मांजी आप सब्जी काट दें तो मेरी मदद हो जायेगी। पर हिम्मत नहीं हुई, रोज सोचती है पर कह नहीं पाती। शादी को दस साल होने को जा रहे हैं, पर आज तक कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। सुभी के आते ही सास ने किचन से सन्यास ले लिया। फटाफट सुभी ने भिंडी काटकर छौंक दी, इतने में बच्चों को उठाने का वक्त हो गया। एक तरफ सब्जी, दूसरे बर्नर पर चाय, तीसरे पर दूध चढ़ाकर बच्चों को उठाने चल दी। छोटे बच्चों को उठाओ, सहलाओ, लाड़ लड़ाओ, गोदी में बिठाकर पुचकारो तब जाकर उठते हैं। उसमें भी दस से पन्द्रह मिनट लग जाते हैं। "मम्मी आज दूध नहीं पीना, आप पिला दो तो पी लूंगी।" मन तो करता है अपने बच्चों को अपने हाथों से खिलाऊं, पर उसी वक्त गैस पर रखी सब्जी हिलानी थी, नहीं तो जल जाती। "छोटी अपने आप पियो मुझे और भी काम हैं।" सुभी ने यूं ही बनावटी गुस्से में कहा। कभी कभी लगता है मैं अपने बच्चों को टाइम नहीं दे पाती, अब क्या करूं? शिखा ने फटाफट परांठे सेंके और दोनों बच्चों को तैयार करके टिफिन पैक कर दिया। "अरे! मम्मी पानी की बोतल?" "हां वो तो यही रह गई।" हड़बड़ी में सुभी ने वो भी भरी। दो मिनट भी देर हो जाये तो बस रूकती नहीं है, फिर बच्चों को स्कूटी से इतना दूर छोड़ने जाओं। "सुभी चाय" ससुर जी अखबार का पन्ना पलटते हुए बोले। जैसे तैसे चाय दी और बैग लेकर दौड़ी। बच्चों को बस में बैठाकर बोझिल कदमों से घर आते हुए पार्क में टहल रही औरतों को देखकर उसका भी मन हुआ कि वो भी सुबह की ताज़ा हवा में टहले पर अभी उसे नैतिक का टिफिन पैक करना था, नाश्ता बनाना था। घर आकर उसने रोज की तरह सास, ससुर, पति के लिए नाश्ता बनाया, फिर सारे बिस्तर समेटे, यहां-वहां पड़े कपड़े उठाये, वाशिंग मशीन में कपड़े लगाये। किचन के दूध, दही के बर्तनों को खाली किया। उसने तसल्ली से बैठकर चाय भी नहीं पी कि तभी खबर मिली कि आज मेड नहीं आयेगी, उसके पांव में चोट लगी है। घर का काम निपटाने में वक्त लग गया, लंच बनाया, लंच का काम निपटा था कि बच्चों को लाने का वक्त हो गया, छोटी एक बजे स्कूल से आती है। उसे लेकर आई, उसका खाना पीना किया, कपड़े बदले, बड़ी मुश्किल से उसे सुलाया था कि तभी बड़े बेटे को लाने का टाइम हो गया। सुभी का मन कर रहा था कि वो भी एक झपकी ले ले, पर फिर स्कूटी स्टार्ट की और बेटे को तीन बजे बस स्टॉप से लेकर आई। दोनों बच्चों के आने का अलग वक्त है, दो बार चक्कर हो जाते हैं। ससुर जी टीवी देख रहे थे, वो भी ला सकते थे, पर ये भी सुभी का काम था। सोनू की स्कूल की बातें सुनने में लीन थी, उसे खाना दिया था कि छोटी शोर शराबे से उठ गई। फिर उसे बहलाने में लग गई। सुभी, चार बज गए, चाय का टाइम हो गया, बना दो। सुभी की सास पलंग पर करवट बदलते हुए बोली। सुभी तेज कदमों से किचन में दौड़ी और चाय चढ़ा दी। अपनी भी चाय का कप लेकर कमरे में आई। दोनों बच्चों की डायरी चैक की, उन्हें होमवर्क करवाया, छोटी का डिक्टेशन था, उसे स्पेलिंग याद करवाई, सोनू के कल मैथ्स का टेस्ट था, उसे समझाया। इसी में छह बज गये, सास-ससुर जल्दी खाना खा लेते हैं, एक बर्नर पर सब्जी चढ़ाई तो दूसरे पर बच्चों के लिए दूध। सीटी बजते ही आटा मला, बच्चों को दूध देकर तैयार किया और दोनों को ड्राइंग क्लास छोड़कर आई। आकर सास-ससुर को खाना खिलाया फिर बच्चो को लाने का वक्त हो गया। शाम को पार्क में चहलकदमी करती औरतों को देखकर उसका भी मन करता वो भी कुछ देर यहां रूके, सबसे बात करे। लेकिन नैतिक के ऑफिस से आने का वक्त हो जाता है, जाते ही चाय चढ़ा दी। तभी नैतिक के चिल्लाने की आवाज आई, सुभी मेरा टॉवल कहां है? कितनी बार बोला है मुझे बाथरूम में चाहिए, मुंह हाथ धोने के बाद चाहिए होता है। वो मैंने धो दिया था, बाहर सूख रहा है अभी लाती हूं। सुभी जैसे ही टॉवल लेकर आई। नैतिक के मम्मी-पापा कह रहे थे कि "पता नहीं सारा दिन करती क्या है? घर में ही तो रहती है" ये सुनकर सुभी कड़वे घूंट पीकर रह गई। सदा से औरतों के घरेलू कामों को कम आंका जाता रहा है। वो कितना भी कर लें, सुबह से रात तक लगी रहती हैं, घर के लिए अपनी नींद, चैन, सेहत, करियर तक त्याग देती हैं, फिर भी यही सुनने को मिलता है कि घर पर ही तो रहती है, कुछ नहीं करती। ये उसके रोज के दिन में सी एक था लेकिन आज कुछ अलग हुआ सुभी का दिल आहत हो गया था क्योंकि नैतिक ने भी सहमति के साथ सुना था। सब कुछ देखते जानते हुए भी उसके लिए एक शब्द भी नही बोला। एक औरत को पति से ही उम्मीद होती है, जब वो भी टूट जाय तो अस्तित्व ही नही रहता खुद का, ऐसा लगता हैं। सुभी दूसरे दिन उठी यथावत काम किया, उसके बाद अपने और बेटी के कपड़े पैक किये, नैतिक को फोन किया। "मैं कुछ दिन के लिए मायके जा रही हुँ, माँ ने बुलाया है, 1 साल हो रहा है उनको देखा नही है।" "अरे ऐसे कैसे अचानक" और माँ को ही देखना है तो में दिखा लाऊंगा रुकने की क्या जरूरत है। मेरी भी तबियत ठीक नही है, आराम कर लूंगी कुछ दिन वहां सुभी ने कहा। अरे वो तो यहां भी कर सकती हो और करती ही हो नैतिक ने खीजते हुए कहा। हां तो आराम ही तो करती हुँ यहां की जगह वहां कर लूँगी। अब तो नैतिक आगबबूला हो गया ठीक है जाओ बच्चों को भी ले जाना, हो गई उनकी तो पढ़ाईं। गुड़िया को ले जा रही हुँ स्कूल में बात कर ली है, सोनू के स्पोर्ट्स चल रहे है तो यहीं रहेगा। कहकर फोन काट दिया। जाते समय सास ससुर के पैर छुए और निकल गई, उन्होंने पूछना भी जरूरी नही समझा। बेटे से बात हो गई थी। शायद तो गुस्से में देख रहे थे, पिछले 10 सालों में कभी कोई कसर नही छोड़ी थी। घर के काम में सभी की सेवा खुशामद करने में, लेकिन कभी प्यार के 2 बोल सुनने नही मिले, कभी पलट के नही बोला ना आज हिम्मत थी सो चुपचाप चली गई। इधर फिर सुबह हुई, नैतिक लेट उठा बेटे का भी स्कूल छूट गया, किचिन में आया तो माँ ने चाय बड़ी मुश्किल से बनाई, नास्ता बाहर किया और घर में भी सबको दे गया। जैसे तैसे सुबह का निपटा तो दोपहर के खाने की चिंता सास को सताने लगी कहां तो मुँह सी निकलते ही हर चीज हाजिर हो जाती थी और अब दाल रोटी भी नही बन पा रही। दाल चावल बना लिए, वो ही सबने खाय। साम को चाय फिर डिनर सो हालात खराब हो गई सासु माँ की। उस पर कपड़े साफ सफाई से लेके हजारों काम घर में दिखने लगे उसी घर में जिसमें कोई काम नही था सुभी के लिए। दूसरे दिन ससुर को छोड़ने जाना था बेटे को स्कूल और फिर लेने जो उनको पहाड़ सा काम लग रहा था। बात बात पर सुभी का नाम चिल्लाते सभी फिर शांत हो जाते। 2 दिन बीत चुके थे तीसरे दिन नैतिक शाम को लौटा तो मम्मी पापा के ही पास बैठ गया। पापा ने कहा "क्या हुआ बेटा" कोई काम ठीक से नही हो रहा है, ना टाइम सी उठ पा रहा ना सो पा रहा ना ही पेट भर खा पा रहा हुँ। ऑफिस का काम भी पेंडिंग है। उधर बेटे के स्कूल सी नोटिस आया है, होमवर्क नही हुआ है। हमारा भी यहीं हाल है "ना जाने बहु कब आएगी" सुभी के 2 दिन ना रहने से हमारी ये हालत हो गई है, और हम कहते है "वो करती क्या हैं" नैतिक की आँखे भर आई थी। हां बेटा बहु ने घर ऐसे संभाला था जैसे लगता था अपने आप ही सब हो रहा है। काम का बोझ उसी को समझ आता है जो ढोता है, करवाने बाले को जब समझ आता है जब वो करता है। हम सबने अपनी जिम्मेदारी उसके ऊपर ही छोड़ दी इसलिए काम की आदत ही छूट गई। वो हमारे हिस्से का भी काम कर रही थी बिना किसी शिकायत के, जा बेटा उसे ले आ। दूसरे दिन नैतिक सुभी को ले आया वो भी आ गई बिना कुछ कहे क्योकि घर की हालत क्या होगी उसको अंदाजा था। और नैतिक का लेने जाना भी गवाही दे ही रहा था। दूसरे दिन सुभी उठी तो नैतिक उठ चुका था बच्चों को को तैयार कर रहा था, सुभी हड़बड़ा सी गई कैसे आँख नही खुली तुरंत बाथरूम में गई, आकर सीधा किचिन में जाने लगी तो नैतिक ने बोला। तुम चाय बना लाओ हम साथ में पियेंगे। वो किचिन में गई तो सासु माँ पहले से थी बोली चाय ले जाओ बहु मैंने बना दी है, हम लोगों ने पी ली है नास्ते के लिए सब्जी काट दी है आकर बना लेना। आज पहली बार सुकून से नैतिक के साथ चाय पी थी सुभी ने।  फिर किचिन में आके नास्ता बनाया बच्चों को रखा और जैसे ही स्कूटी की चाभी उठाई, ससुर बोले लाओ बहु में छोड़ आऊँ बच्चों को थोड़ी हवा भी लग जायगी सुबह की इतने सरलता से सरा काम हो गया था। सुभी आकर शांत बैठ गई। सासु माँ आई नैतिक भी। सासु माँ बोली बहु हमें समझ आ गया है, वो जो तु बताना चाहती थी। अब से हम सब तुम्हारे साथ काम में हाथ बटायेंगे, हम भूल गये थे कि एक बहु के आने से हमारी जिम्मेदारियाँ बट जाती हैं, खत्म नही होती तू नौकरानी नही बहुरानी है। नैतिक ने कहा कई बार हमने बोला है तुमको "तुम करती क्या हो" आज समझ आ गया है, ये घर सूचारु रूप से सिर्फ तुम्हारी बदौलत ही चलता है। तभी ससुर जी आ गये बोले बहु आज हम सब अपनी जिम्मेदारी समझेंगे जो बन सकेगा तुम्हारी हेल्प करेंगे। नैतिक ने सुभी से पूछा बताओ तुम्हें क्या चाहिए। सुभी ने कहा, "बस अब और क्या चाहिए" सुभी रो रही थी सबकी आँखों में आँसू थे लेकिन ये खुशी के आँसू थे। *****

  • बात जो भारी पड़ गई

    शुभ्रा बैनर्जी सुधा के छोटे ननदोई जी रेलवे में इंजीनियर के पद पर कार्यरत थे। पुरोहित का काम उनके परिवार में पीढ़ियों से चला आ रहा था। शादी के बाद पहली बार मायके आकर ही छोटी ननद ने बताया था "भाभी, ससुराल में सभी बहुत नियम कायदे से रहते हैं। घर में बने मंदिर में पहले पूजा होती है, फिर कोई काम शुरू होता है। पूजा-पाठ में थोड़ी सी भी कमी बर्दाश्त नहीं करते, तुम्हारे ननदोई।" सुधा की सास भी पंडित की बेटी थीं। अपनी बेटी के मुंह से उसकी ससुराल में चलने वाले नियम-कानून सुनकर कहां पीछे रहने वाली थी, झट बोलीं "हमारे घर में भी नियम-कानून थे। मेरे पिताजी भी पंडिताई करते थे। समय के साथ तोड़-मरोड़ दिए सारे नियम मैंने। "ननद इशारे से मां को चुप रहने को कहती रही, पर मां तो दामाद के सामने चुप ही नहीं हो रहीं थीं। ननदोई ने सुबह से नहा धोकर अपना पूजा-पाठ शुरू कर दिया,  तो मां फिर बोल पड़ीं "ये तो कुछ भी नहीं, मेरे पिताजी आठ घंटे ध्यान में रहते थे। हमारी हिम्मत ही नहीं होती थी कि पूजा घर में चले जाएं।" सुधा ने बड़ी मुश्किल से दो-तीन दिन उन्हें संभाला। ननद की शादी के कुछ महीने बाद ही सुधा को बेटा हुआ। छठी पूजा में सास के आग्रह पर छोटे दामाद आए थे पूजा करने। छोटे से बच्चे के साथ सुधा एक कमरे में अलग रह रही थी। दामाद के सामने सासू मां जोर-शोर से नियमों का पालन कर रही थी। कड़कड़ाती ठंड में जितनी बार वो अपने पोते को गोद में लेती, नहाना पड़ता। सुधा को ननदोई के रहते भरपूर आराम मिला। दो दिन में ही सासू मां की हालत खराब हो चुकी थी। दामाद जी भी जान-बूझकर नए-नए नियम बताए जा रहे थे। उनकी विदाई के बाद सासू मां ने चैन की सांस ली। सुधा की ननद ने वापस जाकर फोन पर बताया कि ननदोई जी नाराज हो रहे थे, कि कुछ नियम नहीं मानते तुम लोग।" सुधा सास और दामाद के बीच चल रहे शीत युद्ध से परेशान हो गई थी। भगवान ने बहुत जल्दी ही हल निकाल दिया। सुधा की छोटी ननद मायके आई पहले बच्चे के समय। निर्धारित तिथि निकल जाने पर भी प्रसव पीड़ा नहीं हुई। ननदोई जी बेहाल हो रहे थे, ससुराल में उचित चिकित्सकीय सुविधा ना होने पर। तय तिथि से दो दिन के बाद छोटी ननद ने बेटी को जन्म दिया। ननदोई जी का मुंह बरैया काटे सा फूल गया। गंभीर मुद्रा में बैठे हुए दामाद को देखकर सासू मां का तीर फिर चला "अरे बेटा, तुम क्यों परेशान हो रहे हो? भगवान‌ ने लक्ष्मी दी है। "उनके शब्द पूरे भी नहीं हुए कि दामाद जी खिसियाकर बोले "मां,मुझे पता था कि बेटी ही होगी। मुझे कोई दुख नहीं है। "सुधा समझ रही थी कि मन ही मन बेटे की चाह थी मन में। ननद की अस्पताल से छुट्टी हो गई। पंडित जी के रहते सारे कायदे कानून मानने पड़ेंगे, सोचकर सुधा ने एक कमरे में उसके और बच्चे के रहने की और बैठक में दामाद जी के सोने की व्यवस्था कर दी। एक महीने तक अलग रहना होगा जच्चा और बच्चा से। उसी रात ननद की छोटी बिटिया रोने लगी जोर से। सासू मां ननद के साथ ही थीं। अचानक से बच्ची का रोना बंद हो गया। सुधा हैरान हो रही थी, तभी देखा ननदोई अपनी गुड़िया को गोद में लेकर झूला झुला रहे थे। बच्चों की मासूमियत के आगे सारे नियम-कानून धरे के धरे रह जातें हैं। सुधा ने यह नज़ारा दिखाने के लिए सास को उठाया और बैठक में ले गई, जहां ननदोई अपनी बिटिया को गोद लिए हुए खड़े थे। सामने सरहज और सास को देखकर वो सकपका गए और झेंपते हुए बोले "नहाना पड़ेगा, पर बहुत रो रही थी ना, इसलिए उठा लिया। "सुधा ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा "कोई बात नहीं दामाद जी, बच्चे तो भगवान का रस होतें हैं। उन्हें संक्रमण से बचाने के लिए ही नियम-कानून बनाए होंगें घर के बुजुर्गो ने। आप तो पिता हैं। अभी नहीं नहाएंगे, तब भी कोई बात नहीं। "दामाद जी पानी-पानी हो चले थे, तभी उनकी कट्टर प्रतिद्वंद्वी सासू मां ने अपनी विशिष्ट टिप्पणी की "और नहीं तो क्या? छोटे बच्चे को रोता छोड़ दें क्या? ये तो कुछ भी नहीं, मैं तो रात को अपने पोते को अपने पास ही सुलाती थी। बस जब तुम आए थे, बहू के पास दे दिया था।" सुधा ने अपनी ननद की ओर देखा तो वह अपने पति की ओर देखने लगी। दोनों सास और दामाद आज पानी-पानी हो रहे थे। सुधा को हंसी भी आ गई। "शेर को सवा शेर मिला है आज"। धीरे से बड़बड़ाई तो, ननद ने भी चुटकी ली "पर शेर कौन और सवा शेर कौन?" *****

  • ज़िंदगी अरमान बनके गुनगुनाई

    शंकर शैलेंद्र   ज़िंदगी अरमान बनके गुनगुनाई एक नई पहचान बनके मुस्कुराई तुम रहे आकाश को ही देखते।   जब समझ पाए न तुम उसका इशारा नाम लेकर भी तुम्हें उसने पुकारा क्या मिला क्या तुम गँवाते आ रहे हो पूछ देखो जानता है दिल तुम्हारा प्रीत प्यासी जान बनके छटपटाई दूर की एक तान बनके पास आई तुम रहे आकाश को ही देखते!   बात मानो अब धरा की ओर देखो आदमी के बाज़ुओं का ज़ोर देखो कट रहे पर्वत समंदर पट रहे हैं आज के निर्माण की झकझोर देखो ज़िंदगी तूफ़ान बनके तिलमिलाई तुम रहे आकाश को ही देखते।   व्यर्थ ये आदर्श ये दर्शन तुम्हारे प्यास में क्यों जाएँ हम सागर किनारे क्यों न हम भागीरथी के गीत गाएँ क्यों न श्रम सिरजे नए मंदिर हमारे मौत टूटा बान बनके थरथराई लाज के मारे मरी कुछ कर न पाई तुम रहे आकाश को ही देखते।   कुछ ये कहते हैं कि अब क्यों हो सवेरा पर करूँ क्या ढल रहा है ख़ुद अँधेरा मैं किसी धनवान का मुंशी नहीं हूँ लिख चला जो कह रहा है प्राण मेरा ज़िंदगी अरमान बनके गुनगुनाई एक नई पहचान बनके मुस्कुराई तुम रहे आकाश को ही देखते।   कल की बातें कल के सपने भूल जाओ ज़िंदगी की भीड़ से काँधे मिलाओ गा रहे हैं चाँद-सूरज और तारे तुम भी आओ और मेरे साथ गाओ ज़िंदगी अरमान बनके गुनगुनाई एक नई पहचान बनके मुस्कुराई तुम रहे आकाश को ही देखते। ******

  • सुखांत

    राजश्री जैन प्रकाश जी की पत्नी प्रिया जी का देहांत हो गया था और अब वो बिल्कुल अकेले रह गए थे। उनका बेटा और बेटी दोनों अपने परिवार सहित आये थे। प्रकाश जी के मित्रों ने उन्हें समझाया कि बच्चों से बात करो कि तुम अकेले कैसे रहोगे। अभी तो तुम्हारी तबियत ठीक है। छोटी-मोटी समस्याएं आती रहती हैं लेकिन अगर ज्यादा बीमार हो गए तो कैसे, क्या करोगे। उन्हें सुझाव उचित लगा और सोचा कि एक बार बात करके तो देखें बाद में तो सिर्फ फोन पर ही बात होगी। उन्होंने विकल्प सोचना शुरू किया। उन्होंने बेटे और बेटी से कहा कि मैंने सोचा है कि अगर मेरी तबियत ज्यादा ख़राब हो जाये तो मुझे अकेले रहने में मुश्किल हो जाएगी। तुम दोनों के पास कोई सुझाव हो तो बताओ। वे दोनों बच्चों कि नियत भी परखना चाहते थे। साथ ही साथ भली-भांति यह भी जानते थे कि दोनों अपनी नौकरी अलग शहरों में कर रहे हैं और अच्छी नियत होते हुए भी शायद कुछ न कर पाएं। देखते है क्या कहते हैं दोनों बच्चे। उन्होंने कहा कि या तो मैं तुम दोनों में से किसी एक के साथ रह सकता हूँ या तुम दोनों में से कोई मेरे साथ आ कर रह सकता है। तुम दोनों विचार-विमर्श कर लो कि सुविधानुसार कौन क्या कर सकता है और बताओ। इस उम्र में जो मेरी देखभाल करेगा, अपना बसा बसाया घर मैं उसके नाम कर दूंगा। दूसरे बच्चे को भी मैं कुछ तो जरूर दूंगा लेकिन जो मेरा करेगा उसे घर और कुछ धन अवश्य दूंगा। अब बच्चों की बारी थी। बेटी भाड़े के घर में रह रही थी। बहुत छोटा घर था और उसके बच्चे भी अभी छोटे थे। तो निश्चित हुआ कि वो पापा के साथ रहेगी। बेटे ने भी सहर्ष स्वीकृति दी थी। दोनों भाई बहनों में बहुत प्रेम और सहयोग था एक दूसरे के लिए। सही समाधान निकल आया पापा और बेटी दोनों को एक दूसरे का साथ मिल गया तो सब निश्चिन्त हो गए। बेटे ने कहा कि अब मुझे भी तसल्ली रहेगी कि तुम सब एक दूसरे का सहयोग कर सकोगे। ******

  • कमज़ोर लइकी

    श्रीपाल द्विवेदी ऋतु के व्हाट्स एप्प पर कई लड़कों से दोस्ती और चैटिंग पढ़कर राज का चेहरा लाल हो गया। गुस्से से आँखों से अंगारे निकलने लगे, मुट्ठियां भींच गई। क्रोध से पूरा शरीर काँपने लगा। दिमाग मे ऐसा लगा जैसे कोई हथौड़ा चला रहा हो। यद्यपि सारी चैटिंग नार्मल थी। अच्छे और मजाकिया चुटकुले और बातें थी जो फ्रेंड्स में होती है। कुछ दोस्तों ने ऋतु की खूबसूरती और उसके डीपी की तारीफ की थी इस बात पर राज और भी जल भुन गया था। दोनों की शादी के अभी सात दिन ही हुए थे। "ऋतु!! ऋतु !! "पूरी ताकत और गुस्से से राज चिल्लाया। "क्या हुआ?" ऋतु घबराई सी कमरे में पहुँची तबतक उसके सास ससुर और ननद भी कमरे में आ गए थे। राज ने सबके सामने चिल्लाना और अपमान करना शुरू किया। "माँ ये देखो इस लडक़ी के व्हाट्स एप्प पर कई लड़कों से दोस्ती हैं ये सही लड़की नही है?" सासु माँ ससुर और ननद भी जलती नेत्रों से ऋतु को देखने लगे। ऋतु को अपनी गलती नही समझ आयी वो हतप्रभ खड़ी थी जो राज रात दिन उसके प्यार का दम्भ भरता था, उसकी खूबसूरती के कसीदे पढ़ता था, उसके लिए आसमान से तारे तोड़ लाने की बातें करता था उसके इस रूप की ऋतु ने कल्पना भी न की थी। "राज मैंने भी तुम्हारा व्हाट्स एप्प देखा तुम्हारी भी कई लड़कियों से दोस्ती है। तुम्हारी बहन रानी के भी कई लड़के अच्छे दोस्त होंगें इसमें गलत क्या है?" ऋतु के बोलते ही "चुप! जबान लडाती है" सास की जोरदार आवाज़ गूँजी। चटाक!!!! राज का जोरदार तेज थप्पड़ ऋतु के गाल पर पड़ा। गाल पे लाल लाल उँगलियो के निशान पड़ गए। आँखे पनिया गई। चटाक!!!!!!! पहले से भी अधिक जोरदार और तेज थप्पड़ की कमरे में आवाज़ हुई। इस बार सबके सामने ऋतु का जोरदार थप्पड़ राज को पड़ा। ऐसा थप्पड़ कि राज को दिन में ही चाँद तारे ग्रह उपग्रह सब दिख गए। "मुझे कमजोर लड़की न समझना मैं पढ़ी लिखी और अपने हक़ और अधिकार जानने वाली भारतीय आर्मी के मेजर की बेटी हूँ। किसी भी हाल में चरित्र उज्ज्वल रखना और गलत सहन नहीं करना दो बातें पापा ने सिखाई हैं। इसके बाद किसी ने मुझे किसी भी तरह से परेशान करने की कोशिश की तो फिजिकल, मेन्टल टॉर्चर और डोमेस्टिक वॉइलेन्स का केस डाल दूँगी। सासु माँ आपने बेटे को खूब पढ़ा लिखा कर बड़ा ऑफिसर तो बना दिया काश थोड़ा लड़कियों से बात करने की तमीज और उनकी इज़्ज़त करना भी सिखा देतीं।" इसके बाद कुछ दिनों तक घर का माहौल काफी तनावपूर्ण रहने लगा। दीवारों में कान होने के कारण पड़ोसियों में भी इस नई बहू के बिगड़े तेवर की चर्चा होने लगी और पड़ोसियों की खुसर फुसर ने हवन में घी का काम किया। एक दिन पहले की आदर्श बहु अब बहुत बुरी बहु बन गयी थी। इस घटना के कुछ दिन बाद राज अपने काम के सिलसिले में दो दिन के लिए दूसरे शहर गया हुआ था। उसके पिता जी भी गाँव के किसी रिश्तेदार की बीमारी की खबर सुनकर गाँव गए हुए थे। घर पर सिर्फ राज की माँ बहन रानी और ऋतु थीं। माँ छत पर कपड़ा सूखने डालकर आ रही थीं कि अचानक पैर फिसलने से वह ऊपर की सीढ़ियों से लुढकते लुढकते नीचे आ गिरी। जोर से चिल्लाकर बेहोश हो गयी। सर फट गया और तेजी से खून बहने लगा। पैर फ्रैक्चर होकर थोड़ा मुड़ सा गया। रानी और ऋतु चीख सुनते ही दौड़ पड़े। रानी माँ को ऐसे हाल में देखकर नरवस हो गयी वो जोर-जोर से रोने लगी। ऋतु ने संयम रखते हुए एकपल भी देर न करते हुए सबसे पहले एक साफ कपड़े से सर पर पट्टी बंधी इससे थोड़ा खून बहना कम हो गया फिर माँ को गोद में उठाकर कार की पिछली सीट पर लिटाया और रानी को बिठाकर सीधे हॉस्पिटल ले गयी। हॉस्पिटल में तुरंत इमरजेंसी के सारे कागजात तैयार कर माँ को ICU में भर्ती कराया और तुरंत माँ के लिए अपना ब्लड डोनेट भी की। चोटें काफी गंभीर लगीं थी और ऋतु अकेले ही बहु की तरह नहीं बल्कि बेटे की तरह खाना पीना सोना जागना भूलकर सब काम कर रही थी। रानी को माँ के पास बिठाकर कभी डॉक्टर से बात करती कभी दवाइयाँ लाती कभी रिपोर्ट पढ़ती। राज और उसके पापा को खबर कर दी गयी थी फिर भी उनलोगों के आने में नौ दस घंटे का समय लग गया था।  इन नौ घंटो में ऐसा लग रहा था जैसे ऋतु खुद यमराज से टक्कर लेने को तैयार थी। सुबह हॉस्पिटल में जब माँ की आँख खुली तो देखा पैरों में प्लास्टर है सर पर पट्टी बंधी है सामने राज ऋतु को गले लगाए है। रानी और उसके पापा की आँखों में आँसू हैं और डॉक्टर बोल रहा है। थैंक्स मेरा नहीं इनका कीजिये जिन्होंने टाइम रहते हॉस्पिटल ले आये वरना हमारे हाथ भी कुछ संभव न था। कल तक जिन आँखों में ऋतु के लिए नफरत था आज उन्ही आँखों में कृतज्ञता के भाव थे और सवकी आँखों से आँसू निकल रहे थे। ******

  • इम्तहान

    रति गुप्ता लड़का ट्रेन से उतरकर प्लेटफार्म पर चलते हुए निकास-द्वार की ओर मुड़ा ही था कि उसका दिल धक्क से होकर रह गया। निकास-द्वार के पास एक बेहद खूबसूरत लड़की खड़ी थी, जो उसे देखते ही मुस्कराई, फिर उसके पास बढ़ आई। "हाय!" "हाय!" "वाउ, बहुत हैण्डसम हो आप!" कहते हुए लड़की ने उसका हाथ पकड़ लिया। "आप खुद यहाँ मुझे रिसीव करने आ गईं। हैरत है!" निकास-द्वार से बाहर निकलते हुए लड़का बोला। "मतलब? "लड़की ने चौंककर उसका चेहरा देखा।” "आप रीमा जी हैं न?" "कौन रीमा? मैं रीमा-वीमा नहीं, सीमा हूँ।" "अरे, क्या बात करती हो! आपका फोटो है मेरे पास। लो देखो।” "लड़के ने जेब से निकालकर फोटो आगे कर दिया।” "अरे गजब! इस लड़की की शक्ल तो हूबहू मुझसे मिलती है? " वह चौंकी। लड़का रुककर लड़की के चेहरे को गौर से देखने लगा। बोला "हाँ, यह सच है कि दुनिया में एक ही शक्ल के कई इंसान होते हैं, पर यकीन नहीं पड़ता कि एक ही शहर में।" "सुनो मेरी बात," लड़की बात काटकर बोली। "मैं इस शहर में बिल्कुल नई-नई हूँ। अभी कल शाम के ट्रेन से आई हूँ। एक होटल में रुकी हूँ। क्या होटल है यार! एकदम फस्स क्लास! आप देखोगे तो खुश हो जाओगे। क्या डेकोरेशन है, कमरों के बाहर और कमरों के अन्दर भी। नहाने-धोने, कपड़े सुखाने, खाने-पीने इत्यादि का क्या बढ़िया इंतजाम है! कोई सामान चाहिए, फोन करो, तुरन्त हाजिर। कमरों में टी0वी0 भी लगी है। कतई ऊब नहीं होती। चलो न, वहीं बैठकर बातें करते हैं।" "पागल हो क्या?" लड़के ने एक ही झटके में हाथ छुड़ा लिया "भला मेरा वहाँ क्या काम?" "जी मैं पागल नहीं, कॉलगर्ल हूँ। यही मेरा पेशा है।"कहते हुए लड़की ने फिर उसका हाथ पकड़ लिया -"चलो न! आपके पैसे नहीं लगेंगे। डरो मत। एक्चुअली आप पर दिल आ गया मेरा। बहुत हैण्डसम हो न !" "ना, मुझे कहीं नहीं जाना। चलता हूँ।" कहकर वह जाने लगा।” लड़की ने फिर आगे बढकर उसका हाथ पकड़ लिया। मनाने के अन्दाज में बोली "मान जाओ न! मेरा दिल मत तोड़ो।" लड़का अड़ गया। उसने मोबाइल निकाल लिया। बोला "मैं कहता हूँ, मुझे जाने दो, वरना पुलिस को फोन कर दूँगा।" "हा हा हा••••• ।" लड़की हँसी तो फिर हँसती ही गई। "अब ऐसे हँस क्या रही हो!" लड़के को बुरा लगा। "आप मेरे इम्तहान में पास हो गये डॉ0 रोहन!" वह हँसते हुए बोली" हाँ, मैं ही डॉ0 रीमा हूँ। मम्मी-पापा ने तो आपको देखा था, पर मैंने नहीं देखा था। फोटो देखा था, पर सिर्फ उससे बात नहीं बनती। फिर मुझे कुछ अलग तरह से देखना भी था। मैंने ही मम्मी-पापा से कहकर आपको बुलवाया था। आज आप तनिक भी डगमगा जाते तो मैं आपको 'रिजेक्ट' कर देती। आज मैं बहुत खुश हूँ। ऐसा ही 'कैरेक्टर' होना चाहिए 'लाइफ पार्टनर का।" लड़का उजबक-सा उसे देखे जा रहा था। लड़की बोली-"अब ऐसे क्या देख रहे हो भला! चलो गाड़ी में बैठो। वह रही मेरी 'फोर-व्हीलर।" लड़का मुस्कराते हुए उधर ही बढ़ गया। ******

  • भगवान् की लाठी

    रमाकांत द्विवेदी एक बुजुर्ग दरिया के किनारे पर जा रहे थे। एक जगह देखा कि दरिया की सतह से एक कछुआ निकला और पानी के किनारे पर आ गया। उसी किनारे से एक बड़े ही जहरीले बिच्छु ने दरिया के अन्दर छलांग लगाई और कछुए की पीठ पर सवार हो गया। कछुए ने तैरना शुरू कर दिया। वह बुजुर्ग बड़े हैरान हुए। उन्होंने उस कछुए का पीछा करने की ठान ली। इसलिए दरिया में तैर कर उस कछुए का पीछा किया। वह कछुआ दरिया के दूसरे किनारे पर जाकर रूक गया। और बिच्छू उसकी पीठ से छलांग लगाकर दूसरे किनारे पर चढ़ गया और आगे चलना शुरू कर दिया। वह बुजुर्ग भी उसके पीछे चलते रहे। आगे जाकर देखा कि जिस तरफ बिच्छू जा रहा था उसके रास्ते में एक भगवान् का भक्त ध्यान साधना में आँखे बन्द कर भगवान् की भक्ति कर रहा था। उस बुजुर्ग ने सोचा कि अगर यह बिच्छू उस भक्त को काटना चाहेगा तो मैं करीब पहुँचने से पहले ही उसे अपनी लाठी से मार डालूँगा। लेकिन वह कुछ कदम आगे बढे ही थे कि उन्होंने देखा दूसरी तरफ से एक काला जहरीला साँप तेजी से उस भक्त को डसने के लिए आगे बढ़ रहा था। इतने में बिच्छू भी वहाँ पहुँच गया। उस बिच्छू ने उसी समय सांप के ऊपर डंक मार दिया, जिसकी वजह से बिच्छू का जहर सांप के जिस्म में दाखिल हो गया और वह सांप वहीं अचेत हो कर गिर पड़ा था। इसके बाद वह बिच्छू अपने रास्ते पर वापस चला गया। थोड़ी देर बाद जब वह भक्त उठा, तब उस बुजुर्ग ने उसे बताया कि भगवान् ने उसकी रक्षा के लिए कैसे उस कछुवे को दरिया के किनारे लाया फिर कैसे उस बिच्छु को कछुए की पीठ पर बैठा कर साँप से तेरी रक्षा के लिए भेजा। वह भक्त उस अचेत पड़े सांप को देखकर हैरान रह गया। उसकी आँखों से आँसू निकल आए, और वह आँखें बन्द कर प्रभु को याद कर उनका धन्यवाद करने लगा। तभी प्रभु ने अपने उस भक्त से कहा, जब वो बुजुर्ग जो तुम्हें जानता तक नही, वो तुम्हारी जान बचाने के लिए लाठी उठा सकता है। और फिर तू तो मेरी भक्ति में लगा हुआ था तो फिर तुझे बचाने के लिये मेरी लाठी तो हमेशा से ही तैयार रहती है। ******

  • परीक्षा

    अंकिता मिश्रा एक पहाड़ी के नीचे रामगढ़ नाम का एक गांव था। गांव के सारे जानवर हरी घास खाने के लिए सुबह उसी पहाड़ी के ऊपर बसे जंगल में जाते और शाम होते-होते घर वापस आ जाते थे। हर दिन की तरह लक्ष्मी नाम की एक गाय अन्य गायों के साथ उसी पहाड़ी के जंगल में घास खाने के लिए गई थी। वह हरी घास खाने में इतनी ज़्यादा प्रसन्न थी कि वह कब एक शेर की गुफ़ा के पास पहुंच गई, उसे पता भी नहीं चला। शेर अपनी गुफ़ा में सो रहा था और वह पिछले दो दिनों से भूखा भी था। जैसे ही लक्ष्मी शेर की गुफ़ा के पास पहुँची, गाय की खुशबू से शेर की नींद खुल गयी। वह शेर धीरे-धीरे गुफ़ा से बाहर आया और गुफ़ा के बाहर गाय देखकर खुश हो गया। शेर ने मन ही मन सोचा कि आज उसकी दो दिनों की भूख मिट जाएगी। वह इस तंदुरुस्त गाय का ताज़ा मांस खाएगा और यह सोचकर उसने एक तेज़ दहाड़ लगायी। लक्ष्मी शेर की दहाड़ सुनकर डर जाती है। जब वह अपने आस-पास देखती है, तो वहां दूर-दूर तक उसको कोई भी दूसरी गायें नहीं दिखीं। जब वह हिम्मत करके पीछे मुड़ी, तो उसे सामने शेर खड़ा हुआ दिखाई दिया। उस शेर ने लक्ष्मी को देखकर फिर से दहाड़ लगायी है और लक्ष्मी से कहा, “मुझे दो दिनों से कोई शिकार नहीं मिल रहा था, मैं भूखा था। शायद इसलिए भगवान ने मेरा पेट भरने के लिए तुझे मेरे यहां पर भेजा है। आज मैं तुझे खाकर अपनी भूख मिटा लूंगा।” शेर की बात सुनकर लक्ष्मी डर जाती है। वह रोते हुए शेर से कहती है “मुझे जाने दो, मुझे मत खाओ। मेरा एक छोटा बच्चा है, जो अभी सिर्फ मेरा ही दूध पीता है और उसे घास खाना अभी तक नहीं आया है।” लक्ष्मी की बात सुनकर शेर हंसते हुए कहता है, “तो क्या मैं अपने हाथ में आए शिकार को ऐसे ही जाने दूं? मैं तो आज तुझे खाकर अपनी दो दिनों की भूख मिटाऊंगा।” शेर के ऐसा कहने पर लक्ष्मी उसके सामने रोने लगी और विनती करते हुए कहती है कि “आज मुझे जाने दो। मैं आज अपने बछड़े को आखिरी बार दूध पिला दूंगी और उसे बहुत सारा प्यारा करके, कल सुबह होते ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी। फिर तुम मुझे खा लेना और अपना भूखा पेट भर लेना।” शेर लक्ष्मी की यह बात मान जाता है और धमकी देते हुए कहता है कि, “अगर कल तू नहीं आई, तो मैं तेरे गांव आऊंगा, फिर तुझे और तेरे बेटे दोनों को खा जाऊंगा।” लक्ष्मी शेर की यह बात सुनकर खुश हो जाती है और शेर को अपना वचन देकर गांव वापस चली जाती है। वहां से वह सीधे अपने बछड़े के पास जाती है। उसे दूध पिलाती है और बहुत सारा प्यार करती है। फिर बछड़े को शेर के साथ हुई सारी घटना बताती है और कहती है कि उसे अब अपना ख़्याल ख़ुद ही रखना होगा। वह कल सुबह होते ही अपना वचन पूरा करने के लिए शेर के पास चली जाएगी। अपनी मां की बातें सुनकर बछड़ा रोने लगता है। दूसरे दिन सुबह होते ही लक्ष्मी जंगल की तरफ निकल जाती है और शेर की गुफ़ा के सामने पहुंचकर शेर से कहती है, “अपने वचन के अनुसार मैं तुम्हारे पास आ गई हूँ। अब तुम मुझे खा सकते हो।” गाय की आवाज़ सुनकर शेर अपनी गुफ़ा से बाहर निकलकर आता है और भगवान के अवतार में प्रकट होता है। वह लक्ष्मी से कहते हैं, “मैं तो बस तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। तुम अपने वचन की पक्की हो। मैं इससे बहुत प्रसन्न हुआ। तुम अब अपने घर और बछड़े के पास वापस जा सकती हो।” इसके बाद वे उस गाय को गौ माता होने का वरदान भी देते हैं और उसी दिन के बाद से सभी गायों को गौ माता कहा जाता है। सीख : हमें जान की बाज़ी लगाते हुए भी अपने दिए हुए वचन को पूरा करना चाहिए। यही हमारे दृढ़ व्यक्तित्व को दर्शाता है। *****

  • अध्यापक

    सुरेश कुमार शुक्ला दिग्विजय सिंह और उनकी पत्नी उर्मिला सिंह दोनों ही सरकारी नौकरी से रिटायर्ड हैं। दोनों की उम्र सत्तर के पार हैं। उनके दो बेटे और एक बेटी हैं। दोनों ही बेटे विदेश में नौकरी करने गए और वहीं सेट हो गए। वैसे भी एक बार जिसे विदेश में रहने की आदत हो गई वह फिर भारत आना ही नही चाहता है। उन्होंने कई बार मां और पिता को अपने साथ ले जाने की कोशिश की पर ये दोनों अपना पुश्तैनी घर और अपना देश छोड़कर जाने को तैयार नहीं हुए। लडकों ने कहा भी ये घर चाचा जी को दे देंगे, इसे बेचेंगे नही जबकि उन्हीं का एक पटीदार (पाटीदार मतलब एक ही खानदान के लोग) ने अच्छी कीमत भी लगा दी थी, पर इन दोनों ने किसी की नही सुनी। उन्हें खर्चे की कोई तकलीफ थी नही, हां उनका घर गांव से थोड़ा अलग था और पांच कमरों के घर में दोनों ही रहते थे। बेटी भी अपने पति के साथ फ्रांस में रहती थी, पर सभी बीच-बीच में मिलने आते रहते थे और पूरा ध्यान रखते थे। दिग्विजय सिंह तो एक बार बेटों के साथ चले भी जाते पर पत्नी उर्मिला को ठंड में बहुत तकलीफ होती थी और लंदन और ऑस्ट्रेलिया में बहुत ठंड होती है। वहाँ तो बर्दाश्त भी नही कर पाती। यहां भी जब ठंड बढ़ती है तो दोनों ही शहर चले जाते हैं। जहां उनका छोटा सा वन बीएचके का फ्लैट है। पूरी ठंड वहाँ बिताने के बाद ही गांव वापस आते थे। वैसे भी इन दोनों की दिनचर्या फिक्स थी, सुबह उठना पार्क तक टहलने जाना और आते समय फूल तोड़ते हुए आना, फिर वहीं से दूध की थैली लेते हुए आना, ये उनकी प्रतिदिन का काम था। इस बार भी दोनों अक्टूबर में ही शहर वाले घर में आ गए थे। यह घर उन्होंने अपनी कमाई से खरीदा पहला घर था, इसलिए दिग्विजय ने उसे कभी नहीं बेचा। उसे अच्छे से मेंटेन किया, इस घर को लेने में उन्हें उस समय काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। उस समय इन्होंने एक लाख रुपए में लिया था। आज वह इलाका बाजार में आ गया था। शाम की भी दिनचर्या तय ही थी। उसी पार्क में सभी रिटायर्ड मित्रों की बैठक थी, कोई जज साहब, तो कोई बैंक मैनेजर, पर उनके बीच सबसे ज्यादा इज्जत दिग्विजय जी की थी क्योंकि वह स्कूल के प्रिंसिपल रह चुके थे, और सभी इस बात को मानते थे कि बिंना गुरु के कुछ ज्ञान प्राप्त नहीं होता है। एक दिन रात में अचानक उर्मिला की तबियत खराब होती हैं। उनकी सांसे बुरी तरह से चलने लगी थी। उन्हें घबराहट हो रही थी, तो दिग्विजय को कुछ समझ नही आता है। वह एंबुलेंस को फोन करते हैं, और फिर अपने एक पड़ोसी को फोन करने लगते हैं। वह फोन नही उठाते हैं। दिग्विजय, उर्मिला को छोड़ किसी के पास जा नही सकते थे। उसी समय एंबुलेंस आती है। एंबुलेंस के बॉय उनके फ्लैट का बेल बजाते हैं, वह दरवाजा खोलते हैं। बॉय पूछता है - "क्या हुआ अंकल, किसको प्रोब्लम है?" वह कहते हैं - "मेरी पत्नी अंदर है उसे सांस लेने में दिक्कत हो रही है।" वह लड़का जल्दी से अंदर जाता है और उर्मिला के मना करने पर भी वह उठाकर लाता है।" दिग्विजय कहते हैं - "अरे ये क्या कर रहे हो व्हील चेयर ले आते," वह कहता है - "जल्दी चलिए व्हील चेयर लाने का टाइम नही है।" वह जल्दी से घर को ताला लग कर चल देते हैं। एंबुलेंस वाला पूछता है - "कहां चलना है?" बॉय बोलता है - "समर्थ हॉस्पिटल ले चल जल्दी।" एंबुलेंस आगे बढ़ती है, दिग्विजय सिंह जानते थे समर्थ हॉस्पिटल यहां का सबसे बड़ा और महंगा हॉस्पिटल है, और अच्छा भी है। उनको सोचते देख वह लड़का कहता है - "आप चिंता मत करिए, काम से कम पैसों में इलाज हो जायेगा, कुछ डॉक्टर हैं मेरे पहचान के" उर्मिला इतने तकलीफ में भी इस लड़के को देखती हैं, वह सोचती है इसे क्या पड़ी है जो इतना सोच रहा है। दिग्विजय कहते हैं -"बेटा पैसे की चिंता नही है, बस ये ठीक हो जाए,” बॉय कहता हैं - "सर समर्थ में हार्ट के एक नए डॉक्टर आए हैं, लंदन से पढ़ कर आए हैं। बहुत अच्छे आदमी भी हैं, अगर वो मिल गए तो, मैडम एकदम ठीक हो जाएंगी।" उर्मिला मैडम सुन चौकती हैं, क्योंकि उनके स्कूल के लड़के उन्हें मैडम ही कहते थे। दरअसल उर्मिला बहुत ही स्ट्रिक्ट टीचर थी, वह बच्चो के पढ़ाई के लिए पीछे पड़ी रहती थी और खूब पिटाई भी करती थी। वह उस लड़के को पहचानने की कोशिश करती हैं पर अब तक हजारों लड़के उनके स्टूडेंट रह चुके थे, कितनों को याद रख सकती थी। एंबुलेंस रुकती है, वह लड़का कूदकर स्ट्रेचर उतरता है और तेज़ी से अंदर ले जाता है। इमरजेंसी वार्ड में डालते हुए कहता है - "डॉक्टर रूपेश हैं, उनकी पेशंट हैं ये, कहां हैं जल्दी बुलाओ।" वह लड़का एंबुलेंस ब्वॉय है, ये सभी जानते थे। इसलिए उन्होंने उसके झूठ को भी मान लिया और डॉक्टर को कॉल कर अर्जेंट आने को कहा। रात के बारह बज रहें थे। वैसे डॉक्टर रूपेश बिना अपॉइंटमेंट के किसी को देखते नही थे, पर इमरजेंसी और उन्हीं का पेशंट जान जल्दी से आते हैं। वह जब पेशंट को देखते हैं तो चौक कर कहते हैं - "ये मेरी पेशंट नही हैं, किसने कहा कि ये मेरी पेशंट हैं।" ब्वॉय सामने आकर कहता है - "सर ये मैने झूठ बोला ये हमारी टीचर मैडम है, बचपन में पढ़ाई थी मुझे। इनको इस हाल में देख मैंने सोचा आपके अलावा और कोई नही देख सकता है।" डॉक्टर उसे डांटने लगता है वह कहता है - "मैं तुम्हारी कंप्लेंट करूंगा ये बदतमीजी नही चलेगी।" तभी दिग्विजय आगे आते हुएं कहते हैं - "डॉक्टर साहब इस बच्चे की ओर से मैं माफी मांगता हूं। एक बार मेरी पत्नी को देख लीजिए बहुत कृपा होगी।" डॉक्टर उन्हें देख चौंका और फिर उनकी पत्नी को ध्यान से देखता है, और तुरंत एक्टिव हो जाता है। वह नर्स को आवाज देकर इंस्ट्रक्शन देने लगता है और खुद ही स्ट्रेचर धकेल कर ऑपरेशन थिएटर में ले जाता है। ब्वॉय भी उसके साथ धकेल के जाता है। एक सिस्टर कहती है - "आप बहुत लकी हो अंकल डॉक्टर साहब के पास एक एक महीने की लाइन लगी है, पर पता नही क्या सोचकर उन्होंने आपका केस एक्सेप्ट किया।" ब्वॉय स्ट्रेचर बाहर लेकर आता है और कहता है - "मैं इसे गाड़ी में रख कर आता हूं, आप चिंता मत करिए सब ठीक हो जायेगा।" वह जाता है, दिग्विजय समझ नही पाते हैं कि यह एंबुलेंस ब्वॉय इतना अपनत्व क्यों दिखा रहा है। अभी वह सोच ही रहे थे तब तक वह लड़का आ कर उनके पास बैठ जाता है। वह पूछते हैं - "तुम्हें ड्यूटी पर नहीं जाना है।" वह उनकी ओर देख कर कहता है - "यहां भी ड्यूटी ही निभा रहा हूं।" दिग्विजय उसकी बात को समझ नही पाते हैं। तब तक नर्स आकर कहती है - "ये दवा हॉस्पिटल में नही है, कृष्ण चौक पर हमारे हॉस्पिटल की मेडिकल स्टोर है, वहां अभी कोई डिलीवरी ब्वॉय नही है तो तुम जाकर ले आओ।" वह लड़का देख कर पूछता है - "कितने की होगी।" नर्स कहती है - "तुम वहां जाकर ये पर्ची दे दो वो पैसे नही लेगा जल्दी जाओ।" वह तुरंत भागता है। नर्स दिग्विजय से कहती है, आप टेंशन मत लीजिए दो ब्लॉकेज हैं।  डॉक्टर साहब अभी उसका ऑपरेशन कर क्लियर कर देंगे।" दिग्विजय परेशान होते हैं और अपने लडको को फोन लगाते हैं। लड़के कहते हैं, पापा कुछ भी करके हम अभी तो नही आ सकते हैं। आप चाहे तो हम एयर एंबुलेंस का बंदोबस्त कर देते हैं। मां को यहां लेकर आ जाइए हमें आना होगा तो कम से पंद्रह दिन तो लग ही जायेंगे।" वह फोन काटते हैं। उनकी आंखों में आंसु आता है। इतनी देर में वह लड़का भागता हुआ आता है, ऐसे लग रहा था जैसे वह भागते हुए ही गया था। वह नर्स को जाकर दावा देता है और फिर आकर दिग्विजय के पास बैठता है। दिग्विजय को उस पर बहुत प्यार आता है, वह उसके सर पर हाथ फेरकर पूछता है - "बेटा क्या नाम है तुम्हारा?" वह कहता है - "दीपक शर्मा नाम है, मैडम ने बचपन में पढ़ाया था। उन्हें देखते ही पहचान गया और अभी कुछ दिन पहले ही मेरी मां भी हार्ट अटैक से चली गई थी, तो इन्हें देखते ही मुझे मां की भी याद आ गई। इसलिए बिना आपसे पूछे मैंने इन्हें गोद में उठा लिया था। मेरी मां को सिर्फ पांच मिनट की देरी हुई थी और वह नही बची थी।" उसकी आंखो में भी आंसु आते हैं। दिग्विजय उसके सर पर हाथ फेरते हैं। उसी समय डॉक्टर बाहर आकर कहते है - "सर सही समय पर आप आ गए थे और मैं भी पहुंच गया था, वरना प्रोब्लम हो सकती थी, अब सब ठीक है, सुबह तक होश आ जायेगा, आइए थोड़ी थोड़ी कॉफी पीते हैं।" वह ब्वॉय को भी इशारा करते हैं चलने का दोनों जाते हैं। कॉफी पीने की इच्छा तो दिग्विजय को भी हो रही थी, पर वहां से उठने का मन नहीं था। वह डॉक्टर से पूछता है - "डॉक्टर साहब, अपने चेक भी कर लिया, ऑपरेशन भी कर दिया कम से कम एक बार पूछ तो लेते या खर्चे तो बता देते, अब हम रिटायर लोग हैं। उतने पैसे हैं भी कि नही, ये तो जान लेते।" डॉक्टर रूपेश उनकी ओर देख के कहता है - "यहां पर हार्ट पेशंट के लिए पहले ही दो लाख एडवांस लेते हैं, तब एडमिट करते हैं, पर इस लड़के ने डायरेक्ट अंदर ला दिया और फिर मुझे भी झूठ बोलकर बुला लिया।" दिग्विजय कहते हैं - "इसमें इसकी गलती नही है, मेरी श्रीमती इसकी अध्यापिका रह चुकी हैं इसलिए ये इमोशनल हो गया था।" डॉक्टर मुस्कराकर कहता है - "और आप मेरे अध्यापक रह चुके हैं, इसलिए आपको देखने के बाद मैंने अपना और हॉस्पिटल दोनों का नियम तोड़ दिया और ऑपरेशन कर दिया।" दिग्विजय चौक कर देखते हुए पूछते हैं - "बेटा तुम कब पढ़े थे, वह चश्मा निकाल कर देखते हैं, और फिर याद करते हुए कहते हैं - "अरे तुम कौशल के बेटे हो ना, कहां है कौशल?” रूपेश कहता है - "वो तो इस दुनिया में नही रहे।" दिग्विजय अफसोस जाहिर करते हैं। रूपेश कहता है - "आप ने मेरे पापा को भी पढ़ाया था और मुझे भी, आपके पढ़ाए कई लड़के अभी भी मेरे लिंक में हैं।” दिग्विजय पूछते है - "बेटा बिल कितना हो जायेगा?” रूपेश कहता है _ "मैंने ट्रस्टी से बात कर ली है, साल में एक या दो केस हम फ्री करते हैं। उसमें ये केस मैनेज हो जायेगा, आपको एक पैसा देने की जरूरत नहीं है।" दिग्विजय की आंखो से आंसु निकलते हैं। आज उन्हें अपने अध्यापक होने पर असली गर्व होता है। तभी छोटे बेटे का फोन आया और वह पूछने लगता है - "पापा कोई परेशानी हो तो बोलिए मैंने अभी पांच लाख रुपए ट्रांसफर कर दिए हैं। सुबह भईया भी कर देंगे, आप चिंता मत करिएगा।" दिग्विजय अपने आंसु पोंछ कर कहते हैं - "बेटा जिसके हजारों बेटे हो भला उसे किस बात की चिंता होगी। अब मुझे कोई चिंता नहीं कई बेटे हैं मेरे पास।” वह खड़े होकर डॉक्टर और दीपक दोनों को गले लगाते हैं। *****

  • एक ऐसा भी सांप

    बालेश्वर गुप्ता पूरी रात आंखों में ही कट गयी। रमेश का क्रोध सुम्मी पर तो था ही पर उससे अधिक वो पीयूष पर आक्रोशित था। उसकी ही फैक्ट्री का मुलाजिम पीयूष कभी-कभी बंगले पर फाइलों पर हस्ताक्षर कराने आता था। तभी उसने उसकी बेटी सुम्मी को अपने प्रेमजाल में फंसा लिया होगा। उसकी दौलत पाने को चुपचाप सुम्मी से शादी भी कर ली। आस्तीन का साँप कही का। सोच-सोच रमेश पागल होने को हो गया। कैसे अपना मुंह समाज मे दिखायेगा? आज ही पीयूष और सुम्मी आर्य समाज में शादी कर रमेश से आशीर्वाद प्राप्त करने आये थे। अवाक से रमेश ने उन्हें अपमानित कर घर से ही निकाल दिया था। लाड़ प्यार से पली सुम्मी से उसे ऐसी आशा बिल्कुल भी नही थी। दूसरे शहर में अपने घर जा रहे पीयूष ने प्लेटफार्म पर भीड़ देखी तो उधर जाने पर पता चला कि एक लड़की आत्महत्या करने वाली थी कि कुछ लोगो ने उसकी मंशा भाप कर उसे ट्रेन के आगे कूदने से पहले ही पकड़ लिया। यह लड़की सुम्मी ही थी। पीयूष को देख वह और जोर से रोने लगी। पीयूष उसे लेकर अपने किराये के कमरे पर ले आया। तब पता चला कि एक धनाढ्य के बेटे से प्रेम हो जाने के कारण वो गर्भवती हो गयी है और उसने शादी करने से साफ मना भी कर दिया। यही कारण सुम्मी द्वारा आत्महत्या करने के इरादे का था। पीयूष ने सुम्मी की हालत देखी और बोला सुम्मी मैं एक साधारण इंसान हूँ, तुमसे शादी कर सकता हूँ, पर इस बच्चे को नही अपना पाऊंगा, अभी उसमे जान भी नही पड़ी होगी, उसके बिना यदि तुम मेरी आय से जीवन यापन कर सको तो। एक प्रश्न सुम्मी के सामने रख पीयूष ने सुम्मी को उसके घर यह कह कर छोड़ दिया कि दो दिन बाद, यदि उसे प्रस्ताव स्वीकार हो तो आर्यसमाज भवन में आ जाना। पूरी घटना सुम्मी के पिता को पता भी नही थी और शायद पता भी नही चलेगी। क्योकि पीयूष ऐसा सांप था जो स्वयं ही विष पी रहा था। *****

  • ममता

    निर्मला कुमारी वो विधवा थी पर श्रृंगार ऐसा कर के रखती थी कि पूछो मत। बिंदी के सिवाय सब कुछ लगाती थी। पूरी कॉलोनी में उनके चर्चे थे। उनका एक बेटा भी था जो अभी सात साल का था। पति रेलवे में थे उनके गुजर जाने के बाद रेलवे ने उन्हें एक छोटी सी नौकरी दे दी थी। उनके जलवे अलग ही थे। 1975 के दशक में बॉय कटिंग रखती थी। सभी कालोनी की आंटियां उन्हें 'परकटी' कहती थी। अंश भी उस समय नया नया जवान हुआ था। अभी 17 साल का ही था। लेकिन घर बसाने के सपने देखने शुरू कर दिए थे। अंश का आधा दिन आईने के सामने गुजरता था और बाकि आधा परकटी आंटी की गली के चक्कर काटने में। अंश का नवव्यस्क मस्तिष्क इस मामले में काम नहीं करता था कि समाज क्या कहेगा? यदि उसके दिल की बात किसी को मालूम हो गई तो? उसे किसी की परवाह नहीं थी। परकटी आंटी को दिन में एक बार देखना उसका जूनून था। उस दिन बारिश अच्छी हुई थी। अंश स्कूल से लौट रहा था। साइकिल पर ख्वाबों में गुम उसे पता ही नहीं लगा कि अगले मोड़ पर कीचड़ की वजह से कितनी फिसलन थी। अगले ही क्षण जैसे ही वह अगले मोड़ पर मुड़ा साइकिल फिसल गई और अंश नीचे। उसी वक्त सामने से आ रहे स्कूटर ने भी टक्कर मार दी। अंश का सर मानो खुल गया हो। खून का फव्वारा फूटा। अंश दर्द से ज्यादा इस घटना के झटके से स्तब्ध था। वह गुम सा हो गया। भीड़ में से कोई उसकी सहायता को आगे नहीं आ रहा था। खून लगातार बह रहा था। तभी एक जानी पहचानी आवाज अंश..अंश नाम पुकारती है। अंश की धुंधली हुई दृष्टि देखती है कि परकटी आंटी भीड़ को चीर पागलों की तरह दौड़ती हुई आ रही थी। परकटी आंटी ने अंश का सिर गोद में लेते ही उसका माथा जहाँ से खून बह रहा था उसे अपनी हथेली से दबा लिया। आंटी की रंगीन ड्रेस खून से लथपथ हो गई थी। आंटी चिल्ला रही थी "अरे कोई तो सहायता करो, यह मेरा बेटा है, कोई हॉस्पिटल ले चलो हमें।" अंश को अभी तक भी याद है। एक तिपहिया वाहन रुकता है। लोग उसमें उन दोनों को बैठाते हैं। आंटी ने अब भी उसका माथा पकड़ा हुआ था। उसे सीने से लगाया हुआ था। अंश को टांके लगा कर घर भेज दिया जाता है। परकटी आंटी ही उसे रिक्शा में घर लेकर जाती हैं। अंश अब ठीक है। लेकिन एक पहेली उसे समझ नहीं आई कि उसकी वासना कहाँ लुप्त हो गई थी। जब परकटी आंटी ने उसे सीने से लगाया तो उसे ऐसा क्यों लगा कि उसकी माँ ने उसे गोद में ले लिया हो। वात्सल्य की भावना कहाँ से आई। उसका दृष्टिकोण कैसे एक क्षण में बदल गया। क्यों वह अब मातृत्व के शुद्ध भाव से परकटी आंटी को देखता। आज अंश रेलवे से रिटायर्ड अफसर है। समय बिताने के लिए कम्युनिटी पार्क में जाता है। वहां बैठा वो आज सुन्दर औरतों को पार्क में व्यायाम करते देख कर मुस्कुराता है। क्योंकि उसने एक बड़ी पहेली बचपन में हल कर ली थी। वो आज जानता है, मानता है, कि महिलाओं का मूल भाव मातृत्व का है। वो चाहें कितनी भी अप्सरा सी दिखें दिल से हर महिला एक 'माँ' है। वह 'माँ' सिर्फ अपने बच्चे के लिए ही नहीं है। वो हर एक लाचार में अपनी औलाद को देखती है। दुनिया के हर छोटे मोटे दुःख को एक महिला दस गुणा महसूस करती है क्योंकि वह स्वतः ही कल्पना कर बैठती है कि अगर यह मेरे बेटे या बेटी के साथ हो जाता तो? इस कल्पना मात्र से ही उसकी रूह सिहर उठती है। वो रो पड़ती है और दुनिया को लगता है कि महिला कमजोर है। अंश मुस्कुराता है, मन ही मन कहता है कि "हे, विश्व के भ्रमित मर्दो! हर औरत दिल से कमजोर नहीं होती, वो तो बस 'माँ' होती है। *****

  • निःशब्द

    रमा शंकर शर्मा "आज कैसी तबीयत है?" मां ने रोज की तरह सुबह उठते ही मेरा हाल चाल जानने के लिए फोन लगाया। कई दिन से मेरी तबीयत खराब चल रही थी। ना बच्ची पर ध्यान दे पा रही थी और ना ही घर संभालने पर। पतिदेव भी जितना सहयोग हो पा रहा था, कर रहे थे। मैंने मां से कहा - "मां ! आज तो अचानक ही मेरी तबीयत में काफी सुधार महसूस हो रहा है। लग रहा है कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं था मुझे।" मां के कलेजे को तसल्ली पड़ी मेरे यह शब्द सुनकर। बोलीं - "शुक्र है माता रानी का... मेरा बताया हुआ काढ़ा आखिर असर कर ही गया, चल ठीक है तू अपना ध्यान रख।" पतिदेव ऑफिस में लाख व्यस्त रहते, लेकिन लंच के समय बाहर का खाना उन्हें मेरी याद दिला देता और वह खाने से पहले मेरा हाल चाल जानने के लिए फोन करते। वे भी आज मेरी काफी सुधार महसूस होने की बात सुनकर खुश होकर बोले - "मैंने कहा था ना पहले वाली दवाइयां सूट नहीं कर रही हैं। जब से दूसरे डॉक्टर को दिखाया है तब से सुधार हुआ है, तुम मान नहीं रही थीं ना मेरी बात!" पड़ोस वाली निधि भी घर आकर कुछ ना कुछ सहायता के लिए पूछ जाती थी। आज जब उसे फोन पर बताया कि आज तो मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं बीमार हुई ही नहीं... तो वह भी चहक कर बोली - "अरे यार! मुझे पता था मेरे चाचा जी के गांव के वैध की दी हुई पुड़ियाओं का ही असर है। चलो बहुत अच्छी बात है, तुम ठीक हो गई हो।" मैं नहा धोकर अपनी छोटी सी बेटी के सिरहाने बैठी और उसे दुलारने लगी। उसने आंख खुलते ही पूछा - "मम्मा... आप कैसे हो?" मैंने कहा- "आज तो मैं एकदम ठीक हूं मेरी गुड़िया रानी!" इतने दिनों से उससे जी भर कर प्यार भी नहीं कर पा रही थी कि उसे कोई संक्रमण ना हो जाए। मेरे गले में झूलते हुए और मुझे चूमते हुए उसने बताया - "मम्मा, मैं कल रात भगवान जी के सामने बहुत देर तक बैठी रही और उनसे जिद की कि जब तक आप मेरी मम्मा को ठीक नहीं करोगे मैं आपसे बात नहीं करूंगी।" मैं निःशब्द थी.... जान गई थी कि आज अचानक तबीयत में सुधार किस वजह से था। ******