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- ग्रहण (Part 1)
कल से मेरे पैर धरती पर नहीं पड़ रहे हैं। रात उत्तेजना के मारे नींद नहीं आई। इस पल की कितनी प्रतीक्षा थी मुझे। रात जब खाने के बाद ऋतिक मेरे कमरे में आया तो मुझे लगा शायद उसे कुछ चाहिए। मेरे पूछने पर उसने अपनी दोनों बाहें मेरे गले में डाल दीं। ‘‘नहीं माँ, मुझे कुछ बताना था आपको।’’ शर्म से गुलाबी हो आए उसके गोरे मुखड़े को देखकर मेरे चेहरे पर प्यार भरी मुस्कान तैर गई। तो तुझे मेरी बहू मिल गई।’’ ‘‘अगर आप उसे स्वीकारेंगी तो.....।’’ वह सीधे मेरी आंखों में देख रहा था। ‘‘तू जानता है, तेरी खुशी से बढ़कर मेरे लिए और कुछ भी नहीं। कौन है वह खुशनसीब, जिसने मेरे बेटे के दिल की घंटी बजाई है?’’ बेटे के गाल पर प्यार की चपत लगाते हुए मैंने पूछा। ‘‘माँ, प्रिया नाम है उसका। मेरे साथ एमबीए किया है उसने। हम ढाई साल से एक-दूसरे को जानते हैं और पसंद करते हैं। उसको भी अपने शहर में अच्छी नौकरी मिल गई है।’’ ‘‘कब मिलवाओगे?’’ मेरा सीधा प्रश्न था। ‘‘माँ, कल सुबह नाश्ते पर बुला लेता हूँ।’’ ‘‘बुला नहीं लेता हूँ। जाकर ले आना उसे। अब जा सो जा।’’ मेरी आँखें, मेरा स्वर सब खुशी में डूबा हुआ था। रात करवटें बदलते कटी और सुबह चार बजे ही मैंने बिस्तर छोड़ दिया और रसोई में घुस गई। मन करता यह भी बना लूँ, वह भी बना लूँ। सात बजे तक मेरी रसोई तरह-तरह के पकवानों से महकने लगी। ‘‘माँ, क्या-क्या बना लिया आपने? पूरा घर महक रहा है। आप क्या रात भर बनाती रही हैं?’’ आश्चर्य और प्यार दोनों ऋतिक के स्वर में था। ‘‘मेरी बहू पहली बार आ रही है। यह दिन एक बार ही आता है। तुम चाय पियो मैं नहा कर आती हूँ।’’ ऋतिक के जाने के बाद मैंने हल्के गुलाबी रंग की साड़ी पहनी। सच्चे मोती की माला और टॉप्स पहनकर शीशे के सामने खड़ी हुई और अपने कटे हुए बालों में ब्रश करने लगी। आज कितने सालों बाद सिंगार करने का मन हुआ था मेरा। ‘‘माँ-माँ ......’’ ऋतिक के स्वर से मैं चौंक गई। ‘‘माँ, प्रिया आ गई।’’ ऋतिक मेरे सामने खड़ा था। ‘‘अरे, दरवाजा किसने खोला?’’ ‘‘खुला था माँ, शायद आप बंद करना भूल गईं थीं।’’ ‘‘हां यही हुआ होगा।” बैठक में घुसते ही प्रिया से मेरी नजर मिली और हम दोनों ही जड़ हो गए। मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई। लगा जैसे पूरा कमरा घूमने लगा है। खुद को संभालना मुश्किल हो गया। ऋतिक ने सहारा देकर मुझे बैठाया। माँ,...माँ... क्या हुआ आपको?’’ मैं चेतना शून्य होती जा रही थी। बंद होती आँखों से देखा ऋतिक और प्रिया दोनों मेरे ऊपर झुके हुए थे, और मुझे पुकार रहे थे। मुझे उनकी आवाजें दूर से आती प्रतीत हो रही थीं। जब होश आया तो देखा मैं अपने पलंग पर लेटी हुई थी। ऋतिक और प्रिया के साथ साथ डॉ. रजत भी मेरे कमरे में बैठे हुए थे। ‘‘माँ, क्या हुआ आपको?’’ परेशान ऋतिक की आँखें डबडबाई हुई थीं। मेरा हाथ उसके हाथ में था। ‘‘बेटा, मैं ठीक हूँ।” ‘‘डॉक्टर रागिनी, आप दोस्त को तो डॉक्टर मानती ही नहीं हैं। मैंने कितनी बार आपसे कहा थोड़ा अपनी सेहत का ध्यान रखिए। पर......‘‘डाक्टर रजत फिर से उठकर डाक्टर रागनी का ब्लडप्रेशर नापने लगे। ‘‘मम्मी की तबीयत खराब चल रही थी? पर अंकल मम्मी ने तो कुछ भी नहीं बताया कभी। क्या हुआ है उन्हें?’’ ऋतिक परेशान हो उठा। ‘कुछ नहीं बेटा, तेरे रजत अंकल ऐसे ही बोलते रहते हैं।’ मैंने बेटे का हाथ स्नेह से दबाया। ‘‘कोई यूं ही बेहोश नहीं हो जाता मम्मी। अंकल आप बताइए ना?’’ ऋतिक बहुत परेशान था और इस परेशानी में प्रिया को भी भूल गया था। जो मेरे पैरों के पास चुपचाप बैठी हुई थी और मुश्किल से अपने आंसुओं को संभाले थी। ‘‘इतना परेशान होने वाली भी बात नहीं है ऋतिक। तुम्हारी मम्मी को थोड़ा आराम करने की जरूरत है। बहुत थका देती हैं खुद को। वैसे पूरा चेकअप करा लेना हमेशा अच्छा होता है। मैंने कुछ टेस्ट लिख दिए हैं। करा लेना। इतना ब्लड प्रेशर बढ़ना ठीक बात नहीं है।’’ ऋतिक की पीठ थपथपा कर रजत बोले। ‘‘जी अंकल।” ‘‘अच्छा अब सब कंट्रोल में है। मां को आराम कराओ। परेशान मत हो। मैं चलता हूँ। वैसे अब जरूरत नहीं पड़ेगी पर मैं एक फोन कॉल की ही दूरी पर हूँ।’’ उठते हुए डॉ. रजत बोले। ‘‘अरे , अंकल चाय......।’’ ‘‘मम्मी को ठीक होने दो, फिर साथ में पीते हैं।” ‘‘प्रिया, मम्मी का ध्यान रखना। मैं अंकल को छोड़ कर आता हूँ।’’ कहते हुए ऋतिक कमरे के बाहर चला गया। ‘‘सॉरी आंटी, मुझे बिल्कुल नहीं पता था कि ऋतिक आपका बेटा है।’’ उसकी आँख अब बरसने लगी थी। “प्रिया, मेरे पास आओ।’’ मैंने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया, ‘‘आंटी, नहीं प्रिया, माँ बोलो।’’ वह फफक-फफक कर रोने लगी और अपना सिर मेरे सीने पर रख दिया। स्नेह से मैं उसके सिर पर हाथ फेरने लगी। अतीत मुझ पर हावी होता जा रहा था। क्रमशः………….. *********************
