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- स्वाध्याय,जीवन की अनिवार्यता है।
हमारे शास्त्रों में गुरु की महिमा का प्रसंग वर्णन बड़े विस्तार से किया गया है। परंतु हम उसी संत को गुरु की श्रेणी में रख सकते हैं जो मनुष्य में सत्य मार्ग पर चलने की सच्ची प्रेरणा उत्पन्न कर सकता हो। जो, शिष्य के ज्ञान के अंधकार को हरकर, ज्ञान की दिव्य ज्योति प्रदान कर सकता हो और भगवत प्राप्ति के पावन पथ पर अग्रसर होने की सामर्थ उत्पन्न कर सकता हो। परंतु भौतिक युग में ऐसे गुरुओं का मिलना न केवल कठिन अपितु असंभव प्रतीत होता है। गुरुओं के रूप में समाज में उपस्थित वंचक गुरुओं द्वारा भोली भाली जनता को ठगे जाने की संभावनाएं बहुत प्रबल हो जाती है। अतः निरापद मार्ग का अनुसरण कर वंचक गुरुओं के मायाजाल से बचा जा सकता है। यहां निरापद मार्ग का सीधा अभिप्राय यह है कि हमें परमपिता परमेश्वर को ही अपने गुरु के रुप में वरण कर लेना चाहिए। हमारे महापुरुषों ने कहा है, “कृष्णं वंदे जगतगुरुम्” अर्थात भगवान श्री कृष्ण की वंदना जगत गुरु के रुप में की जाती है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी हनुमान चालीसा में हनुमान जी महाराज को ही गुरु रूप में वर्णित किया है। जै जै जै हनुमान गोसाईं । कृपा करेहु गुरुदेव की नाई।। इसी प्रकार संतों ने भगवान शिव को प्रथम गुरु के रुप में स्वीकार्य किया है। संतों का अनुसरण करते हुए, हम आपको भी जिस देव में श्रद्धा टिकती हो उसे ही मानसिक रूप से गुरु के रुप में वरण कर लेना चाहिए। इसके साथ ही वेदों, उपनिषदों व महापुरुषों की पुस्तकों के स्रोतों से ज्ञानार्जन की प्रक्रिया अपनानी चाहिए। पुस्तकों के माध्यम से संत महात्माओं के साथ किया गया सत्संग चिरस्थाई होता है। ऐसे सत्संग से प्राप्त संत महात्माओं की जीवन की कल्याणकारी बातों को हमें अपने जीवन में उतारने का प्रयास करना चाहिए। यह सत्संग हमारे चरित्र को कहीं अधिक प्रभावी ढंग से संत महात्माओं के रूप में स्थापित करने में सफल हो सकता है। सत्संग की तो बड़ी महिमा है परंतु सत्संग में सन्निकटता की आवश्यकता नहीं है। यथासंभव दूरी बना कर भी सत्संग का सुख प्राप्त किया जा सकता है। ऐसा कर वंचक गुरुओं के दृष्टि दोष से बचकर कल्याणकारी दृष्टिकोण को सफलतापूर्वक आत्मसात किया जा सकता है। स्वाध्याय वह विधि है, जिसके द्वारा ज्ञान प्राप्ति एवं जीवन की विसंगतियों व समस्याओं को दूर करने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है। दिनचर्या में एक निश्चित समय स्वाध्याय को अवश्य दिया जाना चाहिए। जिससे मनुष्य को सत्य साहित्य के अध्ययन का लाभ मिलेगा। ज्ञान के अभाव में मनुष्य की स्थिति एक दृष्टिहीन व्यक्ति के जैसी हो जाती है। वह व्यक्ति संसार में रहकर भी समस्त ज्ञान भंडार से दूर हो जाता है। संसार के सारे दुख अज्ञान और आशक्ति से ही पैदा होते हैं। अज्ञानी व्यक्ति पाप प्रलोभनों में पड़कर व्यसन के गर्त में गिर जाता है। व्यक्ति के शारीरिक व मानसिक दुखों को ज्ञान के द्वारा ही नष्ट किया जा सकता है। अर्थात भौतिक जीवन की सफलता एवं आध्यात्मिक जीवन की पूर्णता के लिए ज्ञान के सोपान का प्राप्त होना परम आवश्यक है। अनेकों लोग किसी को धारा-प्रवाह बोलते एवं भाषण देते देखकर मंत्रमुग्ध जैसे हो जाते हैं और वक्ता के ज्ञान एवं प्रतिभा की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगते हैं। कभी-कभी यह भी मान लेते हैं कि इस व्यक्ति पर माता सरस्वती की प्रत्यक्ष कृपा है। उसके ज्ञान के पट खुल गए हैं, तभी तो ज्ञान का अविरल स्रोत इनके मुख से शब्दों के रूप में अविरल बहता चला जा रहा है। श्रोताओं का इस प्रकार आश्चर्य चकित हो जाना अस्वाभाविक भी नहीं है। सफल वक्ता अथवा समर्थ लेखक जिस विषय को ले लेते हैं, उस पर घण्टों बोलते या लिखते चले जाते हैं, और यह प्रमाणित कर देते हैं कि उनका अमुक विषय पर ज्ञान अपरिमित है। यह कोई मंत्र सिद्धि का परिणाम नहीं है। यह सारा चमत्कार उनके उस स्वाध्याय का सुफल होता है, जिसे वे किसी दिन भी, किसी अवस्था में नहीं छोड़ते। उनके जीवन का कदाचित ही कोई ऐसा अभागा दिन जाता होगा, जिसमें वे मनोयोगपूर्वक घण्टों स्वाध्याय न करते हों। स्वाध्याय उनके जीवन का एक अंग और प्रतिदिन की अनिवार्य आवश्यकता बन जाता है। जिस दिन वे अपनी इस आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर पाते, उस दिन वे अपने तन-मन और आत्मा में एक भूख, एक रिक्तता का कष्ट अनुभव किया करते हैं। यदि हम सिख पंथ के पथ प्रदर्शक गुरु नानक देव महाराज की बात करें तो हम पाते हैं कि उन्होंने अपने आप को परमात्मा के समक्ष पूर्ण समर्पित कर रखा था। उन्हीं के शब्दों में नानकु एकु कहै अरदासि। जीउ पिंड सभु तेरै पासि।। जब ऐसे महान व्यक्तित्व तक परमपिता परमेश्वर के शरण में रहकर मानवता की रक्षा के लिए प्रयासरत रह सकते हैं। तो सामान्य व्यक्ति द्वारा ईश्वर को अपना आध्यात्मिक गुरु स्वीकार्य करने में क्या कठिनाई हो सकती है। महाभारत में भीष्म पितामह ने भी स्वाध्याय को ही मनुष्य का सर्वोच्च धर्म माना है। पशु व मानव योनि के वैज्ञानिक वर्गीकरण के अनुसार ज्ञान ही ऐसा गुण है, जो मनुष्य को पशु योनि से अलग खड़ा कर देता है। यह ज्ञान ही है जिसके अभाव में मनुष्य पशुवत् व्यवहार करना प्रारंभ कर देता है। जिस प्रकार स्थूल शरीर के पोषण के लिए पौष्टिक भोजन की आवश्यकता होती है, ठीक उसी प्रकार मानसिक विकास व प्रगति के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है। अज्ञानता व्यक्ति के मानसिक विकास को विकृत कर देता है। अंततः मानसिक विकृति, व्यक्ति के चारित्रिक व आध्यात्मिक प्रगति को बाधित कर देती है। व्यक्ति एक संकीर्ण परिवेश में विचरण करने के लिए बाध्य हो जाता है। धार्मिक अथवा आध्यात्मिक क्षेत्र में कोई व्यक्ति नित्य पूजा अर्चना करता है, आसन लगाता है, जाप व कीर्तन में मग्न रहता है, व्रत-उपवास व दान-दक्षिणा देता है, किन्तु शास्त्रों अथवा सद्ग्रन्थों का अध्ययन और विचारों का चिन्तन-मनन नहीं करता है। वह सोच लेता है कि जब मैं इतना जाप तप करता हूँ तो इसके बाद अध्ययन की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। आत्म-ज्ञान अथवा परमात्म अनुभूति करा देने के लिए इतना ही पर्याप्त है तो निश्चय ही वह भ्रम में है। केवल स्वाध्याय ही वह विधि है जो व्यक्ति को जीवन का वास्तविक दर्शन कराती है। व्यक्ति को अहंकार से बचाती है। जीवन का लक्ष्य प्राप्त करती है। लोक व्यवहार सिखाती है और मस्तिष्क की उर्वरा शक्ति को बढ़ाती है। इसलिए तल्लीनता पूर्वक स्वाध्याय करना चाहिए। हल्के स्तर की पुस्तकों को पढ़ने से बचना चाहिए। ऐसी पुस्तकें व्यक्ति के मस्तिष्क की ग्रहण क्षमता को कमजोर कर देती है। चारित्रिक उज्ज्वलता, स्वाध्याय का एक साधारण और मनोवैज्ञानिक फल है। सद्ग्रन्थों के निरन्तर अध्ययन एवं मनन से संस्कारों की स्थापना होती हैं, जिससे व्यक्ति का चित्त अपने आप दुष्कृत्यों से विमुख हो जाता है। स्वाध्यायी व्यक्ति पर कुसंग का भी प्रभाव नहीं पड़ने पाता, इसका एक वैज्ञानिक कारण है। स्वाध्याय, व्यक्ति के हृदय को सकारात्मकता के विद्युत चुंबकीय तरंगों से ओतप्रोत कर उसके चारों ओर एक ऐसा अभेद्य आवरण उत्पन्न कर देता है जिसे आसुरी शक्तियां भेद नहीं पाती है, और स्वाध्यायी व्यक्ति विकृत सोच के व्यक्तियों के संपर्क में आने से बच जाता है। जिसकी स्वाध्याय में रुचि है और जो उसको जीवन का एक ध्येय मानता है, वह आवश्यकताओं से निवृत्त होकर अपना सारा समय स्वाध्याय में लगाता है। उसके पास कोई फालतू समय ही नहीं रहता, जिससे वह दूषित वातावरण से अवांछनीय तत्व ग्रहण कर लाये। स्वाध्याय जीवन विकास के लिये एक अनिवार्य आवश्यकता है, जिसे हर व्यक्ति को पूरी करना चाहिये। अनेक लोग परिस्थितिवश अथवा प्रारम्भिक प्रमादवश पढ़-लिख नहीं पाते और जब आगे चल कर उन्हें शिक्षा और स्वाध्याय के महत्व का ज्ञान होता है, तब हाथ मल-मल कर पछताते रहते है। स्वाध्याय से जहाँ संचित ज्ञान सुरक्षित रहता है, वहीं उस कोष में नवीन वृद्धि भी होती रहती है। स्वाध्याय से विरत हो होकर जीने वाला व्यक्ति अपने ज्ञान रूपी पूंजी को सदा के लिए खो बैठता है। अंत में परमपिता परमेश्वर से यही प्रार्थना है कि वह हमें भावी जीवन में स्वाध्याय द्वारा अपनी योग्यता बढ़ाने में मदद करें। **********
- जादुई सांप की कहानी
एक गांव में एक ब्राह्मण रहता था। वह आसपास के गांव में भिक्षा मांगकर अपना और अपने परिवार का पेट पाला करता था। एक बार ब्राह्मण को लगने लगा की उसे बहुत कम भिक्षा मिल रही है जिससे उसके परिवार का गुजारा बहुत मुश्किल से हो रहा है। इसलिए उसने सोचा मुझे राजा से मदद लेनी चाहिए। ब्राह्मण राजदरवार जाने के लिए घर से निकल पड़ा। जब वह जंगल में से गुजर रहा था तो उसे एक पेड़ के पास एक सांप दिखाई दिया। सांप ब्राह्मण को प्रणाम करके बोला, “हे ब्राह्मण महाराज, आज सुबह सुबह कहाँ जाने के लिए निकल पड़े?” ब्राह्मण ने अपनी समस्या सांप को बताई, “मैं राजा से सहायता लेने के लिए जा रहा हूँ।” सांप ने कहा, “मुझे पता है आप क्या समस्या लेकर जा रहे हो। तुम्हारे घर में इस समय बहुत गरीबी छाई हुई है इसलिए राजा से मदद लेने जा रहे हो।” ब्राह्मण ने कहा, “सांप आप तो सब जानते हो!” सांप ने कहाँ, “हाँ ब्राह्मण, मैं जादुई सांप हूँ और भविष्यवाणी कर सकता हूँ कि आगे क्या होने वाला है?” ब्राह्मण ने कहा, “कैसी भविष्यवाणी?” सांप ने कहा, “हे ब्राह्मण महाराज मैं तुम्हे एक भविष्यवाणी सुनाता हूँ तुम वह राजा को बता सकते हो। लेकिन मेरी यह शर्त है कि राजा से मिलने वाले धन से आधा तुम मुझे दोगे।” ब्राह्मण ने शर्त मानली। सांप ने कहा, “राजा से कहना की इस साल अकाल पड़ेगा इसलिए प्रजा को बचाने के लिए जो भी उपाय करना हो कर लेना।” ब्राह्मण ने सांप को धन्यवाद दिया और राजदरवार के लिए रवाना हो गया। अगले ही दिन वह राजदरवार में पहुँच गया। ब्राह्मण ने सिपाही से कहा, “राजा से कहो कि एक ब्राह्मण आया है जो भविष्यवाणी करता है।” राजा ने ब्राह्मण को राजदरवार में बुलाकर पूछा, “बताओ तुम भविष्य के बारे में क्या जानते हो?” ब्राह्मण ने सांप द्वारा की गई भविष्यवाणी राजा को सुनाई। राजा ने भविष्यवाणी सुनी और कुछ धन देकर ब्राह्मण को विदा किया। वापस लौटते हुए ब्राह्मण ने सोचा,”यदि सांप को आधा धन दिया तो मेरा धन जल्दी समाप्त हो जायेगा।” इसलिए ब्राह्मण रास्ता बदलकर अपने गांव चला गया। भविष्यवाणी के अनुसार बहुत बड़ा अकाल पड़ा। लेकिन राजा ने पहले से ही जानकारी होने के कारन बहुत से इंतजाम कर लिए थे इसलिए राजा को कोई समस्या नहीं हुई। एक साल बीत गया। ब्राह्मण का धन धीरे-धीरे खत्म हो गया और ब्राह्मण फिरसे राजा से मदद मांगने के लिए चल दिया। रास्ते में उसे फिर वही सांप मिला। अभिनन्दन करने के बाद सांप ने ब्राह्मण से कहा, “आधा धन देने के शर्त पर मैं तुम्हे एक भविष्यवाणी सुनाऊँगा। तुम मेरी भविष्यवाणी राजा को बता सकते हो। राजा से कहना इस साल भयंकर युद्ध होगा इसलिए जो भी तैयारी करनी है कर लो।” आधा धन देने का वादा कर सांप से विदा लेकर ब्राह्मण राजदरवार पहुँचा। राजा ने बहुत सम्मान के साथ ब्राह्मण का स्वागत किया और एक और भविष्यवाणी करने के लिए कहा।” ब्राह्मण ने राजा से कहा, “महाराज इस साल एक बहुत भयंकर युद्ध होने वाला है। आपको जो भी तैयारी करनी है अभी से करलो।” इस बार राजा ने ब्राह्मण को पहले से भी अधिक धन देकर विदा किया। अब रास्ते में फिर ब्राह्मण ने सोचा यदि सांप मिला तो आधा धन मांगेगा। इतने सारे धन का आधामैं उसे क्यों दू? क्यों न सांप को लाठी से मार दिया जाए। हाथ में लाठी लिए ब्राह्मण जब सांप के पास पहुँचा तो सांप खतरा देखकर बिल में जाने लगा। ब्राह्मण ने सांप के पीछे से लाठी से वार किया जिससे सांप की पूंछ कट गई। लेकिन सांप जीवित बच गया। सांप के भविष्यवाणी के अनुसार इस साल राजा के पड़ोसी राज्य से भयंकर युद्ध हुआ। लेकिन पहले से ही बहुत अच्छी तैयारी होने के कारन राजा युद्ध जीत गए। दो साल में ब्राह्मण का धन धीरे-धीरे फिरसे खत्म हो गया और उसके सामने फिरसे घर का संकट शुरू हो गया। उसने एक बार फिरसे राजा से मदद मांगने की सोची। एक दिन सुबह सुबह राजदरवार जाने के लिए नगर की और प्रस्थान किया। जंगल में पहुँचा तो ब्राह्मण सांप के आगे से नजर छुपाकर निकलने लगा। तभी सांप ने कहा, “हे ब्राह्मण महाराज, इस बार मिलकर नहीं जाओगे?” ब्राह्मण कुछ न बोल सका और नजरे नीची करके खड़ा रहा।” सांप ने कहा, “राजा से कहना इस बार राज्य में धर्म की स्थापना होगी, सब अच्छे काम होंगे, राजा और प्रजा सब सुख से होंगे। ध्यान रखना जो भी धन मिले उसका आधा मुझे देकर जाना।” ब्राह्मण ने आधा धन देने का वचन दिया और राजदरवार की और रवाना हो गया। राजदरवार पहुँचने पर ब्राह्मण का विशेष स्वागत किया गया। राजा ने पिछले दो भविष्यवाणी के लिए ब्राह्मण को बहुत बहुत धन्यवाद दिया और आने वाले समय के बारे में भी पूछा। तो ब्राह्मण ने कहा, “महाराज, इस बार राज्य में धर्म की स्थापना होगी। राजा तथा प्रजा सुख और चैन की जिंदगी बिताएंगे। सब लोक अच्छा सोचेंगे और अच्छे काम करेंगे।” राजा ने ब्राह्मण को बहुत सारा धन देकर विदा किया। गांव वापस लौटते हुए ब्राह्मण ने सोचा, “जब राजा ने थोड़ा धन दिया तो वह एक साल में समाप्त हो गया। जब ज्यादा धन दिया तो वह दो साल में समाप्त हो गया। सांप से गद्दारी की वह अलग। इस बार मैं सांप का सारा हिसाब कर दूंगा।” सांप के पास पहुँचकर ब्राह्मण ने सारा धन सांप के पास रख दिया और सांप से तीनो बार का धन लेने के लिए कहा। सांप ने कहा, “ब्राह्मण महाराज, जब अकाल पड़ा तो तुम रास्ता बदलकर निकल गए, जब युद्ध हुआ तो तुमने मेरी पूंछ काट दी जिससे मेरा बहुत मजाक उड़ाया गया। अब जब राज्य में धर्म की स्थापना हो गई है, मैंने भविष्यवाणी की थी की लोग अच्छे काम करेंगे तुम भी धर्म के रास्ते पर आ गए हो। हम जंगली जानबरों को धन की क्या जरुरत? यह सारा धन तुम ले जाओ। ख़ुशी से जीवन बिताओ और किसी के साथ कभी भी धोखा मत करो।” सांप को धन्यवाद देकर ब्राह्मण अपने गांव आ गया। और उसने निर्णय लिया की अब कभी भी किसी को धोखा नहीं देगा। लालच इंसान को भटका देता है तो कभी भी लालच और धोखाधड़ी न करें। *************
- हिंदी हमारा अभिमान
जिस देश की माटी में हम पल बढ़कर बड़े हुए हैं, उस माटी के प्रति हमारा लगाव और प्रेम होना स्वाभाविक है। देश की वन संपदा, जीव-जंतु, नदी, नाले, झरने, पहाड़, पशु-पक्षी आदि इन सबसे हमारा आत्मीय संबंध अपने आप ही स्थापित हो जाता है। सोचिए यदि देश की इन चीजों से हमारा इतना लगाव है तो देश की भाषा जिस के बिना हम मूक ही कहलाएंगे, से हमारा क्या रिश्ता होगा, क्या संबंध होगा। किसी भी देश की भाषा उस देश के निवासियों के अंतर्मन और मस्तिष्क के भावों को आधार प्रदान करती है। भाषा का प्रयोग कर हम अपने भावों को दूसरों तक प्रेषित कर सकते हैं और उन्हें समझा सकते हैं कि हमारे मन मस्तिष्क में इस वक्त क्या चल रहा है। बिना भाषा का प्रयोग किए हमारे व्यवहार के आधार पर ही कोई इस बात का अंदाजा नहीं लगा सकता कि आखिर हम कहना क्या चाहते हैं। संकेतों और हाव-भाव को समझना इतना आसान नहीं होता जितना बोल कर अपने आप को व्यक्त करना। हर चीज हाव भाव और अपने संकेतों के माध्यम से नहीं समझाई जा सकती। उन बातों को दूसरों को समझाने के लिए हमें शब्दों का प्रयोग करना ही पड़ता है, भाषा का सहारा लेना ही पड़ता है। हम सभी भारत देश के निवासी हैं और इस बात पर हमें गर्व भी है। भारत देश में अनेक प्रकार की बोलियों और भाषाओं को बोला जाता है। विविधता में एकता का प्रतीक है हमारा भारत राष्ट्र। चूंकि भारत में अनेक राज्य हैं और प्रत्येक राज्य की अपनी एक विशिष्ट अलग पहचान है, अलग बोली है, अलग भाषा है किंतु इतना सब होते हुए भी हम सभी भारतवासी एक हैं और एक दूसरे की भाषा को भली प्रकार सहजता और आसानी से समझ सकते हैं। भारत में चाहे जितनी भी भाषाएं और बोलियों को बोला जाता हो, किंतु यहां हिंदी का अपना एक विशिष्ट स्थान है। हिंदी भारत देश के भाल की बिंदी है अर्थात यह शिरोधार्य है। अपने राष्ट्र की भाषा का सम्मान करना अपने माता के सम्मान करने के बराबर ही है। जिस प्रकार हम अपने माता-पिता और पूर्वजों का आदर सत्कार करते हैं उसी प्रकार हमारे हृदयों में अपनी भाषा के प्रति भी सम्मान होना चाहिए और यह सम्मान किसी को दिखाने के लिए नहीं, अपितु महसूस करने के लिए होना चाहिए, सच्चे दिल से होना चाहिए। निसंदेह, हिंदी बोलते समय प्रत्येक भारतवासी को गर्व एवम अतुलनीय हर्ष का अनुभव होता है। जब विदेशों में भी लोग हिंदी भाषा का प्रयोग करते हैं और हिंदी बोलते समय खुद को सम्मानित महसूस करते हैं, तो यह देख खुशी के मारे हमारा सीना चौड़ा हो जाता है। जरा सोचिए, हिंदी भाषी ना होने के बावजूद भी विदेशों में हिंदी के प्रति क्रेज किस प्रकार बढ़ता जा रहा है, विदेश में रहने वाले लोग हिंदी बोल कर खुद को सम्मानित महसूस करते हैं और एक नई भाषा सीखकर गौरवान्वित भी। जब हिंदी भाषी ना होने के बावजूद दुनिया के अनेक देश हिंदी के प्रति अपने हृदय में यह आदर और सम्मान रख सकते हैं तो हम तो हैं ही हिंदी वासी, हमारे लिए तो हिंदी हमारी माता के समान है और अपनी माता के सम्मान को बरकरार रखना हम सबका परम दायित्व बनता है। अपने इस दायित्व को निभाने में हमें किसी प्रकार की कोताही नहीं बरतनी चाहिए और पूरी ईमानदारी और गर्व भाव के साथ इस जिम्मेदारी को दिल से निभाना चाहिए। निसंदेह हमारे राष्ट्र में हिंदी का अत्यधिक सम्मान किया जाता है और हिंदी के प्रति सम्मान को प्रकट करने के लिए हम हिंदी का जम कर प्रयोग करते हैं और हिंदी प्रयोग करने में खुद को गौरवान्वित भी महसूस करते हैं, किंतु कहा जाता है ना कि अपवाद तो हर जगह पाए जाते हैं। हमारी हिंदी भाषा भी इन अपवादों से खुद को बचा नहीं पाई है। कहने का तात्पर्य है कि आज हमारे देश के लाखों लोग हिंदी भाषा बोलने में शर्म का अनुभव करते हैं व्यक्तिगत अपवादों को छोड़ भी दें तो भी अनेक प्रकार के सरकारी और गैर सरकारी दोनों ही प्रकार के शिक्षण संस्थानों और कार्यालयों में हिंदी प्रयोग को क्लिष्ट समझा जाता है और इसके स्थान पर विदेशी भाषाओं के प्रयोग को सहज समझकर प्रयोग किया जाता है। यह अति दुखद है। विदेशी भाषाओं को बोलना, सीखना और लिखना कदापि गलत नहीं, अपितु यह तो बहुत ही अच्छी बात है कि हम दूसरे देश की भाषाओं को सीखने में रुचि दिखा रहे हैं और अपने सामान्य ज्ञान में निरंतर वृद्धि भी कर रहे हैं जो आने वाले समय में अंतरराष्ट्रीय संबंधों को मज़बूत बनाने में भी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। किंतु विदेशी भाषाओं को सीखकर अपने ही देश में उनका वर्चस्व स्थापित करने की अनुमति देना यह सरासर गलत है। अपनी भाषाओं के स्थान पर विदेशी भाषाओं को प्रयोग करना भी गलत है। अपनी भाषाओं के साथ-साथ विदेशी भाषाओं का प्रयोग स्वीकार्य हो सकता है। किंतु, विदेशी भाषाओं से अपनी भाषा को रिप्लेस करना किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं है। वर्तमान में अनेक कार्यालयों, संस्थानों और कंपनियों में हिंदी का ना के बराबर प्रयोग किया जाता है। हिंदी के स्थान पर विदेशी भाषा का प्रयोग करने में ही वहां गर्व का अनुभव किया जाता है। वहां हिंदी बोलने वाले कर्मचारियों को हेय दृष्टि से देखा जाता है, ऐसा करना ना केवल अनैतिकता की श्रेणी में आता है अपितु अपने राष्ट्र के सम्मान पर भी यह एक प्रहार ही है। भारत के असंख्य लोग हिंदी बोलने में शर्म का अनुभव करते हैं क्योंकि उनके अनुसार विदेशी भाषाओं के सामने हिंदी फीकी लगती है और हिंदी बोलने पर उनका अपमान होता है। इस प्रकार की सोच बेहद निंदनीय है ,शर्मनाक है। निज भाषा के प्रति इस प्रकार की घटिया सोच या निम्न स्तर की मानसिकता ही हिंदी के पतन का मुख्य कारण बनती जा रही है हिंदी के उत्थान की जिम्मेदारी हम सभी पर है। विदेशों तक में जिस भाषा को इतना प्यार और सम्मान दिया जा रहा है उस भाषा की अपने ही घर में, अपने ही देश में इस प्रकार की दुखद स्थिति को देखकर मन आहत होता है। क्यों लोग यह भूल जाते हैं कि हमारी अपनी भाषा ही हमारी उन्नति का मार्ग प्रशस्त करती है। विदेशी भाषाओं को सीखना सिखाना उस स्थिति में स्वीकार किया जा सकता है जब हम अपनी भाषाओं को प्रमुखता देकर अपनाएं और जिस प्रकार विदेशी लोग अपनी भाषा के प्रति गौरव महसूस करते हैं, उसी प्रकार हम भी अपनी भाषा के गौरव को बनाए रखने की दिशा में हर संभव प्रयास करें। देश के बाहर इसके सम्मान को और भी ऊंचा उठाने के हमें अपने सार्थक प्रयत्न करने चाहिएं। हिंदी हमारा गौरव है, हमारा सम्मान है, हमारा अभिमान है, यह बात हमें कदापि नहीं भूलनी चाहिए। कुछ लोगों की निम्न स्तर की मानसिकता के चलते हम हिंदी को बिसरा नहीं सकते। हिंदी का भविष्य बहुत उज्ज्वल है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि विदेशों में आजकल हिंदी भाषी लोगों को अत्यधिक सम्मान और आदर की दृष्टि से देखा जाता है। भारत की ही तरह वहां पर भी हिंदी साहित्य को सीखने की ललक लोगों में देखी जाती है। जिस प्रकार हमारे देश में हिंदी साहित्य को समृद्ध करने के लिए समय-समय पर विभिन्न प्रकार की प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं, वहां पर भी इसी प्रकार की प्रतियोगिताएं आयोजित करने का चलन चल पड़ा है। भारत की संस्कृति को विदेशी लोग अतिचार से अपना रहे हैं और सराह रहे हैं। निसंदेह हिंदी के प्रति पूरे विश्व का प्रेम हिंदी को एक ऐसे स्तर पर लेकर जाएगा जहां हिंदी ना केवल भारत में अपितु पूरे विश्व में अपना परचम लहराएगी। अब वह दिन दूर नहीं जब हिंदी ना केवल भारत की,अपितु समूचे विश्व के लिए गौरव का विषय बनेगी। इस बात से हम इनकार नहीं कर सकते कि वर्तमान में हिंदी की दशा शोचनीय है, किंतु हम सब मिलकर अपने सामूहिक प्रयासों से हिंदी साहित्य के क्षेत्र में एक क्रांति लेकर आएंगे और हिंदी को इसका वास्तविक अधिकार और स्थान दिला कर रहेंगे। हिंदी हमारी आत्मा में बसती है। किसी ने सही ही कहा है कि - आप चाहे दुनिया की जितनी भी भाषाएं क्यों न सीख लें किंतु दुख, तकलीफ और यहां तक की सपनों की दुनिया में भी आप अपनी मातृभाषा में ही संवाद करते हैं, बात करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि हम हिंदी भाषी हिंदी के सम्मान पर अब कोई आंच नहीं आने देंगे, हम इसके गौरव को बढ़ाएंगे और कहीं भी इसका अपमान नहीं होने देंगे। हम हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में अपना महत्वपूर्ण योगदान देंगे क्योंकि हिंदी है तो हम हैं ,हिंदी है तो हमारा राष्ट्र है। अपने राष्ट्र के अस्तित्व को संरक्षित करने अपनी संस्कृति को अगली पीढ़ियों तक हस्तांतरित करने हेतु हमें अपनी भाषा को स्नेह पूर्वक सिंचित करना होगा और इसके प्रयोग में गर्व महसूस करना होगा। यदि हमें अपनी सभ्यता और संस्कृति को बनाए रखना है तो हमें हिंदी को हर हाल में उसकी जगह दिलानी होगी। ***********
- प्रेरणा का स्रोत
एक बार एक राजा की सेवा से प्रसन्न होकर एक साधू नें उसे एक ताबीज दिया और कहा की राजन इसे अपने गले मे डाल लो और जिंदगी में कभी ऐसी परिस्थिति आये कि जब तुम्हे लगे कि बस अब तो सब ख़तम होने वाला है, परेशानी के भंवर मे अपने को फंसा पाओ, कोई प्रकाश की किरण नजर ना आ रही हो, हर तरफ निराशा और हताशा हो तब तुम इस ताबीज को खोल कर इसमें रखे कागज़ को पढ़ना, उससे पहले नहीं। राजा ने वह ताबीज अपने गले मे पहन लिया। एक बार राजा अपने सैनिकों के साथ शिकार करने घने जंगल मे गया। एक शेर का पीछा करते करते राजा अपने सैनिकों से अलग हो गया और दुश्मन राजा की सीमा मे प्रवेश कर गया,घना जंगल और सांझ का समय, तभी कुछ दुश्मन सैनिकों के घोड़ों की टापों की आवाज राजा को आई और उसने भी अपने घोड़े को एड लगाई, राजा आगे-आगे दुश्मन सैनिक पीछे पीछे। बहुत दूर तक भागने पर भी राजा उन सैनिकों से पीछा नहीं छुडा पाया। भूख प्यास से बेहाल राजा को तभी घने पेड़ों के बीच मे एक गुफा सी दिखी, उसने तुरंत स्वयं और घोड़े को उस गुफा की आड़ मे छुपा लिया। और सांस रोक कर बैठ गया, दुश्मन के घोड़ों के पैरों की आवाज धीरे-धीरे पास आने लगी। दुश्मनों से घिरे हुए अकेले राजा को अपना अंत नजर आने लगा, उसे लगा की बस कुछ ही क्षणों में दुश्मन उसे पकड़ कर मौत के घाट उतार देंगे। वो जिंदगी से निराश हो ही गया था, कि उसका हाथ अपने ताबीज पर गया और उसे साधू की बात याद आ गई। उसने तुरंत ताबीज को खोल कर कागज को बाहर निकाला और पढ़ा। उस पर्ची पर लिखा था -“यह भी कट जाएगा“ राजा को अचानक ही जैसे घोर अन्धकार मे एक ज्योति की किरण दिखी, डूबते को जैसे कोई सहारा मिला। उसे अचानक अपनी आत्मा मे एक अकथनीय शान्ति का अनुभव हुआ। उसे लगा कि सचमुच यह भयावह समय भी कट ही जाएगा, फिर मैं क्यों चिंतित होऊं। अपने प्रभु और अपने पर विश्वास रख उसने स्वयं से कहा कि हाँ, यह भी कट जाएगा। और हुआ भी यही ,दुश्मन के घोड़ों के पैरों की आवाज पास आते आते दूर जाने लगी, कुछ समय बाद वहां शांति छा गई। राजा रात मे गुफा से निकला और किसी तरह अपने राज्य मे वापस आ गया। दोस्तों, यह सिर्फ किसी राजा की कहानी नहीं है यह हम सब की कहानी है।हम सभी परिस्थिति, काम, तनाव के दवाव में इतने जकड जाते हैं कि हमे कुछ सूझता नहीं है, हमारा डर हम पर हावी होने लगता है, कोई रास्ता, समाधान दूर-दूर तक नजर नहीं आता, लगने लगता है कि बस, अब सब ख़तम, है ना? जब ऐसा हो तो २ मिनट शांति से बेठिये ,थोड़ी गहरी-गहरी साँसे लीजिये। अपने आराध्य को याद कीजिये और स्वयं से जोर से कहिये –यह भी कट जाएगा।आप देखिएगा एकदम से जादू सा महसूस होगा, और आप उस परिस्थिति से उबरने की शक्ति अपने अन्दर महसूस करेंगे। आजमाया हुआ है। बहुत कारगर है। आशा है जैसे यह सूत्र मेरे जीवन मे मुझे प्रेरणा देता है, आपके जीवन मे भी प्रेरणादायक सिद्ध होगा।
- बुलिंग, आज की ज्वलंत समस्या
पुरानी कहावत है कि संसार में सदियों से ताकतवर कमजोर को दबाता आया है और यह कहावत सृष्टि के प्रत्येक जीव पर लागू होती है। यह बात हमें अपने आसपास भी अक्सर दृष्टिगत होती है कि जो व्यक्ति स्वयं को अक्षम महसूस करते हैं उन्हें उनसे सक्षम और मजबूत व्यक्ति अक्सर दबाते हैं और उनकी अक्षमता का फायदा उठाते हुए उन पर अपनी सक्षमता का रौब जमाते हैं। मनुष्य हो अथवा कोई अन्य जीव जंतु, यह सभी पर समान रूप से लागू होता है। सृष्टि की शुरुआत से ही यह चलता आया है कि कमजोर सदैव ताकतवर के सामने दबते ही आए हैं। अपनी कमजोरी को छुपाने के लिए या यूं कहें अपनी कमजोरी के बोझ तले दबे हुए व्यक्ति अपने से अधिक मजबूत, ताकतवर और सशक्त व्यक्ति की सभी बातें मानने के लिए स्वयं को मजबूर और लाचार महसूस करते हैं, उन्हें चाहे अनचाहे उनके सामने झुकना होता है अन्यथा वह उनको फेस नहीं कर पाते, उनका सामना नहीं कर पाते और नाहक ही हास का पात्र बन जाते हैं। उपरोक्त स्थिति को अंग्रेजी भाषा में बुलिंग कहा जाता है। बुलिंग का हिंदी अर्थ यदि देखा जाए तो बुलिंग एक ऐसी स्थिति है जिसमें ताकतवर अपने से कमजोर को दबाता है, वहीं दूसरी ओर कमजोर व्यक्ति अपने से अधिक मजबूत लोगों के सामने झुकते हैं और यदि ऐसा नहीं होता है तो कमजोर व्यक्ति के लिए मुश्किलें खड़ी होने लगती हैं जिससे कभी-कभी वे तनाव की स्थिति में भी आ जाते हैं। बुलिंग कई प्रकार की हो सकती है जिसका शिकार अधिकतर ना केवल बच्चे अपितु अन्य अनेक बड़े लोग (विशेषत: महिलाएं) भी आसानी से हो जाते हैं। सोशल मीडिया के इस दौर में बुली होना आम हो गया है। गली मोहल्ले, ऑफिस या स्कूल में भी इस प्रकार की घटनाएं अक्सर घटित होती रहती हैं। आज के हमारे इस आलेख में हम बच्चों से संबंधित बूलिंग के बारे में कुछ जानकारियां साझा करेंगे। हम में से अधिकतर लोग बुलीइंग क्या होती है, से भली भांति परिचित हैं। किंतु कभी-कभी ऐसा होता है कि सब कुछ जानने के पश्चात भी हम स्थिति से अवगत नहीं हो पाते और समस्याएं विकराल रूप धारण कर लेती हैं। बच्चों के संदर्भ में यदि बात की जाए तो अक्सर हमारे बच्चे स्कूल और कोचिंग एकेडमी, या ट्यूशन सेंटर्स में इसका शिकार होते हैं और संकोचवश या यूं कहें डर के मारे बच्चे अपनी बात आसानी से किसी से कह भी नहीं पाते, किसी के साथ शेयर भी नहीं कर पाते। ऐसा होने पर समस्याएं बढ़ने लगती हैं और कभी-कभी उनका परिणाम बहुत ही घातक सिद्ध होता है। विद्यालय में अक्सर सीनियर या ताकतवर बच्चे अपने से छोटी कक्षाओं के बच्चों को डराते हैं धमकाते हैं और उन पर हुकूमत जमाते हैं। कमजोर और जूनियर्स अक्सर बुलिंग का शिकार होते हैं, उनके बड़े उनको दबाते रहते हैं और वे चाहकर भी उनके खिलाफ कुछ नहीं कर पाते हैं। ऐसी स्थिति में वे खुद को और भी अधिक बेबस और कमजोर महसूस करते हैं और अपनी इसी बेबसी के चलते वे शर्मिंदा भी होते हैं जिस की वजह से वे अपनी समस्या किसी के साथ साझा नहीं कर पाते। यहां तक कि कभी-कभी वे माता-पिता से भी अपने मन की बात नहीं कर पाते क्योंकि उनके दिल में एक प्रकार का अनदेखा सा डर बैठ चुका होता है और उस डर के कारण ही वे सदैव, असुरक्षित, डरे-डरे और सहमे-सहमे से रहते हैं। सोशल मीडिया के इस युग में बुलिंग की समस्या और भी खराब और भयंकर रूप लेती जा रही है जिस पर लगाम कसी जानी अति आवश्यक है। कभी-कभी बुलिंग इस कदर बच्चों को परेशान कर डालती है कि बच्चे अपना आत्मविश्वास खो बैठते हैं और कभी-कभी तो वे अपनी जीवन लीला ही समाप्त कर लेते हैं जो कि अत्यधिक दर्दनाक है। अपने मन की कमजोरी के चलते वे किसी के समक्ष स्थिति को स्पष्ट नहीं कर पाते और असमंजस का शिकार होने लगते हैं। इसी असमंजसता की स्थिति का सामना जब वे नहीं कर पाते तो उनके कदम गलत दिशा में उठने लगते हैं। माता-पिता के प्रति उनका विश्वास खत्म होने लगता है और जो नहीं होना चाहिए उनके साथ फिर वही होता है। गली मोहल्ले या पार्क में भी अक्सर इसी प्रकार की स्थितियां देखने को मिल जाती है। बुलिंग का उम्र से कोई लेना देना नहीं होता छोटे से छोटे बच्चे से लेकर बड़ी उम्र के लोगों तक में यह स्थिति देखने को मिल सकती है। अक्सर बड़े बुजुर्ग भी बुलिंग का शिकार होते हैं और अपनी सहायता के लिए वे किसी के पास भी जाने में संकोच का अनुभव करते हैं जिसकी वजह से स्थिति और अधिक बिगड़ने लगती है और अनियंत्रित हो जाती है। महिलाएं भी बुलिंग से पीछे नहीं हैं, महिलाओं को अक्सर सोशल मीडिया पर बुलिंग का शिकार होते देखा जाता है। प्रतिदिन अखबारों, समाचार पत्रों और मैगजींस में इस तरह की खबरें आती रहती हैं जिसमें कहीं ना कहीं महिलाओं के साथ बुलिंग की घटनाएं घटित होती दिखाई बताई गईं होती हैं और जिसके फलस्वरूप महिलाएं या तो अवसाद में चली जाती हैं अथवा आत्महत्या का शिकार होने लगती हैं। बुलिंग का शिकार होने वाले लोगों का आंकड़ा दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। पिछले कुछ वर्षों का रिकार्ड उठाकर देखा जाए तो बुलिंग संबंधी समस्याएं पहले से बढ़ी ही हैं। बुलिंग की समस्या पर यथासंभव नियंत्रण पाने के लिए सबसे अहम और महत्वपूर्ण भूमिका माता-पिता की होती है। माता-पिता को अपने बच्चों पर विश्वास कायम रखना चाहिए और अपने बच्चों को घर से बाहर निकलने से पहले भली प्रकार समझाना चाहिए कि किसी भी प्रकार की अनहोनी की स्थिति में वे सबसे पहले अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग करेंगे, गलत के समक्ष नहीं झुकेंगे और सदैव सही का साथ देते हुए अपने मन की हर बात उनसे साझा करेंगे, कभी हिचकिचाएंगे नहीं और संकोच का अनुभव ना करते हुए स्थिति को जस के तस स्पष्ट करेंगे । बच्चों के मन में माता-पिता को यह भाव उत्पन्न करना चाहिए कि उनके माता-पिता का साथ उनके साथ सदैव है। वे उन्हें किसी भी मुश्किल स्थिति में नहीं रहने देंगे और यदि कभी कोई समस्या आ भी जाएगी तो उसको वे बाहर निकाल लेंगे। इतना विश्वास जब बच्चों का अपने माता-पिता के प्रति होने लगेगा तो निसंदेह बुलिंग जैसी समस्याएं भी हमारे बच्चों का कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगी, इसके विपरीत बच्चे खुद को पहले से कहीं अधिक आत्मविश्वासी और सक्षम तथा सशक्त महसूस करने लगेंगे और विभिन्न स्थितियों में भी स्वयं को ताकवर महसूस कर समक्ष खड़ी स्थितियों का सामना डट कर कर पाएंगे। यह सत्य है कि आज के भागदौड़ भरे जीवन में हम सभी की जिंदगी में बहुत अधिक उलझ गई हैं किसी के पास किसी के लिए समय ही नहीं है किंतु ऐसी स्थिति में भी अपने मूल्यवान समय से कुछ समय निकालकर अपने बच्चों के साथ व्यतीत करना चाहिए, उनके मन की बात जानने का प्रयास करना चाहिए और उन्हें यह एहसास करवाना चाहिए कि आप हर पल, हर क्षण, हर प्रकार की स्थिति में उनके साथ हैं और कभी उन्हें धोखा नहीं देंगे। गलती होने की स्थिति में भी आप उन्हें भली प्रकार समझाएंगे और उनका साथ देंगे ना कि उनकी छोटी-छोटी गलतियों पर उन्हें डांट फटकार लगाएंगे। अभिभावकों और माता-पिता का फर्ज बनता है कि वे अपने बच्चों से खुलकर बात करें, उन्हें बुलिंग का अर्थ समझाएं और सदैव सतर्क रहने के लिए कहें। बच्चों को समझाया जाए कि गलत के प्रति वे अपनी आवाज बुलंद करें, अन्याय को सहन ना करें और मजबूती से no कहने की आदत को खुद में विकसित करें। अपने बच्चों को साइबर सिक्योरिटी संबंधित नियमों और प्रावधानों से भली प्रकार अवगत कराएं ताकि किसी मुश्किल और अवांछित स्थिति और प्रतिकूल समय में यदि वे आप तक ना भी पहुंच पाएं तो इस प्रकार की सुविधाओं का लाभ उठाकर वे अपनी रक्षा स्वयं कर सकें। एक बार यदि सिर्फ एक बार आपके बच्चों के मन में आपके प्रति विश्वास उत्पन्न हो गया तो यकीन मानिए वे कभी भी बुलिंग जैसी समस्याओं का शिकार नहीं होंगे और यदि होंगे भी तो वे उस स्थिति का निपटारा स्वयं करने में सशक्तता का अनुभव करेंगे, और अपने मन की हर छोटी बड़ी बात भी आपसे जरूर साझा करेंगे और फिर इस प्रकार की समस्याएं खुद-ब-खुद दूर होकर खत्म होने लगेंगी। बच्चे हमारे हैं तो निसंदेह हम सभी की जिम्मेदारी बनती है कि हम अपने बच्चों को सचेत बनाएं, सावधान बनाएं और जागरूक बनाएं ताकि कोई भी उन्हें कमजोर समझ कर स्थिति का फायदा उठाने की सोच तक ना सके। अपनी इस जिम्मेदारी का पूर्ण ईमानदारी एवं दृढ़ता से निर्वाह करें और अपने बच्चों को सुरक्षित रखने के साथ-साथ एक स्वस्थ और सुरक्षित समाज के निर्माण की नींव को मजबूत करने में भी अपना यथासंभव योगदान देने का प्रयास करें। याद रहे, सुरक्षित समाज ही एक स्वस्थ समाज की कल्पना को साकार कर सकता है। ******
- बाज की सीख
एक समय की बात है, एक बहेलिया जंगल में पक्षियों का शिकार करने गया। बहेलिया ने दाना डाला और जाल बिछाकर पक्षियों के जाल में फंसने का इंतजार करने लगा। बहुत प्रयास करने के बाद बहेलिये ने जाल में एक बाज पकड़ लिया। बहेलिया जब बाज को बेचने के लिए बाजार की ओर जाने लगा तब रास्ते में बाज ने बहेलिया से कहा, “तुम मुझे लेकर क्यों जा रहे हो?” बहेलिया बोला, “मैं तुम्हें मारकर तुम्हारा गोश्त बाजार में बेच दूंगा।” बाज बहुत डर गया, उसने सोचा कि अब तो मेरी मृत्यु निश्चित है। बाज कुछ देर यूँ ही शांत रहा और फिर कुछ सोचकर शिकारी से बोला, “देखो भाई, मुझे जितना जीवन जीना था वह तो मैंने जी लिया और अब मेरा अंतिम समय आ गया है, लेकिन मरने से पहले मेरी एक अंतिम इच्छा है। जिसे मैं पूरी करना चाहता हूं।” “बताओ अपनी इच्छा, बताओ?”, बहेलिया ने बड़ी ही उत्सुकता से पूछा। बाज ने बताना शुरू किया - मरने से पहले मैं तुम्हें दो सीख देना चाहता हूँ, जो कि तुम्हारे जीवन में बहुत काम आएंगी, इसे तुम ध्यान से सुनना और सदा याद रखना। पहली सीख तो यह कि किसी की बातों का बिना प्रमाण व बिना सोचे-समझे विश्वास मत करना। दूसरी यह कि यदि तुम्हारे साथ कुछ बुरा हो, तुम्हारे हाथ से कुछ छूट जाए या तुम्हारा कोई बड़ा नुकसान हो जाए तो उसके लिए कभी दुखी मत होना। बहेलिया ने बाज की बात सुनी और अपने रास्ते आगे बढ़ता रहा। कुछ समय बाद बाज ने बहेलिया से कहा, “बहेलिया, एक बात बताओ, अगर मैं तुम्हें कोई ऐसी वस्तु दे दूं जिससे कि तुम रातों रात बहुत अमीर व्यक्ति बन जाओ तो क्या तुम मुझे अपने चंगुल से आजाद कर दोगे?” बहेलिया फ़ौरन रुका और बोला, “क्या है वो चीज, जल्दी बताओ, हां यदि तुम मुझे ऐसी वस्तु देते हो तो मैं तुझे आजाद कर दूंगा?” बाज बोला, “ दरअसल, बहुत पहले मुझे राजमहल के करीब एक हीरा मिला था, जिसे उठा कर मैंने एक गुप्त स्थान पर रख दिया था। वह हीरा अत्यंत मूल्यवान है। अगर आज मैं मर जाऊँगा तो वो हीरा ऐसे ही बेकार चला जाएगा, इसलिए मैंने सोचा कि अगर तुम उसके बदले मुझे छोड़ दो तो मेरी जान भी बच जायेगी और तुम्हारी गरीबी भी हमेशा के लिए मिट जायेगी।” यह सुनते ही बहेलिया ने बिना कुछ सोचे समझे बाज को आजाद कर दिया और हीरा लेकर आने को कहा। बाज तुरंत उड़ कर नजदीक के पेड़ की एक ऊँची साखा पर जा बैठा और बोला, “कुछ देर पहले ही मैंने तुम्हें एक सीख दी थी कि किसी की भी बातों का तुरंत विश्वास मत करना लेकिन तुमने उस सीख का पालन नही किया। दरअसल, मेरे पास कोई हीरा वीरा नहीं है और अब मैं तुम्हारे बंधन से मुक्त हो गया हूँ।” यह सुनते ही बहेलिया मायूस हो गया और अपनी गलती पर पछताने लगा, तभी बाज फिर बोला, तुम मेरी दूसरी सीख भी भूल गए कि अगर तुम्हारे साथ कुछ बुरा हो तो उसके लिए तुम कभी पछतावा मत करना। सार - हमें किसी अनजान व्यक्ति पर आसानी से विश्वास नहीं करना चाहिए और किसी प्रकार का नुक्सान होने या असफलता मिलने पर दुखी भी नहीं होना चाहिए, बल्कि उस बात से सीख लेकर भविष्य में सतर्क रहना चाहिए। ******
- असली मदद
मैं कईं दिनों से बेरोजगार था, एक एक रूपये की कीमत जैसे करोड़ों लग रही थी, इस उठापटक में था कि कहीं नौकरी लग जाए। आज एक इंटरव्यू था, पर दूसरे शहर जाने के लिए जेब में सिर्फ दस रूपये थे। मुझे कम से कम दो सौ रुपयों की जरूरत थी। अपने इकलौते इन्टरव्यू वाले कपड़े रात में धो, पड़ोसी की प्रेस माँग के तैयार कर पहन, अपने योग्यताओं की मोटी फाइल बगल में दबाकर, दो बिस्कुट खा के निकला। लिफ्ट ले, पैदल जैसे तैसे चिलचिलाती धूप में तरबतर बस! इस उम्मीद में स्टेंड पर पहुँचा कि शायद कोई पहचान वाला मिल जाए, जिससे सहायता लेकर इन्टरव्यू के स्थान तक पहुँच सकूँ। काफी देर खड़े रहने के बाद भी कोई नहीं दिखा। मन में घबराहट और मायूसी थी, क्या करूँगा अब कैसे पहुँचूगा? पास के मंदिर पर जा पहुंचा, दर्शन कर सीढ़ियों पर बैठा था। मेरे पास में ही एक भिखारी बैठा था, उसके कटोरे में मेरी जेब और बैंक एकाउंट से भी ज्यादा पैसे पड़े थे। मेरी नजरें और हालात समझ के बोला, "कुछ मदद चाहिए क्या?" मैं बनावटी मुस्कुराहट के साथ बोला, "आप क्या मदद करोगे?" "चाहो तो मेरे पूरे पैसे रख लो" वो मुस्कुराता बोला, मैं चौंक गया!! उसे कैसे पता मेरी जरूरत! मैनें कहा "क्यों"...? "शायद आपको जरूरत है" वो गंभीरता से बोला। "हाँ है तो, पर तुम्हारा क्या, तुम तो दिन भर माँग के कमाते हो?" मैने उस का पक्ष रखते हुए कहा। वो हँसता हुआ बोला, "मैं नहीं माँगता साहब, लोग डाल जाते हैं मेरे कटोरे में, पुण्य कमाने के लिए। मैं तो भिखारी हूँ, मुझे इनका कोई मोह नहीं। मुझे सिर्फ भूख लगती है, वो भी एक टाइम और कुछ दवाइयाँ। बस! "मैं तो खुद ये सारे पैसे मंदिर की पेटी में डाल देता हूँ।" वो सहज था कहते कहते। मैनें हैरानी से पूछा, "फिर यहाँ बैठते क्यों हो..?" "जरूरतमंदों की मदद करने!!" कहते हुए वो मंद मंद मुस्कुरा रहा था। मैं उसका मुँह देखता रह गया। उसने दो सौ रुपये मेरे हाथ पर रख दिए और बोला, "जब हो तब लौटा देना।" मैं उसका धन्यवाद जताता हुआ वहाँ से अपने गंतव्य तक पहुँचा। मेरा इंटरव्यू हुआ और सलेक्शन भी। मैं खुशी खुशी वापस आया, सोचा उस भिखारी को धन्यवाद दे दूँ। मैं मंदिर पहुँचा, बाहर सीढ़़ियों पर भीड़ लगी थी, मैं घुस के अंदर पहुँचा, देखा वही भिखारी मरा पड़ा था। मैं भौंचक्का रह गया। मैने दूसरों से पूछा यह कैसे हुआ? पता चला, वो किसी बीमारी से परेशान था। सिर्फ दवाईयों पर जिन्दा था। आज उसके पास दवाइयाँ नहीं थी और न उन्हें खरीदने के पैसे। मैं अवाक सा उस भिखारी को देख रहा था। अपनी दवाईयों के पैसे वो मुझे दे गया था। जिन पैसों पे उसकी जिंदगी का दारोमदार था, उन पैसों से मेरी ज़िंदगी बना दी थी। भीड़ में से कोई बोला, अच्छा हुआ मर गया। ये भिखारी भी साले बोझ होते हैं, कोई काम के नहीं। मेरी आँखें डबडबा आयी। वो भिखारी कहाँ था, वो तो मेरे लिए भगवान ही था। नेकी का फरिश्ता। मेरा भगवान। मित्रों, हममें से कोई नहीं जानता कि भगवान कौन हैं और कहाँ हैं? किसने देखा है भगवान को? बस इसी तरह मिल जाते हैं। *********
- नाग-पूजा
प्रात:काल था। आषढ़ का पहला दौंगड़ा निकल गया था। कीट-पतंग चारों तरफ रेंगते दिखायी देते थे। तिलोत्तमा ने वाटिका की ओर देखा तो वृक्ष और पौधे ऐसे निखर गये थे जैसे साबुन से मैने कपड़े निखर जाते हैं। उन पर एक विचित्र आध्यात्मिक शोभा छायी हुई थी मानों योगीवर आनंद में मग्न पड़े हों। चिड़ियों में असाधारण चंचलता थी। डाल-डाल, पात-पात चहकती फिरती थीं। तिलोत्तमा बाग में निकल आयी। वह भी इन्हीं पक्षियों की भॉँति चंचल हो गयी थी। कभी किसी पौधे की देखती, कभी किसी फूल पर पड़ी हुई जल की बूँदो को हिलाकर अपने मुँह पर उनके शीतल छींटे डालती। लाज बीरबहूटियॉँ रेंग रही थी। वह उन्हें चुनकर हथेली पर रखने लगी। सहसा उसे एक काला वृहत्काय सॉँप रेंगता दिखायी-दिया। उसने पिल्लाकर कहा—अम्मॉँ, नागजी जा रहे हैं। लाओ थोड़ा-सा दूध उनके लिए कटोरे में रख दूं। अम्मॉँ ने कहा—जाने दो बेटी, हवा खाने निकले होंगे। तिलोत्तमा—गर्मियों में कहॉँ चले जाते हैं ? दिखायी नहीं देते। मॉँ—कहीं जाते नहीं बेटी, अपनी बॉँबी में पड़े रहते हैं। तिलोत्तमा—और कहीं नहीं जाते ? मॉँ—बेटी, हमारे देवता है और कहीं क्यों जायेगें ? तुम्हारे जन्म के साल से ये बराबर यही दिखायी देतें हैं। किसी से नही बोलते। बच्चा पास से निकल जाय, पर जरा भी नहीं ताकते। आज तक कोई चुहिया भी नहीं पकड़ी। तिलोत्तमा—तो खाते क्या होंगे ? मॉँ—बेटी, यह लोग हवा पर रहते हैं। इसी से इनकी आत्मा दिव्य हो जाती है। अपने पूर्वजन्म की बातें इन्हें याद रहती हैं। आनेवाली बातों को भी जानते हैं। कोई बड़ा योगी जब अहंकार करने लगता है तो उसे दंडस्वरुप इस योनि में जन्म लेना पड़ता है। जब तक प्रायश्चित पूरा नहीं होता तब तक वह इस योनि में रहता है। कोई-कोई तो सौ-सौ, दो-दो सौं वर्ष तक जीते रहते हैं। तिलोत्तमा—इसकी पूजा न करो तो क्या करें। मॉँ—बेटी, कैसी बच्चों की-सी बातें करती हो। नाराज हो जायँ तो सिर पर न जाने क्या विपत्ति आ पड़े। तेरे जन्म के साल पहले-पहल दिखायी दिये थे। तब से साल में दस-पॉँच बार अवश्य दर्शन दे जाते हैं। इनका ऐसा प्रभाव है कि आज तक किसी के सिर में दर्द तक नहीं हुआ। २ कई वर्ष हो गये। तिलोत्तमा बालिका से युवती हुई। विवाह का शुभ अवसर आ पहुँचा। बारात आयी, विवाह हुआ, तिलोत्तमा के पति-गृह जाने का मुहूर्त आ पहुँचा। नयी वधू का श्रृंगार हो रहा था। भीतर-बाहर हलचल मची हुई थी, ऐसा जान पड़ता था भगदड़ पड़ी हुई है। तिलोत्तमा के ह्रदय में वियोग दु:ख की तरंगे उठ रही हैं। वह एकांत में बैठकर रोना चाहती है। आज माता-पिता, भाईबंद, सखियॉँ-सहेलियॉँ सब छूट जायेगी। फिर मालूम नहीं कब मिलने का संयोग हो। न जाने अब कैसे आदमियों से पाला पड़ेगा। न जाने उनका स्वभाव कैसा होगा। न जाने कैसा बर्ताव करेंगे। अममाँ की ऑंखें एक क्षण भी न थमेंगी। मैं एक दिन के लिए कही, चली जाती थी तो वे रो-रोकर व्यथित हो जाती थी। अब यह जीवनपर्यन्त का वियोग कैसे सहेंगी ? उनके सिर में दर्द होता था जब तक मैं धीरे-धीरे न मलूँ, उन्हें किसी तरह कल-चैन ही न पड़ती थी। बाबूजी को पान बनाकर कौन देगा ? मैं जब तक उनका भोजन न बनाऊँ, उन्हें कोई चीज रुचती ही न थी? अब उनका भोजन कौन बानयेगा ? मुझसे इनको देखे बिना कैसे रहा जायगा? यहॉँ जरा सिर में दर्द भी होता था तो अम्मॉं और बाबूजी घबरा जाते थे। तुरंत बैद-हकीम आ जाते थे। वहॉँ न जाने क्या हाल होगा। भगवान् बंद घर में कैसे रहा जायगा ? न जाने वहॉँ खुली छत है या नहीं। होगी भी तो मुझे कौन सोने देगा ? भीतर घुट-घुट कर मरुँगी। जगने में जरा देर हो जायगी तो ताने मिलेंगे। यहॉँ सुबह को कोई जगाता था, तो अम्मॉँ कहती थीं, सोने दो। कच्ची नींद जाग जायगी तो सिर में पीड़ा होने लगेगी। वहॉँ व्यंग सुनने पड़ेंगे, बहू आलसी है, दिन भर खाट पर पड़ी रहती है। वे (पति) तो बहुत सुशील मालूम होते हैं। हॉँ, कुछ अभिमान अवश्य हैं। कहों उनका स्वाभाव निठुर हुआ तो............? सहसा उनकी माता ने आकर कहा-बेटी, तुमसे एक बात कहने की याद न रही। वहॉं नाग-पूजा अवश्य करती रहना। घर के और लोग चाहे मना करें; पर तुम इसे अपना कर्तव्य समझना। अभी मेरी ऑंखें जरा-जरा झपक गयी थीं। नाग बाबा ने स्वप्न में दर्शन दिये। तिलोत्तमा—अम्मॉँ, मुझे भी उनके दर्शन हुए हैं, पर मुझे तो उन्होंले बड़ा विकाल रुप दिखाया। बड़ा भंयंकर स्वप्न था। मॉँ—देखना, तुम्हारे धर में कोई सॉँप न मारने पाये। यह मंत्र नित्य पास रखना। तिलोत्तमा अभी कुछ जवाब न देने पायी थी कि अचानक बारात की ओर से रोने के शब्द सुनायी दिये, एक क्षण में हाहाकर मच गया। भंयकर शोक-घटना हो गयी। वर को सौंप ने काट लिया। वह बहू को बिदा कराने आ रहा था। पालकी में मसनद के नीचे एक काला साँप छिपा हुआ था। वर ज्यों ही पालकी में बैठा, साँप ने काट लिया। चारों ओर कुहराम मच गया। तिलात्तमा पर तो मनों वज्रपात हो गया। उसकी मॉँ सिर पीट-पीट रोने लगी। उसके पिता बाबू जगदीशचंद्र मूर्च्छित होकर गिर पड़े। ह्रदयरोग से पहले ही से ग्रस्त थे। झाड़-फूँक करने वाले आये, डाक्टर बुलाये गये, पर विष घातक था। जरा देर में वर के होंठ नीले पड़ गये, नख काले हो गये, मूर्छा आने लगी। देखते-देखते शरीर ठंडा पड़ गया। इधर उषा की लालिमा ने प्रकृति को अलोकित किया, उधर टिमटिमाता हुआ दीपक बुझ गया। जैसे कोई मनुष्य बोरों से लदी हुई नाव पर बैठा हुआ मन में झुँझलाता है कि यह और तेज क्यों नहीं चलती , कहीं आराम से बैठने की जगह नहीं, राह इतनी हिल क्यों रही हैं, मैं व्यर्थ ही इसमें बैठा; पर अकस्मात् नाव को भँवर में पड़ते देख कर उसके मस्तूल से चिपट जाता है, वही दशा तिलोत्तमा की हुई। अभी तक वह वियोगी दु:ख में ही मग्न थी, ससुराल के कष्टों और दुर्व्यवस्थाओं की चिंताओं में पड़ी हुई थी। पर, अब उसे होश आया की इस नाव के साथ मैं भी डूब रही हूँ। एक क्षण पहले वह कदाचित् जिस पुरुष पर झुँझला रही थी, जिसे लुटेरा और डाकू समझ रही थी, वह अब कितना प्यारा था। उसके बिना अब जीवन एक दीपक था; बुझा हुआ। एक वृक्ष था; फल-फूल विहीन। अभी एक क्षण पहले वह दूसरों की इर्ष्या का कारण थी, अब दया और करुणा की। थोड़े ही दिनों में उसे ज्ञात हो गया कि मैं पति-विहीन होकर संसार के सब सुखों से वंचित हो गयी। ३ एक वर्ष बीत गया। जगदीशचंद्र पक्के धर्मावलम्बी आदमी थे, पर तिलोत्तमा का वैधव्य उनसे न सहा गया। उन्होंने तिलोत्तमा के पुनर्विवाह का निश्चय कर लिया। हँसनेवालों ने तालियॉँ बाजायीं पर जगदीश बाबू ने हृदय से काम लिया। तिलात्तमा पर सारा घर जान देता था। उसकी इच्छा के विरुद्ध कोई बात न होने पाती यहॉँ तक कि वह घर की मालकिन बना दी गई थी। सभी ध्यान रखते कि उसकी रंज ताजा न होने पाये। लेकिन उसके चेहरे पर उदासी छायी रहती थी, जिसे देख कर लोगों को दु:ख होता था। पहले तो मॉँ भी इस सामाजिक अत्याचार पर सहमत न हुई; लेकिन बिरादरीवालों का विरोध ज्यों-ज्यों बढ़ता गया उसका विरोध ढीला पड़ता गया। सिद्धांत रुप से तो प्राय: किसी को आपत्ति न थी किन्तु उसे व्यवहार में लाने का साहस किसी में न था। कई महीनों के लगातार प्रयास के बाद एक कुलीन सिद्धांतवादी, सुशिक्षित वर मिला। उसके घरवाले भी राजी हो गये। तिलोत्तमा को समाज में अपना नाम बिकते देख कर दु:ख होता था। वह मन में कुढ़ती थी कि पिताजी नाहक मेरे लिए समाज में नक्कू बन रहे हैं। अगर मेरे भाग्य में सुहाग लिखा होता तो यह वज्र ही क्यों गिरता। तो उसे कभी-कभी ऐसी शंका होती थी कि मैं फिर विधवा हो जाऊँगी। जब विवाह निश्चित हो गया और वर की तस्वीर उसके सामने आयी तो उसकी ऑंखों में ऑंसू भर आये। चेहरे से कितनी सज्जनता, कितनी दृढ़ता, कितनी विचारशीलता टपकती थी। वह चित्र को लिए हुए माता के पास गयी और शर्म से सिर झुकाकर बोली-अम्मॉं, मुँह मुझे तो न खोलना चाहिए, पर अवस्था ऐसी आ पड़ी है कि बिना मुँह खोले रहा नहीं जाता। आप बाबूजी को मना कर दें। मैं जिस दशा में हूँ संतुष्ट हूँ। मुझे ऐसा भय हो रहा है कि अबकी फिर वही शोक घटना............. मॉँ ने सहमी हुई ऑंखों से देख कर कहा—बेटी कैसी अशगुन की बात मुँह से निकाल रही हो। तुम्हारे मन में भय समा गया है, इसी से यह भ्रम होता है। जो होनी थी, वह हो चुकी। अब क्या ईश्वर क्या तुम्हारे पीछे पड़े ही रहेंगे ? तिलोत्तमा—हॉँ, मुझे तो ऐसा मालूम होता है ? मॉँ—क्यों, तुम्हें ऐसी शंका क्यों होती है ? तिलोत्तमा—न जाने क्यो ? कोई मेरे मन मे बैठा हुआ कह रहा है कि फिर अनिष्ट होगा। मैं प्रया: नित्य डरावने स्वप्न देखा करती हूँ। रात को मुझे ऐसा जान पड़ता है कि कोई प्राणी जिसकी सूरत सॉँप से बहुत मिलती-जुलती है मेरी चारपाई के चारों ओर घूमता है। मैं भय के मारे चुप्पी साध लेती हूँ। किसी से कुछ कहती नहीं। मॉँ ने समझा यह सब भ्रम है। विवाह की तिथि नियत हो गयी। यह केवल तिलोत्तमा का पुनर्संस्कार न था, बल्कि समाज-सुधार का एक क्रियात्मक उदाहरण था। समाज-सुधारकों के दल दूर से विवाह सम्मिलित होने के लिए आने लगे, विवाह वैदिक रीति से हुआ। मेहमानों ने खूब वयाख्यान दिये। पत्रों ने खूब आलोचनाऍं कीं। बाबू जगदीशचंद्र के नैतिक साहस की सराहना होने लगी। तीसरे दिन बहू के विदा होने का मुहूर्त था। जनवासे में यथासाध्य रक्षा के सभी साधनों से काम लिया गया था। बिजली की रोशनी से सारा जनवास दिन-सा हो गया था। भूमि पर रेंगती हुई चींटी भी दिखाई देती थी। केशों में न कहीं शिकन थी, न सिलवट और न झोल। शामियाने के चारों तरफ कनातें खड़ी कर दी गयी थी। किसी तरफ से कीड़ो-मकोड़ों के आने की संम्भावना न थी; पर भावी प्रबल होती है। प्रात:काल के चार बजे थे। तारागणों की बारात विदा हो रही थी। बहू की विदाई की तैयारी हो रही थी। एक तरफ शहनाइयॉँ बज रही थी। दूसरी तरफ विलाप की आर्त्तध्वनि उठ रही थी। पर तिलोत्तमा की ऑंखों में ऑंसू न थे, समय नाजुक था। वह किसी तरह घर से बाहर निकल जाना चाहती थी। उसके सिर पर तलवार लटक रही थी। रोने और सहेलियों से गले मिलने में कोई आनंद न था। जिस प्राणी का फोड़ा चिलक रहा हो उसे जर्राह का घर बाग में सैर करने से ज्यादा अच्छा लगे, तो क्या आश्चर्य है। वर को लोगों ने जगया। बाजा बजने लगा। वह पालकी में बैठने को चला कि वधू को विदा करा लाये। पर जूते में पैर डाला ही था कि चीख मार कर पैर खींच लिया। मालूम हुआ, पॉँव चिनगारियों पर पड़ गया। देखा तो एक काला साँप जूते में से निकलकर रेंगता चला जाता था। देखते-देखते गायब हो गया। वर ने एक सर्द आह भरी और बैठ गया। ऑंखों में अंधेरा छा गया। एक क्षण में सारे जनवासे में खबर फैली गयी, लोग दौड़ पड़े। औषधियॉँ पहले ही रख ली गयी थीं। सॉँप का मंत्र जाननेवाले कई आदमी बुला लिये गये थे। सभी ने दवाइयॉँ दीं। झाड़-फूँक शुरु हुई। औषधियॉँ भी दी गयी, पर काल के समान किसी का वश न चला। शायद मौत सॉँप का वेश धर कर आयी थी। तिलोत्तमा ने सुना तो सिर पीट लिया। वह विकल होकर जनवासे की तरफ दौड़ी। चादर ओढ़ने की भी सुधि न रही। वह अपने पति के चरणों को माथे से लगाकर अपना जन्म सफल करना चाहती थी। घर की स्त्रियों ने रोका। माता भी रो-रोकर समझाने लगी। लेकिन बाबू जगदीशचन्द्र ने कहा-कोई हरज नहीं, जाने दो। पति का दर्शन तो कर ले। यह अभिलाषा क्यों रह जाय। उसी शोकान्वित दशा में तिलोत्तमा जनवासे में पहुँची, पर वहॉँ उसकी तस्कीन के लिए मरनेवाले की उल्टी सॉँसें थी। उन अधखुले नेत्रों में असह्य आत्मवेदना और दारुण नैराश्य। ४ इस अद्भुत घटना का सामाचार दूर-दूर तक फैल गया। जड़वादोगण चकित थे, यह क्या माजरा है। आत्मवाद के भक्त ज्ञातभाव से सिर हिलाते थे मानों वे चित्रकालदर्शी हैं। जगदीशचन्द्र ने नसीब ठोंक लिया। निश्चय हो गया कि कन्या के भाग्य में विधवा रहना ही लिखा है। नाग की पूजा साल में दो बार होने लगी। तिलोत्तमा के चरित्र में भी एक विशेष अंतर दीखने लगा। भोग और विहार के दिन भक्ति और देवाराधना में कटने लगे। निराश प्राणियों का यही अवलम्ब है। तीन साल बीत थे कि ढाका विश्वविद्यालय के अध्यापक ने इस किस्से को फिर ताजा किया। वे पशु-शास्त्र के ज्ञाता थे। उन्होंने साँपों के आचार-व्यवहार का विशेष रीति से अध्ययन किया। वे इस रहस्य को खोलना चाहते थे। जगदीशचंद्र को विवाह का संदेश भेजा। उन्होंने टाल-मटोल किया। दयाराम ने और भी आग्रह किया। लिखा, मैने वैज्ञानिक अन्वेषण के लिए यह निश्चय किया है। मैं इस विषधर नाग से लड़ना चाहता हूँ। वह अगर सौ दॉँत ले कर आये तो भी मुझे कोई हानि नहीं पहुँचा सकता, वह मुझे काट कर आप ही मर जायेगा। अगर वह मुझे काट भी ले तो मेरे पास ऐसे मंत्र और औषधियॉँ है कि मैं एक क्षण में उसके विष को उतार सकता हूँ। आप इस विषय में कुछ चिंता न किजिए। मैं विष के लिए अजेय हूँ। जगदशीचंद्र को अब कोई उज्र न सूझा। हॉँ, उन्होंने एक विशेष प्रयत्न यह किया कि ढाके में ही विवाह हो। अतएब वे अपने कुटुम्बियों को साथ ले कर विवाह के एक सप्ताह पहले गये। चलतेसमय अपने संदूक, बिस्तर आदि खूब देखभाल कर रखे कि सॉँप कहीं उनमें उनमें छिप कर न बैठा जाय। शुभ लगन में विवाह-संस्कार हो गया। तिलोत्तमा विकल हो रही थी। मुख पर एक रंग आता था, एक रंग जाता था, पर संस्कार में कोई विध्न-बाधा न पड़ी। तिलोत्तमा रो धो-कर ससुराल गयी। जगदीशचंद्र घर लौट आये, पर ऐसे चिंतित थे जैसे कोई आदमी सराय मे खुला हुआ संदूक छोड़ कर बाजार चला जाय। तिलोत्तमा के स्वभाव में अब एक विचित्र रुपांतर हुआ। वह औरों से हँसती-बोलती आराम से खाती-पीती सैर करने जाती, थियेटरों और अन्य सामाजिक सम्मेलनों में शरीक होती। इन अवसरों पर प्रोफेसर दया राम से भी बड़े प्रेम का व्यवहार करती, उनके आराम का बहुत ध्यान रखती। कोई काम उनकी इच्छा के विरुद्ध न करती। कोई अजनबी आदमी उसे देखकर कह सकता था, गृहिणी हो तो ऐसी हो। दूसरों की दृष्टि में इस दम्पत्ति का जीवन आदर्श था, किन्तु आंतरिक दशा कुछ और ही थी। उनके साथ शयनागार में जाते ही उसका मुख विकृत हो जाता, भौंहें तन जाती, माथे पर बल पड़ जाते, शरीर अग्नि की भॉँति जलने लगता, पलकें खुली रह जाती, नेत्रों से ज्वाला-सी निकलने लगती और उसमें से झुलसती हुई लपटें निकलती, मुख पर कालिमा छा जाती और यद्यपि स्वरुप में कोई विशेष अन्तर न दिखायी देखायी देता; पर न जाने क्यों भ्रम होने लगता, यह कोई नागिन है। कभी –कभी वह फुँकारने भी लगतीं। इस स्थिति में दयाराम को उनके समीप जाने या उससे कुछ बोलने की हिम्मत न पड़ती। वे उसके रुप-लावण्य पर मुग्ध थे, किन्तु इस अवस्था में उन्हें उससे घृणा होती। उसे इसी उन्माद के आवेग में छोड़ कर बाहर निकल आते। डाक्टरों से सलाह ली, स्वयं इस विषय की कितनी ही किताबों का अध्ययन किया; पर रहस्य कुछ समझ में न आया, उन्हें भौतिक विज्ञान में अपनी अल्पज्ञता स्वीकार करनी पड़ी। उन्हें अब अपना जीवन असह्य जान पड़ता। अपने दुस्साहस पर पछताते। नाहक इस विपत्ति में अपनी जान फँसायी। उन्हें शंका होने लगी कि अवश्य कोई प्रेत-लीला है ! मिथ्यावादी न थे, पर जहॉँ बुद्धि और तर्क का कुछ वश नहीं चलता, वहॉँ मनुष्य विवश होकर मिथ्यावादी हो जाता है। शनै:-शनै: उनकी यह हालत हो गयी कि सदैव तिलोत्तमा से सशंक रहते। उसका उन्माद, विकृत मुखाकृति उनके ध्यान से न उतरते। डर लगता कि कहीं यह मुझे मार न डाले। न जाने कब उन्माद का आवेग हो। यह चिन्ता ह्रदय को व्यथित किया करती। हिप्नाटिज्म, विद्युत्शक्ति और कई नये आरोग्यविधानों की परीक्षा की गयी । उन्हें हिप्नाटिज्म पर बहुत भरोसा था; लेकिन जब यह योग भी निष्फल हो गया तो वे निराश हो गये। ५ एक दिन प्रोफेसर दयाराम किसी वैज्ञनिक सम्मेलन में गए हुए थे। लौटे तो बारह बज गये थे। वर्षा के दिन थे। नौकर-चाकर सो रहे थे। वे तिलोत्तमा के शयनगृह में यह पूछने गये कि मेरा भोजन कहॉँ रखा है। अन्दर कदम रखा ही था कि तिलोत्तमा के सिरंहाने की ओर उन्हें एक अतिभीमकाय काला सॉँप बैठा हुआ दिखायी दिया। प्रो. साहब चुपके से लौट आये। अपने कमरे में जा कर किसी औषधि की एक खुराक पी और पिस्तौल तथा साँगा ले कर फिर तिलोत्तमा के कमरे में पहुँचे। विश्वास हो गया कि यह वही मेरा पुराना शत्रु है। इतने दिनों में टोह लगाता हुआ यहॉँ आ पहुँचा। पर इसे तिलोत्तामा से क्यों इतना स्नेह है। उसके सिरहने यों बैठा हुआ है मानो कोई रस्सी का टुकड़ा है। यह क्या रहस्य है! उन्होंने साँपों के विषय में बड़ी अदभूत कथाऍं पढ़ी और सुनी थी, पर ऐसी कुतूहलजनक घटना का उल्लेख कहीं न देखा था। वे इस भॉँति सशसत्र हो कर फिर कमरे में पहुँचे तो साँप का पात न था। हॉँ, तिलोत्तमा के सिर पर भूत सवार हो गया था। वह बैठी हुई आग्ये हुई नेत्रों के द्वारा की ओर ताक रही थी। उसके नयनों से ज्वाला निकल रही थी, जिसकी ऑंच दो गज तक लगती। इस समय उन्माद अतिशय प्रचंड था। दयाराम को देखते ही बिजली की तरह उन पर टूट पड़ी और हाथों से आघात करने के बदले उन्हें दॉँतों से काटने की चेष्टा करने लगी। इसके साथ ही अपने दोनों हाथ उनकी गरदन डाल दिये। दयाराम ने बहुतेरा चाहा, ऐड़ी-चोटी तक का जोर लगा कि अपना गला छुड़ा लें, लेकिन तिलोत्तमा का बाहुपाश प्रतिक्षण साँप की केड़ली की भॉँति कठोर एवं संकुचित होता जाता था। उधर यह संदेह था कि इसने मुझे काटा तो कदाचित् इसे जान से हाथ धोना पड़े। उन्होंने अभी जो औषधि पी थी, वह सर्प विष से अधिक घातक थी। इस दशा में उन्हें यह शोकमय विचार उत्पन्न हुआ। यह भी कोई जीवन है कि दम्पति का उत्तरदायित्व तो सब सिर पर सवार, उसका सुख नाम का नहीं, उलटे रात-दिन जान का खटका। यह क्या माया है। वह सॉँप कोई प्रेत तो नही है जो इसके सिर आकर यह दशा कर दिया करता है। कहते है कि ऐसी अवस्था में रोगी पर चोट की जाती है, वह प्रेत पर ही पड़ती हैं नीचे जातियों में इसके उदाहरण भी देखे हैं। वे इसी हैंसंबैस में पड़े हुए थे कि उनका दम घुटने लगा। तिलात्तमा के हाथ रस्सी के फंदे की भॉँति उनकी गरदन को कस रहे थें वे दीन असहाय भाव से इधर-उधर ताकने लगे। क्योंकर जान बचे, कोई उपाय न सूझ पड़ता था। साँस लेना। दुस्तर हो गया, देह शिथिल पड़ गयी, पैर थरथराने लगे। सहसा तिलोत्तमा ने उनके बाँहों की ओर मुँह बढ़ाया। दयाराम कॉँप उठे। मृत्यु ऑंखें के सामने नाचने लगी। मन में कहा—यह इस समय मेरी स्त्री नहीं विषैली भयंकर नागिन है: इसके विष से जान बचानी मुश्किल है। अपनी औषधि पर जो भरोसा था, वह जाता रहा। चूहा उन्मत्त दशा में काट लेता है तो जान के लाले पड़ जाते है। भगवान् ? कितन विकराल स्वरुप है ? प्रत्यक्ष नागिन मालूम हो रही है। अब उलटी पड़े या सीधी इस दशा का अंत करना ही पड़ेगा। उन्हें ऐसा जान पड़ा कि अब गिरा ही चाहता हूँ। तिलोत्तमा बार-बार सॉँप की भॉँति फुँकार मार कर जीभ निकालते हुए उनकी ओर झपटती थी। एकाएक वह बड़े कर्कश स्वर से बोली—‘मूर्ख ? तेरा इतना साहस कि तू इस सुदंरी से प्रेमलिंगन करे।’ यह कहकर वह बड़े वेग से काटने को दौड़ी। दयाराम का धैर्य जाता रहा। उन्होंने दहिना हाथ सीधा किया और तिलोत्तमा की छाती पर पिस्तौल चला दिया। तिलोत्तमा पर कुछ असर न हुआ। बाहें और भी कड़ी हो गयी; ऑंखों से चिनगारियॉँ निकलने लगी। दयाराम ने दूसरी गोली दाग दी। यह चोट पूरी पड़ी। तिलोत्तमा का बाहु-बंधन ढीला पड़ गया। एक क्षण में उसके हाथ नीचे को लटक गये, सिर झ्रुक गया और वह भूमि पर गिर पड़ी। तब वह दृश्य देखने में आया जिसका उदाहराण कदाचित् अलिफलैला चंद्रकांता में भी न मिले। वही फ्लँग के पास, जमीन पर एक काला दीर्घकाय सर्प पड़ा तड़प रहा था। उसकी छाती और मुँह से खून की धारा बह रही थी। दयाराम को अपनी ऑंखों पर विश्वास न आता था। यह कैसी अदभुत प्रेत-लीला थी! समस्या क्या है किससे पूछूँ ? इस तिलस्म को तोड़ने का प्रयत्न करना मेरे जीवन का एक कर्त्तव्य हो गया। उन्होंने सॉँगे से सॉँप की देह मे एक कोचा मारा और फिर वे उसे लटकाये हुए ऑंगन में लाये। बिलकुल बेदम हो गया था। उन्होंने उसे अपने कमरे में ले जाकर एक खाली संदूक में बंदकर दिया। उसमें भुस भरवा कर बरामदे में लटकाना चाहते थे। इतना बड़ा गेहुँवन साँप किसी ने न देखा होगा। तब वे तिलोत्तमा के पास गये। डर के मारे कमरे में कदम रखने की हिम्मत न पड़ती थी। हॉँ, इस विचार से कुछ तस्कीन होती थी कि सर्प प्रेत मर गया है तो उसकी जान बच गयी होगी। इस आशा और भय की दशा में वे अन्दर गये तो तिलोत्तमा आईने के सामने खड़ी केश सँवार रही थी। दयाराम को मानो चारों पदार्थ मिल गये। तिलोत्तमा का मुख-कमल खिला हुआ था। उन्होंने कभी उसे इतना प्रफुल्लित न देखा था। उन्हें देखते ही वह उनकी ओर प्रेम से चली और बोली—आज इतनी रात तक कहॉँ रहे ? दयाराम प्रेमोन्नत हो कर बोले—एक जलसे में चला गया था। तुम्हारी तबीयत कैसी हे ? कहीं दर्द नहीं है ? तिलोत्तमा ने उनको आश्चर्य से देख कर पूछा—तुम्हें कैसे मालूम हुआ ? मेरी छाती में ऐसा दर्द हो रहा है, जैस चिलक पड़ गयी हो। ***************
- शंखनाद
भानु चौधरी अपने गॉँव के मुखिया थे। गॉँव में उनका बड़ा मान था। दारोगा जी उन्हें टाटा बिना जमीन पर न बैठने देते। मुखिया साहब को ऐसी धाक बँधी हुई थी कि उनकी मर्जी बिना गॉँव में एक पत्ता भी नहीं हिल सकता था। कोई घटना, चाहे, वह सास-बहु का विवाद हो, चाहे मेड़ या खेत का झगड़ा, चौधरी साहब के शासनाधिकारी को पूर्णरुप से सचते करने के लिए काफी थी, वह तुरन्त घटना स्थल पर पहुँचते, तहकीकात होने लगती गवाह और सबूत के सिवा किसी अभियोग को सफलता सहित चलाने में जिन बातों की जरुरत होती है, उन सब पर विचार होता और चौधरी जी के दरबार से फैसला हो जाता। किसी को अदालत जाने की जरुरत न पड़ी। हॉँ, इस कष्ट के लिए चौधरी साहब कुछ फीस जरुर लेते थे। यदि किसी अवसर पर फीस मिलने में असुविधा के कारण उन्हें धीरज से काम लेना पड़ता तो गॉँव में आफत मच जाती थी; क्योंकि उनके धीरज और दरोगा जी के क्रोध में कोई घनिष्ठ सम्बन्ध था। सारांश यह है कि चौधरी से उनके दोस्त-दुश्मन सभी चौकन्ने रहते थे। २ चौधरी माहश्य के तीन सुयोग्य पुत्र थे। बड़े लड़के बितान एक सुशिक्षित मनुष्य थे। डाकिये के रजिस्टर पर दस्तखत कर लेते थे। बड़े अनुभवी, बड़े नीति कुशल। मिर्जई की जगह कमीज पहनते, कभी-कभी सिगरेट भी पीते, जिससे उनका गौरव बढ़ता था। यद्यपि उनके ये दुर्व्यसन बूढ़े चौधरी को नापसंद थे, पर बेचारे विवश थे; क्योंकि अदालत और कानून के मामले बितान के हाथों में थे। वह कानून का पुतला था। कानून की दफाएँ उसकी जबान पर रखी रहती थीं। गवाह गढ़ने में वह पूरा उस्ताद था। मँझले लड़के शान चौधरी कृषि-विभाग के अधिकारी थे। बुद्धि के मंद; लेकिन शरीर से बड़े परिश्रमी। जहॉँ घास न जमती हो, वहॉँ केसर जमा दें। तीसरे लड़के का नाम गुमान था। वह बड़ा रसिक, साथ ही उद्दंड भी था। मुहर्रम में ढोल इतने जोरों से बजाता कि कान के पर्दे फट जाते। मछली फँसाने का बड़ा शौकीन था बड़ा रँगील जवान था। खँजड़ी बजा-बजाकर जब वह मीठे स्वर से ख्याल गाता, तो रंग जम जाता। उसे दंगल का ऐसा शौक था कि कोसों तक धावा मारता; पर घरवाले कुछ ऐसे शुष्क थे कि उसके इन व्यसनों से तलिक भी सहानुभूति न रखते थे। पिता और भाइयों ने तो उसे ऊसर खेत समझ रखा था। घुड़की-धमकी, शिक्षा और उपदेश, स्नेह और विनय, किसी का उस पर कुछ भी असर नहीं हुआ। हॉँ, भावजें अभी तक उसकी ओर से निराश न हुई थी। वे अभी तक उसे कड़वी दवाइयॉँ पिलाये जाती थी; पर आलस्य वह राज रोग है जिसका रोग कभी नहीं सँभलता। ऐसा कोई बिराल ही दिन जाता होगा कि बॉँक गुमान को भावजों के कटुवाक्य न सुनने पड़ते हों। ये बिषैले स्वर कभी-कभी उसे कठोर ह्रदय में चुभ जाते; किन्तु यह घाव रात भर से अधिक न रहता। भोर होते ही थकना के साथ ही यह पीड़ा भी शांत हा जाती। तड़का हुआ, उसने हाथ-मुँह धोया, बंशी उठायी और तालाब की ओर चल खड़ा हुआ। भावजें फूलों की वर्षा किया करती; बूढ़े चौधरी पैतरे बदलते रहते और भाई लोग तीखी निगाह से देखा करते, पर अपनी धुन का पूरा बॉँका गुमान उन लोगों के बीच से इस तरह अकड़ता चला जाता, जैसे कोई मस्त हाथी कुत्तों के बीच से निकल जाता है। उसे सुमार्ग पर लाने के लिए क्या-क्या उपाय नही किये गये। बाप समझाता-बेटा ऐसी राह चलो जिसमें तुम्हें भी पैसें मिलें और गृहस्थी का भी निर्वाह हो। भाइयों के भरोसे कब तक रहोगे? मैं पका आम हूँ-आज टपक पड़ा या कल। फिर तुम्हारा निबाह कैसे होगा? भाई बात भी न पूछेगे; भावजों का रंग देख रहे हो। तुम्हारे भी लड़के बाले है, उनका भार कैसे सँभालोगे? खेती में जी न लगे, कास्टि-बिली में भरती करा दूँ? बाँका गुमनान खड़ा-खड़ा यह सब सुनता, लेकिन पत्थर का देवता था, कभी न पसीजता! इन माहश्य के अत्याचार का दंड उसकी स्त्री बेचारी को भोगना पड़ता था। मेहनत के घर के जितने काम होते, वे उसी के सिर थोपे जाते। उपले पाथती, कुंए से पानी लाती, आटा पीसती और तिस पर भी जेठानानियॉँ सीधे मुँह बात न करती, वाक्य बाणों से छेदा करतीं। एक बार जब वह पति से कई दिन रुठी रही, तो बॉँके गुमान कुछ नर्म हुए। बाप से जाकर बोले-मुझे कोई दूकान खोलवा दीजिए। चौधरी ने परमात्मा को धन्यवाद दिया। फूले न समाये। कई सौ रुपये लगाकर कपड़े की दूकान खुलवा दी। गुमान के भाग जगे। तनजेब के चुन्नटदार कुरते बनवाये, मलमल का साफा धानी रंग में रँगवाया। सौदा बिके या न बिके, उसे लाभ ही होना था! दूकान खुली हुई है, दस-पाँच गाढ़े मित्र जमे हुए हैं, चरस की दम और खयाल की तानें उड़ रही हैं— चल झपट री, जमुना-तट री, खड़ो, नटखट री। इस तरह तीन महीने चैन से कटे। बॉँके गुमान ने खूब दिल खोल कर अरमान निकाले, यहॉँ तक कि सारी लागत लाभ हो गयी। टाट के टुकड़े के सिवा और कुछ न बचा। बूढ़े चौधरी कुऍं में गिरने चले, भावजों ने घोर आन्दोलन मचाया-अरे राम! हमारे बच्चे और हम चीथड़ों को तरसें, गाढ़े का एक कुरता भी नसीब न हो, और इतनी बड़ी दूकान इस निखट्टू का कफ़न बन गई। अब कौन मुँह दिखायेगा? कौन मुँह लेकर घर में पैर रखेगा? किंतु बॉँके गुमान के तेवर जरा भी मैले न हुए। वही मुँह लिए वह फिर घर आया और फिर वही पुरानी चाल चलने लगा। कानूनदां बिताने उनके ये ठाट-बाट देकर जल जाता। मैं सारे दिन पसीना बहाऊँ, मुझे नैनसुख का कुरता भी न मिले, यह अपाहिज सारे दिन चारपाई तोड़े और यों बन-ठन कर निकाले? एसे वस्त्र तो शायद मुझे अपने ब्याह में भी न मिले होंगे। मीठे शान के ह्रदय में भी कुछ ऐसे ही विचार उठते थे। अंत में यह जलन सही न गयी, और अग्नि भड़की; तो एक दिन कानूनदाँ बितान की पत्नी गुमनाम के सारे कपड़े उठा लायी और उन पर मिट्टी का तेल उँड़ेल कर आग लगा दी। ज्वाला उठी, सारे कपड़े देखत-देखते जल कर राख हो गए। गुमान रोते थे। दोनों भाई खड़े तमाशा देखते थे। बूढ़े चौधरी ने यह दृश्य देखा, और सिर पीट लिया। यह द्वेषाग्नि हैं। घर को जलाकर तक बुझेगी। ३ यह ज्वाला तो थोड़ी देर में शांत हो गयी, परन्तु ह्रदय की आग ज्यों की त्यों दहकती रही। अंत में एक दिन बूढ़े चौधरी ने घर के सब मेम्बरों को एकत्र किया और गूढ़ विषय पर विचार करने लगे कि बेड़ा कैसे पार हो। बितान से बोले-बेटा, तुमने आज देखा कि बात की बात में सैकड़ों रुपयों पर पानी फिर गया। अब इस तरह निर्वाह होना असम्भव है। तुम समझदार हो, मुकदमे-मामले करते हो, कोई ऐसी राह निकालो कि घर डूबने से बचे। मैं तो चाहता था कि जब तक चोला रहे, सबको समेटे रहूँ, मगर भगवान् के मन में कुछ और ही है। बितान की नीतिकुशलता अपनी चतुर सहागामिनी के सामने लुप्त हो जाती थी। वह अभी उसका उत्तर सोच ही रहे थे कि श्रीमती जी बोल उठीं-दादा जी! अब समुझाने-बुझाने से काम नहीं चलेगा, सहते-सहते हमारा कलेजा पक गया। बेटे की जितनी पीर बाप को होगी, भाइयों को उतनी क्या, उसकी आधी भी नहीं हो सकती। मैं तो साफ कहती हूँ-गुमान को तुम्हारी कमाई में हक है, उन्हें कंचन के कौर खिलाओ और चॉँदी के हिंडाले में झुलाओ। हममें न इतना बूता है, न इतना कलेजा। हम अपनी झोपड़ी अलग बना लेगें। हॉँ, जो कुछ हमारा हो, वह हमको मिलना चाहिए। बॉँट-बखरा कर दीजिए। बला से चार आदमी हँसेगे, अब कहॉँ तक दुनिया की लाज ढोवें? नीतिज्ञ बितान पर इस प्रबल वक्तृता का जो असर हुआ, वह उनके विकासित और पुमुदित चेहरे से झलक रहा था। उनमें स्वयं इतना साहस न था कि इस प्रस्ताव का इतनी स्पष्टता से व्यक्त कर सकते। नीतिज्ञ महाशय गंभीरता से बोले-जायदाद मुश्तरका, मन्कूला या गैरमन्कूला, आप के हीन-हायात तकसीम की जा सकती है, इसकी नजीरें मौजूद है। जमींदार को साकितुलमिल्कियत करने का कोई इस्तहक़ाक़ नहीं है। अब मंदबुद्धि शान की बारी आयी, पर बेचारा किसान, बैलों के पीछे ऑंखें बंद करके चलने वाला, ऐसे गूढ़ विषय पर कैसे मुँह खोलता। दुविधा में पड़ा हुआ था। तब उसकी सत्यवक्ता धर्मपत्नी ने अपनी जेठानी का अनुसरण कर यह कठिन कार्य सम्पन्न किया। बोली-बड़ी बहन ने जो कुछ कहा, उसके सिवा और दूसरा उपाय नहीं। कोई तो कलेजा तोड़-तोड़ कर कमाये मगर पैसे-पैसे को तरसे, तन ढॉँकने को वस्त्र तक न मिले, और कोई सुख की नींद सोये, हाथ बढ़ा-बढ़ा के खाय! ऐसी अंधेरे नगरी में अब हमारा निबाह न होगा। शान चौधरी ने भी इस प्रस्ताव का मुक्तकंठ से अनुमोदन किया। अब बूढ़े चौधरी गुमान से बोले-क्यों बेटा, तुम्हें भी यह मंजूर है? अभी कुछ नहीं बिगड़ा। यह आग अब भी बुझ सकती है। काम सबको प्यारा है, चाम किसी को नहीं। बोलो, क्या कहते हो? कुछ काम-धंधा करोगे या अभी ऑंखें नहीं खुलीं? गुमान में धैर्य की कमी न थी। बातों को इस कान से सुन कर उस कान से उड़ा देना उसका नित्य-कर्म था। किंतु भाइयों की इस जन-मुरीदी पर उसे क्रोध आ गया। बोला-भाइयों की जो इच्छा है, वही मेरे मन में भी लगी हुई है। मैं भी इस जंजाल से भागना चाहता हूँ। मुझसे न मंजूरी हुई, न होगी। जिसके भाग्य में चक्की पीसना बदा हो, वह पीसे! मेरे भाग्य में चैन करना लिखा है, मैं क्यों अपना सिर ओखली में दूँ? मैं तो किसी से काम करने को नहीं कहता। आप लोग क्यों मेरे पीछे पड़े हुए है। अपनी-अपनी फिक्र कीजिए। मुझे आध सेर आटे की कमी नही है। इस तरह की सभाऍं कितनी ही बार हो चुकी थीं, परन्तु इस देश की सामाजिक और राजनीतिक सभाओं की तरह इसमें भी कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता था। दो-तीन दिन गुमान ने घर पर खाना नहीं खाया। जतन सिंह ठाकुर शौकीन आदमी थे, उन्हीं की चौपाल में पड़ा रहता। अंत में बूढ़े चौधरी गये और मना के लाये। अब फिर वह पुरानी गाड़ी अड़ती, मचलती, हिलती चलने लगी। ४ पांडे घर के चूहों की तरह, चौधरी के धर में बच्चें भी सयाने थे। उनके लिए घोड़े मिट्टी के घोड़े और नावें कागज की नावें थीं। फलों के विषय में उनका ज्ञान असीम था, गूलर और जंगली बेर के सिवा कोई ऐसा फल न था जिसे बीमारियों का घर न समझते हों, लेकिन गुरदीन के खोंचे में ऐसा प्रबल आकर्षण था कि उसकी ललकार सुनते ही उनका सारा ज्ञान व्यर्थ हो जाता साधारण बच्चों की तरह यदि सोते भी हो; तो चौंक पड़ते थे। गुरदीन उस था। गॉँव में साप्ताहिक फेरे लगाता था। उसके शुभागमन की प्रतीक्षा और आकांक्षा में कितने ही बालकों को बिना किंडरागार्टन की रंगीन गोलियों के ही, संख्याऍं और दिनों के नाम याद हो गए थे। गुरदीन बूढ़ा-सा, मैला-कुचैला आदमी था; किन्तु आस-पास में उसका नाम उपद्रवी लड़कों के लिए हनुमान-मंत्र से कम न था। उसकी आवाज सुनते ही उसके खोंचे पर लड़कों का ऐसा धावा होता कि मक्खियों की असंख्य सेना को भी रण-स्थल से भागना पड़ता था। और जहॉँ बच्चों के लिए मिठाइयॉँ थीं, वहॉँ गुरदीन के पास माताओं के लिए इससे भी ज्यादा मीठी बातें थी। मॉँ कितना ही मना करती रहे, बार-बार पैसा न रहने का बहाना करे पर गुरदीन चटपट मिठाईयों का दोनों बच्चों के हाथ में रख ही देता और स्नहे-पूर्ण भाव से कहता--बहू जी, पैसों की कोई चिन्ता न करो, फिर मिलते रहेंगे, कहीं भागे थोड़े ही जाते हैं। नारायण ने तुमको बच्चे दिए हैं, तो मुझे भी उनकी न्योछावर मिल जाती है, उन्हीं की बदौलत मेरे बाल-बच्चे भी जीते हैं। अभी क्या, ईश्वर इनका मौर तो दिखावे, फिर देखना कैसा ठनगन करता हूँ। गुरदीन का यह व्यवहारा चाहे वाणिज्य-नियमों के प्रतिकूल ही क्यों न हो, चाहे, ‘नौ नगद सही, तेरह उधार नही’ वाली कहावत अनुभव-सिद्ध ही क्यों न हो, किन्तु मिष्टाभाषी गुरदीन को कभी अपने इस व्यवहार पर पछताने या उसमें संशोन करने की जरुरत नहीं हुई। मंगल का शुभ दिन था। बच्चे बड़े बेचैनी से अपने दरवाजे पर खड़े गुरदीन की राह देख रहे थे। कई उत्साही लड़के पेड़ पर चढ़ गए और कोई-कोई अनुराग से विवश होकर गॉँव के बाहर निकल गए थे। सूर्य भगवान् अपना सुनहला गाल लिए पूरब से पश्चिम जा पहुँचे थे, इतने में ही गुरदीन आता हुआ दिखाई दिया। लड़कों ने दौड़कर उसका दामन पकड़ा और आपस में खींचातानी होने लगी। कोई कहता था मेरे घर चलो; कोई अपने घर का न्योता देता था। सबसे पहले भानु चौधरी का मकान पड़ा। गुरदीन अपना खोंचा उतार दिया। मिठाइयों की लूट शुरु हो गयी। बालको और स्त्रियों का ठट्ट लग गया। हर्ष और विषाद, संतोष और लोभ, ईर्ष्या ओर क्षोभ, द्वेष और जलन की नाट्यशाला सज गयी। कनूनदॉँ बितान की पत्नी अपने तीनों लड़कों को लिए हुए निकली। शान की पत्नी भी अपने दोनों लड़कों के साथ उपस्थित हुई। गुरदीन ने मीठी बातें करनी शुरु की। पैसे झोली में रखे, धेले की मिठाई दी और धेले का आशीर्वाद। लड़के दोनो लिए उछलते-कूदते घर में दाखिल हुए। अगर सारे गॉँव में कोई ऐसा बालक था जिसने गुरदीन की उदारता से लाभ उठाया हो, तो वह बॉँके गुमान का लड़का धान था। यह कठिन था कि बालक धान अपने भाइयों-बहनों को हँस-हँस और उलल-उछल कर मिठाइयॉँ खाते देख कर सब्र कर जाय! उस पर तुर्रा यह कि वे उसे मिठाइयॉँ दिख-दिख कर ललचाते और चिढ़ाते थे। बेचारा धान चीखता और अपनी मात का ऑंचल पकड़-पकड़ कर दरवाजे की तरफ खींचता था; पर वह अबला क्या करे। उसका ह्रदय बच्चे के लिए ऐंठ-ऐंठ कर रह जाता था। उसके पास एक पैसा भ्री नहीं था। अपने दुर्भाग्य पर, जेठानियों की निष्ठुरता पर और सबसे ज्यादा अपने पति के निखट्टूपन पर कुढ़-कुढ़ कर रह जाती थी। अपना आदमी ऐसा निकम्मा न होता, तो क्यों दूसरों का मुँह देखना पड़ता, क्यों दूसरों के धक्के खाने पड़ते ? उठा लिया और प्यार से दिलासा देने लगी-बेटा, रोओ मत, अबकी गुरदीन आवेगा तो तुम्हें बहुत-सी मिठाई ले दूँगी, मैं इससे अच्छी मिठाई बाजार से मँगवा दूँगी, तुम कितनी मिठाई खाओग! यह कहते कहते उसकी ऑंखें भर अयी। आह! यह मनहूस मंगल आज ही फिर आवेगा; और फिर ये ही बहाने करने पड़ेगे! हाय, अपना प्यारा बच्चा धेले की मिठाई को तरसे और घर में किसी का पत्थर-सा कलेजा न पसीजे! वह बेचारी तो इन चिंताओं में डूबी हुई थी ओर धान किसी तरह चुप ही न होता था। जब कुछ वश न चला, तो मॉँ की गोद से जमीन पर उतर कर लोठने लगा और रो-रो कर दुनिया सिर पर उठा ली। मॉँ ने बहुत बहलाया, फुसलाया, यहॉँ तक कि उसे बच्चे के इस हठ पर क्रोध भी आ गया। मानव ह्रदय के रहस्य कभी समझ में नहीं आते। कहॉँ तो बच्चे को प्यार से चिपटाती थी, ऐसी झल्लायी की उसे दो-तीन थप्पड़ जोर से लगाये और घुड़कर कर बोली-चुप रह आभगे! तेरा ही मुँह मिठाई खाने का है? अपने दिन को नहीं रोता, मिठाई खाने चला है। बाँका गुमान अपनी कोठरी के द्वार पर बैठा हुआ यह कौतुक बड़े ध्यान से देख रहा था। वह इस बच्चे को बहुत चाहता था। इस वक्त के थप्पड़ उसके ह्रदय में तेज भाले के समान लगे और चुभ गया। शायद उसका अभिप्राय भी यही था। धुनिया रुई को धुनने के लिए तॉँत पर चोट लगाता है। जिस तरह पत्थर और पानी में आग छिपी रहती है, उसी तरह मनुष्य के ह्रदय में भी, चाहे वह कैसा ही क्रूर और कठोर क्यों न हो, उत्कृष्ट और कोमल भाव छिपे रहते हैं। गुमान की ऑंखें भर आयी। ऑंसू की बूँदें बहुधा हमारे ह्रदय की मुलिनता को उज्जवल कर देती हैं। गुमान सचेत हो गया। उसने जा कर बच्चे का गोद में उठा लिया और अपनी पत्नी से करुणोत्पादक स्वर में बोला-बच्चे पर इतना क्रोध क्यों करती हो? तुम्हारा दोषी मैं हूँ, मुझको जो दंड चाहो, दो। परमात्मा ने चाहा तो कल से लोग इस घर में मेरा और मेरे बाल-बच्चों का भी आदर करेंगे। तुमने आज मुझे सदा के लिए इस तरह जगा दिया, मानों मेरे कानों में शंखनाद कर मुझे कर्म-पथ में प्रवेश का उपदेश दिया हो। **********
- दुर्गा का मन्दिर
बाबू ब्रजनाथ कानून पढ़ने में मग्न थे, और उनके दोनों बच्चे लड़ाई करने में। श्यामा चिल्लाती, कि मुन्नू मेरी गुड़िया नहीं देता। मुन्नु रोता था कि श्यामा ने मेरी मिठाई खा ली। ब्रजनाथ ने क्रुद्घ हो कर भामा से कहा—तुम इन दुष्टों को यहॉँ से हटाती हो कि नहीं? नहीं तो मैं एक-एक की खबर लेता हूँ। भामा चूल्हें में आग जला रही थी, बोली—अरे तो अब क्या संध्या को भी पढ़ते ही रहोगे? जरा दम तो ले लो। ब्रजनाथ--उठा तो न जाएगा; बैठी-बैठी वहीं से कानून बघारोगी ! अभी एक-आध को पटक दूंगा, तो वहीं से गरजती हुई आओगी कि हाय-हाय! बच्चे को मार डाला ! भामा—तो मैं कुछ बैठी या सोयी तो नहीं हूँ। जरा एक घड़ी तुम्हीं लड़को को बहलाओगे, तो क्या होगा! कुछ मैंने ही तो उनकी नौकरी नहीं लिखायी! ब्रजनाथ से कोई जवाब न देते बन पड़ा। क्रोध पानी के समान बहाव का मार्ग न पा कर और भी प्रबल हो जाता है। यद्यपि ब्रजनाथ नैतिक सिद्धांतों के ज्ञाता थे; पर उनके पालन में इस समय कुशल न दिखायी दी। मुद्दई और मुद्दालेह, दोनों को एक ही लाठी हॉँका, और दोनों को रोते-चिल्लाते छोड़ कानून का ग्रंथ बगल में दबा कालेज-पार्क की राह ली। २ सावन का महीना था। आज कई दिन के बाद बादल हटे थे। हरे-भरे वृक्ष सुनहरी चादर ओढ़े खड़े थे। मृदु समीर सावन का राग गाता था, और बगुले डालियों पर बैठे हिंडोले झूल रहे थे। ब्रजनाथ एक बेंच पर आ बैठे और किताब खोली। लेकिन इस ग्रंथ को अपेक्षा प्रकृति-ग्रंथ का अवलोकन अधिक चित्ताकर्षक था। कभी आसमान को पढ़ते थे, कभी पत्तियों को, कभी छविमयी हरियाली को और कभी सामने मैदान में खेलते हुए लड़कों को। एकाएक उन्हें सामने घास पर कागज की एक पुड़िया दिखायी दी। माया ने जिज्ञासा की—आड़ में चलो, देखें इसमें क्या है। बुद्धि ने कहा—तुमसे मतलब? पड़ी रहने दो। लेकिन जिज्ञासा-रुपी माया की जीत हुई। ब्रजनाथ ने उठ कर पुड़िया उठा ली। कदाचित् किसी के पैसे पुड़िया में लिपटे गिर पड़े हैं। खोल कर देखा; सावरेन थे। गिना, पुरे आठ निकले। कुतूहल की सीमा न रही। ब्रजनाथ की छाती धड़कने लगी। आठों सावरेन हाथ में लिये सोचने लगे, इन्हें क्या करुँ? अगर यहीं रख दूँ, तो न जाने किसकी नजर पड़े; न मालूम कौन उठा ले जाय ! नहीं यहॉँ रखना उचित नहीं। चलूँ थाने में इत्तला कर दूँ और ये सावरेन थानेदार को सौंप दूँ। जिसके होंगे वह आप ले जायगा या अगर उसको न भी मिलें, तो मुझ पर कोई दोष न रहेगा, मैं तो अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाऊँगा। माया ने परदे की आड़ से मंत्र मारना शुरु किया। वह थाने नहीं गये, सोचा—चलूं भामा से एक दिल्लगी करुँ। भोजन तैयार होगा। कल इतमीनान से थाने जाऊँगा। भामा ने सावरेन देखे, तो हृदय मे एक गुदगुदी-सी हुई। पूछा किसकी है? ब्रजनाथ--मेरी। भामा—चलो, कहीं हो न ! ब्रजनाथ —पड़ी मिली है। भामा—झूठ बात। ऐसे ही भाग्य के बली हो, तो सच बताओ कहॉँ मिली? किसकी है? ब्रजनाथ—सच कहता हूँ, पड़ी मिली है। भामा—मेरी कसम? ब्रजनाथ—तुम्हारी कसम। भामा गिन्नयों को पति के हाथ से छीनने की चेष्टा करने लगी। ब्रजनाथ के कहा—क्यों छीनती हो? भामा—लाओ, मैं अपने पास रख लूँ। ब्रजनाथ—रहने दो, मैं इसकी इत्तला करने थाने जाता हूँ। भामा का मुख मलिन हो गया। बोली—पड़े हुए धन की क्या इत्तला? ब्रजनाथ—हॉँ, और क्या, इन आठ गिन्नियों के लिए ईमान बिगाडूँगा? भामा—अच्छा तो सवेरे चले जाना। इस समय जाओगे, तो आने में देर होगी। ब्रजनाथ ने भी सोचा, यही अच्छा। थानेवाले रात को तो कोई कारवाई करेंगे नहीं। जब अशर्फियों को पड़ा रहना है, तब जेसे थाना वैसे मेरा घर। गिन्नियॉँ संदूक में रख दीं। खा-पी कर लेटे, तो भामा ने हँस कर कहा—आया धन क्यों छोड़ते हो? लाओ, मैं अपने लिए एक गुलूबंद बनवा लूँ, बहुत दिनों से जी तरस रहा है। माया ने इस समय हास्य का रुप धारण किया। ब्रजनाथ ने तिरस्कार करके कहा—गुलूबंद की लालसा में गले में फॉँसी लगाना चाहती हो क्या? ३ प्रात:काल ब्रजनाथ थाने के लिए तैयार हूए। कानून का एक लेक्चर छूट जायेगा, कोई हरज नहीं। वह इलाहाबाद के हाईकोर्ट में अनुवादक थे। नौकरी में उन्नति की आशा न देख कर साल भर से वकालत की तैयारी में मग्न थे; लेकिन अभी कपड़े पहन ही रहे थे कि उनके एक मित्र मुंशी गोरेवाला आ कर बैठ गये, ओर अपनी पारिवारिक दुश्चिंताओं की विस्मृति की रामकहानी सुना कर अत्यंत विनीत भाव से बोले—भाई साहब, इस समय मैं इन झंझटों मे ऐसा फँस गया हूँ कि बुद्धि कुछ काम नहीं करती। तुम बड़े आदमी हो। इस समय कुछ सहायता करो। ज्यादा नहीं तीस रुपये दे दो। किसी न किसी तरह काम चला लूँगा, आज तीस तारीख है। कल शाम को तुम्हें रुपये मिल जायँगे। ब्रजनाथ बड़े आदमी तो न थे; किन्तु बड़प्पन की हवा बॉँध रखी थी। यह मिथ्याभिमान उनके स्वभाव की एक दुर्बलता थी। केवल अपने वैभव का प्रभाव डालने के लिए ही वह बहुधा मित्रों की छोटी-मोटी आवश्यकताओं पर अपनी वास्तविक आवश्यकताओं को निछावर कर दिया करत थे, लेकिन भामा को इस विषय में उनसे सहानुभूति न थी, इसलिए जब ब्रजनाथ पर इस प्रकार का संकट आ पड़ता था, तब थोड़ी देर के लिए उनकी पारिवारिक शांति अवश्य नष्ट हो जाती थी। उनमें इनकार करने या टालने की हिम्मत न थी। वह सकुचाते हुए भामा के पास गये और बोले—तुम्हारे पास तीस रुपये तो न होंगे? मुंशी गोरेलाल मॉँग रहे है। भामा ने रुखाई से रहा—मेरे पास तो रुपये नहीं। ब्रजनाथ—होंगे तो जरुर, बहाना करती हो। भामा—अच्छा, बहाना ही सही। ब्रजनाथ—तो मैं उनसे क्या कह दूँ ! भामा—कह दो घर में रुपये नहीं हैं, तुमसे न कहते बने, तो मैं पर्दे की आड़ से कह दूँ। ब्रजनाथ--कहने को तो मैं कह दूँ, लेकिन उन्हें विश्वास न आयेगा। समझेंगे, बहाना कर रहे हैं। भामा--समझेंगे; तो समझा करें। ब्रजनाथ—मुझसे ऐसी बमुरौवती नहीं हो सकती। रात-दिन का साथ ठहरा, कैसे इनकार करुँ? भामा—अच्छा, तो जो मन में आवे, सो करो। मैं एक बार कह चुकी, मेरे पास रुपये नहीं। ब्रजनाथ मन में बहुत खिन्न हुए। उन्हें विश्वास था कि भामा के पास रुपये है; लेकिन केवल मुझे लज्जित करने के लिए इनकार कर रही है। दुराग्रह ने संकल्प को दृढ़ कर दिया। संदूक से दो गिन्नियॉँ निकालीं और गोरेलाल को दे कर बोले—भाई, कल शाम को कचहरी से आते ही रुपये दे जाना। ये एक आदमी की अमानत हैं, मैं इसी समय देने जा रहा था --यदि कल रुपये न पहुँचे तो मुझे बहुत लज्जित होना पड़ेगा; कहीं मुँह दिखाने योग्य न रहूँगा। गोरेलाल ने मन में कहा—अमानत स्त्री के सिवा और किसकी होगी, और गिन्नियॉँ जेब मे रख कर घर की राह ली। ४ आज पहली तारीख की संध्या है। ब्रजनाथ दरवाजे पर बैठे गोरेलाल का इंतजार कर रहे है। पॉँच बज गये, गोरेलाल अभी तक नहीं आये। ब्रजनाथ की ऑंखे रास्ते की तरफ लगी हुई थीं। हाथ में एक पत्र था; लेकिन पढ़ने में जी नहीं लगता था। हर तीसरे मिनट रास्ते की ओर देखने लगते थे; लेकिन सोचते थे—आज वेतन मिलने का दिन है। इसी कारण आने में देर हो रही है। आते ही होंगे। छ: बजे, गोरे लाल का पता नहीं। कचहरी के कर्मचारी एक-एक करके चले आ रहे थे। ब्रजनाथ को कोई बार धोखा हुआ। वह आ रहे हैं। जरुर वही हैं। वैसी ही अचनक है। वैसे ही टोपी है। चाल भी वही है। हॉँ, वही हैं। इसी तरफ आ रहे हैं। अपने हृदय से एक बोझा-सा उतरता मालूम हुआ; लेकिन निकट आने पर ज्ञात हुआ कि कोई और है। आशा की कल्पित मूर्ति दुराशा में बदल गयी। ब्रजनाथ का चित्त खिन्न होने लगा। वह एक बार कुरसी से उठे। बरामदे की चौखट पर खडे हो, सड़क पर दोनों तरफ निगाह दौड़ायी। कहीं पता नहीं। दो-तीन बार दूर से आते हुए इक्कों को देख कर गोरेलाल का भ्रम हुआ। आकांक्षा की प्रबलता ! सात बजे; चिराग जल गये। सड़क पर अँधेरा छाने लगा। ब्रजनाथ सड़क पर उद्विग्न भाव से टहलने लगे। इरादा हुआ, गोरेलाल के घर चलूँ, उधर कदम बढाये; लेकिन हृदय कॉँप रहा था कि कहीं वह रास्ते में आते हुए न मिल जायँ, तो समझें कि थोड़े-से रुपयों के लिए इतने व्याकुल हो गये। थोड़ी ही दूर गये कि किसी को आते देखा। भ्रम हुआ, गोरेलाल है, मुड़े और सीधे बरामदे में आकर दम लिया, लेकिन फिर वही धोखा ! फिर वही भ्रांति ! तब सोचले लगे कि इतनी देर क्यों हो रही हैं? क्या अभी तक वह कचहरी से न आये होंगे ! ऐसा कदापि नहीं हो सकता। उनके दफ्तर-वाले मुद्दत हुई, निकल गये। बस दो बातें हो सकती हैं, या तो उन्होंने कल आने का निश्चय कर लिया, समझे होंगे, रात को कौन जाय, या जान-बूझ कर बैठे होंगे, देना न चाहते होंगे, उस समय उनको गरज थी, इस समय मुझे गरज है। मैं ही किसी को क्यों न भेज दूँ? लेकिन किसे भेजूँ? मुन्नू जा सकता है। सड़क ही पर मकान है। यह सोच कर कमरे में गये, लैप जलाया और पत्र लिखने बैठे, मगर ऑंखें द्वार ही की ओर लगी हुई थी। अकस्मात् किसी के पैरों की आहट सुनाई दी। परन्तु पत्र को एक किताब के नीचे दबा लिया और बरामद में चले आये। देखा, पड़ोस का एक कुँजड़ा तार पढ़ाने आया है। उससे बोले—भाई, इस समय फुरसत नहीं हैं; थोड़ी देर में आना। उसने कहा--बाबू जी, घर भर के आदमी घबराये हैं, जरा एक निगाह देख लीजिए। निदान ब्रजनाथ ने झुँझला कर उसके हाथ से तार ले लिया, और सरसरी नजर से देख कर बोले—कलकत्ते से आया है। माल नहीं पहुँचा। कुँजड़े ने डरते-डरते कहा—बाबू जी, इतना और देख लीजिए किसने भेजा है। इस पर ब्रजनाथ ने तार फेंक दिया और बोले--मुझे इस वक्त फुरसत नहीं है। आठ बज गये। ब्रजनाथ को निराशा होने लगी—मुन्नू इतनी रात बीते नहीं जा सकता। मन में निश्चय किया, आज ही जाना चाहिए, बला से बुरा मानेंगे। इसकी कहॉँ तक चिंता करुँ स्पष्ट कह दूँगा मेरे रुपये दे दो। भलमानसी भलेमानसों से निभाई जा सकती है। ऐसे धूर्तो के साथ भलमनसी का व्यवहार करना मूर्खता हैं अचकन पहनी; घर में जाकर माया से कहा—जरा एक काम से बाहर जाता हूँ, किवाड़े बन्द कर लो। चलने को तो चले; लेकिन पग-पग पर रुकते जाते थे। गोरेलाल का घर दूर से दिखाई दिया; लैंप जल रहा था। ठिठक गये और सोचने लगे चल कर क्या कहूँगा? कहीं उन्होंने जाते-जाते रपए निकाल कर दे दिये, और देर के लिए क्षमा मॉँगी तो मुझे बड़ी झेंप होगी। वह मुझे क्षुद्र, ओछा, धैर्यहीन समझेंगे। नहीं, रुपयों की आतचीत करूँ? कहूंगा—भाई घर में बड़ी देर से पेट दर्द कर रहा है। तुम्हारे पास पुराना तेज सिरका तो नहीं है मगर नहीं, यह बहाना कुछ भद्दा-सा प्रतीत होता है। साफ कलई खुल जायगी। ऊंह ! इस झंझट की जरुरत ही क्या है। वह मुझे देखकर आप ही समझ जायेंगे। इस विषय में बातचीत की कुछ नौबत ही न आवेगी। ब्रजनाथ इसी उधेड़बुन में आगे बढ़ते चले जाते थे जैसे नदी में लहरें चाहे किसी ओर चलें, धारा अपना मार्ग नहीं छोड़ती। गोरेलाल का घर आ गया। द्वार बंद था। ब्रजनाथ को उन्हें पुकारने का साहस न हुआ, समझे खाना खा रहे होंगे। दरवाजे के सामने से निकले, और धीरे-धीरे टहलते हुए एक मील तक चले गए। नौ बजने की आवाज कान में आयी। गोरेलाल भोजन कर चुके होंगे, यह सोचकर लौट पड़े; लेकिन द्वार पर पहुंचे तो, अंधेरा था। वह आशा-रूपी दीपक बुझ गया था। एक मिनट तक दुविधा में खड़े रहे। क्या करूँ। अभी बहुत सबेरा है। इतनी जल्दी थोड़े ही सो गए होंगे? दबे पॉँव बरामदे पर चढ़े। द्वार पर कान लगा कर सुना, चारों ओर ताक रहे थे कि कहीं कोई देख न ले। कुछ बातचीत की भनक कान में पड़ी। ध्यान से सुना। स्त्री कह रही थी-रुपये तो सब उठ रए, ब्रजनाथ को कहॉँ से दोगे? गोरेलाल ने उत्तर दिया-ऐसी कौन सी उतावली है, फिर दे देंगे। और दरख्वास्त दे दी है, कल मंजूर हो ही जायगी। तीन महीने के बाद लौटेंगे तब देखा जायगा। ब्रजनाथ को ऐसा जान पड़ा मानों मुँह पर किसी न तमाचा मार दिया। क्रोध और नैराश्य से भरे हुए बरामदे में उतर आए। घर चले तो सीधे कदम न पड़ते थे, जैसे कोई दिन-भर का थका-मॉंदा पथिक हो। ५ ब्रजनाथ रात-भर करवटें बदलते रहे। कभी गोरेलाल की धुर्तता पर क्रोध आता था, कभी अपनी सरलता पर; मालूम नहीं; किस गरीब के रुपये हैं। उस पर क्या बीती होगी ! लेकिन अब क्रोध या खेद रो क्या लाभ? सोचने लगे--रुपये कहॉँ से आवेंगे? भाभा पहले ही इनकार कर चुकी है, वेतन में इतनी गुंजाइश नहीं। दस-पॉँच रुपये की बात होती तो कतर ब्योंत करता। तो क्या करू? किसी से उधार लूँ। मगर मुझे कौन देगा। आज तक किसी से मॉँगने का संयोग नहीं पड़ा, और अपना कोई ऐसा मित्र है भी नहीं। जो लोग हैं, मुझी को सताया करते हैं, मुझे क्या देंगे। हॉँ, यदि कुछ दिन कानून छोड़कर अनुवाद करने में परिश्रम करूँ, तो रुपये मिल सकते हैं। कम-से-कम एक मास का कठिन परिश्रम है। सस्ते अनुवादकों के मारे दर भी तो गिर गयी है ! हा निर्दयी ! तूने बड़ी दगा की। न जाने किस जन्म का बैर चुकाया है। कहीं का न रखा ! दूसरे दिन ब्रजनाथ को रुपयों की धुन सवार हुई। सबेरे कानून के लेक्चर में सम्मिलित होते, संध्या को कचहरी से तजवीजों का पुलिंदा घर लाते और आधी रात बैठे अनुवाद किया करते। सिर उठाने की मुहलत न मिलती ! कभी एक-दो भी बज जाते। जब मस्तिष्क बिलकुल शिथिल हो जाता तब विवश होकर चारपाई पर पड़े रहते। लेकिन इतने परिश्रम का अभ्यास न होने के कारण कभी-कभी सिर में दर्द होने लगता। कभी पाचन-क्रिया में विध्न पड़ जाता, कभी ज्वर चढ़ आता। तिस पर भी वह मशीन की तरह काम में लगे रहते। भाभा कभी-कभी झुँझला कर कहती--अजी, लेट भी रहो; बड़े धर्मात्मा बने हो। तुम्हारे जैसे दस-पॉँच आदमी और होते, तो संसार का काम ही बन्द हो जाता। ब्रजनाथ इस बाधाकारी व्यंग का उत्तर न देते, दिन निकलते ही फिर वही चरखा ले बैठते। यहॉँ तक कि तीन सप्ताह बीत गये और पचीस रुपये हाथ आ गए। ब्रजनाथ सोचते थे--दो तीन दिन में बेड़ा पार है; लेकिन इक्कीसवें दिन उन्हें प्रचंड ज्वर चढ़ आया और तीन दिन तक न उतरा। छुट्टी लेनी पड़ी, शय्यासेवी बन गए। भादों का महीना था। भाभा ने समझा, पित्त का, प्रकोप है; लेकिन जब एक सप्ताह तक डाक्टर की औषधि सेवन करने पर भी ज्वर न उतरा तब घबरायी। ब्रजनाथ प्राय: ज्वर में बक-झक भी करने लगते। भाभा सुनकर डर के मारे कमरे में से भाग जाती। बच्चों को पकड़ कर दूसरे कमरे में बन्द कर देती। अब उसे शंका होने लगती थी कि कहीं यह कष्ट उन्हीं रुपयों के कारण तो नहीं भोगना पड़ रहा है ! कौन जाने, रुपयेवाले ने कुछ कर धर दिया हो ! जरूर यही बात है, नहीं तो औषधि से लाभ क्यों नहीं होता? संकट पड़ने पर हम धर्म-भीरु हो जाते हैं, औषधियों से निराश होकर देवताओं की शरण लेते हैं। भाभा ने भी देवताओं की शरण ली। वह जन्माष्टमी, शिवरात्रि का कठिन व्रत शुरू किया। आठ दिन पूरे हो गए। अंतिम दिन आया। प्रभात का समय था। भाभा ने ब्रजनाथ को दवा पिलाई और दोनों बालकों को लेकर दुर्गा जी की पूजा करने के लिए चली। उसका हृदय आराध्य देवी के प्रति श्रद्धा से परिपूर्ण था। मन्दिर के ऑंगन में पहुँची। उपासक आसनों पर बैठे हुए दुर्गापाठ कर रहे थे। धूप और अगर की सुगंध उड़ रही थी। उसने मन्दिर में प्रवेश किया। सामने दुर्गा की विशाल प्रतिमा शोभायमान थी। उसके मुखारविंद पर एक विलक्षण दीप्त झलक रही थी। बड़े-बड़े उज्जल नेत्रों से प्रभा की किरणें छिटक रही थीं। पवित्रता का एक समॉँ-सा छाया हुआ था। भाभा इस दीप्तवर्ण मूर्ति के सम्मुख साधी ऑंखों से ताक न सकी। उसके अन्त:करण में एक निर्मल, विशुद्ध भाव-पूर्ण भय का उदय हो आया। उसने ऑंखें बन्द कर लीं। घुटनों के बल बैठ गयी, और हाथ जोड़ कर करुण स्वर से बोली—माता, मुझ पर दया करो। उसे ऐसा ज्ञात हुआ, मानों देवी मुस्कराई। उसे उन दिव्य नेत्रों से एक ज्योति-सी निकल कर अपने हृदय में आती हुई मालूम हुई। उसके कानों में देवी के मुँह से निकले ये शब्द सुनाई दिए—पराया धन लौटा दे, तेरा भला होगा। भाभा उठ बैठी। उसकी ऑंखों में निर्मल भक्ति का आभास झलक रहा था। मुखमंडल से पवित्र प्रेम बरसा पड़ता था। देवी ने कदाचित् उसे अपनी प्रभा के रंग में डूबा दिया था। इतने में दूसरी एक स्त्री आई। उसके उज्जल केश बिखरे और मुरझाए हुए चेहरे के दोनों ओर लटक रहे थे। शरीर पर केवल एक श्वेत साड़ी थी। हाथ में चूड़ियों के सिवा और कोई आभूषण न था। शोक और नैराश्य की साक्षात् मूर्ति मालूम होती थी। उसने भी देवी के सामने सिर झुकाया और दोनों हाथों से ऑंचल फैला कर बोली—देवी, जिसने मेरा धन लिया हो, उसका सर्वनाश करो। जैसे सितार मिजराब की चोट खा कर थरथरा उठता है, उसी प्रकार भाभा का हृदय अनिष्ट के भय से थरथरा उठा। ये शब्द तीव्र शर के समान उसके कलेजे में चुभ गए। उसने देवी की ओर कातर नेत्रों से देखा। उनका ज्योतिर्मय स्वरूप भयंकर था, नेत्रों से भीषण ज्वाला निकल रही थी। भाभा के अन्त:करण में सर्वथा आकाश से, मंदिर के सामने वाले वृक्षों से; मंदिर के स्तंभों से, सिंहासन के ऊपर जलते हुए दीपक से और देवी के विकराल मुँह से ये शब्द निकलकर गूँजने लगे--पराया धन लौटा दे, नहीं तो तेरा सर्वनाश हो जायगा। भाभा खड़ी हो गई और उस वृद्धा से बोली-क्यों माता, तुम्हारा धन किसी ने ले लिया है? वृद्धा ने इस प्रकार उसकी ओर देखा, मानों डूबते को तिनके का सहारा मिला। बोली—हॉं बेटी ! भाभा--कितने दिन हुए ? वृद्धा--कोई डेढ़ महीना। भामा--कितने रुपये थे? वृद्धा--पूरे एक सौ बीस। भामा--कैसे खोए? वृद्धा--क्या जाने कहीं गिर गए। मेरे स्वामी पलटन में नौकर थे। आज कई बरस हुए, वह परलोक सिधारे। अब मुझे सरकार से आठ रुपए साल पेन्शन मिलती है। अक्की दो साल की पेन्शन एक साथ ही मिली थी। खजाने से रुपए लेकर आ रही थी। मालूम नहीं, कब और कहॉँ गिर पड़े। आठ गिन्नियॉँ थीं। भामा--अगर वे तुम्हें मिल जायँ तो क्या दोगी। वृद्धा--अधिक नहीं, उसमें से पचास रुपए दे दूँगी। भामा रुपये क्या होंगे, कोई उससे अच्छी चीज दो। वृद्धा--बेटी और क्या दूँ जब तक जीऊँगी, तुम्हारा यश गाऊँगी। भामा--नहीं, इसकी मुझे आवश्यकता नहीं ! वृद्धा--बेटी, इसके सिवा मेरे पास क्या है? भामा--मुझे आर्शीवाद दो। मेरे पति बीमार हैं, वह अच्छे हो जायँ। वृद्धा--क्या उन्हीं को रुपये मिले हैं? भामा--हॉँ, वह उसी दिन से तुम्हें खोज रहे हैं। वृद्धा घुटनों के बल बैठ गई, और ऑंचल फैला कर कम्पित स्वर से बोली--देवी ! इनका कल्याण करो। भामा ने फिर देवी की ओर सशंक दृष्टि से देखा। उनके दिव्य रूप पर प्रेम का प्रकाश था। ऑंखों में दया की आनंददायिनी झलक थी। उस समय भामा के अंत:करण में कहीं स्वर्गलोक से यह ध्वनि सुनाई दी--जा तेरा कल्याण होगा। संध्या का समय है। भामा ब्रजनाथ के साथ इक्के पर बैठी तुलसी के घर, उसकी थाती लौटाने जा रही है। ब्रजनाथ के बड़े परिश्रम की कमायी जो डाक्टर की भेंट हो चुकी है, लेकिन भामा ने एक पड़ोसी के हाथ अपने कानों के झुमके बेचकर रुपये जुटाए हैं। जिस समय झुमके बनकर आये थे, भामा बहुत प्रसन्न हुई थी। आज उन्हें बेचकर वह उससे भी अधिक प्रसन्न है। जब ब्रजनाथ ने आठों गिन्नियॉँ उसे दिखाई थीं, उसके हृदय में एक गुदगुदी-सी हुई थी; लेकिन यह हर्ष मुख पर आने का साहस न कर सका था। आज उन गिन्नियों को हाथ से जाते समय उसका हार्दिक आनन्द ऑंखों में चमक रहा है, ओठों पर नाच रहा है, कपोलों को रंग रहा है, और अंगों पर किलोल कर रहा है; वह इंद्रियों का आनंद था, यह आत्मा का आनंद है; वह आनंद लज्जा के भीतर छिपा हुआ था, यह आनंद गर्व से बाहर निकला पड़ता है। तुलसी का आशीर्वाद सफल हुआ। आज पूरे तीन सप्ताह के बाद ब्रजनाथ तकिए के सहारे बैठे थे। वह बार-बार भामा को प्रेम-पूर्ण नेत्रों से देखते थे। वह आज उन्हें देवी मालूम होती थी। अब तक उन्होंने उसके बाह्य सौंदर्य की शोभ देखी थी, आज वह उसका आत्मिक सौंदर्य देख रहे हैं। तुलसी का घर एक गली में था। इक्का सड़क पर जाकर ठहर गया। ब्रजनाथ इक्के पर से उतरे, और अपनी छड़ी टेकते हुए भामा के हाथों के सहारे तुलसी के घर पहुँचे। तुलसी ने रुपए लिए और दोनों हाथ फैला कर आशीर्वाद दिया--दुर्गा जी तुम्हारा कल्याण करें। तुलसी का वर्णहीन मुख वैसे ही खिल गया, जैसे वर्षा के पीछे वृक्षों की पत्तियॉँ खिल जाती हैं। सिमटा हुआ अंग फैल गया, गालों की झुर्रियॉँ मिटती दीख पड़ीं। ऐसा मालूम होता थ, मानो उसका कायाकलूप हो गया। वहॉँ से आकर ब्रजनाथ अपवने द्वार पर बैठे हुए थे कि गोरेलाल आ कर बैठ गए। ब्रजनाथ ने मुँह फेर लिया। गोरेलाल बोले--भाई साहब! कैसी तबियत है? ब्रजनाथ--बहुत अच्छी तरह हूँ। गोरेलाल--मुझे क्षमा कीजिएगा। मुझे इसका बहुत खेद है कि आपके रुपये देने में इतना विलम्ब हुआ। पहली तारीख ही को घर से एक आवश्यक पत्र आ गया, और मैं किसी तरह तीन महीने की छुट्टी लेकर घर भागा। वहॉँ की विपत्ति-कथा कहूँ, तो समाप्त न हो; लेकिन आपकी बीमारी की शोक-समाचार सुन कर आज भागा चला आ रहा हूँ। ये लीजिये, रुपये हाजिर हैं। इस विलम्ब के लिए अत्यंत लज्जित हूँ। ब्रजनाथ का क्रोध शांत हो गया। विनय में कितनी शक्ति है ! बोले-जी हॉँ, बीमार तो था; लेकिन अब अच्छा हो गया हूँ, आपको मेरे कारण व्यर्थ कष्ट उठाना पड़ा। यदि इस समय आपको असुविधा हो, तो रुपये फिर दे दीजिएगा। मैं अब उऋण हो गया हूँ। कोई जल्दी नहीं है। गोरेलाल विदा हो गये, तो ब्रजनाथ रुपये लिये हुए भीतर आये और भामा से बोले--ये लो अपने रुपये; गोरेलाल दे गये। भामा ने कहा--ये मरे रुपये नहीं तुलसी के हैं; एक बार पराया धन लेकर सीख गयी। ब्रजनाथ --लेकिन तुलसी के पूरे रुपये तो दे दिये गये! भामा--दे दिये तो क्या हुआ? ये उसके आशीर्वाद की न्योछावर है। ब्रजनाथ -कान के झुमके कहॉँ से आवेंगे? भामा--झुमके न रहेंगे, न सही; सदा के लिए ‘कान’ तो हो गये। ***********
- एक लड़की पहेली सी
टाइपिंग कोचिंग सेंटर में विजय का पहला दिन था। वह अपनी सीट पर बैठा टाइप सीखने के लिए नियमावली पुस्तिका पढ़ रहा था। तभी उसकी निगाह अपने केबिन के गेट की तरफ गई। कजरारे नयनों वाली एक साँवली लड़की उसकी केबिन में आ रही थी। लड़की उसकी बगल वाली सीट पर आकर बैठ गई। टाइपराइटर को ठीक किया और टाइप करने में मशगूल हो गई। विजय का मन टाइप करने में नहीं लगा। वह किसी भी हालत में लड़की से बातें करना चाह रहा था। वह टाइपराइटर पर कागज लगाकर बैठ गया और लड़की को देखने लगा। लड़की की अँगुलियाँ टाइपराइटर के कीबोर्ड पर ऐसे पड़ रही थीं जैसे हारमोनियम बजा रही हो। क्या देख रहे हो? 'थोड़ी देर बाद लड़की गुस्से से बोली। आपको टाइप करते हुए देख रहा हूँ। यहाँ क्या करने आए हो? टाइप सीखने। ऐसे सीखोगे? लड़की के स्वर में तल्खी बरकरार थी। मेरा आज पहला दिन है, इसलिए मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। आप टाइप कर रही थीं तो मैं देखने लगा कि आपकी अँगुलियाँ कैसे पड़ती हैं कीबोर्ड पर। आपको टाइप करते देखकर लगा मैं भी सीख जाऊँगा। यदि इसी तरह मुझे ही देखते रहे तो आपकी यह मनोकामना कभी पूरी नहीं होगी।' लड़की फिर टाइप करने में जुट गई। विजय भी कीबोर्ड देखकर टाइप करने लगा। टाइप करने में उसका मन नहीं लग रहा था। वे बेचैनी-सी महसूस कर रहा था। दस मिनट बाद ही उसने टाइपराइटर का रिबन फँसा दिया। 'रिबन तो फँसेगा ही जब ध्यान कहीं और होगा...।' लड़की उसके टाइपराइटर को थोड़ा अपनी ओर खींचकर रिबन ठीक करने लगी। इसी बीच रिबन नीचे गिर गया। वह उसे उठाने के लिए झुकी तो उसके गले से चुन्नी गिर गई। रिबन उठाने के लिए विजय भी झुका था। उसकी निगाह अकस्मात ही लड़की के उरोजों पर चली गई। वह सकपका गया। 'लो, ठीक हो गया।' लड़की ने कहा त उसकी चेतना लौटी। लड़की फिर टाइप करने में लग गई, लेकिन विजय का मन टाइप में नहीं लगा। वह लड़की से बात करने की ताक में ही लगा रहा। 'मन नहीं लग रहा है?' अचानक लड़की ने उससे पूछा तो बाँछें खिल गईं। 'लगता है कि सीख भी नहीं पाऊँगा।' आसार तो कुछ ऐसे ही दिखते हैं। आपका नाम? विजय ने बात को बढ़ाने के लिए सवाल कर दिया। सरिता। अच्छा नाम है। लेकिन मुझे इस नाम से नफरत है। क्यों? कोई एक कारण हो तो बताएँ। यह कहते हुए सरिता अपनी सीट से उठी और पर्स कंधे पर टाँगते हुए केबिन से बाहर निकल गई। विजय उसे जाते हुए देखता रहा। उसके जाने के बाद उसने टाइपराइटर पर डाली। टाइपराइटर उसे उदास लगा। और दुनिया बदल गई इसी दिन से विजय हवा में उड़ने लगा। रातों को छत पर घूमने लगा। तारे गिनता और उनसे बातें करता। चाँदनी रात में बैठकर कविताएँ लिखता। गर्मी की धूप उसे गुनगुनी लगने लगी। दुनिया गुलाबी हो गई तो जिंदगी गुलाब का फूल। आँखों से नींद गायब हो गई। वह ख्यालों ही ख्यालों में पैदल ही कई-कई किलोमीटर घूम आता। अपनी इस स्थिति के बारे में उसने अपने एक दोस्त को बताया तो उसने कहाँ 'गुरु तुम्हें प्यार हो गया है।' दोस्त की बात सुनकर उसे अच्छा लगा। अगले दिन विजय ने सरिता से कहा कि आप पर एक कविता लिखी है। चाहता हूँ कि आप इसे पढ़ें। 'यह भी खूब रही। जान न पहचान। तू मेरा मेहमान। कितना जानते हैं आप मुझे?' जो भी जानता हूँ उसी आधार पर लिखा हूँ। सरिता उसकी लिखी कविता पढ़ने लगी। सरिता, कल-कल करके बहने वाली जलधारा लोगों की प्यास बुझाती किसानों के खेतों को सींचती राह में आती हैं बहुत बाधा फिर भी मिलती है सागर से उसके प्रेम में सागर साहिल पर पटकता है सिर उनके प्रेम की प्रगाढ़ता का प्रमाण पूर्णमासी की रात में उठने वाला ज्वार-भाटा सरिता है तो सागर है सरिता के बिना रेगिस्तान हो जाएगा सागर सागर के प्रेम में सरिता लाँघती है पहाड़, पठार और मानव निर्मित बाधाओं को कविता के नीचे उसने विजय की जगह सागर लिखा था। सरिता ने उसे देखा और कागज विजय की तरफ बढ़ा दिया। विजय ने कहा कि मैं चाहता हूँ कि आप इसे टाइप कर दें। इसे छपने के लिए भेजना है। सरिता कुछ नहीं बोली। कागज को सामने रखकर टाइप करने लगी। विजय उसे देखता रहा। इस बात का आभास सरिता को भी था कि विजय उसे ही देख रहा है, लेकिन उसने कोई विरोध करने के बजाय पूछा कि आप कवि हैं? बनने की कोशिश कर रहा हूँ। कवि भगोड़े होते हैं। सरिता ने उसकी ओर देखते हुए कहा। उसकी इस टिप्पणी से विजय सकपका गया। कवि अपने सुख के लिए कविता रचता है। रचते समय वह कविता के बारे में सोचता है। उसके बाद वह कविता को उसके हाल पर छोड़ देता है। कविता जब संकट में होती है तो कवि कविता के पक्ष में खड़ा नहीं होता।' 'यह आप कैसे कह सकती हैं।' मैं समझती हूँ कि आदमी की जिंदगी भी एक कविता है। मेरी जिंदगी एक कविता है। मेरी जिंदगी मुझे अच्छी नहीं लगती। इसलिए कविता भी मुझे अच्छी नहीं लगती। अरे वाह, आप तो कवि हैं। अभी आपने जो कहा वह तो कविता है। कविता नहीं, कविता का प्रलाप है, उसकी वेदना। जो उस कवि के कारण उपजी है, जिसने मेरी जिंदगी की रचना की।' इतना कहकर सरिता केबिन से बाहर चली गई। कैसी है यह? विजय ने सरिता के टाइपराइटर को देखा। लगा जैसे टाइपराइटर किसी शोक गीत की रचना में मशगूल है। प्यार की खुशबू आज उन्होंने बातें अधिक कीं। उनके वार्तालाप को देखकर टाइपिंग इंस्टिट्यूट चलाने वाली मैडम ने उनके पास आकर कहा कि आजकल तो तुम काफी खुश हो सरिता। बदले में सरिता केवल मुस्कराई। विजय भी मुस्कराया। तो क्या मेरे प्यार की गंध इसे भी लग गई। अगले दिन सरिता जब इंस्टिट्यूट आई तो काफी सजी-धजी थी। नया गुलाबी सूट पहने थी। बालों का स्टाइल बदला हुआ था। विजय को सरिता का यह बदला रूप अच्छा लगा। वह अपनी भावनाओं को दबा नहीं पाया। बोला, 'काफी सुंदर लग रही हो।' जवाब में जब सरिता ने मुस्कराते हुए थैंक्यू का फूल जब उसकी तरफ फेंका तो उसकी इच्छा हुई कि वह खड़ा होकर नाचने लगे और जोर-जोर से चिल्लाये कि उसे प्यार हो गया है। ग्रह-नक्षत्रों की चाल आदमी जब निराश होता है या फिर लक्ष्य के प्रति उसकी स्थितियाँ साफ नहीं होती हैं तो वह धर्म और ज्योतिषी की शरण में चला जाता है। विजय की भी हालत कुछ ऐसी ही थी। वह सरिता को चाहने लगा था, लेकिन सरिता भी उसे चाहती है यह स्पष्ट नहीं था। वह अपनी बेरोजगारी से भी परेशान था। घर वाले शादी के लिए अलग से दबाव डाल रहे थे। लिहाजा एक दिन वह ज्योतिषी के पास चला गया। नौकरी पाने के लिए वह ज्योतिषी से नुस्खे पूछता रहता है। उसने सोचा कि प्रेम पाने के लिए भी गृह-नक्षत्रों की चाल जान ली जाए। नौकरी के लिए तो ज्योतिषी कभी कहता है कि आपकी कुंडली में कालसर्प दोष है, जो आपके शुभ कार्यों में बाधक है। इसकी शांति के लिए घर में मोर पंख रखें और प्रतिदिन उसे दो-तीन बार अपने शरीर पर घुमाएँ। सोमवार के दिन चाँदी से बना सर्प का जोड़ा शिवलिंग पर चढ़ाएँ। नित्य श्रीगणेश जी की उपासना करें। धैर्यपूर्वक ऐसा करने पर ही रोजगार प्राप्ति की संभावना बनेगी। विजय ने अभी तक उसके बताए हर नुस्खे को आजमाया, लेकिन आज तक कोई संभावना नहीं बनी। शिकायत करने पर वह कह देता है कि आप पर भाग्येश शुक्र की महादशा चल रही है। शुक्र के बलवर्धन के लिए शुक्रवार के दिन साढ़े पाँच रत्ती का ओपल चाँदी में जड़वाकर दाहिनी मध्यमा में धारण करें। पंडित जी मेरी कुंडली में प्रेम है कि नहीं? है न, बहुत है। कुंडली पर सरसरी नजर डालते हुए ज्योतिषी ने कहा। 'प्रेम विवाह का योग है?' है, लेकिन कुछ बाधाएँ हैं।' प्रेम विवाह में क्या लफड़ा है? आप पर शुक्र की महादशा चल रही है, जो अशुभ फलप्रद है। गोचर में भी आपकी राशि पर शनि की साढ़े साती चल रही है। शनि शांति के लिए प्रत्येक शनिवार कुत्तों को सरसों के तेल से बना मीठा पराठा खिलाएँ। ग्रह शांति के उपरांत ही प्रेम में सफलता की संभावना बन सकती है। सब ढकोसला है। इतने दिनों से आप एक नौकरी के लिए मुझसे क्या-क्या नहीं करवाते रहे। मिलीं नौकरी? साला चपरासी भी कोई रखने को तैयार नहीं। भन्नाया हुआ विजय ज्योतिषी के कमरे से निकल गया। घर पहुँचते ही मम्मी कहने लगी, 'तुम्हारे पिता ने लड़की पसंद कर ली है। उनके दोस्त की बेटी है। बीए करके नौकरी कर रही है।' तो मैं क्या करूँ? शादी कर लो। बिना नौकरी मिले यह नहीं हो पाएगा। फिर तो पूरी जिंदगी कुँआरे ही रह जाओगे। बीवी की कमाई खाने से तो कुँआरा रहना ही अच्छा है। कहते हुए विजय अपने कमरे में चला गया। जिंदगी आसान नहीं एक सप्ताह तक सरिता टाइपिंग स्कूल नहीं आई। विजय रोज आता रहा और निराश होकर वापस घर जाता रहा। आठवें दिन सरिता के आते ही वह पूछा बैठा कि एक सप्ताह आई नहीं? जिंदगी में बहुत दिक्कतें हैं। कहते हुए सरिता अपनी सीट पर बैठ गई। क्या हो गया? मेरी बहन जो बीए कर रही है किसी लड़के के साथ चली गई। दोनों बिना शादी के ही एक साथ रह रहे हैं। ऐसा क्यों किया? उसका कहना है कि यदि वह ऐसा न करती तो उसकी शादी ही नहीं हो पाती। मतलब? हमारे घर के आर्थिक हालात। इतना कहकर सरिता चुप हो गई। मुझे नहीं लगता कि आपकी बहन ने गलत किया है। आज की युवा पीढ़ी विद्रोही हो गई है। वह परंपराओं को तोड़कर नई नैतिकता गढ़ रही है। समय के साथ सब ठीक हो जाएगा। पर माँ तो नहीं समझतीं। हाँ, उनके लिए समझना थोड़ा मुश्किल है, लेकिन आजकल सब चलता है। हमारा समाज बदल रहा है। बिना शादी के एक साथ रहना पश्चिमी परंपरा है, लेकिन अब ऐसा हमारे यहाँ भी होने लगा है।' हाँ, बैठकर सपनों के राजकुमार का इंतजार करने से तो बेहतर ही है न कि जो हाथ थाम ले उसके साथ चल दिया जाए। चाहे चार दिन ही सही, जिंदगी में बहार तो आ जाएगी। विजय को लगा कि कह दे कि फिर तुम मेरे साथ क्यों नहीं चली चलतीं। हम शादी कर लेते हैं पर वह कह नहीं पाया। 'जानते हो मेरी एक बहन बारहवीं में पढ़ रही है। उसका भी एक लड़के से प्रेम चल रहा है। वे दोनों एक-दूसरे से शादी करने को तैयार हैं। अगले साल बालिग होते ही शादी कर लेंगे।' विजय के मन में आया कि कह दे कि अच्छा ही है। वह अपने आप वर खोज लें तो तुम्हें परेशानी नहीं होगी। वैसे भी पाँच हजार रुपए की नौकरी में तुम कौन सा राजकुमार उन्हें दे दोगी। अच्छा है कि वह अपने-अपने प्रेमियों के साथ भाग जाएँ। बातों-बातों में एक दिन सरिता ने उसे बताया था कि उसके पिता की मौत हो चुकी है और वह तीन बहन हैं। उसका कोई भाई नहीं है। बहनों में वही सबसे बड़ी है। वह एक ऑफिस में काम करती है और उसे पाँच हजार रुपए मासिक वेतन मिलता है। दूसरी जगह काम पाने के लिए टाइपिंग सीख रही है। विजय को अपने एक दोस्त के साथ घटी ऐसी ही घटना की याद आ गई। उसके दोस्त की एक बहन अपनी बड़ी बहन के अधेड़ से ब्याह देने के बाद प्रेमी के साथ भाग गई। इसके बाद उसका दोस्त गुस्से में उबल रहा था। तब विजय ने कहा था कि शांत रहो यार। वे दोनों जहाँ हो कुशल से रहें। उसने जो किया अच्छा ही किया। तुम कौन सा उसे राजकुमार से ब्याह देते। आखिरकार जिंदगी उसकी है। जीना उसे है इसलिए निर्णय भी उसे ही लेना चाहिए। दोस्त के बड़े भाई ने भी विजय की बात का समर्थन किया था। लेकिन थोड़ा दार्शनिक अंदाज में कहा था कि होनी को यही मंजूर था। मैं भी सोचती हूँ कि एक बहन ने जो किया ठीक ही है। दूसरी जो करेगी वह भी अच्छा ही है। जीवन यदि संघर्ष है तो करो। प्रेमी से पति बना व्यक्ति भी धोखा दे सकता है। जीवन नरक बन सकता है और माता-पिता का खोजा राजकुमार भी यही करता है। लेकिन माँ नहीं मानतीं। सोचती बहुत हैं और तबियत खराब कर लेती हैं। पुराने जमाने की हैं न। 'हद तो यह हो गई कि वह मुझसे कहने लगी हैं कि तू भी किसी के साथ भाग जा। मैं उन्हें इस हाल में छोड़कर किसके साथ...' रो पड़ी सरिता। विजय की समझ में नहीं आया कि वह क्या कहे और क्या करे। स्थिति को सरिता समझ गई तो खुद पर काबू किया और फिर से टाइप करने लगी। दस मिनट बाद सरिता उठी और बिना बोले ही चली गई। विजय की इच्छा हुई कि वह उसके पीछे-पीछे चला जाए, लेकिन वह बैठा रहा और उसे जाते देखता रहा। मूसलाधारिश में बिजली का गिरना आसमान में काले बादल घिर आए थे। इस कारण परिवेश में अँधेरा पसर गया था। रह-रहकर आसमान में बिजली चमकती और बादल गरजते। ऐसे मौसम में भी विजय टाइपिंग स्कूल जाने के लिए तैयार था। वह सरिता से मिलना चाहता था। जब वह घर से निकला तो बूँदाबाँदी शुरू हो चुकी थी। फिर भी वह तेज कदमों से टाइपिंग स्कूल की तरफ बढ़ने लगा। कुछ ही दूर गया होगा कि बारिश तेज हो गई। सड़क पर चल रहे लोग भागकर किसी छाँव में खड़े हो गए पर वह अपनी मस्ती में भीगता हुआ चलता रहा। इंस्टिट्यूट पहुँचकर उसे पता चला कि सरिता नहीं आई है। इतनी बारिश में आने की क्या जरूरत थी? मैडम ने विजय से कहा। आप नहीं समझेंगी। सब समझती हूँ, लेकिन अब सरिता यहाँ कभी नहीं आएगी। क्यों? आपको कैसे पता? 'उसका फोन आया था। उसने कहा कि यदि आप आओ तो बता दूँ।' वह कभी नहीं आएगी? विजय की आवाज किसी कुएँ में से आती लगी। विजय टाइपिंग स्कूल से बाहर आया। बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी। जैसे ही उसने नीचे की ओर कदम रखा जोर से बिजली चमकी और बादल गरजने लगा। विजय संज्ञाशून्य सा भीगता हुआ घर की तरफ चल पड़ा। उसने सोचा कि वह सरिता के घर जाएगा। लेकिन उसके घर का पता तो मैडम दे सकती हैं। यह सोचकर वापस पलटा लेकिन तब तक टाइपिंग स्कूल बंद हो चुका था। भीगते हुए घर पहुँचा। तब तक उसका शरीर बुखार से तपने लगा। लगभग पंद्रह दिन वह चारपाई पर पड़ा रहा। जब कुछ ठीक हुआ तो बीसवें दिन टाइपिंग स्कूल पहुँचा। मैडम नहीं मिली। यह सिलसिला पंद्रह दिनों तक चला। सोलहवें दिन उसे मैडम मिली। उसे देखते ही बोल पड़ी कि काफी कमजोर हो गए हो? उस दिन बारिश में भीगा तो बीमार हो गया। विजय ने मैडम से सरिता के घर का पता माँगा तो उसने एक कागज पर लिखा और विजय को थमा दिया। मैडम को धन्यवाद बोलकर विजय चल पड़ा। वह आज ही सरिता से मिलना चाहता था। जब वह मैडम के दिए पते पर पहुँचा तो वहाँ ताला लगा था। पड़ोसियों से पूछने पर पता चला कि सरिता यहीं रहती थी, लेकिन अब मकान बेचकर चली गई है। कई लोगों से पूछने के बाद भी विजय को उसका नया पता नहीं मिला। निराश होकर वह घर लौट आया। सरिता के इस व्यवहार से उसे काफी धक्का लगा। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि सरिता ने ऐसा क्यों किया? वह सरिता की याद में कविताएँ लिखने लगा। एक दिन उसने एक सपना देखा और उसके भावों को कविता के रूप में कागज पर लिखा... सरिता, जो निकली अपने उद्गम स्थल से सागर की चाह में चली द्रुतगति से सामने आ गया पहाड़ टकराने के बाद बदल लिया अपना मार्ग मार्ग था लंबा पहाड़ों की श्रृंखला थी पठार और पथरीली जमीन भी आदमी भी खड़ा था फावड़ा लिए बाँध बनाने को तत्पर खेत सींचने के लिए चाहिए उसे पानी पीने के लिए भी बिजली भी तो चाहिए घर रोशन करने के लिए कारखाने चलाने के लिए कारखानों के कचरे को बहाने के लिए भी चाहिए उसे नदी। प्रकृति से लड़ते नहीं थकी वह बहती रही अविरल दिल में सागर से मिलने की चाह लिए। भारी पड़ा प्यार अवरोधों पर पहुँच गई वह साहिल पर लेकिन मानव ने बना बाँध रोक दी उसकी धारा कारखानों की गंदगी उड़ेल सड़ा दिया उसकी आत्मा को अपने आँसुओं से धोती रह वह अपना बदन निर्मलता से मिलना चाहती थी सागर से विकास उन्मादी मानव ने रौंद दिया उसकी आत्मा को जिंदा लाश हो गई वह उसके लिए तड़पता है सागर। साहिल पर पटकता है अपने सिर को उसने तो दम तोड़ दिया मानव के विकास में सागर भेजता है बादलों को उसे पुनर्जीवित करने के लिए वह जानता है बेवफा नहीं है वह सच्चा है उसका प्यार कैद है वह मानव के विकास में बरसते हैं बादल उफनती है नदी मानव को दिखाती है अपना विकराल रूप मिलते ही प्यार की ताकत तबाह कर देना चाहती है वह मानव सृष्टि को बदला लेना उसकी प्रकृति नहीं भागती है तेज गति से सागर की ओर बाँहें फैलाए स्वागत करता है सागर बताना चाहती है अपने कष्टों को वह लेकिन कुछ भी नहीं जानना चाहता सागर जानता है वह मानव स्वभाव को उसका भी तो पाला पड़ा है इस स्वार्थी प्राणी से विजय की इस कविता को पत्रिका में छपे एक माह से अधिक हो गया है, लेकिन उसके पास इस बार भी अब तक सरिता का कोई पत्र या फोन नहीं आया है। उसे उम्मीद है कि एक न एक दिन सरिता उससे संपर्क जरूर करेगी। जब से वह कविता प्रकाशित हुई है तब से वह फोन की प्रत्येक घंटी पर चौंक जाता है। यही नहीं हर रोज पोस्टमैन का बेसब्री से इंतजार करता है। और जब उसके आने का समय खत्म हो जाता है तो वह उदासी के समुद्र में डूब जाता है।
- बड़े घर की बेटी
बेनीमाधव सिंह गौरीपुर गॉँव के जमींदार और नम्बरदार थे। उनके पितामह किसी समय बड़े धन-धान्य संपन्न थे। गॉँव का पक्का तालाब और मंदिर जिनकी अब मरम्मत भी मुश्किल थी, उन्हीं के कीर्ति-स्तंभ थे। कहते हैं इस दरवाजे पर हाथी झूमता था, अब उसकी जगह एक बूढ़ी भैंस थी, जिसके शरीर में अस्थि-पंजर के सिवा और कुछ शेष न रहा था; पर दूध शायद बहुत देती थी; क्योंकि एक न एक आदमी हॉँड़ी लिए उसके सिर पर सवार ही रहता था। बेनीमाधव सिंह अपनी आधी से अधिक संपत्ति वकीलों को भेंट कर चुके थे। उनकी वर्तमान आय एक हजार रुपये वार्षिक से अधिक न थी। ठाकुर साहब के दो बेटे थे। बड़े का नाम श्रीकंठ सिंह था। उसने बहुत दिनों के परिश्रम और उद्योग के बाद बी.ए. की डिग्री प्राप्त की थी। अब एक दफ्तर में नौकर था। छोटा लड़का लाल-बिहारी सिंह दोहरे बदन का, सजीला जवान था। भरा हुआ मुखड़ा,चौड़ी छाती। भैंस का दो सेर ताजा दूध वह उठ कर सबेरे पी जाता था। श्रीकंठ सिंह की दशा बिलकुल विपरीत थी। इन नेत्रप्रिय गुणों को उन्होंने बी०ए०--इन्हीं दो अक्षरों पर न्योछावर कर दिया था। इन दो अक्षरों ने उनके शरीर को निर्बल और चेहरे को कांतिहीन बना दिया था। इसी से वैद्यक ग्रंथों पर उनका विशेष प्रेम था। आयुर्वेदिक औषधियों पर उनका अधिक विश्वास था। शाम-सबेरे उनके कमरे से प्राय: खरल की सुरीली कर्णमधुर ध्वनि सुनायी दिया करती थी। लाहौर और कलकत्ते के वैद्यों से बड़ी लिखा-पढ़ी रहती थी। श्रीकंठ इस अँगरेजी डिग्री के अधिपति होने पर भी अँगरेजी सामाजिक प्रथाओं के विशेष प्रेमी न थे; बल्कि वह बहुधा बड़े जोर से उसकी निंदा और तिरस्कार किया करते थे। इसी से गॉँव में उनका बड़ा सम्मान था। दशहरे के दिनों में वह बड़े उत्साह से रामलीला होते और स्वयं किसी न किसी पात्र का पार्ट लेते थे। गौरीपुर में रामलीला के वही जन्मदाता थे। प्राचीन हिंदू सभ्यता का गुणगान उनकी धार्मिकता का प्रधान अंग था। सम्मिलित कुटुम्ब के तो वह एक-मात्र उपासक थे। आज-कल स्त्रियों को कुटुम्ब को कुटुम्ब में मिल-जुल कर रहने की जो अरुचि होती है, उसे वह जाति और देश दोनों के लिए हानिकारक समझते थे। यही कारण था कि गॉँव की ललनाऍं उनकी निंदक थीं ! कोई-कोई तो उन्हें अपना शत्रु समझने में भी संकोच न करती थीं ! स्वयं उनकी पत्नी को ही इस विषय में उनसे विरोध था। यह इसलिए नहीं कि उसे अपने सास-ससुर, देवर या जेठ आदि घृणा थी; बल्कि उसका विचार था कि यदि बहुत कुछ सहने और तरह देने पर भी परिवार के साथ निर्वाह न हो सके, तो आये-दिन की कलह से जीवन को नष्ट करने की अपेक्षा यही उत्तम है कि अपनी खिचड़ी अलग पकायी जाय। आनंदी एक बड़े उच्च कुल की लड़की थी। उसके बाप एक छोटी-सी रियासत के ताल्लुकेदार थे। विशाल भवन, एक हाथी, तीन कुत्ते, बाज, बहरी-शिकरे, झाड़-फानूस, आनरेरी मजिस्ट्रेट और ऋण, जो एक प्रतिष्ठित ताल्लुकेदार के भोग्य पदार्थ हैं, सभी यहॉँ विद्यमान थे। नाम था भूपसिंह। बड़े उदार-चित्त और प्रतिभाशाली पुरुष थे; पर दुर्भाग्य से लड़का एक भी न था। सात लड़कियॉँ हुईं और दैवयोग से सब की सब जीवित रहीं। पहली उमंग में तो उन्होंने तीन ब्याह दिल खोलकर किये; पर पंद्रह-बीस हजार रुपयों का कर्ज सिर पर हो गया, तो ऑंखें खुलीं, हाथ समेट लिया। आनंदी चौथी लड़की थी। वह अपनी सब बहनों से अधिक रूपवती और गुणवती थी। इससे ठाकुर भूपसिंह उसे बहुत प्यार करते थे। सुन्दर संतान को कदाचित् उसके माता-पिता भी अधिक चाहते हैं। ठाकुर साहब बड़े धर्म-संकट में थे कि इसका विवाह कहॉँ करें? न तो यही चाहते थे कि ऋण का बोझ बढ़े और न यही स्वीकार था कि उसे अपने को भाग्यहीन समझना पड़े। एक दिन श्रीकंठ उनके पास किसी चंदे का रुपया मॉँगने आये। शायद नागरी-प्रचार का चंदा था। भूपसिंह उनके स्वभाव पर रीझ गये और धूमधाम से श्रीकंठसिंह का आनंदी के साथ ब्याह हो गया। आनंदी अपने नये घर में आयी, तो यहॉँ का रंग-ढंग कुछ और ही देखा। जिस टीम-टाम की उसे बचपन से ही आदत पड़ी हुई थी, वह यहां नाम-मात्र को भी न थी। हाथी-घोड़ों का तो कहना ही क्या, कोई सजी हुई सुंदर बहली तक न थी। रेशमी स्लीपर साथ लायी थी; पर यहॉँ बाग कहॉँ। मकान में खिड़कियॉँ तक न थीं, न जमीन पर फर्श, न दीवार पर तस्वीरें। यह एक सीधा-सादा देहाती गृहस्थी का मकान था; किन्तु आनंदी ने थोड़े ही दिनों में अपने को इस नयी अवस्था के ऐसा अनुकूल बना लिया, मानों उसने विलास के सामान कभी देखे ही न थे। २ एक दिन दोपहर के समय लालबिहारी सिंह दो चिड़िया लिये हुए आया और भावज से बोला--जल्दी से पका दो, मुझे भूख लगी है। आनंदी भोजन बनाकर उसकी राह देख रही थी। अब वह नया व्यंजन बनाने बैठी। हांड़ी में देखा, तो घी पाव-भर से अधिक न था। बड़े घर की बेटी, किफायत क्या जाने। उसने सब घी मांस में डाल दिया। लालबिहारी खाने बैठा, तो दाल में घी न था, बोला-दाल में घी क्यों नहीं छोड़ा? आनंदी ने कहा--घी सब मॉँस में पड़ गया। लालबिहारी जोर से बोला--अभी परसों घी आया है। इतना जल्द उठ गया? आनंदी ने उत्तर दिया--आज तो कुल पाव--भर रहा होगा। वह सब मैंने मांस में डाल दिया। जिस तरह सूखी लकड़ी जल्दी से जल उठती है, उसी तरह क्षुधा से बावला मनुष्य जरा-जरा सी बात पर तिनक जाता है। लालबिहारी को भावज की यह ढिठाई बहुत बुरी मालूम हुई, तिनक कर बोला--मैके में तो चाहे घी की नदी बहती हो ! स्त्री गालियॉँ सह लेती हैं, मार भी सह लेती हैं; पर मैके की निंदा उनसे नहीं सही जाती। आनंदी मुँह फेर कर बोली--हाथी मरा भी, तो नौ लाख का। वहॉँ इतना घी नित्य नाई-कहार खा जाते हैं। लालबिहारी जल गया, थाली उठाकर पलट दी, और बोला--जी चाहता है, जीभ पकड़ कर खींच लूँ। आनंद को भी क्रोध आ गया। मुँह लाल हो गया, बोली--वह होते तो आज इसका मजा चखाते। अब अपढ़, उजड्ड ठाकुर से न रहा गया। उसकी स्त्री एक साधारण जमींदार की बेटी थी। जब जी चाहता, उस पर हाथ साफ कर लिया करता था। खड़ाऊँ उठाकर आनंदी की ओर जोर से फेंकी, और बोला--जिसके गुमान पर भूली हुई हो, उसे भी देखूँगा और तुम्हें भी। आनंदी ने हाथ से खड़ाऊँ रोकी, सिर बच गया; पर अँगली में बड़ी चोट आयी। क्रोध के मारे हवा से हिलते पत्ते की भॉँति कॉँपती हुई अपने कमरे में आ कर खड़ी हो गयी। स्त्री का बल और साहस, मान और मर्यादा पति तक है। उसे अपने पति के ही बल और पुरुषत्व का घमंड होता है। आनंदी खून का घूँट पी कर रह गयी। ३ श्रीकंठ सिंह शनिवार को घर आया करते थे। वृहस्पति को यह घटना हुई थी। दो दिन तक आनंदी कोप-भवन में रही। न कुछ खाया न पिया, उनकी बाट देखती रही। अंत में शनिवार को वह नियमानुकूल संध्या समय घर आये और बाहर बैठ कर कुछ इधर-उधर की बातें, कुछ देश-काल संबंधी समाचार तथा कुछ नये मुकदमों आदि की चर्चा करने लगे। यह वार्तालाप दस बजे रात तक होता रहा। गॉँव के भद्र पुरुषों को इन बातों में ऐसा आनंद मिलता था कि खाने-पीने की भी सुधि न रहती थी। श्रीकंठ को पिंड छुड़ाना मुश्किल हो जाता था। ये दो-तीन घंटे आनंदी ने बड़े कष्ट से काटे ! किसी तरह भोजन का समय आया। पंचायत उठी। एकांत हुआ, तो लालबिहारी ने कहा--भैया, आप जरा भाभी को समझा दीजिएगा कि मुँह सँभाल कर बातचीत किया करें, नहीं तो एक दिन अनर्थ हो जायगा। बेनीमाधव सिंह ने बेटे की ओर साक्षी दी--हॉँ, बहू-बेटियों का यह स्वभाव अच्छा नहीं कि मर्दों के मूँह लगें। लालबिहारी--वह बड़े घर की बेटी हैं, तो हम भी कोई कुर्मी-कहार नहीं है। श्रीकंठ ने चिंतित स्वर से पूछा--आखिर बात क्या हुई? लालबिहारी ने कहा--कुछ भी नहीं; यों ही आप ही आप उलझ पड़ीं। मैके के सामने हम लोगों को कुछ समझती ही नहीं। श्रीकंठ खा-पीकर आनंदी के पास गये। वह भरी बैठी थी। यह हजरत भी कुछ तीखे थे। आनंदी ने पूछा--चित्त तो प्रसन्न है। श्रीकंठ बोले--बहुत प्रसन्न है; पर तुमने आजकल घर में यह क्या उपद्रव मचा रखा है? आनंदी की त्योरियों पर बल पड़ गये, झुँझलाहट के मारे बदन में ज्वाला-सी दहक उठी। बोली--जिसने तुमसे यह आग लगायी है, उसे पाऊँ, मुँह झुलस दूँ। श्रीकंठ--इतनी गरम क्यों होती हो, बात तो कहो। आनंदी--क्या कहूँ, यह मेरे भाग्य का फेर है ! नहीं तो गँवार छोकरा, जिसको चपरासगिरी करने का भी शऊर नहीं, मुझे खड़ाऊँ से मार कर यों न अकड़ता। श्रीकंठ--सब हाल साफ-साफ कहा, तो मालूम हो। मुझे तो कुछ पता नहीं। आनंदी--परसों तुम्हारे लाड़ले भाई ने मुझसे मांस पकाने को कहा। घी हॉँडी में पाव-भर से अधिक न था। वह सब मैंने मांस में डाल दिया। जब खाने बैठा तो कहने लगा--दल में घी क्यों नहीं है? बस, इसी पर मेरे मैके को बुरा-भला कहने लगा--मुझसे न रहा गया। मैंने कहा कि वहॉँ इतना घी तो नाई-कहार खा जाते हैं, और किसी को जान भी नहीं पड़ता। बस इतनी सी बात पर इस अन्यायी ने मुझ पर खड़ाऊँ फेंक मारी। यदि हाथ से न रोक लूँ, तो सिर फट जाय। उसी से पूछो, मैंने जो कुछ कहा है, वह सच है या झूठ। श्रीकंठ की ऑंखें लाल हो गयीं। बोले--यहॉँ तक हो गया, इस छोकरे का यह साहस ! आनंदी स्त्रियों के स्वभावानुसार रोने लगी; क्योंकि ऑंसू उनकी पलकों पर रहते हैं। श्रीकंठ बड़े धैर्यवान् और शांति पुरुष थे। उन्हें कदाचित् ही कभी क्रोध आता था; स्त्रियों के ऑंसू पुरुष की क्रोधाग्नि भड़काने में तेल का काम देते हैं। रात भर करवटें बदलते रहे। उद्विग्नता के कारण पलक तक नहीं झपकी। प्रात:काल अपने बाप के पास जाकर बोले--दादा, अब इस घर में मेरा निबाह न होगा। इस तरह की विद्रोह-पूर्ण बातें कहने पर श्रीकंठ ने कितनी ही बार अपने कई मित्रों को आड़े हाथों लिया था; परन्तु दुर्भाग्य, आज उन्हें स्वयं वे ही बातें अपने मुँह से कहनी पड़ी ! दूसरों को उपदेश देना भी कितना सहज है! बेनीमाधव सिंह घबरा उठे और बोले--क्यों? श्रीकंठ--इसलिए कि मुझे भी अपनी मान--प्रतिष्ठा का कुछ विचार है। आपके घर में अब अन्याय और हठ का प्रकोप हो रहा है। जिनको बड़ों का आदर--सम्मान करना चाहिए, वे उनके सिर चढ़ते हैं। मैं दूसरे का नौकर ठहरा घर पर रहता नहीं। यहॉँ मेरे पीछे स्त्रियों पर खड़ाऊँ और जूतों की बौछारें होती हैं। कड़ी बात तक चिन्ता नहीं। कोई एक की दो कह ले, वहॉँ तक मैं सह सकता हूँ किन्तु यह कदापि नहीं हो सकता कि मेरे ऊपर लात-घूँसे पड़ें और मैं दम न मारुँ। बेनीमाधव सिंह कुछ जवाब न दे सके। श्रीकंठ सदैव उनका आदर करते थे। उनके ऐसे तेवर देखकर बूढ़ा ठाकुर अवाक् रह गया। केवल इतना ही बोला--बेटा, तुम बुद्धिमान होकर ऐसी बातें करते हो? स्त्रियॉं इस तरह घर का नाश कर देती है। उनको बहुत सिर चढ़ाना अच्छा नहीं। श्रीकंठ--इतना मैं जानता हूँ, आपके आशीर्वाद से ऐसा मूर्ख नहीं हूँ। आप स्वयं जानते हैं कि मेरे ही समझाने-बुझाने से, इसी गॉँव में कई घर सँभल गये, पर जिस स्त्री की मान-प्रतिष्ठा का ईश्वर के दरबार में उत्तरदाता हूँ, उसके प्रति ऐसा घोर अन्याय और पशुवत् व्यवहार मुझे असह्य है। आप सच मानिए, मेरे लिए यही कुछ कम नहीं है कि लालबिहारी को कुछ दंड नहीं होता। अब बेनीमाधव सिंह भी गरमाये। ऐसी बातें और न सुन सके। बोले--लालबिहारी तुम्हारा भाई है। उससे जब कभी भूल--चूक हो, उसके कान पकड़ो लेकिन. श्रीकंठ—लालबिहारी को मैं अब अपना भाई नहीं समझता। बेनीमाधव सिंह--स्त्री के पीछे? श्रीकंठ—जी नहीं, उसकी क्रूरता और अविवेक के कारण। दोनों कुछ देर चुप रहे। ठाकुर साहब लड़के का क्रोध शांत करना चाहते थे, लेकिन यह नहीं स्वीकार करना चाहते थे कि लालबिहारी ने कोई अनुचित काम किया है। इसी बीच में गॉँव के और कई सज्जन हुक्के-चिलम के बहाने वहॉँ आ बैठे। कई स्त्रियों ने जब यह सुना कि श्रीकंठ पत्नी के पीछे पिता से लड़ने की तैयार हैं, तो उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। दोनों पक्षों की मधुर वाणियॉँ सुनने के लिए उनकी आत्माऍं तिलमिलाने लगीं। गॉँव में कुछ ऐसे कुटिल मनुष्य भी थे, जो इस कुल की नीतिपूर्ण गति पर मन ही मन जलते थे। वे कहा करते थे—श्रीकंठ अपने बाप से दबता है, इसीलिए वह दब्बू है। उसने विद्या पढ़ी, इसलिए वह किताबों का कीड़ा है। बेनीमाधव सिंह उसकी सलाह के बिना कोई काम नहीं करते, यह उनकी मूर्खता है। इन महानुभावों की शुभकामनाऍं आज पूरी होती दिखायी दीं। कोई हुक्का पीने के बहाने और कोई लगान की रसीद दिखाने आ कर बैठ गया। बेनीमाधव सिंह पुराने आदमी थे। इन भावों को ताड़ गये। उन्होंने निश्चय किया चाहे कुछ ही क्यों न हो, इन द्रोहियों को ताली बजाने का अवसर न दूँगा। तुरंत कोमल शब्दों में बोले--बेटा, मैं तुमसे बाहर नहीं हूँ। तम्हारा जो जी चाहे करो, अब तो लड़के से अपराध हो गया। इलाहाबाद का अनुभव-रहित झल्लाया हुआ ग्रेजुएट इस बात को न समझ सका। उसे डिबेटिंग-क्लब में अपनी बात पर अड़ने की आदत थी, इन हथकंडों की उसे क्या खबर? बाप ने जिस मतलब से बात पलटी थी, वह उसकी समझ में न आया। बोला—लालबिहारी के साथ अब इस घर में नहीं रह सकता। बेनीमाधव—बेटा, बुद्धिमान लोग मूर्खों की बात पर ध्यान नहीं देते। वह बेसमझ लड़का है। उससे जो कुछ भूल हुई, उसे तुम बड़े होकर क्षमा करो। श्रीकंठ—उसकी इस दुष्टता को मैं कदापि नहीं सह सकता। या तो वही घर में रहेगा, या मैं ही। आपको यदि वह अधिक प्यारा है, तो मुझे विदा कीजिए, मैं अपना भार आप सॅंभाल लूँगा। यदि मुझे रखना चाहते हैं तो उससे कहिए, जहॉँ चाहे चला जाय। बस यह मेरा अंतिम निश्चय है। लालबिहारी सिंह दरवाजे की चौखट पर चुपचाप खड़ा बड़े भाई की बातें सुन रहा था। वह उनका बहुत आदर करता था। उसे कभी इतना साहस न हुआ था कि श्रीकंठ के सामने चारपाई पर बैठ जाय, हुक्का पी ले या पान खा ले। बाप का भी वह इतना मान न करता था। श्रीकंठ का भी उस पर हार्दिक स्नेह था। अपने होश में उन्होंने कभी उसे घुड़का तक न था। जब वह इलाहाबाद से आते, तो उसके लिए कोई न कोई वस्तु अवश्य लाते। मुगदर की जोड़ी उन्होंने ही बनवा दी थी। पिछले साल जब उसने अपने से ड्यौढ़े जवान को नागपंचमी के दिन दंगल में पछाड़ दिया, तो उन्होंने पुलकित होकर अखाड़े में ही जा कर उसे गले लगा लिया था, पॉँच रुपये के पैसे लुटाये थे। ऐसे भाई के मुँह से आज ऐसी हृदय-विदारक बात सुनकर लालबिहारी को बड़ी ग्लानि हुई। वह फूट-फूट कर रोने लगा। इसमें संदेह नहीं कि अपने किये पर पछता रहा था। भाई के आने से एक दिन पहले से उसकी छाती धड़कती थी कि देखूँ भैया क्या कहते हैं। मैं उनके सम्मुख कैसे जाऊँगा, उनसे कैसे बोलूँगा, मेरी ऑंखें उनके सामने कैसे उठेगी। उसने समझा था कि भैया मुझे बुलाकर समझा देंगे। इस आशा के विपरीत आज उसने उन्हें निर्दयता की मूर्ति बने हुए पाया। वह मूर्ख था। परंतु उसका मन कहता था कि भैया मेरे साथ अन्याय कर रहे हैं। यदि श्रीकंठ उसे अकेले में बुलाकर दो-चार बातें कह देते; इतना ही नहीं दो-चार तमाचे भी लगा देते तो कदाचित् उसे इतना दु:ख न होता; पर भाई का यह कहना कि अब मैं इसकी सूरत नहीं देखना चाहता, लालबिहारी से सहा न गया ! वह रोता हुआ घर आया। कोठारी में जा कर कपड़े पहने, ऑंखें पोंछी, जिसमें कोई यह न समझे कि रोता था। तब आनंदी के द्वार पर आकर बोला—भाभी, भैया ने निश्चय किया है कि वह मेरे साथ इस घर में न रहेंगे। अब वह मेरा मुँह नहीं देखना चाहते; इसलिए अब मैं जाता हूँ। उन्हें फिर मुँह न दिखाऊँगा ! मुझसे जो कुछ अपराध हुआ, उसे क्षमा करना। यह कहते-कहते लालबिहारी का गला भर आया। ४ जिस समय लालबिहारी सिंह सिर झुकाये आनंदी के द्वार पर खड़ था, उसी समय श्रीकंठ सिंह भी ऑंखें लाल किये बाहर से आये। भाई को खड़ा देखा, तो घृणा से ऑंखें फेर लीं, और कतरा कर निकल गये। मानों उसकी परछाही से दूर भागते हों। आनंदी ने लालबिहारी की शिकायत तो की थी, लेकिन अब मन में पछता रही थी वह स्वभाव से ही दयावती थी। उसे इसका तनिक भी ध्यान न था कि बात इतनी बढ़ जायगी। वह मन में अपने पति पर झुँझला रही थी कि यह इतने गरम क्यों होते हैं। उस पर यह भय भी लगा हुआ था कि कहीं मुझसे इलाहाबाद चलने को कहें, तो कैसे क्या करुँगी। इस बीच में जब उसने लालबिहारी को दरवाजे पर खड़े यह कहते सुना कि अब मैं जाता हूँ, मुझसे जो कुछ अपराध हुआ, क्षमा करना, तो उसका रहा-सहा क्रोध भी पानी हो गया। वह रोने लगी। मन का मैल धोने के लिए नयन-जल से उपयुक्त और कोई वस्तु नहीं है। श्रीकंठ को देखकर आनंदी ने कहा—लाला बाहर खड़े बहुत रो रहे हैं। श्रीकंठ--तो मैं क्या करूँ? आनंदी—भीतर बुला लो। मेरी जीभ में आग लगे ! मैंने कहॉँ से यह झगड़ा उठाया। श्रीकंठ--मैं न बुलाऊँगा। आनंदी--पछताओगे। उन्हें बहुत ग्लानि हो गयी है, ऐसा न हो, कहीं चल दें। श्रीकंठ न उठे। इतने में लालबिहारी ने फिर कहा--भाभी, भैया से मेरा प्रणाम कह दो। वह मेरा मुँह नहीं देखना चाहते; इसलिए मैं भी अपना मुँह उन्हें न दिखाऊँगा। लालबिहारी इतना कह कर लौट पड़ा, और शीघ्रता से दरवाजे की ओर बढ़ा। अंत में आनंदी कमरे से निकली और उसका हाथ पकड़ लिया। लालबिहारी ने पीछे फिर कर देखा और ऑंखों में ऑंसू भरे बोला--मुझे जाने दो। आनंदी कहॉँ जाते हो? लालबिहारी--जहॉँ कोई मेरा मुँह न देखे। आनंदी—मैं न जाने दूँगी? लालबिहारी—मैं तुम लोगों के साथ रहने योग्य नहीं हूँ। आनंदी—तुम्हें मेरी सौगंध अब एक पग भी आगे न बढ़ाना। लालबिहारी—जब तक मुझे यह न मालूम हो जाय कि भैया का मन मेरी तरफ से साफ हो गया, तब तक मैं इस घर में कदापि न रहूँगा। आनंदी—मैं ईश्वर को साक्षी दे कर कहती हूँ कि तुम्हारी ओर से मेरे मन में तनिक भी मैल नहीं है। अब श्रीकंठ का हृदय भी पिघला। उन्होंने बाहर आकर लालबिहारी को गले लगा लिया। दोनों भाई खूब फूट-फूट कर रोये। लालबिहारी ने सिसकते हुए कहा—भैया, अब कभी मत कहना कि तुम्हारा मुँह न देखूँगा। इसके सिवा आप जो दंड देंगे, मैं सहर्ष स्वीकार करूँगा। श्रीकंठ ने कॉँपते हुए स्वर में कहा--लल्लू ! इन बातों को बिल्कुल भूल जाओ। ईश्वर चाहेगा, तो फिर ऐसा अवसर न आवेगा। बेनीमाधव सिंह बाहर से आ रहे थे। दोनों भाइयों को गले मिलते देखकर आनंद से पुलकित हो गये। बोल उठे—बड़े घर की बेटियॉँ ऐसी ही होती हैं। बिगड़ता हुआ काम बना लेती हैं। गॉँव में जिसने यह वृत्तांत सुना, उसी ने इन शब्दों में आनंदी की उदारता को सराहा—‘बड़े घर की बेटियॉँ ऐसी ही होती हैं।‘ ***************