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  • एक बार तो सोचती

    विभा गुप्ता रत्ना के हाथ रखने से पहले ही उसके ननदोई श्रीधर ने अपना हाथ पुस्तक पर से हटा लिया तो वह तिलमिला गई। अपनी इच्छा पर पानी फिरते देख उसने श्रीधर को नीचा दिखाने का ठान लिया। आठ साल पहले रत्ना की छोटी ननद दीपाली के साथ श्रीधर का विवाह हुआ था। श्रीधर शहर के नामी कॉलेज़ में इतिहास के प्रोफ़ेसर थें। देखने में हैंडसम, स्वभाव के सरल श्रीधर का कॉलेज़ में बहुत सम्मान था। उनके बारे में कहा जाता था कि एक बार चाँद में दाग हो सकता है लेकिन श्रीधर के चरित्र पर नहीं। उनके चरित्र पर ऊँगली उठाना तो चाँद पर थूकने के समान है। शादी के बाद श्रीधर जब भी अपने ससुराल आते तो रत्ना उनकी खूब खातिरदारी करती। शुरु-शुरु में उन्होंने सोचा कि बड़ी सलहज है तो लेकिन फिर उन्हें रत्ना की नीयत में खोट नज़र आने लगा। इस बारे में उन्होंने दीपाली से कहा तो उसने हँसकर टाल दिया। श्रीधर का बेटा जब पाँच बरस का था तो एक असाध्य बीमारी के कारण दीपाली की मृत्यु हो गई। घर में माँ और छोटी बहन थी, इसलिये उन्होंने दूसरे विवाह के बारे में सोचा नहीं। जब भी समय मिलता तो वे अपने बेटे को लेकर ससुराल आ जाते ताकि वह अपने ननिहाल वालों के साथ समय बिता सके। उस समय रत्ना श्रीधर के स्पर्श का कोई न कोई बहाना ढ़ूँढ लेती। रिश्तों का लिहाज़ करके श्रीधर चुप रह जाते जिससे रत्ना के हौंसले बुलंद थें। आज फिर से जब श्रीधर ने उसे हताश कर दिया तो उसने अपने पति से कहा कि आपके बहनोई की नीयत ठीक नहीं है। वे जब भी यहाँ आते हैं तो गाहे-बेगाहे मुझे छूने का...। "बस भी करो रत्ना...अपनी नहीं, तो उनकी प्रतिष्ठा का तो ख्याल करो। वे एक सम्मानित प्रोफ़ेसर ही नहीं, इस घर के दामाद भी हैं। शर्म आनी चाहिये तुम्हें।" पति की डाँट का उस पर कोई ख़ास असर नहीं हुआ। कुछ दिनों बाद यही बात उसने अपनी सास से भी कही। लेकिन सास ने भी उसकी बात अनसुनी कर दी क्योंकि उन्हें अपने दामाद पर पूरा भरोसा था। एक दिन दसवीं में पढ़ने वाली रत्ना की बेटी काजल शाम तक स्कूल से नहीं लौटी। स्कूल में फ़ोन करने पर पता चला कि अपनी सहेलियों के साथ वह स्कूल से जा चुकी है। अब तो रत्ना बहुत घबराई पति को बोली कि पुलिस को फ़ोन कीजिये कहीं कुछ गलत। तभी काजल श्रीधर के साथ घर आई। सबने दोनों पर प्रश्नों की झड़ी लगा दी, कहाँ रह गई थी, क्या हुआ। तब काजल ने रत्ना को बताया कि मम्मी, रास्ते में दो लड़कों ने मेरा रास्ता रोक लिया था। वे मेरे साथ बत्तमीज़ी करने लगे थें। तभी फूफ़ाजी आ गये और मुझे उन बदमाशों के चंगुल से बचाया। मम्मी, आज फूफ़ाजी न होते तो...।" और वह रोने लगी। तब रत्ना का पति बोला, "रत्ना, श्रीधर के कारण ही आज तुम्हारी बेटी सुरक्षित घर लौटी है और तुम उन्हीं पर। चाँद पर थूकने से पहले एक बार तो सोचती।" "जी, मुझे माफ़ कर दीजिये।" कहते हुए उसने अपनी गरदन नीची कर ली। तभी श्रीधर मुस्कुराते हुए बोले, "क्यों भाभी, अपने ननदोई को चाय नहीं पिलाएँगी।" "अभी लाई....।" रत्ना के कहते ही सभी मुस्कुरा उठे। ******

  • कितना मुश्किल है...

    सन्दीप तोमर   एक लंबे अरसे से करती रही थी वह मिलने की फरमाइश वक़्त टालता रहा था हमारे मिलने को उसने फिर कहा- बस बातें ही करते हो मिलना कब होगा तुमसे   फिर वक़्त ने कर दिया प्रबंध मिलने का और तय हुआ समय, स्थान सब वह तय समय मिलने पहुँच गयी थी उसने चुना होगा बहुत सी पोशाको में से किसी एक को घण्टों देखा होगा खुद को आईने में उसकी चुनी हुई पोशाक में वह षोढसी लग रही थी उसे इंतज़ार करते हुए मैंने निहारा था कुछ पल   पास जाकर बढ़ाया था हाथ उसने थाम लिए अंगुली के पोर अपनी अंगुलियों में   हम बढ़ चले एक केफिटेरिया की ओर बैठने के बाद वो देखती रही थी मुझे एक टक बातों के बीच यकायक आ जाता एक मौन   उसे लगा जैसे मेरे मौन हो जाने में कोई तीसरा आ उपस्थित हुआ है उसने कहा- खुश नहीं हो तो चले वापिस मैं झेंप गया उस पल हॉट कॉफी के कप बढ़ा न पाए मन की गर्माहट   उसने असहज हो, कहा- कितना मुश्किल है टूटे दिल इंसान से डेट करना उफ़्फ़ कैसे ढोते हो खुद के अंदर दो-दो प्रेमी ऐसा करो, जब उस तीसरे शख़्स के बिना आ पाओ वो समय तय करना मिलने को पुरानी प्रेमिका को हृदय में रख नहीं कर पाओगे डेट और मैं उसकी अंगुली के पोर देखता रहा एकटक मेरे हाथ बढ़ गए उन्हें फिर से छूने को। *****

  • फर्ज

    मंजू लता ये क्या कर रही हो निशा तुम। अपनी पत्नी निशा को कमरे में एक और चारपाई बिछाते देख मोहन ने टोकते हुए कहा। निशा - मां के लिए बिस्तर लगा रही हूं आज से मां हमारे पास सोएगी। मोहन – क्या, तुम पागल हो गई हो क्या? यहां हमारे कमरे में, और हमारी प्राइवेसी का क्या? और जब अलग से कमरा है उनके लिए तो इसकी क्या जरूरत। निशा - जरूरत है मोहन, जब से बाबूजी का निधन हुआ है तबसे मां का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। तुमने तो स्वयं देखा है, पहले बाबूजी थे तो अलग कमरे में दोनों को एकदूसरे का सहारा था। मगर अब, मोहन बाबूजी के बाद मां बहुत अकेली हो गई है। दिन में तो मैं आराध्या और आप उनका ख़्याल रखने की भरपूर कोशिश करते हैं ताकि उनका मन लगा रहे। वो अकेलापन महसूस ना करे मगर रात को अलग कमरे में अकेले, नहीं वो अबसे यही सोएगी। मोहन - मगर अचानक ये सब, कुछ समझ नहीं पा रहा तुम्हारी बातों को। निशा - मोहन हर बच्चे का ध्यान उसके माता पिता बचपन में रखते हैं। सब इसे उनका फर्ज कहते हैं। वैसे ही बुढ़ापे में बच्चों का भी तो यही फर्ज होना चाहिए ना और मुझे याद है मेरा तो दादी से गहरा लगाव था। मगर दादी को मम्मी पापा ने अलग कमरा दिया हुआ था। और उस रात दादी सोई तो सुबह उठी ही नहीं। डाक्टर कहते थे कि आधी रात उन्हें अटैक आया था। जाने कितनी घबराहट परेशानी हुई होगी और शायद हम में से कोई वहां उनके पास होता तो शायद दादी कुछ और वक्त हमारे साथ। मोहन जो दादी के साथ हुआ वो मै मां के साथ होते हुए नहीं देखना चाहती और फिर बच्चे वहीं सीखते हैं जो वो बड़ो को करते देखते हैं। मैं नहीं चाहती कल आराध्या भी अपने ससुराल में अपने सास ससुर को अकेला छोड़ दे। उनकी सेवा ना करें। आखिर यही तो संस्कारों के वो बीज है जोकि आनेवाले वक्त में घनी छाया देनेवाले वृक्ष बनेंगे। मोहन उठा और निशा को सीने से लगाते बोला - मुझे माफ करना निशा। अपने स्वार्थ में, मैं अपनी मां को भूल गया। अपने बेटे होने के फर्ज को भूल गया और फिर दोनों मां के पास गए और आदरपूर्वक उन्हें अपने कमरे में ले आए....!! ******

  • सबसे प्रेम किया

    नवीन रांगियाल   मैं उन सीढ़ि‍यों से भी प्रेम करता हूँ जिन पर चलकर उससे मिलने जाया करता था और उस खिड़की से भी जिसके बाहर देखती थीं उसकी उदास आँखें मुझे अब भी उस अँधेरे से प्रेम है जिसके उजालों में चलकर पहुँचा था उसके पास मैंने उन सारी चीज़ों से प्रेम किया जो उसके हाथों से छुई गई थीं  कभी न कभी जैसे दीवार काजल लगा आईना कपड़े सुखाने की रस्‍सियाँ कमरे की चाबियाँ और कमरे की सारी खूँटियाँ  जहाँ हमने अपनी प्रार्थनाएँ लटकाई थीं कभी मैंने अलमारी में लटके उन सारे हैंगर्स से भी प्रेम किया जिनमें सफ़ेद झाग वाले सर्फ़ की तरह महकते थे उसके हाथ मैंने उन सारी चीज़ों से प्रेम किया जिन्‍हें उसके तलवों ने छुआ था जैसे पृथ्‍वी जैसे यह सारा संसार इस तरह मैंने दुनिया की हर एक चीज़ से प्रेम किया— उसके प्रेम में। *****

  • बहू की बंदिशे

    संगीता शर्मा आशी आज बहुत गुस्से में थी, और होती भी क्यों ना? उसे लगता था, मोहल्ले की सभी बहुओं में सबसे ज्यादा दुखी वही है।   शाम को जब अभिषेक आशी के पति घर आए तो आशि का सारा गुस्सा उन पर निकला।    आशी ने कहा सारे घर का काम मुझे ही करना पड़ता हैl अब सामने वाले पड़ोसी शर्मा अंकल की बहू को देखो वह तो कभी नहीं निकलती बाहर उसे तो कभी भी बाहर जाते हुए भी नहीं देखा हैl और एक मैं जो दिन भर घर के कामों से स्कूटी लेकर बाजारों में घूमती रहती हूंl और आकर फिर घर का काम करो खाना बनाओ और तो और बच्चों की सारी जिम्मेदारी भी मेरे ऊपर हैl आपसे तो इतना भी नहीं होता कि बच्चों की स्कूल की डायरी भी चेक कर ले। वह भी मुझे ही करनी है, आशी गुस्से में सारी बातें अभिषेक को बोले जा रही थीl और अभिषेक चुपचाप खड़े हुए चेहरे पर थोड़ी सी मुस्कान लिए उसे हाव भाव दे रहे थेl अभिषेक के मजाक के हाव भाव देखकर आशी और ज्यादा नाराज हो गई। और चिल्लाते हुए बोली, सही है आपका यहां में जल रही हूं और आप मेरे मजे ले कर हंस रहे होl तब अभिषेक ने हंसते हुए कहा यार आशी अब तुम्हारी इन बेकार की बातों पर हंसी नहीं तो क्या सीरियस हूं? तुम अपनी तुलना शर्मा अंकल की बहू से कर रही हो? तुम्हें पता है शर्मा अंकल और आंटी दोनों अपनी बहू को घर से बाहर खड़ा तो होने नहीं देतेl वह बाहर कैसे निकलेगी? तुम तो शुक्र करो तुम्हारे ऊपर ऐसी कोई बंदिश नहीं है। तुम चाहे जहां जाओ और तुम्हारा मन करे वह पहनो फिर भी तुम संतुष्ट नहीं हो। तब आशी ने कहा यह कोई आजादी है मेरी..l सारे दिन लगे रहो बाजारों मेंl मैं भी चाहती हूं कि कभी-कभी मुझे किसी चीज के लिए बाजार जाने का मन ना करें तो वह चीज तुम मुझे लाकर घर पर दे दो। पर तुमसे तो उम्मीद करना ही बेकार है। तभी तो मेरा एक पैर घर में होता है और एक पैर बाजार में। तब अभिषेक ने कैसे जैसे आशी को मनाया और फिर रात का खाना खाकर सब सो गए। अगले दिन आशी किसी काम से बाजार के लिए निकली ही थी, तभी उसे आवाज आई..l दीदी इधर देखो...! आशी आवाज सुनकर भी अपना वहम समझकर आगे बढ़ने लगी। फिर दोबारा उसे वही आवाज आई तब उसने देखा शर्मा अंकल की बहू अपने कमरे की खिड़की से उसे आवाज दे रही थी। जब आशी ने उसकी तरफ देखा तो उसने इशारा करते हुए अपने पास बुलाया और कहा भाभी क्या आप मुझे लाल रंग की नेल पॉलिश ला दोगे? मैंने अपने पति से कहा था पर उनके पास समय की कमी होने की वजह से उन्होंने मुझे टाल दिया था। कहा कभी और बाद में ला दूंगा। तब आशी ने कहा अरे तो ऐसा करो तुम चलो ना मेरे साथ। तुम बाजार भी घूम आओगी और तुम्हें जो भी सामान चाहिए वह ले लेना और साथ में अपन दोनों गोल गप्पे भी खाएंगे..!!! इतना सुनते ही शर्मा अंकल की बहू की आंखों में आंसू आ गए और बोली दीदी मेरी किस्मत आपकी जैसी नहीं है। मैं अपनी पसंद से कुछ भी नहीं खरीद सकती हूं। जो भी कुछ घर वाले अपनी पसंद से लाकर देते हैं वही पहन लेती हूं l मैं बहू हूं ना तो यह लोग मुझे कहते हैं बहू तुम चारदीवारी में ही रहो। तभी हमारे घर की शोभा है। आज के जमाने में भी मेरी सांस मुझे घर से बाहर जाने नहीं देती है, और ना ही पड़ोस में किसी से बात करने देती है। तभी पीछे से आवाज आई बहू.....!!! और वह अपनी अधूरी बातों को बिना पूरा करे ही अंदर चली गई। और उसके अंदर जाने के बाद, आशी यह सोचने पर मजबूर हो गई कि किस्मत किसकी खराब निकली? मेरी कि मुझे अपने घर और बाहर दोनों का काम संभालना पड़ता है। या शर्मा अंकल की बहू की जो अपने घर के बाहर भी खड़ी नहीं हो सकती है। आशी सोचने लगी कि मैं तो हमेशा यही सोचती थी कि, शर्मा अंकल की बहू के तो ऐश है जो, उसे घर पर बैठे बिठाए हर सामान मिल जाता है। पर आज वह अपनी किस्मत को सराह रही थी, क्योंकि चाहे काम के बहाने ही सही वह घर से बाहर निकल तो सकती है। जिससे चाहे उससे बात कर सकती है, अपनी पसंद का कुछ भी खरीद सकती है। अगर मुझे ऐसे चारदीवारी में कैद कर दिया जाता तो आज वह भी ऐसे ही तड़पती जैसे शर्मा अंकल की बहू आज झटपटा रही है। आज आशी को समझ आ गया था कि जैसा हमें दूर से दिखाई देता है सच्चाई में अक्सर ऐसा होता नहीं है। ******

  • रेशमा का घर

    भगवती प्रसाद वर्मा मेरी शादी को लगभग 6 महीने हो चुके थे। अपनी पसंद की शादी करने के लिए मैंने बहुत पापड़ बेले थे। हमारे घर में यह पहली एक ऐसी शादी थी, जो घर वालों की मर्जी से नहीं हुई थी। लड़की मैंने खुद पसंद की थी। मुश्किल तो बहुत आई सभी को मनाने में, पर बहुत कोशिश करने के बाद मां-बाबा मान गए और फिर बाकी रिश्तेदारों को भी धीरे-धीरे उन्होंने मना लिया। मैंने अपनी मर्जी से शादी तो कर ली, परंतु 6 महीने के बाद कुछ ऐसा महसूस हो रहा है, जैसे बहुत सारी बातों को मैंने नजर अंदाज कर दिया। जो कि परिवार में रहने के लिए लाजमी होती हैं। मां ने तो बहुत समझाया था, परंतु मैंने अपनी जिद् पकड़ रखी थी, तो फिर मां बाबा भी मान गए थे। आज 6 महीने बाद जब बैठकर उन सारी बातों का निचोड़ निकालता हूं तो समझ में आता है कि बहुत कमी रह गई.. जो कि पहले नजर नहीं आई। रेशमा जब हमारे घर में नई-नई आई थी, तो मां बाबा ने काफी प्यार दिया और घर के रीति रिवाज सीखाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। परंतु रेशमा ने काफी जगह पर बचपना दिखाया। वह शादी से पहले जैसा बर्ताव करती थी, शादी के बाद भी वैसी ही रही। उसने कभी भी यह महसूस नहीं किया कि अब वह एक परिवार में है। परिवार में रहकर हमें कुछ जिम्मेदारियां निभानी पड़ती हैं। मां आए दिन मुझे कहती रहती थी कि "बेटा तुम्हारी बहू सजने सवरने पर ज्यादा ध्यान देती है, और घर के काम में उसका योगदान बहुत कम है... वैसे तो पहले भी यह सब काम मैं करती थी, परंतु बहू के आने के बाद थोड़ा बहुत आराम तो मिलना ही चाहिए।" मैं सोच में पड़ जाता था कि अब रेशमा को क्या कहूं ....क्योंकि बच्चों को तो समझाया जा सकता है, परंतु ऐसा इंसान जिसकी शादी हो चुकी है, उसको यह छोटी-छोटी बातें क्या ही समझाई जाएं। आखिर एक दिन मैंने रेशमा को अपने पास बैठा ही लिया और पूछने लगा कि "रेशमा तुम जो खाना खाती हो वह कौन बनाता है?" तो उसने जवाब दिया, "मां बनती है।" फिर मैंने पूछा, "कपड़े कौन धोता है?" तो उसने जवाब दिया: "मां धोती है।" फिर मैंने पूछा, "घर की साफ सफाई कौन करता है?" तो उसने कहा, "मां करती है।" फिर मैंने उससे पूछा, "तुम दिन भर क्या करती हो? तुम्हारा मन कमरे में उदास नहीं होता?" तो उसने जवाब दिया, "मैं आपके दफ्तर जाने के बाद अपना कमरा ठीक करती हूं, और फिर नहा कर तैयार हो जाती हूं। फिर मां जी नाश्ते के लिए आवाज देती है, और मैं नाश्ता करके फिर अपने कमरे में आ जाती हूं और उसके बाद कुछ देर टेलीविजन देख लेती हूं या फिर इंटरनेट पर कुछ शो देख लेती हूं। जब तक शाम हो जाती है और आप आ जाते हो" फिर मैंने रेशमा से कहा, "यदि हम मां बाबा से अल्ग रहे तो कैसा होगा?" तो उसने कहा, "यह तो अच्छा ही होगा। कम से काम मैं खुलकर जी तो पाऊंगी।" मैंने रेशमा से कहा, "तो अभी तुम्हारे जीवन में क्या दिक्कत है?" तो उसने कहा, "मुझसे मिलने मेरी सहेलियां नहीं आ सकती उन्हें मेरी सास से डर लगता है और मुझे भी कहीं जाना हो तो बहुत बार पूछना पड़ता है। बहुत बंधन सा लगता है।" फिर मैंने उससे पूछा कि "जब हम अलग रहेंगे तो, फिर मां तो वहां नहीं होगी, तो तुम खाना कैसे खाओगी? तुम्हें खाना कौन बना कर देगा?" तो उसने कहा, "हम नौकर रख लेंगे।" फिर मैंने उससे कहा कि क्या तुम मेरे घर को अपना घर नहीं समझती हो? उसने कहा क्यों नहीं समझती जब आप मेरे हो तो, आपका सब कुछ मेरा है। तो फिर मैंने कहा, कि जब घर तुम्हारा है, तो तुमसे अधिक उसका ध्यान और कौन रख सकता है? क्या तुम मुझे भी किसी और को सौंप सकती हो? जैसे तुमने वह घर नौकरों के हवाले सौंपने की बात की। तो उसने कहा, बिल्कुल नहीं यह तो बहुत गलत बात हो जाएगी। फिर मैंने कहा, ऐसे ही मेहनत करके जो घर हमने बनाया है और मेहनत करके जो अनाज हम घर में ला रहे हैं, उसे पकाने में या उस घर की देखभाल करने में तुम अपना योगदान नहीं दे रही है। मतलब तुम सिर्फ खुद से ही प्यार करती हो और मुझे नहीं" तब लगा कि शायद रेशमा के दिमाग में बातें समझ में आई क्योंकि उसकी आंखें थोड़ी सी नम हो गई थी। वह बुरी लड़की नहीं थी, बस थोड़ा बचपना था और बिन मां-बाप की बच्ची थी, इसलिए घरेलू लोगों के साथ कैसे रहा जाता है, वह नहीं जानती थी। मैंने उसे समझाया कि मां पहले भी घर का सारा काम करती थी क्योंकि वह इस घर को अपना समझती है। तो यदि तुम भी उनके साथ मिलकर काम कर लिया करो तो कुछ समय मां भी आराम कर लेगी। मिलजुल कर काम करने से काम जल्दी खत्म हो जाता है। काम किसी बाहर के लोगों का नहीं है, वह तो हमारे अपने घर का ही है और जब जरूरत होगी तो हम घर में नौकर भी रख लेंगे। जो तुम लोगों की मदद कर दिया करेगा परंतु ऐसे पूरा दिन अपने कमरे में बैठे रहना और बस सजना सवरना या फिर अपना मनोरंजन करना तो, यह अच्छी बात नहीं है। क्योंकि मां भी पूरा दिन काम में उलझी रहती है उनका भी मन करता है कुछ समय आराम करने का। रेशमा को कुछ शर्मिंदगी महसूस हुई और वह मां के पास जाकर बात करने लगी। मां ने उसे प्यार से गले लगा लिया। अगले दिन से रेशमा मां के साथ मदद करवाने लगी और घर के काम खत्म करके दोनों अपने-अपने कमरे में आराम करती थी। कहीं ना कहीं मेरे मन पर भी जो भार चढ़ गया था, वह भी कुछ खाली हो गया क्योंकि मुझे लगा कि मैंने जो अपनी मर्जी से शादी की है, उससे मैंने घर वालों को किसी मुसीबत में डाल दिया। परंतु रेशमा ने मेरा मन हल्का कर दिया और घर वाले भी कुछ चिंता मुक्त हो गए। *****

  • नया मकान

    संतोष कुमार पटेल "भैया, परसों नये मकान पर हवन है। छुट्टी (इतवार) का दिन है। आप सभी को आना है, मैं गाड़ी भेज दूँगा।" छोटे भाई लक्ष्मण ने बड़े भाई भरत से मोबाईल पर बात करते हुए कहा। "क्या छोटे, किराये के किसी दूसरे मकान में शिफ्ट हो रहे हो?" "नहीं भैया, ये अपना मकान है, किराये का नहीं।" “अपना मकान”, भरपूर आश्चर्य के साथ भरत के मुँह से निकला। "छोटे तूने बताया भी नहीं कि तूने अपना मकान ले लिया है।" "बस भैया", कहते हुए लक्ष्मण ने फोन काट दिया। "अपना मकान", "बस भैया" ये शब्द भरत के दिमाग़ में हथौड़े की तरह बज रहे थे। भरत और लक्ष्मण दो सगे भाई और उन दोनों में उम्र का अंतर था करीब पन्द्रह साल। लक्ष्मण जब करीब सात साल का था तभी उनके माँ-बाप की एक दुर्घटना में मौत हो गयी। अब लक्ष्मण के पालन-पोषण की सारी जिम्मेदारी भरत पर थी। इस चक्कर में उसने जल्द ही शादी कर ली कि जिससे लक्ष्मण की देख-रेख ठीक से हो जाये।

  • क्या ये ही जिंदगी है?

    डॉ. कृष्णा कांत श्रीवास्तव जीवन के 20 साल हवा की तरह उड़ गए। फिर शुरू हुई नौकरी की खोज। ये नहीं वो, दूर नहीं पास। ऐसा करते करते 2-3 नौकरियाँ छोड़ते एक तय हुई। थोड़ी स्थिरता की शुरुआत हुई। फिर हाथ आया पहली तनख्वाह का चेक। वह बैंक में जमा हुआ और शुरू हुआ अकाउंट में जमा होने वाले शून्यों का अंतहीन खेल। 2-3 वर्ष और निकल गए। बैंक में थोड़े और शून्य बढ़ गए। उम्र 25 हो गयी। और फिर विवाह हो गया। जीवन की राम कहानी शुरू हो गयी। शुरू के एक 2 साल नर्म, गुलाबी, रसीले, सपनीले गुजरे। हाथों में हाथ डालकर घूमना फिरना, रंग बिरंगे सपने। पर ये दिन जल्दी ही उड़ गए। और फिर बच्चे के आने ही आहट हुई। वर्ष भर में पालना झूलने लगा। अब सारा ध्यान बच्चे पर केन्द्रित हो गया। उठना बैठना खाना पीना लाड दुलार। समय कैसे फटाफट निकल गया, पता ही नहीं चला। इस बीच कब मेरा हाथ उसके हाथ से निकल गया, बातें करना घूमना फिरना कब बंद हो गया दोनों को पता ही न चला। बच्चा बड़ा होता गया। वो बच्चे में व्यस्त हो गयी, मैं अपने काम में। घर और गाडी की क़िस्त, बच्चे की जिम्मेदारी, शिक्षा और भविष्य की सुविधा और साथ ही बैंक में शुन्य बढाने की चिंता। उसने भी अपने आप काम में पूरी तरह झोंक दिया और मैंने भी। इतने में मैं 35 का हो गया। घर, गाडी, बैंक में शुन्य, परिवार सब है फिर भी कुछ कमी है? पर वो है क्या समझ नहीं आया। उसकी चिड चिड बढती गयी, मैं उदासीन होने लगा। इस बीच दिन बीतते गए। समय गुजरता गया। बच्चा बड़ा होता गया। उसका खुद का संसार तैयार होता गया। तब तक दोनों ही चालीस बयालीस के हो गए। बैंक में शुन्य बढ़ता ही गया। एक नितांत एकांत क्षण में मुझे वो गुजरे दिन याद आये और मौका देख कर उससे कहा "अरे जरा यहाँ आओ, पास बैठो। चलो हाथ में हाथ डालकर कही घूम के आते हैं।" उसने अजीब नजरों से मुझे देखा और कहा कि "तुम्हें कुछ भी सूझता है यहाँ ढेर सारा काम पड़ा है तुम्हें बातो की सूझ रही है।" कमर में पल्लू खोंस वो निकल गयी। तो फिर आया पैंतालिसवा साल, आँखों पर चश्मा लग गया, बाल काला रंग छोड़ने लगे, दिमाग में कुछ उलझने शुरू हो गयी। बेटा उधर कॉलेज में था, इधर बैंक में शुन्य बढ़ रहे थे। देखते ही देखते उसका कॉलेज ख़त्म। वह अपने पैरो पे खड़ा हो गया। उसके पंख फूटे और उड़ गया परदेश। उसके बालो का काला रंग भी उड़ने लगा। कभी-कभी दिमाग साथ छोड़ने लगा। उसे चश्मा भी लग गया। मैं खुद बुढा हो गया। वो भी उमरदराज लगने लगी। दोनों पचपन से साठ की और बढ़ने लगे। बैंक के शून्यों की कोई खबर नहीं। बाहर आने जाने के कार्यक्रम बंद होने लगे। अब तो गोली दवाइयों के दिन और समय निश्चित होने लगे। बच्चे बड़े होंगे तब हम साथ रहेंगे सोच कर लिया गया घर अब बोझ लगने लगा। बच्चे कब वापिस आयेंगे यही सोचते सोचते बाकी के दिन गुजरने लगे। एक दिन यूँ ही सोफे पे बेठा ठंडी हवा का आनंद ले रहा था। वो दिया बाती कर रही थी। तभी फोन की घंटी बजी। लपक के फोन उठाया। दूसरी तरफ बेटा था। जिसने कहा कि उसने शादी कर ली और अब परदेश में ही रहेगा। उसने ये भी कहा कि पिताजी आपके बैंक के शून्यों को किसी वृद्धाश्रम में दे देना। और आप भी वही रह लेना। कुछ और औपचारिक बातें कह कर बेटे ने फोन रख दिया। मैं पुन: सोफे पर आकर बैठ गया। उसकी भी दिया बाती ख़त्म होने को आई थी। मैंने उसे आवाज दी "चलो आज फिर हाथों में हाथ लेके बात करते हैं।" वो तुरंत बोली "अभी आई"। मुझे विश्वास नहीं हुआ। चेहरा ख़ुशी से चमक उठा। आँखे भर आई। आँखों से आंसू गिरने लगे और गाल भीग गए। अचानक आँखों की चमक फीकी पड़ गयी और मैं निस्तेज हो गया। हमेशा के लिए!! उसने शेष पूजा की और मेरे पास आके बैठ गयी "बोलो क्या बोल रहे थे?" लेकिन मैंने कुछ नहीं कहा। उसने मेरे शरीर को छू कर देखा। शरीर बिलकुल ठंडा पड गया था। मैं उसकी और एकटक देख रहा था। क्षण भर को वो शून्य हो गयी। "करूँ?" उसे कुछ समझ में नहीं आया। लेकिन एक दो मिनट में ही वो चेतन्य हो गयी। धीरे से उठी पूजा घर में गयी। एक अगरबत्ती की। ईश्वर को प्रणाम किया। और फिर से आके सोफे पर बैठ गयी। मेरा ठंडा हाथ अपने हाथो में लिया और बोली, "चलो कहाँ घुमने चलना है तुम्हें? क्या बातें करनी हैं तुम्हें?" बोलो!! ऐसा कहते हुए उसकी आँखे भर आई!!...... वो एकटक मुझे देखती रही। आँखों से अश्रु धारा बह निकली। मेरा सर उसके कंधो पर गिर गया। ठंडी हवा का झोंका अब भी चल रहा था। क्या ये ही जिन्दगी है? नहीं?? जीवन अपना है तो जीने के तरीके भी अपने रखें। शुरुआत आज से करें। क्योंकि कल कभी नहीं आएगा....!!! ******

  • आत्मघाती कदम

    श्याम आठले मैं ऑफिस के काम से मुंबई गया था। वैसे तो ऑफिस की तरफ से रुकने की व्यवस्था थी पर मित्र आकाश की ज़िद के आगे हार मानकर शनिवार-इतवार छुट्टी के दिन मित्र के फ्लैट पर रुकने को मुझे मानना पड़ा। आज पहले इतवार को मैं उसके यहां गया। मित्र किसी काम से बाहर गया था। फ्लैट पर मैं, भाभी जी और मित्र का 13 वर्षीय सुपुत्र अर्जुन था। शायद अर्जुन बगल के कमरे में अपना होम वर्क कर रहा था। वह बार-बार कहता अलेक्सा साल्व दिस और प्रश्न पढ़ देता अगले ही पल लड़की की आवाज में प्रश्न का जवाब आ जाता। उस जवाब को अर्जुन हूबहू अपनी नोट बुक में लिख लेता। इसी प्रकार गणित के सवाल भी उसने जल्दी ही हल कर लिए। मित्र आकाश के आने के पहले-पहले उसने फटाफट अपना होम वर्क कर लिया। मित्र को पता भी नहीं चला कि उसके पीठ पीछे क्या हो रहा था। भाभी जी भी रसोई में व्यस्त थीं। फिर वो अलेक्सा से यहां-वहाँ के ऊलजलूल प्रश्न पूछने लगा। उसके प्रश्नों ने मुझे मजबूर किया और मैंने कमरे में झाँका कि आखिर ये बात किससे कर रहा है। वह एक छोटा गोल सा यंत्र था जो इंटरनेट से चलता था। पावर पूर्ती के लिए प्लग लगा हुआ था। उसी यंत्र को अर्जुन बार-बार आदेश देता अलेक्सा के नाम से और वो जवाब देती। होमवर्क के बाद उसके प्रश्न थे, गर्ल फ्रेंड को कैसे रिझाएँ, गर्लफ्रेंड पटाने के आसान नुस्खे, दोस्तों को कैसे डराएं, उनपर अपना रौब कैसे जमाएं। इसी तरह के और भी प्रश्नों के उत्तर मांग रहा था। आखिर मुझसे रहा नहीं गया और मैंने कमरे में प्रवेश करते हुए कहा, "कहो अर्जुन क्या हो रहा है? वो सकपका गया और बोला, "कुछ नहीं अंकल जी अपना होम वर्क कर रहा था।" "और ये अलेक्सा कौन है जिससे पूछकर तुम होम वर्क कर रहे थे।" "अरे अंकल आपने सुन लिया! प्लीज पापा जी को मत बताइए कि मैंने अलेक्सा की मदद से होम वर्क किया। दर असल मुझे क्रिकेट का मैच खेलने जाना था और अपने मन से होम वर्क करता तो ज्यादा टाइम लगता।" मैं बोला, "मैं पापा जी से नहीं बताऊंगा पर तुम्हें एक वादा करना होगा कि अब आज के बाद फिर कभी तुम अलेक्सा की मदद से होम वर्क नहीं करोगे। तुमने 'आपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने' वाली कहावत तो सुनी ही होगी। यहांपर वही कहावत चरित्रार्थ हो रही है। तुम्हारा होम वर्क तो ठीक हो जायेगा पर क्या परीक्षा में अलेक्सा आएगी बताने? वहां तो आपके दिमाग में जो होगा वही उत्तर कॉपी पर उतरेगा। अलेक्सा की मदद से होमवर्क करना आत्मघाती कदम है इसे तुम जितनी जल्दी समझ लो उतना अच्छा है।" अर्जुन दयनीय नज़रों से मेरी तरफ देखता रह गया। मैंने मन मैं सोचा कि आकाश से भी इस विषय में विस्तार से बात करनी होगी कि इस तरह की खतरनाक डिवाइस बच्चों के हाथों में नहीं पड़नी चाहिए, वे इसका किसी भी तरह से दुरूपयोग कर सकते हैं। वैसे आजकल इंटरनेट से युक्त मोबाईल पर भी ये सुविधा उपलब्ध है। अतः इस पर भी नज़र रखना जरूरी है कि बच्चे इसका किस तरह से उपयोग कर रहें हैं। ********

  • मातृभाषा की मौत

    जसिंता केरकेट्टा   माँ के मुँह में ही मातृभाषा को क़ैद कर दिया गया और बच्चे उसकी रिहाई की माँग करते-करते बड़े हो गए। मातृभाषा ख़ुद नहीं मरी थी उसे मारा गया था पर, माँ यह कभी न जान सकी। रोटियों के सपने खाने वाली संभावनाओं के आगे अपने बच्चों के लिए उसने भींच लिए थे अपने दाँत और उन निवालों के सपनों के नीचे दब गई थी मातृभाषा। माँ को लगता है आज भी एक दुर्घटना थी मातृभाषा की मौत। *****

  • संस्कारी बहू

    वीरेन्द्र सिंह एक सेठ के सात बेटे थे। सभी का विवाह हो चुका था। छोटी बहू संस्कारी माता-पिता की बेटी थी। बचपन से ही अभिभावकों से अच्छे संस्कार मि लने के कारण उसके रोम-रोम में संस्कार बस गया था। ससुराल में घर का सारा काम तो नौकर-चाकर करते थे, जेठानियां केवल खाना बनाती थीं। उसमें भी खटपट होती रहती थी। छोटी बहू को संस्कार मिले थे कि अपना काम स्वयं करना चाहिए और प्रेम से मिलजुल कर रहना चाहिए। अपना काम स्वयं करने से स्वास्थ्य बढ़िया रहता है। उसने युक्ति खोज निकाली और सुबह जल्दी स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहनकर पहले ही रसोई में जा बैठी। जेठानियों ने टोका, लेकिन उसने प्रेम से रसोई बनाई और सबको प्रेम से भोजन कराया। सभी ने बड़े प्रेम से भोजन किया और प्रसन्न हुए। इसके बाद सास छोटी बहू के पास जाकर बोली, "बहू, तू सबसे छोटी है, तू रसोई क्यों बनाती है? तेरी छह जेठानियां हैं। वे खाना बनाएंगी।" बहू बोली, "मांजी, कोई भूखा अतिथि घर आता है, तो उसको आप भोजन क्यों कराती हैं?" "बहू शास्त्रों में लिखा है कि अतिथि भगवान का रूप होता है। भोजन पाकर वह तृप्त होता है, तो भोजन कराने वाले को बड़ा पुण्य मिलता है।" "मांजी, अतिथि को भोजन कराने से पुण्य होता है, तो क्या घरवालों को भोजन कराने से पाप होता है? अतिथि भगवान का रूप है, तो घर के सभी लोग भी तो भगवान का रूप हैं, क्योंकि भगवान का निवास तो सभी में है। अन्न आपका, बर्तन आपके, सब चीज़ें आपकी हैं, मैंने ज़रा-सी मेहनत करके सब में भगवदभाव रख कर रसोई बनाकर खिलाने की थोड़ी-सी सेवा कर ली, तो मुझे पुण्य मिलेगा कि नहीं? सब प्रेम से भोजन करके तृप्त और प्रसन्न होंगे, तो कितनी ख़ुशी होगी। इसलिए मांजी आप रसोई मुझे बनाने दें। कुछ मेहनत करूंगी, तो स्वास्थ्य भी अच्छा रहेगा।" सास ने सोचा कि बहू बात तो ठीक ही कहती है। हम इसे सबसे छोटी समझते हैं, पर इसकी बुद्धि सबसे अच्छी है और बहुत संस्कारी भी है। अगले दिन सास सुबह जल्दी स्नान करके रसोई बनाने बैठ गई। बहुओं ने देखा, तो बोलीं, 'मांजी, आप क्यों कष्ट करती हैं?" सास बोली, "तुम्हारी उम्र से मेरी उम्र ज़्यादा है। मैं जल्दी मर जाऊंगी। मैं अभी पुण्य नहीं करूंगी, तो फिर कब करूंगीं?" बहुएं बोलीं, "मांजी, इसमें पुण्य की क्या बात है? यह तो घर का काम है।" सास बोली, "घर का काम करने से पाप होता है क्या? जब भूखे व्यक्तियों को, साधुओं को भोजन कराने से पुण्य मिलता है, तो क्या घरवालों को भोजन कराने से पाप मिलेगा? सभी में ईश्वर का वास है।" सास की बातें सुनकर सभी बहुओं को लगा कि इस बारे में तो उन्होंने कभी सोचा ही नहीं। यह युक्ति बहुत बढ़िया है। अब जो बहू पहले जाग जाती, वही रसोई बनाने लगती। पहले जो भाव था कि तू रसोई बना… बारी बंधी थी। अब मैं बनाऊं, मैं बनाऊं… यह भाव पैदा हुआ, तो आठ बारी बध गई। दो और बढ़ गए सास और छोटी बहू। काम करने में ʹतू कर, तू कर…ʹ इससे काम बढ़ जाता है और आदमी कम हो जाते हैं, पर ʹमैं करूं, मैं करूं…ʹ इससे काम हल्का हो जाता है और आदमी बढ़ जाते हैं। छोटी बहू उत्साही थी। सोचा कि ʹअब तो रोटी बनाने में चौथे दिन बारी आती है, फिर क्या किया जाए?ʹ घर में गेहूं पीसने की चक्की थी। उसने उससे गेहूं पीसना शुरु कर दिया। मशीन की चक्की का आटा गर्म-गर्म बोरी में भर देने से जल जाता है। उसकी रोटी स्वादिष्ट नहीं होती। जबकि हाथ से पीसा गया आटा ठंडा और अधिक पौष्टिक होता है तथा उसकी रोटी भी स्वादिष्ट होती है। छोटी बहू ने गेहूं पीसकर उसकी रोटी बनाई, तो सब कहने लगे कि आज तो रोटी का ज़ायका बड़ा विलक्षण है। सास बोली, "बहू, तू क्यों गेहूं पीसती है? अपने पास पैसों की कमी है क्या।" "मांजी, हाथ से गेहूं पीसने से व्यायाम हो जाता है और बीमारी भी नहीं होती। दूसरे रसोई बनाने से भी ज़्यादा पुण्य गेहूं पीसने से होता है।" सास और जेठानियों ने जब सुना, तो उन्हें लगा कि बहू ठीक ही कहती है। उन्होंने अपने-अपने पतियों से कहा, "घर में चक्की ले आओ, हम सब गेहूं पीसेंगी।" रोज़ाना सभी जेठानियां चक्की में दो से ढाई सेर गेहूं पीसने लगीं। इसके बाद छोटी बहू ने देखा कि घर में जूठे बर्तन मांजने के लिए नौकरानी आती है। अपने जूठे बर्तन ख़ुद साफ़ करने चाहिए, क्योंकि सब में ईश्वर का वास है, तो कोई दूसरा हमारा जूठा क्यों साफ़ करे! अगले दिन उसने सब बर्तन मांज दिए। सास बोली, "बहू, ज़रा सोचो, बर्तन मांजने से तुम्हारे गहने घिस जाएंगें, कपड़े ख़राब हो जाएंगें।" "मांजी, काम जितना छोटा, उतना ही उसका माहात्म्य ज़्यादा। पांडवों के यज्ञ में भगवान श्रीकृष्ण ने जूठी पत्तलें उठाने का काम किया था।" अगले दिन सास बर्तन मांजने बैठ गई। उन्हें देख कर सभी बहुओं ने बर्तन मांजने शुरु कर दिए। घर में झाड़ू लगाने के लिए नौकर आता था। एक दिन छोटी बहू ने सुबह जल्दी उठकर झाड़ू लगा दी। सास ने पूछा, "बहू झाड़ू तुमने लगाई है?" "मांजी, आप मत पूछिए। आप से कुछ कहती हूं, तो मेरे हाथ से काम चला जाता है।" "झाड़ू लगाने का काम तो नौकर का है, तुम क्यों लगाती हो?" "मांजी, ʹरामायणʹ में आता है कि वन में बड़े-बड़े ऋषि-मुनि रहते थे। भगवान उनकी कुटिया में न जा कर पहले शबरी की कुटिया में गए थे, क्योंकि शबरी रोज़ चुपके से झाड़ू लगाती थी, पम्पा सरोवर का रास्ता साफ़ करती थी कि कहीं आते-जाते ऋषि-मुनियों के पैरों में कंकड़ न चुभ जाएं।" सास ने देखा कि छोटी बहू, तो सब को लूट लेगी, क्योंकि यह सबका पुण्य अकेले ही ले लेती है। अब सास और सभी बहुओं ने मिलकर झाड़ू लगानी शुरू कर दी। जिस घर में आपस में प्रेम होता है, वहां लक्ष्मी का वास होता है और जहां कलह होती है, वहां निर्धनता आती है। सेठ का तो धन दिनोंदिन बढ़ने लगा। उसने घर की सब स्त्रियों के लिए गहने और कपड़े बनवा दिए। छोटी बहू ससुर से मिले गहने लेकर बड़ी जेठानी के पास जा कर बोली, "आपके बच्चे हैं, उनका विवाह करोगी, तो गहने बनवाने पड़ेंगे। मुझे तो अभी कोई बच्चा है नहीं। इसलिए इन गहनों को आप रख लीजिए।" गहने जेठानी को दे कर छोटी बहू ने कुछ पैसे और कपड़े नौकरों में बांट दिए। सास ने देखा तो बोली, "बहू, यह तुम क्या करती हो? तेरे ससुर ने सबको गहने बनवा कर दिए हैं और तुमने उन्हें जेठानी को दे दिए। पैसे और कपड़े नौकरों में बांट दिए।" "मांजी, मैं अकेले इतना संग्रह करके क्या करूंगी? अपनी चीज़ किसी ज़रूरतमंद के काम आ जाए, तो आत्मिक संतोष मिलता है और दान करने का तो अमिट पुण्य होता ही है।" सास को बहू की बात दिल को छू गई। वह सेठ के पास जाकर बोली, "मैं नौकरों में धोती-साड़ी बांटूगी और आसपास में जो ग़रीब परिवार रहते हैं, उनके बच्चों का फीस मैं स्वयं भरूंगी। अपने पास कितना धन है, अगर यह किसी के काम आ जाए, तो अच्छा है। न जाने कब मौत आ जाए। उसके बाद यह सब यहीं पड़ा रह जाएगा। जितना अपने हाथ से पुण्य कर्म हो जाए अच्छा है।" सेठ बहुत प्रसन्न हुआ। पहले वह नौकरों को कुछ देते थे, तो सेठानी लड़ पड़ती थी। अब कह रही है कि ʹमैं ख़ुद दूंगी।' सास दूसरों को वस्तुएं देने लगी, तो यह देखकर बहुएं भी देने लगीं। नौकर भी ख़ुश हो कर मन लगा कर काम करने लगे और आस-पड़ोस में भी ख़ुशहाली छा गई। श्रेष्ठ मनुष्य जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य भी उसी के अनुसार आचरण करते हैं। छोटी बहू ने जो आचरण किया, उससे उसके घर का तो सुधार हुआ ही, साथ में पड़ोस पर भी अच्छा असर पड़ा। उनके घर भी सुधर गए। देने के भाव से आपस में प्रेम-भाईचारा बढ़ गया। इस तरह बहू को संस्कार से मिली सूझबूझ ने उसके घर के साथ-साथ अनेक घरों को ख़ुशहाल कर दिया। ******

  • एक मौका और ...

    डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव एक बार मैं शहर से अपने गाँव जा रहा था। रास्ते में एक स्टेशन पर ट्रेन रुकी यहाँ उसका 15 मिनट का स्टॉपेज था, इसलिए मैं थोड़ा टहलने के लिए स्टेशन पर उतरा। स्टेशन पर बहुत भीड़ थी। उसी भीड़ में मेरी नजर अचानक एक बेंच पर बैठे आदमी पर गई। मैं उसको गौर से देखने लगा कि इतने में ही ट्रेन में हॉर्न दे दिया। मैं ट्रेन में वापस अपनी सीट पर आकर बैठ गया और चाय वाले से चाय लेकर पीने लगा। चाय पीते-पीते मैं अपनी पुरानी यादों में खो गया। मुझे याद आया वह दिन जब मैं रेलवे स्टेशन पर बैठकर अपनी परेशानी से निकलने का कोई रास्ता ढूंढने की कोशिश कर रहा था। रात होने लगी थी। इतने में एक आदमी ने मुझसे माचिस मांगी। मैंने कहा, मैं सिगरेट नहीं पीता। वो मेरी बात पर हँस कर बोला, भाई!! मैंने आपसे माचिस माँगी है, सिगरेट नहीं। मैं बोला, जब मैं सिगरेट नहीं पीता तो माचिस रख कर क्या करूँगा? उस आदमी ने चाय वाले को माचिस और एक कप चाय देने को कहा और मुझसे बोला हाँ, आपने बात तो बिल्कुल ठीक कहीं!! पर मैंने सोचा...... इतना बोलते ही उसकी बात बीच में काटते हुए मैं बोला, आपने क्या सोचा, क्या नहीं, मुझे इससे कोई मतलब नहीं!! आप बेवजह मुझे परेशान कर रहे हैं। आप अपना काम कीजिए ना!! इतना बोल कर मैं दूसरी बेंच पर जाकर बैठ गया। थोड़ी देर में चाय वाला आया और मुझे चाय देने लगा। मैंने उससे पूछा कि मैंने कब चाय का आर्डर दिया? वह बोला आपने नहीं, उन साहब ने आपको चाय देने को कहा है। मैं गुस्सा होकर उसके पास गया और पूछा, - आपकी प्रॉब्लम क्या है? भाई मैंने तो ऐसे ही आपके लिए चाय का आर्डर दिया था। मैंने सोचा कि बारिश ज्यादा है, ठंड भी है। आप थोड़े थके भी लग रहे हो! चाय पीने से शायद आप थोड़ा रिलैक्स महसूस करो। मैंने कहा, हमारे देश में यही तो समस्या है कि कोई किसी को चैन से बैठने भी नहीं देता। जहाँ देखो वहाँ अपनी टांग अड़ाने लोग आ जाते हैं। मैंने सोचा था स्टेशन पर आराम से बैठ लूँगा। वहाँ मुझे कोई डिस्टर्ब नहीं करेगा, क्योंकि स्टेशन पर किसी को किसी से कोई मतलब नहीं होगा, पर यहाँ आप आ गए। इतने पर भी मैं नहीं रुका और आगे बोलता गया। अरे भाई! आपको माचिस और चाय मिल गई ना!! तो एंजॉय करो, पर मुझे बख्श दो, मेहरबानी करके!! और गुस्से और खीझ से लगभग अपने दोनों हाथों को जोड़ कर उसे प्रणाम करता हुआ वापस अपनी बेंच की ओर जाने को मुड़ा! मेरी बात सुनकर वह आदमी फिर भी शांत भाव से बोला – भाई, क्यों डिस्टर्ब हो? क्या हुआ? उसकी शांत बातें मुझे थोडा कौतुहल में डाल रही थी। मैंने भी थोड़ा शांत होते हुए उससे पूछा क्यों? आप जानकर क्या कर लोगे? वह आदमी बोला, हो सकता है तुम्हारी परेशानी का कोई हल मिल जाए या अपनी परेशानी बताने से तुम थोड़ा हल्का महसूस करो। उसकी बात सुनकर मुझे थोड़ी हिम्मत मिली और मैं उसे बताने लगा। मेरे पिताजी एक सरकारी ऑफिस में चपरासी थे और मेरी मां लोगों के घर के बर्तन साफ कर करके मुझे पढ़ा रही थी। मेरे पिताजी का सपना मुझे आईपीएस अफसर बनाने का था पर मुझे किसी की नौकरी करना पसंद नहीं था। मैं लोगों को नौकरी देना चाहता था। मैंने एक दिन अपने मन की बात अपने पिताजी को बताई। पिताजी ने गाँव की जमीन बेचकर मुझे पैसे थमा दिए। मैं बहुत खुश हुआ। मैंने अपनी कंपनी शुरू की। समय आने पर मैंने शादी कर ली। मेरे दो प्यारे-प्यारे बच्चे हैं। कुछ साल दो साल मेरी कंपनी अच्छी प्रॉफिट में चली। मैं बहुत खुश था। पर एक गलत इन्वेस्टमेंट ने सब कुछ चौपट कर दिया। पहले थोड़ा नुकसान हुआ। उसको भरने के लिए कुछ पूंजी और लगाई लेकिन वह भी डूब गई। धीरे-धीरे सब कुछ बिक गया। अब सिर पर खाली एक छत बची है। अगर कल किस्त नहीं चुकाई तो मकान नीलाम हो जाएगा फिर आसमान हमारी छत और धरती हमारा बिछोना होगी। मेरी बात सुनकर वह आदमी बोला, तुम अपने आप को एक मौका और क्यों नहीं देते? शायद सब ठीक हो जाए। उसने कहा आगे कहा, तुमने मनोज भटनागर के बारे में सुना है? मैंने कहा, वही जो काफी फेमस एक्टर है!! सुनकर वह आदमी बोला हाँ वही!! याद है, कुछ साल पहले उसके पास चाय पीने के भी पैसे नहीं थे। मैंने कहा, हाँ!! न्यूज़ पेपर्स में पढ़ा था। वह आदमी बोला, उसने अपने आप को एक मौका दिया और आज देखो वह पहले से ज्यादा कामयाब है। मैंने उसकी बात सुनकर कहा, यह सब फिल्मों की बातें हैं। असल जिंदगी में ऐसा कुछ नहीं होता और फिर आप की हालत भी मुझसे खस्ता लग रही है। कपड़े फटे हुए, चप्पल टूटी हुई, आंखों में टूटा चश्मा, बाल सफेद, हाथों में लकड़ी!! वैसे आप हो कौन!! और आपका नाम क्या है? मुझे अचानक से जैसे कुछ याद आया!! सुनकर वह बोला, मैं ही मनोज भटनागर हूँ!!! यह बोलकर वह बेंच पर से उठा और बोला, मैं रोज इस समय पुराने दिनों की याद करने यहाँ चला आता हूँ। और कोई मुझे मेरे उसी हाल में मिल जाता है तो उससे बातें कर लेता हूँ!! इतना कह कर उसने वापस जाते हुए मुझसे कहा – एक और मौका दे कर देखो!! शायद सब कुछ बदल जाय!! फिर मैंने देखा कि वह मनोज भटनागर ही था। बाहर जाकर एक चमचमाती कार में बैठकर वह चला गया। उसके जाने के बाद मैंने मन ही मन अपने आप को एक और मौका देने का फैसला किया। अगले दिन बैंक से अपनी समस्या बता कर थोड़ा वक्त मांगा। बैंक वाले ने मेरा रिकॉर्ड देखकर मुझे थोड़ा टाइम दिया और कुछ फाइनेंस भी किया। उससे मैंने फिर से कंपनी शुरू की और थोड़े ही समय में सब कुछ पटरी पर आने लगा। आज मैं फिर से कामयाब हूँ। तभी टीटी की आवाज से मेरा ध्यान टूटा! मैंने अपनी टिकट दिखाई। फिर मैंने देखा कि मेरा स्टेशन भी आने वाला था। कुछ देर में मेरा स्टेशन आ गया और मैं ट्रेन से उतर कर घर जाने के लिए टैक्सी ले कर चला गया!! हो सकता है आप भी जीवन की परेशानियों से इसी तरह हताश, निराश, किसी रेलवे स्टेशन, पार्क या निर्जन स्थान पर बैठे हों। हो सकता है आपके पास कोई मनोज भटनागर न आये! लेकिन फिर भी, अपने लिए, अपने परिवार के लिए, क्या आप भी तैयार हैं, खुद एक मौका और देने के लिए!!! याद रखिये कि सहारा देने के लिए हमेशा आपको एक हाथ उपलब्ध नहीं होगा! हो सकता है आपको खुद को ही सहारा देना पड़े। आखिरी दम तक टूट कर बिखरने से पहले एक बार फिर से सम्भलने की कोशिश जरूर कीजियेगा। ******