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और आँखें खुल गई

एक जंगल के निकट एक महात्मा रहते थे। वे बड़े अतिथि-भक्त थे। नित्यप्रति जो भी पथिक उनकी कुटिया के सामने से गुजरता था, उसे रोककर भोजन दिया करते थे और आदरपूर्वक उसकी सेवा किया करते थे।
एक दिन किसी पथिक की प्रतीक्षा करते-करते उन्हें शाम हो गई, पर कोई राही न निकला। उस दिन नियम टूट जाने की आशंका में, वे बड़े व्याकुल हो रहे थे कि उन्होंने देखा, एक सौ साल का बूढ़ा, थका-हारा चला आ रहा है। महात्मा जी ने उसे रोककर हाथ-पैर धुलाए और भोजन परोसा। बूढ़ा बिना भगवान का भोग लगाए और बिना धन्यवाद दिए, तत्काल भोजन पर जुट गया। यह सब देख महात्मा को आश्चर्य हुआ और बूड़े से इस बात की शंका की। बूढ़े ने कहा - "मैं तो अग्नि को छोड़कर किसी अन्य देवता को ईश्वर नहीं मानता हूँ।"
महात्मा जी उस बूढ़े बात सुनकर बड़े क्रुद्ध हुए और उसके सामने से भोजन का थाल खींच लिया तथा बिना यह सोचे कि रात में वह इस जंगल में कहाँ जाएगा, कुटी से बाहर कर दिया। बूढ़ा अपनी लकड़ी टेकता हुआ एक ओर चला गया। रात में महात्मा जी को स्वप्न हुआ, भगवान कह रहे थे- "साधु उस बूढ़े के साथ किए तुम्हारे व्यवहार ने अतिथि सत्कार का सारा पुण्य क्षीण कर दिया।"
महात्मा ने कहा- "प्रभु! उसे तो मैंने इसलिए निकाला कि उसने आपका अपमान किया था।" प्रभु बोले- "ठीक है, वह मेरा नित्य अपमान करता है तो भी मैंने उसे सौ साल तक सहा, किंतु तुम एक दिन भी न सह सके।" भगवान अंतर्धान हो गए और महात्मा जी की भी आँखें खुल गई।

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