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  • स्वीकृति

    अनजान "सिया की शादी तय होने की बधाई, दीदी।" सुधा ने भानजी की शादी तय होने की शुभकामनाएं देते हुए कहा "सुधा,15 मार्च की शादी है।" माला ने बताया "दीदी, मैं आज ही फ्लाइट बुक कर देती हूँ॑।" सुधा बोली यह बात जनवरी माह की थी। फरवरी के आखिरी सप्ताह में सिया की होने वाली दादी सास की तबीयत बिगड़ गई, उनको दमा का जानलेवा अटैक पड़ा। शादी प्रीपोन करनी पड़ी। दादीजी के हॉस्पिटल में रहते-रहते शादी साधारण से समारोह में कर दी गई। कुछ दिन पश्चात दादीजी की मृत्यु हो गई। सुधा कनाडा रहती है, वह अपने बेटे सुदर्शन और बेटी सुमति के साथ भारत मार्च में आ पाई। सुधा के पति काम की अधिकता की वजह से नहीं आ पाए। सिया इसी शहर में अपने सास, ननद व पति के साथ रहती है। अगली सुबह माला, माला के पति मनोज, सुधा, सुदर्शन व सुमति के साथ सिया के घर पहुंची। माला ने समधन सरलाजी को फोन पर कल ही सिया की मौसी सुधा के आने के बारे में बता दिया था। सरलाजी ने सभी का दिल खोलकर स्वागत किया। सिया मौसी से मिलकर बहुत खुश हुई। सिया के पति सार्थक ने आज छुट्टी ले ली है। माला ने सिया की ननद सुकन्या के बारे में पूछा तो सरला जी ने बुलाया। सुकन्या ने सभी को अभिवादन किया। सिया और सुकन्या ने नाश्ता लगाया। हलवा, पकौड़ी, सैंडविच, पोहा, अप्पे और मिनी उत्तपम नारियल चटनी के साथ थे। उधर बड़े लोग बातें कर रहे थे, इधर सुदर्शन, सुमति, सिया और सार्थक की चौकड़ी जम गई। सरलाजी ने मनुहार कर सबको दोपहर का भोजन करने के लिए मना लिया। तभी सुकन्या ने आकर कहा,"मम्मी, अब मैं चलती हूँ।" माला ने पूछा तो सुकन्या ने बताया कि वह आज हॉफडे लीव पर थी, अब ऑफिस निकलना है। सुधा ने सुकन्या के जाने के बाद सरलाजी से कहा कि उनकी बेटी बहुत प्यारी है। सरलाजी ने सुधा को बताया कि सुकन्या एक फर्म में चार्टेड एकाउंटेंट है। इन्कम टैक्स रिटर्न की तारीख नजदीक आने से काम ज्यादा है। सुधा को माला ने आने से पहले बता दिया था कि सुकन्या सार्थक से दो साल छोटी है। तीन वर्ष पहले सुकन्या का विवाह हुआ था परन्तु उसके पति का विवाह के आठ महीने बाद एक्सीडेंट में आकस्मिक निधन हो गया। ससुराल वालों ने उसे मनहूस कहकर घर से निकाल दिया था। अब वह अपने मायके में रहती है। स्वभाव की बेहद सरल है, सिया और सुकन्या बहनों की तरह रहती हैं। सबने दोपहर का भोजन खाया। सुकन्या सभी सब्जियां व खीर बनाकर रख गई थी, रोटी सिया ने गरमागरम सबको सेंक कर खिला दी। खाने के बाद सभी खीर का लुत्फ़ उठा रहे थे कि पड़ोस में रहने वाली सिया की चाची सास रीताजी आ गईं। अभिवादन के आदान-प्रदान के बाद रीताजी ने पूछा,"सुकन्या नहीं दिखाई दे रही है?" सरलाजी ने बताया,"सुकन्या ऑफिस गई है।" रीताजी ने मुंह बनाते हुए कहा,"पता था, आप सब आने वाले हों, फिर भी सारा काम सिया पर छोड़ कर ऑफिस चली गई। वैसे अच्छा ही किया जो चली गई। ऐसे लोगों की छाया भी अशुभ होती है। सरला भाभी, आप मुझे बताती मैं काम्या को भेज देती। वह चुटकियों में काम निबटा देती।" बोलते हुए फोन कर काम्या को बुलवा लिया। सुधा ने देख लिया कि सरलाजी की आंखें डबडबा गईं। सुधा ने पूछा,"ऐसे लोग! मतलब?" रीताजी बोली,"अरे आपको नहीं पता। सुकन्या विधवा है। साल भर के अंदर ही अपने पति को खा गई।" रीताजी की अनर्गल बातें सुनकर अब तक वहां बैठे सभी लोगों को बहुत गुस्सा आने लगा था। सुधा से रहा न गया, बोली,"हद है। आप अपनी भतीजी के बारे में अपशब्द कहे जा रहीं हैं।" रीताजी तिलमिलाकर बोली, "मैं क्या झूठ बोल रही हूँ? उसके ससुराल वालों ने उसे मनहूस कह धक्के मारकर घर से निकाल दिया था, आपको शायद मालूम नहीं है।" सुधा बोली,"मुझे सब मालूम है, सुकन्या पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा है। आपको ऐसी बातें करना शोभा नहीं देता है।" फिर मुड़कर सरलाजी से सुधा ने कहा, "माफ कीजिएगा सरलाजी पर मैं गलत बात सहन नहीं कर पाती हूँ।" सरलाजी ने आंखों ही आंखों में सुधा का शुक्रिया अदा किया। रीताजी जो बिल्कुल झेंप चुकी थीं, बात पलटते हुए बोली, "चलिए, रहने दीजिए मेरी बेटी काम्या से मिलिए। इसने एम बी ए किया है।" काम्या ने सबको अभिवादन किया। अपनी आदत से मजबूर रीताजी बोली, "आपने मेरी बात काट दी पर सुकन्या सिया का हाथ बंटाने के लिए छुट्टी तो ले ही सकती थी।" सुधा ने बताया, "सुकन्या अभी गई है। उसने आधे दिन की छुट्टी ली थी।" अब तो रीताजी से कुछ कहते न बना। आखिरकार वह अपने मतलब की बात कहने से खुद को रोक न सकी। दरअसल सिया से उन्हें पता चल गया था कि सिया की मौसी कनाडा में रहती हैं, वह आज अपने बेटे और बेटी के साथ मिलने आने वाली हैं। उन्होंने कहा, "मेरी बेटी बहुत गुणी है, आपके बेटे के साथ बिल्कुल राम सीता की जोड़ी लगेगी।" यह सुन सुधा और सुदर्शन ने आंखों आंखों में ही कुछ बातें कर ली। सुधा ने कहा, "रीताजी, सुदर्शन ‌के लिए हमें लड़की मिल गई है।" रीताजी ने सिया को ताने मारा, "अरे! तुम तो कह रहीं थीं, तुम्हारी मौसी लड़की ढूंढ रही है।" सिया हड़बड़ा गई। सुधा ने मुस्कुराते हुए कहा,"रीताजी, उसे नहीं मालूम है। सही बात तो यह है कि सुदर्शन और मेरे अलावा किसी को नहीं पता है। स्वयं लड़की को भी नहीं, वह हां कहें तो बात आगे बढ़ेगी।" सभी ने प्रश्नवाचक निगाहों से सुधा को देखा। इतने में घंटी बजी, सुकन्या अंदर आ गई। वह हाथ मुंह धोकर किचन में जाकर चाय और स्नैक्स लेकर आई। सुकन्या के बैठने के बाद सुधा ने कहा, "सुकन्या, मैं बिना लाग-लपेट के तुमसे कुछ पूछना चाहती हूँ।" "जी आंटी, कहिए।" सुकन्या बोली। "सुदर्शन माइक्रोसॉफ्ट में प्रोजेक्ट मैनेजर हैं। क्या तुम इससे शादी करना चाहोगी? तुम्हारी इच्छा है, हां या ना कह सकती हों। हमें बुरा नहीं लगेगा।" सुदर्शन की सहमति थी तो उसे तो पता ही था। सुमति और सिया की तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा। सुकन्या हतप्रभ रह गई, बोली, "आंटी, मैं विधवा हूँ।" सुधा ने कहा, "बेटा, मैं और सुदर्शन तुम्हारे बारे में सब जानते हैं।" सुदर्शन ने कहा, "मुझे देखते ही बहुत अपनी सी लगी हों, सुकन्या। तुम्हारी हां का मुझे इंतज़ार है। वैसे जो तुम कहोगी, हमें स्वीकार होगा।" रीताजी तुनक कर काम्या के साथ चलती बनीं। सुकन्या ने माँ, भाई और भाभी को देखा। सभी ने हां का संकेत दिया। सुकन्या भी समझ गई थी‌ कि वे दिल के साफ़ और सच्चे लोग हैं। सुकन्या ने सिर झुके झुके हां में हिलाया। घर भर में खुशी की लहर दौड़ गई। *********

  • प्रायश्चित

    भगवती चरण वर्मा अगर कबरी बिल्ली घर-भर में किसी से प्रेम करती थी तो रामू की बहू से, और अगर रामू की बहू घर-भर में किसी से घृणा करती थी तो कबरी बिल्ली से। रामू की बहू, दो महीने हुए मायके से प्रथम बार ससुराल आई थी, पति की प्यारी और सास की दुलारी, चौदह वर्ष की बालिका। भंडार-घर की चाभी उसकी करधनी में लटकने लगी, नौकरों पर उसका हुक्म चलने लगा, और रामू की बहू घर में सब कुछ; सासजी ने माला ली और पूजा-पाठ में मन लगाया। लेकिन ठहरी चौदह वर्ष की बालिका, कभी भंडार-घर खुला है तो कभी भंडार-घर में बैठे-बैठे सो गई। कबरी बिल्ली को मौक़ा मिला, घी-दूध पर अब वह जुट गई। रामू की बहू की जान आफ़त में और कबरी बिल्ली के छक्के-पंजे। रामू की बहू हाँडी में घी रखते-रखते ऊँघ गई और बचा हुआ घी कबरी के पेट में। रामू की बहू दूध ढककर मिसरानी को जिन्स देने गई और दूध नदारद। अगर बात यहीं तक रह जाती, तो भी बुरा न था, कबरी रामू की बहू से कुछ ऐसा परच गई थी कि रामू की बहू के लिए खाना-पीना दुश्वार। रामू की बहू के कमरे में रबड़ी से भरी कटोरी पहुँची और रामू जब आए तब तक कटोरी साफ़ चटी हुई। बाज़ार से बालाई आई और जब तक रामू की बहू ने पान लगाया बालाई ग़ायब। रामू की बहू ने तय कर लिया कि या तो वही घर में रहेगी या फिर कबरी बिल्ली ही। मोर्चाबंदी हो गई, और दोनों सतर्क। बिल्ली फँसाने का कठघरा आया, उसमें दूध बालाई, चूहे, और भी बिल्ली को स्वादिष्ट लगने वाले विविध प्रकार के व्यंजन रखे गए, लेकिन बिल्ली ने उधर निगाह तक न डाली। इधर कबरी ने सरगर्मी दिखलाई। अभी तक तो वह रामू की बहू से डरती थी; पर अब वह साथ लग गई, लेकिन इतने फ़ासिले पर कि रामू की बहू उस पर हाथ न लगा सके। कबरी के हौसले बढ़ जाने से रामू की बहू को घर में रहना मुश्किल हो गया। उसे मिलती थीं सास की मीठी झिड़कियाँ और पतिदेव को मिलता था रूखा-सूखा भोजन। एक दिन रामू की बहू ने रामू के लिए खीर बनाई। पिस्ता, बादाम, मखाने और तरह-तरह के मेवे दूध में ओटे गए, सोने का वर्क चिपकाया गया और खीर से भरकर कटोरा कमरे के एक ऐसे ऊँचे ताक़ पर रखा गया, जहाँ बिल्ली न पहुँच सके। रामू की बहू इसके बाद पान लगाने में लग गई। उधर बिल्ली कमरे में आई, ताक़ के नीचे खड़े होकर उसने ऊपर कटोरे की ओर देखा, सूँघा, माल अच्छा है, ताक़ की ऊँचाई अंदाज़ी। उधर रामू की बहू पान लगा रही है। पान लगाकर रामू की बहू सासजी को पान देने चली गई और कबरी ने छलाँग मारी, पंजा कटोरे में लगा और कटोरा झनझनाहट की आवाज़ के साथ फ़र्श पर। आवाज़ रामू की बहू के कान में पहुँची, सास के सामने पान फेंककर वह दौड़ी, क्या देखती है कि फूल का कटोरा टुकड़े-टुकड़े, खीर फ़र्श पर और बिल्ली डटकर खीर उड़ा रही है। रामू की बहू को देखते ही कबरी चपत। रामू की बहू पर ख़ून सवार हो गया, न रहे बाँस, न बजे बाँसुरी, रामू की बहू ने कबरी की हत्या पर कमर कस ली। रात-भर उसे नींद न आई, किस दाँव से कबरी पर वार किया जाए कि फिर ज़िंदा न बचे, यही पड़े-पड़े सोचती रही। सुबह हुई और वह देखती है कि कबरी देहरी पर बैठी बड़े प्रेम से उसे देख रही है। रामू की बहू ने कुछ सोचा, इसके बाद मुस्कुराती हुई वह उठी। कबरी रामू की बहू के उठते ही खिसक गई। रामू की बहू एक कटोरा दूध कमरे के दरवाज़े की देहरी पर रखकर चली गई। हाथ में पाटा लेकर वह लौटी तो देखती है कि कबरी दूध पर जुटी हुई है। मौक़ा हाथ में आ गया, सारा बल लगाकर पाटा उसने बिल्ली पर पटक दिया। कबरी न हिली, न डुली, न चीख़ी, न चिल्लाई, बस एकदम उलट गई। आवाज़ जो हुई तो महरी झाड़ू छोड़कर, मिसरानी रसोई छोड़कर और सास पूजा छोड़कर घटनास्थल पर उपस्थित हो गईं। रामू की बहू सर झुकाए हुए अपराधिनी की भाँति बातें सुन रही है। महरी बोली- अरे राम! बिल्ली तो मर गई। माँजी, बिल्ली की हत्या बहू से हो गई, यह तो बुरा हुआ। मिसरानी बोली- माँजी, बिल्ली की हत्या और आदमी की हत्या बराबर है, हम तो रसोई न बनाएँगी, जब तक बहू के सिर हत्या रहेगी। सास जी बोलीं- हाँ, ठीक तो कहती हो, अब जब तक बहू के सर से हत्या न उतर जाए, तब तक न कोई पानी पी सकता है, न खाना खा सकता है, बहू, यह क्या कर डाला? महरी ने कहा- फिर क्या हो, कहो तो पंडितजी को बुलाय लाई। सास की जान-में-जान आई- अरे हाँ, जल्दी दौड़ के पंडितजी को बुला लो। बिल्ली की हत्या की ख़बर बिजली की तरह पड़ोस में फैल गई—पड़ोस की औरतों का रामू के घर ताँता बँध गया। चारों तरफ़ से प्रश्नों की बौछार और रामू की बहू सिर झुकाए बैठी। पंडित परमसुख को जब यह ख़बर मिली, उस समय वह पूजा कर रहे थे। ख़बर पाते ही वे उठ पड़े—पंडिताइन से मुस्कुराते हुए बोले- भोजन न बनाना, लाला घासीराम की पतोहू ने बिल्ली मार डाली, प्रायश्चित होगा, पकवानों पर हाथ लगेगा। पंडित परमसुख चौबे छोटे-से मोटे-से आदमी थे। लंबाई चार फीट दस इंच और तोंद का घेरा अट्ठावन इंच। चेहरा गोल-मटोल, मूँछ बड़ी-बड़ी, रंग गोरा, चोटी कमर तक पहुँचती हुई। कहा जाता है कि मथुरा में जब पसेरी ख़ुराकवाले पंडितों को ढूँढ़ा जाता था, तो पंडित परमसुखजी को उस लिस्ट में प्रथम स्थान दिया जाता था। पंडित परमसुख पहुँचे और कोरम पूरा हुआ। पंचायत बैठी—सासजी, मिसरानी, किसनू की माँ, छन्नू की दादी और पंडित परमसुख। बाक़ी स्त्रियाँ बहू से सहानुभूति प्रकट कर रही थीं। किसनू की माँ ने कहा- पंडितजी, बिल्ली की हत्या करने से कौन नरक मिलता है? पंडित परमसुख ने पत्रा देखते हुए कहा- बिल्ली की हत्या अकेले से तो नरक का नाम नहीं बतलाया जा सकता, वह महूरत भी मालूम हो, जब बिल्ली की हत्या हुई, तब नरक का पता लग सकता है। यही कोई सात बजे सुबह—मिसरानीजी ने कहा। पंडित परमसुख ने पत्रे के पन्ने उलटे, अक्षरों पर उँगलियाँ चलाईं, माथे पर हाथ लगाया और कुछ सोचा। चेहरे पर धुंधलापन आया, माथे पर बल पड़े, नाक कुछ सिकुड़ी और स्वर गंभीर हो गया- हरे कृष्ण! हे कृष्ण! बड़ा बुरा हुआ, प्रातःकाल ब्रह्म-मुहूर्त में बिल्ली की हत्या! घोर कुंभीपाक नरक का विधान है! रामू की माँ, यह तो बड़ा बुरा हुआ। रामू की माँ की आँखों में आँसू आ गए- तो फिर पंडितजी, अब क्या होगा, आप ही बतलाएँ! पंडित परमसुख मुस्कुराए- रामू की माँ, चिंता की कौन-सी बात है, हम पुरोहित फिर कौन दिन के लिए हैं? शास्त्रों में प्रायश्चित का विधान है, सो प्रायश्चित से सब कुछ ठीक हो जाएगा। रामू की माँ ने कहा- पंडितजी, इसीलिए तो आपको बुलवाया था, अब आगे बतलाओ कि क्या किया जाए? किया क्या जाए, यही एक सोने की बिल्ली बनवाकर बहू से दान करवा दी जाए—जब तक बिल्ली न दे दी जाएगी, तब तक तो घर अपवित्र रहेगा, बिल्ली दान देने के बाद इक्कीस दिन का पाठ हो जाए। छन्नू की दादी बोली- हाँ और क्या, पंडितजी ठीक तो कहते हैं, बिल्ली अभी दान दे दी जाए और पाठ फिर हो जाए। रामू की माँ ने कहा- तो पंडितजी, कितने तोले की बिल्ली बनवाई जाए? पंडित परमसुख मुस्कुराए, अपनी तोंद पर हाथ फेरते हुए उन्होंने कहा- बिल्ली कितने तोले की बनवाई जाए? अरे रामू की माँ, शास्त्रों में तो लिखा है कि बिल्ली के वज़न-भर सोने की बिल्ली बनवाई जाए। लेकिन अब कलियुग आ गया है, धर्म-कर्म का नाश हो गया है, श्रद्धा नहीं रही। सो रामू की माँ, बिल्ली के तौल भर की बिल्ली तो क्या बनेगी, क्योंकि बिल्ली बीस-इक्कीस सेर से कम की क्या होगी, हाँ, कम-से-कम इक्कीस तोले की बिल्ली बनवाकर दान करवा दो और आगे तो अपनी-अपनी श्रद्धा! रामू की माँ ने आँखें फाड़कर पंडित परमसुख को देखा- अरे बाप रे! इक्कीस तोला सोना! पंडितजी यह तो बहुत है, तोला-भर की बिल्ली से काम न निकलेगा? पंडित परमसुख हँस पड़े- रामू की माँ! एक तोला सोने की बिल्ली! अरे रुपया का लोभ बहू से बढ़ गया? बहू के सिर बड़ा पाप है, इसमें इतना लोभ ठीक नहीं! मोल-तोल शुरू हुआ और मामला ग्यारह तोले की बिल्ली पर ठीक हो गया। इसके बाद पूजा-पाठ की बात आई। पंडित परमसुख ने कहा- उसमें क्या मुश्किल है, हम लोग किस दिन के लिए हैं रामू की माँ, मैं पाठ कर दिया करुँगा, पूजा की सामग्री आप हमारे घर भिजवा देना। पूजा का सामान कितना लगेगा? अरे, कम-से-कम में हम पूजा कर देंगे, दान के लिए क़रीब दस मन गेहूँ, एक मन चावल, एक मन दाल, मन-भर तिल, पाँच मन जौ और पाँच मन चना, चार पसेरी घी और मन-भर नमक भी लगेगा। बस, इतने से काम चल जाएगा। अरे बाप रे! इतना सामान! पंडितजी इसमें तो सौ-डेढ़ सौ रुपया ख़र्च हो जाएगा—रामू की माँ ने रुआँसी होकर कहा। फिर इससे कम में तो काम न चलेगा। बिल्ली की हत्या कितना बड़ा पाप है, रामू की माँ! ख़र्च को देखते वक़्त पहले बहू के पाप को तो देख लो! यह तो प्रायश्चित है, कोई हँसी-खेल थोड़े ही है—और जैसी जिसकी मरजादा, प्रायश्चित में उसे वैसा ख़र्च भी करना पड़ता है। आप लोग कोई ऐसे-वैसे थोड़े हैं, अरे सौ-डेढ़ सौ रुपया आप लोगों के हाथ का मैल है। पंडि़त परमसुख की बात से पंच प्रभावित हुए, किसनू की माँ ने कहा- पंडितजी ठीक तो कहते हैं, बिल्ली की हत्या कोई ऐसा-वैसा पाप तो है नहीं—बड़े पाप के लिए बड़ा ख़र्च भी चाहिए। छन्नू की दादी ने कहा- और नहीं तो क्या, दान-पुन्न से ही पाप कटते हैं। दान-पुन्न में किफ़ायत ठीक नहीं। मिसरानी ने कहा- और फिर माँजी आप लोग बड़े आदमी ठहरे। इतना ख़र्च कौन आप लोगों को अखरेगा। रामू की माँ ने अपने चारों ओर देखा—सभी पंच पंडितजी के साथ। पंडित परमसुख मुस्कुरा रहे थे। उन्होंने कहा- रामू की माँ! एक तरफ़ तो बहू के लिए कुंभीपाक नरक है और दूसरी तरफ़ तुम्हारे ज़िम्मे थोड़ा-सा ख़र्चा है। सो उससे मुँह न मोड़ो। एक ठंडी साँस लेते हुए रामू की माँ ने कहा- अब तो जो नाच नचाओगे नाचना ही पड़ेगा। पंडित परमसुख ज़रा कुछ बिगड़कर बोले- रामू की माँ! यह तो ख़ुशी की बात है—अगर तुम्हें यह अखरता है तो न करो, मैं चला—इतना कहकर पंडितजी ने पोथी-पत्रा बटोरा। अरे पंडितजी—रामू की माँ को कुछ नहीं अखरता—बेचारी को कितना दुःख है—बिगड़ो न!—मिसरानी, छन्नू की दादी और किसनू की माँ ने एक स्वर में कहा। रामू की माँ ने पंडितजी के पैर पकड़े—और पंडितजी ने अब जमकर आसन जमाया। और क्या हो? इक्कीस दिन के पाठ के इक्कीस रुपए और इक्कीस दिन तक दोनों बखत पाँच-पाँच ब्राह्मणों को भोजन करवाना पड़ेगा, कुछ रुककर पंडित परमसुख ने कहा- सो इसकी चिंता न करो, मैं अकेले दोनों समय भोजन कर लूँगा और मेरे अकेले भोजन करने से पाँच ब्राह्मण के भोजन का फल मिल जाएगा। यह तो पंडितजी ठीक कहते हैं, पंडितजी की तोंद तो देखो! मिसरानी ने मुस्कुराते हुए पंडितजी पर व्यंग किया। अच्छा तो फिर प्रायश्चित का प्रबंध करवाओ, रामू की माँ ग्यारह तोला सोना निकालो, मैं उसकी बिल्ली बनवा लाऊँ—दो घंटे में मैं बनवाकर लौटूँगा, तब तक सब पूजा का प्रबंध कर रखो—और देखो पूजा के लिए… पंडितजी की बात ख़त्म भी न हुई थी कि महरी हाँफती हुई कमरे में घुस आई और सब लोग चौंक उठे। रामू की माँ ने घबराकर कहा—अरी क्या हुआ री? महरी ने लड़खड़ाते स्वर में कहा—माँजी, बिल्ली तो उठकर भाग गई! *********

  • My Mother My God

    Rao Yashvardhan Singh My Mother My God My mother is my friend My mother is my god I will serve her love her I won’t go abroad She hugs me She holds me She snugs me She scolds me Her love is unconditional This tells she is god I will love her always Even if she beats with a rod Her love created me She underwent such pain Gave me my life Even my first grain Oh mother you are my friend You are my god ********

  • नकली दोस्त

    डॉ. कृष्ण कांत श्रीवास्तव एक जंगल में एक शेर रहता था। गीदड़ उसका सेवक था। जोड़ी अच्छी थी। शेरों के समाज में तो उस शेर की कोई इज्जत नहीं थी, क्योंकि वह जवानी में सभी दूसरे शेरों से युद्ध हार चुका था, इसलिए वह अलग-थलग रहता था। उसे गीदड़ जैसे चमचे की सख्त जरूरत थी जो चौबीस घंटे उसकी चमचागिरी करता रहे। गीदड़ को बस खाने का जुगाड़ चाहिए था। पेट भर जाने पर गीदड़ उस शेर की वीरता के ऐसे गुण गाता कि शेर का सीना फुलकर दुगना चौड़ा हो जाता। एक दिन शेर ने एक बिगड़ैल जंगली सांड का शिकार करने का साहस कर डाला। सांड बहुत शक्तिशाली था। उसने लात मारकर शेर को दूर फेंक दिया, जब वह उठने को हुआ तो सांड ने फां-फां करते हुए शेर को सींगों से एक पेड़ के साथ रगड़ दिया। किसी तरह शेर जान बचाकर भागा। शेर सींगों की मार से काफी जख्मी हो गया था। कई दिन बीते, परंतु शेर के जख्म ठीक होने का नाम नहीं ले रहे थे। ऐसी हालत में वह शिकार नहीं कर सकता था। स्वयं शिकार करना गीदड़ के बस की बात नहीं थी। दोनों के भूखो मरने की नौबत आ गई। शेर को यह भी भय था कि खाने का जुगाड़ समाप्त होने के कारण गीदड़ उसका साथ न छोड़ जाए। शेर ने एक दिन उसे सुझाया, 'देख, जख्मों के कारण मैं दौड़ नहीं सकता। शिकार कैसे करूं? तु जाकर किसी बेवकूफ-से जानवर को बातों में फंसाकर यहां ला। मैं उस झाड़ी में छिपा रहूंगा। गीदड़ को भी शेर की बात जंच गई। वह किसी मूर्ख जानवर की तलाश में घूमता-घूमता एक कस्बे के बाहर नदी-घाट पर पहुंचा। वहां उसे एक मरियल-सा गधा घास पर मुंह मारता नजर आया। वह शक्ल से ही बेवकूफ लग रहा था। गीदड़ गधे के निकट जाकर बोला 'पांय लागूं चाचा। बहुत कमजोर हो आए हो, क्या बात है?' गधे ने अपना दुखड़ा रोया, 'क्या बताऊं भाई, जिस धोबी का मैं गधा हूं, वह बहुत क्रूर है। दिनभर ढुलाई करवाता है और चारा कुछ देता नहीं।' गीदड़ ने उसे न्‍यौता दिया- 'चाचा, मेरे साथ जंगल चलो, वहां बहुत हरी-हरी घास है। खूब चरना तुम्हारी सेहत बन जाएगी।' गधे ने कान फड़फड़ाए- 'राम-राम। मैं जंगल में कैसे रहूंगा? जंगली जानवर मुझे खा जाएंगे।' 'चाचा, तुम्हें शायद पता नहीं कि जंगल में एक बगुला भगतजी का सत्संग हुआ था। उसके बाद सारे जानवर शाकाहारी बन गए हैं। गीदड़ बोला- अब कोई किसी को नहीं खाता और कान के पास मुंह ले जाकर दाना फेंका, 'चाचू, पास के कस्बे से बेचारी गधी भी अपने धोबी मालिक के अत्याचारों से तंग आकर जंगल में आ गई थी। वहां हरी-हरी घास खाकर वह खूब लहरा गई है, तुम उसके साथ घर बसा लेना।' गधे के दिमाग पर हरी-हरी घास और घर बसाने के सुनहरे सपने छाने लगे। वह गीदड़ के साथ जंगल की ओर चल दिया। जंगल में गीदड़ गधे को उसी झाड़ी के पास ले गया, जिसमें शेर छिपा बैठा था। इससे पहले कि शेर पंजा मारता, गधे को झाड़ी में शेर की नीली बत्तियों की तरह चमकती आंखें नजर आ गईं। वह डरकर उछला, गधा भागा और भागता ही गया। शेर बुझे स्वर में गीदड़ से बोला-'भाई, इस बार मैं तैयार नहीं था। तुम उसे दोबारा लाओ इस बार गलती नहीं होगी।' गीदड़ दोबारा उस गधे की तलाश में कस्बे में पहुंचा। उसे देखते ही बोला- 'चाचा, तुमने तो मेरी नाक कटवा दी। तुम अपनी दुल्हन से डरकर भाग गए?' 'उस झाड़ी में मुझे दो चमकती आंखें दिखाई दी थीं, जैसी शेर की होती हैं। मैं भागता नहीं तो क्या करता?' गधे ने शिकायत की। गीदड़ नाटक करते हुए माथा पीटकर बोला- 'चाचा ओ चाचा! तुम भी पूरे मूर्ख हो। उस झाड़ी में तुम्हारी दुल्हन थी। जाने कितने जन्मों से वह तुम्हारी राह देख रही थी। तुम्हें देखकर उसकी आंखें चमक उठीं तो तुमने उसे शेर समझ लिया?' गधा बहुत लज्जित हुआ-क्योंकि गीदड़ की चालभरी बातें ही ऐसी थीं। गधा फिर उसके साथ चल पड़ा। जंगल में झाड़ी के पास पहुंचते ही शेर ने नुकीले पंजों से उसे मार गिराया। इस प्रकार शेर व गीदड़ का भोजन जुटा। सार - दूसरों की चिकनी-चुपड़ी बातों में आने की मूर्खता कभी नहीं करनी चाहिए। ********

  • मानसिक रूप से सबल बने

    आम धारणा कि विपुल धन-संपत्ति एकत्रित करने से मनुष्य मानसिक रूप से संतुष्ट रहता है। वह खुद को शारीरिक रूप से भी मजबूत बनाए रखने में समर्थ महसूस करता है। परंतु यह विचारधारा तर्कसंगत नहीं है। इसीलिए बेहतर यही होगा कि हम शुरुआत से ही धन संपत्ति एकत्रित करने के स्थान पर मानसिक और शारीरिक रूप से मजबूत बनाने की आदत विकसित करें। क्योंकि मानसिक विकास हमें हर परिस्थिति में संतुलित रखने में सहायक साबित हो सकता हैं। अतः जीवन में मन और शरीर को जितना बेहतर बनाया जा सके उतना बेहतर बनाया जाना अनिवार्य हैं। हम मानसिक रूप से जितना ज्यादा सकारात्मक होंगे सफलता हासिल करने की संभावना उतनी ही ज्यादा होगी। सामान्यतः रुपए कमाने की होड़ में मनुष्य बुनियादी आवश्यकताओं की अनदेखी कर देता है। परिणामस्वरूप ज्यादातर मामलों में न रुपए मिलते है और न ही मानसिक शांति। धन की अपेक्षा मानसिक रूप से सबल होना ज्यादा महत्वपूर्ण है। मानसिक सबलता हमें सही दिशा में लगातार प्रयास करते रहने की शक्ति प्रदान करती हैं। हालांकि, हम सब मन और बुद्धि से पूरी तरह से किसी भी परिस्थिति को सहन करने में सक्षम होते है, परंतु इन क्षमताओं का भान हमें उम्र के उस पड़ाव में होता है जहां चाह कर भी हम खुद को बेहतर नहीं बना सकते। जीवन निर्वाह के लिए रुपए कमाना अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं परन्तु केवल रुपए कमाने के लिए हम अपने मौलिक गुणों को अनदेखा कर दें ऐसा करना बिल्कुल भी समझदारी नहीं होगी। मनुष्य के लिए एक साथ सभी गुणों को विकसित करना थोड़ा मुश्किल हो सकता है। इसलिए इन गुणों को अपनाने के लिए हमें कुछ नियमों का पालन करना चाहिए। मुश्किल काम को छोटे-छोटे टुकड़े में बांट कर करना आसान हो जाता है। नियमित रूप से खुद में थोड़ा-थोड़ा सुधार बड़ा बदलाव ला सकता है। सही दिशा में की गई मेहनत हमेशा फायदा देती है इस बात को समझने की आवश्यकता है। मानसिक स्वास्थ्य के लिए हमेशा उत्साह, जोश और उमंग से भरपूर लोगों की संगत होना बहुत जरूरी है। इसके अलावा जो लोग हमारे उत्साह को कम करते है, हमें कभी भी आगे बढ़ने की सलाह या सुझाव नहीं देते हैं उनसे जितना हो सके उतना दूर दूर रहना चाहिए। हमें खुद भी शुरुआत से ही आरामदायक चीजों की अपेक्षा मेहनत और संघर्ष करने के विकल्प का चयन करना चाहिए। सही दिशा में की गई मेहनत हमेशा फायदा देती है इस बात को समझने की आवश्यकता है। वास्तव में हमारे अंदर इतनी बुद्धि और विवेक है कि हम जो कुछ भी हासिल करना चाहे वो हासिल कर सकते हैं। लेकिन इसके लिए हमें निरंतर अभ्यास द्वारा खुद को सबल और सक्षम बनाना होगा। खुद में आत्मविश्वास जगाकर हम अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरा कर सकते हैं। यदि शारीरिक बल नहीं है तो संभावना है कि वह आलस्य हो जो हमारी मानसिक ताकत को प्रभावित करता हो। इसके लिए हमें उन लोगों की जीवनियां पढनी चाहिए जिनसे हमारे व्यक्तित्व को बल मिले और हमारा मानसिक विकास होता रहे। महान लोगों के जीवन से प्रेरणा लेकर, खुद में आत्मविश्वास जगाकर हम अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरा कर सकते हैं। आमतौर पर हम अपनी कामयाबी की संभावनाओं का अनुमान बहुत कम लगाते हैं। इसके अलावा जीवन में धन प्राप्ति की इच्छा में परेशान, हताश रहते हैं। ज्यादातर मौकों पर हम खुद को प्रेरित करने और बदलने की कोशिश भी नहीं करते हैं। आत्मविश्लेषण द्वारा हम इन बातों को समझ सकते हैं। इस प्रकार के प्रयास से हम अपने भीतर ऐसी आदतों को विकसित कर सकते हैं जो हमें महानता की श्रेणी में शामिल कर सकती हैं। मानसिक स्वास्थ्य हमारे आचरण और दूसरों के साथ किए गए बर्ताव पर निर्भर करता है। जितना हम दूसरों से की गई उम्मीदों से खुद को मुक्त रखेंगे उतना हम मानसिक रूप से मजबूत बनते जाएंगे। हमें अपने व्यक्तित्व को इस प्रकार निखारना चाहिए कि वो हमें महानता की श्रेणी में शामिल कर सके। प्रकृति ने हमें पूरी तरह से सक्षम बनाया है। अब मेहनत करना हमारे अपने हाथ में होता है। और इसमें हमें अपनी तरफ से कोई कम या ज्यादा का छोटा रास्ता नहीं ढूंढना चाहिए। हमें सिर्फ मेहनत करनी है वो भी पूरे मन से इसके अलावा कोई और विकल्प नहीं है। सच मानिए मन से स्वस्थ व्यक्ति ही सबके प्रति सम्मान और आदर की भावना रख सकता है। मानसिक रूप से सशक्त होना इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके बल पर इंसान भले ही धन दौलत न कमा सकें लेकिन एक संतुलित जीवन जरूर व्यतीत कर सकता हैं। और इसके लिए हमें उचित समय का इंतजार करने की आवश्यकता नहीं है। यह मानकर चलना चाहिए कि सफलता के लिए सबसे उपयुक्त समय यही है। इसके साथ ही, मन से स्वस्थ व्यक्ति सबके प्रति सम्मान और आदर की भावना भी रखता है। क्योंकि एक सबल इंसान में यह सब स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होने लगता है। वैसे भी जीवन की खुबसूरती दूसरों को सम्मान देने में ही निहित है। वास्तव में सामाजिक सहयोग और सद्भावना के बिना जीवन में कुछ भी हासिल करना लगभग मुश्किल है। अपने परिवार, दोस्तों और सहयोगियों को धन्यवाद देना अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं। मन की एकाग्रता और सतर्कता के लिए हमें खुद ही प्रयास करना होगा। कहावत भी है कि “मन के हारे हार है मन के जीते जीत” इंसान के जीवन में कुछ और भले ही ना हो लेकिन मानसिक मजबूती होना बहुत जरूरी है। धन हमें जीवन में सुख-सुविधाएं उपलब्ध करा सकता हैं परन्तु मन की एकाग्रता और सतर्कता के लिए हमें खुद ही प्रयास करना होगा। इसके लिए हमें धन का इंतजार करने की आवश्यकता नहीं है। यदि वाकई हमारे अंदर कुछ शानदार करने की इच्छा है तो हमें वे सब कार्य करने की आवश्यकता है जिनको एक सामान्य व्यक्ति व्यर्थ समझता है। हमारा कोई भी दिन ऐसा न जाए कि जब हम कुछ बेहतर न सीखें। चूंकि वह दिन हमारे जीवन में वापिस नहीं आ सकता। हमें ऐसे लोगों से दूर रहना होगा जो हमेशा दूसरों का समय बर्बाद करते हैं। इसके अतिरिक्त आज के काम को आज़ ही करने की कोशिश जरूर करें। *********

  • और, रजनीगन्धा मुरझा गये..

    महेश कुमार केशरी "पापा लाईट नहीं है, मेरी ऑनलाइन क्लासेज कैसे होंगी... ..? ..कुछ...दिनों में मेरी सेकेंड टर्म के एग्जाम शुरू होने वाले हैं.. कुछ दिनों तक तो मैनें अपनी दोस्त नेहा के घर जाकर पावर बैंक चार्ज करके काम चलाया, लेकिन अब रोज - रोज किसी से पावर बैंक चार्ज करने के लिए कहना अच्छा नहीं लगता, आखिर, कब आयेगी हमारे घर बिजली.?" संध्या... अपने पिता आदित्य से बड़बड़ाते हुए बोलीl "आ जायेगी, बेटा बहुत जल्दी आ जायेगीl" आदित्य जैसे अपने आपको आश्वसत करते हुए अपनी बेटी संध्या से बोला, लेकिन, वो जानता है कि वो संध्या को केवल दिलासा भर दे रहा हैl सच तो ये है कि अब मखदूमपुर में बिजली कभी नहीं आयेगीl सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर ही बिजली विभाग ने यहाँ के घरों की बिजली काट रखी हैl पानी की पाइपलाइन खोद कर धीरे- धीरे हटा दी जायेगी, और धीरे - धीरे मखदूमपुर से तमाम मौलक नागरिक सुविधाएँ स्वत: ही खत्म हो जायेंगी और, सर से छत छिन जायेगाl फिर, वो सुलेखा, संध्या, सुषमा और परी, को लेकर कहाँ जायेगा? बहुत मुश्किल से वो अपने एल. आई. सी. के निधि और अपने पिता श्री बद्री प्रसाद जी की रिटायरमेंट से मिले पँद्रह- बीस लाख रूपये से एक अपार्टमेंट खरीद पाया थाl तिनका - तिनका जोड़करl जैसे गौरैया अपना घर बनाती हैl सोचा था कि, अपनी बच्चियों की शादी करने के बाद वो आराम से अपनी पत्नी सुलेखा के साथ रहेगाl बुढ़ापे के दिन आराम से अपनी छत के नीचे काटेगा, लेकिन, अब ऐसा नहीं हो सकेगाl उसे ये घर खाली करना होगा, नहीं तो, नगर - निगम वाले आकर, जे. सी बी. से तोड़ देंगेl वो दिल्ली से सटे फरीदाबाद के पास मखदूमपुर गाँव में रहता है l पिछले बीस - बाईस सालों से मखदूमपुर में तीन कमरों के अपार्टमेंट में वो रह रहा हैl बिल्ड़र संतोष तिवारी ने घर बेचते वक्त ये बात साफ तौर पर नहीं बताई थीl ये जमीन अधिकृत नहीं हैl यानी वो निशावली के जंगलों के बीच जंगलों और पहाड़ों को काटकर बनाया गया एक छोटा सा कस्बा जैसा थाl जहाँ आदित्य रहता आ रहा था, हालाँकि, वो अपार्टमेंट लेते वक्त उसके पिता श्री बद्री प्रसाद और उसकी पत्नी सुलेखा ने मना भी किया था -"मुझे तो ड़र लग रहा हैl कहीं..ये जो तुम्हारा फैसला है, वो कहीं हमारे लिए बाद में सिरदर्द ना बन जायेl" तब उसी क्षेत्र के एक नामी- गिरामी नेता रंकुल नारायण ने सुलेखा, आदित्य और बद्री प्रसाद को आश्वसत भी किया था.- "अरे, कुछ नहीं होगा l आप लोग आँख मूँद कर लीजिए यहाँ अपार्टमेंटl मैनें..खुद अपने रिश्तेदारों और दोस्तों को दिलाया है, यहाँ अपार्टमेंटl मैं पिछले पँद्रह - बीस सालों से यहाँ विधायक हूँl चिंता करने की कोई बात नहीं हैl" रंकुल नारायण का बहनोई था बिल्ड़र संतोष तिवारीl ये बात अगले आने वाले विधानसभा चुनाव में पता चली थीl जब अनाधिकृत कालोनी के टूटने की बात आदित्य को पता चलीl रंकुल नारायण ने उस साल के विधानसभा चुनाव में, सारे लोगों को आश्वासन दिया था कि, आप लोगों को घबराने की कोई जरूरत नहीं हैl आप लोग मुझे इस विधानसभा चुनाव में जीतवा दीजियेl फिर मैं असेंबली में मखदूमपुर की बात उठाता हूँ, कि नहीं आप खुद ही देखियेगाl कोई नहीं खाली करवा सकता, ये मखदूमपुर का इलाकाl हमने आपके राशन कार्ड बनवायेl हमने आपके घरों में बिजली के मीटर लगवायेl यहाँ कुछ नहीं था, जंगल था जंगल, लेकिन, हमने जंगलों को कटवाकर पाईपलाइन बिछायाl आप लोगों के घरों तक पानी पहुंचाया, ये कोई बहुत बड़ी बात नहीं हैl अनाधिकृत को अधिकृत करवानाl असेंबली में चर्चा की जायेगी, और कुछ उपाय कर लिया जायेगाl इस मखदूमपुर वाले प्रोजेक्ट में मेरे बहनोई का कई सौ करोड़ रुपया लगा हुआ हैl इसे हम किसी भी कीमत पर अधिकृत करवा कर ही रहेंगे, और अंततः रंकुल नारायण की बातों पर लोगों ने विश्वास कर उसे भारी मतों से जीतवा दिया थाl और, रंकुल नारायण के विधानसभा चुनाव जीतने के साल भर बाद ही सुप्रीम कोर्ट का ये आदेश आया था, कि मखदूमपुर कस्बा बसने से निशावली के प्राकृतिक सौंदर्य और पर्यावरण को बहुत ही नुकसान हो रहा हैl लिहाजा, जो अनाधिकृत कस्बा मखदूमपुर बसाया गया हैl उसे अविलंब तोड़ा जायेl और डेढ़ - दो महीने का वक्त खुले में रखे कपूर की तरह धीरे-धीरे उड़ रहा थाl "पापा.. ना हो .. तो .. आप मुझे मेरी दोस्त सुनैना के घर छोड़ आईयेl वहाँ मेरी पावरबैंक भी चार्ज हो जायेगी और, मैं सुनैना से मिल भी लूँगीl मुझे कुछ नोटस भी उससे लेने हैंl" आदित्य को भी ये बात बहुत अच्छी लगीl सुनैना के घर जाने वालीl बच्ची का मन लग जायेगा... कोविड़ में घर-में रहते- रहते बोर हो गई हैl आदित्य ने स्कूटी निकाली और, गाड़ी स्टार्ट करते हुए बोला - "आओ, बेटी बैठोl " थोड़ी देर में स्कुटी सड़क पर दौड़ रही थीl संध्या को सुनैना के घर छोड़कर कुछ जरुरी काम को निपटा कर वो राशन का सामान पहुँचाने घर आ गया थाl "मैं, क्या करूँ, सुलेखा? तीन-तीन जवान बच्चियों को लेकर कहां किराये के मकान में मारा-मारा फिरूँगाl और अब उम्र भी ढलान पर होने को आ रही हैl आखिर, बुढ़ापे में कहीं तो सिर टिकाने के लिए ठौर चाहिए हीl कुछ मेरे एल. आई. सी. के फँड हैं, कुछ बाबूजी के रिटायरमेन्ट का पैसा पड़ा हुआ हैl जोड़-जाड़कर कुछ पँद्रह-बीस लाख रुपये तो हो ही जाएँगेl कुछ, संतोष तिवारी से नेगोशियेट (मोल- भाव) भी कर लेंगेl और तब आदित्य ने बीस लाख में वो तीन कमरों वाला अपार्टमेंट खरीद लिया थाl बिल्ड़र संतोष तिवारी से l लेकिन, तब सुलेखा ने आदित्य को मना करते हुए कहा था- "पता नहीं क्यों ये संतोष तिवारी और रंकुल नारायण मुझे ठीक आदमी नहीं जान पड़तेl इन पर विश्वास करने का दिल नहीं करता हैl" लेकिन, आदित्य बहुत ही सीधा- साधा आदमी था lवो किसी पर भी सहज ही विश्वास कर लेता था l तभी उसकी नजर अपनी पत्नी सुलेखा पर गईl शायद आठवाँ महीना लगने को हो आया हैl पेट कितना निकल गया हैl उसने देखा सुलेखा नजदीक के चापाकल से मटके में एक मटका पानी सिर पर लिये चली आ रही हैl साथ में उसकी दो छोटी बेटियां, परी और सुषमा भी थींl वो अपने से ना उठ पाने वाले वजन से ज्यादा पानी दो-दो बाल्टियों में भरकर नल से लेकर आ रही थींl आदित्य ने देखा तो दौड़ कर बाहर निकल आया, और, सुलेखा के सिर से मटका उतारते हुए बोला - "पानी नहीं.. आ रहा है.. क्या... ?" तभी उसका ध्यान बिजली पर चला गयाl बिजली तो कटी हुई हैl आखिर, पानी चढ़ेगा तो कैसे?, मोटर तो बिजली से चलता है..नाl "नहीं- पानी कैसे आयेगा..? बिजली कहाँ है... एक बात कहूँ, बुरा तो नहीं मानोगे नाl ना हो तो... मुझे मेरे पापा के घर कुछ दिनों के लिए पहुँचा दोl जब यहाँ कुछ व्यवस्था हो जायेगी तो यहाँ वापस बुला लेनाl बच्चा भी ठीक से हो जायेगा, और, मुझे थोड़ा आराम भी मिलेगाl यहाँ इस हालत में मुझे बहुत तकलीफ हो रही हैl पानी भी नहीं आ रहा हैl बिजली भी नहीं आ रही हैl सुलेखा चेहरे का पसीना पल्लू से पोंछते हुए बोलीl अभी तक सुलेखा और बेटियों को घर टूटने वाला हैl ये बात जानबूझकर, आदित्य ने नहीं बताई है l खाँ- मा-खाँ वो, परेशान हो जायेंगी...l "हाँ, पापा घर में बहुत गर्मी लगती हैl पता नहीं बिजली कब आयेगीl हमें नानू के घर पहुँचा दो ना पापा.. "परी बोलीl "हाँ, बेटा, कोविड़ कुछ कम हो तो तुम लोगों को नानू के घर पहुँचा दूँगाl" आदित्य परी के सिर पर हाथ फेरते हुए बोलाl "तुम हाथ - मुँह धो लो मैं, चाय गर्म करती हूँl "सुलेखा, गैस पर चाय चढ़ाते हुए बोलीl चाय पीकर वो टहलते हुए, नीचे बालकनी में आ गयाl कॉलोनी में, कॉलोनी को खाली करवाने की बात को लेकर ही चर्चा चल रही थीl कुलविंदर सिंह बोले- "यहीं, वारे(महाराष्ट्र) के जंगलों को काटकर वहाँ मेट्रो बनाया गया.. वहाँ सरकार कुछ नहीं कह रही है, लेकिन हमारी कॉलोनी इन्हें अनाधिकृत लग रही हैl सब सरकार के चोंचले हैंl मेट्रो से कमाई है, तो, वहाँ वो पर्यावरण संरक्षण की बात नहीं करेगीl लेकिन, हमारे यहाँ, निशावली के जँगलों और पर्यावरण को नुकसान पहुँच रहा हैl हुँह..पता नहीं कैसा सौंदर्यीकरण कर रही है, सरकार? फिर, ये हमारा राशन कार्ड, वोटर कार्ड, आधार कार्ड किसलिए बनाये गये हैं? केवल, वोट लेने के लिएl जब, कोई बस्ती-कॉलोनी बस रही होती है, बिल्ड़र उसे लोगों को बेच रहा होता हैl तब, सरकारों की नजर इस पर क्यों नहीं जाती? हम अपनी सालों की मेहनत से बचाई, पाई-पाई जोड़कर रखते हैंl अपने बाल-बच्चों के लिएl और, कोई कारपोरेट या बिल्ड़र हमें ठगकर चला जाता हैl तब, सरकार की नींद खुलती हैl हमें सरकार कोई दूसरा घर कहीं और व्यवस्था करके दे, नहीं तो हम यहाँ से हटने वाले नहीं हैंl घोष बाबू सिगरेट की राख चुटकी से झाड़ते हुए बोले - ".. अरे.. छोड़िये कुलविंदर सिंहl ये सारी चीजें सरकार और, इन पूँजीपतियों के साँठगाँठ से ही होती है, अगर अभी जांच करवा ली जाये तो आप देखेंगे कि हमारे कईमिनिस्टर, एम. पी. , एम. एल. ए. इनके रिश्तेदार इस फर्जी वाड़े में पकड़े जायेंगेl सरकार के नाक के नीचे इतना बड़ा काँड़ होता हैl करोड़ों के कमीशन बंट जाते हैं, और आप कहते हैं, कि सरकार को कुछ पता नहीं होताl कोई मानेगा इस बात कोl सब, सेटिंग से होता हैl नहीं तो इस देश में एक आदमी फुटपाथ पर भीख माँगता है, और दूसरा आदमी केवल तिकड़म भिड़ाकर ऐश करता है... ये आखिर, कैसे होता है..? सब, जगह सेटिंग काम करती हैl" उसका नीचे बालकनी में मन नहीं लगा वो वापस अपने कमरे में आ गया, और बिस्तर पर आकर पीठ सीधा करने लगाl तुमसे मैं कई बार कह चुकी हूँ, लेकिन तुम मेरी कोई भी बात मानों तब नाl अगर, होटल नहीं खुल रहा है, तो कोई और काम-धाम शुरू करोl समय से आदमी को सीख लेनी चाहिएl कोरोना का दो महीना बीतने को हो आया, और, सरकार, होटलों को खोलने के बारे में कोई विचार नहीं कर रही हैl आखिर, और लोग भी अपना बिजनेस चेंज कर रहे हैं, लेकिन, पता नहीं, तुम क्यों इस होटल से चिपके हुए हो..? कौन, समझाये, सुलेखा को बिजनेस चेंज करना इतना आसान नहीं होता हैl एक बिजनेस को सेट करने में कई- कई पीढ़ियां निकल जाती हैंl फिर, उसकेदादा-परदादा ये काम कई पीढ़ियों से करते आ रहे थेंl इधर नया बिजनेस शुरू करने के लिए नई पूँजी चाहिएl कहाँ से लेकर आयेगा वो अब नई पूँजी..? इधर, होटल पर बिजली का बकाया बिल बहुत चढ़ गया हैl स्टाफ का दो तीन महीने का पुराना बकाया चढ़ा हुआ था हीl रही-सही कसर इस कोरोना ने निकाल दीl कुल चार-पाँच महीनों का बकाया चढ़ गया होगाl अब तक दूकान खोलते-खोलते दूकान का मालिक, सिर पर सवार हो जायेगाl दूकान के भाड़े के लिएl दूध वाले, राशन वाले को भी लॉकड़ाउन खुलते ही पैसे देने होगेंl पिछले बीस-बाईस सालों का संबंध है उनकाl इसलिए, वे कुछ कह नहीं पा रहे हैंl आखिर, वो करे तोक्या करे..? पिछले, लॉकड़ाउन में भी जब संध्या और सुषमा के स्कूल वालों ने कैम्पस केयर (एजुकेशन ऐप) को लॉक कर दिया थाl तो, मजबूरन उसे जाकर स्कूल की फीस भरनी पड़ी थीl आखिर, स्कूल वाले भी करें तो क्या करें? उनके भी अपने खर्चे हैंl बिल्ड़िंग का भाड़ा, स्टाफ का खर्चा और स्कूल के मेंटेनेंस का खर्चाl कोई भी हवा पीकर थोड़ी ही जी सकता हैl आखिर, कहाँ, गलती हुई उससेl वो इस देश का नागरिक हैl उसे वोट देने का अधिकार हैl वो सरकार को टैक्स भी देता हैl सारी चीजें उसके पास थींl पैन कार्ड, राशन कार्ड, वोटर कार्ड, आधार कार्ड, लेकिन, जिस घर में वो इधर बीस - बाईस सालों से रहता आ रहा थाl वो घर ही अब उसका नहीं थाl घर भी उसने पैसे देकर ही खरीदा थाl उसे ये उसकी कहानी नहीं लगती, बल्कि, उसके जैसे दस हजार लोगों की कहानी लगती हैl मखदूमपुर दस हजार की आबादी वाला कस्बा थाl ऐसा, शायद, दुनिया के सभी देशों में होता है l नकली पासपोर्ट, नकली वीजा वैध- अवैध नागरिकताl सभी जगह इस तरह के दस्तावेज, पैसे के बल पर बन जाते हैंl सारे देशों में सारे मिडिल क्लास लोगों की एक जैसी परेशानी हैl ये केवल उसकी समस्या नहीं है, बल्कि उसके जैसे सैंकड़ों-लाखों करोड़ों लोगों की समस्या हैl बस, मुल्क और, सियासत बदल जाते हैंl स्थितियाँ कमोबेश एक जैसी ही होती हैंl सबकी एक जैसी लड़ाईयाँ बस लड़ने वाले लोग, अलग-अलग होते हैंl जमीन जमीन का फर्क है, लेकिन, सारे जगहों पर हालात एक जैसे ही हैंl आदित्य का सिर भारी होने लगा और पता नहीं कब वो नींद की आगोश में चला गयाl इधर, वो, सुलेखा और, अपनी तीनों बेटियों को अपने ससुर के यहाँ लखनऊ पहुँचा आया थाl और, बहुत धीरे से इन हालातों के बारे में उसने सुलेखा को बताया थाl "अरे, बाबूजी, अब, ये रजनीगन्धा के पौधे को छोड़ भी दीजियेl देखते नहीं पत्तियों कैसी मुरझा कर टेढ़ी हो गईं हैंl अब नहीं लगेगा रजनीगन्धाl लगता है, इसकी जड़ें सूख गई हैl बाजार जाकर नया रजनीगन्धा लेते आइयेगा मैं लगा दूँगाl " माली, ने आकर जब आवाज लगाई तब, जाकर, आदित्य की निंद्रा टूटीl " ऊँ.. क्या..चाचा. आप कुछ कह रहे थें..?" आदित्य ने रजनीगन्धा के ऊपर से नज़र हटाईl करीब-करीब बीस-पच्चीस दिन हो गया हैl उसे, नये किराये के मकान में आयेl अगल-बगल से एक लगाव जैसा भी अब हो गया हैl शिवचरन, माली चाचा भी कभी-कभी उसके घर आ जाते हैंl इधर-उधर की बातें करने लगते हैं, तो समय का जैसे पता ही नहीं चलताl मखदूमपुर से लौटते हुए, वो अपने अपार्टमेंट में से ये रजनीगन्धा का पौधा कपड़े में लपेट कर अपने साथ लेते आया थाl आखिर, कोई तो निशानी उस अपार्टमेंट की होनी चाहिएl जहाँ इतने साल निकाल दियेl "मैं, कह रहा था कि बाजार से एक नया रजनीगन्धा का पौधा लेते आनाl लगता... है, इसकी जड़ें सूख गईं हैंl नहीं तो, पत्ते में हरियाली जरूर फूटतीl देखते नहीं कैसे मुरझा गयी हैं पत्तियाँ? कुँभलाकर पीली पड़ गईं हैंl लगता है, इनकी जड़ें सूख गई हैंl बेकार में तुम इन्हें पानी दे रहे होl" "हाँ, चचा,पीला तो मैं भी पड़ गया हूँl जड़ों से कटने के बाद आदमी भी सूख जाता हैl अपनी जड़ों से कट जाने के बाद आदमी का भी कहीं कोई वजूद बचता है क्या..? बिना मकसद की जिंदगी हो जाती हैl पानी इसलिए दे रहा हूँ... कि कहीं ये फिर, से हरी-भरी हो जाएँl एक उम्मीद है, अभी भी जिंदा है..कहीं भीतर..!" और, आदित्य वहीं रजनीगन्धा के पास बैठकर फूट फूट कर रोने लगाl बहुत दिनों से जब्त की हुई नदी अचानक से भरभराकर टूट गई थी, और शिवचरन चाचा उजबकों की तरह आदित्य को घूरे जा रहे थेंl उनको कुछ समझ में नहीं आ रहा थाl **********

  • हाथी और दर्जी

    रमन अवस्थी एक गाँव में एक दर्जी रहता था। वह नेकदिल, दयालु और मिलनसार था। सभी गाँव वाले अपने कपड़े उसी को सीने दिया करते थे। एक दिन दर्जी की दुकान में एक हाथी आया। वह भूखा था। दर्जी ने उसे केला खिलाया। उस दिन के बाद से हाथी रोज दर्जी की दुकान में आने लगा। दयालु दर्जी उसे रोज केला खिलाता। बदले में हाथी कई बार उसे अपनी पीठ पर बिठाकर सैर पर ले जाता। दोनों की घनिष्ठता देखकर गाँव वाले भी हैरान थे। एक दिन दर्जी को किसी काम से बाहर जाना पड़ा। उसने अपने बेटे को दुकान पर बिठा दिया। जाते जाते वह उसे केला देते हुए कह गया कि हाथी आये, तो उसे खिला देना। दर्जी का बेटा बड़ा शरारती था। दर्जी के जाते ही उसने केला खुद खा लिया। जब हाथी आया, तो उसके शैतानी दिमाग में एक शरारत सूझी। उसने एक सुई ली और उसे अपने पीछे छुपाकर हाथी के पास गया। हाथी ने समझा कि वह केला देने के लिए आया है। इसलिए अपनी सूंड आगे बढ़ा दी। उसके सूंड बढ़ाते ही दर्जी के बेटे ने उसे सुई चुभो दी। हाथी दर्द से बिलबिला उठा। ये देखकर दर्जी के लड़के को बड़ा मज़ा आया और वह ताली बजाकर ख़ुश होने लगा। दर्द से बिलबिलाता हाथी गाँव की नदी की ओर भागा। वहाँ जाकर उसने अपनी सूंड पानी में डाल दी। कुछ देर नदी के शीतल जल में रहकर उसे राहत महसूस हुई। उसे दर्जी के लड़के पर बड़ा गुस्सा आ रहा था। उसने उसे सबक सिखाने की ठानी और अपनी सूंड में कीचड़ भरकर दर्जी की दुकान की तरफ बढ़ा। दर्जी के लड़के ने जब फिर से हाथी को आते देखा, तो सुई लेकर बाहर आ गया। वह हाथी के पास आते ही उसे सुई चुभाने के लिए आगे बढ़ा, मगर हाथी ने सूंड में भरा सारा कीचड़ उस पर उड़ेल दिया। लड़का दुकान के दरवाज़े के सामने खड़ा था। वह ऊपर से नीचे तक कीचड़ से लथपथ हो गया। दुकान के अंदर भी छिटक गया और लोगों द्वारा दिए गए कपड़े भी गंदे हो गये। उसी समय दर्जी भी अपना काम निपटाकर दुकान वापस आया। वहाँ की ये हालत देखकर उसे कुछ समझ नहीं आया। उसने अपने बेटे से पूछा, तो बेटे ने सारी बात बता दी। दर्जी ने बेटे को समझाया कि तुमने हाथी के साथ बुरा व्यवहार किया है, इसलिए उसने भी तुम्हारे साथ वैसा ही व्यवहार किया है। जैसा व्यवहार करोगे, वैसा ही पाओगे। आज के बाद किसी के साथ बुरा मत करना। फिर दर्जी ने हाथी के पास जाकर उसकी पीठ सहलाई और उसे केला खिलाया। हाथी ख़ुश हो गया। दर्जी के बेटे ने भी उसे केले खिलाये, जिससे हाथी और उसकी दोस्ती हो गई। उस दिन के बाद से हाथी दर्जी के बेटे को भी अपनी पीठ पर बिठाकर घुमाने लगा। अब दर्जी के बेटे ने शरारत छोड़ दी और सबसे अच्छा व्यवहार करने लगा।

  • तर्पण

    महेश कुमार केशरी विवेक की मौत ठंड लगने की वजह से हो गयी थी। दाह -संस्कार से घर लौटकर आते हुए भी तन्मय ने एक बार वही सवाल अपने दादा गोपी बाबू के सामने दोहराया था। जिसे बार - बार गोपी बाबू टाल जाना चाह रहा थें। वो कैसे जबाब देते? अभी तो वे, अपने इकलौते बेटे की मौत के सदमे से उबर भी नहीं पाये थें। अपने बेटे की लाश को कँधा देना हर बाप के लिये दुनिया का सबसे मुश्किल काम होता है। गोपी बाबू के कँठ भींगने लगते हैं। जब कोई विवेक की बात करता है। करीब सप्ताह भर पहले भी घर की सफाई के वक्त उसने वही सवाल दुहराया था - "दादा, आप घर की सफाई क्यों करवा रहें हैं? उस दिन भी आप लोगों ने पापा के मरने के बाद पूरे घर को धुलवाया था। पंडित जी से पूछा , तो उन्होंने कहा कि मरने के बाद मरे हुए आदमी के कारण घर अपवित्र हो जाता है। इसलिये हम घर की साफ- सफाई करते हैं। उसे धोते हैं।" पूरे घर में चारों तरफ पेंट की गंध फैली हुई थी। तन्मय के कार चलाते हुए हाथ अचानक से तब रूक गये। जब उसने गोपी बाबू को अपना सिर मुँड़वाते हुए देखा। हैरत से ताकते हुए उसने अपने दादा गोपी बाबू से पूछा - "दादा आप सिर क्यों मुँड़वा रहें हैं?" गोपी बाबू पीढ़े पर अधबैठे और झुके हुए ही बोले - "बेटा, ऐसे ही।" "ऐसे ही कोई काम नहीं होता बताईये ना?" तन्मय जिद करते हुए बोला। इस बार गोपी बाबू बेबस हो गये। फिर वे बोले - "बेटा जब हमारा कोई अपना गुजर जाता है। तो उसको हम अपनी सबसे प्यारी चीज अर्पित कर देते हैं। ये हमारा उस व्यक्ति के प्रति हमारी निष्ठा का सूचक होता है। हमारे यहाँ के संस्कार में इसे तर्पण कहते हैं। इस मामले में हमारे बाल हमारी सबसे प्यारी चीजों में से एक होते हैं। इसलिये हम अपने बाल मुँडवाकर अपने पूर्वजों से उऋण होते हैं।उनको सम्मान देते हैं। उनसे ये वादा भी करतें हैं , कि उसके मरने के बाद उसके बचे हुए कामों को हम पूरा करेंगें। बालों का मुँडन उस मृतक व्यक्ति के प्रति हमारा शोक भी होता है।" तन्मय ने गोपी बाबू से फिर पूछा - "कैसा शोक दादा? एक तरफ हम छुआ- छूत और बीमारियों के डर से अपना बाल मुँडवा लेते हैं और, शोक का नाम देते हैं। ये हमारा आडंबर नहीं है तो क्या है? पापा के मरने के बाद हम अपने घर को धुलवा रहे हैं। उस पर पुताई करवा रहें हैं। जैसे, पापा मरने के बाद हमारे लिये अछूत हो गयें हों। जीते जी उन्होंने इस घर के लियेऔर हमारे लिये कितना कुछ किया। मैनें एक बार कहा। और वो मेरे लिये लैपटॉप ले आये। मम्मी के लिये स्कूटी खरीदी। ये घर बनाया। सारी ज़िंदगी मेहनत करते रहे। और मरने के बाद हमारे लिये अछूत हो गये। कितने मतलबी हैं, हम लोग! जहाँ उन्हे लिटाया गया उस जगह को पानी से धोया गया। घर के ऊपर चूना, वर्निश पेंट - पुचारा हो रहा है। आपके - हमारे बालों का तर्पण हो रहा है। छि: कितनी खराब है ये दुनिया!" तन्मय के चेहरे पर हिकारत के भाव उभर आये थें। गोपी बाबू का कँठ अपने पोते की बातें सुनकर रूँधने लगा था। वो सच ही तो कह रहा था। ***********

  • बेकरार दिल

    प्रेम नारायण बहुत गंवाया मैंने तेरी बेखुदी से कभी शोहरत मिली तो कभी बदनामी मिली सिर्फ तेरी नाकामी से हमने न कभी चाहा था तेरी दुनियां से जुदा होना मगर क्या करूं आप तो खफा थे मेरी नादानी से हाल अब बद से बदतर हुआ जा रहा है तुझसे दिल लगाने से नुकसान ही हुआ मेरी नादानी से गैरों से धोखा खाए तो हम संभल गए मगर दोस्ती कर दुश्मनी क्यूं ये न समझ सके अपनी खामी से चाहें तो ठुकरा दें मर्ज़ी है आपकी मगर कब तक ज़ुल्म जमा होगा अब हम न करेंगे शिकवा तुम्हीं से बगावत का इल्म हममें नहीं क्या पता था वो दौर भी आएगा जब सामना होगा इक दूजे की नाकामी से *******

  • बरखा ऋतु

    प्रदीप श्रीवास्तव बरसे बरखा सुहानी रे.... आई ऋतुओं की रानी रे..... सावन के महीने में, झूलों की कहानी रे...... बरसे बरखा............ जब नील गगंन में , काले काले मेघा छाये रे । मोती बनकर ये बूँदे , निर्झर धरती पे बरसाये । मिलकर गाये गीत सुहाने रे ।। बरसे बरखा........... निर्मल जल गिरता पानी, मोती चॉदी सा चमके पानी । मस्त अल्हड़ चले पवन पुरवाई , पेड़ो शाख़ो पे जवानी छाई । सब दिलों पे मस्ती छाई रे ।। बरसे बरखा.............. ताल पोखर कुंआ तलैया रे , खेतों में होवन लगी बुआई रे । खेतों मेडों पे बैठी नवतरुणाई , गीत सुहावन गाये रे । मोर मोरनी संग नाचे रे ।। बरसे बरखा............... *********

  • बंधन

    सम्पदा ठाकुर मैं बांध नहीं रही तुम्हें किसी बंधन में ना करवा रही तुमसे कोई करार बेफिक्र रहो तुम हो आजाद पर मुझे मत रोको यार जिस बंधन में बंध चुकी हूं मैं नहीं हो सकती उससे आजाद मैं नहीं कहती तुमसे तुम हर पल करो मुझसे बात पर जब मेरा दिल करे तब सुना दिया करो अपनी आवाज बस एक झलक दिखला दिया करो जब करना चाहे दिल तेरा दीदार मुझे पता है मेरी खुशी के लिए मेरा दिल रखने के लिए कर लेते हो मुझसे बात मगर कहीं ना कहीं मेरे दिल में है एक आस खुद पर और मुझे मेरे रब पर हमको है पूरा विश्वास एक ना एक दिन तुम भी इस बंधन को मानोगे यार तुम भी करोगे हमसे प्यार जिस तरह मैं हर पल महसूस करती हूं तुमको तुमको भी होगा मेरा एहसास बस उस पल का है इंतजार। *******

  • सीखना सतत प्रक्रिया है।

    पिंकी सिंघल कहा जाता है कि जब सीखने की प्रक्रिया बंद हो जाती है उसी पल से हमारा विकास होना भी अवरुद्ध होने लगता है हमारे आगे बढ़ने के अवसर उसी क्षण समाप्त हो जाते हैं। ऐसे में एक सीमा तक हमने जितना कुछ सीखा, जाना उसी के सहारे हमें आगे का जीवन जीना होता है। जिस पल हमारे मन में यह बात घर कर जाती है कि अब हम सब कुछ सीख चुके हैं और आगे कुछ सीखने की हमें कोई आवश्यकता नहीं रह गई है, तो समझ लीजिए उससे अधिक दुर्भाग्य की बात हमारे लिए दूसरी कोई हो ही नहीं सकती। सीखने सिखाने की प्रक्रिया जीवन पर्यंत चलती रहती है हम हर पल हर क्षण कुछ नया सीखते हैं। अपने जीवन में मिलने वाले हर शख्स से हमें कुछ ना कुछ सीखने को मिलता है। सीखने का कोई अंत होता ही नहीं है। जैसे ही हमें यह महसूस होने लगता है कि अब हमें जीवन का काफी अनुभव हो गया है और दुनियादारी की समझ हमारे भीतर आ गई है उसी क्षण हमें कुछ ऐसा नया ज्ञान, नया अनुभव, नई सीख मिलती है जिसके बाद हममें फिर से कुछ नया सीखने की उत्सुकता जागृत होने लगती है और हम सीखने की उसी दिशा में खींचे चले जाते हैं। जब तक हम उस नए ज्ञान को ग्रहण नहीं कर लेते और नवीन चीजों को सीख समझ नहीं लेते, तब तक हमें सब्र नहीं आता और हम बेचैन रहते हैं। वस्तुत: यही बेचैनी ही तो हमें नित नया सीखने के लिए प्रेरित करती है। ज्ञान पिपासु होने की प्रवृत्ति प्रति क्षण प्रबल होती जाती है जिसके शांत होने पर ही हमें सुकून का अहसास होता है। अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर सीखना है क्या और कैसे बेहतर तरीके से सीखा जा सकता है? मेरे हिसाब से जीवन में सब कुछ औपचारिक तरीके से ही नहीं सीखा जाता अपितु अप्रत्यक्ष एवम अनौपचारिक माध्यमों से भी व्यक्ति काफी कुछ सीख जाता है। कभी-कभी हम दूसरों को कुछ करते देख स्वत: ही कुछ नया सीख जाते हैं। यह भी आवश्यक नहीं है कि कुछ नया सिखाने वाला हमसे उम्र में बड़ा ही हो। हम सभी अपने दैनिक जीवन में इस प्रकार का अनुभव करती हैं कि कभी-कभी हम छोटे छोटे बच्चों से भी बड़ी-बड़ी, गहरी और नवीन बातें सीख जाते हैं। बच्चों द्वारा कभी-कभी हमें ऐसी सीख दे दी जाती है जिसे देख हम खुद अचंभित रह जाते हैं। इसलिए सीखने सिखाने का आयु से कोई खास संबंध नहीं होता। दूसरी बात, केवल दूसरों की आकांक्षाओं और आशाओं पर खरा उतरने के लिए ही ना सीखे सिखाएं अपितु अपनी क्षमताओं, कैपेसिटी और पेसे के हिसाब से ही सीखें और आगे बढ़ने का प्रयास करें। अपनी उत्सुकता को कभी ठंडा ना पड़ने दें क्योंकि उत्सुकताओं में आया हुआ उबाल ही हमें एक बेहतर इंसान बनने में मदद करता है। तीसरी बात, सीखने सिखाने की कोई निश्चित उम्र नहीं होती यदि कोई कहे कि एक निश्चित आयु तक ही व्यक्ति कुछ सीख सकता है तो यह सर्वथा गलत माना जाएगा। जैसा कि मैंने ऊपर भी कहा कि यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो तमाम उम्र चलती रहती है। जाने अनजाने में भी हम दूसरे लोगों से बहुत कुछ सीख जाते हैं जिसे अंग्रेजी में इनडायरेक्ट लर्निंग का नाम दिया जाता है। किताबी ज्ञान कभी भी उस ज्ञान का होड़ नहीं कर सकता जो ज्ञान व्यक्ति खुद कुछ सही गलत करके और अपने आसपास के वातावरण और अनुभवों से प्राप्त करते हैं। सीखने से तात्पर्य केवल किसी चीज को समझना ही नहीं है अपितु उस समझ और ज्ञान को अपने दैनिक जीवन में प्रयोग में लाना भी होता है। असली मायनों में सीख तभी कारगर मानी जाती है जब उस सीख से प्राप्त समझ और ज्ञान को हम अपने जीवन में अपनाते हैं और अपने जीवन को पहले से अधिक बेहतर बनाने का यथासंभव प्रयास करते हैं। सीखने सिखाने की प्रक्रिया तो जीव जंतुओं में भी देखी गई है। एक छोटी सी चींटी भी दूसरी चीटियों को पंक्ति बद्ध हो कर चलता देखती है तो स्वत: ही पंक्ति में चलना प्रारंभ कर देती है। उस चींटी को ऐसा करने के लिए किसी ने नहीं बोला अपितु यह ज्ञान यह सीख उसे दूसरों को देखकर मिला, जिसे उसने अपने जीवन में अपनाया। कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन में प्राप्त ज्ञान और नई चीजों को सीखने का वास्तविक लाभ हमें तभी प्राप्त हो सकता है जब हम उसे अपने दैनिक जीवन में प्रयोग में लाएं अपने ज्ञान से दूसरों को भी लाभान्वित करें और मिलजुलकर एक सभ्य और पहले से कहीं अधिक विकसित समाज का नव निर्माण करने में अपना योगदान दें। *************

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