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  • 1 रू के बदले 100 रू

    रूपाली सिंह एक फोटो कापी की दुकान पर एक लड़का उम्र लगभग 22, एक लड़की लगभग 19 साल की, एक लड़का लगभग 35 वर्ष का दाखिल हुए। काफी जल्दबाजी में उन्होंने कुछ पहचान पत्र जैसे आधार, मैट्रिक सर्टिफिकेट आदि फोटो कापी के लिए दिए। लड़की कुछ उदास और चिंतित थी। फोटो कापी वाले दुकानदार लगभग 45 की आयु के ने पुछा कितनी कापी करनी है तो लड़की के मुंह से निकला, दस दस ही कर दीजिए पता नहीं दुबारा करने का मौका ना मिले, पता नहीं जिन्दा भी ना छोड़ें। साथ आए आदमी ने कहा, अरे तुम लोग चिंता मत करो मैं हूं ना तुम्हारे साथ, कुछ नहीं होगा। सार्वजनिक स्थान होने के कारण उन लोगों ने लड़की को चुप रहने का इशारा किया, तभी अचानक दुकानदार ने लड़की से पुछा क्या बात है बेटा तुम कुछ उदास लग रही हो, अगर कोई परेशानी हो तो मुझे बता सकती हो मैं तुम्हारे पापा की तरह हूं। पापा का नाम आते ही लड़की रुआंसे स्वर में बोली मैं इस लड़के से प्यार करती हूं और शादी करना चाहती हूं। मगर मेरे घर वाले तैयार नहीं हैं इसलिए घर से भाग कर आई हुं। क्योंकि ये लड़का दुसरे धर्म का है। ये साथ वाले आदमी इसके चचाजान हैं। इनका कहना है कि एक बार निकाह होने के बाद सब मान जायेंगे। दुकानदार ने उस लड़की को चुप कराया और प्यार से पुछा कि अगर तुम्हें ₹100 और ₹1 रू में से चुनना हो तो क्या चुनोगे? लड़की बोली क्या अंकल जी ये भी कोई पूछने की बात है मैं 100 ही चुनुंगी, ऐसे बोलते हुए वो लड़की चिड़िया की तरह चहक उठी। तो उस दुकानदार ने उसे समझाया। यही बात रिश्तों पर भी लागू होती है। तुम एक रिश्ते के लिए सौ रिश्तों को छोड़ कर भाग आई हो। ऐसा सुनते ही जैसे लड़की को झटका लगा और उसने लड़के से कहा मुझे अपना फ़ोन दो मुझे पापा से बात करनी है। लड़के ने फोन देने से मना किया और कहा कि मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं। हम दोनों बहुत खुश रहेगें। लड़की बोली तुम मुझे फोन दे रहे हो कि नहीं, जब लड़के ने फोन नहीं दिया तो वो दुकानदार से फोन लेकर अपने पापा से बात की और रोते हुए कहा कि पापा आप मुझे लेने आ सकते हो और फोन दुकानदार को दे दिया। दुकानदार ने फोन पर अपना पता बता दिया और कहा कि जब तक आप नहीं आ जाते बिटिया मेरे पास सुरक्षित है। उन दोनों लड़कों ने जब सब बात सुनी तो भागने लगे तब लड़की बोली भाग क्यों रहे हो तुम तो बहुत प्यार करते हो मुझसे। लड़का तब भी नहीं रुका और उसका सामान लेकर भागने लगा तो लड़की बोली, पकड़ो इन्हें मेरे बैग में बहुत से गहने हैं जो मैं घर से लाई थी। तो आसपास के लोगों ने उन दोनों को पकड़ लिया और पुलिस के हवाले कर दिया। शाम तक उस लड़की के पापा आकार उस लड़की को अपने साथ घर ले जाने लगे तो लड़की ने दुकानदार को कहा-अंकल आप का बहुत बहुत धन्यवाद। मैं एक रिश्ते के बदले सौ रिश्तों को लेकर जा रही हूं। उस भले दुकानदार के कारण ये लड़की तो बच गई मगर ना जाने कितनी ही लड़कियां हर रोज एक रिश्ते के बदले में सौ रिश्तों को छोड़ देती हैं और बाद में ज्यादातर को तो एक रिश्ता भी नहीं मिलता, मृत्यु को प्राप्त हो जाती हैं। *****

  • संस्कार

    ब्रिज उमराव   जन्म प्रक्रिया से शूदक हो, संस्कार से होता पावन। प्रेम प्यार स्नेह समर्पण, अन्तर्मन होता उत्प्लावन।।   संस्कार से सेवित शिशु की, अपनी छटा निराली। तीक्ष्ण बुद्धि कौशल की मूरत, पुण्य पल्लवित डाली।।   तीन ऋणों को साथ ले चले, देव पित्र अरु गुरु का कर्ज। सेवा में तीनों के तत्पर, सदा निभाता अपना फर्ज।।   पुष्पित पोषण स्वस्थ संरक्षण, शिशु को करे प्रभावित। आदर्श संस्कृति से पोषित, प्रेम रस रहे प्रवाहित।।   उन्नत पोषित पौधा हो, विराट वृक्ष बन जाता। पर्यावरण संरक्षा करता, जग की सेवा करता।।   काम, क्रोध और लोभ, मोह, ईर्ष्या का संगम। सोंच को कर देते दूषित, मन भी हो जाता जड़ जंगम।।   जीवन के झंझावातों से, हरदम होता है दो चार। वैदिक संस्कृति संस्कार को, नमन करे वह बारंबार।।   आदर्श राह का राही बन, सर्वोच्च शिखर तक जाता। मात पिता गुरु का संरक्षण, सच्ची राह बताता।।   सुमधुर, सुन्दर सदा सुहावन, पोषित पुरुषार्थ तुम्हारा । अग्रिम पंक्ति में तुम चलते, पीछे घूमें जग सारा।।" ****

  • माँ काली की उपासना

    मुकेश ‘नादान’ कहते हैं कि जब बुरा समय आता है तो चारों ओर से घेर लेता है। दुर्दिनों में संयमी से संयमी व्यक्ति भी अपना संयम खो देता है, लेकिन नरेंद्र ऐसा कदापि नहीं चाहता था। नरेंद्र अपने घर-परिवार की चिंता में, नौकरी की तलाश में भटक रहा था। आखिर उसे एक अटार्नी के ऑफिस में कुछ काम करके और कुछ पुस्तकों का अनुवाद करके थोड़े-बहुत पैसे मिलने लगे, किंतु यह आय पर्याप्त नहीं थी। कुछ दिनों बाद मैट्रोपोलिटन स्कूल की एक शाखा घोपातला मुहल्ले में खुली। ईश्वरचंद्र विद्यासागर की सिफारिश पर नरेंद्र वहाँ प्रधानाध्यापक नियुक्त हो गए। इस तरह परिवार की समस्या काफी हद तक कम हो गई। मगर एक और बड़ी विपत्ति सामने आ गई। नरेंद्र के कुटुंबियों ने छल-बल से उनके पैतृक मकान पर कब्जा कर लिया। इस कारण नरेंद्र को अपनी माँ व भाइयों के साथ नानी के मकान में शरण लेनी पड़ी। नरेंद्र ने संबंधियों के विरूद्ध हाईकोर्ट में मुकदमा दायर कर दिया। अनेक विपत्तियाँ एक साथ सामने आने से नरेंद्र बहुत चिंतित था। जब वह सोच-सोचकर थक गया, तो दक्षिणेश्वर जा पहुँचा। उसने रामकृष्ण से हठपूर्वक कहा, “आपको मेरी माँ व भाइयों का कष्ट दूर करने के लिए माँ जगदंबा से प्रार्थना करनी होगी।” रामकृष्ण ने स्स्नेह उत्तर देते हुए कहा, “ओरे, मैंने माँ से कई बार कहा है कि माँ, नरेंद्र के दुख-दर्द दूर कर दो। माँ कहती हैं, मैं उसके लिए कुछ नहीं करूँगी, क्योंकि वह मुझे नहीं मानता। खैर, आज मंगलवार है, मैं कहता हूँ, आज रात को काली के मंदिर में जाकर, माँ को प्रणाम करके, तू जो भी माँगेगा, माँ तुझे वही देंगी। मेरी माँ चिन्मयी शक्ति हैं, उन्होंने अपनी इच्छा से संसार का प्रसव किया है। वे चाहें तो क्या नहीं कर सकतीं? ” श्रीरामकृष्ण परमहंस के इस विनीत आग्रह पर नरेंद्र काली माँ के मंदिर में रात्रि के समय जा पहुँचे। मगर माँ के समक्ष पहुँचते ही नरेंद्र अपने वहाँ आने का उद्देश्य भूल गए। माँ काली की मूर्ति दिव्य ज्योति सी जगमगा रही थी। नरेंद्र को लगा, मानो माँ सजीव रूप में उनके समक्ष खड़ी हैं। जब नरेंद्र को अपने वहाँ आने का कारण याद आया, तो वह लज्जित हो उठा और सोचने लगा, 'कितनी लज्जाजनक बात है। मेरी कितनी बुद्धि खराब हो गई है, जो मैं जगज्जननी से सांसारिक सुख माँगने आया हूँ।' 'लज्जित होकर उसने माँ को प्रणाम करते हुए कहा, “माँ, मैं और कुछ नहीं माँगता, मुझे केवल ज्ञान और भक्ति दो।” माँ से ऐसा वरदान माँगकर नरेंद्र श्रीरामकृष्ण के पास आए, तब उन्हें अनुभव हुआ कि वह जो माँगने गए थे, वह तो माँगा ही नहीं। जब यह बात श्रीरामकृष्ण को पता चली तो उन्होंने पुनः नरेंद्र को माँ के समक्ष जाकर माँगने को कहा। नरेंद्र ने ऐसा ही किया, किंतु फिर भी सांसारिक सुख न माँग सके। इस तरह नरेंद्र कई बार मंदिर में गए, लेकिन हर बार माँ से ज्ञान व भक्ति ही माँगी। नरेंद्र ने रामकृष्ण से कहा, “ठाकुर, मैं माँ से रूपया-पैसा माँगने जाता हूँ, लेकिन ये सब माँगने में मुझे लज्जा अनुभव होती है।” रामकृष्ण ने मुस्कराकर कहा, “जिस वस्तु की तुम्हें लालसा ही नहीं है, उसे तुम माँग भी कैसे सकते हो? ” नरेंद्र के लिए वह दिन नवजीवन लेकर आया। वह माँ काली को नहीं मानता था, किंतु अब मानने लगा। उसने रामकृष्ण से माँ का भजन सीखा और पूरी रात उसी भजन को गाता रहा। मूर्तिपूजा में विश्वास न रखने वाला नरेंद्र खुद मूर्तिपूजक बन गया। *****

  • बेशकीमती दौलत

    रमाकांत द्विवेदी अजी सुनते हो, आज एक बात पूछू आपसे। एक 80 वर्ष की बुजुर्ग पत्नी ने अपने 84 वर्षीय पति से कहा। बुजुर्ग पति छडी का सहारा लिए अपनी बुजुर्ग पत्नी के करीब आए और बोले, कहो। बुजुर्ग पत्नी भावुक होकर बोली,“आपको याद है आपने हमारी शादी से पहले अपनी माताजी को छुपकर एक खत लिखा था जिसमे आपने अपने गुस्से को व्यक्त करते हुए लिखा था कि आप मुझसे शादी नहीं करना चाहते, क्योंकि आपको मेरा चेहरा पसंद नहीं था।” बुजुर्ग पति ने हैरान होकर पूछा,“वो खत, वो तुम्हें कहां मिला? वो तो बहुत पुरानी बात है।” बुजुर्ग पत्नी आँखों में आंसू भरकर बोली,“कल आपके बक्से से मुझे ये पुराना खत मिला...मुझे नहीं पता था कि ये शादी आपकी मर्जी के खिलाफ हुई थी। वरना में खुद ही मना कर देती।”

  • खोमचे वाला

    डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव एक आदमी था, जो कॉन्वेंट स्कूल में पीरियड और छुट्टी की घंटा बजाता था। टन..टन..टन..टन..टन..। एक दिन स्कूल के नए प्रिंसिपल की नज़र उसपर गयी, तो उससे पूछ बैठे उसके बारे में, मतलब कितना पढ़े हो आदि। उन्हें जान कर हैरत हुई कि उनके इस प्रतिष्ठित स्कूल का घंटा बजाने वाले कर्मचारी अनपढ़ है। उन्होंने कहा कि ये नही हो सकता और प्रिंसिपल ने उस घंटा बजाने वाले को निकाल दिया। अब वो बेचारा क्या करे, कुछ काम नही, फाके की नौबत, तो किसी ने सलाह दी कि फलाने रास्ते पर समोसा बेचो। कुछ तो कमाई होगी उसने समोसे बेचना शुरू किया। ईश्वर कृपा रही और कुछ मेहनत, दुकान चल निकली। खोमचे से गुमटी हुआ, गुमटी से दुकान, फिर बाजार की सबसे फेमस दुकान। धंधा आगे बढा तो बच्चों कों इस काम में लगा कर और भी धंधे आजमाए। आगे चलकर वो शहर का जाना माना सेठ बन गया। कई प्रतिष्ठान हो गए। एक बार एक पत्रकार आया उनका इंटरव्यू लेने। बाकी बातों को पूछने के बाद उसने पूछा कि आप कहाँ तक पढ़े हैं। उसे भी जानकर हैरत हुई कि इतना बडा सेठ तो अनपढ़ है। पत्रकार ने कहा कि आप नही पढ़े लिखे हैं फिर भी इतना बड़ा ब्यापार किए, इतने सफल है। मैं सोच रहा हूँ कि अगर आप पढ़े होते तो क्या कर रहे होते। सेठ ने कहा - स्कूल में घंटा बजा रहा होता। दोस्तों कर्म और परिश्रम से ही धनवान बना जा सकता है। *****

  • सारा की छड़ी

    डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव एक लड़का अपने बूढ़े दादा के पास गया और पूछा, "दादाजी, क्या आप मुझे कोई नैतिक शिक्षा वाली कहानी सुना सकते हैं?" बूढ़े दादाजी ने एक पल के लिए सोचा, फिर अपना गला साफ किया और उससे कहा कि बैठ जाओ और जो कहानी सुनानी है उसे सुनो। "सारा नाम की एक अंधी लड़की थी। उसके माता-पिता उसी कार दुर्घटना में मारे गए थे, जिस दुर्घटना में वह छोटी लड़की अंधी हो गई थी। उसकी दादी उसे गांव ले गईं और उसका पालन-पोषण किया। सारा का कोई दोस्त नहीं था। उसकी एकमात्र साथी उसकी छड़ी थी, उसकी छड़ी ने उसके लिए बहुत मदद की थी। इससे उसे अपने परिवेश में घूमने और किसी पर निर्भर हुए बिना जगह-जगह जाने में मदद मिली। चाहे कुछ भी हो, इसने उसे कभी निराश नहीं किया या जानबूझकर उसकी भावनाओं को ठेस पहुँचाई। उसकी छड़ी हमेशा उसे मुस्कुराने पर मजबूर कर देती थी। बाद में, एक अमीर, सुंदर आदमी सारा के प्यार में पड़ गया और उससे शादी करने का फैसला किया। वह उसकी दृष्टि वापस लाने के लिए उसे देश के सबसे अच्छे अस्पतालों में से एक में ले गया सौभाग्य से, सर्जरी सफल रही और सारा को फिर से दिखना शुरू हो गया...'' कहानी ख़त्म हुई जैसे ही बूढ़े दादा रुके, लड़का थोड़ा भ्रमित होकर फुसफुसाया, "लेकिन कहानी में कोई नैतिक शिक्षा नहीं है, दादाजी। इसमें सीखने के लिए कुछ भी नहीं है।" बूढ़े दादा ने कहा, "मैं बेटा आपको कुछ बताऊं। जैसे ही अंधी सारा की दृष्टि वापस आई, उसने कुछ फेंक दिया। क्या आप जानते हो बेटा कि उसने क्या फेंक दिया?" लड़के ने एक पल सोचा, फिर अपना सिर हिलाया और बुदबुदाया, "मुझे नहीं पता... आप बताओ।" बूढ़े दादाजी मुस्कुराये और बोले, "उसने अपनी छड़ी फेंक दी। वह छड़ी जिसने जीवन भर उसकी मदद की थी। उसकी एकमात्र साथी। सिर्फ इसलिए कि उसकी दृष्टि वापस आ गई, वह भूल गई कि किसने उसके साथ खड़े होकर उसकी मदद की जब कोई नहीं था। वह सब कुछ भूल गई जो छड़ी ने उसके लिए किया था।" उस क्षण, बूढ़े दादा ने लड़के के कंधे को थपथपाया, आह भरी और फिर जारी रखा, "सुनो बेटा ... जिंदगी ऐसी ही है। कटु सत्य यह है कि हम लोगों को तब याद करना बंद कर देते हैं जब वे हमारे काम के नहीं रह जाते। हम जो सबसे आम गलती करते हैं वह उन लोगों को भूल जाते हैं जो हमारे साथ खड़े थे और हमारी मदद करते थे जब हम उनके साथ थे जब हमारे जीवन का ख़राब समय था । उनके कार्य और बलिदान उल्लेखनीय हैं, लेकिन हम निश्चित रूप से उन्हें चुकाने का अवसर चूक जाते हैं। हम अपने माता-पिता, यहां तक ​​कि हमारे भाई-बहनों, दोस्तों और उन लोगों के बलिदानों को भी भूल जाते हैं जिन्होंने अतीत में हमारी मदद की है। ******

  • स्वप्न

    मुकेश ‘नादान’ नरेंद्र अकसर कलकत्ता में अपने घर में बैठकर सुदूर दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण के ध्यान में निमग्न श्रीमूर्ति का दर्शन किया करते थे। एक दिन उन्होंने स्वप्न में देखा कि श्रीरामकृष्ण उनके निकट आकर कह रहे हैं, “चल, मैं तुझे ब्रज-गोपी श्रीराधा के समीप ले जाऊँगा।” नरेंद्र ने अनुसरण किया। थोड़ी ही दूर जाकर श्रीरामकृष्ण ने उनकी ओर लौटकर कहा, “और कहाँ जाएगा।' यह कहकर उन्होंने रूप-लावण्यमयी श्रीराधिका का रूप धारण कर लिया। इस दर्शन का फल यह हुआ कि यद्यपि नरेंद्र पहले कुछ ब्रह्मसमाज के गीत ही प्रायः गाया करते थे, लेकिन अब उन्होंने श्रीराधा के कृष्ण-प्रेम के अर्थात्‌ भगवान्‌ के प्रति जीव के आकुलतापूर्ण अनुनय-विनय, विरह-कातरता आदि के गीत गाना भी आरंभ कर दिया। अपने गुरु-शिष्यों से उनके दूवारा इस स्वप्न के विषय में कहने पर उन लोगों ने आश्चर्य से पूछा, “क्या तुम विश्वास करते हो कि यह स्वप्न सच है? ” नरेंद्र ने उत्तर दिया, “हाँ, निश्चय ही विश्वास करता हूँ।” ध्यान के समय नरेंद्र अकसर अपनी प्रतिमूर्ति देखा करते थे कि हू-ब-हू जैसे उनके ही आकार और रूप आदि लेकर एक दूसरा व्यक्ति बैठा है तथा दर्पण में प्रतिबिंबित मूर्ति के हाव-भाव, चाल-ढाल आदि सबकुछ जैसे असली आदमी के समान हो जाता है, वैसे ही इस प्रतिमूर्ति के क्रिया-कलाप भी हू-ब-हू उसी भाँति होते। नरेंद्र सोचते, 'फिर कौन है? ' श्रीरामकृष्ण को यह बतलाने पर उन्होंने उस पर कोई विशेष गंभीरता दिखाए बिना कहा था, “ध्यान की ऊँची अवस्था में ऐसा होता ही है।” एक बार नरेंद्र की यह इच्छा हुई कि वे भाव में निमग्न होकर इस संसार को भूल जाएँ। वे देखते थे कि नित्यगोपाल, मनमोहन आदि श्रीरामकृष्ण के भक्तगण भगवान्‌ का नाम-कीर्तन सुनते-सुनते बह्मज्ञान खोकर किस प्रकार धराशायी हो जाते हैं। उन्हें दुख होता कि वे इस तरह के ऊँचे आध्यात्मिक आनंद का भोग करने से अब तक वंचित हैं। अत: एक दिन उन्होंने श्रीरामकृष्ण से इस अतृप्ति की बात कर उसी प्रकार की भाव-समाधि के लिए प्रार्थना की। इसके उत्तर में श्रीरामकृष्ण ने स्नेहासिक्त दृष्टि से उन्हें देखते हुए कहा, “तुम इतने उतावले क्यों होते हो? उससे भला क्‍या आता-जाता है? बड़े सरोवर में हाथी के उतरने से कुछ हलचल नहीं होती। किंतु छोटे तालाब में उतरने से वहाँ बड़ी हलचल मच जाती है।” उन्होंने और भी स्पष्ट रूप से समझा दिया कि ये सब भक्तगण छोटे पोखर की भाँति हैं, जिनका छोटा आधार है। इन लोगों में भगवत्‌-भक्ति का किंचित्‌ आवेश होते ही हृदय-सरोवर से तूफान उठने लगता है। किंतु नरेंद्र बहुत बड़े सरोवर की भाँति है, इसी से इतनी सहजता से वह विह्वल नहीं होता। जगदंबा के निर्देश और अपनी परीक्षाओं से प्राप्त ज्ञान के फलस्वरूप श्रीरामकृष्ण नरेंद्र पर पूर्ण विश्वास करते थे। भगवत्‌-भक्ति की हानि से रक्षा के लिए अन्य भक्तों के आहार, विहार, शयन, निद्रा, जप, ध्यान आदि सभी विषयों पर तीक्ष्ण दृष्टि रखने पर भी वे नरेंद्र को पूरी स्वाधीनता देते थे। वे भक्तों के सामने स्पष्ट रूप से कहा करते थे, “नरेंद्र यदि उन नियमों का कभी उल्लंघन भी करे तो उसे कुछ भी दोष नहीं लगेगा। नरेंद्र नित्य-सिद्ध है, नरेंद्र ध्यान सिद्ध है, नरेंद्र के भीतर सदा ज्ञानाग्नि प्रज्लित रहकर सब प्रकार के भोजन-दोष को भस्मीभूत कर देती है। इस कारण यत्र-तत्र जो कुछ भी वह क्‍यों न खाए, उसका मन कभी कलुषित या विक्षिप्त नहीं होगा; ज्ञान रूपी खड़्ग से वह समस्त माया-बंधनों को काट डालता है, इसीलिए महामाया उसे किसी प्रकार वश में नहीं कर सकती।” *****

  • लोहार

    डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव एक बढ़ई किसी गांव में काम करने गया, लेकिन वह अपना हथौड़ा साथ ले जाना भूल गया। उसने गांव के लोहार के पास जाकर कहा, 'मेरे लिए एक अच्छा सा हथौड़ा बना दो। मेरा हथौड़ा घर पर ही छूट गया है।' लोहार ने कहा, 'बना दूंगा पर तुम्हें दो दिन इंतजार करना पड़ेगा। हथौड़े के लिए मुझे अच्छा लोहा चाहिए। वह कल मिलेगा।' दो दिनों में लोहार ने बढ़ई को हथौड़ा बना कर दे दिया। हथौड़ा सचमुच अच्छा था। बढ़ई को उससे काम करने में काफी सहूलियत महसूस हुई। बढ़ई की सिफारिश पर एक दिन एक ठेकेदार लोहार के पास पहुंचा। उसने हथौड़ों का बड़ा ऑर्डर देते हुए यह भी कहा कि 'पहले बनाए हथौड़ों से अच्छा बनाना।' लोहार बोला, 'उनसे अच्छा नहीं बन सकता। जब मैं कोई चीज बनाता हूं तो उसमें अपनी तरफ से कोई कमी नहीं रखता, चाहे कोई भी बनवाए।' धीरे-धीरे लोहार की शोहरत चारों तरफ फैल गई। एक दिन शहर से एक बड़ा व्यापारी आया और लोहार से बोला, 'मैं तुम्हें डेढ़ गुना दाम दूंगा, शर्त यह होगी कि भविष्य में तुम सारे हथौड़े केवल मेरे लिए ही बनाओगे। हथौड़ा बनाकर दूसरों को नहीं बेचोगे।' लोहार ने इनकार कर दिया और कहा, 'मुझे अपने इसी दाम में पूर्ण संतुष्टि है। अपनी मेहनत का मूल्य मैं खुद निर्धारित करना चाहता हूं। आपने फायदे के लिए मैं किसी दूसरे के शोषण का माध्यम नहीं बन सकता। आप मुझे जितने अधिक पैसे देंगे, उसका दोगुना गरीब खरीदारों से वसूलेंगे। मेरे लालच का बोझ गरीबों पर पड़ेगा, जबकि मैं चाहता हूं कि उन्हें मेरे कौशल का लाभ मिले। मैं आपका प्रस्ताव स्वीकार नहीं कर सकता।' सेठ समझ गया कि सच्चाई और ईमानदारी महान शक्तियां हैं। जिस व्यक्ति में ये दोनों शक्तियां मौजूद हैं, उसे किसी प्रकार का प्रलोभन अपने सिद्धांतों से नहीं डिगा सकता। *****

  • आजादी

    प्रेम साधना मैं तुम्हारी माँ के बंधन में और नहीं रह सकती, मुझे अलग घर चाहिए, जहाँ मैं खुल के साँस ले सकूँ। पलक रवि को देखते ही ज़ोर से चिल्ला उठी। बात बस इतनी थी कि सुलभा जी ने रवि और पलक को पार्टी में जाता देख कर इतना भर कहा था कि वो रात दस बजे तक घर वापस आ जाए। बस पलक ने इसी बात को तूल दे दिया और दो दिन बाद ही उसने किरण के घर किटी में उसे मकान ढूंढने की बात भी कह दी। मुझे मम्मी जी की गुलामी में रहना पसंद नहीं है। पलक, तुम्हारी तरह एक दिन मैं भी यही सोच कर अपनी सास से अलग हो गई थी। किटी ख़तम होते ही किरण पलक से मुख़ातिब थी। तभी तो आप आज़ाद हो। पलक ने चहक कर कहा तो किरण का स्वर उदासी से भर गया, किरण पलक से दस वर्ष बड़ी थी। नहीं, बल्कि तभी से मैं गुलाम हो गई, जिसको मैं गुलामी समझ रही थी वास्तव मे आज़ादी तो वही थी। वो कैसे, पलक, जब मैं ससुराल में थी दरवाज़े पर कौन आया, मुझे मतलब नहीं था क्योंकि मैं वहाँ की बहू थी। घर में क्या चीज़ है क्या नहीं इससे भी मैं आज़ाद थी, दोनों बच्चे दादा-दादी से हिले थे। मुझे कहीं आने-जाने पर पाबंदी नहीं थी, पर कुछ नियमों के साथ, जो सही भी थे, पर जवानी के जोश में मैं अपने आगे कोई सीमा रेखा नहीं चाहती थी। मुझे ये भी नहीं पसंद था कि मेरा पति आफिस से आकर सीधा पहले माँ के पास जाए। तो!! फिर पलक की उत्सुकता बढ़ गई। मैंने दिनेश को हर तरह से मना कर अलग घर ले लिया और फिर मैं दरवाज़े की घंटीं, महरी, बच्चों, धोबी, दिनेश सबके वक्त की गुलाम हो गई। अपनी मरज़ी से मेरे आने-जाने पर भी रोक लग गई क्योंकि कभी बच्चों का होमवर्क कराना है, तो कभी उनकी तबीयत खराब है। हर जगह बच्चों को ले नहीं जा सकते। अकेले भी नहीं छोड़ सकते। तो मजबूरन पार्टियां भी छोड़नी पड़ती जबकि ससुराल में रहने पर ये सब बंदिश नहीं थीं। ऊपर से मकान का किराया और फालतू के खर्चे अलग, फिर दिनेश भी अब उतने खुश नहीं रहते। किरण की आँखें नम हो उठीं। फिर आप वापस क्यों नहीं चली गयीं। किस मुँह से वापस लौटती। इन्होंने एक बार मम्मी से कहा भी था, पर पापा ने ये कह कर साफ़ मना कर दिया कि एक बार हम लोगों ने बड़ी मुश्किल से अपने आप को संभाला है अब दूसरा झटका खाने की हिम्मत नहीं है, बेहतर है अब तुम वहीं रहो। ओह! पलक, घर से बाहर क़दम रखना बहुत आसान है। पर जब तक आप माँ-बाप के आश्रय में रहते हैं, आपको बाहर के थपेड़ों का तनिक भी अहसास नहीं होता। माँ-बाप के साथ बंदिश से ज़्यादा आज़ादी होती है, पर हमें वो पसंद नहीं होती। एक बार बाहर निकलने के बाद आपको पता चलता है कि आज़ादी के नाम पर ख़ुद अपने पाँव में जंज़ीरें डाल लीं। बड़ी होने के नाते तुमसे यही कहूंगी सोच-समझ कर ही ये क़दम उठाना। मन ही मन ये गणित दोहराते हुए पलक एक क्षण में निर्णय ले चुकी थी। उसे किरण जैसी गुलामी नहीं चाहिए। घर की ओर चलते बढ़ते कदमों के साथ-साथ ही वो मन ही मन बुदबुदा रही थी, कि घर पहुंचते ही सासू मां के पैर छूकर क्षमा मांग लूंगी और सदा उनके साथ ही रहूँगी। मां बाप को साथ नही रखा जाता, मां बाप के साथ रहना होता है। *****

  • मेरी माँ

    आकाश बाजपेयी मेरा नाम सुमन है। मेरी शादी एक बड़े घर में हुई है। मेरे पति विनीत की फैमिली का अच्छा बिज़नेस है। विनीत एकलौते बेटे हैं। सास-ससुर, मैं, और विनीत' हम चार लोगों का ही परिवार है। विनीत और पापा जी सारा बिज़नेस संभालते हैं, इसलिए उनके काम से वापस आने का कोई समय नहीं होता है। विनीत अब एक नया काम शुरू करने वाले हैं, जो एक नई जगह पर है। वहाँ पर हमारा एक फार्महाउस भी है, इसलिए हम दोनों कुछ दिन वहीं जाकर रहेंगे। फार्महाउस में समय बिताने के साथ विनीत अपना काम भी करते रहेंगे। सुबह जल्दी ही हम लोग फार्महाउस में पहुंच गए। फार्महाउस की देखरेख के लिए एक नौकर, रामू, था। वह वहीं पास के एक कमरे में रहता था। हम जैसे ही पहुँचे, दूर से रामू दौड़ता हुआ हमारी कार के पास आया। आकर उसने ही कार का दरवाजा खोला और नमस्ते मालकिन कहते हुए हँसते हुए बोला। विनीत ने कहा, यह रामू है, हमारे फार्म की देखभाल करता है। मैं अंदर जाकर बैठी। थोड़ी देर बाद विनीत अपने काम में बिजी हो गए। उन्होंने रामू से कहा कि मैडम को फार्म दिखा दो। रामू बोला, ठीक है साहब। वह मुझे फार्म दिखाने ले गया। फार्म में हम घूम रहे थे, तभी गेट के बाहर से एक लगभग 6-7 साल की लड़की ने रामू को आवाज लगाई, जो स्कूल से वापस जा रही थी। रामू बोला, मैडम, मैं आता हूँ। वह गेट पर खड़ा होकर उस लड़की से बात करने लगा। मेरी नजर पड़ी तो वह लड़की मेरी तरफ ही देखे जा रही थी। फिर रामू वापस आकर बोला, मैडम, आप आराम करिये, मैं आता हूँ। ऐसा बोलकर वह चला गया। अगले दिन सुबह फिर विनीत अपने काम से जल्दी चले गए। मैं सुबह सोकर उठी तो मुझे दरवाजे पर रामू दिखाई दिया। मैंने पूछा, क्या कर रहे हो यहाँ पर? उसने बोला, मैडम, अभी आया हूँ चाय लेकर। मैंने कहा, ठीक है, यहाँ टेबल पर रख कर चले जाओ। फिर मैं नहा कर किचन में गई, तो रामू वहीँ था, और अपना कुछ काम कर रहा था। फिर उसने मुझसे बातें करने की कोशिश की, लेकिन मैं उसकी बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं दे रही थी। यहाँ का पुराना नौकर था, इसलिए मैं उसकी बातें सुन भी रही थी। अगर ऐसा नहीं होता, तो शायद मैं उसे डांट देती। यहाँ आये हुए मुझे 2-3 दिन हो गए थे और मैंने नोटिस किया कि वह मुझसे बातें करने की कोशिश लगातार करता ही रहता था। एक दोपहर मैं कमरे में अकेली बैठी थी, तभी अचानक रामू कमरे में आता है और बोलता है, मैडम, मुझे कुछ पूछना है। मैंने कहा, क्या? उसने कहा, मैडम, आप बुरा मत मानना, पर क्या मैं आपकी एक फोटो ले सकता हूँ? मेरे मुँह से निकला, क्या? बाहर निकलो अभी कमरे से! रामू बोला, मैडम, आप गलत समझ रही हैं, मेरी बात तो सुनिए। मुझे अचानक गुस्सा आ गया, और मैंने कहा, बाहर निकलो, या अभी तुम्हारे साहब को फोन करूँ। इतना बड़ा घर, और मेरे लिए तो अनजान ही था। ऊपर से वह इस तरह की बातें कर रहा था। मुझे कुछ अजीब लगा। मैंने सोचा, शाम को विनीत आएंगे तो सबसे पहले उसकी छुट्टी करवा दूँगी। शाम को विनीत आए तो मैंने उन्हें सब बताया। विनीत मानने को तैयार ही नहीं थे। बोले, "यह कई सालों से है, उसकी एक बच्ची भी है। तुम कुछ गलत समझ रही हो।" उसकी बच्ची के बारे में मुझे पता नहीं था। मैंने कहा, "कई सालों से यहाँ कोई लड़की भी नहीं आई थी।" विनीत ने कहा, "रुको, अभी उसे बुलाकर बात करते हैं।" विनीत ने रामू को आवाज लगाई। रामू आया तो विनीत ने कहा, "क्या हुआ, रामू? तुम्हारी मैडम कुछ कंप्लेंट कर रही हैं।" रामू ने कहा, "साहब, मैंने सिर्फ फोटो लेने को कहा था।" विनीत ने पूछा, "क्यों चाहिए तुम्हें फोटो?" रामू ने कहा, "साहब, आप तो जानते हैं, मेरी 7 साल की एक बच्ची है। उसकी माँ उसके पैदा होते ही चल बसी थी, और जब वह 2 साल की थी, तब हमारे घर में आग लग गई थी। भगवान की कृपा से हम तो बच गए, लेकिन उसकी माँ की सारी निशानियाँ खत्म हो गईं।" "बिना माँ की बच्ची को संभालना बड़ा मुश्किल होता है, साहब। मैडम, उस दिन जब मैं आपको फार्म दिखा रहा था, तब स्कूल से घर वापस जाते वक्त उसने हमें देख लिया। मेरा घर यहीं थोड़ी दूर पर है, उसकी दादी उसे संभालती है। हमेशा मुझसे पूछती रहती थी कि पापा, मेरी माँ कैसी दिखती थी, कैसी चलती थी, कैसे बातें करती थी। मैं उसे कहता था कि वह बहुत सुन्दर थी। यहाँ गाँव में उसके जैसा कोई नहीं है। जब उसने आपको देखा, तो उस दिन उसने यही पूछा कि पापा, मम्मी ऐसी थी? मैंने कहा, हाँ, ऐसी ही थी। तब से जिद पर अड़ गई कि मुझे मैडम से मिलना है। वह मेरी मम्मी जैसी है।" "वह अब स्कूल नहीं जा रही। इसीलिए मैंने आपसे बात करने की कोशिश की, ताकि आपको यह सब बता सकूँ। लेकिन आपका स्वभाव अलग है। फिर उसने आज सुबह से कुछ खाया नहीं। बोल रही है, 'पापा, फोटो लाना, मैं अपने स्कूल वाले दोस्तों को दिखाऊंगी कि मेरी मम्मी ऐसी थी।' तो मैंने कहा कि मैं तुझे फोटो लेकर दिखा दूँगा। वह बोली, पक्के से लाना।" इतना कहकर रामू फूट-फूट कर रोने लगा। रोते हुए ही बोला, "बच्ची है, मैडम, उसका नसीब ही ऐसा है। पैदा होते ही माँ मर गई और बाप मुझ जैसा मिला। मैडम, हम साहब से कुछ भी बोल देते थे। साहब का कभी मुझे डर नहीं लगा। यही आदत मुझे पड़ गई, और मैंने आपको भी अपना समझ कर बोल दिया। आप मुझे बताने देतीं, तो मैं आपको भी बता देता।" रामू की बातें सुनकर मुझे अपने आप पर गुस्सा आया। विनीत ने रामू को चुप कराया और कहा कि, "बच्ची को वहाँ क्यों रखते हो? उसे यहीं रखो। इतना बड़ा फार्महाउस है।" अगले दिन सुबह रामू अपनी बच्ची को लेकर आया। वह बच्ची को दूर से ही मुझे दिखा रहा था, शायद अब भी झिझक रहा था। मैं खुद बच्ची के पास गई और कहा, "अरे, हम यहाँ 4 दिन से हैं, और आप अब आ रही हो?" मेरे ऐसा कहने पर बच्ची के चेहरे पर जो मुस्कान आयी, वह अनमोल थी। वह मुझसे लिपट गई। जब तक मैं वहाँ रही, मैं उसके साथ खेलती और हँसती रही। एक अलग खुशी मिल रही थी। अब वह एक वजह बन गई थी, मेरे वहाँ बार-बार जाने की! ******

  • असली मानवता

    डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव अमेरिका के एक रेस्तरां में वेट्रेस ने एक आदमी और उसकी पत्नी को लंच का मेनू दिया और मेनू देखने से पहले, उन्होंने उसे दो सबसे सस्ता डिशेस देने के लिए कहा क्योंकि उनके पास इतने पैसे नहीं थे। कई महीनों से वेतन नहीं मिला था। जिस वजह से ये मुश्किल दौर से गुजर रहे थे। वेट्रेस सारा ने ज़्यादा देर तक नहीं सोचा। उसने उन्हें दो डिशेस की सिफारिश की और वो बिना किसी संकोच के सहमत हुए कि वो सबसे सस्ते थे। वह दोनों आर्डर ले आई और उन्होंने भूख से जल्दी खा लिया, और जाने से पहले उन्होंने वेट्रेस से बिल के लिए पूछा। वह अपने बिलिंग वॉलेट में कागज़ का एक टुकड़ा लेकर उनके पास वापस आई जिसमें लिखा था: "मैंने आपके हालात को देखते हुए अपने व्यक्तिगत खाते से आपके बिल का भुगतान किया है। ये मेरी तरफ से गिफ्ट के रूप में सौ डॉलर हैं और कम से कम मैं आपके लिए यही कर सकती हूं। आने के लिए धन्यवाद। सारा के लिए आश्चर्यजनक बात यह थी कि वह अपनी कठिन वित्तीय परिस्थितियों के बावजूद कपल के लंच के बिल का भुगतान करके बेहद खुश थी। हालांकि वह लगभग एक साल से ऑटोमेटिक वाशिंग मशीन खरीदने के लिए पैसे बचा रही थी क्योंकि उसे पुरानी वाशिंग मशीन से कपड़े धोने में मुश्किल थी। उसकी दोस्त को इस मामले के बारे में पता चला तो सारा की दोस्त ने उसे बहुत डांटा। क्योंकि उसने खुद को और अपने बच्चे की जरूरतों को पीछे डालकर यह पैसा बचाया था। उसे दूसरों की मदद करने से अधिक अपने लिए एक वाशिंग मशीन खरीदने की जरूरत थी। इस बीच उसे अपनी माँ का फोन आया जोर से कहा: "साराह तुमने क्या किया? " एक असहनीय सदमे के डर से उसने धीमी, कांपती आवाज़ में जवाब दिया: "मैंने कुछ नहीं किया। क्या हो गया ? उसकी माँ ने जवाब दिया: "सोशल मीडिया आपकी तारीफ़ और आपके व्यवहार की प्रशंसा करने में ज़मीन आसमान एक कर रहा है। उस आदमी और उसकी पत्नी ने फेसबुक पर आपका संदेश पोस्ट किया जब आपने उनकी ओर से बिल का भुगतान किया और कई और लोगों ने इसे शेयर किया। मुझे आप पर फ़ख़्र है। "... उसने अपनी मां के साथ अपनी बातचीत मुश्किल से ख़त्म की थी कि एक स्कूल के दोस्त ने उसे फोन किया और कहा कि उसका मैसेज सभी डिजिटल सोशल प्लेटफॉर्म पर वायरल हो गया है। जैसे ही सारा ने अपना फेसबुक अकाउंट खोला, उसे टीवी प्रोडूसर्स और प्रेस रिपोर्टर्स के सैकड़ों मैसेज मिले, जो उसके ख़ास कदम के बारे में बात करने के लिए उनसे मिलने के लिए कह रहे थे। अगले दिन, सारा, सबसे लोकप्रिय और सबसे अधिक देखे जाने वाले अमेरिकी टीवी शो में से एक में दिखाई दी। प्रस्तुतकर्ता ने उसे एक बहुत ही आलीशान वाशिंग मशीन, एक आधुनिक टेलीविजन सेट और दस हजार डॉलर दिए। इस इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनी से पांच हजार डॉलर का शॉपिंग वाउचर मिला। यहाँ तक कि उसके महान मानवीय व्यवहार की सराहना में हासिल होनेवाली रक़म $100,000 से ज़्यादा तक पहुंच गई। सौ डॉलर से कम कीमत वाले दो डिशेस ने उसकी जिंदगी बदल दी। उदारता ये नहीं है कि जिस चीज़ की आपको ज़रूरत नहीं है वो किसी को दे दें, बल्कि वह उदारता ये है कि जिस चीज़ की आपको ज़रूरत है वो किसी और ज़रूरतमंद को दे दें। असल ग़रीबी मानवता और दृष्टिकोण की ग़रीबी है। *******

  • सज़ा

    निरंजन धुलेकर अब बेटे के पास ढेरों ऐसे काम थे जिनका संबंध घर से तो बिल्कुल भी नही था। पढ़ाई के अलावा बहुत सारी बातें उसके लिए बेहद ज़रूरी हो चुकीं थीं। घर से बाहर जाने की उसे इतनी जल्दी रहती कि घर का काम करना तो दूर उसे काम को सुनने का भी वक़्त नही था। कुछ कहने पर वो उसे अनसुना करता बाहर निकल जाता। घर के किसी काम से बाहर गया भी तो कोई गारंटी नहीं कि उसे वो याद रहेगा। लौटने पर बोलता कि सॉरी भूल गया, और बात ख़त्म। न जाने का वक़्त न आने का समय, किसी के लिए कोई ज़िम्मेदारी ही फील नही होती थी उसे। मेरा बहुत मन करता है कि पास बैठे हाल चाल पूछे अपनी सुनाएँ मेरी सलाह ले, पर वो ऐसा नहीं करता है इसलिए अब बेहद अकेला महसूस करने लगा हूँ। आज भी बेटा बहुत लेट आया और मेरे घर का दरवाजा खोलने के बाद बिना मेरी ओर देखे अपने कमरे में जा कर ज़ोर से दरवाजा बंद कर लिया। रात के डेढ़ बजे हैं, डैड की दशकों पहले लिखी डायरी हाथ लग गयी थी वही पढ़ रहा हूँ, लिखा है .. "आज बेटा फिर देर से लौटा। उसे पता है कि मैं ख़ुश नही होता उसके देर रात घर लौटने से। दरवाज़ा खोला पर वो रुका नही, उड़ती सी नज़र डाल कर अपने कमरे में गया और दरवाज़ा धड़ाम से बन्द कर लिया। लगा जैसे मेरे मुँह पर ही दे मारा हो। उसके इस व्यवहार ने मुझे तोड कर रख दिया बेहद पीड़ा हुई है, आज बहुत अपमानित ... ." पन्ने पर आगे के शब्द अस्पष्ट से थे शायद उन पर गिरी बूँदों से धुल कर कागज़ में समा गए होंगे। उन्ही धुँधले अक्षरों पर आज मेरी ताज़ी गरम बूंदें गिर कर जैसे सॉरी बोल रहीं थीं पर आज क्षमा करता कौन? मुझे उस वक़्त डैड के साथ अपने किये की सजा आज मेरा बेटा दे रहा था। *****

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