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- अवीर गुलाल की होली
चंपक वन में होली मनाने की तैयारी में सभी जानवर जी जान से जुटे हुए थे। क्या छोटा क्या बड़ा सभी जानवर अपनी-अपनी खरीदारी में लगे हुए थे। चंपक वन का प्रधान मंत्री टनटन हाथी ने सारे चंपक वन में मुनादी करवा दी कि इस साल हमारे घर आ कर सभी जानवरों को होली मनानी होगी। होली पर सभी को बढ़िया बढ़िया पकवान खाने को मिलेगा। तथा बेहतरीन होली खेलने वाले जानवर को हमारे तरफ से पुरस्कार भी दिया जाएगा। मुनादी सुन कर सारे जानवर बहुत खुश हुए। होली के दिन प्रधान मंत्री टनटन हाथी के घर जानवरों का आना शुरू हो गया। सबसे पहले मिन्टू हिरन, बिट्रटू जेबरा और ओम ओम भालू एक साथ पधारे। फिर बारी-बारी से छोटू खरगोश, चिन्टू गैड़ा, बंटू बंदर, विकी सियार, चुन्नू चूहा, रिंकी गिलहरी और लम्बू जीराफ आकर जमा हो गए। प्रधान मंत्री टनटन हाथी का दोस्त मिन्टू हिरन पूछ पड़ा यार टनटन तुम्हारे इस होली प्रोग्राम में दारा शेर, बीरू बाघ, चंदू चीता और यीशु गैंड़ा अभी तक क्यों नही आए? हमें क्या पता क्यों नही आए मगर बुलावा तो हमने सबको दिया था। क्या पता वे सब कहीं और गए हो और देर से आए तब तक आप सब जानवर मिल कर भोजन कीजिए प्रधान मंत्री टनटन हाथी कह कर चुप हो गए। कुर्सी पर बैठे सभी जानवरों के आगे लगे मेज पर पकवानों से भरी थाली मोनू वनमानुष द्वारा रखा जाने लगा। सारे जानवर अपनी-अपनी थाली में गोझियां, मालपुआ, खड़पुडी, गुलगुला, रसगुल्लापुड़ी, पोलाव, मटर-पनीर तथा सलाद देख कर खुशी से फुले नही समाए। खाने की थाली अपनी ओर खिंच कर सभी जानवर खाना खाने लगे। तभी एक चमचमाती गाड़ी से दारा शेर, बीरू बाघ, चंदू चीता और यीशु गैड़ा वहां आए और गाड़ी से बाहर निकल कर खाने की कुर्सी पर जा बैठे। तभी प्रधान मंत्री टनटन हाथी सबसे पूछ पड़ा आप सब को आने में इतना देर क्यों हो गई? इतना सुनना था कि दारा शेर बोल पडा हम चारों मित्रों को होली मनाने के लिए नंदन वन के राजा पहलवान शेर का बुलावा आ जाने से हम सब वहीं होली खेलने चले गए थे। इसलिए यहां आने में देर हो गई। मोनू वनमानुष ने चारो मित्रों के सामने पकवानों से भरी थाली खाने के लिए रख दिए। सभी मित्र एक साथ खाना खाने लगे। खाना खाने के बाद होली खेलने के लिए अपनी-अपनी पिचकारी और रंग अपने-अपने हाथों में उठा लिया। तभी दारा शेर बोल उठा हम सब नंदन वन से अवीर गुलाल की होली खेल कर आ रहे हैं, इसलिए हम चाहते हैं यहां पर भी अवीर गुलाल की होली खेली जाए। ताकी हम जहरीले केमिकल वाले रंगों से बच सकें। हमारा सुझाव सबको पसंद है तो हां या ना में जवाब दे। दारा शेर की बात सुन कर सारे जानवर एक साथ बोल पड़े हम सब अवीर गुलाल की होली खेलना चाहते है। इतना सुनना था कि दारा शेर, टनटन हाथी और सारे जानवर एक दूसरे के माथे और गाल पर अवीर गुलाल लगा कर खूब मजे से होली मनाने लगे। होली समाप्त होते ही प्रधान मंत्री टनटन हाथी ने घोषण की इस साल दारा शेर ने हम सब को अवीर गुलाल की होली खेलने की बात बता कर बहुत नेक काम किया है। और हम सब को जहरीले रंगों से बचाया है इसलिए मैं इस साल का पुरस्कार दारा शेर को देने का ऐलान करता हूं। अगले साल से हम सब सिर्फ अवीर गुलाल से ही होली खेलेंगे। दारा शेर प्रधान मंत्री टनटन शेर की ओर से चांदी का सिल्ड और पांच हजार रूपया नगद पा कर खुशी से फुला नही समाया। पुरस्कार पाने की खुशी में सभी जानवर दारा शेर को बधाई दे कर अपने घर जाने लगे। **********
- जीवन की प्राथमिकताएं
शिक्षक ने आज कक्षा में प्रवेश करते ही मेज पर एक बड़ा सा खाली शीशे का जार रख दिया। शिक्षक ने जार को पत्थर के बड़े-बड़े टुकड़ों से भर दिया। जार को पूरा भरने के बाद उन्होंने छात्रों से पूछा क्या जार भर गया है? इस पर सभी छात्रों ने सामूहिक शब्दों में कहा “हाँ, जार भर गया है।” तब शिक्षक ने छोटे-छोटे कंकड़ो से भरा एक डिब्बा उठाया और उन्हें जार में भरने लगे। जार को थोडा हिलाने पर ये कंकड़ पत्थरों के बीच व्यवस्थित हो गए। एक बार फिर उन्होंने छात्रों से पूछा कि क्या जार भर गया है? सभी ने पुनः हाँ में उत्तर दिया। तभी शिक्षक ने एक रेत से भरा डिब्बा निकाला और उसमें भरी रेत को जार में डालने लगे। रेत ने बची-खुची जगह भी भर दी। एक बार फिर उन्होंने पूछा कि क्या जार भर गया है? इस बार सभी ने एक साथ उत्तर दिया, “हाँ, अब तो यह पूरी तरह भर गया है।” लेकिन अब शिक्षक ने पानी से भरी एक बोतल को इस जार में उड़ेल दिया। शिक्षक छात्रों को संबोधित करते हुए बोले कि देखो छात्रों, जार ने एक बोतल पानी को भी अपने अंदर समा लिया। ऐसा कह कर शिक्षक ने छात्रों को समझाना शुरू किया, “मैं चाहता हूँ कि आप इस बात को समझें कि ये जार आपके जीवन का एक प्रतिबिंब है। बड़े-बड़े पत्थर आपके जीवन की ज़रूरी वस्तुएं हैं- जैसे आप का परिवार, आपका जीवन साथी, आपके माता पिता, आपका स्वास्थ्य इत्यादि। यह सभी ऐसी वस्तुएं है कि अगर आपकी बाकी सारी वस्तुएं खो भी जाएँ और सिर्फ ये रहे तो भी आपकी ज़िन्दगी पूर्ण रहेगी। जार में पड़े छोटे कंकर उन वस्तुओं को दर्शाते हैं जिनकी हमारे जीवन में आवश्यकता तो है परंतु यदि प्राथमिकता के तौर पर देखा जाए तो ऐसी वस्तुओं को हम दूसरी श्रेणी की प्राथमिकता में रख सकते हैं जैसे हमारी नौकरी, हमारी कार, हमारी साइकिल इत्यादि। जार में पड़ी रेत और पानी बाकी सभी छोटी-मोटी चीजों को दर्शाती हैं। अगर आप जार को पहले रेत और पानी से भर देंगे तो कंकडों और पत्थरों के लिए कोई जगह नहीं बचेगी। यही आपके जीवन के साथ होता है। अगर आप अपना सारा समय और उर्जा छोटी-छोटी चीजों में लगा देंगे तो आपके पास कभी उन चीजों के लिए समय नहीं होगा जो आपके जीवन के लिए परम आवश्यक हैं। उन चीजों पर ध्यान दीजिये जो आपके जीवन की खुशी के लिए आवश्यक है। अपने बच्चों के साथ खेलिए, अपने जीवन साथी के साथ घूमने जाइए, अपने परिवार के साथ देशाटन पर जाइए और खूबसूरत छुट्टियां बिताइए। ऐसा न कर, यदि आप अपना सारा वक्त ऑफिस अथवा व्यापार में ही व्यतीत कर देते हैं तो आप जीवन के इन महत्वपूर्ण क्षणों से दूर हो जाएंगे। आपकी जिंदगी नीरस व तनावपूर्ण व्यतीत होने लगेगी। अपने जीवन की प्राथमिकताओं को पहचाने, इनके अतिरिक्त सभी वस्तुएं रेत के समान हैं। सार - यदि मनुष्य अपने जीवन की प्राथमिकताओं को न पहचान कर व्यर्थ के कार्यों में अपने को व्यस्त रखता है तो ऐसे मनुष्यों का जीवन नीरस व उत्साहहीन व्यतीत होता है। ******
- सिरफिरा हाथी
बहुत समय पहले की बात है। गांव में एक अध्यापक रहते थे। उनके अनेकों विद्यार्थी थे। एक दिन अध्यापक ने अपने सभी विद्यार्थियों को अपने पास बुलाया और बड़े प्यार से समझाया, विद्यार्थियों सभी जीवों में ईश्वर का वास होता है इसलिए हमें सबका आदर व सत्कार करना चाहिए। कुछ दिनों बाद अध्यापक जी ने अपने प्रांगण में एक विशाल हवन का आयोजन किया। हवन की लकड़ी के लिए कुछ विद्यार्थियों को पास के जंगल में भेजा गया। विद्यार्थी हवन के लिए लकड़ियाँ चुन रहे थे कि तभी वहाँ एक सिरफिरा हाथी आ धमका। सभी विद्यार्थी शोर मचा कर जान बचाने के लिए भागने लगे, “भागो…। हाथी आया…सिरफिरा हाथी आया…।” लेकिन उन सबके बीच एक आदर्श विद्यार्थी ऐसा भी था जो इस खतरनाक परिस्थिति में भी डरा नहीं और शांत खड़ा रहा। उसे ऐसा करते देख उसके साथियों को बड़ा ही आश्चर्य हुआ और उनमे से एक बोला, “ये तुम क्या कर रहे हो? देखते नहीं सिरफिरा हाथी इधर ही आ रहा है, भागो और जल्द से जल्द अपनी जान बचाओ।” इस पर विद्यार्थी बोला, “तुम लोग जाओ और बचाओ अपनी जान, मुझे इस हाथी से कोई भय नहीं है । अध्यापक जी ने कहा था, कि हर जीव में ईश्वर का वास होता है इसलिए भागने कि कोई जरुरत नहीं क्योंकि ईश्वर हमें हानि नहीं पहुंचा सकता।”ऐसा कह कर वह वहीं खड़ा रहा और जैसे ही हाथी पास आया वह विद्यार्थी उस सिरफिरे हाथी को नमन करने लगा। लेकिन हाथी तो सिरफिरा था और कहां रुकने वाला था, वह सामने आने वाली हर एक चीज को तहस नहस करता जा रहा था। जैसे ही विद्यार्थी उसके सामने आया हाथी ने उसे अपनी सूड़ से उठाया और एक ओर जोर से पटक कर आगे बढ़ गया। विद्यार्थी के शरीर पर बहुत चोट आई, वह घायल हो कर वहीं बेहोश हो गया। काफी समय बाद जब उसे होश आया तो वह आश्रम में था और अध्यापक जी उसके सामने खड़े थे। अध्यापक जी बोले, “सिरफिरे हाथी को आते देखकर भी तुम वहाँ से हटे क्यों नहीं जबकि तुम्हें पता था कि वह तुम्हें चोट ही नहीं पहुंचा सकता बल्कि जान से मार भी सकता था।” तब विद्यार्थी बोला, “अध्यापक जी आपने ही तो कुछ दिन पहले समझाया था कि सभी जीवों में ईश्वर का वास होता है। यही कारण था कि मैं भागा नहीं, मैंने नमस्कार करना ही उचित समझा।” इस पर अध्यापक जी ने विद्यार्थी को समझाया, “बेटा तुम मेरी आज्ञा मानते हो ये बहुत अच्छी बात है मगर मैंने ये भी तो सिखाया है कि विपरीत परिस्थितियों में अपना विवेक नहीं खोना चाहिए। हाथी आ रहा था, यह तो तुमने देखा और वह सिरफिरा है यह भी तुम्हें ज्ञात हो गया था। फिर भी हाथी को तुमने ईश्वर का रूप समझा। मगर बाकी विद्यार्थियों ने जब तुम्हें रोका तो भी तुम्हें क्यों कुछ समझ नहीं आया। उन्होंने तो तुम्हें मना किया था। अन्य विद्यार्थियों की बात का तुमने विश्वास क्यों नहीं किया। उनकी बात मान लेते तो तुम्हें इतनी अधिक तकलीफ का सामना नहीं करना पड़ता, तुम्हारी ऐसी हालत भी नहीं होती। जल में भी ईश्वर का वास है पर किसी जल को लोग देवता पर चढ़ाते हैं और किसी जल का लोग नहाने धोने में प्रयोग करते हैं। हमेशा देश, काल और परिस्थिति को ध्यान में रखकर ही आपना निर्णय लेना चाहिए।” सार - हमें दूसरों कि बात का अनुसरण तो जरुर करना चाहिए मगर विशेष परिस्थिति में अपने विवेक का प्रयोग करने से नहीं चूकना चाहिए। परिस्थितियों के अनुसार निर्णय को परिवर्तित करने में ही बुद्धिमानी है। *******
- संगत का प्रभाव
एक राजा का तोता मर गया। उन्होंने कहा- मंत्रीप्रवर! हमारा पिंजरा सूना हो गया। इसमें पालने के लिए एक तोता लाओ। तोते सदैव तो मिलते नहीं। राजा पीछे पड़ गये तो मंत्री एक संत के पास गये और कहा- भगवन्! राजा साहब एक तोता लाने की जिद कर रहे हैं। आप अपना तोता दे दें तो बड़ी कृपा होगी। संत ने कहा- ठीक है, ले जाओ। राजा ने सोने के पिंजरे में बड़े स्नेह से तोते की सुख-सुविधा का प्रबन्ध किया। तोता ब्रह्ममुहूर्त में बोलने लगा- जय भगवान,,, ओम् तत्सत्.... ओम् तत्सत् ... उठो राजा! उठो महारानी! दुर्लभ मानव-तन मिला है। यह सोने के लिए नहीं, भजन करने के लिए मिला है। चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीर। तुलसीदास चंदन घिसै तिलक देत रघुबीर।।' कभी रामायण की चौपाई तो कभी गीता के श्लोक उसके मुँह से निकलते। पूरा राजपरिवार बड़े सवेरे उठकर उसकी बातें सुना करता था। राजा कहते थे कि तोता क्या मिला, एक संत मिल गये। हर जीव की एक निश्चित आयु होती है। एक दिन वह तोता मर गया। राजा, रानी, राजपरिवार और पूरे राष्ट्र ने हफ़्तों शोक मनाया। झण्डा झुका दिया गया। किसी प्रकार राजपरिवार ने शोक संवरण किया और राजकाज में लग गये। पुनः राजा साहब ने कहा-- मंत्रीवर! खाली पिंजरा सूना-सूना लगता है, एक तोते की व्यवस्था करें! मंत्री ने इधर-उधर देखा, एक कसाई के यहाँ वैसा ही तोता एक पिंजरे में टँगा था। मंत्री ने कहा कि राजा साहब चाहते की ये तोता उन्हें मिले। कसाई ने कहा कि हम आपके राज्य में ही तो रहते हैं। हम नहीं भी देंगे तब भी आप उठा ही ले जायेंगे। मंत्री ने कहा-- नहीं नहीं, हमारी विनती है। कसाई ने बताया कि किसी बहेलिये ने एक वृक्ष से दो तोते पकड़े थे। एक को उसने महात्माजी को दे दिया था और दूसरा मैंने खरीद लिया था। राजा को चाहिये तो आप ले जाएं। अब कसाईवाला तोता राजा के पिंजरे में पहुँच गया। राजपरिवार बहुत प्रसन्न हुआ। सबको लगा कि वही तोता जीवित होकर चला आया है। दोनों की नासिका, पंख, आकार, चितवन सब एक जैसे थे। लेकिन बड़े सवेरे तोता उसी प्रकार राजा को बुलाने लगा जैसे वह कसाई अपने नौकरों को उठाता था कि.. उठ! हरामी के बच्चे! राजा बन बैठा है। मेरे लिए ला अण्डे, नहीं तो पड़ेंगे डण्डे! ये ही बात बार बार दोहराने लगा राजा को इतना क्रोध आया कि उसने तोते को पिंजरे से निकाला और गर्दन मरोड़कर किले से बाहर फेंक दिया। दोनों तोते, सगे भाई थे। एक की गर्दन मरोड़ दी गयी, तो दूसरे के लिए झण्डे झुक गये, भण्डारा किया गया, शोक मनाया गया। आखिर भूल कहाँ हो गयी ? अन्तर था तो संगति का ! सत्संग की कमी थी। संगत ही गुण होत है, संगत ही गुण जाय। बाँस फाँस अरु मीसरी, एकै भाव बिकाय।। पूरा सद्गुरु ना मिला, मिली न साँची सीख। भेष जती का बनाय के, घर-घर माँगे भीख। शिक्षा :- अपने बच्चों को उच्चशिक्षा के साथ साथ अच्छे संस्कार भी दीजिए ताकि वो जहां भी जाये सबका समान करे और अपने आचरण से खुद के साथ परिवार का नाम भी रोशन करे। ***********
- सफलता का रहस्य
एक नौजवान युवक ने अपने जीवन यापन हेतु बड़े उत्साह के साथ एक व्यापार की शुरुआत की, परंतु दुर्भाग्यवश कुछ ही समय में किसी बड़े घाटे की वजह से उसका व्यापार बंदी की कगार पर पहुंच गया। व्यापार की बंदी नौजवान के उदासी का कारण बन गई और काफी समय बीत जाने पर भी उसने कोई और काम नहीं शुरू किया। युवक की इस परेशानी का पता उसके गुरुजन को भी लगा, जो पहले कभी उसे पढ़ा चुके थे। उन्होंने एक दिन युवक को अपने घर बुलाया और पूछा, “क्या बात है आज-कल तुम बहुत परेशान रहते हो और कोई व्यापार भी नहीं करते?” “बस कुछ नहीं गुरुजी मैंने एक व्यापार प्रारंभ किया था परंतु उस व्यापार में इच्छा अनुसार वृद्धि ना हो सकी और मुझे आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा और मुझे काम बंद करना पड़ा, इसीलिए थोड़ा परेशान रहता हूँ ।” युवक बोला। गुरुजी बोले, “इसमें इतना घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि व्यापार में इस प्रकार की दुर्घटनाएं तो होती ही रहती है।” “लेकिन मैंने व्यापार बनाने के लिए कड़ी मेहनत की थी, मैं तन-मन-धन से इस काम में जुटा था, फिर मैं नाकामयाब कैसे हो सकता हूँ।” युवक कुछ झुंझलाते हुए बोला । गुरुजी कुछ देर के लिए शांत हो गए, फिर कुछ सोच कर उन्होंने कहा, “बेटा, मेरे पीछे आओ, “टमाटर के इस मरे हुए पौधे को देखो।” “ये तो बेकार हो चुका है, इसे देखने से क्या फायदा।”, युवक बोला। गुरुजी बोले, “मैंने जब इस पौधे को रोपा था तब मैंने इस पौधे की अन्य पौधों की भांति ही पूरा रखरखाव किया था मैंने इसे समय पर पानी दिया, समय पर खाद डाली, समय पर कीटनाशक का छिड़काव भी किया, परंतु फिर भी यह पौधा ऐसा हो गया।” “तो क्या ?”, युवक बोला। गुरुजी ने समझाया, “चाहे तुम कितना भी प्रयास क्यों न कर लो, परंतु परिणाम पर हमारा अधिकार नहीं होता। हम उसे तय नहीं कर सकते। बस हम उन्हीं चीजों पर नियंत्रण कर सकते हैं जो हमारे हाथ में हैं, बाकी चीजों को हमें भगवान पर छोड़ देना चाहिए।” “तो अब मैं क्या करूँ? यदि सफलता की कोई गारंटी नहीं है तो फिर प्रयास करने से क्या फायदा?”,युवक बोला। “बेटा, बहुत से लोग बस इसी बहाने का सहारा लेकर अपनी जिंदगी में कोई भी बड़ा कार्य करने का साहस नहीं करते कि जब सफलता की निश्चितता ही नहीं है तो फिर प्रयास करने से क्या फायदा !”, गुरुजी बोले। “हाँ, यदि लोग ऐसा सोचते हैं तो सही ही सोचते हैं। इतनी मेहनत, इतना पैसा, इतना समय देने के बाद भी अगर सफलता केवल एक संयोग मात्र ही है, तो इतना सब कुछ करने से क्या फायदा।”, युवक बाहर निकलते हुए बोला। “रुको-रुको, जाने से पहले जरा इस दरवाजे को भी खोलकर देखो।” गुरुजी ने एक दरवाजे की तरफ इशारा करते हुए कहा। युवक ने दरवाजा खोला, सामने बड़े-बड़े लाल टमाटरों का ढेर पड़ा हुआ था। “ये कहाँ से आये ?”, युवक ने आश्चर्य से पूछा। “बेशक, टमाटर के सभी पौधे नहीं मरे थे। यदि तुम लगातार सही दिशा में प्रयास करते रहो, तो सफलता की संभावनाएं अत्यधिक प्रबल हो जाती है। लेकिन अगर तुम एक-दो प्रयासों के बाद हार मानकर बैठ जाते हो तो तुम्हें जीवन में कोई सफलता प्राप्त नहीं होती।” गुरुजी ने अपनी बात पूरी की। युवक को अब जीवन में सफलता के रहस्य की बात पूर्ण रुप से समझ आ गई थी। अब वह एक नए जोश और उत्साह के साथ अपने काम में लगने के लिए तैयार था। सार - जो लोग सफलता प्राप्त करने के लिए निरंतर प्रयास करते रहते हैं उन्हें आज नहीं तो कल सफलता मिल ही जाती है। याद रखिये कि जीवन की नाकामयाबी ही कामयाबी की तरफ बढ़ता एक कदम होता है। ******
- कद्दू की तीर्थयात्रा
हमारे यहाँ तीर्थ यात्रा का बहुत ही धार्मिक व संस्कारिक महत्त्व है। पहले के समय तीर्थ यात्रा में जाना बहुत कठिन कार्य माना जाता था। तीर्थ यात्रियों द्वारा पैदल या बैलगाड़ी में यात्रा की जाती थी। यात्रा में थोड़े-थोड़े अंतर पर रुकना होता था। विविध प्रकार के लोगों से मिलना जुलना होता था, समाज का दर्शन होता था। विविध बोली और विविध रीति-रीवाज से तीर्थ यात्रियों का परिचय होता था। कई कठिनाईओं से गुजरना पड़ता, तो कई प्रकार के अनुभव भी प्राप्त होते थे। एकबार तीर्थ यात्रा पर जानेवाले लोगों के संघ ने एक संत जी के पास जाकर उनके साथ चलने की प्रार्थना की। सोचा कि संत के साथ होने से यात्रा का महत्व दो गुना हो जाएगा। संत जी ने यात्रा पर जाने में अपनी असमर्थता बताई। उन्होंने तीर्थ यात्रियों को एक कड़वा कद्दू देते हुए कहा, “किन्ही कारणों वश, मैं तो आप लोगों के साथ जा नहीं सकता लेकिन आप इस कद्दू को साथ ले जाईए और जहाँ-जहाँ भी स्नान करें, इसे भी उस पवित्र जल में स्नान करा लाये आपकी महान कृपा होगी।” लोगों ने संत के गूढार्थ पर गौर किये बिना ही वह कद्दू ले लिया और जहाँ-जहाँ गए, स्नान किया, वहाँ-वहाँ कद्दू को भी स्नान करवाया, मंदिर में जाकर दर्शन किया तो कद्दू को भी दर्शन करवाया और ऐसा कर उन्होंने संत की आज्ञा का अनुपालन किया। ऐसे यात्रा पूरी कर सब वापस आए और उन लोगों ने वह कद्दू संतजी को वापस दिया। संतजी ने सभी यात्रियों को अपने आश्रम में प्रीतिभोज पर आमंत्रित किया। तीर्थ यात्रियों को विविध पकवान परोसे गए। तीर्थ में घूमकर आये हुए कद्दू की सब्जी विशेष रूप से बनवायी गयी। सभी यात्रियों ने खाना शुरू किया और सबने कहा कि “यह सब्जी तो कड़वी है।” संतजी ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि “यह सब्जी तो उसी कद्दू से बनी है, जो तीर्थ स्नान कर आया है। बेशक यह तीर्थाटन के पूर्व कड़वा था, मगर तीर्थ दर्शन तथा स्नान के बाद भी इस में कड़वाहट तो पहले जैसी ही बनी हुई है।” यह सुन कर सभी यात्रियों को अपनी गलती का बोध हो गया कि ‘हमने तीर्थाटन किया है लेकिन अपने मन एवं स्वभाव को सुधारा नहीं तो तीर्थयात्रा का कोई मूल्य नहीं है। हम भी इस कड़वे कद्दू जैसे कड़वे रहकर वापस आये हैं।’ सार - जब तक हमारे व्यवहार व सोच में परिवर्तन नहीं होता है हमारी तीर्थ यात्रा अधूरी ही मानी जाती है। संस्कारों में आधारभूत परिवर्तन ही तीर्थ यात्रा का वास्तविक प्रतिफल है।
- ग्रहण (Part 2)
लगभग बारह वर्ष पूर्व का वह दिन मेरी आँखों के सामने जीवंत हो उठा। मैं क्लीनिक में मरीज देख रही थी। एक दंपत्ति अपनी तेरह-चौदह साल की बेटी के साथ क्लीनिक पर आए। बच्ची दर्द में थी और एक ही बात बोले जा रही थी, ‘‘मुझे इंजेक्शन लगा दीजिए। मुझे मार दीजिए। मुझे नहीं जीना है।’’ रोते हुए उसके पिता ने बताया कि वह लोग एक रिश्तेदार के घर गृह प्रवेश में गए थे। बेटी का दसवीं का बोर्ड था तो वह अपने शिक्षक की प्रतीक्षा में घर पर ही रुक गई थी। हम जब शाम को लौटे तो बेटी इस हाल में मिली। वह शिक्षक दरिंदा निकला। वह हाथ जोड़कर बोले, ‘‘हम पुलिस के पास नहीं जाना चाहते डॉक्टर। उसका तो कुछ नहीं होगा हमारी लड़की बदनाम हो जाएगी। हम इसकी परीक्षा के बाद यह शहर ही छोड़ देंगे। हमारी मदद कर दीजिए।’’ मैं उनकी पीड़ा को समझ सकती थी। मेरे जेठ की बेटी इस हादसे से गुजरी थी। जेठ जी स्वयं पुलिस में थे। पर क्या लाभ हुआ पुलिस, कोर्ट, कचहरी इन सब का तनाव और समाज की हिकारत भरी नजर, वह बेचारी नहीं झेल पाई और साल पूरा होते-होते पंखे से लटक कर मर गई। मैं बच्ची के इलाज के साथ-साथ उसकी काउंसलिंग भी करने लगी। वह जब घबराती अपनी मम्मी के साथ मेरे पास आ जाती। फिर धीरे-धीरे अकेले आने लगी। दूसरे शहर जा कर भी वह फोन से संपर्क में रही। फिर एक दिन मैंने उससे कहा, ‘‘देखो बेटा तुम 12वीं में आ गई हो, और अब पूरी तरह से ठीक हो गई हो। तुम्हारे लिए जरूरी है कि तुम इस दुर्घटना को भूल जाओ। इसके लिए तुम्हें मुझे भी भूलना होगा।’’ ‘‘आपको ?....आपको कैसे भूल सकती हूँ मैं? मेरी माँ ने मुझे जन्म दिया है, पर यह नई ज़िंदगी आपकी दी हुई है।’’ वो कांपती हुई आवाज में बोली थी। ‘‘माँ कह रही हो तो माँ की बात मानो। सब कुछ भूल कर एक नई जिंदगी जियो। जब शादी करोगी तो मुझे जरूर बताना, मैं आऊंगी।’’ ‘‘शादी?...... मैं..... मैं ...मुझसे कौन शादी करेगा?’’ ‘‘क्यों तुमने कौन सा पाप किया है? तुम शादी करोगी और एक आम ज़िन्दगी जीओगी। बस इस दुर्घटना का जिक्र किसी से कभी नहीं करना। मैंने अपनी मेडिकल फाइल में भी तुम्हारा असली नाम नहीं लिखा है। उसमें तुम छाया हो। तुम अपने असली नाम के साथ आराम से जियो और आठ साल के लंबे अंतराल के बाद आज अचानक वही छाया, प्रिया के रूप में मेरे सामने थी। बेटे की आवाज से मैं वापस वर्तमान में लौट आई। ‘‘माँ, इसे क्या हुआ?’’ ‘‘डर गई है। बिना गलती के गिल्टी महसूस कर रही है।’’ प्रिया के सिर पर हाथ फेरते हुए मैंने जवाब दिया। ‘‘बिना गलती के कैसे? इसी की वजह से तो आप इतना थकीं।’’ प्रिया की ओर देखते हुए ऋतिक बोला। ‘‘.......... प्रिया सिर उठाकर अपलक ऋतिक को देख रही थी।’’ ‘‘अब तुम्हारी सजा ये है प्रिया, कि अब तुम माँ के लिए चाय बना कर लाओ और जो बचे उसमें से थोड़ी सी मुझे भी दे देना।’’ कमरे का वातावरण थोड़ा हल्का हो गया। तकिया की टेक के सहारे दोनों ने मुझे बैठा दिया। चाय पीते हुए मैंने प्रिया की ओर देखा। ‘‘प्रिया चाय तो तुमने अच्छी बनाई है। चलो रसोई में तुम पास हो गई। पर अभी तुम्हारी परीक्षा बाकी है। मेरी बहू बनने के लिए तुम्हें एक परीक्षा और पास करनी होगी।’’ प्रिया और ऋतिक दोनों एक दूसरे की ओर देखने लगे। ‘‘माँ?’’ ऋतिक हिचकता सा बोला। ‘‘तुम्हें ऐतराज है क्या?’’ ‘‘न, न....नहीं माँ।’’ ‘‘तुम्हें प्रिया?’’ नहीं... बिल्कुल नहीं। ‘‘ठीक है, फिर ऋतिक तुम अपने कमरे में जाओ मुझे अकेले प्रिया से बात करनी है। उसके बाद तुम्हें बुला लेंगे।’’ ‘‘जी’’ चकित सा ऋतिक खड़ा हो गया और प्रिया की ओर देखता हुआ बाहर चला गया। प्रिया अब सीधे मेरी ओर देख रही थी। “प्रिया, मुझे तुमसे एक वादा चाहिए।’’ ‘‘माँ, मुझ जैसी ग्रहण लगी लड़की को आप जानते बूझते हुए क्यों स्वीकार रही हैं अपने इतने लायक बेटे के लिए। आप मना भी तो कर सकती हैं।’’ क्यों मना करूंगी, तुम्हारे जैसी कोमल हृदय वाली बेटी, मेरी बहू बने यही तो हमेशा चाहा है मैंने। तुमसे, तुम्हारे साथ से, मेरे बेटे की खुशियाँ हैं। यह खुशी मैं उसे देना चाहती हूँ। बस एक वादा चाहिए तुमसे।’’ ‘‘कौन सा वादा माँ?’’ ‘‘कभी, किसी भी कमजोर पल में उस हादसे का जिक्र ऋतिक से नहीं करोगी। यही वादा चाहिए मुझे।’’ ‘‘इतनी बड़ी बात छुपाना क्या उचित होगा?’’ ‘‘प्रिया जिंदगी में बहुत से हादसे होते हैं। क्या हम हमेशा उनका बोझा पीठ पर ढोते रहते हैं? वे घट कर अतीत हो जाते हैं। यही होना भी चाहिए ।’’ ‘‘.....वह मौन मुझे देख रही थी। प्रिया, मेरा बेटा बहुत सुलझा हुआ है फिर भी मैं नहीं चाहती कि किसी अनचाहे अतीत का काला साया मेरे बेटे बहू के जीवन में बेचैनियाँ लाए। इसीलिये...।’’ ‘‘आपकी भावना समझ सकती हूँ। माँ, मैं आपसे वादा करती हूँ, मेरे मरने तक इस बात का जिक्र मेरी जुबान पर कभी नहीं आएगा।’’ प्रिया मेरा हाथ पकड़े हुए थी। ‘‘प्रिया, अपने मम्मी पापा से कहना कि जब वे आएंगे तो हम पहली बार मिल रहे होंगे। यह याद रखेंगे।’’ ‘माँ, आप बहुत महान हैं।’ भावुकता में प्रिया मेरे गले लग गई। प्यार से उसकी पीठ थपथपा कर मैंने कहा ,‘अब ऋतिक को बुला लो।’ प्रिया के साथ ऋतिक कमरे में आया तो उसके चेहरे पर प्रश्न साफ दिखाई दे रहा था। ‘तेरी प्रिया, मेरी परीक्षा में पास हो गई। यह चाँद सी सुंदर लड़की मुझे बहू के रूप में स्वीकार है।’ ‘चाँद में तो दाग होता है माँ। ग्रहण लगता है।’ ऋतिक ने प्रिया को छेड़ने के अंदाज में कहा। ‘चांद उस ग्रहण के साथ ही तो पूर्ण होता है बेटा। वैसे ही हम सब भी अनेक अच्छाई और बुराई के पुतले हैं और हमें एक दूसरे को संपूर्णता में स्वीकारना होता है। प्रिया हम दोनों को हमारी कमियों के साथ स्वीकारेगी और हम दोनों को भी प्रिया को उसकी सारी अच्छाई और सारी बुराई के साथ उसे स्वीकारना होगा।’ ‘मैं ..तो ...माँ...।” ‘मैं जानती हूँ। तू उसे छेड़ रहा है। ......अच्छा अब तुम दोनों रसोई से कुछ लाकर खिलाओ तो मुझे, भूख लग गई है।’ उठते हुए प्रिया बोली, ‘मैं लाती हूँ माँ।’ ‘........और हां प्रिया, अपने मम्मी-पापा से बोलना मुझसे जल्दी आकर मिलें। और उन्हें यह भी बता देना कि मुझे शादी की जल्दी है।’ ऋतिक और प्रिया के चेहरे खिल उठे और दोनों मुस्कुराते हुए कमरे से बाहर चले गए। समाप्त *********************
- ग्रहण (Part 1)
कल से मेरे पैर धरती पर नहीं पड़ रहे हैं। रात उत्तेजना के मारे नींद नहीं आई। इस पल की कितनी प्रतीक्षा थी मुझे। रात जब खाने के बाद ऋतिक मेरे कमरे में आया तो मुझे लगा शायद उसे कुछ चाहिए। मेरे पूछने पर उसने अपनी दोनों बाहें मेरे गले में डाल दीं। ‘‘नहीं माँ, मुझे कुछ बताना था आपको।’’ शर्म से गुलाबी हो आए उसके गोरे मुखड़े को देखकर मेरे चेहरे पर प्यार भरी मुस्कान तैर गई। तो तुझे मेरी बहू मिल गई।’’ ‘‘अगर आप उसे स्वीकारेंगी तो.....।’’ वह सीधे मेरी आंखों में देख रहा था। ‘‘तू जानता है, तेरी खुशी से बढ़कर मेरे लिए और कुछ भी नहीं। कौन है वह खुशनसीब, जिसने मेरे बेटे के दिल की घंटी बजाई है?’’ बेटे के गाल पर प्यार की चपत लगाते हुए मैंने पूछा। ‘‘माँ, प्रिया नाम है उसका। मेरे साथ एमबीए किया है उसने। हम ढाई साल से एक-दूसरे को जानते हैं और पसंद करते हैं। उसको भी अपने शहर में अच्छी नौकरी मिल गई है।’’ ‘‘कब मिलवाओगे?’’ मेरा सीधा प्रश्न था। ‘‘माँ, कल सुबह नाश्ते पर बुला लेता हूँ।’’ ‘‘बुला नहीं लेता हूँ। जाकर ले आना उसे। अब जा सो जा।’’ मेरी आँखें, मेरा स्वर सब खुशी में डूबा हुआ था। रात करवटें बदलते कटी और सुबह चार बजे ही मैंने बिस्तर छोड़ दिया और रसोई में घुस गई। मन करता यह भी बना लूँ, वह भी बना लूँ। सात बजे तक मेरी रसोई तरह-तरह के पकवानों से महकने लगी। ‘‘माँ, क्या-क्या बना लिया आपने? पूरा घर महक रहा है। आप क्या रात भर बनाती रही हैं?’’ आश्चर्य और प्यार दोनों ऋतिक के स्वर में था। ‘‘मेरी बहू पहली बार आ रही है। यह दिन एक बार ही आता है। तुम चाय पियो मैं नहा कर आती हूँ।’’ ऋतिक के जाने के बाद मैंने हल्के गुलाबी रंग की साड़ी पहनी। सच्चे मोती की माला और टॉप्स पहनकर शीशे के सामने खड़ी हुई और अपने कटे हुए बालों में ब्रश करने लगी। आज कितने सालों बाद सिंगार करने का मन हुआ था मेरा। ‘‘माँ-माँ ......’’ ऋतिक के स्वर से मैं चौंक गई। ‘‘माँ, प्रिया आ गई।’’ ऋतिक मेरे सामने खड़ा था। ‘‘अरे, दरवाजा किसने खोला?’’ ‘‘खुला था माँ, शायद आप बंद करना भूल गईं थीं।’’ ‘‘हां यही हुआ होगा।” बैठक में घुसते ही प्रिया से मेरी नजर मिली और हम दोनों ही जड़ हो गए। मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई। लगा जैसे पूरा कमरा घूमने लगा है। खुद को संभालना मुश्किल हो गया। ऋतिक ने सहारा देकर मुझे बैठाया। माँ,...माँ... क्या हुआ आपको?’’ मैं चेतना शून्य होती जा रही थी। बंद होती आँखों से देखा ऋतिक और प्रिया दोनों मेरे ऊपर झुके हुए थे, और मुझे पुकार रहे थे। मुझे उनकी आवाजें दूर से आती प्रतीत हो रही थीं। जब होश आया तो देखा मैं अपने पलंग पर लेटी हुई थी। ऋतिक और प्रिया के साथ साथ डॉ. रजत भी मेरे कमरे में बैठे हुए थे। ‘‘माँ, क्या हुआ आपको?’’ परेशान ऋतिक की आँखें डबडबाई हुई थीं। मेरा हाथ उसके हाथ में था। ‘‘बेटा, मैं ठीक हूँ।” ‘‘डॉक्टर रागिनी, आप दोस्त को तो डॉक्टर मानती ही नहीं हैं। मैंने कितनी बार आपसे कहा थोड़ा अपनी सेहत का ध्यान रखिए। पर......‘‘डाक्टर रजत फिर से उठकर डाक्टर रागनी का ब्लडप्रेशर नापने लगे। ‘‘मम्मी की तबीयत खराब चल रही थी? पर अंकल मम्मी ने तो कुछ भी नहीं बताया कभी। क्या हुआ है उन्हें?’’ ऋतिक परेशान हो उठा। ‘कुछ नहीं बेटा, तेरे रजत अंकल ऐसे ही बोलते रहते हैं।’ मैंने बेटे का हाथ स्नेह से दबाया। ‘‘कोई यूं ही बेहोश नहीं हो जाता मम्मी। अंकल आप बताइए ना?’’ ऋतिक बहुत परेशान था और इस परेशानी में प्रिया को भी भूल गया था। जो मेरे पैरों के पास चुपचाप बैठी हुई थी और मुश्किल से अपने आंसुओं को संभाले थी। ‘‘इतना परेशान होने वाली भी बात नहीं है ऋतिक। तुम्हारी मम्मी को थोड़ा आराम करने की जरूरत है। बहुत थका देती हैं खुद को। वैसे पूरा चेकअप करा लेना हमेशा अच्छा होता है। मैंने कुछ टेस्ट लिख दिए हैं। करा लेना। इतना ब्लड प्रेशर बढ़ना ठीक बात नहीं है।’’ ऋतिक की पीठ थपथपा कर रजत बोले। ‘‘जी अंकल।” ‘‘अच्छा अब सब कंट्रोल में है। मां को आराम कराओ। परेशान मत हो। मैं चलता हूँ। वैसे अब जरूरत नहीं पड़ेगी पर मैं एक फोन कॉल की ही दूरी पर हूँ।’’ उठते हुए डॉ. रजत बोले। ‘‘अरे , अंकल चाय......।’’ ‘‘मम्मी को ठीक होने दो, फिर साथ में पीते हैं।” ‘‘प्रिया, मम्मी का ध्यान रखना। मैं अंकल को छोड़ कर आता हूँ।’’ कहते हुए ऋतिक कमरे के बाहर चला गया। ‘‘सॉरी आंटी, मुझे बिल्कुल नहीं पता था कि ऋतिक आपका बेटा है।’’ उसकी आँख अब बरसने लगी थी। “प्रिया, मेरे पास आओ।’’ मैंने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया, ‘‘आंटी, नहीं प्रिया, माँ बोलो।’’ वह फफक-फफक कर रोने लगी और अपना सिर मेरे सीने पर रख दिया। स्नेह से मैं उसके सिर पर हाथ फेरने लगी। अतीत मुझ पर हावी होता जा रहा था। क्रमशः………….. *********************