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  • आत्माराम

    वेदों-ग्राम में महादेव सोनार एक सुविख्यात आदमी था। वह अपने सायबान में प्रात: से संध्या तक अँगीठी के सामने बैठा हुआ खटखट किया करता था। यह लगातार ध्वनि सुनने के लोग इतने अभ्यस्त हो गये थे कि जब किसी कारण से वह बंद हो जाती, तो जान पड़ता था, कोई चीज गायब हो गयी। वह नित्य-प्रति एक बार प्रात:काल अपने तोते का पिंजड़ा लिए कोई भजन गाता हुआ तालाब की ओर जाता था। उस धँधले प्रकाश में उसका जर्जर शरीर, पोपला मुँह और झुकी हुई कमर देखकर किसी अपरिचित मनुष्य को उसके पिशाच होने का भ्रम हो सकता था। ज्यों ही लोगों के कानों में आवाज आती—‘सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता,’ लोग समझ जाते कि भोर हो गयी। महादेव का पारिवारिक जीवन सूखमय न था। उसके तीन पुत्र थे, तीन बहुऍं थीं, दर्जनों नाती-पाते थे, लेकिन उसके बोझ को हल्का करने-वाला कोई न था। लड़के कहते—‘तब तक दादा जीते हैं, हम जीवन का आनंद भोग ले, फिर तो यह ढोल गले पड़ेगी ही।’ बेचारे महादेव को कभी-कभी निराहार ही रहना पड़ता। भोजन के समय उसके घर में साम्यवाद का ऐसा गगनभेदी निर्घोष होता कि वह भूखा ही उठ आता, और नारियल का हुक्का पीता हुआ सो जाता। उनका व्यापसायिक जीवन और भी आशांतिकारक था। यद्यपि वह अपने काम में निपुण था, उसकी खटाई औरों से कहीं ज्यादा शुद्धिकारक और उसकी रासयनिक क्रियाऍं कहीं ज्यादा कष्टसाध्य थीं, तथापि उसे आये दिन शक्की और धैर्य-शून्य प्राणियों के अपशब्द सुनने पड़ते थे, पर महादेव अविचिलित गाम्भीर्य से सिर झुकाये सब कुछ सुना करता था। ज्यों ही यह कलह शांत होता, वह अपने तोते की ओर देखकर पुकार उठता—‘सत्त गुरुदत्त शिवदत्तदाता।’ इस मंत्र को जपते ही उसके चित्त को पूर्ण शांति प्राप्त हो जाती थी। २ एक दिन संयोगवश किसी लड़के ने पिंजड़े का द्वार खोल दिया। तोता उड़ गया। महादेव ने सिह उठाकर जो पिंजड़े की ओर देखा, तो उसका कलेजा सन्न-से हो गया। तोता कहॉँ गया। उसने फिर पिंजड़े को देखा, तोता गायब था। महादेव घबड़ा कर उठा और इधर-उधर खपरैलों पर निगाह दौड़ाने लगा। उसे संसार में कोई वस्तु अगर प्यारी थी, तो वह यही तोता। लड़के-बालों, नाती-पोतों से उसका जी भर गया था। लड़को की चुलबुल से उसके काम में विघ्न पड़ता था। बेटों से उसे प्रेम न था; इसलिए नहीं कि वे निकम्मे थे; बल्कि इसलिए कि उनके कारण वह अपने आनंददायी कुल्हड़ों की नियमित संख्या से वंचित रह जाता था। पड़ोसियों से उसे चिढ़ थी, इसलिए कि वे अँगीठी से आग निकाल ले जाते थे। इन समस्त विघ्न-बाधाओं से उसके लिए कोई पनाह थी, तो यही तोता था। इससे उसे किसी प्रकार का कष्ट न होता था। वह अब उस अवस्था में था जब मनुष्य को शांति भोग के सिवा और कोई इच्छा नहीं रहती। तोता एक खपरैल पर बैठा था। महादेव ने पिंजरा उतार लिया और उसे दिखाकर कहने लगा—‘आ आ’ सत्त गुरुदत्त शिवदाता।’ लेकिन गॉँव और घर के लड़के एकत्र हो कर चिल्लाने और तालियॉँ बजाने लगे। ऊपर से कौओं ने कॉँव-कॉँव की रट लगायी? तोता उड़ा और गॉँव से बाहर निकल कर एक पेड़ पर जा बैठा। महादेव खाली पिंजडा लिये उसके पीछे दौड़ा, सो दौड़ा। लोगो को उसकी द्रुतिगामिता पर अचम्भा हो रहा था। मोह की इससे सुन्दर, इससे सजीव, इससे भावमय कल्पना नहीं की जा सकती। दोपहर हो गयी थी। किसान लोग खेतों से चले आ रहे थे। उन्हें विनोद का अच्छा अवसर मिला। महादेव को चिढ़ाने में सभी को मजा आता था। किसी ने कंकड़ फेंके, किसी ने तालियॉँ बजायीं। तोता फिर उड़ा और वहाँ से दूर आम के बाग में एक पेड़ की फुनगी पर जा बैठा । महादेव फिर खाली पिंजड़ा लिये मेंढक की भॉँति उचकता चला। बाग में पहुँचा तो पैर के तलुओं से आग निकल रही थी, सिर चक्कर खा रहा था। जब जरा सावधान हुआ, तो फिर पिंजड़ा उठा कर कहने लगे—‘सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता’ तोता फुनगी से उतर कर नीचे की एक डाल पी आ बैठा, किन्तु महादेव की ओर सशंक नेत्रों से ताक रहा था। महादेव ने समझा, डर रहा है। वह पिंजड़े को छोड़ कर आप एक दूसरे पेड़ की आड़ में छिप गया। तोते ने चारों ओर गौर से देखा, निश्शंक हो गया, अतरा और आ कर पिंजड़े के ऊपर बैठ गया। महादेव का हृदय उछलने लगा। ‘सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता’ का मंत्र जपता हुआ धीरे-धीरे तोते के समीप आया और लपका कि तोते को पकड़ लें, किन्तु तोता हाथ न आया, फिर पेड़ पर आ बैठा। शाम तक यही हाल रहा। तोता कभी इस डाल पर जाता, कभी उस डाल पर। कभी पिंजड़े पर आ बैठता, कभी पिंजड़े के द्वार पर बैठे अपने दाना-पानी की प्यालियों को देखता, और फिर उड़ जाता। बुड्ढा अगर मूर्तिमान मोह था, तो तोता मूर्तिमयी माया। यहॉँ तक कि शाम हो गयी। माया और मोह का यह संग्राम अंधकार में विलीन हो गया। ३ रात हो गयी ! चारों ओर निबिड़ अंधकार छा गया। तोता न जाने पत्तों में कहॉँ छिपा बैठा था। महादेव जानता था कि रात को तोता कही उड़कर नहीं जा सकता, और न पिंजड़े ही में आ सकता हैं, फिर भी वह उस जगह से हिलने का नाम न लेता था। आज उसने दिन भर कुछ नहीं खाया। रात के भोजन का समय भी निकल गया, पानी की बूँद भी उसके कंठ में न गयी, लेकिन उसे न भूख थी, न प्यास ! तोते के बिना उसे अपना जीवन निस्सार, शुष्क और सूना जान पड़ता था। वह दिन-रात काम करता था; इसलिए कि यह उसकी अंत:प्रेरणा थी; जीवन के और काम इसलिए करता था कि आदत थी। इन कामों मे उसे अपनी सजीवता का लेश-मात्र भी ज्ञान न होता था। तोता ही वह वस्तु था, जो उसे चेतना की याद दिलाता था। उसका हाथ से जाना जीव का देह-त्याग करना था। महादेव दिन-भर का भूख-प्यासा, थका-मॉँदा, रह-रह कर झपकियॉँ ले लेता था; किन्तु एक क्षण में फिर चौंक कर ऑंखे खोल देता और उस विस्तृत अंधकार में उसकी आवाज सुनायी देती—‘सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता।’ आधी रात गुजर गयी थी। सहसा वह कोई आहट पा कर चौका। देखा, एक दूसरे वृक्ष के नीचे एक धुँधला दीपक जल रहा है, और कई आदमी बैंठे हुए आपस में कुछ बातें कर रहे हैं। वे सब चिलम पी रहे थे। तमाखू की महक ने उसे अधीर कर दिया। उच्च स्वर से बोला—‘सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता’ और उन आदमियों की ओर चिलम पीने चला गया; किन्तु जिस प्रकार बंदूक की आवाज सुनते ही हिरन भाग जाते हैं उसी प्रकार उसे आते देख सब-के-सब उठ कर भागे। कोई इधर गया, कोई उधर। महादेव चिल्लाने लगा—‘ठहरो-ठहरो !’ एकाएक उसे ध्यान आ गया, ये सब चोर हैं। वह जारे से चिल्ला उठा—‘चोर-चोर, पकड़ो-पकड़ो !’ चोरों ने पीछे फिर कर न देखा। महादेव दीपक के पास गया, तो उसे एक मलसा रखा हुआ मिला जो मोर्चे से काला हो रहा था। महादेव का हृदय उछलने लगा। उसने कलसे मे हाथ डाला, तो मोहरें थीं। उसने एक मोहरे बाहर निकाली और दीपक के उजाले में देखा। हॉँ मोहर थी। उसने तुरंत कलसा उठा लिया, और दीपक बुझा दिया और पेड़ के नीचे छिप कर बैठ रहा। साह से चोर बन गया। उसे फिर शंका हुई, ऐसा न हो, चोर लौट आवें, और मुझे अकेला देख कर मोहरें छीन लें। उसने कुछ मोहर कमर में बॉँधी, फिर एक सूखी लकड़ी से जमीन की की मिटटी हटा कर कई गड्ढे बनाये, उन्हें माहरों से भर कर मिटटी से ढँक दिया। ४ महादेव के अतर्नेत्रों के सामने अब एक दूसरा जगत् था, चिंताओं और कल्पना से परिपूर्ण। यद्यपि अभी कोष के हाथ से निकल जाने का भय था; पर अभिलाषाओं ने अपना काम शुरु कर दिया। एक पक्का मकान बन गया, सराफे की एक भारी दूकान खुल गयी, निज सम्बन्धियों से फिर नाता जुड़ गया, विलास की सामग्रियॉँ एकत्रित हो गयीं। तब तीर्थ-यात्रा करने चले, और वहॉँ से लौट कर बड़े समारोह से यज्ञ, ब्रह्मभोज हुआ। इसके पश्चात एक शिवालय और कुऑं बन गया, एक बाग भी लग गया और वह नित्यप्रति कथा-पुराण सुनने लगा। साधु-सन्तों का आदर-सत्कार होने लगा। अकस्मात उसे ध्यान आया, कहीं चोर आ जायँ , तो मैं भागूँगा क्यों-कर? उसने परीक्षा करने के लिए कलसा उठाया। और दो सौ पग तक बेतहाशा भागा हुआ चला गया। जान पड़ता था, उसके पैरो में पर लग गये हैं। चिंता शांत हो गयी। इन्हीं कल्पनाओं में रात व्यतीत हो गयी। उषा का आगमन हुआ, हवा जागी, चिड़ियॉँ गाने लगीं। सहसा महादेव के कानों में आवाज आयी— ‘सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता, राम के चरण में चित्त लगा।’ यह बोल सदैव महादेव की जिह्वा पर रहता था। दिन में सहस्रों ही बार ये शब्द उसके मुँह से निकलते थे, पर उनका धार्मिक भाव कभी भी उसके अन्त:कारण को स्पर्श न करता था। जैसे किसी बाजे से राग निकलता हैं, उसी प्रकार उसके मुँह से यह बोल निकलता था। निरर्थक और प्रभाव-शून्य। तब उसका हृदय-रुपी वृक्ष पत्र-पल्लव विहीन था। यह निर्मल वायु उसे गुंजरित न कर सकती थी; पर अब उस वृक्ष में कोपलें और शाखाऍं निकल आयी थीं। इन वायु-प्रवाह से झूम उठा, गुंजित हो गया। अरुणोदय का समय था। प्रकृति एक अनुरागमय प्रकाश में डूबी हुई थी। उसी समय तोता पैरों को जोड़े हुए ऊँची डाल से उतरा, जैसे आकाश से कोई तारा टूटे और आ कर पिंजड़े में बैठ गया। महादेव प्रफुल्लित हो कर दौड़ा और पिंजड़े को उठा कर बोला—आओ आत्माराम तुमने कष्ट तो बहुत दिया, पर मेरा जीवन भी सफल कर दिया। अब तुम्हें चॉँदी के पिंजड़े में रखूंगा और सोने से मढ़ दूँगा।’ उसके रोम-रोम के परमात्मा के गुणानुवाद की ध्वनि निकलने लगी। प्रभु तुम कितने दयावान् हो ! यह तुम्हारा असीम वात्सल्य है, नहीं तो मुझ पापी, पतित प्राणी कब इस कृपा के योग्य था ! इस पवित्र भावों से आत्मा विन्हल हो गयी ! वह अनुरक्त हो कर कह उठा— ‘सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता, राम के चरण में चित्त लागा।’ उसने एक हाथ में पिंजड़ा लटकाया, बगल में कलसा दबाया और घर चला। ५ महादेव घर पहुँचा, तो अभी कुछ अँधेरा था। रास्ते में एक कुत्ते के सिवा और किसी से भेंट न हुई, और कुत्ते को मोहरों से विशेष प्रेम नहीं होता। उसने कलसे को एक नाद में छिपा दिया, और कोयले से अच्छी तरह ढँक कर अपनी कोठरी में रख आया। जब दिन निकल आया तो वह सीधे पुराहित के घर पहुँचा। पुरोहित पूजा पर बैठे सोच रहे थे—कल ही मुकदमें की पेशी हैं और अभी तक हाथ में कौड़ी भी नहीं—यजमानो में कोई सॉँस भी लेता। इतने में महादेव ने पालागन की। पंड़ित जी ने मुँह फेर लिया। यह अमंगलमूर्ति कहॉँ से आ पहुँची, मालमू नहीं, दाना भी मयस्सर होगा या नहीं। रुष्ट हो कर पूछा—क्या है जी, क्या कहते हो। जानते नहीं, हम इस समय पूजा पर रहते हैं। महादेव ने कहा—महाराज, आज मेरे यहॉँ सत्यनाराण की कथा है। पुरोहित जी विस्मित हो गये। कानों पर विश्वास न हुआ। महादेव के घर कथा का होना उतनी ही असाधारण घटना थी, जितनी अपने घर से किसी भिखारी के लिए भीख निकालना। पूछा—आज क्या है? महादेव बोला—कुछ नहीं, ऐसा इच्छा हुई कि आज भगवान की कथा सुन लूँ। प्रभात ही से तैयारी होने लगी। वेदों के निकटवर्ती गॉँवो में सूपारी फिरी। कथा के उपरांत भोज का भी नेवता था। जो सुनता आश्चर्य करता आज रेत में दूब कैसे जमी। संध्या समय जब सब लोग जमा हो, और पंडित जी अपने सिंहासन पर विराजमान हुए, तो महादेव खड़ा होकर उच्च स्वर में बोला—भाइयों मेरी सारी उम्र छल-कपट में कट गयी। मैंने न जाने कितने आदमियों को दगा दी, कितने खरे को खोटा किया; पर अब भगवान ने मुझ पर दया की है, वह मेरे मुँह की कालिख को मिटाना चाहते हैं। मैं आप सब भाइयों से ललकार कर कहता हूँ कि जिसका मेरे जिम्मे जो कुछ निकलता हो, जिसकी जमा मैंने मार ली हो, जिसके चोखे माल का खोटा कर दिया हो, वह आकर अपनी एक-एक कौड़ी चुका ले, अगर कोई यहॉँ न आ सका हो, तो आप लोग उससे जाकर कह दीजिए, कल से एक महीने तक, जब जी चाहे, आये और अपना हिसाब चुकता कर ले। गवाही-साखी का काम नहीं। सब लोग सन्नाटे में आ गये। कोई मार्मिक भाव से सिर हिला कर बोला—हम कहते न थे। किसी ने अविश्वास से कहा—क्या खा कर भरेगा, हजारों को टोटल हो जायगा। एक ठाकुर ने ठठोली की—और जो लोग सुरधाम चले गये। महादेव ने उत्तर दिया—उसके घर वाले तो होंगे। किन्तु इस समय लोगों को वसूली की इतनी इच्छा न थी, जितनी यह जानने की कि इसे इतना धन मिल कहॉँ से गया। किसी को महादेव के पास आने का साहस न हुआ। देहात के आदमी थे, गड़े मुर्दे उखाड़ना क्या जानें। फिर प्राय: लोगों को याद भी न था कि उन्हें महादेव से क्या पाना हैं, और ऐसे पवित्र अवसर पर भूल-चूक हो जाने का भय उनका मुँह बन्द किये हुए था। सबसे बड़ी बात यह थी कि महादेव की साधुता ने उन्हीं वशीभूत कर लिया था। अचानक पुरोहित जी बोले—तुम्हें याद हैं, मैंने एक कंठा बनाने के लिए सोना दिया था, तुमने कई माशे तौल में उड़ा दिये थे। महादेव—हॉँ, याद हैं, आपका कितना नुकसान हुआ होग। पुरोहित—पचास रुपये से कम न होगा। महादेव ने कमर से दो मोहरें निकालीं और पुरोहित जी के सामने रख दीं। पुरोहितजी की लोलुपता पर टीकाऍं होने लगीं। यह बेईमानी हैं, बहुत हो, तो दो-चार रुपये का नुकसान हुआ होगा। बेचारे से पचास रुपये ऐंठ लिए। नारायण का भी डर नहीं। बनने को पंड़ित, पर नियत ऐसी खराब राम-राम ! लोगों को महादेव पर एक श्रद्धा-सी हो गई। एक घंटा बीत गया पर उन सहस्रों मनुष्यों में से एक भी खड़ा न हुआ। तब महादेव ने फिर कहॉँ—मालूम होता है, आप लोग अपना-अपना हिसाब भूल गये हैं, इसलिए आज कथा होने दीजिए। मैं एक महीने तक आपकी राह देखूँगा। इसके पीछे तीर्थ यात्रा करने चला जाऊँगा। आप सब भाइयों से मेरी विनती है कि आप मेरा उद्धार करें। एक महीने तक महादेव लेनदारों की राह देखता रहा। रात को चोंरो के भय से नींद न आती। अब वह कोई काम न करता। शराब का चसका भी छूटा। साधु-अभ्यागत जो द्वार पर आ जाते, उनका यथायोग्य सत्कार करता। दूर-दूर उसका सुयश फैल गया। यहॉँ तक कि महीना पूरा हो गया और एक आदमी भी हिसाब लेने न आया। अब महादेव को ज्ञान हुआ कि संसार में कितना धर्म, कितना सद्व्यवहार हैं। अब उसे मालूम हुआ कि संसार बुरों के लिए बुरा हैं और अच्छे के लिए अच्छा। ६ इस घटना को हुए पचास वर्ष बीत चुके हैं। आप वेदों जाइये, तो दूर ही से एक सुनहला कलस दिखायी देता है। वह ठाकुरद्वारे का कलस है। उससे मिला हुआ एक पक्का तालाब हैं, जिसमें खूब कमल खिले रहते हैं। उसकी मछलियॉँ कोई नहीं पकड़ता; तालाब के किनारे एक विशाल समाधि है। यही आत्माराम का स्मृति-चिन्ह है, उसके सम्बन्ध में विभिन्न किंवदंतियॉँ प्रचलित है। कोई कहता हैं, वह रत्नजटित पिंजड़ा स्वर्ग को चला गया, कोई कहता, वह ‘सत्त गुरुदत्त’ कहता हुआ अंतर्ध्यान हो गया, पर यर्थाथ यह हैं कि उस पक्षी-रुपी चंद्र को किसी बिल्ली-रुपी राहु ने ग्रस लिया। लोग कहते हैं, आधी रात को अभी तक तालाब के किनारे आवाज आती है— ‘सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता, राम के चरण में चित्त लागा।’ महादेव के विषय में भी कितनी ही जन-श्रुतियॉँ है। उनमें सबसे मान्य यह है कि आत्माराम के समाधिस्थ होने के बाद वह कई संन्यासियों के साथ हिमालय चला गया, और वहॉँ से लौट कर न आया। उसका नाम आत्माराम प्रसिद्ध हो गया। *************

  • पंच परमेश्वर

    जुम्मन शेख अलगू चौधरी में गाढ़ी मित्रता थी। साझे में खेती होती थी। कुछ लेन-देन में भी साझा था। एक को दूसरे पर अटल विश्वास था। जुम्मन जब हज करने गये थे, तब अपना घर अलगू को सौंप गये थे, और अलगू जब कभी बाहर जाते, तो जुम्मन पर अपना घर छोड़ देते थे। उनमें न खाना-पाना का व्यवहार था, न धर्म का नाता; केवल विचार मिलते थे। मित्रता का मूलमंत्र भी यही है। इस मित्रता का जन्म उसी समय हुआ, जब दोनों मित्र बालक ही थे, और जुम्मन के पूज्य पिता, जुमराती, उन्हें शिक्षा प्रदान करते थे। अलगू ने गुरू जी की बहुत सेवा की थी, खूब प्याले धोये। उनका हुक्का एक क्षण के लिए भी विश्राम न लेने पाता था, क्योंकि प्रत्येक चिलम अलगू को आध घंटे तक किताबों से अलग कर देती थी। अलगू के पिता पुराने विचारों के मनुष्य थे। उन्हें शिक्षा की अपेक्षा गुरु की सेवा-शुश्रूषा पर अधिक विश्वास था। वह कहते थे कि विद्या पढ़ने ने नहीं आती; जो कुछ होता है, गुरु के आशीर्वाद से। बस, गुरु जी की कृपा-दृष्टि चाहिए। अतएव यदि अलगू पर जुमराती शेख के आशीर्वाद अथवा सत्संग का कुछ फल न हुआ, तो यह मानकर संतोष कर लेना कि विद्योपार्जन में मैंने यथाशक्ति कोई बात उठा नहीं रखी, विद्या उसके भाग्य ही में न थी, तो कैसे आती? मगर जुमराती शेख स्वयं आशीर्वाद के कायल न थे। उन्हें अपने सोटे पर अधिक भरोसा था, और उसी सोटे के प्रताप से आज-पास के गॉँवों में जुम्मन की पूजा होती थी। उनके लिखे हुए रेहननामे या बैनामे पर कचहरी का मुहर्रिर भी कदम न उठा सकता था। हल्के का डाकिया, कांस्टेबिल और तहसील का चपरासी--सब उनकी कृपा की आकांक्षा रखते थे। अतएव अलगू का मान उनके धन के कारण था, तो जुम्मन शेख अपनी अनमोल विद्या से ही सबके आदरपात्र बने थे। २ जुम्मन शेख की एक बूढ़ी खाला (मौसी) थी। उसके पास कुछ थोड़ी-सी मिलकियत थी; परन्तु उसके निकट संबंधियों में कोई न था। जुम्मन ने लम्बे-चौड़े वादे करके वह मिलकियत अपने नाम लिखवा ली थी। जब तक दानपत्र की रजिस्ट्री न हुई थी, तब तक खालाजान का खूब आदर-सत्कार किया गया; उन्हें खूब स्वादिष्ट पदार्थ खिलाये गये। हलवे-पुलाव की वर्षा- सी की गयी; पर रजिस्ट्री की मोहर ने इन खातिरदारियों पर भी मानों मुहर लगा दी। जुम्मन की पत्नी करीमन रोटियों के साथ कड़वी बातों के कुछ तेज, तीखे सालन भी देने लगी। जुम्मन शेख भी निठुर हो गये। अब बेचारी खालाजान को प्राय: नित्य ही ऐसी बातें सुननी पड़ती थी। बुढ़िया न जाने कब तक जियेगी। दो-तीन बीघे ऊसर क्या दे दिया, मानों मोल ले लिया है ! बघारी दाल के बिना रोटियॉँ नहीं उतरतीं ! जितना रुपया इसके पेट में झोंक चुके, उतने से तो अब तक गॉँव मोल ले लेते। कुछ दिन खालाजान ने सुना और सहा; पर जब न सहा गया तब जुम्मन से शिकायत की। तुम्मन ने स्थानीय कर्मचारी—गृहस्वांमी—के प्रबंध देना उचित न समझा। कुछ दिन तक दिन तक और यों ही रो-धोकर काम चलता रहा। अन्त में एक दिन खाला ने जुम्मन से कहा—बेटा ! तुम्हारे साथ मेरा निर्वाह न होगा। तुम मुझे रुपये दे दिया करो, मैं अपना पका-खा लूँगी। जुम्मन ने घृष्टता के साथ उत्तर दिया—रुपये क्या यहाँ फलते हैं? खाला ने नम्रता से कहा—मुझे कुछ रूखा-सूखा चाहिए भी कि नहीं? जुम्मन ने गम्भीर स्वर से जवाब़ दिया—तो कोई यह थोड़े ही समझा था कि तु मौत से लड़कर आयी हो? खाला बिगड़ गयीं, उन्होंने पंचायत करने की धमकी दी। जुम्मन हँसे, जिस तरह कोई शिकारी हिरन को जाली की तरफ जाते देख कर मन ही मन हँसता है। वह बोले—हॉँ, जरूर पंचायत करो। फैसला हो जाय। मुझे भी यह रात-दिन की खटखट पसंद नहीं। पंचायत में किसकी जीत होगी, इस विषय में जुम्मन को कुछ भी संदेह न थ। आस-पास के गॉँवों में ऐसा कौन था, उसके अनुग्रहों का ऋणी न हो; ऐसा कौन था, जो उसको शत्रु बनाने का साहस कर सके? किसमें इतना बल था, जो उसका सामना कर सके? आसमान के फरिश्ते तो पंचायत करने आवेंगे ही नहीं। ३ इसके बाद कई दिन तक बूढ़ी खाला हाथ में एक लकड़ी लिये आस-पास के गॉँवों में दौड़ती रहीं। कमर झुक कर कमान हो गयी थी। एक-एक पग चलना दूभर था; मगर बात आ पड़ी थी। उसका निर्णय करना जरूरी था। बिरला ही कोई भला आदमी होगा, जिसके समाने बुढ़िया ने दु:ख के ऑंसू न बहाये हों। किसी ने तो यों ही ऊपरी मन से हूँ-हॉँ करके टाल दिया, और किसी ने इस अन्याय पर जमाने को गालियाँ दीं। कहा—कब्र में पॉँव जटके हुए हैं, आज मरे, कल दूसरा दिन, पर हवस नहीं मानती। अब तुम्हें क्या चाहिए? रोटी खाओ और अल्लाह का नाम लो। तुम्हें अब खेती-बारी से क्या काम है? कुछ ऐसे सज्जन भी थे, जिन्हें हास्य-रस के रसास्वादन का अच्छा अवसर मिला। झुकी हुई कमर, पोपला मुँह, सन के-से बाल इतनी सामग्री एकत्र हों, तब हँसी क्यों न आवे? ऐसे न्यायप्रिय, दयालु, दीन-वत्सल पुरुष बहुत कम थे, जिन्होंने इस अबला के दुखड़े को गौर से सुना हो और उसको सांत्वना दी हो। चारों ओर से घूम-घाम कर बेचारी अलगू चौधरी के पास आयी। लाठी पटक दी और दम लेकर बोली—बेटा, तुम भी दम भर के लिये मेरी पंचायत में चले आना। अलगू—मुझे बुला कर क्या करोगी? कई गॉँव के आदमी तो आवेंगे ही। खाला—अपनी विपद तो सबके आगे रो आयी। अब आनरे न आने का अख्तियार उनको है। अलगू—यों आने को आ जाऊँगा; मगर पंचायत में मुँह न खोलूँगा। खाला—क्यों बेटा? अलगू—अब इसका कया जवाब दूँ? अपनी खुशी। जुम्मन मेरा पुराना मित्र है। उससे बिगाड़ नहीं कर सकता। खाला—बेटा, क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे? हमारे सोये हुए धर्म-ज्ञान की सारी सम्पत्ति लुट जाय, तो उसे खबर नहीं होता, परन्तु ललकार सुनकर वह सचेत हो जाता है। फिर उसे कोई जीत नहीं सकता। अलगू इस सवाल का काई उत्तर न दे सका, पर उसके हृदय में ये शब्द गूँज रहे थे- क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे? ४ संध्या समय एक पेड़ के नीचे पंचायत बैठी। शेख जुम्मन ने पहले से ही फर्श बिछा रखा था। उन्होंने पान, इलायची, हुक्के-तम्बाकू आदि का प्रबन्ध भी किया था। हॉँ, वह स्वय अलबत्ता अलगू चौधरी के साथ जरा दूर पर बैठेजब पंचायत में कोई आ जाता था, तब दवे हुए सलाम से उसका स्वागत करते थे। जब सूर्य अस्त हो गया और चिड़ियों की कलरवयुक्त पंचायत पेड़ों पर बैठी, तब यहॉँ भी पंचायत शुरू हुई। फर्श की एक-एक अंगुल जमीन भर गयी; पर अधिकांश दर्शक ही थे। निमंत्रित महाशयों में से केवल वे ही लोग पधारे थे, जिन्हें जुम्मन से अपनी कुछ कसर निकालनी थी। एक कोने में आग सुलग रही थी। नाई ताबड़तोड़ चिलम भर रहा था। यह निर्णय करना असम्भव था कि सुलगते हुए उपलों से अधिक धुऑं निकलता था या चिलम के दमों से। लड़के इधर-उधर दौड़ रहे थे। कोई आपस में गाली-गलौज करते और कोई रोते थे। चारों तरफ कोलाहल मच रहा था। गॉँव के कुत्ते इस जमाव को भोज समझकर झुंड के झुंड जमा हो गए थे। पंच लोग बैठ गये, तो बूढ़ी खाला ने उनसे विनती की-- ‘पंचों, आज तीन साल हुए, मैंने अपनी सारी जायदाद अपने भानजे जुम्मन के नाम लिख दी थी। इसे आप लोग जानते ही होंगे। जुम्मन ने मुझे ता-हयात रोटी-कपड़ा देना कबूल किया। साल-भर तो मैंने इसके साथ रो-धोकर काटा। पर अब रात-दिन का रोना नहीं सहा जाता। मुझे न पेट की रोटी मिलती है न तन का कपड़ा। बेकस बेवा हूँ। कचहरी दरबार नहीं कर सकती। तुम्हारे सिवा और किसको अपना दु:ख सुनाऊँ? तुम लोग जो राह निकाल दो, उसी राह पर चलूँ। अगर मुझमें कोई ऐब देखो, तो मेरे मुँह पर थप्पड़ मारी। जुम्मन में बुराई देखो, तो उसे समझाओं, क्यों एक बेकस की आह लेता है ! मैं पंचों का हुक्म सिर-माथे पर चढ़ाऊँगी।’ रामधन मिश्र, जिनके कई असामियों को जुम्मन ने अपने गांव में बसा लिया था, बोले—जुम्मन मियां किसे पंच बदते हो? अभी से इसका निपटारा कर लो। फिर जो कुछ पंच कहेंगे, वही मानना पड़ेगा। जुम्मन को इस समय सदस्यों में विशेषकर वे ही लोग दीख पड़े, जिनसे किसी न किसी कारण उनका वैमनस्य था। जुम्मन बोले—पंचों का हुक्म अल्लाह का हुक्म है। खालाजान जिसे चाहें, उसे बदें। मुझे कोई उज्र नहीं। खाला ने चिल्लाकर कहा--अरे अल्लाह के बन्दे ! पंचों का नाम क्यों नहीं बता देता? कुछ मुझे भी तो मालूम हो। जुम्मन ने क्रोध से कहा--इस वक्त मेरा मुँह न खुलवाओ। तुम्हारी बन पड़ी है, जिसे चाहो, पंच बदो। खालाजान जुम्मन के आक्षेप को समझ गयीं, वह बोली--बेटा, खुदा से डरो। पंच न किसी के दोस्त होते हैं, ने किसी के दुश्मन। कैसी बात कहते हो! और तुम्हारा किसी पर विश्वास न हो, तो जाने दो; अलगू चौधरी को तो मानते हो, लो, मैं उन्हीं को सरपंच बदती हूँ। जुम्मन शेख आनंद से फूल उठे, परन्तु भावों को छिपा कर बोले--अलगू ही सही, मेरे लिए जैसे रामधन वैसे अलगू। अलगू इस झमेले में फँसना नहीं चाहते थे। वे कन्नी काटने लगे। बोले--खाला, तुम जानती हो कि मेरी जुम्मन से गाढ़ी दोस्ती है। खाला ने गम्भीर स्वर में कहा--‘बेटा, दोस्ती के लिए कोई अपना ईमान नहीं बेचता। पंच के दिल में खुदा बसता है। पंचों के मुँह से जो बात निकलती है, वह खुदा की तरफ से निकलती है।’ अलगू चौधरी सरपंच हुएं रामधन मिश्र और जुम्मन के दूसरे विरोधियों ने बुढ़िया को मन में बहुत कोसा। अलगू चौधरी बोले--शेख जुम्मन ! हम और तुम पुराने दोस्त हैं ! जब काम पड़ा, तुमने हमारी मदद की है और हम भी जो कुछ बन पड़ा, तुम्हारी सेवा करते रहे हैं; मगर इस समय तुम और बुढ़ी खाला, दोनों हमारी निगाह में बराबर हो। तुमको पंचों से जो कुछ अर्ज करनी हो, करो। जुम्मन को पूरा विश्वास था कि अब बाजी मेरी है। अलग यह सब दिखावे की बातें कर रहा है। अतएव शांत-चित्त हो कर बोले--पंचों, तीन साल हुए खालाजान ने अपनी जायदाद मेरे नाम हिब्बा कर दी थी। मैंने उन्हें ता-हयात खाना-कप्ड़ा देना कबूल किया था। खुदा गवाह है, आज तक मैंने खालाजान को कोई तकलीफ नहीं दी। मैं उन्हें अपनी मॉँ के समान समझता हूँ। उनकी खिदमत करना मेरा फर्ज है; मगर औरतों में जरा अनबन रहती है, उसमें मेरा क्या बस है? खालाजान मुझसे माहवार खर्च अलग मॉँगती है। जायदाद जितनी है; वह पंचों से छिपी नहीं। उससे इतना मुनाफा नहीं होता है कि माहवार खर्च दे सकूँ। इसके अलावा हिब्बानामे में माहवार खर्च का कोई जिक्र नही। नहीं तो मैं भूलकर भी इस झमेले मे न पड़ता। बस, मुझे यही कहना है। आइंदा पंचों का अख्तियार है, जो फैसला चाहें, करे। अलगू चौधरी को हमेशा कचहरी से काम पड़ता था। अतएव वह पूरा कानूनी आदमी था। उसने जुम्मन से जिरह शुरू की। एक-एक प्रश्न जुम्मन के हृदय पर हथौड़ी की चोट की तरह पड़ता था। रामधन मिश्र इस प्रश्नों पर मुग्ध हुए जाते थे। जुम्मन चकित थे कि अलगू को क्या हो गया। अभी यह अलगू मेरे साथ बैठी हुआ कैसी-कैसी बातें कर रहा था ! इतनी ही देर में ऐसी कायापलट हो गयी कि मेरी जड़ खोदने पर तुला हुआ है। न मालूम कब की कसर यह निकाल रहा है? क्या इतने दिनों की दोस्ती कुछ भी काम न आवेगी? जुम्मन शेख तो इसी संकल्प-विकल्प में पड़े हुए थे कि इतने में अलगू ने फैसला सुनाया-- जुम्मन शेख तो इसी संकल्प-विकल्प में पड़े हुए थे कि इतने में अलगू ने फैसला सुनाया-- जुम्मन शेख ! पंचों ने इस मामले पर विचार किया। उन्हें यह नीति संगत मालूम होता है कि खालाजान को माहवार खर्च दिया जाय। हमारा विचार है कि खाला की जायदाद से इतना मुनाफा अवश्य होता है कि माहवार खर्च दिया जा सके। बस, यही हमारा फैसला है। अगर जुम्मन को खर्च देना मंजूर न हो, तो हिब्वानामा रद्द समझा जाय। यह फैसला सुनते ही जुम्मन सन्नाटे में आ गये। जो अपना मित्र हो, वह शत्रु का व्यवहार करे और गले पर छुरी फेरे, इसे समय के हेर-फेर के सिवा और क्या कहें? जिस पर पूरा भरोसा था, उसने समय पड़ने पर धोखा दिया। ऐसे ही अवसरों पर झूठे-सच्चे मित्रों की परीक्षा की जाती है। यही कलियुग की दोस्ती है। अगर लोग ऐसे कपटी-धोखेबाज न होते, तो देश में आपत्तियों का प्रकोप क्यों होता? यह हैजा-प्लेग आदि व्याधियॉँ दुष्कर्मों के ही दंड हैं। मगर रामधन मिश्र और अन्य पंच अलगू चौधरी की इस नीति-परायणता को प्रशंसा जी खोलकर कर रहे थे। वे कहते थे--इसका नाम पंचायत है ! दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया। दोस्ती, दोस्ती की जगह है, किन्तु धर्म का पालन करना मुख्य है। ऐसे ही सत्यवादियों के बल पर पृथ्वी ठहरी है, नहीं तो वह कब की रसातल को चली जाती। इस फैसले ने अलगू और जुम्मन की दोस्ती की जड़ हिला दी। अब वे साथ-साथ बातें करते नहीं दिखायी देते। इतना पुराना मित्रता-रूपी वृक्ष सत्य का एक झोंका भी न सह सका। सचमुच वह बालू की ही जमीन पर खड़ा था। उनमें अब शिष्टाचार का अधिक व्यवहार होने लगा। एक दूसरे की आवभगत ज्यादा करने लगा। वे मिलते-जुलते थे, मगर उसी तरह जैसे तलवार से ढाल मिलती है। जुम्मन के चित्त में मित्र की कुटिलता आठों पहर खटका करती थी। उसे हर घड़ी यही चिंता रहती थी कि किसी तरह बदला लेने का अवसर मिले। ५ अच्छे कामों की सिद्धि में बड़ी दरे लगती है; पर बुरे कामों की सिद्धि में यह बात नहीं होती; जुम्मन को भी बदला लेने का अवसर जल्द ही मिल गया। पिछले साल अलगू चौधरी बटेसर से बैलों की एक बहुत अच्छी गोई मोल लाये थे। बैल पछाहीं जाति के सुंदर, बडे-बड़े सीगोंवाले थे। महीनों तक आस-पास के गॉँव के लोग दर्शन करते रहे। दैवयोग से जुम्मन की पंचायत के एक महीने के बाद इस जोड़ी का एक बैल मर गया। जुम्मन ने दोस्तों से कहा--यह दग़ाबाज़ी की सजा है। इन्सान सब्र भले ही कर जाय, पर खुदा नेक-बद सब देखता है। अलगू को संदेह हुआ कि जुम्मन ने बैल को विष दिला दिया है। चौधराइन ने भी जुम्मन पर ही इस दुर्घटना का दोषारोपण किया उसने कहा--जुम्मन ने कुछ कर-करा दिया है। चौधराइन और करीमन में इस विषय पर एक दिन खुब ही वाद-विवाद हुआ दोनों देवियों ने शब्द-बाहुल्य की नदी बहा दी। व्यंगय, वक्तोक्ति अन्योक्ति और उपमा आदि अलंकारों में बातें हुईं। जुम्मन ने किसी तरह शांति स्थापित की। उन्होंने अपनी पत्नी को डॉँट-डपट कर समझा दिया। वह उसे उस रणभूमि से हटा भी ले गये। उधर अलगू चौधरी ने समझाने-बुझाने का काम अपने तर्क-पूर्ण सोंटे से लिया। अब अकेला बैल किस काम का? उसका जोड़ बहुत ढूँढ़ा गया, पर न मिला। निदान यह सलाह ठहरी कि इसे बेच डालना चाहिए। गॉँव में एक समझू साहु थे, वह इक्का-गाड़ी हॉँकते थे। गॉँव के गुड़-घी लाद कर मंडी ले जाते, मंडी से तेल, नमक भर लाते, और गॉँव में बेचते। इस बैल पर उनका मन लहराया। उन्होंने सोचा, यह बैल हाथ लगे तो दिन-भर में बेखटके तीन खेप हों। आज-कल तो एक ही खेप में लाले पड़े रहते हैं। बैल देखा, गाड़ी में दोड़ाया, बाल-भौरी की पहचान करायी, मोल-तोल किया और उसे ला कर द्वार पर बॉँध ही दिया। एक महीने में दाम चुकाने का वादा ठहरा। चौधरी को भी गरज थी ही, घाटे की परवाह न की। समझू साहु ने नया बैल पाया, तो लगे उसे रगेदने। वह दिन में तीन-तीन, चार-चार खेपें करने लगे। न चारे की फिक्र थी, न पानी की, बस खेपों से काम था। मंडी ले गये, वहॉँ कुछ सूखा भूसा सामने डाल दिया। बेचारा जानवर अभी दम भी न लेने पाया था कि फिर जोत दिया। अलगू चौधरी के घर था तो चैन की बंशी बचती थी। बैलराम छठे-छमाहे कभी बहली में जोते जाते थे। खूब उछलते-कूदते और कोसों तक दौड़ते चले जाते थे। वहॉँ बैलराम का रातिब था, साफ पानी, दली हुई अरहर की दाल और भूसे के साथ खली, और यही नहीं, कभी-कभी घी का स्वाद भी चखने को मिल जाता था। शाम-सबेरे एक आदमी खरहरे करता, पोंछता और सहलाता था। कहॉँ वह सुख-चैन, कहॉँ यह आठों पहर कही खपत। महीने-भर ही में वह पिस-सा गया। इक्के का यह जुआ देखते ही उसका लहू सूख जाता था। एक-एक पग चलना दूभर था। हडिडयॉँ निकल आयी थी; पर था वह पानीदार, मार की बरदाश्त न थी। एक दिन चौथी खेप में साहु जी ने दूना बोझ लादा। दिन-भरका थका जानवर, पैर न उठते थे। पर साहु जी कोड़े फटकारने लगे। बस, फिर क्या था, बैल कलेजा तोड़ का चला। कुछ दूर दौड़ा और चाहा कि जरा दम ले लूँ; पर साहु जी को जल्द पहुँचने की फिक्र थी; अतएव उन्होंने कई कोड़े बड़ी निर्दयता से फटकारे। बैल ने एक बार फिर जोर लगाया; पर अबकी बार शक्ति ने जवाब दे दिया। वह धरती पर गिर पड़ा, और ऐसा गिरा कि फिर न उठा। साहु जी ने बहुत पीटा, टॉँग पकड़कर खीचा, नथनों में लकड़ी ठूँस दी; पर कहीं मृतक भी उठ सकता है? तब साहु जी को कुछ शक हुआ। उन्होंने बैल को गौर से देखा, खोलकर अलग किया; और सोचने लगे कि गाड़ी कैसे घर पहुँचे। बहुत चीखे-चिल्लाये; पर देहात का रास्ता बच्चों की ऑंख की तरह सॉझ होते ही बंद हो जाता है। कोई नजर न आया। आस-पास कोई गॉँव भी न था। मारे क्रोध के उन्होंने मरे हुए बैल पर और दुर्रे लगाये और कोसने लगे--अभागे। तुझे मरना ही था, तो घर पहुँचकर मरता ! ससुरा बीच रास्ते ही में मर रहा। अब गड़ी कौन खीचे? इस तरह साहु जी खूब जले-भुने। कई बोरे गुड़ और कई पीपे घी उन्होंने बेचे थे, दो-ढाई सौ रुपये कमर में बंधे थे। इसके सिवा गाड़ी पर कई बोरे नमक थे; अतएव छोड़ कर जा भी न सकते थे। लाचार वेचारे गाड़ी पर ही लेटे गये। वहीं रतजगा करने की ठान ली। चिलम पी, गाया। फिर हुक्का पिया। इस तरह साह जी आधी रात तक नींद को बहलाते रहें। अपनी जान में तो वह जागते ही रहे; पर पौ फटते ही जो नींद टूटी और कमर पर हाथ रखा, तो थैली गायब ! घबरा कर इधर-उधर देखा तो कई कनस्तर तेल भी नदारत ! अफसोस में बेचारे ने सिर पीट लिया और पछाड़ खाने लगा। प्रात: काल रोते-बिलखते घर पहँचे। सहुआइन ने जब यह बूरी सुनावनी सुनी, तब पहले तो रोयी, फिर अलगू चौधरी को गालियॉँ देने लगी--निगोड़े ने ऐसा कुलच्छनी बैल दिया कि जन्म-भर की कमाई लुट गयी। इस घटना को हुए कई महीने बीत गए। अलगू जब अपने बैल के दाम मॉँगते तब साहु और सहुआइन, दोनों ही झल्लाये हुए कुत्ते की तरह चढ़ बैठते और अंड-बंड बकने लगते—वाह ! यहॉँ तो सारे जन्म की कमाई लुट गई, सत्यानाश हो गया, इन्हें दामों की पड़ी है। मुर्दा बैल दिया था, उस पर दाम मॉँगने चले हैं ! ऑंखों में धूल झोंक दी, सत्यानाशी बैल गले बॉँध दिया, हमें निरा पोंगा ही समझ लिया है ! हम भी बनिये के बच्चे है, ऐसे बुद्धू कहीं और होंगे। पहले जाकर किसी गड़हे में मुँह धो आओ, तब दाम लेना। न जी मानता हो, तो हमारा बैल खोल ले जाओ। महीना भर के बदले दो महीना जोत लो। और क्या लोगे? चौधरी के अशुभचिंतकों की कमी न थी। ऐसे अवसरें पर वे भी एकत्र हो जाते और साहु जी के बराने की पुष्टि करते। परन्तु डेढ़ सौ रुपये से इस तरह हाथ धो लेना आसान न था। एक बार वह भी गरम पड़े। साहु जी बिगड़ कर लाठी ढूँढ़ने घर चले गए। अब सहुआइन ने मैदान लिया। प्रश्नोत्तर होते-होते हाथापाई की नौबत आ पहुँची। सहुआइन ने घर में घुस कर किवाड़ बन्द कर लिए। शोरगुल सुनकर गॉँव के भलेमानस घर से निकाला। वह परामर्श देने लगे कि इस तरह से काम न चलेगा। पंचायत कर लो। कुछ तय हो जाय, उसे स्वीकार कर लो। साहु जी राजी हो गए। अलगू ने भी हामी भर ली। ६ पंचायत की तैयारियॉँ होने लगीं। दोनों पक्षों ने अपने-अपने दल बनाने शुरू किए। इसके बाद तीसरे दिन उसी वृक्ष के नीचे पंचायत बैठी। वही संध्या का समय था। खेतों में कौए पंचायत कर रहे थे। विवादग्रस्त विषय था यह कि मटर की फलियों पर उनका कोई स्वत्व है या नही, और जब तक यह प्रश्न हल न हो जाय, तब तक वे रखवाले की पुकार पर अपनी अप्रसन्नता प्रकट करना आवश्यकत समझते थे। पेड़ की डालियों पर बैठी शुक-मंडली में वह प्रश्न छिड़ा हुआ था कि मनुष्यों को उन्हें वेसुरौवत कहने का क्या अधिकार है, जब उन्हें स्वयं अपने मित्रों से दगां करने में भी संकोच नहीं होता। पंचायत बैठ गई, तो रामधन मिश्र ने कहा-अब देरी क्या है ? पंचों का चुनाव हो जाना चाहिए। बोलो चौधरी ; किस-किस को पंच बदते हो। अलगू ने दीन भाव से कहा-समझू साहु ही चुन लें। समझू खड़े हुए और कड़कर बोले-मेरी ओर से जुम्मन शेख। जुम्मन का नाम सुनते ही अलगू चौधरी का कलेजा धक्-धक् करने लगा, मानों किसी ने अचानक थप्पड़ मारा दिया हो। रामधन अलगू के मित्र थे। वह बात को ताड़ गए। पूछा-क्यों चौधरी तुम्हें कोई उज्र तो नही। चौधरी ने निराश हो कर कहा-नहीं, मुझे क्या उज्र होगा? अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान बहुधा हमारे संकुचित व्यवहारों का सुधारक होता है। जब हम राह भूल कर भटकने लगते हैं तब यही ज्ञान हमारा विश्वसनीय पथ-प्रदर्शक बन जाता है। पत्र-संपादक अपनी शांति कुटी में बैठा हुआ कितनी धृष्टता और स्वतंत्रता के साथ अपनी प्रबल लेखनी से मंत्रिमंडल पर आक्रमण करता है: परंतु ऐसे अवसर आते हैं, जब वह स्वयं मंत्रिमंडल में सम्मिलित होता है। मंडल के भवन में पग धरते ही उसकी लेखनी कितनी मर्मज्ञ, कितनी विचारशील, कितनी न्याय-परायण हो जाती है। इसका कारण उत्तर-दायित्व का ज्ञान है। नवयुवक युवावस्था में कितना उद्दंड रहता है। माता-पिता उसकी ओर से कितने चितिति रहते है! वे उसे कुल-कलंक समझते हैंपरन्तु थौड़ी हीी समय में परिवार का बौझ सिर पर पड़ते ही वह अव्यवस्थित-चित्त उन्मत्त युवक कितना धैर्यशील, कैसा शांतचित्त हो जाता है, यह भी उत्तरदायित्व के ज्ञान का फल है। जुम्मन शेख के मन में भी सरपंच का उच्च स्थान ग्रहण करते ही अपनी जिम्मेदारी का भाव पेदा हुआ। उसने सोचा, मैं इस वक्त न्याय और धर्म के सर्वोच्च आसन पर बैठा हूँ। मेरे मुँह से इस समय जो कुछ निकलेगा, वह देववाणी के सदृश है-और देववाणी में मेरे मनोविकारों का कदापि समावेश न होना चाहिए। मुझे सत्य से जौ भर भी टलना उचित नही! पंचों ने दोनों पक्षों से सवाल-जवाब करने शुरू किए। बहुत देर तक दोनों दल अपने-अपने पक्ष का समर्थन करते रहे। इस विषय में तो सब सहमत थे कि समझू को बैल का मूल्य देना चाहिए। परन्तु वो महाशय इस कारण रियायत करना चाहते थे कि बैल के मर जाने से समझू को हानि हुई। उसके प्रतिकूल दो सभ्य मूल के अतिरिक्त समझू को दंड भी देना चाहते थे, जिससे फिर किसी को पशुओं के साथ ऐसी निर्दयता करने का साहस न हो। अन्त में जुम्मन ने फैसला सुनाया- अलगू चौधरी और समझू साहु। पंचों ने तुम्हारे मामले पर अच्छी तरह विचार किया। समझू को उचित है कि बैल का पूरा दाम दें। जिस वक्त उन्होंने बैल लिया, उसे कोई बीमारी न थी। अगर उसी समय दाम दे दिए जाते, तो आज समझू उसे फेर लेने का आग्रह न करते। बैल की मृत्यु केवल इस कारण हुई कि उससे बड़ा कठिन परिश्रम लिया गया और उसके दाने-चारे का कोई प्रबंध न किया गया। रामधन मिश्र बोले-समझू ने बैल को जान-बूझ कर मारा है, अतएव उससे दंड लेना चाहिए। जुम्मन बोले-यह दूसरा सवाल है। हमको इससे कोई मतलब नहीं ! झगडू साहु ने कहा-समझू के साथं कुछ रियायत होनी चाहिए। जुम्मन बोले-यह अलगू चौधरी की इच्छा पर निर्भर है। यह रियायत करें, तो उनकी भलमनसी। अलगू चौधरी फूले न समाए। उठ खड़े हुए और जोर से बोल-पंच-परमेश्वर की जय! इसके साथ ही चारों ओर से प्रतिध्वनि हुई-पंच परमेश्वर की जय! यह मनुष्य का काम नहीं, पंच में परमेश्वर वास करते हैं, यह उन्हीं की महिमा है। पंच के सामने खोटे को कौन खरा कह सकता है? थोड़ी देर बाद जुम्मन अलगू के पास आए और उनके गले लिपट कर बोले-भैया, जब से तुमने मेरी पंचायत की तब से मैं तुम्हारा प्राण-घातक शत्रु बन गया था; पर आज मुझे ज्ञात हुआ कि पंच के पद पर बैठ कर न कोई किसी का दोस्त है, न दुश्मन। न्याय के सिवा उसे और कुछ नहीं सूझता। आज मुझे विश्वास हो गया कि पंच की जबान से खुदा बोलता है। अलगू रोने लगे। इस पानी से दोनों के दिलों का मैल धुल गया। मित्रता की मुरझाई हुई लता फिर हरी हो गई। ***************

  • ठिठकी हुई धूप

    वह बारजे पर आई तो उसकी नजर छज्जे पर ठिठक कर बैठे धूप के टुकड़े पर पड़ी। वह किसी भी पल फिसल जाने को आतुर था। ठीक उसके जीवन की खुशियों की तरह । वह लाख खुशियों को पकड़ना चाहती, पर वह तो बस रेत की तरह फिसल जाती और वह रीते घड़े सी बेजान रह जाती । जाने किस मिट्टी की बनी थी वह , कि बार-बार की ठोकर खाकर भी उसे तोड़ नहीं पाती थी। वह कमर कसकर फिर उठ खड़ी होती। इस आस के साथ की घड़ा फिर भरेगा, खुशियां फिर आएंगी, जीवन फिर मुसकुराएगा। साधारण परिवार में जन्मी थी चांदनी । उसके जन्म पर खुशियां नहीं मनाई गई थीं.... बल्कि मां को खूब कोसा गया था। आखिर तीसरी बेटी पैदा करने का अपराध जो किया था उन्होंने। परंतु ममता की मारी राधा अपनी लाडली को कलेजे से लगाए सब की गाली सुनती रहती। वह सबकी आंखों में खटकती थी। वह तो भला हो सरकार का, जो लड़कियों की शिक्षा को निशुल्क कर दिया। उसी के सहारे और मां की जिद के चलते वह बारहवीं अच्छे अंको से पास हो गई। कई वर्षों बाद उस साल, छुट्टियों में बुआ जी घर आई थीं। और घर के कामों में दक्ष चांदनी के हाथों पर बुआ जी ऐसा मोहित हुईं कि उसे आगे की पढ़ाई कराने के बहाने अपने साथ लखनऊ शहर लेकर चली आईं। जब बुआ के घर की चक्की में वह पिसने लगी। तब बुआ के मन का राज़ समझ पाई। फिर उसने भी जिद पकड़ ली कि अगर एडमिशन नहीं कराएंगी तो वह वापस मां के पास गांव चली जाएगी। मन मार कर बुआ ने उसका नाम लिखवा दिया। चांदनी के तो पंख ही लग गए। वह मुंह अंधेरे उठती घर का सारा काम, साफ सफाई, झाड़ू पोछा, बर्तन, नाश्ता बनाना, खाना बनाना सब करके फिर खुद नहा धोकर तैयार होकर पढ़ने चली जाती। बुआ जी और उनकी दोनों बेटियां खुश थीं। साथ ही खुश थी चांदनी भी। सरलता से बहते उसके जीवन में अंगद कब और कैसे घुस आया वह जान ही नहीं पाई। बुआ जी के जेठ का लाडला बेटा था अंगद। घर में उसका बड़ा मान था। जाने कब वह चांदनी के भोले सौंदर्य पर रीझ गया। उस दिन बुआ जी की बड़ी बेटी पल्लवी का जन्मदिन था। अंगद अपनी मां के साथ आया हुआ था। शाम ढले जब केक काटने का समय हुआ तो जाने कैसे अंगद की मां को चांदनी का ख्याल हो आया। वह अचानक बोलीं, “अरे चांदनी कहां है?” अंगद तीखे स्वर में बोला,”कहां क्या? सुबह से रसोई में ही तो है। “ “उसे बड़ी देर से देखा नहीं।“ वह पुनः बोलीं। “अरे जीजी, वह बहुत अच्छा खाना बनाती है। उसी ने कहा, कि आज की दावत का पूरा खाना हम बना देंगे। दोनों दीदी को पार्लर भेज दीजिए। तैयार होकर आ जाएंगी …. इसीलिए….. “ बुआ जी जल्दी से बोलीं। “अच्छा, पूरा खाना चांदनी ही बना रही है?” जेठानी ने आश्चर्य से पूछा। “हां जीजी, जब से आई है इसके हाथ का स्वाद सबको ऐसा लग गया है कि किसी और का बनाया खाना अब हम सबको पसंद ही नहीं आता। और तो और खुद चांदनी को भी खाना बनाना बहुत अच्छा लगता है।“ बुआ जी ने बताया। ठीक उसी समय अपने लंबे बालों को जूड़े की तरह लपेटते हुए चांदनी रसोईघर के बाहर आई। “अरे बिटिया, इधर तो आ।” ताई जी ने स्नेह से पुकारा। “जी , ताई जी।” कहती हुई पसीने से नहाई चांदनी आकर खड़ी हो गई। “अरे लाडो, तू तो पूरी तरह से पसीना-पसीना हो गई है। जा, जाकर नहा ले और हां तू भी अच्छे से तैयार हो जा। वह दोनों तो सज धज कर आएंगी। तू भी किसी से कम थोड़े ही ना है। जा, जा कर तैयार हो जा।” जाने क्यों उन्हें आज चांदनी पर कुछ ज्यादा ही प्यार आ रहा था। “हां-हां चांदनी, तू भी जल्दी से तैयार हो जा। वह नया वाला गुलाबी सूट पहन लेना।“ बुआ जी झट से बोली। शायद जेठानी को बताना चाहती थी कि नया सूट चांदनी को भी दिलाया गया है। पर सच तो यह था, कि वह सूट पल्लवी दीदी के लिए आया था, परंतु उन्हें पसंद नहीं आया और रागिनी दीदी उसमें फिट नहीं हो सकती थीं। तब मजबूरन वह सूट चांदनी को देना पड़ा था। जैसे ही चांदनी चार कदम आगे गई कि बुआ जी की आवाज से ठिठक गई । "रसोई का काम सब निपट गया है न चांदनी?" “ जी बुआ जी, सब हो गया है बस पूड़ी बनाना बाकी है। वह उसी समय गरम गरम निकाल देंगे।“ चांदनी पलट कर बोली। नहाकर चांदनी कपड़े फैलाने छत पर चली आई थी। कपड़े फैलाकर वह अपने धुले हुए बाल तौलिया से झटक कर सुखाने लगी। “ तुम्हारे बाल बहुत सुंदर है चांदनी “ हड़बड़ा कर चांदनी ने नजरें उठाई सामने अंगद खड़ा था। गठीली कद काठी वाला अंगद अपने घुंघराले काले बालों पर हाथ फेरता, खड़ा उसे एकटक देख रहा था। “आ…… आ …. आप?” “ हां चांदनी, मैं बहुत समय से कहना चाहता था। पर मौका नहीं मिल रहा था। आज जब मां भी तुम पर मोहित हो गईं, तो लगा अब मुझे अपने दिल की बात तुम्हें बता ही देनी चाहिए ।” अंगद बहुत ही ठहरी हुई आवाज में बोल रहा था। “ मैं…… मैं कुछ समझी नहीं।“ चांदनी सहमी सी बोली। “चांदनी, तुम्हें डरने की कोई जरूरत नहीं है। बस थोड़े दिनों की बात है। मेरी नौकरी लग जाने दो। मैं तुम्हारे सारे कष्ट दूर कर दूंगा। मैं बहुत समय से तुम से बहुत प्यार करता हूं ।“ “आ…… आप……. “ चांदनी कुछ बोल नहीं पाई। अंगद आगे बढ़ा और उसे अपने आलिंगन में बांधकर उसके माथे पर एक गहरा चुंबन अंकित कर दिया। चांदनी बुरी तरह घबरा गई। “ चांदनी, तुम मेरा प्यार हो बस इतना याद रखना।“ बोलकर और उसे स्तब्ध खड़ा छोड़कर अंगद जल्दी से नीचे चला गया। कुछ पल बाद जब चांदनी संभली। तब उसे अपने जीवन में घटे इस अनमोल पल का एहसास हुआ। और वह स्वयं से ही शर्मा गई । अपने कमरे में जाते हुए उसकी नजरें स्वयं ही झुक-झुक जा रही थीं। एक नए एहसास से भरी, शीशे के सामने खड़ी चांदनी, आज बड़े ही चाव से तैयार हो रही थी। लिपस्टिक के साथ-साथ आज उसने आंखों में काजल भी लगाया था । उसकी बड़ी बड़ी आंखें कजरारी बनकर और भी खूबसूरत लगने लगी थीं। मोतियों के काम वाले गुलाबी सूट में चांदनी परी सी लग रही थी। जब चांदनी बाहर आई सब उसे देखते ही रह गए। और अंगद के मुंह से बरबस ही निकल पड़ा, “ तुम तो गजब ही ढ़ा रही हो चांदनी ।“ परंतु बोलकर अंगद भी झेप गया। “सच कह रहे हो बेटा, चांदनी की सादगी में जो सौंदर्य है वह कोई पार्लर नहीं दे सकता।“ ताई जी ने बेटे की बात का समर्थन करते हुए भतीजियों की ओर देखा। सबके जाने के बाद पल्लवी गुस्से से बिफर पड़ी, “ ताई जी को तो हम लोगों को जली कटी सुनाने के बहाने चाहिए होते हैं। जाने किस बात का घमंड है उन्हें ।“ रागिनी ने जोड़ा, “ ताई जी तो ऐसे बात कर रही थी, जैसे उन्होंने चांदनी को अंगद दादा के लिए बहू चुन लिया हो। “ बुआ जी तैश में बोली, “ चांदनी, अपने मन में कोई भ्रम मत पाल लेना । मैं जानती हूं अपनी जेठानी को । दहेज के बहुत लोभी लोग हैं। भैया भाभी उतना दहेज कभी नहीं दे पाएंगे। इन लोगों के चक्कर में मत पड़ना। तेरी जिंदगी बर्बाद हो जाएगी समझी?” “जी, जी बुआ जी “चांदनी सहमी सहमी सी बोली। छत वाली घटना अब वह किसी को कैसे बताए। अब अंगद जल्दी-जल्दी अपनी चाची के घर आने लगा था। बुआ जी की अनुभवी आंखें सब देख रही थी। अतः बुआ जी हर पल उन दोनों के बीच उपस्थित रहतीं । अंगद बस चाय या पानी लेते उसकी अंगुली भर छू लेता और दोनों सिहर उठते । शब्दों से तो नहीं, पर दोनों की आंखें एक दूसरे के प्यार को, एक दूसरे की आंखों में पढ़ती रहतीं। फिर एक दिन जैसे ही चांदनी कॉलेज पहुंची, गेट पर अंगद को देखकर ठिठक गई। “ आप यहां?” “आओ सामने चाय पीते हैं। “ कहता हुआ अंगद उसे रेस्त्रां में ले आया। अंगद उसके ठीक सामने बैठा था और उसे एकटक निहार रहा था। वह घबराकर नीचे देखने लगी। तभी अंगद ने अपना हाथ मेज पर रखें उसके हाथ के ऊपर रख दिया। दोनों की नजरें मिली और दोनों मुसकुरा दिए। अब चांदनी का डर थोड़ा कम हो गया था। “ चांदनी, मुझ पर भरोसा रखना। मैं तुम्हें कभी भी धोखा नहीं दूंगा ।“ अंगद बोला “अंगद, मेरे माता पिता किसान हैं। गरीब हैं। बुआ जी के घर रहकर पढ़ाई करी है। कुछ भी ऐसा नहीं जो आपसे छुपा हो। फिर भी बताना चाहती हूं कि मेरे माता पिता दहेज में कुछ भी नहीं दे पाएंगे। सिवाय अपनी बिटिया के। ” “ चांदनी, तुमने तो हम लोगों को बहुत घटिया समझ लिया। मुझे तुमसे प्यार है। तुम्हारे पिताजी के पैसों से नहीं। तुम्हें अगर भरोसा नहीं है, तो चलो हम अभी मंदिर में शादी कर लेते हैं।" अंगद के हाथ का दबाव उसकी हथेली पर बढ़ गया था। “ मुझे माफ कर दीजिए अंगद, आपका दिल नहीं दुखाना चाहती थी। परंतु अपनी वास्तविक स्थिति बताना जरूर चाहती थी। मुझे आप पर भरोसा है। तभी तो आपके साथ यहां आई हूं। “ कहते हुए चांदनी ने अपना दूसरा हाथ अंगद के हाथ के ऊपर रख दिया। अंगद खिल उठा। अब इस तरह मिलना उनकी रोज की दिनचर्या बन गया। अंगद ने उसे कई बार गोमती किनारे चलने को कहा, कभी पार्क में चलने को कहा, परंतु वह हमेशा रेस्तरां में ही मिलती रही। छत का एकांत उसे सदा याद रहा। अतः वह एकांत मैं मिलने से परहेज करती रही। धीरे-धीरे 6 महीने निकल गए और चांदनी का कॉलेज भी पूरा हो गया। साथ ही साथ अंगद की नौकरी लगने की सुखद खबर भी आई। ताई जी ढे़र सारी मिठाई लेकर आई। बेटा पुलिस में इंस्पेक्टर जो बन गया था। सब खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। अंगद ट्रेनिंग पर चला गया। जाते समय मिलने भी नहीं आया। शायद समय ना मिला हो، पर चांदनी बहुत दुखी हुई। परन्तु कर भी क्या सकती थी। अतः चांदनी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में लग गई । साथ ही एम ए में प्रवेश भी ले लिया । अंगद की बारह महीने की ट्रेनिंग थी। अब घर में हर पल अंगद के लिए आने वाले रिश्तों की बात होती रहती। एक से एक सुंदर लड़कियां साथ में लाखों का दहेज। चांदनी सुनती और मन ही मन घबराती। ताई जी अब कम ही आती थीं। फूफा जी ने अपना पुराना मोबाइल चांदनी को दे दिया था । एक दिन हिम्मत कर चांदनी ने अंगद को फोन किया। अंगद ने चाचा जी का फोन समझ कर फोन तो उठा लिया पर चांदनी की आवाज सुनकर चौक गया और जल्दी से बोला, “ चांदनी, यहां बहुत व्यस्त हूं । लौटकर मिलता हूं । यहां अब फोन मत करना ।“ और उसका जवाब सुने बिना फोन काट दिया। अपने कमरे में जाकर चांदनी फूट फूट कर रोई। जब आंसुओं संग सारा दर्द बह गया वह उठी और अपनी पुस्तकों के पास जाकर बोली, “ मैं पढ़ने आई थी यहां। अपने अम्मा-बाबूजी से दूर पर थोड़े समय के लिए भटक गई थी। अब मेरी आंख खुल गई है। मैं अंगद से बड़ा कंपटीशन पास करूंगी। तुम सब मेरा साथ देना। “ उसी पल से चांदनी ने घर के काम और पढ़ाई के बीच खुद को भुला दिया। परीक्षा का दिन भी आया और वह परीक्षा दे भी आई। उसके सभी पेपर अच्छे हुए थे। सलेक्शन हुआ फिर इंटरव्यू भी हो गया। प्रतियोगी परीक्षा तो प्रतियोगी परीक्षा ही है। इसलिए इसकी चर्चा किसी से नहीं की गई। वैसे भी उसकी खुशी में कौन खुश हो रहा था!!! एक दिन अचानक ताई जी ढेर सारी मिठाई लेकर फिर आ गईं। खुशी उनके चेहरे पर चिपकी हुई थी। बुआ जी ने इंस्पेक्टर की मां का गर्मजोशी से स्वागत करा। दोनों भतीजी भी दौड़ी आईं। “बधाई हो देवरानी जी, तुम्हारी बहू पसंद कर ली है। मुंह मीठा करो। “ चहक कर ताई जी बोलीं। “ अरे आपको भी बधाई जीजी। इस खबर की तो हम बहुत दिनों से प्रतीक्षा कर रहे थे। घर की बड़ी बहू आने वाली है। हमारे लायक काम बताइएगा ।“ गले मिलकर बुआ जी ने खुशी जताई। चांदनी को इस खबर का अंदाजा तो था। फिर भी जाने क्यों उसे लगा जैसे उसके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई है। उसने कसकर कुर्सी को पकड़ लिया और धीरे से बोली, “बधाई ताई जी “ और तेजी से रसोई की ओर बढ़ गई। अगले दिन बुआ जी अपनी दोनों बेटियों के साथ ताई जी की खरीदारी में मदद कराने चली गई। चांदनी खाना बना कर फूफा जी के लिए मेज पर लगा रही थी। तभी घंटी बजी दरवाजा खोला तो सामने अंगद खड़ा था। पहले से भी ज्यादा हैंडसम लग रहा था। “ कैसी हो?” “ बधाई अंगद !” “ देखो चांदनी, तुमसे जरूरी बात करने आया हूं। मुझे मालूम है तुम इस समय अकेली हो ।“ बैठता हुआ अंगद बोला। “ गलत अंगद, फूफा जी घर पर हैं बस खाने के लिए आने वाले हैं। कमरे में हैं।” निश्चिंत सी चांदनी बोली। “ उनके बाहर आने से पहले हम जल्दी से बात कर लेते हैं। “ चाचा के कमरे की ओर देखकर अंगद बोला। “ बोलो क्या कहना चाहते हो? अगले महीने तुम्हारी शादी है। ” चांदनी ने याद दिलाते हुए पूछा। “ देखो, मैं तुमसे शादी तो नहीं कर सकता। चांदनी, पर मैंने तुमसे वादा किया था कि तुम्हें कोई कष्ट नहीं होने दूंगा। अभावों से तुम्हें दूर रखूंगा। तो वह वादा निभाने के लिए मैं आज भी तैयार हूं। मैं तुम्हारे लिए एक मकान खरीद लूंगा। उसमें तुम्हें रखूंगा और पत्नी का हर सुख दूंगा। तुम्हें कोई शिकायत नहीं होगी बोलो मंजूर है?" सुनकर चांदनी जड़ हो गई । इस बेशर्मी के लिए क्या बोले, किन शब्दों में बोले, ….................... “ क्या हुआ बोलो ? इतना सोचने की क्या बात है?” अंगद ने पूछा। “ अंगद, तुमने मुझे और अपने प्यार को इतनी गंदी गाली दी है कि अगर यह घर मेरा होता तो अभी तुम्हें धक्के मार कर निकाल देती। जानते हो इस रिश्ते को रखैल कहते हैं। तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझसे ऐसी घटिया बात करने की? आइंदा कभी मुझे अपना चेहरा मत दिखाना अंगद। " अंगद तैश में आ गया, “जानती हो तुम एक पुलिस इंस्पेक्टर से बात कर रही हो।“ “ नहीं, मैं एक घटिया इंसान से बात कर रही हूं। जिसकी शक्ल भी अब मैं कभी नहीं देखना चाहती ।“ कहती हुई चांदनी फूफा जी को बुलाने चली गई। अंगद की शादी हो गई थी। चांदनी ने शादी में जाने से साफ मना कर दिया था। चांदनी के अम्मा बाबूजी भी शादी में शामिल होने आए थे। बुआ जी के साथ वह सब लोग भी वही हैं। आज बहू भोज का बड़ा विशाल आयोजन किया गया है। कल सब वापस आ जाएंगे। चांदनी ने फैसला कर लिया है कि वह अम्मा बाबूजी के साथ गांव चली जाएगी। वहीं रहकर अगले साल की प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करेगी। इस निर्णय पर आकर चांदनी हल्का महसूस कर रही थी। तब सारा काम निपटा कर वह बाजे पर आई थी। तभी उसके मोबाइल की घंटी बज उठी। “ हेलो” “......................” “ क्या!!!......... सच ?” “............................” मोबाइल उसके हाथ में था और वह वहीं जमीन पर बैठ गई थी। उसकी आंखें गंगा यमुना बहा रही थीं। फोन उसके छोटे भाई का था। जो शादी के घर से ही बोल रहा था। भाई के कहे शब्द शहद बनकर उसके कानों में गूंज रहे थे, “दीदी, आपका सलेक्शन आई.ए.एस. में हो गया है। हम सब तुरंत आपके पास आ रहे हैं।“ उसने छज्जे पर ठिठके धूप के टुकड़े की ओर देखा। जो अभी भी वहीं बैठा हुआ था। पर चांदनी को लगा यह धूप अब चांदनी बनकर उसके और उसके परिजनों के जीवन में फैल गई है।

  • मुस्कान, एक नायाब तोहफा

    मनुष्य जीवन भगवान द्वारा की गई सबसे बड़ी नेमत है जिसके लिए हम सभी को उस परमपिता परमेश्वर का हर पल शुक्रिया अदा करना चाहिए जिन्होंने हमारे कर्मों के हिसाब से हमें मानव जीवन बख्शा है। परंतु, केवल मानव जीवन पा लेना ही पर्याप्त नहीं है, मानव जीवन पा लेने के बाद अच्छे कर्म करना और अपने समाज, राष्ट्र और पूरे विश्व के विकास के लिए अपना यथासंभव योगदान करना भी मानवीयता की सबसे पहली शर्त है। अच्छे कर्मों के साथ-साथ प्रत्येक मनुष्य का सबसे प्रथम दायित्व अपने प्रति होता है और अपने प्रति दायित्व का जो भी व्यक्ति जिम्मेदारी से निर्वहन कर लेता है वह व्यक्ति अपने और समाज के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाने में कभी असफल नहीं होता, यह सत प्रतिशत सत्य है। जिम्मेदारी की भावना का हम सभी में होना अत्यंत आवश्यक है। कहा भी तो जाता है ना कि चैरिटी बिगिंस फ्रॉम होम अर्थात कोई भी अच्छा कार्य या कोई भी नेक काम हमें अपने से शुरू करना चाहिए। केवल उपदेश दे देना भर ही पर्याप्त नहीं होता है, व्यवहारिक होना भी उतना ही आवश्यक है। अपने प्रति हमारा सबसे बड़ा कर्तव्य यह माना जाता है कि हम स्वयं को प्रसन्न रखें, संतुष्ट रखें और अपने लिए दिन भर में थोड़ा सा समय अवश्य निकालें। यह तो बात रही जिम्मेदारियों की, कर्तव्यों की, दायित्वों की जिन्हें निभाने में हमें कुछ खर्च करने की आवश्यकता नहीं होती है, केवल जिम्मेदारी का अहसास भर होना ही काफी होता है। इसी के साथ-साथ हमें खुद को खुश रखने की हर संभव कोशिश भी करनी चाहिए। दुख-सुख हम सबके जीवन में आते जाते रहते हैं। निसंदेह हम खुशियों में सुख का अनुभव करते हैं और दुख आने पर मायूस और उदास हो जाते हैं, किंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सुख और दुख क्षणिक होते हैं ,सुख में अधिक खुश होना और दुख में अधिक मायूस होना सही नहीं। यह सत्य है कि खुशियों को जी भर के मनाना चाहिए, सब के साथ में मनाना चाहिए। परंतु यह भी उतना ही सत्य है कि हमें मस्तिष्क में हमेशा यह बात करनी चाहिए कि कोई भी पल स्थाई नहीं होता । हमारे जीवन में खुशियों और दुखों का आना जाना निरंतर लगा रहता है। कोई भी स्थिति कभी स्थाई रूप से हमारे जीवन में नहीं ठहरती। जिस प्रकार प्रकृति ने दिन-रात, सर्दी-गर्मी ,जन्म-मृत्यु को बनाया है, उसी प्रकार हमारे जीवन में भी सुख और दुख, खुशी और गम के लम्हे भी दिए हैं। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम उन खुशियों में खुद को कितना सराबोर करें ,अपने जीवन के प्रत्येक क्षण का किस प्रकार आनंद लें अपने चेहरे पर किस प्रकार मुस्कान सजाए रखें और अपने हंसते हुए चेहरे से अपने आसपास के वातावरण को कैसे खुशनुमा बनाएं। यह बात तो हम सभी जानते हैं कि हंसता हुआ चेहरा और होठों पर सजी मधुर मुस्कान बड़ी से बड़ी मुश्किलों को पल भर में हल कर देती है। यह भी संभव है कि कभी-कभी किसी की हल्की सी मुस्कान हमारे जीवन में अत्यधिक मायने रखती हो। जिन लोगों में हमें अपनापन नजर आता है, जिन लोगों को हम खुद से अधिक चाहते हैं उनके चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए हम हद से गुजर जाने के लिए भी तैयार रहते हैं। उदाहरण के लिए एक मां के लिए उसके बच्चे की खुशी से बढ़कर कुछ नहीं होता जिसके लिए वह अपना सर्वस्व दांव पर लगा देने से भी नहीं चूकती। माता-पिता के लिए उनकी संतान ही सबसे महत्वपूर्ण होती है जिसके लिए वे अपनी खुशियों तक को नजरअंदाज कर देते हैं और अपने बच्चे की खुशियों को हर पल बढ़ाने का हर संभव प्रयास करते हैं। इसी प्रकार अन्य अनेक रिश्ते हैं जिनमें हम अपने से अधिक अपनों की खुशियों की परवाह करते हैं। हंसता हुआ चेहरा हमें अपनी ओर आकृष्ट करता है इस बात से हम इंकार नहीं कर सकते। दिलों के भीतर किसके क्या है, कितना गम है उसको छुपा कर भी अपने चेहरे पर मधुर मुस्कान रखने वालों की कोई मिसाल नहीं दी जा सकती क्योंकि इस प्रकार के व्यक्ति अपने दुखों को सुखों और अपनों की खुशियों पर हावी नहीं होने देना चाहते इसलिए वे अपने चेहरे सदैव एक मधुर मुस्कान सजाए रखते हैं। व्यक्तिगत तौर पर मुझे तो हमेशा यही लगता है कि मुस्कुराता हुआ चेहरा ईश्वर प्रदत्त वरदान होता है जो दूसरों के दुखों को पल में हर लेता है और हमें एक अजीब सा सुखद सुकून मिलता है। मुस्कान हम सभी को निशुल्क मिली है इसके लिए ईश्वर ने हमसे कुछ शुल्क नहीं लिया, प्रकृति भी हमें हर पल मुस्कुराने की प्रेरणा देती है। इतना सब होने के बावजूद भी यदि हम मुस्कुराने में, हंसने में कंजूसी करते हैं तो अप्रत्यक्ष रूप से हम अपने खूबसूरत जीवन को निराशा में तब्दील करने का ही प्रयास करते हैं। हमें मुस्कुराहटों को बांटना चाहिए ना कि उन्हें अपने तक सीमित रखना चाहिए। याद रखिए, खुशियां बांटने से बढ़ती हैं और गम बांटने से कम हो जाते हैं इसलिए सदैव मुस्कुराएं और अपने आसपास के लोगों को भी मुस्कुराने के अवसर प्रदान करें । मुस्कुराने से हमारे जीवन का सफ़र अत्यधिक सरल हो जाता है, इसी भाव पर आधारित मेरी कुछ स्वरचित पंक्तियां: किसी को कुछ दे पाओ या ना दे पाओ यारों चेहरे पर मुस्कुराहट का सब के इंतजाम कर देना ये ज़िन्दगी मिलती नहीं है बार बार ए मेरे दोस्तों कोई मांगे तुमसे जो कुछ हंस के बेहिचक ये जां उनके नाम कर देना उल्फत में सितारों की चांद खुद को रातों में जगाता है चांदनी जब हंस के मिलती है उस पर अपना वो सब कुछ लुटाता है लबों को कितना आकर्षक सिर्फ़ इक मुस्कुराहट बनाती है किसी को देकर तो देखो हंसी यारों वो होकर दुगुना वापिस लौट आती है बंगले गाड़ी कार तो है आसां बहुत ही मिलना कभी कर पाओ जो कुछ सच में ये मधुर मुस्कान जग के नाम कर जाना मुस्कान तो कुदरत का बस एक नायाब तोहफा होता है जिसको मिलता है ना जग में ये वो बेहद किस्मत वाला होता है अपनों के अधरों की मुस्कान पर एक नहीं सौ दिल कुर्बान हंसते रहो जो हर राह पर चलकर ज़िन्दगी का सफ़र फ़िर हो जाए आसान जी हां मित्रों, दुनिया में ऐसा कोई भी शख्स नहीं जिसके जीवन में केवल और केवल खुशियां ही हों। सुख और दुख तो क्षणिक होते हैं। सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख का आना उतना ही सच है जितना दिन के बाद रात और रात के बाद दिन का आना इसलिए हमें सुख और दुख दोनों ही परिस्थितियों में समभाव रखना चाहिए। न ही खुशियों में उन्मादी हो जाना चाहिए और न ही दुखों में अवसाद की स्थिति में चले जाना चाहिए। संतुलन बनाते हुए जिंदगी को जीना ही जीवन है। हंसता हुआ चेहरा गुलाब के फूल की तरह खिला-खिला नज़र आता है। मुस्कान हमारे चेहरे की खूबसूरती को कई गुना बढ़ा देती है इसलिए सदैव मुस्कुराए और दूसरों को भी मुस्कुराने के लिए प्रेरित करें, प्रोत्साहित करें। छोटी-छोटी मुस्कुराहटें निश्चित ही किसी दिन हमारे भाग्य के द्वार खोलेंगी, इस भाव के साथ हमें खुशियों को आमंत्रण देना चाहिए और जीवन में उमंग का संचार करना चाहिए। बड़ी से बड़ी मुश्किलों का सामना चेहरे की खुशी के साथ और मजबूत हौंसलों के साथ करना हमें आना चाहिए। जिस प्रकार मुस्कुराता हुआ चेहरा हमारे जीवन से निराशा को दूर करता है उसी प्रकार मीठी वाणी बोलने से भी हमारे अधिकतर दुख और परेशानियां खत्म हो जाते हैं। मीठी वाणी बोलना हमारे अपने हाथ में है। जिस प्रकार ईश्वर ने हमें मुस्कुराहटें निशुल्क प्रदान की हैं, उसी प्रकार मीठी वाणी बोलने का हुनर भी दिया है और हमें अपने उस हुनर को प्रतिदिन प्रतिफल पॉलिश करना आना चाहिए। दूसरों से हमेशा प्यार से, स्नेह से मीठा बोलना चाहिए ।मीठी वाणी बोलने का जितना प्रभाव दूसरों पर पड़ता है उससे दोगुना हमारे व्यक्तित्व में निखार लाने में सहायक होता है। अपने रोजमर्रा के जीवन में हम देखते हैं कि जो व्यक्ति सभी से मधुर व्यवहार रखता है, मीठी वाणी बोलता है वह दूसरों पर अमिट छाप छोड़ जाता है, वहीं दूसरी ओर कड़वा बोलने वाला व्यक्ति उपेक्षा का शिकार होता है। दूसरे व्यक्ति उस से केवल औपचारिक रिश्ते रखते हैं और यथासंभव दूरी बनाने का भी प्रयास करते हैं। कटु शब्द हमारे हृदय को चीर जाते हैं और मीठी वाणी हमारे हृदय को गदगद कर देती है। मीठी वाणी बोलने वालों का सानिध्य हम सभी पाना चाहते हैं इसलिए हमें हमेशा ऐसे शब्द बोलने चाहिएं जिन शब्दों को बोलकर हमें आप संतुष्टि का अनुभव हो एवं जिन्हें सुनकर दूसरों के जीवन में खुशियां आएं, उनके चेहरे पर मुस्कान आए, न कि ऐसे शब्द जो दूसरों को तकलीफ दें, दुख दें, उनकी आंखों में आंसू लाएं। हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि जिस प्रकार की वाणी हम दूसरों से सुनना चाहते हैं, दूसरे भी हमसे उसी वाणी उसी व्यवहार की अपेक्षा रखते हैं, इसलिए सदैव कम बोलें, धीमा बोलें, परंतु मधुर बोलें। इस बात से तो हम सभी सरोकार रखते हैं कि मीठी वाणी बोलने वालों के सानिध्य से, उनके साथ कार्य करने से हमें सुखद अनुभूति होती है, अच्छा महसूस होता है। मीठी वाणी बोलने वाले परायों को भी अपना बना लेते हैं, इसी भाव पर मेरी स्वरचित पंक्तियां काफी कुछ कह जाती हैं: मन से निकले उदगार है वाणी मस्तिष्क में उठते विचार है वाणी वाणी से है होती पहचान हमारी वचनों का सारा ही सार है वाणी मीठी वाणी सबको अपना बनवाती कड़वी वाणी न किसी को भाती बिन बोले कोई क्या जाने किसको वाणी व्यक्तित्व से परिचय करवाती मधुर बोल दुख हरते सबके घोलें मधुररस जीवन में सबके कटु शब्द भी व्यर्थ न जाते दिल में शूल से चुभते सबके पहले तोलो तुम बाद में बोलो जब भी बोलो बस मीठा बोलो मधुर मुस्कान तुम रख चेहरे पर बंद कपाट के द्वार भी खोलो मुस्कान और मीठी वाणी हमारे व्यक्तित्व के ऐसे दो महत्वपूर्ण पहलू होते हैं जो हमारे व्यक्तित्व के विकास में अत्यधिक सहायक होते हैं। अपने व्यक्तित्व को सजाने, संवारने और निखारने के लिए हमें अपने चेहरे पर वास्तविक अर्थों में मुस्कान रखनी चाहिए ।दूसरों को दिखाने के लिए नहीं, अपितु खुद को अच्छा महसूस करवाने के लिए भी हमें सदैव मुस्कुराना चाहिए और अपने शब्दों से दूसरों के दिलों पर राज करना चाहिए। इसके लिए हमें ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं। हमें सिर्फ और सिर्फ अपना व्यवहार अच्छा बनाना होगा और सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना होगा। सकारात्मक सोच रखने के बाद हमें कुछ भी एक्स्ट्रा प्रयास करने की जरूरत नहीं पड़ेगी हमारी सोच स्वत: ही हमारे व्यक्तित्व को उस मुकाम तक ले जाएगी जहां पहुंचकर हमें गजब का आत्म संतोष मिलेगा और हम अपने परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व के लिए काफी कुछ बेहतर सोच पाएंगे तथा अपनी उस सुंदर सोच को क्रियान्वित कर पाएंगे। ********

  • और आँखें खुल गई

    एक जंगल के निकट एक महात्मा रहते थे। वे बड़े अतिथि-भक्त थे। नित्यप्रति जो भी पथिक उनकी कुटिया के सामने से गुजरता था, उसे रोककर भोजन दिया करते थे और आदरपूर्वक उसकी सेवा किया करते थे। एक दिन किसी पथिक की प्रतीक्षा करते-करते उन्हें शाम हो गई, पर कोई राही न निकला। उस दिन नियम टूट जाने की आशंका में, वे बड़े व्याकुल हो रहे थे कि उन्होंने देखा, एक सौ साल का बूढ़ा, थका-हारा चला आ रहा है। महात्मा जी ने उसे रोककर हाथ-पैर धुलाए और भोजन परोसा। बूढ़ा बिना भगवान का भोग लगाए और बिना धन्यवाद दिए, तत्काल भोजन पर जुट गया। यह सब देख महात्मा को आश्चर्य हुआ और बूड़े से इस बात की शंका की। बूढ़े ने कहा - "मैं तो अग्नि को छोड़कर किसी अन्य देवता को ईश्वर नहीं मानता हूँ।" महात्मा जी उस बूढ़े बात सुनकर बड़े क्रुद्ध हुए और उसके सामने से भोजन का थाल खींच लिया तथा बिना यह सोचे कि रात में वह इस जंगल में कहाँ जाएगा, कुटी से बाहर कर दिया। बूढ़ा अपनी लकड़ी टेकता हुआ एक ओर चला गया। रात में महात्मा जी को स्वप्न हुआ, भगवान कह रहे थे- "साधु उस बूढ़े के साथ किए तुम्हारे व्यवहार ने अतिथि सत्कार का सारा पुण्य क्षीण कर दिया।" महात्मा ने कहा- "प्रभु! उसे तो मैंने इसलिए निकाला कि उसने आपका अपमान किया था।" प्रभु बोले- "ठीक है, वह मेरा नित्य अपमान करता है तो भी मैंने उसे सौ साल तक सहा, किंतु तुम एक दिन भी न सह सके।" भगवान अंतर्धान हो गए और महात्मा जी की भी आँखें खुल गई। *********

  • पूर्णत्व

    शिवम् की शादी की उम्र बीती जा रही थी। मां उसे समझाती- "बेटे, स्त्री घर की ऊर्जा होती है। उसके बिना पुरुष के लिए अकेले जीवन बिताना बहुत ही दुष्कर है। जवानी तो अकेले बीत जाएगी, लेकिन बुढ़ापे में पत्नी के सहारे की ज़रूरत पड़ेगी। मेरा कहा मान और शादी के लिए हामी भर दे।" शिवम् ने अपने घर-परिवार, आस-पड़ोस और समाज में स्त्री चरित्रों को देखा था। इसलिए उसका मन शादी करने के लिए राज़ी ही नहीं होता था। आखिर एक दिन मां ने उसे समझा कर कुसुम नामक सुंदर और सुशील कन्या के साथ उसकी सगाई कर दी। एक दिन शिवम् को तेज़ बुखार आया। शिवम- "मां दोनों भाई-भाभी को फोन किया, लेकिन कोई नहीं आया।" मां- "बेटे, यही संसार है। घर पर बैठे रहने से तबीयत और भी बिगड़ जाएगी। मैं कुसुम को फोन कर देती हूं। तू रिक्शा से हॉस्पिटल चला जा।" ख़बर मिलते ही कुसुम तुरंत हॉस्पिटल पहुंच गई और शिवम् को संभाल लिया। कुसुम- "मैंने डॉक्टर से मिलकर सारी बातचीत कर ली है। आपके सारे रिपोर्ट्स हो गएं हैं। सब कुछ नोर्मल है।" शिवम्- "कुसुम, आज़ तुम न होती तो.....।" कुसुम- "डाक्टर ने शाम तक रूकने की सलाह दी है। मैं सारी दवाइयां, मूंग का पानी और फल आदि ले आई हूं। आप आराम कीजिए।" शिवम्- "पूरे बदन और जोड़ों में काफ़ी दर्द हो रहा है।" कुसुम- "मैं महामृत्युंजय मंत्र के जाप के साथ आपके पूरे शरीर पर मालिश कर देती हूं। थोड़ी ही देर में आपको काफ़ी राहत महसूस होगी।" शाम होते ही शिवम् की तबीयत ठीक हो गई। डॉक्टर ने दवाइयां देकर घर वापस जाने की अनुमति दे दी। कुसुम ने उसका सारा सामान पैक कर दिया। शिवम् एकटक उसके के सामने देखता ही रहा। कुसुम- "अरे! आप ऐसे क्यों देख रहे हैं?" शिवम- "कुसुम, मेरे पास शब्द ही नहीं है कि मैं कैसे तुम्हारा शुक्रिया अदा करूं?" इतना कहकर शिवम ने कुसुम को अपनी बाहों में जकड़ लिया और बोला- "आज़ तुमने अपनी सेवा और समर्पण भाव से यह साबित कर दिया कि सचमुच नारी बिना नर है आधा-अधूरा। आज़ तक मैं अधूरा था, लेकिन तुमने मुझे पूर्णत्व प्रदान कर किया।" शाम को मां अकेली हॉस्पिटल पहुंच गई। हमेशा गंभीर मुद्रा में रहने वाले शिवम् के चेहरे पर हंसी की रेखाएं और कुसुम के साथ उसके तालमेल को देखकर ख़ुशी के कारण मां की आंखें भर आईं। ***********

  • हमसे आगे हम

    टीचर ने सीटी बजाई और स्कूल के मैदान पर 50 छोटे छोटे बालक-बालिकाएँ दौड़ पड़े। सबका एक लक्ष्य। मैदान के छोर पर पहुँचकर पुनः वापस लौट आना। प्रथम तीन को पुरस्कार। इन तीन में से कम से कम एक स्थान प्राप्त करने की सारी भागदौड़। सभी बच्चों के मम्मी-पापा भी उपस्थित थे तो, उत्साह जरा ज्यादा ही था। मैदान के छोर पर पहुँचकर बच्चे जब वापसी के लिए दौड़े तो पालकों में "और तेज...और तेज... " का तेज स्वर उठा। प्रथम तीन बच्चों ने आनंद से अपने अपने माता पिता की ओर हाथ लहराए। चौथे और पाँचवे अधिक परेशान थे, कुछ के तो माता पिता भी नाराज दिख रहे थे। उनके भी बाद वाले बच्चे, ईनाम तो मिलना नहीं सोचकर, दौड़ना छोड़कर चलने भी लग गए थे। शीघ्र ही दौड़ खत्म हुई और 5 नंबर पर आई वो छोटी सी बच्ची नाराज चेहरा लिए अपने पापा की ओर दौड़ गयी। पापा ने आगे बढ़कर अपनी बेटी को गोद में उठा लिया और बोले : "वेल डन बच्चा, वेल डन....चलो चलकर कहीं, आइसक्रीम खाते हैं। कौनसी आइसक्रीम खाएगी हमारी बिटिया रानी? " "लेकिन पापा, मेरा नंबर कहाँ आया ? " बच्ची ने आश्चर्य से पूछा। "आया है बेटा, पहला नंबर आया है तुम्हारा।" "ऐंसे कैसे पापा, मेरा तो 5 वाँ नंबर आया ना ? " बच्ची बोली। "अरे बेटा, तुम्हारे पीछे कितने बच्चे थे? " थोड़ा जोड़ घटाकर वो बोली : "45 बच्चे।" "इसका मतलब उन 45 बच्चों से आगे तुम पहली थीं, इसीलिए तुम्हें आइसक्रीम का ईनाम।" "और मेरे आगे आए 4 बच्चे ? " परेशान सी बच्ची बोली। " इस बार उनसे हमारा कॉम्पिटीशन नहीं था।" " क्यों ? " "क्योंकि उन्होंने अधिक तैयारी की हुई थी। अब हम भी फिर से बढ़िया प्रेक्टिस करेंगे। अगली बार तुम 48 में फर्स्ट आओगी और फिर उसके बाद 50 में प्रथम रहोगी।" "ऐंसा हो सकता है पापा? " " हाँ बेटा, ऐंसा ही होता है। " " तब तो अगली बार ही खूब तेज दौड़कर पहली आ जाउँगी।" बच्ची बड़े उत्साह से बोली। "इतनी जल्दी क्यों बेटा? पैरों को मजबूत होने दो, और हमें खुद से आगे निकलना है, दूसरों से नहीं।" पापा का कहा बेटी को बहुत अच्छे से तो समझा नहीं लेकिन फिर भी वो बड़े विश्वास से बोली : "जैसा आप कहें, पापा।" "अरे अब आइसक्रीम तो बताओ? " पापा मुस्कुराते हुए बोले। तब एक नए आनंद से भरी, 45 बच्चों में प्रथम के आत्मविश्वास से जगमग, पापा की गोद में शान से हँसती बेटी बोली : "मुझे बटरस्कॉच आइसक्रीम चाहिए।" क्या अपने बच्चो के रिजल्ट के समय हम सभी माता पिता का व्यवहार कुछ ऐसा ही नही होना चाहिए ....विचार जरूर करे और सभी माता पिता तक जरुर पहुचाये। ********

  • सोलह श्रृंगार

    आज के मेरे इस आलेख का मुख्य प्रश्न यह है कि औरतों का सिंगार करना महज़ सुंदर दिखने के लिए होता है या चूड़ी, बिंदी, सिंदूर, मंगलसूत्र सच में सौभाग्य की निशानी होती हैं और क्या इन सब से पति के भाग्य पर असर होता है? इन प्रश्नों के जवाब में मेरा तर्क केवल और केवल यही है कि जिस रिश्ते में प्यार और सम्मान होता है उस रिश्ते के लिए आप कुछ भी कर गुजरने के लिए सदैव तैयार रहते हैं चाहे फिर वह पत्नी का पति के लिए सजना सवरना, मंगलसूत्र पहनना, चूड़ियां पहनना, नथनी और मांग टीका धारण करना और अपनी मांग को उसके नाम के सिंदूर से सजाना आदि आदि। यहां मैंने मांग का सिंदूर पति के नाम का इसलिए लिखा है क्योंकि हमारे धर्मों में विवाहित स्त्रियां ही सिंदूर लगा सकती हैं। निसंदेह सजी संवरी दुल्हन की तरह दिखने वाली स्त्री पुरुषों को अपनी ओर आकर्षित करती है और यदि यह पुरुष और स्त्री रिश्ते में पति-पत्नी होते हैं तो यह आकर्षण सामाजिक मान्यता भी प्राप्त कर लेता है अर्थात पति पत्नी का एक दूसरे के प्रति आकृष्ट होना और इस आकर्षण को एक मुकाम तक ले कर जाना सामाजिक दायरे के भीतर माना जाता है जो सही भी है। अब बात आती है कि इन सब क्रियाकलापों सजने सवरने का क्या एक पति के भाग्य पर भी असर होता है तो यहां मेरा मत यह है कि यदि किसी महिला के विवाह के कुछ समय पश्चात ही उसके पति की असामयिक मृत्यु हो जाती है तो यह तर्क अपने आप ही आधारहीन हो जाता है। पति-पत्नी का रिश्ता वह रिश्ता होता है जिसमें दोनों में से कोई भी एक दूसरे को खोने की इच्छा तो क्या कल्पना तक नहीं करना चाहता। एक दूसरे की लंबी आयु की कामना करते हुए वे अपना जीवन बिता देते हैं। परंतु यदि पत्नी के सजने सवरने और सोलह सिंगार करने के बाद भी दुर्घटना हो जाती है तो इसका संबंध अब किस चीज से जोड़ा जाए यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है। महिला ने तो सज संवर कर सोलह सिंगार कर अपनी जिम्मेदारी निभाई उसके बाद भी वह अपने पति को मौत से नहीं बचा पाई तो अब समाज के उन तथाकथित ठेकेदारों का इस विषय पर क्या तर्क होगा जो यह कहते फिरते हैं कि महिलाओं के सिंगार करने से उसके पति का भाग्य संवरता है और उसकी आयु भी लंबी होती है। सजना सवरना सभी को अच्छा लगता है चाहे वह स्त्री हो या पुरुष। खुद को मेंटेन रखना और आकर्षित दिखना हर किसी की चाह होती है परंतु इस सब को एक दूसरे के भाग्य के साथ जोड़कर देखना तर्क हीन है। माना कि हमारे धर्म में सजने सवरने और सोलह सिंगार का अपना एक विशेष महत्व है। यहां मेरा तात्पर्य किसी भी धर्म संबंधी भावनाओं को ठेस पहुंचाना अथवा उन पर प्रश्नचिन्ह लगाना नहीं है अपितु यह मेरा व्यक्तिगत मानना है कि यदि ऐसा होता कि पत्नी के सजने सवरने और चूड़ी बिंदी, कजरा, गजरा और मंगलसूत्र या सिंदूर लगाने से उसके जीवन साथी की आयु लंबी होती है और उसके भाग्य के सितारे बुलंद हो जाते हैं तो शायद ही इस दुनिया में आज कोई स्त्री अकेलेपन का बोझ ढोती हुई, विधवा कहलाती। केवल सिंगार करने से ही सब कुछ ठीक-ठाक रहता तो कोई पत्नी-पति की इतनी देखभाल ना करती अपने मन में उसके प्रति सम्मान और आधा भाव रखने की फिर क्या जरूरत रह जाती वह तो केवल सिंगार करके बैठ जाती और सदा सुहागन ही कहलाती। माफ कीजिएगा, लेकिन, इस प्रकार के मत से व्यक्तिगत तौर पर मैं सरोकार नहीं रखती। यदि यह मान भी लिया जाए कि जीवनसाथी का आपस में ऐसा संबंध होता है कि एक के किसी एक क्रियाकलाप से दूसरे का भाग्य सवाने लगता है तो यहां केवल महिलाएं ही इस दौड़ में आगे क्यों आए? क्या पुरुषों को नहीं लगता कि उन्हें भी अपनी पत्नियों के लिए कुछ ऐसा खास करना चाहिए जिससे उनके उस प्रण से उनकी पत्नियों की आयु लंबी हो और उनके भाग्य के सितारे भी बुलंद हो। आजकल देखा गया है कि बहुत से पति इस प्रकार का प्रण लेते हैं जैसे बहुत से पति करवा चौथ पर पत्नी के साथ व्रत रखते हैं और चांद देखकर ही अपना व्रत खोलते हैं अपनी बात करूं तो मुझे यह सब बहुत अच्छा लगता है। एक दूसरे के लिए भूखे रहने का कोई वैज्ञानिक आधार तो नहीं है, किंतु हां, एक दूसरे के प्रति प्यार और केयर दिखाने का इससे अच्छा तरीका मुझे नहीं लगता, खैर यहां सबका अपना-अपना मत होता है। अंत में मैं तो सिर्फ इतना ही कहना चाहूंगी कि किसी व्यक्ति का भाग्य किसी दूसरे के क्रियाकलापों से नहीं अपितु उसके अपने कर्मों से जुड़ा होता है जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल भोगना होता है फिर चाहे वह स्त्री अथवा पुरुष; पति हो अथवा पत्नी।कहा भी तो गया है कि "जिसका जितना है आंचल यहां पर उसको सौगात उतनी मिलेगी। जैसे बुखार होने की स्थिति में उससे होने वाला कष्ट केवल वही व्यक्ति भोगता है जिसे बुखार हुआ है, बाकी दूसरे व्यक्ति उस दुख से दुखी जरूर हो सकते हैं किंतु उस पीड़ा का अनुभव केवल और केवल बीमार व्यक्ति को ही होता है।।" एक बात और इन सोलह सिंगार और सजने सवरने को मैं ढकोसले का नाम नहीं देना चाहूंगी क्योंकि यदि कोई स्त्री इन्हें अपने पूरे मन और श्रद्धा के साथ निभाना चाहती है, तो यह उसका व्यक्तिगत मामला है। आत्म संतुष्टि आखिर हर चीज से बढ़कर होती है। हां, यदि यह सब चीजें उसके अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह उठने लगे और उसे बंदिशें जान पड़ें, तो मुझे नहीं लगता कि किसी भी स्त्री को इन परंपराओं का दबकर पालन करना चाहिए। जीने का हक जितना पुरुष को है उतना ही स्त्री को भी मिलना चाहिए। दोनों को खुले माहौल में सांस लेने का अधिकार है। अनुशासन का महत्व दोनों के लिए एक बराबर है इसलिए अपने चरित्र को मजबूत करते हुए स्त्री और पुरुष दोनों को ही एक दूसरे को पूरे मन से अपनाना चाहिए और मन से ही उन सभी रीति-रिवाजों को निभाना चाहिए। जिन्हें वे खुद अपनी मर्जी और पूरे दिल से निभाना चाहते हैं, न कि किसी अंधविश्वास और रूढ़िवादिता को अपना धर्म मानकर। ************

  • कठिनाईयां

    एक धनी राजा ने सड़क के बीचों-बीच एक बहुत बड़ा पत्थर रखवा दिया और चुपचाप नजदीक के एक पेड़ के पीछे जाकर छुप गया। दरअसल वो देखना चाहता था कि कौन व्यक्ति बीच सड़क पर पड़े उस भारी-भरकम पत्थर को हटाने का प्रयास करता है। कुछ देर इंतजार करने के बाद वहां से राजा के दरबारी गुजरते हैं। लेकिन वो सब उस पत्थर को देखने के बावजूद नजरअंदाज कर देते हैं। इसके बाद वहां से करीब बीस से तीस लोग और गुजरे लेकिन किसी ने भी पत्थर को सड़क से हटाने का प्रयास नहीं किया। करीब डेढ़ घंटे बाद वहां से एक गरीब किसान गुजरा। किसान के हाथों में सब्जियां और उसके कई औजार थे। किसान रुका और उसने पत्थर को हटाने के लिए पूरा दम लगाया। आखिर वह सड़क से पत्थर हटाने में सफल हो गया। पत्थर हटाने के बाद उसकी नजर नीचे पड़े एक थैले पर गई। इसमें कई सोने के सिक्के और जेवरात थे। उस थैले में एक खत भी था जो राजा ने लिखा था कि ये तुम्हारी ईमानदारी, निष्ठा, मेहनत और अच्छे स्वभाव का इनाम है। जीवन में भी इसी तरह की कई रुकावटें आती हैं। उनसे बचने की बजाय उनका डटकर सामना करना चाहिए। शिक्षा : मुसीबतों से डर कर भागे नहीं, उनका डटकर सामना करें। *************

  • अपूरणीय क्षति

    नीति और निहाल माता पिता बनने की खबर सुनकर बहुत ही उत्साहित थे और अपने मन में अपने अजन्मे बच्चे की तस्वीर को सजाने लगे थे। बच्चे के जन्म के बाद वे उसका क्या नाम रखेंगे ,उसे कौन से स्कूल में पढाएंगे, बड़ा होकर उसे क्या बनाएंगे इत्यादि इत्यादि सोच कर दोनों ही बहुत अधिक प्रसन्न हो रहे थे। उनके साथ घर के सभी सदस्य भी आने वाले मेहमान की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे। नीति की इंजीनियरिंग का वह अंतिम वर्ष था जिसके पश्चात उसे बीटेक की डिग्री मिलने वाली थी। घर के कामकाज के साथ-साथ नीति पढ़ाई में भी बहुत ही तेज और होशियार थी। वह जिस भी काम को करती थी बहुत ही शिद्दत के साथ करती थी, चाहे, फिर वह घर का काम हो अथवा पढ़ाई लिखाई। गर्भावस्था के पांचवे महीने में उसके एग्जाम की डेट शीट आई और वह जी जान से पढ़ाई में जुट गई। पढ़ाई में कभी-कभी वह इतना अधिक मशगूल हो जाती थी कि उसे अपने खाने-पीने तक का ध्यान नहीं रहता था। पिछले महीने ही चेकअप करने के पश्चात डॉक्टर ने उसे अच्छी डाइट लेने की सलाह दी थी क्योंकि उसके शरीर में खून की कमी थी। परंतु परीक्षाओं के दबाव में नीति इन सब बातों को दरकिनार कर अपना ध्यान केवल और केवल अपने आने वाले एग्जाम पर ही केंद्रित करना चाहती थी इसलिए वह खाने-पीने में कोताही बरतने लगी। अभी उसके पेपर शुरू भी नहीं हुए थे कि उसे कुछ अजीब सा महसूस होने लगा। उसे बार-बार यह शंका होती थी कि उसके गर्भ में पल रहे बच्चे की हलचल कुछ ज्यादा नहीं है। परंतु पढ़ाई के बोझ तले दबे होने की वजह से वह इन बातों को अपना वहम सोच कर एक तरफ करती रही। अपनी मां से जब उसने यह बात शेयर की तो उसकी मां ने उसे समझाया कि पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान ना देते हुए उसे अपने बच्चे पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए और यदि बच्चे की हलचल कम महसूस हो रही है तो उसे दिन में दो से तीन बार शक्कर वाला मीठा पानी पीना चाहिए क्योंकि गर्भ में कभी-कभी बच्चे सुस्त पड़ जाते हैं और मीठा पानी और तरल पदार्थ शरीर के भीतर जाने से बच्चे पुन: हिलना डुलना शुरू कर देते हैं। उनके लिए मीठा पानी एनर्जी बूस्टर का काम करता है जिससे उनकी मूवमेंट अच्छी हो जाती है। मां की बात पर भी ज्यादा ध्यान ना देते हुए नीति पढ़ाई में ही व्यस्त रही और उसने मीठा पानी 2 से 3 बार तो क्या दिन में एक बार भी नहीं पिया। 3 से 4 दिन बीत जाने के पश्चात जब उसे बच्चे की हलचल बिल्कुल महसूस होनी बंद हो गई तो अंतत: उसने यह बात अपनी सासू मां को बताई। सासू मां उसकी यह बात सुनकर काफी चिंतित हुई और तुरंत उसे डॉक्टर के पास ले गई। डॉक्टर ने उसका चेकअप किया और उसे बिना कुछ बताए केबिन के बाहर चली गई। डॉक्टर का यह व्यवहार देखकर सासू मां काफी घबरा गई। निहाल भी कुछ समझ नहीं पा रहा था कि आखिर माजरा क्या है, क्यों डॉक्टर कुछ जवाब नहीं दे रही है। उनके बार-बार पूछने के बाद डॉक्टर ने बताया कि उन्हें बच्चे की धड़कनें कुछ समझ नहीं आ रही है इसलिए बच्चे की सही पोजीशन देखने के लिए उन्हें अब नीति का अल्ट्रासाउंड करना पड़ेगा जिसके लिए अभी उन्हें थोड़ा इंतजार करना होगा क्योंकि अल्ट्रासाउंड करने के लिए उनका रेडियोलॉजिस्ट शहर के बाहर है और उन्हें दूसरा रेडियोलॉजिस्ट पास वाले हॉस्पिटल से बुलाना होगा। 1 घंटा बीत जाने के पश्चात अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट डॉक्टर ने निहाल और उसकी मां के साथ साझा की। डॉक्टर ने बताया कि बच्चे की धड़कन बंद हो चुकी है और वह भीतर ही अपना दम तोड़ चुका है। यदि जल्दी ही उसे बाहर नहीं निकाला गया तो नीति की जान को भी खतरा हो सकता है। साथ वाले कमरे में लेटी नीति ने उनकी बातें सुन ली। सुनकर उसकी चीख निकल पड़ी वह जोर-जोर से रोने लगी और "यह सब झूठ है, ऐसा नहीं हो सकता, मेरे बच्चे को कुछ नहीं हुआ है "कहकर उठने की कोशिश करने लगी। परंतु जैसे ही उसने उठने की कोशिश की उसे चक्कर आया और वह बेहोश होकर वहीं गिर पड़ी। पास खड़ी नर्स ने बामुश्किल उसे संभाला और बिस्तर पर लेटाया। नीति की प्रीमेच्योर डिलीवरी की गई और नीति के अत्यंत कष्ट सहने के बाद उसके मृत शिशु को बाहर निकाला गया जिसे देखकर नीति के ससुराल वाले और सगे संबंधी फूट-फूट कर रोने लगे। होश में आने के बाद नीति को पछतावा हुआ कि उसने समय रहते अपनी मां और डॉक्टर की बात मानकर अच्छी डाइट क्यों नहीं ली, क्यों वह परीक्षाओं में इतनी उलझी रही, क्यों उसने अपने कैरियर को अपने बच्चे से अधिक महत्व दिया, क्यों वह उसको बचा नहीं पाई। अगर वह उस समय अपने खानपान पर उचित ध्यान देती तो शायद आज उसका अजन्मा बच्चा उस से सदा-सदा के लिए दूर नहीं होता। नीति आज भी अपने उस अजन्मे बच्चे की हत्या के लिए खुद को जिम्मेदार और गुनहगार मानती है और प्रायश्चित की अग्नि में दिन-रात जलती है क्योंकि उसका यह दुख अब जीवन भर उसके साथ ही रहेगा। ***********

  • एक हमसफर ....

    प्रतापगढ़ से लालगंज का सफर बहुत कष्टदायक था। मेटाडोर यात्रियों से खचाखच भरी थी और तेज ठंड में भी उमस और उलझन महसूस हो रही थी। हर तरह की सांसें एक दूसरे से उलझ रही थी और एक ऐसी गंध का निर्माण कर रही थी, जो असहनीय होती जा रही थी। पाद की गंध, इत्र की सुगन्ध और सांसों से झिरती, प्याज, लहसुन, सिगरेट-बीड़ी और तम्बाकू-खैनी की रसगंध एकसार होकर बेचैन किए थी। मैं अपनी किस्मत को कोस रहा था कि पहले मैं ड्राइवर की बगल वाली सीट पर बैठा था, अकेला। परन्तु जब ड्राइवर कम कंडक्टर ने एक-एक करके तीन आदमी उस सीट पर बैठाये तो मैं झुंझला कर बोल उठा, आप गाड़ी कैसे चलाओगे,? खुद कहाँ बैठोगे? ‘यह मेरा काम है, मैं कर लूंगा। ‘उसने गर्व मिश्रित साधिकार घोषणा कीं।’ मैंने असमंजस में आकर पीछे बैठना ही बेहतर समझा। वहाँ, कमोवेश गिरने का डर तो नहीं रहेगा, और उस समय पीछे की सीटें पूर्णरूपेण भरी नहीं थीं, और मुझे तनिक भी आशंका नहीं थी कि, पीछे की स्थिति भी बदतर हो जायेगी। वैसे भी ड्राइवर के साथ वाली जगह पर इस इलाके के प्रभावशाली लोग ही बैठते थे। इस जगह पर उनका अघोषित आरक्षण था। मुझ जैसे का उनके साथ बैठना उन्हें असहज बना रहा था। एक दो बार इशारों से और वाक्यों से मुझे पीछे आराम से बैठने की सलाह, ड्राइवर और तथाकथित उच्च लोग दे चुके थे। परन्तु वहाँ बैठकर मैं भी अपने को विशिष्ट समझने का भाव लिए था। मेरे वहाँ से उतर कर पीछे चले जाने से, उन लोगों के चेहरे से हार्दिक संतुष्टि का भाव प्रगट हो रहा था। मेटाडोर के पीछे वाले हिस्से में दो लम्बी-लम्बी सीटें थीं, जिन पर चार-चार लोग आसानी से बैठ सकते थे। परन्तु उसने देखते ही देखते उनमें छै-छै व्यक्ति खिसका-खिसका कर व्यवस्थित कर दिए थे। मैं आगे और पीछे की सीटों पर बैठने की प्राथमिकताओं और उपयोगिताओं के गणित में उलझ कर रह गया था। मेरे सामने की सीट पर चार औरतें थीं और दो आदमी। उसमें तीन औरतें और दोनों आदमी साठ-सत्तर के आसपास बूढ़े और थके थे। सिर्फ एक औरत जवान थी, शायद काली सी। वह घूंघट लिए थी और उसकी गोद में एक डेढ़ साल का बच्चा था, उस जैसा ही। उस बच्चे वाली औरत के दांत सफेद मोती जैसे थे जो घूंघट में चमक रहे थे। बच्चा अकसर रो उठता था, जिसे चुप कराने के लिए उसे छाती से सटाकर दूध पिलाना पड़ता था, जिसके लिए उसे काफी सावधानी रखनी पड़ती थी, कि कोई नजर उसका पोषण अंग देख न ले। जिस सीट पर मैं बैठा था उसमें एक कम उम्र का जवान लड़का गेट की तरफ, दो अधेड़ औरतें, एक मुच्छड़ अधेड़, एक मैं और मेरे बगल में, ड्राइवर की सीट के एकदम पीछे एक पर्दानशीन। ड्राइवर के साथ एक पुलिस वाला एक ठेकेदार और एक अध्यापक था, जो जोर-जोर से बातें और बहस कर रहे थे। एक तो बोरियों की तरह ठुसे, ऊपर से बोरियत का आलम, कहीं कोई खूबसूरती का चिह्न नहीं था। मैं कसमसाया और अन्दर चारों तरफ नजर दौड़ाई, मगर अफसोस उस यात्रियों से भरी मेटाडोर में कहीं कोई रोमांस लायक नहीं था। सारे चेहरे थके बोझिल और बूढ़े थे। ज्यादातर अधेड़ मुच्छड़ या झुर्रियों भरे चेहरे थे। मैं खूबसूरती की तलाश में था। बच्चे वाली काली नवयौवना घूंघट की आड़ से अकसर मुझे देख लेती थी, जब मेरी नजरें कहीं और होती थी। उसका चेहरा तो ठीक से नहीं देख पाता था परन्तु पोषण वाली जगह अकसर दृष्टि पड़ जाती थी। वह झट से बच्चे का दूध छुटाकर अपने को पूरा ढक लेती थी। मेरी खूबसूरती की तलाश पर्दानशीन पर आकर अटक गई थी। वह बुरके में थी। लड़की, नवयुवती या स्त्री? उसका कोई भी अंग, या कोर नहीं दिख रहा था, जिससे खूबसूरत, बदसूरत का अंदाजा लग सकें। खूबसूरती की खोज में असफल, निराश और यह सोच कर कि सुन्दरता के दर्शन दुर्लभ हैं, मैंने आंखें बंद कर लीं। कुछेक पलों बाद मैंने आंखें खोलीं तो देखा घूंघट वाली अपने बच्चे को दूध पिला रहा थी, मगर उसकी आंखें मुझ पर स्थिर थीं मैं अचकचाया और अपनी दृष्टि पर्दानशीन पर फेर दी। उसकी आंखें भी महीन जालियों में कैद थीं। बड़ी कोफ्त हो रही थी। अचानक उसने बुरके की जेब से हाथ बाहर निकाला और अपने चेहरे पर फेरते हुए मद्धिम स्वर में कहा, ‘‘आह! क्या आफत है? मेरी सांस न घुट जाये।‘‘ उसके हाथ और साइड से चेहरे की झलक पाकर, मुझे आभास हो गया कि यह लड़की बला की खूबसूरत होगी। मुझे लगा सुन्दरता हर जगह होती है, तलाश करनी पड़ती है। मैं उसे कनखियों से देख लेता। अब मेरा ध्यान सिर्फ उसी पर केन्द्रित था कि कैसे पूर्ण चांद दिख जाये! मैंने एक नजर चारों ओर दौड़ाई, सब ऊब और ऊँघ रहे थे। सायं के सात बज रहे थे। रात का अंधेरा घिर आया था। गाड़ी अपनी गति से चल रही थी और हर आधा-एक किमी पर गाड़ी रुकती सवारियां उतारती और चढ़ाती थी। परन्तु यात्रियों की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं आ रहा था। पर्दानशीन हसीना ने व्याकुल होकर अपने चेहरे के हिजाब को उलट दिया और मेरी तरफ मुखातिब होकर बोली, ‘बड़ी बेबसी है, घुटन है।‘ मैं हतप्रभ उसकी ओर अपलक निहारता ही रह गया। उसके चेहरे पर अजीब सा आकर्षण और सम्मोहन था, जिसने मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया था। वह बला की खूबसूरत थी और उसका बदन तराशा हुआ था। उसकी आंखों में बेपनाह गहराई थी। वह मेरी तरफ उत्सुक नजरों से देख रही थी। मैं प्रतिक्रिया विहीन, भावशून्य अवस्था में शब्दहीन और अर्ध व्याकुल था। कई सारी जोड़ी आंखें, उस पर केन्द्रित हो गयीं तो झट से उसने अपना चेहरा ढक लिया और मैं चेतन अवस्था में आ गया। मैंने सोचा इश्क करने के लिए उससे ज्यादा उपर्युक्त कोई नहीं होगा। कम से कम जिंदगी में एक अदद गर्लफ्रेन्ड होना जरूरी है, जिससे मैं अभी तक महरूम था। मेरी तलाश पूर्ण हो चुकी थी। मैंने मन ही मन अपनी दीदी का शुक्रिया अदा किया, जिन्होंने कुछ समय के लिए छुट्टियों में अपने साथ रहने को बुलाया था। लीलापुर आ गया था। कई सवारियां उतरी थीं। बच्चे वाली औरत गायब थी, वह कब उतर गई पता ही न चला। यहाँ पर कोई सवारी नहीं चढ़ी। मेटाडोर कुछ हल्की हो गयी थी। राहत सी महसूस हो रही थी कुछ तरह की गंधों और उमस से निजात मिली थी। ‘ठीक से बैठ जाइये।‘ हसीना बोली। मैं खिसक के बैठ गया। उसने खाली स्थान की पूर्ति कर दी। अब भी उसका जिस्म मेरे शरीर के सम्पर्क में था। काफी अच्छा लग रहा था। मैं सीट को बायें हांथ से पकड़े था, सम्भावित धचके से बचने के लिए। उसने कुछ सोचा और अपनी हथेली मेरे हाथ पर टिका दी। एक करंट हाथों से होता हुआ मन मस्तिष्क पर पहुंच गया। खून का प्रवाह रूक गया, प्यार का आवेग चल पड़ा। मैं बुखार में दग्ध हो उठा था। मैं जड़वत वैसा ही बैठा रहा। ‘नये हो?‘ मेरा हलक सूख गया। हाँ, और आप? ‘यहीं की हूँ। लाल गंज घर है। प्रताप गढ़ में सर्विस करती हूँ। ‘आप स्टूडेंन्ट हैं?‘ ‘सही अनुमान है, आपका। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में एम0ए0 का छात्र हूँ। एक लम्बी खामोशी। सफर जारी था। उसकी हथेली हल्के-हल्के मेरी हथेली को दबा रही थी। मादकता की अनुभूति हो रही थी। लालगंज आने वाला था, ड्राइवर ने चेताया, किराया निकाल कर रख लो। लालगंज में उस समय बिजली आ रही थी इस कारण रोशन हो रहा था लालगंज। मेटाडोर एक झटके से रूकी और हम दोंनों एकदम सट गये। लड़की ने मेरी तरफ मद्धिम खुमार भरी, उत्सुक नजरों से देखा। उसकी निगाहें शायद खुलकर दिल का राज कह देना चाहती थी, मगर कामयाब न हो सकी। उन आंखों में एक हल्की सी चमक पैदा हुई, परन्तु गुम हो गई। सारे यात्री मेटाडोर से उतरते जाते और किराया देते जाते थे। ड्राइवर ने उसकी तरफ देखा, लड़की ने मेरी तरफ देखा। ड्राइवर बोला, ‘साथ में हो?‘ हम दोंनों में से कोई नहीं बोला। उसने दोनों का किराया मेरे से काट लिया। हम दोंनों साथ-साथ चल रहे थे। कालाकांकर रोड में दीदी का घर था, मैं एक बार पहले भी आ चुका था। शायद उस हसीना का घर भी उधर होगा। एकदम से लालगंज की बिजली गुम हो गयी और वह मुझसे सट गई। उसने मेरी बांह पकड़ ली थी और बाह पकड़े-पकड़े ही चल रही थी। रोमान्टिकता फिर चल पड़ी थी। मैंने फ्रेंड बनाने की गरज से उसका नाम पूछा। ‘तरन्नुम।‘ और आपका? ‘आनन्द। मुझसे दोस्ती करोगी? ‘जरूर। क्यों नहीं?‘ मैंने अपना कान्टेक्ट नम्बर दिया। उसने नहीं दिया। रास्ता खामोशी और रोमांस से तय हो रहा था। मैं प्रसन्नता के उच्चतम शिखर पर था गर्वानुभूति से घिरा हुआ। अप्रत्याशित रूप से उस हसीन दोस्त का मिलना किसी सौगात से कम नहीं था। अचानक वह रुकी, उसने मेरी हथेली, अपनी हथेलियों से रगड़ी, और बोली ‘काम ..............काम नहीं करोगे?‘ ‘काम।.............काम का मतलब? लड़की ने अपने दोनों हाथों की अंगुलियों से मेरी दोनों हथेलियों को गुदगुदाया .......काम ........नहीं जानते.......? उसने मेरी आंखों में अपनी आंखें डाल दीं। उसकी आंखों में नशा था, आमंत्रण था। मगर मैं संज्ञा शून्य हो चुका था। उसका यह रूप देखकर मैं पाषाण बन चुका था। मेरी कल्पनाओं और भावनाओं को भयानक आघात लगा था। हसीना फिर लड़की में तबदील हो चुकी थी। ‘तो, ये काम करती हो?‘ ‘हां, क्या करें,? मजबूरी है।‘ ऐसी क्या मजबूरी है? मैं नार्मल हो चुका था। उसकी आंखें नम थीं। गला रूंध गया था। उसने धीमे और बोझिल आवाज में कहा। हम अब्बू अम्मी को मिलाकर दस जने का परिवार। अब्बू बढ़ई का काम करते हैं। खाने के लाले पड़े रहते हैं। फिर बढ़ई गिरि कभी चलती है, कभी नहीं। घर का खाना-खर्चा और भाई बहिनों की पढ़ाई लिखाई कैसे चले? अब्बू की बढ़ईगीरी से दो जने का भी खर्चा नहीं निकल सकता। मैं घर में सबसे बड़ी, मुझे भी तो घर की जिम्मेदारी निभानी है। नवीं पास, मैं और क्या काम कर सकती हूँ। मैं आगे नहीं पढ़ पाई तो क्या मेरे भाई बहिन भी पढ़ाई-लिखाई से महरूम रहें? उन्हें तो योग्य बना दूँ। उसने मेरा हाथ छोड़ दिया था और कुछ अलग हट कर खड़ी हो गई थी। ‘ऐसी मजबूरी की दास्तान तो हर गलत काम करने वाला सुना देता है।‘ उसने गमगीन अविश्वसनीय निगाहों से मुझे देखा भर था और मेरी बर्फ पिघलने लगी थी। लड़की कुछ पल रूकी फिर उसने मेरी नजरों में झांका। शायद मेरी आंखों में अपनी बातों की सच्चाई परख रही हो, और फिर बोली आज शहर के होटल में बुलाया था, परन्तु कस्टमर शाम को ही वापस दिल्ली लौट गया। इसलिए मेरा काम नहीं हुआ। मैंने सोचा तुम नये हो तलाश में भी दिखे शायद एक रात की दुल्हन का अनुभव करना चाहोगे? परन्तु तुम तो .......। खैर............। यह पहली बार नहीं है कि काम से खाली लौटी हूँ।‘ उस लड़की की आंखों में निराशा, हताशा पसर गई थी और मैं मुजरिम की तरह खड़ा, अपना गुनाह कबूल करने की तरफ अग्रसर था। मुझे लगा, मुझे दण्ड मिलना चाहिए, उस गुनाह की सजा जो मैंने अनजाने में की थी। उसकी उम्मीदों को ठोकर मारकर। मैंने अपना पर्स निकाला और कुछ एक रूपये छोड़कर, सारे रूपये उसकी हथेली में रखकर उसकी मुटठी बंद कर दी। उसकी नरम और नाजुक हथेलियां बर्फ की तरह ठंडी पड़ चुकी थीं। ‘गुड बाई।‘ मैंने जल्दी में कहा, और तेज कदमों से उसे छोड़कर बढ़ गया था। मैं उससे इतनी दूर आ गया था कि वह हसीन बला पूरी तरह नजरों से ओझल हो चुकी थी। ********

  • जो पास है वही खास है।

    यह सत्य है कि जीवन में हर व्यक्ति की कुछ इच्छाएं, आकांक्षाएं, अभिलाषाएं और चाहतें होती हैं और ऐसा होना गलत भी नहीं है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज में रहते हुए इन सब चाहतों का आकांक्षाओं का होना स्वाभाविक ही है। जिंदगी में आगे बढ़ने के लिए भी इनकी मौजूदगी अति आवश्यक हो जाती है क्योंकि यदि इंसान के मन से इच्छाओं का ही अंत हो जाए तो उसका जीवन नीरस हो जाता है आगे बढ़ने की उसकी सभी इच्छाएं वही खत्म हो जाती हैं। हमारी इच्छाएं , आकांक्षाएं हमें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित और प्रेरित करती हैं। अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए हम मेहनत करते हैं, संघर्ष करते हैं और मनचाहा प्राप्त करने के लिए जी तोड़ कोशिश करते हैं। परंतु यदि यही इच्छाएं, आकांक्षाएं, अभिलाषाएं, महत्वकांक्षा का रूप ले लेती हैं, तो एक सीमा के पश्चात यह हमारे लिए दुख का कारण बन सकती हैं। जैसा कि मैंने ऊपर भी कहा कि इच्छाएं और आकांक्षाएं रखना कतई गलत नहीं है परंतु यदि यह महत्वकांक्षा बन जाती है और हमारे ऊपर हावी होने लगती है तो उन्हें उसी वक्त रोकने की भी उतनी ही आवश्यकता हो जाती है जितनी की इच्छाओं को तमाम उम्र अपने जीवन में बनाए रखने की। अक्सर देखा जाता है कि हमारे पास जो चीजें उपलब्ध होती हैं हमें उन में संतोष नहीं होता है। एक सीमा तक तो यह बात सही प्रतीत होती है कि हमें हमेशा ऊंचाइयों की ओर देखना चाहिए, आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए जीवन में तरक्की और प्रगति हासिल करने के लिए सदैव प्रयासरत रहना चाहिए। किसी भी परिस्थिति में हार नहीं माननी चाहिए, अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए हमें यथासंभव प्रयत्न करने चाहिए और जब तक अपना लक्ष्य प्राप्त ना कर लें हमें रुकना नहीं चाहिए। परंतु प्रत्येक वस्तु और बात की एक सीमा भी तय होती है और हमें उस सीमा का हमेशा ध्यान रखना चाहिए। यदि कभी हमारी महत्वकांक्षा इस कदर बढ़ जाती है कि वह हम पर हावी होने लगती हैं तो हमारे जीवन से खुशियों और सुखों का ह्रास होने लगता है, हमारी बेचैनियां बढ़ने लगती हैं और हम हमेशा व्यथित रहना प्रारंभ कर देते हैं। मन में उपापोह की स्थिति सी बनी रहती है। दूसरे के महलों को देखकर अपनी झोपड़ी में आग लगा देना कहां की समझदारी है ।हमें अपने सीमित संसाधनों के भीतर रहकर ही अपने जीवन को आगे बढ़ाना चाहिए। दूसरों के पास रखी चीजों की चमक दमक को देखकर हमें खुश अवश्य होना चाहिए परंतु वैसा ही सब कुछ हमें भी मिल जाए इस चीज के लिए उन्मादी होना भी सही नहीं है। दूसरों की होड़ करना गलत नहीं है, परंतु उस होड को प्रतिस्पर्धा ना समझ कर जुनून समझ लेना समझदारी नहीं कही जा सकती। इस प्रकार का उन्माद हमें हम से ही दूर कर देता है और हम अपने साथ-साथ अपनों से भी दूर होने लगते हैं। बात यदि रिश्तों की जाए तो यदि हम अपने किसी रिश्ते के प्रति कुछ कमी महसूस करते हैं अर्थात यदि हम अपने संबंधों से संतुष्ट नहीं होते हैं तो हमें उसकी जड़ में विद्यमान समस्या का निराकरण और समाधान ढूंढना चाहिए ना कि उस संबंध को तोड़कर किसी अन्य संबंध मे से खुद को जोड़ लेना चाहिए। रिश्ते हमारे जीवन की बुनियाद होते हैं, रिश्तों की डोर इतनी कच्ची नहीं होनी चाहिए कि आप जब चाहे उन्हें तोड़ सकें क्योंकि रिश्ते टूटने से केवल रिश्ते ही नहीं टूटते, अपितु हमसे हमारे अपने भी छूट जाते हैं और अपनों के बिना जिंदगी क्या होती है यह केवल वह इंसान समझ सकता है जिसने जीवन में कभी अपनों को खोया हो। आप लोगों ने अक्सर सुना पढा होगा कि जो पास है वही खास है। यह बात शत प्रतिशत सत्य है क्योंकि जो आपके पास होता है वही अक्सर अपना होता है। दूसरे लोग हमारे मित्र, हमारे संबंधी, हमारे रिश्तेदार हो सकते हैं परंतु हर रिश्ते की अपनी एक गरिमा, एक सीमा होती है। रिश्तों में असमंजस लेकर चलना सही नहीं, हर रिश्ते में शीशे सी पारदर्शिता और स्पष्टता का होना बहुत ही आवश्यक है। अक्सर हमारे पास जो रिश्ते, जो संबंध होते हैं वही हमारे जीवन में कारगर सिद्ध होते हैं। रिश्तों में तनाव तो आते जाते रहते ही हैं, परंतु उन तनावों के चलते रिश्तों को ही खत्म कर देना किसी भी सूरत में सही नहीं माना जा सकता। जो हमारे पास है उसे भूल कर जो हमारे पास नहीं है उसके पीछे दौड़ना मूर्खता ही कही जा सकती है। माना कि, खूबसूरती और अच्छाई हमें आकर्षित करती है परंतु आकर्षण और खिंचाव कभी भी स्थाई नहीं हो सकते। इसलिए रिश्तों को बेवजह गलतफहमियों का शिकार न होने दें, उनको असमय तिलांजलि ना दें, उन्हें संभाले और उनकी खूबसूरती को बढ़ाने के लिए अपना शत प्रतिशत दें। ऐसा कर आपको आत्म संतुष्ट तो मिलेगी ही साथ ही साथ हमारी रिश्तों के प्रति समझदारी भी पहले से कहीं अधिक विकसित होगी। **********

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