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स्वप्न

मुकेश ‘नादान’

नरेंद्र अकसर कलकत्ता में अपने घर में बैठकर सुदूर दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण के ध्यान में निमग्न श्रीमूर्ति का दर्शन किया करते थे। एक दिन उन्होंने स्वप्न में देखा कि श्रीरामकृष्ण उनके निकट आकर कह रहे हैं, “चल, मैं तुझे ब्रज-गोपी श्रीराधा के समीप ले जाऊँगा।”
नरेंद्र ने अनुसरण किया। थोड़ी ही दूर जाकर श्रीरामकृष्ण ने उनकी ओर लौटकर कहा, “और कहाँ जाएगा।' यह कहकर उन्होंने रूप-लावण्यमयी श्रीराधिका का रूप धारण कर लिया। इस दर्शन का फल यह हुआ कि यद्यपि नरेंद्र पहले कुछ ब्रह्मसमाज के गीत ही प्रायः गाया करते थे, लेकिन अब उन्होंने श्रीराधा के कृष्ण-प्रेम के अर्थात्‌ भगवान्‌ के प्रति जीव के आकुलतापूर्ण अनुनय-विनय, विरह-कातरता आदि के गीत गाना भी आरंभ कर दिया।
अपने गुरु-शिष्यों से उनके दूवारा इस स्वप्न के विषय में कहने पर उन लोगों ने आश्चर्य से पूछा, “क्या तुम विश्वास करते हो कि यह स्वप्न सच है? ” नरेंद्र ने उत्तर दिया, “हाँ, निश्चय ही विश्वास करता हूँ।”
ध्यान के समय नरेंद्र अकसर अपनी प्रतिमूर्ति देखा करते थे कि हू-ब-हू जैसे उनके ही आकार और रूप आदि लेकर एक दूसरा व्यक्ति बैठा है तथा दर्पण में प्रतिबिंबित मूर्ति के हाव-भाव, चाल-ढाल आदि सबकुछ जैसे असली आदमी के समान हो जाता है, वैसे ही इस प्रतिमूर्ति के क्रिया-कलाप भी हू-ब-हू उसी भाँति होते। नरेंद्र सोचते, 'फिर कौन है? ' श्रीरामकृष्ण को यह बतलाने पर उन्होंने उस पर कोई विशेष गंभीरता दिखाए बिना कहा था, “ध्यान की ऊँची अवस्था में ऐसा होता ही है।”
एक बार नरेंद्र की यह इच्छा हुई कि वे भाव में निमग्न होकर इस संसार को भूल जाएँ। वे देखते थे कि नित्यगोपाल, मनमोहन आदि श्रीरामकृष्ण के भक्तगण भगवान्‌ का नाम-कीर्तन सुनते-सुनते बह्मज्ञान खोकर किस प्रकार धराशायी हो जाते हैं। उन्हें दुख होता कि वे इस तरह के ऊँचे आध्यात्मिक आनंद का भोग करने से अब तक वंचित हैं। अत: एक दिन उन्होंने श्रीरामकृष्ण से इस अतृप्ति की बात कर उसी प्रकार की भाव-समाधि के लिए प्रार्थना की। इसके उत्तर में श्रीरामकृष्ण ने स्नेहासिक्त दृष्टि से उन्हें देखते हुए कहा, “तुम इतने उतावले क्यों होते हो? उससे भला क्‍या आता-जाता है? बड़े सरोवर में हाथी के उतरने से कुछ हलचल नहीं होती। किंतु छोटे तालाब में उतरने से वहाँ बड़ी हलचल मच जाती है।” उन्होंने और भी स्पष्ट रूप से समझा दिया कि ये सब भक्तगण छोटे पोखर की भाँति हैं, जिनका छोटा आधार है। इन लोगों में भगवत्‌-भक्ति का किंचित्‌ आवेश होते ही हृदय-सरोवर से तूफान उठने लगता है। किंतु नरेंद्र बहुत बड़े सरोवर की भाँति है, इसी से इतनी सहजता से वह विह्वल नहीं होता।
जगदंबा के निर्देश और अपनी परीक्षाओं से प्राप्त ज्ञान के फलस्वरूप श्रीरामकृष्ण नरेंद्र पर पूर्ण विश्वास करते थे। भगवत्‌-भक्ति की हानि से रक्षा के लिए अन्य भक्तों के आहार, विहार, शयन, निद्रा, जप, ध्यान आदि सभी विषयों पर तीक्ष्ण दृष्टि रखने पर भी वे नरेंद्र को पूरी स्वाधीनता देते थे। वे भक्तों के सामने स्पष्ट रूप से कहा करते थे, “नरेंद्र यदि उन नियमों का कभी उल्लंघन भी करे तो उसे कुछ भी दोष नहीं लगेगा। नरेंद्र नित्य-सिद्ध है, नरेंद्र ध्यान सिद्ध है, नरेंद्र के भीतर सदा ज्ञानाग्नि प्रज्लित रहकर सब प्रकार के भोजन-दोष को भस्मीभूत कर देती है।
इस कारण यत्र-तत्र जो कुछ भी वह क्‍यों न खाए, उसका मन कभी कलुषित या विक्षिप्त नहीं होगा; ज्ञान रूपी खड़्ग से वह समस्त माया-बंधनों को काट डालता है, इसीलिए महामाया उसे किसी प्रकार वश में नहीं कर सकती।”

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