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  • संस्कार

    लक्ष्मीकांत त्रिपाठी बहू कहां मर गई? अंदर से आवाज - जिंदा हूं माँ जी। तो फिर मेरी चाय क्यूं अभी तक नहीं आई, कब से पूजा करके बैठी हूं। ला रही हूं माँ जी, बहू चाय के साथ, भजिया भी ले आयी, सास ने कहा तेल का खिलाकर क्या मारोगी? बहू ने कहा- ठीक हैं माँ जी ले जाती हूं। सास ने कहा- रहने दे अब बना दिया हैं तो खा लेती हूं। सास ने भजिया उठाई और कहा- कितनी गंदी भजिया बनाई हैं तुमने। बहू- माँ जी मुझे कपड़े धोने हैं मैं जाती हूं। बहू दरवाजे के पास छिपकर खड़ी हो गयी। सास भजिया पर टूट पड़ी और पूरी भजिया खत्म कर दी। बहू मुस्कुराई और काम पर लग गई। दोपहर के खाने का वक्त हुआ। सास ने फिर आवाज लगाई - कुछ खाने को मिलेगा। बहू ने आवाज नहीं दी। सास फिर चिल्लाई - भूखे मारोगी क्या, बहू आयी सामने खिचड़ी रख दी। सास गुस्से से - ये क्या है, मुझे इसे नहीं खाना। इसे ले जाओ। बहू ने कहा- आपको डॉक्टर ने दिन में खिचड़ी खाने को कहा है, खाना तो पड़ेगा ही। सास मुंह बनाते हुए, हाँ तू मेरी माँ बन जा, बहू फिर मुस्कुराई और चली गई। आज इनके घर पूजा थी, बहू सुबह 4 बजे से उठ गयी। पहले स्नान किया, फिर फूल लाई। माला बनाई। रसोई साफ की। पकवान और भोज बनाया। सुबह के 10 बज गए। अब सास भी उठ चुकी थी। बहू अब पंडित जी के साथ भगवान के वस्त्र तैयार कर रही थी। आज ऑफिस की छुट्टी भी थी। उनके पति भी घर पर थे। पूजा शुरू हुई, सास चिल्लाती बहू ये नहीं है, वो नही है। बहू दौड़ी-दौड़ी आती और सब करती। अब दोपहर के 3 बज गये थे, आरती की तैयारी चल रही थी, पंडित जी ने सबको आरती के लिए बुलाया और सबके हाथों में थाली दी, जैसे ही बहू ने थाली पकड़ी, थाली हाथों से गिर पड़ी। शायद भोज बनाते हुए बहू के हाथों मे तेल लगा था, जिसे वो पोंछना भूल गयी थी। सारे लोग तरह-तरह की बातें करने लगे। कैसी बहू है, कुछ नहीं आता। एक काम भी ठीक से नहीं कर सकती। ना जाने कैसी बहू उठा लाए। एक आरती की थाली भी संभाल नहीं सकी। उसके पति भी गुस्सा हो गए पर सास चुप रही। कुछ नहीं कहा। बस यही बोल के छोड़ दिया सीख रही है, सब सीख जाएगी धीरे-धीरे। अब सबको खाना परोसा जाने लगा, बहू दौड़-दौड़ के खाना देती, फिर पानी लाती। करीब 70 - 80 लोग हो गये थे, इधर दो नौकर और बहू अकेली फिर भी वहाँ सारा काम, बहुत ही अच्छे तरीके से करती। अब उसकी सास और कुछ आसपड़ोस के लोग खाने पर बैठे, बहू ने खाना परोसना शुरू किया, सब को खाना दे दिया गया, जैसे ही पहला निवाला सास ने खाया- तुमने नमक ठीक नहीं डाला क्या। एक काम ठीक से नहीं करती। पता नहीं मेरे बाद कैसे ये घर संभालेगी। आस-पड़ोस वालों को तो जानते ही हो ना साहब। वो बस बहाना ढूंढते हैं नुक्स निकालने का। फिर वो सब शुरू हो गये, ऐसा खाना है, ऐसी बहू है, ये वो वगैरहा-वगैरहा। दिन का खाना हो चुका था, अब बहू बर्तन साफ करने नौकरों के साथ लग गई। रात में जगराता का कार्यक्रम रखा गया था। बहू ने भी एक दो गीत गाने के लिए स्टेज पर चढ़ी। सास जोर से चिल्लाई - मेरी नाक मत कटा देना, गाना नहीं आता तो मत गा, वापस आ जा। बहू मुस्कुराई और गाने लगी। सबने उसके गाने की तारीफ की, पर सास मुंह फूलाते हुए बोली, इससे अच्छा तो मैं गाती थी जवानी में, तुझे तो कुछ भी नहीं आता। बहू मुस्कुराई और चली गई। अब रात का खाना खिलाया जा रहा था। उसके पति के ऑफिस के दोस्त साइड में ही ड्रिंक करने लगे। उसका पति चिल्लाता थोड़ा बर्फ लाओ, तो सास चिल्लाती यहाँ दाल नहीं है, फिर चिल्लाता कोल्ड ड्रिंग नहीं है, पापड़ ले आओ। इधर-उधर आखिरी में उसके पति की शराब गिर पड़ी उसके एक दोस्त पर और बोलत टूट गई। पति गुस्से में दो झापड़ अपनी पत्नी को लगाते हुए कहता है- जाहिल कहीं की। देखकर नहीं कर सकती। तुझे इतना भी काम नहीं आता। सारे लोग देखने लगे। उसकी पत्नी रोते हुए कमरे की तरफ दौड़ी, फिर उसके दोस्तों ने कहा - क्या यार पूरा मूड खराब कर दिया, यहाँ नहीं बुलाया होता, हम कहीं और पार्टी कर लेते। कैसी अनपढ़-गंवार बीवी ला रखी है तूने। उसे तो मेहमानों की इज्जत और काम करना तक नहीं आता, तुमने तो हमारी बेईजती कर दी। अब आस पड़ोस की औरतों को और बहाना मिल गया था। वो कहने लगीं, देखो क्या कर दिया तुम्हारी बहू ने। कोई काम कीं नही है। मैं तो कहती हूं अपने बेटे की दूसरी शादी करा दो, छुटकारा पाओ इस गंवार से। सास उठी और अपने बेटे के पास जाकर उसे थप्पड़ मारा और कहा- अरे नालायक, तुमने मेरी बहू को मारा, तेरी हिम्मत कैसे हुई। तेरी टाँग तोड़ दूंगी, उसके बेटे के दोस्त कुछ कहने ही वाले थे कि उसकी माँ ने घूरते हुए- कहा चुप बिल्कुल चुप। यहाँ दारू पीने आये हो, जबकि पता है आज पूजा है और तुम्हें पार्टी करनी है, कैसे संस्कार दिये हैं तुम्हारे, माता-पिता ने। और किसने मेरी बहू को जाहिल बोला, जरा इधर आओ। चप्पल से मारूंगी अगर मेरी बहू को किसी ने शब्द भी कहा तो। अरे पापी, तूने उस लड़की को बस इसलिए मारा कि तेरी शराब टूट गयी, पापी वो बच्ची सुबह चार बजे से उठी है। घर का सारा काम कर रही है। ना सुबह से नाश्ता किया ना दिन का खाना खाया। फिर भी हंसते हुए सबकी बातें सुनते हुए, ताने सुनते हुए घर के काम में लगी रही। तेरे यार दोस्तो को वो अच्छी नहीं लगी। जूते से मारूंगी तेरे दोस्तों को जो कभी उन्होंने ऐसा कहा। उसके यार दोस्त चुपके से खिसक लिए। अब सास, बहू के कमरे में गयी, और बहू का हाथ पकड़कर बाहर लाई। सबके सामने कहने लगी, किसने कहा था अपनी बहू को घर से निकाल के दूसरी बहू ले आना। जरा सामने आओ। कोई सामने नहीं आया। फिर सास ने कहा, तुम जानते भी क्या हो इस लड़की के बारें में। ये मेरी “माँ” भी है, बेटी भी। माँ इसलिए मुझे गलत काम करने पर डाँटती हैं और बेटी इसलिए, कभी-कभी मेरी दिल की भावनाएं समझ जाती हैं। मेरी दिन-रात सेवा करती है। मेरे हजार ताने सुनती है पर एक शब्द भी गलत नहीं कहती। ना सामने ना पीठ पीछे। और तुम कहते हो, दूसरी बहू ले आऊं। याद है ना छुटकी की दादी, अपनी बहू की करतूत, सास ने गुस्से से पड़ोस की महिला को कहा, अभी पिछले हफ्ते ही तुम्हें मियां-बीवी भूखे छोड़ घूमने चले गये थे। मेरी इसी बहू ने 7 दिनों तक तुम्हारे घर पर खाना-पानी यहाँ तक कि तुम्हारे पैर दबाने जाती थी और तुम इसे जाहिल बोलती हो। जाहिल तो तुम सब हो जो कोयले और हीरे में फर्क नही जानते। अगर आइंदा मेरी बहू के बारे में किसी ने एक लफ्ज भी बोला तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा क्यूंकि ये मेरी बहू नहीं, मेरी बेटी है। बहू सिसकियाँ लेते हुये फिर कमरें में चली गई। सास ने एक प्लेट उठायी और भोजन परोसा। बहू के कमरे में खुद ले गयी, सास को भोजन लाते देखा तो बहू ने कहा- अरे माँ जी आप क्या कर रही हों, मैं खुद ले लेती। सास ने प्यार से ताना मारते हुये कहा, डर मत इसमें जहर नही हैं, मार नहीं डालूंगी तुझे। तुझे नई सास चाहिए होगी, पर मुझे अभी भी तू ही मेरे घर की बहू चाहिए। बहू ने अपनी सास को रोते हुए गले से लगा लिया। सास भी रो दी पहली बार और कहा- चल खाना खा ले। फिर मजाक करते हुए कहा, फिर मेरे पैर दबाने चले आना और ये ख्याल मन में मत लाना कि सास बोलती है, किसी दिन मैं इसका गला दबा दूंगी, क्यूंकि कभी मैं भी यही सोचती थी। दोनों खूब हंसने लगती हैं। *******

  • नालायक

    रमाशंकर कुशवाहा दीनानाथ जी कपड़े के व्यापारी थे। इनके तीन लड़के विशाल, रवि और सूरज थे। दीनानाथ जी चाहते थे कि इनके तीनों बच्चे अपने पैरों पर खड़ा हो जाए ताकि मेरे मरने के बाद इन्हें किसी चीज के लिए मोहताज न रहना पड़े। इनके दो लड़के विशाल और रवि पढ़ने में काफी होशियार थे लेकिन इनका छोटा बेटा सूरज को पढ़ने में जरा भी मन नहीं लगता था जिस कारण से दीनानाथ हमेशा उस से नाराज रहते थे और अपने पत्नी से कहते, "पता नहीं यह नालायक आगे अपने जिंदगी मे क्या करेगा? मुझे अपने दोनो बेटों पर पूरा भरोशा है, यह दोनों मेरा नाम जरूर रौशन करेगे और यह नालायक (सूरज) मेरी नाक कटबा कर ही रहेगा। कुछ ही दिनों में, तीनो के कॉलेज का रिजल्ट आया जिस में उनके दोनों लड़के अच्छे नंबरो से पास हो गये लेकिन उनका छोटा बेटा फेल हो। सूरज के फेल होने पर उसके पिता खुब डाटते और उससे हर समय कहते, "यह नालायक मेरा नाक कटवा दिया।” विशाल और रवि का एक अच्छे से कंपनी में नौकरी लग जाता है वही छोटा बेटा घर पर बैठा रहता, जिसे देख कर उसके पिता हमेशा 'नालायक' कह कर ताना मारा करते। दीनानाथ ने कहा, "मेरे जीवित रहते ही तीनो के बेटों के बीच सम्पंती और जमीन का बटबार कर देता हुं ताकि मेरे मरने के बाद संपत्ति को लेकर इनके बीच झगड़ा ना हो। तीनो भाइयों को बराबर-बराबर संपत्ति और जमीन मिलती है। छोटा बेटा (सूरज) गाँव में अपने जमीन के हिस्से में खेती किया करता था और दीनानाथ अपने पत्नी के साथ शहर में अकेले रहता थे क्योंकि उनके दोनो बेटे दूसरे शहर में जॉब करते थे और वह अपने छोटे बेटे को एकदम पसंद नहीं करते थे। एक दिन, दीनानाथ, घबराते हुए स्वर में अपने बड़े को फोन करते है और कहते हैं, तुम्हारी माँ का एक्सीडेंट हो गया है और वह हॉस्पिटल में भर्ती है। डॉक्टर बोल रहे हैं, तुम्हारी माँ के ऑपरेशन में 5 लाख खर्च होगा, तुम जल्दी पैसे भेज दो ताकि ऑपरेशन शुरु हो सके। पैसे की बात सुनकर बड़ा बेटा बोलता है, मैंने हाल में ही नया घर खरीदा है जिसमे सारे पैसे खत्म हो गए हैं। यह कह कर वह अपने पिता को पैसे देने से मना कर देता है और कहता, "माँ को सरकारी हॉस्पिटल में भर्ती करा दीजिए।” दीनानाथ अपने बड़े बेटे की बात से निराश होकर, अपने दूसरे बेटे को फोन करते हैं और उसको उसकी माँ के बारे मे बताते हैं, लेकिन पैसे की बात सुन दूसरा बेटा भी बहाना कर पैसे देने से मना कर देता है। वह पैसे मांगने के लिए अपने छोटे बेटे के बारे में सोचते हैं लेकिन बाद में वह सोचता है कि जब दोनों ने कुछ नहीं किया तो वो 'नालायक' क्या करेगा? जब दीनानाथ अपनी पत्नी को लेकर सरकारी हॉस्पिटल में जा रहता था तभी उसका नालायक (सूरज) बेटा पीछे से आवाज देता है। पिताजी माँ को लेकर कहाँ जा रहे है? उसके पिताजी उस से कहते हैं मैने तो तुम्हें तुम्हारी माँ के बारे में बताया भी नहीं फिर तुम यहां कैसे? इस पर सूरज बोला, मैंने भी अपने आदमी छोड़ रखे हैं पिताजी जो मुझे आप के बारे में पल पल की जानकारियां देते रहते हैं। यह बोल कर सूरज पिताजी को रुकने को बोलता है, और हॉस्पिटल में पैसे जमा करबा देता है जिससे उसकी माँ का इलाज हो जाता है। फिर उसके बाद सूरज दिखाई नहीं देता। पत्नी के ठीक होने के बाद, जब दीनानाथ अपने बेटे से मिलने गांव जाते हैं तो देखते हैं उसके खेत में कोई दूसरा आदमी खेती कर रहा है। पूछने पर पता चला कि उसने अपनी जमीन बेच दी क्योंकि उसे पैसे की जरूत थी और काम करने शहर चला गया है। जब दीनानाथ उसके कमरे में जाकर देखते हैं तो पाते हैं कि हॉस्पिटल के बिल की 5,00,000 की रसीद वहीं पर रखी हुई है। यह देख कर उसके पिता के आँखो से आंसू बहने लगते और दीनानाथ मन ही मन सोचते हैं कि जिंस बेटे को हर समय नालायक कहता रहा वो तो हीरा निकला। निष्कर्ष:- कभी-कभी जिससे हम सबसे कम उम्मीद रखते है, वही लोग सबसे अधिक जिम्मेदारी और त्याग दिखाते हैं। सूरज को उसके पिता जीवन भर नालायक समझते रहे, लेकिन विपत्ति के समय जब दोनो समझदार और पढ़े-लिखे बेटे पीछे हट गए, तब सूरज ने माँ की जान बचाने केलिए जमीन तक बेच दी। यह कहानी सिखाती है कि इंसान की सच्ची काबिलियत जिम्मेदारी, प्रेम और त्याग मे होती है। ********

  • एक थी काव्या

    रजनीकांत यह कहानी है काव्या की, जो एक छोटे से शहर, लखनऊ, में पली-बढ़ी थी। उसकी शादी उसकी मर्जी के बिना एक साधारण से इंसान, रोहित, से कर दी गई। रोहित का परिवार भी बहुत बड़ा नहीं था - सिर्फ वो और उसकी बूढ़ी माँ। शादी में उसे ढेर सारे उपहार मिले थे, पर काव्या का दिल किसी और के लिए धड़कता था। उसे लगता था कि उसका असली प्यार कहीं और है, मगर तकदीर ने उसे रोहित के घर पहुँचा दिया। शादी की पहली रात, रोहित उसके लिए दूध लेकर आया। काव्या ने उसे देखते ही सीधे-सीधे पूछा, "अगर कोई पति अपनी पत्नी को उसकी मर्जी के बिना छुए, तो क्या वो उसका हक कहलाएगा या जबरदस्ती?" रोहित ने बिना झिझके जवाब दिया, "आपको इतनी गहराई में जाने की जरूरत नहीं। मैं बस आपको शुभ रात्रि कहने आया था," और ये कहकर वो कमरे से बाहर चला गया। काव्या को शायद इसी बहाने की तलाश थी कि कुछ अनबन हो, ताकि वो इस अनचाहे रिश्ते से बाहर निकल सके। पर उसके इस सवाल पर रोहित ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। काव्या ने ससुराल का कोई काम भी नहीं संभाला। दिनभर अपने फोन में लगी रहती, अलग-अलग लोगों से बातें करती। उसकी सास, बिना कोई शिकायत किए, घर का सारा काम चुपचाप करती रहती और हर वक्त उसके चेहरे पर मुस्कान रहती। रोहित एक सामान्य कंपनी में काम करता था, मेहनती और ईमानदार। एक महीना गुजर गया, लेकिन काव्या और रोहित के बीच कोई पति-पत्नी वाला रिश्ता नहीं बना। फिर एक दिन, काव्या ने उसकी माँ के बनाए खाने की बुराई करते हुए पूरा खाना फेंक दिया। तब पहली बार रोहित ने उस पर गुस्सा किया और डांट दिया। काव्या को यही चाहिए था, एक झगड़ा। वो पैर पटकते हुए घर से बाहर निकल गई और अपने पुराने प्यार से मिलने चली गई। उसने काव्या से कहा, "कब तक ऐसे रहोगी? चलो, कहीं दूर भाग चलते हैं।" मगर सच यह था कि काव्या के पास तो कुछ था नहीं, और वो भी बिना कुछ लिए भागने को तैयार नहीं था। इसी दौरान, एक दिन काव्या ने रोहित की अलमारी खोली और उसमें अपने बैंक पासबुक, एटीएम कार्ड, और अपने गहने पाए, जो उसे लगा था कि उसके घरवालों ने ले लिए हैं। हैरानी तब हुई जब उसने रोहित की डायरी में एक खत पाया। उसमें लिखा था कि उसने उसके हर सामान को संजोकर रखा है और जो पैसे शादी में मिले थे, वो भी उसके अकाउंट में ट्रांसफर कर दिए थे। खत में ये भी लिखा था कि वह उसे प्यार से इस रिश्ते में बाँधना चाहता है, न कि जबरदस्ती। रोहित की इन बातों ने काव्या का दिल छू लिया। उसे अंदाजा ही नहीं था कि ये साधारण सा आदमी उसके दिल की इतनी गहराई को समझ सकता है। धीरे-धीरे काव्या को एहसास हुआ कि रोहित का प्यार उसकी सादगी में था। वो उसे बिना किसी शर्तों के चाहता था, बिना किसी दिखावे के। अगली सुबह, काव्या ने अपनी माँग में गाढ़ा सिंदूर भरा और सीधे रोहित के ऑफिस पहुँच गई। सबके सामने उसने हँसते हुए कहा, "अब सब ठीक है, हम साथ में एक लंबी छुट्टी पर जा रहे हैं।" उस दिन काव्या को समझ आया कि जिन फैसलों को वो अपने लिए गलत मानती थी, वही उसकी जिंदगी के सबसे सही फैसले थे। उसके माँ-बाप ने उसके लिए जो चुना, वो सिर्फ उसकी भलाई के लिए था। ******

  • सोच बदलो

    डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव एक भिखारी था। रेल सफ़र में भीख़ माँगने के दौरान एक सूट बूट पहने सेठ जी उसे दिखे। उसने सोचा कि यह व्यक्ति बहुत अमीर लगता है, इससे भीख़ माँगने पर यह मुझे जरूर अच्छे पैसे देगा। वह उस सेठ से भीख़ माँगने लगा। भिख़ारी को देखकर उस सेठ ने कहा, “तुम हमेशा मांगते ही हो, क्या कभी किसी को कुछ देते भी हो?” भिख़ारी बोला, “साहब मैं तो भिख़ारी हूँ, हमेशा लोगों से मांगता ही रहता हूँ, मेरी इतनी औकात कहाँ कि किसी को कुछ दे सकूँ?” सेठ : जब किसी को कुछ दे नहीं सकते तो तुम्हें मांगने का भी कोई हक़ नहीं है। मैं एक व्यापारी हूँ और लेन-देन में ही विश्वास करता हूँ, अगर तुम्हारे पास मुझे कुछ देने को हो तभी मैं तुम्हें बदले में कुछ दे सकता हूँ। तभी वह स्टेशन आ गया जहाँ पर उस सेठ को उतरना था, वह ट्रेन से उतरा और चला गया। इधर भिख़ारी सेठ की कही गई बात के बारे में सोचने लगा। सेठ के द्वारा कही गयीं बात उस भिख़ारी के दिल में उतर गई। वह सोचने लगा कि शायद मुझे भीख में अधिक पैसा इसीलिए नहीं मिलता क्योकि मैं उसके बदले में किसी को कुछ दे नहीं पाता हूँ। लेकिन मैं तो भिखारी हूँ, किसी को कुछ देने लायक भी नहीं हूँ। लेकिन कब तक मैं लोगों को बिना कुछ दिए केवल मांगता ही रहूँगा। इस बात को सोचते हुए दिनभर गुजरा लेकिन उसे अपने प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिला। दुसरे दिन जब वह स्टेशन के पास बैठा हुआ था तभी उसकी नजर कुछ फूलों पर पड़ी जो स्टेशन के आस-पास के पौधों पर खिल रहे थे। उसने सोचा, क्यों न मैं लोगों को भीख़ के बदले कुछ फूल दे दिया करूँ। उसको अपना यह विचार अच्छा लगा और उसने वहां से कुछ फूल तोड़ लिए। वह ट्रेन में भीख मांगने पहुंचा। जब भी कोई उसे भीख देता तो उसके बदले में वह भीख देने वाले को कुछ फूल दे देता। उन फूलों को लोग खुश होकर अपने पास रख लेते थे। अब भिख़ारी रोज फूल तोड़ता और भीख के बदले में उन फूलों को लोगों में बांट देता था। कुछ ही दिनों में उसने महसूस किया कि अब उसे बहुत अधिक लोग भीख देने लगे हैं। वह स्टेशन के पास के सभी फूलों को तोड़ लाता था। जब तक उसके पास फूल रहते थे तब तक उसे बहुत से लोग भीख देते थे। लेकिन जब फूल बांटते बांटते ख़त्म हो जाते तो उसे भीख भी नहीं मिलती थी, अब रोज ऐसा ही चलता रहा। एक दिन जब वह भीख मांग रहा था तो उसने देखा कि वही सेठ ट्रेन में बैठे है जिसकी वजह से उसे भीख के बदले फूल देने की प्रेरणा मिली थी। वह तुरंत उस व्यक्ति के पास पहुंच गया और भीख मांगते हुए बोला, आज मेरे पास आपको देने के लिए कुछ फूल हैं, आप मुझे भीख दीजिये बदले में मैं आपको कुछ फूल दूंगा। सेठ ने उसे भीख के रूप में कुछ पैसे दे दिए और भिख़ारी ने कुछ फूल उसे दे दिए। उस सेठ को यह बात बहुत पसंद आयी। सेठ : वाह क्या बात है..? आज तुम भी मेरी तरह एक व्यापारी बन गए हो, इतना कहकर फूल लेकर वह सेठ स्टेशन पर उतर गया। लेकिन उस सेठ द्वारा कही गई बात एक बार फिर से उस भिख़ारी के दिल में उतर गई। वह बार-बार उस सेठ के द्वारा कही गई बात के बारे में सोचने लगा और बहुत खुश होने लगा। उसकी आँखे अब चमकने लगीं, उसे लगने लगा कि अब उसके हाथ सफलता की वह चाबी लग गई है जिसके द्वारा वह अपने जीवन को बदल सकता है। वह तुरंत ट्रेन से नीचे उतरा और उत्साहित होकर बहुत तेज आवाज में ऊपर आसमान की ओर देखकर बोला, “मैं भिखारी नहीं हूँ, मैं तो एक व्यापारी हूँ.. मैं भी उस सेठ जैसा बन सकता हूँ.. मैं भी अमीर बन सकता हूँ! लोगों ने उसे देखा तो सोचा कि शायद यह भिख़ारी पागल हो गया है, अगले दिन से वह भिख़ारी उस स्टेशन पर फिर कभी नहीं दिखा। एक वर्ष बाद इसी स्टेशन पर दो व्यक्ति सूट बूट पहने हुए यात्रा कर रहे थे। दोनों ने एक दूसरे को देखा तो उनमे से एक ने दूसरे को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा, “क्या आपने मुझे पहचाना?” सेठ : “नहीं तो! शायद हम लोग पहली बार मिल रहे हैं। भिखारी : सेठ जी.. आप याद कीजिए, हम पहली बार नहीं बल्कि तीसरी बार मिल रहे हैं। सेठ : मुझे याद नहीं आ रहा, वैसे हम पहले दो बार कब मिले थे? अब पहला व्यक्ति मुस्कुराया और बोला : हम पहले भी दो बार इसी ट्रेन में मिले थे, मैं वही भिख़ारी हूँ जिसको आपने पहली मुलाकात में बताया कि मुझे जीवन में क्या करना चाहिए और दूसरी मुलाकात में बताया कि मैं वास्तव में कौन हूँ। नतीजा यह निकला कि आज मैं फूलों का एक बहुत बड़ा व्यापारी हूँ और इसी व्यापार के काम से दूसरे शहर जा रहा हूँ। आपने मुझे पहली मुलाकात में प्रकृति का नियम बताया था... जिसके अनुसार हमें तभी कुछ मिलता है, जब हम कुछ देते हैं। लेन देन का यह नियम वास्तव में काम करता है, मैंने यह बहुत अच्छी तरह महसूस किया है, लेकिन मैं खुद को हमेशा भिख़ारी ही समझता रहा। इससे ऊपर उठकर मैंने कभी सोचा ही नहीं था और जब आपसे मेरी दूसरी मुलाकात हुई तब आपने मुझे बताया कि मैं एक व्यापारी बन चुका हूँ। अब मैं समझ चुका था कि मैं वास्तव में एक भिखारी नहीं बल्कि व्यापारी बन चुका हूँ। समझ की ही तो बात है... भिखारी ने स्वयं को जब तक भिखारी समझा, वह भिखारी रहा। उसने स्वयं को व्यापारी मान लिया, व्यापारी बन गया। *****

  • मैडम या माँ

    डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव एक प्राथमिक स्कूल में अंजलि नाम की एक शिक्षिका थीं। वह कक्षा 5 की क्लास टीचर थी, उसकी एक आदत थी कि वह कक्षा में आते ही हमेशा "LOVE YOU ALL" बोला करतीं थी। मगर वह जानती थीं कि वह सच नहीं बोल रही। वह कक्षा के सभी बच्चों से एक जैसा प्यार नहीं करती थीं। कक्षा में एक ऐसा बच्चा था जो उनको फटी आंख भी नहीं भाता था। उसका नाम राजू था। राजू मैली कुचैली स्थिति में स्कूल आ जाया करता था। उसके बाल खराब होते, जूतों के बन्ध खुले, शर्ट के कॉलर पर मेल के निशान। पढ़ाई के दौरान भी उसका ध्यान कहीं और होता था। मैडम के डाँटने पर वह चौंक कर उन्हें देखता, मगर उसकी खाली-खाली नज़रों से साफ पता लगता रहता कि राजू शारीरिक रूप से कक्षा में उपस्थित होने के बावजूद भी मानसिक रूप से गायब है, यानी (प्रजेंट बाडी अफसेटं माइड)। धीरे-धीरे मैडम को राजू से नफरत सी होने लगी। क्लास में घुसते ही राजू मैडम की आलोचना का निशाना बनने लगता। सब बुरे उदाहरण राजू के नाम पर किये जाते। बच्चे उस पर खिलखिला कर हंसते और मैडम उसको अपमानित कर के संतोष प्राप्त करतीं। राजू ने हालांकि किसी बात का कभी कोई जवाब नहीं दिया था। मैडम को वह एक बेजान पत्थर की तरह लगता जिसके अंदर आत्मा नाम की कोई चीज नहीं थी। प्रत्येक डांट, व्यंग्य और सजा के जवाब में वह बस अपनी भावनाओं से खाली नज़रों से उन्हें देखा करता और सिर झुका लेता। मैडम को अब इससे गंभीर नफरत हो चुकी थी। पहला सेमेस्टर समाप्त हो गया और प्रोग्रेस रिपोर्ट बनाने का चरण आया तो मैडम ने राजू की प्रगति रिपोर्ट में यह सब बुरी बातें लिख मारी। प्रगति रिपोर्ट माता-पिता को दिखाने से पहले हेड मास्टर के पास जाया करती थी। उन्होंने जब राजू की प्रोग्रेस रिपोर्ट देखी तो मैडम को बुला लिया। "मैडम प्रगति रिपोर्ट में कुछ तो राजू की प्रगति भी लिखनी चाहिए। आपने तो जो कुछ लिखा है इससे राजू के पिता इससे बिल्कुल निराश हो जाएंगे।" मैडम ने कहा "मैं माफी माँगती हूँ, लेकिन राजू एक बिल्कुल ही अशिष्ट और निकम्मा बच्चा है। मुझे नहीं लगता कि मैं उसकी प्रगति के बारे में कुछ लिख सकती हूँ। "मैडम घृणित लहजे में बोलकर वहां से उठ कर चली गई स्कूल की छुट्टी हो गई आज तो । अगले दिन हेड मास्टर ने एक विचार किया और उन्होंने चपरासी के हाथ मैडम की डेस्क पर राजू की पिछले वर्षों की प्रगति रिपोर्ट रखवा दी। अगले दिन मैडम ने कक्षा में प्रवेश किया तो रिपोर्ट पर नजर पड़ी। पलट कर देखा तो पता लगा कि यह राजू की रिपोर्ट हैं। "मैडम ने सोचा कि पिछली कक्षाओं में भी राजू ने निश्चय ही यही गुल खिलाए होंगे।" उन्होंने सोचा और कक्षा 3 की रिपोर्ट खोली। रिपोर्ट में टिप्पणी पढ़कर उनकी आश्चर्य की कोई सीमा न रही जब उन्होंने देखा कि रिपोर्ट उसकी तारीफों से भरी पड़ी है। "राजू जैसा बुद्धिमान बच्चा मैंने आज तक नहीं देखा।" "बेहद संवेदनशील बच्चा है और अपने मित्रों और शिक्षक से बेहद लगाव रखता है।" यह लिखा था अंतिम सेमेस्टर में भी राजू ने प्रथम स्थान प्राप्त कर लिया है। "मैडम ने अनिश्चित स्थिति में कक्षा 4 की रिपोर्ट खोली।" राजू ने अपनी मां की बीमारी का बेहद प्रभाव लिया। .उसका ध्यान पढ़ाई से हट रहा है। राजू की माँ को अंतिम चरण का कैंसर हुआ है। घर पर उसका और कोई ध्यान रखनेवाला नहीं है जिसका गहरा प्रभाव उसकी पढ़ाई पर पड़ा है। लिखा था नीचे हेड मास्टर ने लिखा कि राजू की माँ मर चुकी है और इसके साथ ही राजू के जीवन की चमक और रौनक भी। उसे बचाना होगा...इससे पहले कि बहुत देर हो जाए। "यह पढ़कर मैडम के दिमाग पर भयानक बोझ हावी हो गया। कांपते हाथों से उन्होंने प्रगति रिपोर्ट बंद की। मैडम की आखों से आंसू एक के बाद एक गिरने लगे। मैडम ने साङी से अपने आंसू पोछे अगले दिन जब मैडम कक्षा में दाख़िल हुईं तो उन्होंने अपनी आदत के अनुसार अपना पारंपरिक वाक्यांश "आई लव यू ऑल" दोहराया। मगर वह जानती थीं कि वह आज भी झूठ बोल रही हैं। क्योंकि इसी क्लास में बैठे एक उलझे बालों वाले बच्चे राजू के लिए जो प्यार वह आज अपने दिल में महसूस कर रही थीं..वह कक्षा में बैठे और किसी भी बच्चे से अधिक था। पढ़ाई के दौरान उन्होंने रोजाना की तरह एक सवाल राजू पर दागा और हमेशा की तरह राजू ने सिर झुका लिया। जब कुछ देर तक मैडम से कोई डांट फटकार और सहपाठी सहयोगियों से हंसी की आवाज उसके कानों में न पड़ी तो उसने अचंभे में सिर उठाकर मैडम की ओर देखा। अप्रत्याशित उनके माथे पर आज बल न थे, वह मुस्कुरा रही थीं। उन्होंने राजू को अपने पास बुलाया और उसे सवाल का जवाब बताकर जबरन दोहराने के लिए कहा। राजू तीन चार बार के आग्रह के बाद अंतत: बोल ही पड़ा। इसके जवाब देते ही मैडम ने न सिर्फ खुद खुशान्दाज़ होकर तालियाँ बजाईं बल्कि सभी बच्चो से भी बजवायी। फिर तो यह दिनचर्या बन गयी। मैडम हर सवाल का जवाब अपने आप बताती और फिर उसकी खूब सराहना तारीफ करतीं। प्रत्येक अच्छा उदाहरण राजू के कारण दिया जाने लगा। धीरे-धीरे पुराना राजू सन्नाटे की कब्र फाड़ कर बाहर आ गया। अब मैडम को सवाल के साथ जवाब बताने की जरूरत नहीं पड़ती। वह रोज बिना त्रुटि उत्तर देकर सभी को प्रभावित करता और नये नए सवाल पूछ कर सबको हैरान भी करता । उसके बाल अब कुछ हद तक सुधरे हुए होते, कपड़े भी काफी हद तक साफ होते जिन्हें शायद वह खुद धोने लगा था। देखते ही देखते साल समाप्त हो गया और राजू ने दूसरा स्थान हासिल कर कक्षा 5 वी पास कर लिया यानी अब दुसरी जगह स्कूल में दाखिले के लिए तैयार था। कक्षा 5 वी के विदाई समारोह में सभी बच्चे मैडम के लिये सुंदर उपहार लेकर आए और मैडम की टेबल पर ढेर लग गया। इन खूबसूरती से पैक हुए उपहारो में एक पुराने अखबार में बदतर सलीके से पैक हुआ एक उपहार भी पड़ा था। बच्चे उसे देखकर हंस रहे थे। किसी को जानने में देर न लगी कि यह उपहार राजू लाया होगा। मैडम ने उपहार के इस छोटे से पहाड़ में से लपक कर राजू वाले उपहार को निकाला। खोलकर देखा तो उसके अंदर एक महिलाओं द्वारा इस्तेमाल करने वाली इत्र की आधी इस्तेमाल की हुई शीशी और एक हाथ में पहनने वाला एक बड़ा सा कड़ा कंगन था जिसके ज्यादातर मोती झड़ चुके थे। मिस ने चुपचाप इस इत्र को खुद पर छिड़का और हाथ में कंगन पहन लिया। बच्चे यह दृश्य देखकर सब हैरान रह गए। खुद राजू भी। आखिर राजू से रहा न गया और मिस के पास आकर खड़ा हो गया। । कुछ देर बाद उसने अटक-अटक कर मैडम को बोला "आज आप में से मेरी माँ जैसी खुशबू आ रही है।" इतना सुनकर मैडम के आखों में आसू आ गये ओर मैडम ने राजू को अपने गले से लगा लिया। राजू अब दुसरी स्कूल में जाने वाला था। राजू ने दुसरी जगह स्कूल में दाखिले ले लिया था। समय बितने लगा। दिन, सप्ताह, सप्ताह महीने और महीने साल में बदलते भला कहां देर लगती है? मगर हर साल के अंत में मैडम को राजू से एक पत्र नियमित रूप से प्राप्त होता जिसमें लिखा होता कि "इस साल कई नए टीचर्स से मिला। मगर आप जैसा मैडम कोई नहीं था।" फिर राजू की पढ़ाई समाप्त हो गया और पत्रों का सिलसिला भी समाप्त। कई साल आगे गुज़रे और मैडम रिटायर हो गईं। एक दिन मैडम के घर अपनी मेल में राजू का पत्र मिला जिसमें लिखा था। "इस महीने के अंत में मेरी शादी है और आपके बिना शादी की बात मैं नहीं सोच सकता। एक और बात .. मैं जीवन में बहुत सारे लोगों से मिल चुका हूं। आप जैसा कोई नहीं है.........आपका डॉक्टर राजू पत्र में साथ ही विमान का आने जाने का टिकट भी लिफाफे में मौजूद था। मैडम खुद को हरगिज़ न रोक सकी। उन्होंने अपने पति से अनुमति ली और वह राजू के शहर के लिए रवाना हो गईं। शादी के दिन जब वह शादी की जगह पहुंची तो थोड़ी लेट हो चुकी थीं। उन्हें लगा समारोह समाप्त हो चुका होगा.. मगर यह देखकर उनके आश्चर्य की सीमा न रही कि शहर के बड़े डॉक्टर, बिजनेसमैन और यहां तक कि वहां पर शादी कराने वाले पंडितजी भी थक गये थे, कि आखिर कौन आना बाकी है...मगर राजू समारोह में शादी के मंडप के बजाय गेट की तरफ टकटकी लगाए उनके आने का इंतजार कर रहा था। फिर सबने देखा कि जैसे ही एक बुड्ढी औरत ने गेट से प्रवेश किया राजू उनकी ओर लपका और उनका वह हाथ पकड़ा जिसमें उन्होंने अब तक वह कड़ा पहना हुआ था कंगन पहना हुआ था और उन्हें सीधा मंच पर ले गया। राजू ने माइक हाथ में पकड़ कर कुछ यूं बोला "दोस्तों आप सभी हमेशा मुझसे मेरी माँ के बारे में पूछा करते थे और मैं आप सबसे वादा किया करता था कि जल्द ही आप सबको उनसे मिलाउंगा........ ध्यान से देखो यह यह मेरी प्यारी सी माँ दुनिया की सबसे अच्छी है यह मेरी माँ यह मेरी माँ हैं। ******

  • वादा

    रश्मि भारद्वाज उस दिन बारिश हो रही थी। रोहन अपनी खिड़की से बाहर देख रहा था। मन ही मन सोच रहा था, "आज कॉलेज जाने का मन नहीं है।" पर माँ का डाँटा हुआ नाश्ता खाकर वह निकल पड़ा। बस स्टॉप पर भीड़ थी। अचानक उसकी नज़र एक लड़की पर पड़ी। सफ़ेद सलवार-कुर्ती, काले बालों में गुलाबी रिबन... वह किसी परी से कम नहीं लग रही थी। वह उससे आँखें मिलाते ही मुस्कुरा दी। रोहन का दिल धक से रह गया। दो हफ़्ते बाद, कॉलेज के कैंटीन में वही लड़की उसके सामने बैठी थी। नाम था प्रिया। धीरे-धीरे दोनों में दोस्ती हो गई। रोहन को उसकी हँसी पसंद थी, और प्रिया को उसकी शर्मीली चुप्पी। एक दिन, प्रिया ने पूछा, "तुम्हारे सपने क्या हैं?" रोहन ने जवाब दिया, "मेरा सपना... तुम्हारे सपनों को पूरा करना है।" प्रिया की आँखें चमक उठीं। पर जिंदगी आसान नहीं थी। प्रिया के पिता का ट्रांसफर हो गया। विदाई की रात, रोहन ने उसे एक चिट्ठी दी, जिसमें लिखा था: "तुम्हारी याद बिना, हर पल अधूरा है। मुझे यकीन है, हम फिर मिलेंगे।" प्रिया ने आँसूओं के बीच वादा किया, "मैं तुम्हें कभी नहीं भूलूँगी।" साल बीत गए। रोहन एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर बन गया, पर उसका दिल हमेशा उस पार्क में अटका रहा जहाँ प्रिया से पहली मुलाकात हुई थी। एक शाम, वहाँ बैठे-बैठे उसने फेसबुक खोला और अचानक एक नोटिफिकेशन आया। "प्रिया शर्मा ने आपको मैसेज भेजा है।" उसका हाथ काँप गया। मैसेज में लिखा था: "क्या तुम्हारा वादा अब भी कायम है?" अगले दिन, वही पार्क। सूरज ढल रहा था। दूर से प्रिया आती दिखी, उसी सलवार-कुर्ती में। रोहन ने उसकी आँखों में वही चमक देखी। बिना कुछ कहे, दोनों एक-दूसरे से लिपट गए। प्रिया ने कहा, "पापा ने मेरी शादी तय कर दी थी... पर मैंने सब कुछ बता दिया। मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती।" रोहन ने उसके हाथ थामे और कहा, "अब कोई हमें अलग नहीं करेगा।" उस रात, बारिश फिर से शुरू हो गई... पर इस बार, यह बारिश उनके नए सफ़र की गवाह बनी। *****

  • पहली नजर का प्यार

    नीरज मिश्रा हर रोज की तरह आज की सुबह भी सामान्य-सी हुई थी। परदे के पीछे से झांकती सूरज की किरणें नीरज को सोने नही दे रही थी। नीरज एक बड़े हॉस्पिटल का मालिक था साथ ही डॉक्टर भी। क्योंकि जल्दी उसको हॉस्पिटल जाना होता था और देर रात कहीं जाकर घर आने का मौका मिलता था। न खाने का पता न सोने का बस अल्हड़ सी ज़िंदगी चल रही थी नीरज की। जिसमें नीरज खुश भी था। सुबह उठते ही होम थेटर चला देता, ताकि लगे घर में उसके अलावा भी और कोई है। रोमांटिक गाने चलते रहते और वह उसके बजते रहने से काम भी करता रहता है और उसका मन भी लगा रहता है। नीरज को अपना नाश्ता स्वयं ही बनाना अच्छा लगता था। जिसमें डबलरोटी और दूध का ग्लास, बस, हो गया नाश्ता। दोपहर का भोजन वह अस्पताल की कैंटीन में कर लेता और रात का, काम वाली बाई आकर बना जाती थी। नीरज बहुत साधारण जीवन जीता था। किडनी रोग विशेषज्ञ डॉ. नीरज वर्मा अपने काम में पूरी तरह समर्पित रहते, अपने क्षेत्र में नाम चलता था। वर्षों से इस प्राइवेट अस्पताल को चला रहे थे। शहर में तो नाम था ही साथ ही आसपास के शहरों से भी मरीज़ कंसल्टेंट के लिए आते थे। आज दिन भर बहुत मरीज रहे। डॉ नीरज बहुत थक चुके थे, बस अब सबको बोल दिया आज सभी रेस्ट कर लो। तभी “बाहर एक आख़िरी मरीज़ है” नर्स ने बताया और एक महिला को व्हीलचेयर पर भीतर लाया गया। डॉक्टर ने उसे परीक्षण मेज़ पर लिटाने को कहा। जब मरीज के पास पहुँचे तो चेहरा कुछ परिचित सा लगा, पर जिसका ध्यान आया, यह उसकी परछाई मात्र थी। ओपीडी स्लिप पर नाम देखा- गुंजन ही है। बीमारी से अशक्त शरीर, मुरझाया चेहरा, बेहोश तो नहीं, परंतु पूर्णत: सजग भी नहीं। साथ में देखभाल करनेवाली आया और घर का पुराना नौकर रामु। साहब अपने काम से विदेश गए हुए हैं ऐसा बताया। गुंजन की हालत नाज़ुक थी और उसे तुरंत भर्ती करना आवश्यक था और उतना ही आवश्यक था, इस प्राइवेट अस्पताल में अग्रिम राशि जमा करवाना। लेकिन नौकर के पास इतना पैसा कहां से आता? नीरज ने अपनी ओर से पैसे जमा करवा दिया और गुंजन का अस्पताल में दाख़िल करवा दिया, ताकि फ़ौरन इलाज शुरू हो सके। जांच हुई तो पता चला किडनी का कृटनाइन बढ़ा हुआ है डाइसिस शुरू करना होगा। दवा शुरू हुई गुंजन को आराम लगना शुरू हुआ। गुंजन का नौकर रामु ही उसको देखने हॉस्पिटल आता था। जब गुंजन को पता चला कि साहब तो आये थे एक विदेशी लड़की के साथ। दो चार दिन रुके फिर उसी के साथ लौट गए हैं। उन्हें पत्नी की गंभीर अवस्था का पता है और रामु ने उन्हें पैसों के लिए भी कहा है, पर उनका कहना है कि बचना तो वैसे भी नहीं है, तो उन्हें किसी सरकारी अस्पताल में क्यों नहीं ले जाते हो? पैसा फालतू में क्यों खर्चा करना, रामु मालकिन को सरकारी हॉस्पिटल में फेक कर तुम भी अपने घर चले जाओ सुकूँ से जियो। साहब घर पर ताला लगा कर गए हैं मालकिन। ये सब सुनकर जैसे गुंजन के पैरो तले जमींन खिसक गई। दूसरे से प्यार होने के बाद भी पति रूप में मिले विमल को पूरे मन से अपनाया था। गुंजन ने कोई कमी नही रखी थी फिर भी शादी के इतने सालों के बाद विमल ने धोख़ा दिया। एक बार फ़िर गुंजन की हालत सदमे से खराब हो गई। नीरज ने इस बार जी जान लगा दी, खुद पूरा ध्यान दे रहा था। गुंजन एक बार फिर ठीक होने लगी और नीरज की इतनी केयर देख कर अतीत में खो गई। नीरज और गुंजन एक ही कॉलोनी में रहते थे। दोनों एक ही पार्क में खेलकर बड़े हुए थे। बचपन का वह धमा-चौकड़ीवाला दौर धीरे-धीरे लड़कियों के लिए पार्क में चक्कर लगाने और लड़कों के लिए क्रिकेट फुटबॉल खेलने में बदल गया। इन सब के बीच एक उम्र ऐसी आती है, जब परिचित लड़कों की निगाहें बचपन संग खेली लड़कियों को एक अलग नज़र से देखने लगती हैं और जो बचपन की नज़र से बहुत अलग होती हैं। उन्हें देखकर कुछ अलग तरह का महसूस होने लगता है। यह बदलाव धीरे-धीरे आता है कि उन्हें स्वयं भी इस बात का पता नहीं चल पाता, बहुत नया-सा अनुभव होता है यह पहली नज़र वाला प्यार। स्कूल के बाद नीरज मेडिकल करने लगा, और गुंजन एम ए, पर रहते तो आसपास ही थे, सो मिलना होता रहा। मेडिकल करते हुए गुंजन और नीरज ने निश्‍चय कर लिया था कि जीवन तो साथ ही बिताना है। नीरज का मेडिकल पूरा हो चुका था। उसे गुंजन से पता चला कि उसके माता-पिता उसके विवाह की सोच रहे हैं, तो वह उनसे मिलने गया। गुंजन के पिता ने बड़ी देर तक बात की और कड़े शब्दों में समझाया कि जाति अलग है शादी नही हो सकती और गुंजन की पसन्द से तो बिल्कुल नही। वो इतनी बड़ी हो गई कि खुद का रिश्ता कर लेगी परिवार की नाक कटवाएगीI बस यही से गुंजन और नीरज के रास्ते अलग हो गए। गुंजन की दूसरी जगह शादी और नीरज को पढ़ने विदेश भेज दिया गया। जिससे दोनों के सर से प्यार का भूत उतारा जा सके। रूम पर खट की आवाज़ से गुंजन की आँख खुली। वो सपनों से तो बाहर थी पर उसकी आँखों में आँसू देख नर्स ने पूछ लिया क्या हुआ मैडम, आप को कोई दिक्कत है क्या। गुंजन ने हँसते हुए बोला आप लोगों के रहते मुझे क्या दिक्कत। अब गुंजन की तबियत काफी ठीक हो चुकी थी। पूरे हॉस्पिटल में चक्कर लगा कर आ जाती। शाम अधिकतर डॉ नीरज गुंजन के साथ ही डिनर करके जाते। पूरे दो महीने बाद गुंजन एक दम ठीक हो गई और हॉस्पिटल से डिस्चार्ज होने का टाइम आ गया। अब गुंजन का कोई ठिकाना नही था। जाए भी तो कहाँ इसी सोच में डूबी गुंजन को डॉ नीरज की आवाज़ आती है। गुंजन एक बार फिर मैं तुम्हारा हाँथ थामना चाहता हूँ अगर तुम तैयार हो तो। एक फाइल डॉ नीरज ने गुंजन को थमाया और शाम तक उत्तर देने का बोल कर चला गया। गुंजन, डॉ नीरज के ही केबिन में बैठ कर उनके द्वारा दी हुई फाइल पढ़ने लगी। फाइल पढ़ते ही गुंजन की आँख से आँसू की धारा बहने लगी। उसमें लिखा था, गुंजन मेरा पहला प्यार तुम थी और रहोगी। लेकिन आज मैं जो कर रहा हूँ तुम पर कोई एहसान नही बल्कि जब जॉब में आया तभी से सोच लिया था, तुम मेरा हिस्सा हो। भले हमारी शादी न हुई हो। मेरा घर और हॉस्पिटल की आधी जमीन और मेरी कमाई का आधा हिस्सा जो तुम्हारा अलग रखा था आज तुम्हे सौप कर मैं बोझ मुक्त हो जाऊँ। अगर तुम तैयार हो तो एक दोस्त के रूप में में सैदव तुम्हारे साथ हूँ, पर तुम्हारी मर्जी से। ये लाईन पढ़ते पढ़ते गुंजन रोने और सोचने लगी, तीन मर्दो के बारे में, जो उसके जीवन में आये थे। एक उसके पिता जिन्होंने कभी गुंजन की इच्छा चलने नही थी, दूसरा गुंजन का पति जिसने कभी इच्छा पूछी ही नही और तीसरे डॉ नीरज जिन्होंने पूरी इच्छा ही गुंजन पर छोड़ दिया था। गुंजन का अतीत उसकी आँखों से बह रहा था और डॉ नीरज उसको भगवान के स्वरूप लग रहे थे। ******

  • दोस्त

    रंजन यादव उन चारों को होटल में बैठा देख, रमेश हड़बड़ा गया। लगभग 25 सालों बाद वे फिर उसके सामने थे। शायद अब वो बहुत बड़े और संपन्न आदमी हो गये थे। रमेश को अपने स्कूल के दोस्तों का खाने का आर्डर लेकर परोसते समय बड़ा अटपटा लग रहा था। उनमे से दो मोबाईल फोन पर व्यस्त थे और दो लैपटाप पर। रमेश पढ़ाई पूरी नही कर पाया था। उन्होंने उसे पहचानने का प्रयास भी नही किया। वे खाना खा कर बिल चुका कर चले गये। रमेश को लगा उन चारों ने शायद उसे पहचाना नहीं या उसकी गरीबी देखकर जानबूझ कर कोशिश नहीं की। उसने एक गहरी लंबी सांस ली और टेबल साफ करने लगा। टिश्यु पेपर उठाकर कचरे मे डलने ही वाला था, शायद उन्होंने उस पे कुछ जोड़-घटाया था। अचानक उसकी नजर उस पर लिखे हुये शब्दों पर पड़ी। लिखा था - अबे साले तू हमें खाना खिला रहा था तो तुझे क्या लगा तुझे हम पहचानें नहीं? अबे 20 साल क्या अगले जनम बाद भी मिलता तो तुझे पहचान लेते। तुझे टिप देने की हिम्मत हममें नही थी। हमने पास ही फैक्ट्री के लिये जगह खरीदी है और अब हमारा इधर आन-जाना तो लगा ही रहेगा। आज तेरा इस होटल का आखरी दिन है। हमारे फैक्ट्री की कैंटीन कौन चलाएगा बे, तू चलायेगा ना? तुझसे अच्छा पार्टनर और कहां मिलेगा?  याद हैं न स्कूल के दिनों हम पांचो एक दुसरे का टिफिन खा जाते थे। आज के बाद रोटी भी मिल बाँट कर साथ-साथ खाएंगे। रमेश की आंखें भर आई। सच्चे दोस्त वही तो होते हैं जो दोस्त की कमजोरी नही सिर्फ दोस्त देख कर ही खुश हो जाते हैं। *****

  • संयम का महत्व

    अंजलि सक्सेना कहने को तो संयम बहुत ही छोटा सा शब्द है पर समझने को बहुत ही बड़ा है आज मैं आपको एक छोटी की घटना का उल्लेख कर रहा हूँ जो समझ गया समझो जीवन का गूढ़ रहस्य समझ गया और जो न समझा सका उसे ईश्वर ही सदबुद्धि दे। एक देवरानी और जेठानी में किसी बात पर जोरदार बहस हुई और दोनों में बात इतनी बढ़ गई कि दोनों ने एक दूसरे का मुँह तक न देखने की कसम खा ली और अपने-अपने कमरे में जा कर दरवाजा बंद कर लिया। परंतु थोड़ी देर बाद जेठानी के कमरे के दरवाजे पर खट-खट हुई। जेठानी तनिक ऊँची आवाज में बोली कौन है, बाहर से आवाज आई दीदी मैं! जेठानी ने जोर से दरवाजा खोला और बोली अभी तो बड़ी कसमें खा कर गई थी। अब यहाँ क्यों आई हो? देवरानी ने कहा दीदी सोच कर तो वही गई थी, परंतु माँ की कही एक बात याद आ गई कि जब कभी किसी से कुछ कहा सुनी हो जाए तो उसकी अच्छाइयों को याद करो और मैंने भी वही किया और मुझे आपका दिया हुआ प्यार ही प्यार याद आया और मैं आपके लिए चाय ले कर आ गई। बस फिर क्या था दोनों रोते रोते, एक दूसरे के गले लग गईं और साथ बैठ कर चाय पीने लगीं। जीवन मे क्रोध को क्रोध से नहीं जीता जा सकता, बोध से जीता जा सकता है। अग्नि अग्नि से नहीं बुझती जल से बुझती है। समझदार व्यक्ति बड़ी से बड़ी बिगड़ती स्थितियों को दो शब्द प्रेम के बोलकर संभाल लेते हैं। हर स्थिति में संयम और बड़ा दिल रखना ही श्रेष्ठ है। *****

  • आदर्श सलाह

    डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव एक चूहा एक कसाई के घर में बिल बना कर रहता था। एक दिन चूहे ने देखा कि उस कसाई और उसकी पत्नी एक थैले से कुछ निकाल रहे हैं। चूहे ने सोचा कि शायद कुछ खाने का सामान है। उत्सुकतावश देखने पर उसने पाया कि वो एक चूहेदानी थी। ख़तरा भाँपने पर उस ने पिछवाड़े में जा कर कबूतर को यह बात बताई कि घर में चूहेदानी आ गयी है। कबूतर ने मज़ाक उड़ाते हुए कहा कि मुझे क्या? मुझे कौनसा उस में फँसना है? निराश चूहा ये बात मुर्गे को बताने गया। मुर्गे ने खिल्ली उड़ाते हुए कहा… जा भाई.. ये मेरी समस्या नहीं है। हताश चूहे ने बाड़े में जा कर बकरे को ये बात बताई… और बकरा हँसते हँसते लोटपोट होने लगा। उसी रात चूहेदानी में खटाक की आवाज़ हुई, जिस में एक ज़हरीला साँप फँस गया था। अँधेरे में उसकी पूँछ को चूहा समझ कर उस कसाई की पत्नी ने उसे निकाला और साँप ने उसे डस लिया। तबीयत बिगड़ने पर उस व्यक्ति ने हकीम को बुलवाया। हकीम ने उसे कबूतर का सूप पिलाने की सलाह दी। कबूतर अब पतीले में उबल रहा था। खबर सुनकर उस कसाई के कई रिश्तेदार मिलने आ पहुँचे जिनके भोजन प्रबंध हेतु अगले दिन उसी मुर्गे को काटा गया। कुछ दिनों बाद उस कसाई की पत्नी सही हो गयी, तो खुशी में उस व्यक्ति ने कुछ अपने शुभचिंतकों के लिए एक दावत रखी तो बकरे को काटा गया। चूहा अब दूर जा चुका था, बहुत दूर ……….। अगली बार कोई आपको अपनी समस्या बताये और आप को लगे कि ये मेरी समस्या नहीं है, तो रुकिए और दुबारा सोचिये। समाज का एक अंग, एक तबका, एक नागरिक खतरे में है तो पूरा देश खतरे में है। अपने-अपने दायरे से बाहर निकलिये। स्वयं तक सीमित मत रहिये। सामाजिक बनिये.."और हंसी बनाने से पहले सोचिए जरुर। ******

  • सच्चा आशिर्वाद

    चन्द्र शेखर मोहन ने अपनी शिक्षा पूरी कर ली थी और उसे एक सरकारी स्कूल में नौकरी भी मिल चुकी थी। बीते कुछ ही दिनों पहले एक बेहद सम्पन्न परिवार में उसकी शादी तय हुई थी। आज शाम जब वह अपने विद्यालय से लौटकर बच्चों की पेपर्स चेक करने में उलझा हुआ था कि अचानक उसके कमरे में उसके पिताजी और बड़े भाईसाहब के साथ उसके होने वाले ससुर ने भी एकसाथ प्रवेश किया। आदतनुसार मोहन ने सबको प्रणाम किया। अभी कुछ ही देर वह कुर्सी पर बैठे थे कि उसके होने वाले ससुरजी ने कमरे में चारों तरफ नज़र दौड़ाते हुए कहा,“एसी लगाने के लिए ये दीवार ठीक रहेगी और इस दीवार पर एल ई डी, यहां अलमारी, ड्रेसिंग टेबल, दीवार पर इस रंग का पेंट, कमरे का पूरा साज-सज्जा तय कर पुनः ड्राइंग रूम में आ गए गहने, कपड़े, मिठाई, फ़्रिज, वाशिंग मशीन आदि-आदि का ब्रांड बताते हुए मोहन की तरफ मुखातिब होते हुए बोले - बेटा जिस ब्रांड की कार जिस कलर में चाहिए बता देना शोरूम चलकर वहीं ले दूंगा।” होने वाले ससुर की ये बातें मोहन के स्वाभिमान को बड़ा ठेस पहुंचा रही थी। उसे लग रहा था जैसे उसकी खुद्दारी पर कोई हथौड़ा चला रहा हो। अब तो उसके बर्दाश्त से बाहर हो गया। उसने एक कठोर निर्णय लिया और दो टूक कहा - आदरणीय मुझे ए सी, टी वी, कार लाने वाली दुल्हन नहीं चाहिए। मुझे मेरे साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाली पत्नी चाहिए। मेहनत की कमाई से मिलने वाली नून खिचड़ी में खुश रहने वाली सहधर्मिणी चाहिए। दामाद खरीदने वाला ससुराल नहीं चाहिए। यदि आपको और आपकी बेटी को अपने पति की कमाई और यही समान स्थिति में रहकर जीवन व्यतीत करना मंजूर हो तो आगे से अपना आशीर्वाद देने के लिए पधारिएगा, वरना आप किसी अन्य रिश्ते को देखिए। कहकर मोहन ने दोनों हाथों को जोड़कर ससुर जी को अपना निर्णय सुना दिया। होनेवाले ससुरजी ने एकबारगी मोहन और फिर उसके पिताजी के साथ साथ बड़े भाईसाहब की ओर देखा। पिताजी ने भी मोहन की और देखकर मुस्कुरा कर कहा, “कहा था ना आपसे .... मेरे बच्चे स्वाभिमानी है और संस्कारी ...” “मतलब ...”मोहन ने पिताजी की और देखकर पूछा। बेटा जैसा कि तुम और हमारे परिवार में सभी दहेज विरोधी है। मगर भाईसाहब ने कहा ये उनका आशीर्वाद जो उपहार स्वरूप वो तुम्हे देना चाहते है। मुझे लगा जब तुम सामने से अपना निर्णय सुनाओगे तो भाईसाहब समझ पाएंगे। असल में आशिर्वाद क्या है और दहेज क्या है। भाईसाहब सच कहूं तो दुल्हन ही सबसे अनमोल उपहार होता है। एक पिता अपने कलेजे का टुकड़ा अपनी बेटी एक दूसरे परिवार को उनका वंश बढ़ाने, एक व्यक्ति को उसका जीवनसाथी, उसके सुख दुख की साथी देता है। ये अनमोल उपहार है जोकि एक कन्यादान करनेवाले पिता को ईश्वर की ओर से वरदान स्वरूप मिलता है। अब आप समझ ही गए होंगे कि आखिर हमें क्या आशिर्वाद और क्या दहेज चाहिए कयुं ... मुस्कुराते हुए मोहन के पिताजी बोले। धन्य है भाईसाहब आप और आपके परिवार में ये संस्कार। ईश्वर करे ये स्वाभिमान और संस्कार ईश्वर हर लडके और उसके परिवार में सभी को दे। ताकि दुनिया में कभी किसी लड़की के जन्म पर एक पिता टेंशन में नहीं बल्कि खुशियों से झूमता हुआ कहे कि ईश्वर ने उसे कन्यादान करने का सौभाग्य दिया है। कहते हुए मोहन के पिताजी के गले लग गये और अपने हाथ आशिर्वाद स्वरूप मोहन के सिर पर रख दिए.....!! *****

  • खुशी...

    मंजू सक्सेना उसके पास चालीस की उम्र होते होते सब कुछ था। अच्छी सरकारी नौकरी, सुंदर और सुलक्षणा पत्नी, दो प्यारे बच्चे, अपना मकान पर फिर भी वो प्रसन्न नहीं था, कहीं कुछ भीतर जैसे चिटका हुआ था। जिससे वो ख़ुद भी अपरिचित था। पर उस टूटन की भड़ास उसकी ज़ुबान और भावभंगिमा से जबतब हर किसी पर निकलती रहती थी। दफ़्तर में मातहत उससे थरथर काँपते तो घर में पत्नी और बच्चे उसके सामने दबे सहमें रहते। पर उसे इसमें भी सुकून नहीं था। न जाने भीतर क्या बेचैनी थी जिस के ताप से वो जैसे उछलता रहता था। उस दिन बेध्यानी में वो बंगले के पीछे रहने वाले माली के घर की ओर पँहुच गया था। "अरे मालिक आप…", ज़मीन पर बैठ कर एक ही थाली में पत्नी और बच्चों के साथ खाना खाता ननकू हड़बड़ा कर खड़ा हो गया। "खाना खाओ तुम, "कहने के साथ ही उसकी नज़र उसकी पत्नी पर पड़ी जिसने उसे देखते ही घूंघट कर लिया था। पर उसके पहले ही वो उसके सांवले चेहरे की चमक देखकर हैरान था, कितनी खुश लग रही थी और दोनों छोटी लड़कियां भी जैसे खुशी से भरपूर थीं। वो घर वापस आया तो पत्नी का बुझा चेहरा और सहमें बच्चे देख कर फिर उसका क्रोध उतर आया। दो दिन बाद फिर न चाहते हुए भी उसके क़दम ननकू के घर की ओर मुड़ गये। "अरे सब्जी ना है तो नोन मिर्च से खा लेंगे, तू चिंता काहे करत है", भीतर से ननकू का हँसता हुआ स्वर उभरा और साथ ही दोनों बच्चों की किलकारियां गूँज उठीं, "हाँ, अम्मा, बप्पा ठीक कहत हैं"। उसकी आँखों के सामने ननकू की छवि घूम गई। दिन की झुलसाती धूप में भी वो हर बंगले में सुबह से शाम तक गुड़ाई निराई करता है, पर फिर भी कितना संतुष्ट सा है। "ननकू, तू दिन भर इतनी मेहनत करता है। साहब लोगों की डाँट भी खाता है। पर तू भी खुश रहता है और तेरा परिवार भी, क्या तुझे क्रोध नहीं आता", आज हिम्मत करके उसने पूछ ही लिया तो हैरान सा ननकू उसकी तरफ़ देख कर मुस्कुरा दिया, "साहब., गलती माफ़ हो तो एक बात पूछूँ?" "हाँ, पूछ" "हम इत्ती मेहनत जिनकी ख़ातिर करत हैं अगर वही खुश नहीं हैं तो हमार मेहनत का का फ़ायदा" "मतलब…?" "मतलब, अगर हम उन्हीं पर गुस्सा गुस्सी करते रहे तो वो कैसे खुश रहेंगे और वो खुश नहीं तो हम ख़ुद कैसे खुश रह पाएंगे?" उसने चौंक कर उस अनपढ़ गंवार माली को देखा। 'ज़िंदगी की कितनी बड़ी फ़िलासफ़ी हल्के में समझा गया था जिसे वो कितनी ही डिग्रियां लेने के बाद भी नहीं समझ पाया था'। *****

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