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  • कांच का टुकड़ा

    डॉ. कृष्णा कांत श्रीवास्तव एक बार एक राज-महल में कामवाली बाई का लड़का खेल रहा था। खेलते-खेलते उसके हाथ में एक हीरा आ गया। वो दौड़ता दौड़ता अपनी माँ के पास ले गया। माँ ने देखा और समझ गयी कि ये हीरा है तो उसने झूठमुठ का बच्चे को कहा कि ये तो कांच का टुकड़ा है और उसने उस हीरे को महल के बाहर फेंक दिया। थोड़ी देर के बाद वो बाहर से हीरा उठा कर चली गयी। उसने उस हीरे को एक सुनार को दिखाया, सुनार ने भी यही कहा ये तो कांच का टुकड़ा है और उसने भी बाहर फेंक दिया। वो औरत वहां से चली गयी। बाद में उस सुनार ने वो हीरा उठा लिया और जौहरी के पास गया और जौहरी को हीरा दिखाया। जौहरी को पता चल गया कि ये तो एक नायाब हीरा है और उसकी नियत बिगड़ गयी। और उसने भी सुनार को कहा कि ये तो कांच का टुकड़ा है। उसने उठा के हीरे को बाहर फेंक दिया और बाहर गिरते ही वो हीरा टूट कर बिखर गया। एक आदमी इस पूरे वाक्ये को देख रहा था। उसने जाके हीरे को पूछा, जब तुम्हें दो बार फेंका गया तब नहीं टूटे और तीसरी बार क्यों टूट गए? हीरे ने जवाब दिया - ना वो औरत मेरी कीमत जानती थी और ना ही वो सुनार। मेरी सही कीमत वो जौहरी ही जानता था और उसने जानते हुए भी मेरी कीमत कांच की बना दी। बस मेरा दिल टूट गया और मैं टूट के बिखर गया। इसी प्रकार, जब किसी इन्सान की सही कीमत जानते हुए भी लोग उसे नकार देते हैं तो वो इन्सान भी हीरे की तरह टूट जाता है और कभी आगे नहीं बढ़ पाता है। इसलिये अगर आपके आसपास कोई इन्सान हो, वो अपने हुनर को निखारते हुए आगे बढ़ने की कोशिश करता है तो उसका हौसला बढाओ। यह ना कर सको तो कम से कम हीरे को काँच बताकर तोड़ने का काम भी मत करो। हीरा स्वत: एक दिन अपनी जगह ले लेगा। ******

  • खुद्दार

    सरला सिंह बाज़ार में एक आदमी ने फ़ल बेचने वाले एक दुकानदार से पूछा - केले और सेब क्या भाव हैं भाई? केले 40 रु. दर्जन और सेब 120 रु. किलो हैं साहब....दुकानदार ने कहा। आदमी बोला, कुछ ठीक ठाक भाव लगा दो भाई। तभी ठीक उसी समय फटे पुराने कपड़े पहनी हुई एक गरीब सी दिखने वाली औरत दुकान में आयी और बोली, मुझे एक किलो सेब और एक दर्जन केले चाहिये - क्या भाव है भैया? दुकानदार ने कहा, केले 5 रु दर्जन और सेब 25 रु किलो, इससे एक पैसे भी कम नहीं लूँगा। औरत ने कहा, ठीक है, जल्दी से दो दर्जन केले औऱ एक किलो सेव दे दीजिये। दुकान में पहले से मौजूद ग्राहक ने बेहद क्रोध भरी निगाहों से घूरकर दुकानदार को देखा औऱ अपने मन ही मन उसको गाली बकने लगा।

  • मनहूस

    रमाकांत मिश्रा एक व्यक्ति के बारे में मशहूर हो गया कि उसका चेहरा बहुत मनहूस है। लोगों ने उसके मनहूस होने की शिकायत राजा से की। राजा ने लोगों की इस धारणा पर विश्वास नहीं किया, लेकिन इस बात की जाँच खुद करने का फैसला किया। राजा ने उस व्यक्ति को बुला कर अपने महल में रखा। एक सुबह स्वयं उसका मुख देखने पहुँचा। संयोग से व्यस्तता के कारण उस दिन राजा भोजन नहीं कर सका। वह इस नतीजे पर पहुंचा कि उस व्यक्ति का चेहरा सचमुच मनहूस है। उसने जल्लाद को बुलाकर उस व्यक्ति को मृत्युदंड देने का हुक्म सुना दिया। जब मंत्री ने राजा का यह हुक्म सुना तो उसने पूछा,"महाराज! इस निर्दोष को क्यों मृत्युदंड दे रहे हैं? राजा ने कहा,"हे मंत्री! यह व्यक्ति वास्तव में मनहूस है। आज सर्वप्रथम मैंने इसका मुख देखा तो मुझे दिन भर भोजन भी नसीब नहीं हुआ। इस पर मंत्री ने कहा, "महाराज क्षमा करें, प्रातः इस व्यक्ति ने भी सर्वप्रथम आपका मुख देखा। आपको तो भोजन नहीं मिला, लेकिन आपके मुखदर्शन से तो इसे मृत्युदंड मिल रहा है। अब आप स्वयं निर्णय करें कि कौन अधिक मनहूस है।" राजा भौंचक्का रह गया। उसने इस दृष्टि से तो सोचा ही नहीं था। राजा को किंकर्तव्यविमूढ़ देख कर मंत्री ने कहा, "राजन्! किसी भी व्यक्ति का चेहरा मनहूस नहीं होता। वह तो भगवान की देन है। मनहूसियत हमारे देखने या सोचने के ढंग में होती है। आप कृपा कर इस व्यक्ति को मुक्त कर दें।" राजा ने उसे मुक्त कर दिया। ******

  • कला का अभिमान

    अनुज कुमार जायसवाल नारायण दास एक कुशल मूर्तिकार थे। उनकी बनाई मूर्तियां दूर-दूर तक मशहूर थीं। नारायण दास को बस एक ही दुख था, कि उनके कोई संतान नहीं थी। उन्हें हमेशा चिंता रहती थी कि उनके मरने के बाद उनकी कला की विरासत कौन संभालेगा। एक दिन उनके दरवाजे पर चौदह साल का एक बालक आया। उस समय नारायण दास खाना खा रहे थे। लड़के की ललचाई आंखों से वे समझ गए कि बेचारा भूखा है। उन्होंने उसे भरपेट भोजन कराया। फिर उसका परिचय पूछा। लड़के ने कहा कि गांव में हैजा फैलने से उसके माता-पिता और छोटी बहन मर गई। वह अनाथ है। नारायण दास को उस पर दया आ गई। उन्होंने उसे अपने पास रख लिया। लड़के का नाम था कलाधर। वह मन लगाकार उनकी सेवा करता। काम से छुटृी पाते ही उनके पैर दबाता। नारायण दास द्वारा बनाई जा रही मूर्तियों को ध्यान से देखता। कई बार वह बाहर से पत्थर ले आता और उस पर छैनी हथौड़ी चलाता। एक दिन नारायण दास ने उसे ऐसा करते देखा तो समझ गए कि बच्चे में लगन है। उनकी चिंता का समाधान हो गया। उन्होंने तय कर लिया कि वे अपनी कला इस बालक को दे जाएंगे। उन्होंने कलाधर से कहा - बेटा, क्या तू मूर्ति बनाना सीखना चाहता है? मैं तुझे सिखाऊंगा। खुशी से कलाधर का कंठ भर आया। वह कुछ नहीं बोल पाया, बस सिर्फ उनकी ओर देखता रह गया। नारायण दास ने बड़े मनोयोग से कलाधर को मूर्तिकला सिखाई। धीरे-धीरे वह दिन भी आया जब कलाधर भी मूर्तियों गढ़ने में माहिर हो गया। समय किसी कलाकार को अमर होने का वरदान नहीं देता। नारायण दास बहुत बीमार पड़ गया। कलाधर ने जी जान से गुरू की सेवा की पर उनकी बीमारी बढ़ती ही गई। एक दिन उनका बुखार तेज हो गया। कलाधर उनके माथे पर गीली पटृी दे रहा था। गुरू के मुख से कुछ अस्पष्ट स्वर फूट रहे थे, रह रहकर - बेटा कला धर कला की ऊंचाई का अंत नहीं है। कारीगरी में दोष निकाले जाने का बुरा नहीं मानना कला पर अभिमान मत करना। अंतिम शब्द कहते कहते उनके प्राण छूट गए। कलाधर अपने माता-पिता की मृत्यु पर उतना नहीं रोया था, जितना गुरू की मृत्यु पर। धीरे-धीरे वह पुराने जीवन में लौट आया। मूर्तियां गढ़नी शुरू कर दी। एक दिन उसके यहां एक साधु महाराज पधारे। साधु ने कलाधर से भगवान कृष्ण के बाल रूप की एक सुंदर मूर्ति बनाने को कहा। मूर्तिकार ने उनसे एक महीने बाद आने को कहा। साधु को इतना लंबा समय लेने के लिए आश्चर्य हो हुआ मगर वे चुप रहे। एक महीने बाद जब से आए तो वे भगवान कृष्ण की मूर्ति को देखकर दंग रह गए। माखन चुराते कृष्ण, साधु के मुख से निकला, - वाह, क्या खूब! बोलो कलाकार, तुम्हें क्या पारिश्रमिक चाहिए? कलाधर बोला - साधु से पारिश्रमिक! घोर पाप! महाराज, केवल आर्शीवाद दीजिए। बेटा मेरा आर्शीवाद है कि तू देवलोक के लोगों की वाणी समझ सकेगा। फिर साधु महाराज चले गए। एक दिन कलाधर अपनी कार्यशाला में मूर्ति गढ़ने में तल्लीन था कि उसे दो व्यक्तियों की आपसी बातचीत की आवाज सुनाई दी। साधु के आर्शीवाद से वह उनकी बातचीत समझ सकता था। बेचारा मूर्तिकार! पांच दिन का मेहमान और है। छठे दिन तो इसके प्राण लेने आना ही पड़ेगा। हमारा काम भी कितना क्रूर है। मूर्तिकार समझ गया कि ये यमदूत हैं। अब मौत का डर सबको होता ही है, सो उसे भी हुआ। वह मृत्यु से बचने को उपाय सोचने लगा। उसने हू बहू अपने जैसी पांच मूर्तियां बनाईं। छठे दिन वह उन मूर्तियों के बीच सांस रोकर स्थिर बैठ गया। यमदूत आए। वे बुरी तरह भ्रम में पड़ गए। इनमें कौन असली मूर्तिकार है। वे उसे पहचान नहीं पाए। खाली हाथ लौट आए। यमदूतों को खाली हाथ लौटते देख यमराज के क्रोध की सीमा न रही। वे गरजे - आज तक मेरा कोई भी दूत बिना प्राण लिए नहीं लौटा। तुम कैसे, वापस आ गए? जाओ, जैसे भी हो उस मूर्तिकार के प्राण लेकर आओ। यमदूत वापस कार्यशाला में पहुंचे। अब भी वे उसे पहचान नहीं पाए। अचानक एक दूत को एक युक्ति सूझी उसने अपने साथी से कहा - वाह क्या मूर्ति बनाई है, फिर भी मूर्तिकार है बेवकूफ। इस मूर्ति की एक आंख बड़ी, दूसरी छोटी बनाई है। दूसरी मूर्ति के अंगूठा ही नहीं है। मूर्तिकार से अपनी कला में दोष सहन नहीं हुआ। वह गुरू की अंतिम सीख भी भूल गया! चिल्ला पड़ा - झूठ! दोनों आंखें बराबर। कहते ही उसकी आवाज डूबती गई। गर्दन एक ओर लुढ़क गई। यमदूत उसके प्राण लेकर जा चुके थे। *****

  • रिश्ता नहीं सौदा

    सन्दीप गढवाली लडके के पिता ने पंडित जी को एक लडकी देखने को कहा। पण्डित जी बोले हाँ एक लडकी है। अभी कुछ दिनों पहले उसके पिता ने भी एक लडका देखने को कहा था। एक दिन तय हुआ और शादी हो गयी। सब कुछ ठीक चल रहा था कि कुछ महीनों बाद लडका लडकी में आये दिन झगडा होने लगा। वह लडका रोज नशे में घर आता और पत्नी से मारपीट करता। वह उसे शारीरिक और मानसिक रूप से परेशान करता। वहीं बहू भी न सास देखती न ससुर अपने पति के जाते ही अपने स्कूल के एक मित्र के साथ फ़ोन पर लग जाती और भूल जाती कि वह अब किसी की पत्नी किसी की बहू है। एक दिन उन दोनों के बीच झगडा शुरू हुआ और दोनों एक दूसरे पर आरोप लगाने लगे। गुस्से में आकर लडकी ने आत्महत्या कर ली। लडके को पुलिस ले गयी। अब दोनों घरो के लोग एक दूसरे को गाली देने लगे खानदान को गरियाने लगे मामला कोर्ट पहुंचा। जज साहब ने सभी को उपस्थित रहने को कहा और उस पंडित को भी बुलाने को कहा जिसने रिश्ता करवाया था। पंडित जी आये। वकील से पहले जज साहब ही पूछ बैठे ये रिश्ता तुम ने करवाया था? दोनो घर बर्बाद हो गये। इन लोगों का कहना है कि आपको सब पता था फ़िर भी? पंडित जी ने कहा जज सहाब ये रिश्ता नहीं था। सौदा था क्योंकि.. लडकी के माता पिता ने कहा-लडका पैसे वाला हो परिवार छोटा हो। जमीन जायदाद हो और सास ससुर न भी हो तो कोई बात नहीं। वही लडके के माँ बाप बोले लडकी दिखने में सुन्दर हो खानदान हमारी बराबरी का हो। लडके को दहेज में गाडी मिले। बाकी हमें कोई शिकायत नहीं.. और मैंने ये सौदा करवा दिया। साहब इसे रिश्ता नाम देकर रिश्ते शब्द को अपमानित न करें। अगर इन लोगों को रिश्ता करवाना होता तो लडकी वाले मुझसे कहते कि लडका बेशक गरीब हो मगर मेहनती हो, भरा पूरा परिवार हो। ऐसा घर हो जहाँ मेरी बेटी हंस कर खिलखिलाकर रहे। जिस घर में गाड़ी न हो मगर खुशी और संस्कार हो। वही लडका वाले कहते- बहू बेशक गरीब घर की हो मगर संस्कार हो, जो भरे पूरे परिवार से हो, जो घर को घर बनाकर रखे। कुछ न हो देने के लिए मगर बडों का अदब और अतिथि का आदर सत्कार हो। बहू धनवान नहीं गुणवान हो। तब कहीं जाकर ये रिश्ता कहलाता जज साहब और आजकल तो रिश्ते कम और सौदा अधिक होता है। इन के माता पिता भी बराबर के दोषी हैं। इस तरह के मानसिकता वाले लोगों को जरूर सजा मिलनी चाहिए। जज सहाब सोच में पड गये। बोले पंडित जी आपने मेरे हृदय में भी एक चुभन पैदा कर दी क्योंकि मैने भी अपने बच्चों को सब कुछ दिया। आज का आधुनिक माहौल भी दिया। मगर संस्कार देने में शायद मैं भी चूक गया। *****

  • प्रतिस्पर्धा की राह

    डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव चार महीने बीत चुके थे, बल्कि 10 दिन ऊपर हो गए थे। किंतु बड़े भइया की ओर से अभी तक कोई ख़बर नहीं आई थी कि वह पापा को लेने कब आएंगे। यह कोई पहली बार नहीं था कि बड़े भइया ने ऐसा किया हो। हर बार उनका ऐसा ही रवैया रहता है। जब भी पापा को रखने की उनकी बारी आती है, वह समस्याओं से गुज़रने लगते हैं। कभी भाभी की तबीयत ख़राब हो जाती है, कभी ऑफिस का काम बढ़ जाता है और उनकी छुट्टी कैंसिल हो जाती है। विवश होकर मुझे ही पापा को छोड़ने मुँबई जाना पड़ता है। हमेशा की तरह इस बार भी पापा की जाने की इच्छा नहीं थी, किंतु मैंने इस ओर ध्यान नहीं दिया और उनका व अपना मुँबई का रिज़र्वेशन करवा लिया। दिल्ली-मुँबई राजधानी एक्सप्रेस अपने टाइम पर थी। सेकंड एसी की निचली बर्थ पर पापा को बैठाकर सामने की बर्थ पर मैं भी बैठ गया। साथ वाली सीट पर एक सज्जन पहले से विराजमान थे। बाकी बर्थ खाली थीं। कुछ ही देर में ट्रेन चल पड़ी। अपनी जेब से मोबाइल निकाल मैं देख रहा था, तभी कानों से पापा का स्वर टकराया, “मुन्ना, कुछ दिन तो तू भी रहेगा न मुँबई में। मेरा दिल लगा रहेगा और प्रतीक को भी अच्छा लगेगा।” पापा के स्वर की आर्द्रता पर तो मेरा ध्यान गया नहीं, मन-ही-मन मैं खीझ उठा। कितनी बार समझाया है पापा को कि मुझे ‘मुन्ना’ न कहा करें। ‘रजत’ पुकारा करें। अब मैं इतनी ऊँची पोस्ट पर आसीन एक प्रशासनिक अधिकारी हूँ। समाज में मेरा एक अलग रुतबा है। ऊँचा क़द है, मान-सम्मान है। बगल की सीट पर बैठा व्यक्ति मुन्ना शब्द सुनकर मुझे एक सामान्य-सा व्यक्ति समझ रहा होगा। मैं तनिक ज़ोर से बोला, “पापा, परसों मेरी गर्वनर के साथ मीटिंग है। मैं मुँबई में कैसे रुक सकता हूँ?” पापा के चेहरे पर निराशा की बदलियां छा गईं। मैं उनसे कुछ कहता, तभी मेरा मोबाइल बज उठा। रितु का फोन था। भर्राए स्वर में वह कह रही थी, “पापा ठीक से बैठ गए न।” “हाँ-हाँ, बैठ गए हैं। गाड़ी भी चल पड़ी है।” “देखो, पापा का ख़्याल रखना। रात में मेडिसिन दे देना। भाभी को भी सब अच्छी तरह समझाकर आना। पापा को वहाँ कोई तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए।” “नहीं होगी।” मैंने फोन काट दिया। “रितु का फोन था न। मेरी चिंता कर रही होगी।” पापा के चेहरे पर वात्सल्य उमड़ आया था। रात में खाना खाकर पापा सो गए। थोड़ी देर में गाड़ी कोटा स्टेशन पर रुकी और यात्रियों के शोरगुल से हड़कंप-सा मच गया। तभी कंपार्टमेंट का दरवाज़ा खोलकर जो व्यक्ति अंदर आया, उसे देख मुझे बेहद आश्‍चर्य हुआ। मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि रमाशंकर से इस तरह ट्रेन में मुलाक़ात होगी। एक समय रमाशंकर मेरा पड़ोसी और सहपाठी था। हम दोनों के बीच मित्रता कम और नंबरों को लेकर प्रतिस्पर्धा अधिक रहती थी। हम दोनों ही मेहनती और बुद्धिमान थे, किंतु न जाने क्या बात थी कि मैं चाहे कितना भी परिश्रम क्यों न कर लूँ, बाज़ी सदैव रमाशंकर के हाथ लगती थी। शायद मेरी ही एकाग्रता में कमी थी। कुछ समय पश्‍चात् पापा ने शहर के पॉश एरिया में मकान बनवा लिया। मैंने कॉलेज चेंज कर लिया और इस तरह रमाशंकर और मेरा साथ छूट गया। मुझे याद आया कि किस प्रकार दो माह पूर्व एक सुबह मैं अपने ऑफिस पहुँचा था। कॉरिडोर में मुझसे मिलने के लिए काफ़ी लोग बैठे हुए थे। बिना उनकी ओर नज़र उठाए मैं अपने केबिन की ओर बढ़ रहा था। यकायक एक व्यक्ति मेरे सम्मुख आया और प्रसन्नता के अतिरेक में मेरे गले लग गया, “रजत यार, तू कितना बड़ा आदमी बन गया। पहचाना मुझे? मैं रमाशंकर।” मैं सकपका गया। फीकी-सी मुस्कुराहट मेरे चेहरे पर आकर विलुप्त हो गई। इतने लोगों के सम्मुख़ उसका अनौपचारिक व्यवहार मुझे ख़ल रहा था। वह भी शायद मेरे मनोभावों को ताड़ गया था, तभी तो एक लंबी प्रतीक्षा के उपरांत जब वह मेरे केबिन में दाख़िल हुआ, तो समझ चुका था कि वह अपने सहपाठी से नहीं, बल्कि एक प्रशासनिक अधिकारी से मिल रहा था। उसका मुझे ‘सर’ कहना मेरे अहं को संतुष्ट कर गया। यह जानकर कि वह बिजली विभाग में महज़ एक क्लर्क है, जो मेरे समक्ष अपना तबादला रुकवाने की गुज़ारिश लेकर आया है, मेरा सीना अभिमान से चौड़ा हो गया। कॉलेज के प्रिंसिपल और टीचर्स तो क्या, मेरे सभी कलीग्स भी यही कहते थे कि एक दिन रमाशंकर बहुत बड़ा आदमी बनेगा। हुँह, आज मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गया और वह… पिछली स्मृतियों को पीछे धकेल मैं वर्तमान में पहुँचा तो देखा, रमाशंकर ने अपनी वृद्ध माँ को साइड की सीट पर लिटा दिया और स्वयं उनके क़रीब बैठ गया। एक उड़ती सी नज़र उस पर डाल मैंने अख़बार पर आँखें गड़ा दीं। तभी रमाशंकर बोला, “नमस्ते सर, मैंने तो देखा ही नहीं कि आप बैठे हैं।” मैंने नम्र स्वर में पूछा, “कैसे हो रमाशंकर?” “ठीक हूँ सर।” “कोटा कैसे आना हुआ?” “छोटी बुआ की बेटी की शादी में आया था। अब मुँबई जा रहा हूँ। शायद आपको याद हो, मेरा एक छोटा भाई था।” “छोटा भाई, हाँ याद आया, क्या नाम था उसका?” मैंने स्मृति पर ज़ोर डालने का उपक्रम किया जबकि मुझे अच्छी तरह याद था कि उसका नाम देवेश था। “सर, आप इतने ऊँचे पद पर हैं। आए दिन हज़ारों लोगों से मिलते हैं। आपको कहाँ याद होगा? देवेश नाम है उसका सर।” पता नहीं उसने मुझ पर व्यंग्य किया था या साधारण रूप से कहा था, फिर भी मेरी गर्दन कुछ तन-सी गई। उस पर एहसान-सा लादते हुए मैं बोला, “देखो रमाशंकर, यह मेरा ऑफिस नहीं है, इसलिए सर कहना बंद करो और मुझे मेरे नाम से पुकारो। हाँ तो तुम क्या बता रहे थे, देवेश मुँबई में है?” “हाँ रजत, उसने वहाँ मकान ख़रीदा है। दो दिन पश्‍चात् उसका गृह प्रवेश है। चार-पांच दिन वहाँ रहकर मैं और अम्मा दिल्ली लौट आएंगे।” “इस उम्र में इन्हें इतना घुमा रहे हो?” “अम्मा की आने की बहुत इच्छा थी। इंसान की उम्र भले ही बढ़ जाए, इच्छाएं तो नहीं मरतीं न।” “हाँ, यह तो है। पिताजी कैसे हैं?” “पिताजी का दो वर्ष पूर्व स्वर्गवास हो गया था। अम्मा यह दुख झेल नहीं पाईं और उन्हें हार्टअटैक आ गया था, बस तभी से वह बीमार रहती हैं। अब तो अल्ज़ाइमर भी बढ़ गया है।” “तब तो उन्हें संभालना मुश्किल होता होगा। क्या करते हो? छह-छह महीने दोनों भाई रखते होंगे।” ऐसा पूछकर मैं शायद अपने मन को तसल्ली दे रहा था। आशा के विपरीत रमाशंकर बोला, “नहीं-नहीं, मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता। अम्मा शुरू से दिल्ली में रही हैं। उनका कहीं और मन लगना मुश्किल है। मैं नहीं चाहता, इस उम्र में उनकी स्थिति पेंडुलम जैसी हो जाए। कभी इधर, तो कभी उधर। कितनी पीड़ा होगी उन्हें यह देखकर कि पिताजी के जाते ही उनका कोई घर ही नहीं रहा। वह हम पर बोझ हैं।” मैं मुस्कुराया, “रमाशंकर, इंसान को थोड़ा व्यावहारिक भी होना चाहिए। जीवन में स़िर्फ भावुकता से काम नहीं चलता है। अक्सर इंसान दायित्व उठाते-उठाते थक जाता है और तब ये विचार मन को उद्वेलित करने लगते हैं कि अकेले हम ही क्यों माँ-बाप की सेवा करें, दूसरा क्यों न करे।” “पता नहीं रजत, मैं ज़रा पुराने विचारों का इंसान हूँ। मेरा तो यह मानना है कि हर इंसान की करनी उसके साथ है। कोई भी काम मुश्क़िल तभी लगता है, जब उसे बोझ समझकर किया जाए। माँ-बाप क्या कभी अपने बच्चों को बोझ समझते हैं? आधे-अधूरे कर्त्तव्यों में कभी आस्था नहीं होती रजत, मात्र औपचारिकता होती है! और सबसे बड़ी बात जाने-अनजाने हमारे कर्म ही तो संस्कार बनकर हमारे बच्चों के द्वारा हमारे सम्मुख आते हैं। समय रहते यह छोटी-सी बात इंसान की समझ में आ जाए, तो उसका बुढ़ापा भी संवर जाए।” मुझे ऐसा लगा, मानो रमाशंकर ने मेरे मुख पर तमाचा जड़ दिया हो। मैं नि:शब्द, मौन!!! सोने का उपक्रम करने लगा, किंतु नींद मेरी आँखों से अब कोसों दूर हो चुकी थी। रमाशंकर की बातें मेरे दिलोदिमाग़ में हथौड़े बरसा रही थीं। इतने वर्षों से संचित किया हुआ अभिमान पलभर में चूर-चूर हो गया था। प्रशासनिक परीक्षा की तैयारी के लिए इतनी मोटी-मोटी किताबें पढ़ता रहा, किंतु पापा के मन की संवेदनाओं को, उनके हृदय की पीड़ा को नहीं पढ़ सका। क्या इतना बड़ा मुक़ाम मैंने स़िर्फ अपनी मेहनत के बल पर पाया है। नहीं, इसके पीछे पापा-मम्मी की वर्षों की तपस्या निहित है। आख़िर उन्होंने ही तो मेरी आँखों को सपने देखने सिखाए। जीवन में कुछ कर दिखाने की प्रेरणा दी। रात्रि में जब मैं देर तक पढ़ता था, तो पापा भी मेरे साथ जागते थे कि कहीं मुझे नींद न आ जाए। मेरे इस लक्ष्य को हासिल करने में पापा हर क़दम पर मेरे साथ रहे और आज जब पापा को मेरे साथ की ज़रूरत है, तो मैं व्यावहारिकता का सहारा ले रहा हूँ। दो वर्ष पूर्व की स्मृति मन पर दस्तक दे रही थी। सीवियर हार्टअटैक आने के बाद मम्मी बीमार रहने लगी थीं। एक शाम ऑफिस से लौटकर मैं पापा-मम्मी के बेडरूम में जा रहा था, तभी अंदर से आती आवाज़ से मेरे पांव ठिठक गए। मम्मी पापा से कह रही थीं, “इस दुनिया में जो आया है, वह जाएगा भी। कोई पहले, तो कोई बाद में। इतने इंटैलेक्चुअल होते हुए भी आप इस सच्चाई से मुँह मोड़ना चाह रहे हैं।” “मैं क्या करूँ पूजा? तुम्हारे बिना अपने अस्तित्व की कल्पना भी मेरे लिए कठिन है। कभी सोचा है तुमने कि तुम्हारे बाद मेरा क्या होगा?” पापा का कंठ अवरुद्ध हो गया था! किंतु मम्मी तनिक भी विचलित नहीं हुईं और शांत स्वर में बोलीं थीं, “आपकी तरफ़ से तो मैं पूरी तरह से निश्‍चिंत हूँ। रजत और रितु आपका बहुत ख़्याल रखेंगे, यह एक माँ के अंतर्मन की आवाज़ है, उसका विश्‍वास है जो कभी ग़लत नहीं हो सकता।” इस घटना के पांच दिन बाद ही मम्मी चली गईं थीं। कितने टूट गए थे पापा। बिल्कुल अकेले पड़ गए थे। उनके अकेलेपन की पीड़ा को मुझसे अधिक मेरी पत्नी रितु ने समझा। यूँ भी वह पापा के दोस्त की बेटी थी और बचपन से पापा से दिल से जुड़ी हुई थी। उसने कभी नहीं चाहा, पापा को अपने से दूर करना, किंतु मेरा मानना था कि कोरी भावुकता में लिए गए फैसले अक्सर ग़लत साबित होते हैं। इंसान को प्रैक्टिकल अप्रोच से काम लेना चाहिए। अकेले मैं ही क्यों पापा का दायित्व उठाऊँ? दोनों बड़े भाई क्यों न उठाएं? जबकि पापा ने तीनों को बराबर का स्नेह दिया, पढ़ाया, लिखाया, तो दायित्व भी तीनों का बराबर है। छह माह बाद मम्मी की बरसी पर यह जानते हुए भी कि दोनों बड़े भाई पापा को अपने साथ रखना नहीं चाहते, मैंने यह फैसला किया था कि हम तीनों बेटे चार-चार माह पापा को रखेंगे। पापा को जब इस बात का पता चला, तो कितनी बेबसी उभर आई थी उनके चेहरे पर। चेहरे की झुर्रियां और गहरा गई थीं। उम्र मानो १० वर्ष आगे सरक गई थी। सारी उम्र पापा की दिल्ली में गुज़री थी। सभी दोस्त और रिश्तेदार यहीं पर थे, जिनके सहारे उनका व़क्त कुछ अच्छा बीत सकता था, किंतु… सोचते-सोचते मैंने एक गहरी सांस ली। आँखों से बह रहे पश्‍चाताप के आँसू पूरी रात मेरा तकिया भिगोते रहे। उफ्… यह क्या कर दिया मैंने। पापा को तो असहनीय पीड़ा पहुँचाई ही, मम्मी के विश्‍वास को भी खंडित कर दिया। आज वह जहाँ कहीं भी होंगी, पापा की स्थिति पर उनकी आत्मा कलप रही होगी। क्या वह कभी मुझे क्षमा कर पाएंगी? रात में कई बार अम्मा का रमाशंकर को आवाज़ देना और हर बार उसका चेहरे पर बिना शिकन लाए उठना, मुझे आत्मविश्‍लेषण के लिए बाध्य कर रहा था। उसे देख मुझे एहसास हो रहा था कि इंसानियत और बड़प्पन हैसियत की मोहताज नहीं होती। वह तो दिल में होती है। अचानक मुझे एहसास हुआ, मेरे और रमाशंकर के बीच आज भी प्रतिस्पर्धा जारी है। इंसानियत की प्रतिस्पर्धा, जिसमें आज भी वह मुझसे बाज़ी मार ले गया था। पद भले ही मेरा बड़ा था, किंतु रमाशंकर का क़द मुझसे बहुत ऊँचा था। गाड़ी मुँबई सेंट्रल पर रुकी, तो मैं रमाशंकर के क़रीब पहुँचा। उसके दोनों हाथ थाम मैं भावुक स्वर में बोला, “रमाशंकर मेरे दोस्त, चलता हूँ। यह सफ़र सारी ज़िंदगी मुझे याद रहेगा।” कहने के साथ ही मैंने उसे गले लगा लिया। आश्‍चर्य मिश्रित ख़ुशी से वह मुझे देख रहा था। मैं बोला, “वादा करो, अपनी फैमिली को लेकर मेरे घर अवश्य आओगे।” “आऊँगा क्यों नहीं, आखिऱ इतने वर्षों बाद मुझे मेरा दोस्त मिला है।” ख़ुशी से उसकी आवाज़ कांप रही थी। अटैची उठाए पापा के साथ मैं नीचे उतर गया। स्टेशन के बाहर मैंने टैक्सी पकड़ी और ड्राइवर से एयरपोर्ट चलने को कहा। पापा हैरत से बोले, “एयरपोर्ट क्यों?” भावुक होकर मैं पापा के गले लग गया और रुंधे कंठ से बोला, “पापा, मुझे माफ़ कर दीजिए। हम वापिस दिल्ली जा रहे हैं। अब आप हमेशा वहीं अपने घर में रहेंगे।” पापा की आँखें नम हो उठीं और चेहरा खुशी से खिल उठा। “जुग जुग जिओ मेरे बच्चे।” वह बुदबुदाए। कुछ पल के लिए उन्होंन अपनी आँखें बंद कर लीं, फिर चेहरा उठाकर आकाश की ओर देखा। मुझे ऐसा लगा मानो वह मम्मी से कह रहे हों, देर से ही सही, तुम्हारा विश्‍वास सही निकला। ******

  • सफर

    नीलिमा मिश्रा ट्रेन चलने को ही थी कि अचानक कोई जाना पहचाना सा चेहरा जर्नल बोगी में आ गया। मैं अकेली सफर पर थी। सब अजनबी चेहरे थे। स्लीपर का टिकट नही मिला तो जर्नल डिब्बे में ही बैठना पड़ा मगर, यहां ऐसे हालात में उस शख्स से मिलना जिंदगी के लिए एक संजीवनी के समान था। जिंदगी भी कमबख्त कभी-कभी अजीब से मोड़ पर ले आती है। ऐसे हालातों से सामना करवा देती है जिसकी कल्पना तो क्या कभी ख्याल भी नही कर सकते। वो आया और मेरे पास ही खाली जगह पर बैठ गया। ना मेरी तरफ देखा ना पहचानने की कोशिश की। कुछ इंच की दूरी बना कर चुप चाप पास आकर बैठ गया। बाहर सावन की रिमझिम लगी थी, इस कारण वो कुछ भीग गया था। मैने कनखियों से नजर बचा कर उसे देखा। उम्र के इस मोड़ पर भी कमबख्त वैसा का वैसा ही था। हां कुछ भारी हो गया था। मगर इतना ज्यादा भी नही। फिर उसने जेब से चश्मा निकाला और मोबाइल में लग गया। चश्मा देख कर मुझे कुछ आश्चर्य हुआ। उम्र का यही एक निशान उस पर नजर आया था कि आंखों पर चश्मा चढ़ गया था। चेहरे पर और सर पे मैने सफेद बाल खोजने की कोशिश की मगर मुझे नही दिखे। मैंने जल्दी से सर पर साड़ी का पल्लू डाल लिया। बालों को डाई किए काफी दिन हो गए थे मुझे। ज्यादा तो नही थे सफेद बाल मेरे सर पे मगर इतने जरूर थे कि गौर से देखो तो नजर आ जाए। मैं उठकर बाथरूम गई। हैंड बैग से फेसवाश निकाला, चेहरे को ढंग से धोया फिर शीशे में चेहरे को गौर से देखा। पसंद तो नही आया मगर अजीब सा मुँह बना कर मैने शीशा वापस बैग में डाला और वापस अपनी जगह पर आ गई। मगर वो साहब तो खिड़की की तरफ से मेरा बैग सरकाकर खुद खिड़की के पास बैठ गए थे। मुझे पूरी तरह देखा भी नही बस बिना देखे ही कहा, सॉरी भाग कर चढ़ा तो पसीना आ गया था थोड़ा सूख जाए फिर अपनी जगह बैठ जाऊंगा। फिर वह अपने मोबाइल में लग गया मेरी इच्छा जानने की कोशिश भी नही की। उसकी यही बात हमेशा मुझे बुरी लगती थी। फिर भी ना जाने उसमें ऐसा क्या था कि आज तक मैंने उसे नही भुलाया। एक वो था कि दस सालों में ही भूल गया। मैंने सोचा शायद अभी तक गौर नही किया पहचान लेगा। थोड़ी मोटी हो गई हूँ शायद इसलिए नही पहचाना मैं उदास हो गई। जिस शख्स को जीवन में कभी भुला ही नही पाई उसको मेरा चेहरा ही याद नही। माना कि ये औरतों और लड़कियों को ताड़ने की इसकी आदत नही मग़र पहचाने भी नही। शादीशुदा है। मैं भी शादीशुदा हूँ जानती थी। इसके साथ रहना मुश्किल है मगर इसका मतलब यह तो नही कि अपने ख्यालों को अपने सपनों को जीना छोड़ दूं। एक तमन्ना थी कि कुछ पल खुल के उसके साथ गुजारूं। माहौल दोस्ताना ही हो मगर हो तो सही। आज वही शख्स पास बैठा था जिसे स्कूल टाइम से मैने दिल में बसा रखा था। शोसल मीडिया पर उसके सारे एकाउंट चोरी छुपे देखा करती थी। उसकी हर कविता हर शायरी में खुद को खोजा करती थी। वह तो आज पहचान ही नही रहा। माना कि हम लोगों में कभी प्यार की पींगे नही चली, ना कभी इजहार हुआ, हां वो हमेशा मेरी केयर करता था और मैं उसकी केयर करती थी। कॉलेज छूटा तो मेरी शादी हो गई और वो फौज में चला गया फिर उसकी शादी हुई। जब भी गांव गई उसकी सारी खबर ले आती थी। बस ऐसे ही जिंदगी गुजर गई। आधे घण्टे से ऊपर हो गया वो आराम से खिड़की के पास बैठा मोबाइल में लगा था देखना तो दूर चेहरा भी ऊपर नही किया। मैं कभी मोबाइल में देखती कभी उसकी तरफ शोसल मीडिया पर उसके एकाउंट खोल कर देखे। तस्वीर मिलाई वही था पक्का वही कोई शक नही था। वैसे भी हम महिलाएं पहचानने में कभी भी धोखा नही खा सकती 20 साल बाद भी सिर्फ आंखों से पहचान ले। फिर और कुछ वक्त गुजरा माहौल वैसा का वैसा था मैं बस पहलू बदलती रही। फिर अचानक टीटी आ गया सबसे टिकट पूंछ रहा था। मैंने अपना टिकट दिखा दिया। उससे पूँछा तो उसने कहा नही है। टीटी बोला फाइन लगेगा। वह बोला लगा दो। टीटी कहाँ का टिकट बनाऊं? उसने जल्दी से जवाब नही दिया मेरी तरफ देखने लगा। मैं कुछ समझी नही। उसने मेरे हाथ में थमी टिकट को गौर से देखा फिर टीटी से बोला कानपुर। टीटी ने कानपुर की टिकट बना कर दी और पैसे लेकर चला गया। वह फिर से मोबाइल में तल्लीन हो गया। आखिर मुझसे रहा नही गया मैंने पूंछ ही लिया कानपुर में कहाँ रहते हो? वह मोबाइल में नजरें गढ़ाए हुए ही बोला कहीँ नही। वह चुप हो गया तो मैं फिर बोली किसी काम से जा रहे हो। वह बोला हाँ। अब मै चुप हो गई। वह अजनबी की तरह बात कर रहा था और अजनबी से कैसे पूंछ लूँ किस काम से जा रहे हो। कुछ देर चुप रहने के बाद फिर मैंने पूछ ही लिया वहां शायद आप नौकरी करते हो? उसने कहा नही। मैंने फिर हिम्मत कर के पूँछा तो किसी से मिलने जा रहे हो? वही संक्षिप्त उत्तर नही। आखिरी जवाब सुनकर मेरी हिम्मत नही हुई कि और भी कुछ पूंछूँ अजीब आदमी था बिना काम सफर कर रहा था। मैं मुँह फेर कर अपने मोबाइल में लग गई। कुछ देर बाद खुद ही बोला ये भी पूंछ लो क्यों जा रहा हूँ कानपुर?" मेरे मुंह से जल्दी में निकला बताओ क्यों जा रहे हो? फिर अपने ही उतावलेपन पर मुझे शर्म सी आ गई। उसने थोड़ा सा मुस्कुराते हुये कहा एक पुरानी दोस्त मिल गई। जो आज अकेले सफर पर जा रही थी फौजी आदमी हूँ। सुरक्षा करना मेरा कर्तव्य है अकेले कैसे जाने देता। इसलिए उसे कानपुर तक छोड़ने जा रहा हूँ। इतना सुनकर मेरा दिल जोर से धड़का। नॉर्मल नही रह सकी मैं। मगर मन के भावों को दबाने का असफल प्रयत्न करते हुए मैने हिम्मत कर के फिर पूँछा कहाँ है वो दोस्त? कमबख्त फिर मुस्कराता हुआ बोला यहीं मेरे पास बैठी है ना" इतना सुनकर मेरे सब कुछ समझ में आ गया कि क्यों उसने टिकट नही लिया क्योंकि उसे तो पता ही नही था मैं कहाँ जा रही हूं। सिर्फ और सिर्फ मेरे लिए वह दिल्ली से कानपुर का सफर कर रहा था जान कर इतनी खुशी मिली कि आंखों में आंसू आ गए। दिल के भीतर एक गोला सा बना और फट गया। परिणाम में आंखे तो भीगनी ही थी। बोला रो क्यों रही हो? मैं बस इतना ही कह पाई तुम मर्द हो नही समझ सकते। वह बोला क्योंकि थोड़ा बहुत लिख लेता हूँ इसलिए एक कवि और लेखक भी हूँ। सब समझ सकता हूँ। मैंने खुद को संभालते हुए कहा शुक्रिया मुझे पहचानने के लिए और मेरे लिए इतना टाइम निकालने के लिए। वह बोला प्लेटफार्म पर अकेली घूम रही थी कोई साथ नही दिखा तो आना पड़ा। कल ही रक्षा बंधन था इसलिए बहुत भीड़ है तुमको यूँ अकेले सफर नही करना चाहिए। क्या करती उनको छुट्टी नही मिल रही थी और भाई यहां दिल्ली में आकर बस गए राखी बांधने तो आना ही था। मैंने मजबूरी बताई। ऐसे भाइयों को राखी बांधने आई हो जिनको ये भी फिक्र नही कि बहिन इतना लंबा सफर अकेले कैसे करेगी? भाई शादी के बाद भाई रहे ही नही भाभियों के हो गए। मम्मी पापा रहे नही। कह कर मैं उदास हो गई। वह फिर बोला तो पति को तो समझना चाहिए। उनकी बहुत बिजी लाइफ है मैं ज्यादा डिस्टर्ब नही करती और आजकल इतना खतरा नही रहा कर लेती हूं मैं अकेले सफर तुम अपनी सुनाओ कैसे हो? अच्छा हूँ कट रही है जिंदगी। मेरी याद आती थी क्या? मैंने हिम्मत कर के पूँछा। वो चुप हो गया। कुछ नही बोला तो मैं फिर बोली सॉरी यूँ ही पूंछ लिया। अब तो परिपक्व हो गए हैं कर सकते है ऐसी बात। उसने शर्ट की बाजू की बटन खोल कर हाथ में पहना वो तांबे का कड़ा दिखाया जो मैंने ही फ्रेंडशिप डे पर उसे दिया था। बोला याद तो नही आती पर कमबख्त ये तेरी याद दिला देता था। कड़ा देख कर दिल को बहुत शुकुन मिला मैं बोली कभी सम्पर्क क्यों नही किया? वह बोला डिस्टर्ब नही करना चाहता था तुम्हारी अपनी जिंदगी है और मेरी अपनी जिंदगी है। मैंने डरते डरते पूँछा तुम्हें छू लूं। वह बोला पाप नही लगेगा? मै बोली नही छूने से नही लगता। और फिर मैं कानपुर तक उसका हाथ पकड़ कर बैठी रही। बहुत सी बातें हुईं। जिंदगी का एक ऐसा यादगार दिन था जिसे आखरी सांस तक नही बुला पाऊंगी। वह मुझे सुरक्षित घर छोड़ कर गया रुका नही बाहर से ही चला गया। जम्मू थी उसकी ड्यूटी चला गया। उसके बाद उससे कभी बात नही हुई क्योंकि हम दोनों ने एक दूसरे के फोन नम्बर नही लिए। हलाकि हमारे बीच कभी भी नापाक कुछ भी नही हुआ। एक पवित्र सा रिश्ता था मगर रिश्तों की गरिमा बनाए रखना जरूरी था। फिर ठीक एक महीने बाद मैंने अखबार में पढ़ा कि वो देश के लिए शहीद हो गया। क्या गुजरी होगी मुझ पर वर्णन नही कर सकती उसके परिवार पर क्या गुजरी होगी पता नही। लोक लाज के डर से मैं उसके अंतिम दर्शन भी नही कर सकी। आज उससे मिले एक साल हो गया है। आज भी रक्षाबन्धन का दूसरा दिन है। आज भी सफर कर रही हूँ। दिल्ली से कानपुर जा रही हूं जानबूझकर जनरल डिब्बे का टिकट लिया है मैंने। अकेली हूँ न जाने दिल क्यों आस पाले बैठा है कि आज फिर आएगा और पसीना सुखाने के लिए उसी खिड़की के पास बैठेगा। एक सफर वो था जिसमे कोई हमसफर था। एक सफर आज है जिसमे उसकी यादें हमसफर है। बाकी जिंदगी का सफर जारी है देखते हैं कौन मिलता है कौन साथ छोड़ता है। *****

  • शराब की पार्टी

    नेकराम सूरज, सुरेश, रमन तीनों दोस्तों ने अलग से समीर को पार्टी करने के लिए कहा था। देख समीर तेरे जन्मदिन पर शराब की बोतले खुलेंगी। जमकर डांस होगा। सूरज के दो फ्लैट हैं, एक फ्लैट खाली पड़ा है, सूरज वही पार्टी की व्यवस्था कर देगा। दोपहर 12:00 बजे पार्टी शुरू करेंगे, शाम तक पार्टी चलेगी। यह बात समीर को दो दिन पहले ही सुरेश ने बता दी थी। समीर ने घड़ी में देखा तो दोपहर के ग्यारह बज चुके थे। समीर मां के नजदीक आकर कहने लगा, मैं जानता हूं शाम को पापा मेरे लिए केक लेकर आएंगे। हर साल आप मेरा जन्मदिन मनाते आ रहे हो, लेकिन अब मैं बड़ा हो चुका हूं। मेरे दोस्त भी बड़े हो चुके हैं। मां ने समीर को खुश रखने के लिए कहा, तुम अपने दोस्तों को पार्टी देना चाहते हो मैं सब जानती हूं, मैं तुम्हें एक हजार रुपए दे रही हूं, दोस्तों के साथ तुम पार्टी कर सकते हो। समीर का चेहरा उतरा देख मां ने एक हजार रुपए और देते हुए कहा, अब तो ठीक है पूरे दो हजार रुपए तुम्हें मिल चुके हैं। समीर को याद आया सुरेश ने कहा था पूरे पांच हजार रुपए मांगना अपनी मां से तभी हम खुलकर पार्टी कर सकते हैं। समीर ने जिद्द करते हुए मां को बताया मुझे पूरे पांच हजार रुपए चाहिए। हम सब दोस्त खुलकर इंजॉय करेंगे। खूब खाना-पीना होगा। तब मां ने चिंता भरे स्वर में कहा समीर बेटा शाम को पापा भी तेरे जन्मदिन पर तेरे लिए तोहफा लाएंगे। समीर ने गुस्से से कहा इसका मतलब तुम अपने बेटे से प्यार नहीं करती हो। तुम मुझे पांच हजार रुपए दे दो यह बात पिताजी को मत बताना। मां ने पांच हजार रुपए देते हुए समीर से कहा, इन पैसों का गलत इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। मां का चेहरा थोड़ा उतर सा गया था। लेकिन समीर का ध्यान कहीं और ही था। समीर ने घड़ी में देखा तो 12 बजने वाले हैं। समीर ने बाइक निकाली हेलमेट पहना, इतने में सुरेश का कॉल आया। सुरेश ने कहा, हां समीर कहां पर हो? घर से पांच हजार रुपए मिले कि नहीं मिले? समीर ने सुरेश को बताया मैं पहले ठेके जाऊंगा वहां से शराब की बोतलें खाने-पीने का सामान लेकर तुम्हारे पास अभी 10 मिनट में पहुंचता हूं। 1 घंटे के बाद…… सुरेश ने सूरज से कहा दोपहर का 1:00 बज चुका है। समीर अभी तक नहीं आया। रमन ने कॉल मिलाया, मगर समीर का फोन स्विच ऑफ जा रहा था। सुरेश ने घड़ी में देखा तो दोपहर के 2:00 बज गए। रमन ने सुरेश को कहा शराब की दुकान तो पास में ही है, इतना समय समीर को कैसे लग रहा है। फोन भी स्विच ऑफ जा रहा है। घड़ी देखते-देखते तीनों दोस्तों की शाम हो गई। तीनों आपस में बोले समीर ने हमें धोखा दिया है। शाम के 6:00 बज चुके थे। समीर के तीनों दोस्त समीर के घर चल पड़े। यह पता लगाने के लिए कि समीर घर पर है कि नहीं। समीर के घर आस-पड़ोसी जमा हो चुके थे। कुछ रिश्तेदार भी आ चुके थे। केक की तैयारी हो चुकी थी। तभी समीर की मां ने सूरज, सुरेश, रमन तीनों दोस्तों को आते देखकर कहा, समीर शायद तुम तीनों के पास गया था, पार्टी के लिए…… अभी तक समीर घर नहीं आया। रमन ने बताया आंटी जी 12:00 बजे समीर का कॉल आया था। वह कह रहा था रास्ते में हूं। फिर उसके बाद कॉल स्विच ऑफ आने लगा। यह बात सुनकर घर में एकदम सन्नाटा छा गया। फ्लैट में खड़े लोग कुछ और सोचते इससे पहले तभी समीर दरवाजे पर आता नजर आया। सब ने समीर को घेर लिया। समीर के पिता समीर का हाथ पकड़ के केक के पास ले आए। सब लोगों के मुरझाए चेहरे पर मुस्कान लौट आई। सुरेश ने पूछ लिया समीर तुम घर से 12:00 बजे निकले थे। अब शाम के 6:00 बजे आए हो 6 घंटे से कहां लापता थे। मां ने भी गुस्से से पूछ लिया, मैंने दोपहर को पांच हजार रुपए दिए थे। तुमने उन रूपयों का क्या किया सबको बताओ? तब एक पड़ोसन बोली तुम्हारा बेटा समीर अब बड़ा हो गया है। गलत जगह पैसा खर्च करके आया है। इतनी बड़ी रकम तो हमने भी अपने बच्चों को नहीं दी। समीर बिगड़ चुका है, हमें तो शक है किसी लड़की बाजी में पैसे उड़ा कर आया होगा। कुछ रिश्तेदार तो मन ही मन आनंदित हुए जा रहे थे आस-पड़ोसी भी यही चाहते थे कि समीर से गलती हो। तभी दरवाजे से एक अधेड़ आदमी झांकता दिखा, फिर घर के भीतर आ गया। समीर के पास खड़ा होकर बोला भगवान सबको ऐसा बेटा दे। दोपहर 12:00 बजे सड़क किनारे मेरी आंखों के आगे अंधेरा छा गया। मेरा दिमाग एकदम सुन हो गया। मेरा एक हाथ जेब में था। आते-जाते लोग मुझे देखते फिर चले जाते ना तो मैं बोल पा रहा था ना सुन पा रहा था। लेकिन दिखाई दे रहा था। तभी एक बाइक मेरे पास आकर रुकी। उसने तुरंत पास की दुकान से पानी की बोतल खरीदी और मुझे पानी पिलाते हुए कहा, अंकल जी सड़क किनारे क्यों बैठे हो क्या घरबार नहीं है, चलो मैं तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ दूं। तब मैंने कहा घर जाकर क्या करूंगा। कबाड़ी का काम करता हूं। मेरे पिता जी का आज देहांत हो गया, लेकिन घर में एक फूटी कोड़ी भी नहीं थी। इसलिए जहां मैं कबाड़ी का सामान बेंचता था, वहां से बड़ी मुश्किल से पांच हजार रुपए उधार लिए थे कि पिताजी का अंतिम संस्कार कर दूंगा। लेकिन बस में चढ़ने से पहले ही किसी ने मेरी जेब काट ली। अब वह कबाड़ी वाला भी दोबारा पैसे नहीं देगा। बीवी बच्चे मेरी राह देख रहे होंगे आस-पड़ोसी सब जमा हो चुके हैं। मैं खाली हाथ किस मुंह से जाऊं मैं बिलख बिलख कर रोने लगा। हम गरीबों के पास दौलत तो नहीं होती, साहब, लेकिन बस एक सम्मान ही होता है। तब उसने मुझे मोटरसाइकिल पर बिठाया और मुझे मेरे घर ले गया। लोगों का जमावड़ा बढ़ता ही जा रहा था। मेरे घर आते ही मेरा छोटा बेटा दीपू बोला पापा तुमने रुपए लाने में इतनी देर क्यों लगा दी। पड़ोसी तरह-तरह की बातें बना रहे थे। तब उसने पांच हजार रुपए निकाल कर मेरी बीवी कुसुम देवी को देते हुए कहा, अंकल जी को बस नहीं मिल रही थी इसलिए अंकल जी को मैंने बाइक पर बिठा लिया और उनके रुपए रास्ते में गिर ना जाए इसलिए मैंने अपनी जेब में रख लिए थे। यह लो अंकल जी के पांच हजार रुपए तब मेरी बीवी ने कहा इन रूपयों को तुम अपने पास रखो जहां-जहां खर्च होंगे करते चले जाना। शाम को वह शमशान से हमारे घर आया। मोटरसाइकिल पर बैठा और कहा कुछ दूरी पर हमारा घर है। आज मेरा जन्मदिन है, तुम्हें घर आना है। उसने अपना पता बता दिया तब मैं इस समीर को जन्मदिन की बधाई देने चला आया। मां की आंखों में आंसू थे। वह सोचने लगी मैंने कहा था समीर इन पैसों का गलत इस्तेमाल नहीं होना चाहिए, आज एक बेटे ने मां की लाज रख ली। समीर के तीनों दोस्त आज बहुत खुश थे कि हमें समीर जैसा मित्र मिला। रिश्तेदारों के तो गाल फूल चुके थे, समीर का यह पुण्य का काम सुनकर। समीर के एक दूर के रिश्तेदार ने कहा-अपनी खुशियों से बढ़कर किसी जरूरतमंद की मदद करना ही हमारी संस्कृति हमें सिखाती है। फ्लैट में खड़े मौजूद सभी लोगों ने एक साथ कहा, समीर जैसा बेटा भगवान सबको दे। केक कटा और सब में बंटा। समीर ने एक बड़े से डिब्बे में बहुत सा खाना पैक करके उन अंकल जी के हाथ में थमा दिया। वे अंकल जी जब घर पहुंचे बच्चों से कहा तुम सुबह से भूखे हो लो मैं तुम लोगों के लिए खाना लाया हूं। बच्चों ने जब डिब्बे खोले तो एक डिब्बे में नोट रखे हुए थे। साथ में एक लेटर भी। लेटर में लिखा था मैं समीर का पिता आपको पांच हजार रुपए और दे रहा हूं। इस समय तुम्हें पैसों की जरूरत होगी और आपके पिता की तेरहवीं का पूरा खर्चा भी हम उठाएंगे। मैं आज आपको धन्यवाद दे रहा हूं इसलिए कि आपकी वजह से आज मेरा बेटा एक गुनाह करने से बच गया, वह गुनाह है,शराब की पार्टी। *****

  • जीवन का एहसास

    एक जंगल में कैसोवैरी जाति की एक चिड़िया रहती थी। यह चिड़िया उड़ सकने में असमर्थ थी। कैसोवैरी चिड़िया को बचपन से ही बाकी चिड़ियों के बच्चे चिढ़ाते थे। कोई कहता, “जब तुम्हें उड़ना नहीं आता तो कुछ नहीं आता, तुम चिड़िया किस काम की।”तो कोई उसे ऊपर पेड़ की डाल पर बैठ कर चिढ़ाता कि, “अरे कभी हमारे पास भी पेड़ पर आ जाया करो। जब देखो जानवरों की तरह नीचे ही चरती रहती हो।” और ऐसा बोल-बोल कर सब के सब खूब हँसते। कैसोवैरी चिड़िया शुरुआत में तो इन बातों का बुरा नहीं मानती थी लेकिन किसी भी चीज की एक सीमा होती है। बार-बार चिढ़ाये जाने से वह बहुत दुखी हो गई। वह उदास बैठ गयी और आसमान की तरफ निहारते हुए बोली, “हे ईश्वर, तुमने मुझे चिड़िया क्यों बनाया। जब मुझे उड़ने की काबिलियत नहीं देनी थी। देखो सब मुझे कितना चिढ़ाते हैं। अब मैं यहाँ एक पल भी नहीं रह सकती, मैं इस जंगल को हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ कर चली जा रही हूँ।” और ऐसा कहते हुए कैसोवैरी चिड़िया जंगल को छोड़कर उड़ने लगी। अभी उसने कुछ दूरी ही तय की थी कि पीछे से एक भारी-भरकम आवाज़ आई, “रुको कैसोवैरी, तुम कहाँ जा रही हो, बहन।” कैसोवैरी आश्चर्यचकित रह गई और उसने पीछे मुड़ कर देखा, वहां खड़ा जामुन का पेड़ उससे कुछ कह रहा था। “कृपया तुम जंगल छोड़कर मत जाओ। हमें तुम्हारी बहुत ज़रुरत है। पूरे जंगल में तुम ही हो जिसकी वजह से हम सबसे अधिक फल-फूल रहे हैं। वो तुम ही हो जो अपनी मजबूत चोंच से फलों को अन्दर तक खाती हो और हमारे बीजों को पूरे जंगल में बिखेरती हो। ऐसा संभव है कि बाकी चिड़ियों के लिए तुम मायने ना रखती हो लेकिन हम पेड़ों के लिए तुमसे बढ़कर सहायक कोई दूसरी चिड़िया नहीं सकती, तुम मत जाओ। तुम्हारी जगह कोई और नहीं ले सकता।” जामुन के पेड़ की बात सुन कर कैसोवैरी चिड़िया को जीवन में पहली बार एहसास हुआ कि उसकी भी इस धरती में किसी को आवश्यकता है वह इस धरती पर बेकार नहीं है, भगवान् ने उसे एक बेहद ज़रूरी काम के लिए भेजा है और सिर्फ न उड़ पाने का गुण बाकी चिड़ियों से उसे छोटा नहीं बनाता। आज एक बार फिर कैसोवैरी चिड़िया बहुत खुश थी, वह ख़ुशी-ख़ुशी अपना दर्द भूलकर जंगल में वापस लौट गयी। सार - हर किसी के अन्दर कोई न कोई ऐसा गुण होता है जो उसे औरों से अलग करता है। हताशा मत पालिए और उसके लिए कार्य कीजिए जिसको आपकी जरूरत है। ******

  • सोने का कंगन

    डॉ. कृष्णा कांत श्रीवास्तव एक जंगल में एक बूढ़ा बाघ रहता था। बुढ़ापे के कारण उसका शरीर जवाब देने लगा था। उसके दांत और पंजे कमज़ोर हो गए थे। उसके शरीर में पहले जैसी शक्ति और फुर्ती नहीं बची थी। ऐसी हालत में उसके लिए शिकार करना दुष्कर हो गया था। वह दिन भर भटकता, तब कहीं कोई छोटा जीव शिकार कर पाता। उसके दिन ऐसे ही बीत रहे थे। एक दिन वह शिकार की तलाश में भटक रहा था। पूरा दिन निकल जाने के बाद भी उसके हाथ कोई शिकार न लगा। चलते-चलते वह एक नदी के पास पहुँचा और पानी पीकर सुस्ताने के लिए वहीं बैठ गया। वह वहाँ बैठा ही था कि उसकी दृष्टि एक चमकती चीज़ पर पड़ी। पास जाकर उसने देखा, तो पाया कि वह एक सोने का कंगन था। सोने का कंगन देखते ही उसके दिमाग में शिकार को अपने जाल में फंसाने का एक उपाय सूझ गया। वह सोने का कंगन हर आने-जाने वाले राहगीर को दिखाता और उसे यह कहकर अपने पास बुलाता, “मुझे ये सोने का कंगन मिला है। मैं इसका क्या करूंगा? मेरे जीवन के कुछ ही दिन शेष है। सोचता हूँ इसका दान कर कुछ पुण्य कमाँ लूं। ताकि कम से कम मरने के बाद मुझे स्वर्ग की प्राप्ति हो। मेरे पास आओ और ये कंगन ले लो।” बाघ जैसे ख़तरनाक जानवर का भला कौन विश्वास करता? कोई उसके पास नहीं आया और दूर से ही भाग खड़ा हुआ। बहुत देर हो गई और कोई सोने के कंगन के लालच में उसके पास नहीं आया। बाघ को लगने लगा कि उसका उपाय काम नहीं करने वाला है। तभी नदी के दूसरी किनारे पर उसे एक राहगीर दिखाई पड़ा। बाघ सोने का कंगन हिलाते हुए जोर से चिल्लाया, “महानुभाव! मैं ये सोने का कंगन दान कर रहा हूँ। क्या आप इसे लेकर पुण्य प्राप्ति में मेरी सहायता करेंगे?” बाघ की बात सुनकर राहगीर ठिठक गया। सोने के कंगन की चमक से उसका मन लालच से भर उठा। किंतु उसे बाघ का भी डर था। वह बोला, “तुम एक ख़तरनाक जीव हो। मैं तुम्हारा विश्वास कैसे करूं? तुम मुझे मारकर खा गए तो?” इस पर बाघ बोला, “अपने युवा काल में मैंने बहुत शिकार किया है। लेकिन अब मैं वृद्ध हो चला हूँ। मैंने शिकार करना छोड़ दिया है। मैं पूरी तरह शाकाहारी हो गया हूँ। बस अब मैं पुण्य कमाना चाहता हूँ। आओ मेरे पास आकर ये कंगन ले लो।” राहगीर सोच में पड़ गया। लेकिन लालच उसकी बुद्धि भ्रष्ट कर चुका था। बाघ तक पहुँचने के लिए उसने नदी में छलांग लगा दी। वह तैरते-तैरते दूसरे किनारे पहुँचने ही वाला था कि उसने अपना पैर कीचड़ में धंसा पाया। वहाँ एक दलदल था। दलदल से बाहर निकलने वह जितना हाथ-पैर मारता, उतना ही उसमें धंसता चला जाता। ख़ुद को बचाने के लिए उसने बाघ को आवाज़ लगाई। बाघ तो इसी मौके की तलाश में था। उसने अपने पंजे में दबोचकर राहगीर को दलदल से बाहर खींच लिया और उसके सोचने-समझने के पहले ही उसका सीना चीर दिया। इस तरह सोने के कंगन के लालच में राहगीर अपनी जान गंवा बैठा। सीख – लालच बुरी बाला है। *****

  • मायका

    रमेश कुमार संतोष करवाचौथ को एक दिन ही बचा है। उस का ध्यान बार-बार भैया और भाभी की तरफ जा रहा है। मन होता है, फ़ोन करूँ। परन्तु करती नहीं है। कहीं यह न समझ लें कि लेने के लिए फोन कर रही है। पर फिर भी उस के भीतर भाई और भाभी के फ़ोन को सुनने के लिए उत्सुकता हो रही है। आखिर एक ही शहर में तो रहते हैं। जेठानी के मायके वाले भी आ कर अपनी बेटी को करवाचौथ दे गये हैं। सास के मायके वालों ने भी पैसे ट्रांसफर कर दिए हैं, परन्तु उस के मायके से कोई संदेश नहीं। मां होती थी अपनी बेटी को देने के लिए कोई त्योहार खाली जाने नहीं देती थी। करवाचौथ हो या लोहड़ी या दिवाली वह तो निमानी काश्ती को भी कुछ न कुछ भेज देती थी। पता नहीं क्यों मां बहुत याद आ रही है। कितनी यादें स्मरण हो आई हैं। आज सुबह ही सुबह सासु मां ने भी पैसे दिए थे कि करवाचौथ के लिए वह कुछ खरीद ले, पर पता नहीं उस का मन कुछ भी खरीदने के लिए नहीं हो रहा। बार-बार ध्यान फोन की बैल और गेट की ओर ही जा रहा था। वह कई बार मन को समझा बैठी है कि तुम्हें किसी भी चीज की कमी है, परन्तु न जाने मन क्यों भटक जाता है। रात आठ बजे के करीब उसे पता चलता है कि उसके भाई और भाभी आये हैं। सुनते ही उसकी आंखें भर आईं। नहीं जानती कि उसकी आंखें क्यों भर आईं बहुत सम्भाल रही थी अपने को, परन्तु भाभी के गले मिल कर मन का सारा गुभार निकल गया। भाभी ने भी उस के बालों को सहलाते हुए कहा, "पगली" और उस की आंखें भी भीग गई। आज उसे वह अपनी ननद नहीं अपनी बेटी लग रही थी। और उसे वह भाभी नहीं मां लग रही थी। उसे लगने लगा कि उसका मायका है। ******

  • आत्महत्या

    राजीव रंजन आज कचहरी में एक अजीब सा मुकद्दमा आया था। जिसका फैसला सुनने के लिए इतने लोग आये थे कि कचहरी खचाखच भरी थी। जितने लोग थे उतनी बातें। कोई कह रहा था “उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था। जान बहुत कीमती है भाई। परेशानियां तो आती जाती रहती हैं। जिंदगी गयी तो दुबारा नहीं मिलती।” इसी तरह सभी का अपना अपना तर्क था। आत्महत्या की कोशिश करने वाले नवयुवक को कटघरे में लाया गया। देखने में तो पढ़ा लिखा लगता है और हरकत तो देखो।” लोगों के बीच से आवाज आई। बोलने वाले पर उसकी निगाहें जा कर रुक गयी।वो देख कर चुपचाप मुस्कराया और शांत कटघरे में खड़ा रहा। तभी जज साहब आये और सब खड़े हो गए।कार्यवाही शुरू की गयी। सरकारी वकील ने अपनी दलीलें पेश करनी शुरू की। आत्महत्या की कोशिश शहर के बाहर बहने वाली नदी में की गयी थी। पर वहां लोगों का आना जाना लगा रहता था। इस कारण उसकी जान बचायी जा सकी। पर जब जान बचायी गयी उस वक़्त उसे होश नहीं था। पुलिस को बुलाया गया तो पुलिस कर्मचारी उसे सरकारी अस्पताल ले के गए। वहां जब पुछा गया तो पता चला की उसने जिंदगी से मुक्ति पाने के लिए आत्महत्या की कोशिश की थी। इसके पीछे और किसी का हाथ नहीं है। बहुत जोर देने पर भी उसने और कुछ ना बताया। सरकारी वकील ने कार्यवाही शुरू की – “जज साहब ये शख्स जिसका नाम विश्वास है, ने अपनी आत्महत्या की कोशिश पूरे होश-ओ-हवास में की है। कारण पूछे जाने पर इसका बस इतना कहना है कि ये जिंदगी से आजादी चाहता था। पर ये कानूनन जुर्म है। इसलिए मैं चाहूँगा इसे दफा 309 के तहत 1 साल की सजा दी जाए।” इतना सुनने के बाद भी उसके चेहरे पर एक अजीब सी मुस्कान थी। जज साहब ने पुछा, “क्या तुम्हें अपनी सफाई में कुछ कहना है?” उसने मुसकुराते हुए अपना सर ना में हिलाया। बस फिर क्या बाकी था। जज साहब ने अपना फैसला सुनाया और उसे 1 साल कैद की सजा हुयी। उसे जेल में ले जाया गया। धीरे-धीरे दिन बीतने लगे। उसकी जेल के अन्य कैदियों से दोस्ती हो गयी थी। सब बड़े दिलवाले थे। कोई चोरी करते पकड़ा गया था, तो कोई क़त्ल कर के आया था। सब में अच्छी बनती थी वहां, एक दूसरे के हमदर्द से बन गए थे सब। सब एक दूसरे से अपने दिल की बातें किया करते थे। अचानक एक दिन किसी ने उससे पूछा, “तुमने बताया नहीं कि तुमने मरने की कोशिश क्यों की और कोशिश की तो फिर नदी में क्यों कोई और तरीका क्यों नहीं अपनाया?” “और किसी तरीके से शायद मैं बस बच ना पाता।” “क्या मतलब?” “मैं स्टेट लेवल चैंपियन हूँ तैराकी का।” इतना सुनते ही सब के होश उड़ गए कि ये क्या बोल रहा है। उसने बोलना जारी रखा। “बचपन से ही मैं गरीबी देखता आया हूँ। जिसने जीवन में डूबता हुआ पाया गया था उसी नदी में तैरना सीख कर मैंने 50 से ज्यादा मेडल जीते हैं और उस नदी में कैसे डूब सकता था। मैंने यह कदम अपनी गरीबी के चलते उठाया। जिसके कारण मेरे पास खाने को एक वक्त की रोटी नहीं थी और ना ही कोई काम मिल रहा था। तभी अचानक मैंने सोचा कि क्यों ना आत्महत्या कर लूँ। फिर याद आया कि आत्महत्या गैर कानूनी है। और 1 साल की सजा है। इसलिए मैंने ये सब किया और अब दफा 309 के तहत मेरे सर पर छत है, खाने को 2 वक्त की रोटी है। और तो और यहाँ पर अगर बीमार भी होता हूँ तो फ्री में इलाज है। बस इसीलिए यहाँ आ गया।” इतना सुनते ही सब असमंजस में पड़ गए कि हंसे या अफ़सोस जताएं। तभी रात के खाने के लिए सबको आवाज दी गयी और सब अपनी-अपनी थाली उठा कर चल पड़े। शिक्षा - देश के लिए विश्वास जैसे बहुत से खिलाड़ियों ने मैडल जीते हैं। लेकिन बहुत से ऐसे भी खिलाड़ी है जो गरीबी में जी रहे हैं, ऐसे खिलाड़ियों के लिए सरकार को पेंशन दी जानी चाहिए जो देश के लिए खेलता है मैडल जीतता है। औऱ हम आम नागरिकों को भी सहयोग करना चाहिए। ******

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