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  • साइबर प्रेम और अपराध

    बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद प्रगति ने अपने घर से दूर महानगर दिल्ली में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने की इच्छा ज़ाहिर की। वह अपने माँ-बाप की अकेली सन्तान थी। बाहर के माहौल खुद पुत्री प्रेम के वसुभूत होकर उसके माता-पिता उसे इजाज़त नहीं दे रहे थे। अंततः बेटी की ज़िद के आगे मान गए लेकिन कमरे लेने के बजाय हॉस्टल दिलाने का निश्चय किया। प्रगति अपने पिता के साथ दिल्ली आयी और फिर बड़ी कोचिंग संस्था में दाखिला लिया और तैयारी शुरू कर दी। पढ़ने में वह होनहार थी और स्वभाव से बहुत सरल थी। उसकी बोली बहुत मृदु थी जैसे किसी कोयल की सुरीली आवाज कानों में पड़ रही हो। प्रगति रोज़ कोचिंग जाती और पूरे मन से वहां पढ़ती और फिर अपने कमरे में वापस आने पर भी पढ़ती। प्रगति एक छोटे से कस्बे से पहली बार महानगर में आई थी और यहां की आदतों, हरकतों से अपरिचित थी। यहां तो लड़कियों के पुरुष मित्र होते थे जिनके साथ सब कोचिंग छोड़ कर घूमने और फिल्में देखने जाते थे। प्रगति को ये सब लत तो नहीं लगी थी लेकिन यहां जबसे आयी थी तो सोशल नेटवर्किंग साइट का जरूर चस्का लग गया था। वह अलग-अलग तस्वीरें लेती जिन्हें वहां बहुत पसंद किया जाता और तारीफें मिलती। एक दिन रात में प्रगति उसी साइट पर व्यस्त थी तभी उसे एक सन्देश किसी लड़के का प्राप्त हुआ। प्रगति ने भी जवाब दिया। फिर उस लड़के ने प्रगति से साधरणतया बात शुरू की। प्रगति भी सभी संदेशों के जवाब दे रही थी। जैसे क्या करती, कहाँ रहती, पसन्द, नापसंद इत्यादि। इसी तरह रोज़ रात में प्रगति उससे बातें करती रहती और अब दोनों में अच्छी दोस्ती भी हो गयी थी। लड़का भी प्रगति की काफी तारीफें करता और अपने साथ सहजरूप से रखता जिससे प्रगति को यह बात बहुत अच्छी लगती वह बिना किसी डर और संकोच कर उससे बात करती थी। धीरे-धीरे दोनों की दोस्ती बढ़ती गयी। इसी बीच प्रगति की पढ़ाई भी बाधित हुई और कई टेस्ट में उसके नंबर कम आये। लेकिन प्रगति को खास असर नहीं पड़ा और वह इन साइट का ज्यादा प्रयोग करने लगी और उस लड़के से बातें भी ज्यादा होने लगी। कुछ महीनों बाद लड़के ने प्रगति को अपनी महिला मित्र या गर्ल फ्रेंड बनने का प्रस्ताव दिया जिसपर प्रगति ने कहा वो सोच कर बताएगी। चूंकि इतने दिनों में वह उससे बातें करके काफ़ी सहज और घुल मिल गयी थी और उसे पसन्द करती थी तब उसने हां कर दी। दोनों में अब बाते फोन पर भी होने लगी और इधर प्रगति की पढ़ाई और ज्यादा बिगड़ने लगी। हालांकि इसी बीच प्रगति दो बार घर भी गयी जिससे भी प्रभाव पड़ा। घर पर भी उसकी माता ने उसको डाँट लगाई की आज कल वह फ़ोन पर ज्यादा रहती और लोगों के बीच कम। उन्होंने कहा भी कि वहां शहर में किसी का रोक-टोक नहीं तब पढ़ाई करती या फ़ोन चलाती लेकिन तब प्रगति ने उनको समझा कर मामला शांत कर लिया। इधर प्रगति और उस साइट वाले लड़के के बीच बातों का सिलसिला भी बढ़ता गया। लड़का दूसरे शहर का था इसीलिए दोनों मिल नहीं पाए बाकी बाते सुचारू रूप से चलती रही। धीरे-धीरे प्रगति ज्यादा ही प्रेम में गिरती गयी और लड़के ने उससे निजी बातें और जवानी की कई अनकही चीज़े या अमूनन कहे तो प्रेम वार्ता करने लगे। एक दिन लड़के ने प्रगति से कहा, "मैं तुमसे अगर कुछ मांगू तो तुम गुस्सा तो नहीं करोगी?” प्रगति ने कहा," नहीं बिल्कुल नहीं। ऐसा क्या मांग रहे?" लड़के ने शरारत से भरा साइट में उपस्थित एक चित्र भेजा। जो चेहरे के शरारत भरे भाव को दर्शाता था। लड़के ने उससे उसकी निजी तस्वीरें यानी आपत्तिजनक तस्वीरें माँगी। प्रगति ने साफ़ मना कर दिया। फिर लड़के के द्वारा बहुत मनाने पर उसने वो तस्वीरे साझा कर दी। समय बीतता गया और प्रगति और उसका प्रेम अब कई मर्यादाओं को पार कर चुका था। वह बस मिले नहीं थे बाकी बातें सारी कर चुके कि जिन्हें दो प्रेमी करते होगें। आपस में आपत्तिजनक तस्वीरें, वीडियो कॉल आदि सामान्य हो गया। प्रगति को शायद नहीं अंदाज़ा भी नहीं था कि वह सही कर रही या गलत। वह किस लिए घर से इतना दूर आयी है। इसी बीच एक प्रतियोगी परीक्षा हुई जिसमें प्रगति ने बहुत कम अंक आये। उसको घर से भी यह हिदायत मिली अगर वह इस बार पास नहीं होती तो उसे वापस घर बुला कर शादी कर दी जायेगी। प्रगति अब पढ़ाई पर फिर से ध्यान लगाने लगी और उसने उस लड़के को समझाया कि बातें थोड़ी अब कम करेंगे और ये सब जो भी हो रहा है बंद करना है क्योंकि इससे उसका ध्यान बंट जाता है। वह लड़का लेकिन मान नही रहा था। प्रगति ने उसको साफ-साफ कह दिया कि अगर मेरी बातों को नहीं मानोगे तो हमारी बात हमेशा के लिए बंद हो जाएगी क्योंकि मुझे अपनी गलती का अहसास है। मैं रिश्ता नहीं तोड़ रही बस समय मांग रही। वह लड़का बिल्कुल तैयार नहीं था आखिर में प्रगति ने उससे रिश्ता तोड़ना उचित समझा। अभी इन सब बातों को मुश्किल से 10 दिन बीते थे कि उस लड़के का फिर फ़ोन आया। उसने प्रगति से फिर बात करने को कहा लेकिन प्रगति ने साफ मना कर दिया। फिर एक दिन उसने प्रगति को कुछ फ़ोटो और वीडियो भेजें जिसे देखकर प्रगति की आँखे फटी रह गयी। आखिर क्यों न हो? वह वही सारी तस्वीरें प्रगति की आपत्तिजनक और निजी थी। प्रगति ने कहा तुम तो सारी तस्वीरे मिटा दिया करते थे ये कैसे आ गई। उसने प्रगति से कहा, “मुझसे अगर तुमने रिश्ता तोड़ दिया तो मैं यह सारी वीडियो और फोटो सार्वजनिक कर दूँगा और तुम्हे बदनाम कर दूंगा।" प्रगति इतना सुनकर दंग रह गयी मानो पैर तले जमीन खिसक गई हो। उसने मिन्नतें करते हुए ऐसा न करने की बात कही लेकिन वह लड़का बिल्कुल तैयार नहीं था। धीरे धीरे प्रगति यही सोच कर डर और अवसाद में डूब गई और बीमार हो गयी जिससे बहुत कमज़ोर भी हो गई। उसके पिता उसको घर ले गए और डॉक्टर को दिखाया लेकिन कुछ फायदा न हुआ आख़िर मन की पीड़ा कोई क्या जान पाए? अब उसे सारी सीखें और अपनी गलती का अहसास हो रहा था लेकिन उसे समझ नहीं आ रहा था वह क्या करे? उधर वो लड़का हर रोज़ इसे धमकाता और वही तस्वीरें सार्वजनिक करने की बात कहता। कुछ दिन बाद प्रगति का स्वास्थ्य गिरता गया और उसके माता पिता के लाख पूछने पर भी उसने कुछ न बताया । एक दिन उसने हिम्मत करके सारी बातें अपनी माँ को बताई जिसे सुनकर वह भी चिंता में पड़ गयी लेकिन कहते हैं बच्चों पर तकलीफ़ हो तो अबला भी काली का रौद्र रूप धारण कर लेती। उन्होंने कहा ,"बेटी! तुम बिल्कुल चिंता न करो। मैं बताती हूं उस लड़के को।" अगले दिन सुबह वह प्रगति को लेकर महिला सुरक्षा कार्यालय गयीं औऱ फिर उनकी सलाह पर साइबर क्राइम के तहत उस लड़के पर लड़की को धमकाने, मानसिक रूप से परेशान करने, और कई धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज कराया। कुछ दिन बाद वह लड़का पकड़ा गया और उससे पुछ्ताछ हुई तब पता चला वह कई लड़कियों की इसी तरह धमका कर उनसे सम्बंध स्थापित करता और पैसे भी लूट लेता था। उन्हें इसी से डरा कर उनके साथ शारीरिक सम्बंध स्थापित करता था। उसे उसके गुनाहों की सजा मिली और प्रगति को इंसाफ। प्रगति ने हिम्मत दिखाई और हौसला भर कर सामना किया और मां बाप से बातें बताई। आज कल के इस डिजिटल युग मे ऐसे नक्कालों और दरिंदो से सावधान रहें। किसी के साथ ऐसे न करें। आपकी सुरक्षा आपके ही हाथों में है। सोशल साइट ओर ऐसे गिरोह और लोग है जो अपनी हवस का शिकार और पैसों की लूट पाट करते है। कृपया डिजिटल मोहब्बत के चक्कर में ऐसा काम न करें। *****************

  • नतीज़ा

    घर की इकलौती बहू होने के कारण सलोनी को घर के सभी सदस्य बहुत मानते थे और उसकी हर फरमाइश को पूरा भी करते थे। उसकी हर छोटी-बड़ी जरूरत को उसके कहने से पहले ही पूरा कर दिया जाता था। घर के हर फैसले में उसी की राय ली जाती थी और उसके हर फैसले का दिल से स्वागत भी किया जाता था। पढ़ी लिखी होने के साथ-साथ सलोनी रूपवती भी थी, इस बात का सलोनी को घमंड भी था। घर के सभी सदस्य उसके चारों तरफ घूमते रहते थे, सलोनी इस बात का नाजायज फायदा उठाने से कभी नहीं चूकती थी। परंतु, घर वालों को कभी यह एहसास ही नहीं हुआ कि सलोनी के मन में इस प्रकार के भाव भी हैं। वे तो केवल सलोनी के बारे में अच्छा ही सोचते थे। पुत्र शाश्वत के जन्म के पश्चात तो सलोनी के भाव और भी ऊंचे हो गए और अब वह घर में किसी को कुछ नहीं समझती थी, परंतु फिर भी ससुराल वाले उसे सिर माथे पर बिठाते और उसकी हर इच्छा पूरी करते थे। धीरे-धीरे शाश्वत बड़ा होने लगा और उसके भीतर भी मां के गुण दिखाई देने लगे। घर का इकलौता बच्चा और साथ ही साथ अकेला वारिस होने के कारण शाश्वत बहुत जिद्दी हो गया था। उसके दादा-दादी उसे अच्छा और एक बेहतरीन इंसान बनाने की हर संभव कोशिश करते थे और कभी-कभी जानबूझकर उसकी जिद पूरी नहीं करते थे क्योंकि वे चाहते थे कि शाश्वत जीवन की हकीकत का सामना करना सीखें और चुनौतियों से घबराए नहीं। परंतु, सलोनी को यह बात बहुत अखरती थी और वह सब से छुपकर शाश्वत की सभी गलत सही मांगे पूरी करती थी, जिसका परिणाम यह हुआ कि उम्र बढ़ने के साथ-साथ शाश्वत कई गलत आदतों का शिकार हो गया। पुत्र की ममता में अंधी सलोनी उसकी उन आदतों से अनभिज्ञ थी। समय बीतने के साथ-साथ अब शाश्वत की संगत कुछ गलत लोगों के साथ हो गई और वह कुछ असामाजिक कार्यों में भी संलिप्त हो गया। उसके इन कामों की जानकारी घरवालों को उस वक्त मिली जब घर में पुलिस आई और शाश्वत के बारे में पूछताछ करने लगी। घर के सभी सदस्य अवाक रह गए। सलोनी के पैरों तले तो मानों जैसे जमीन ही खिसक गई। पुलिस ने बताया कि शाश्वत दूसरे शहर में चोरी करके भागा है, यह सुनकर सलोनी को चक्कर आ गया और वह गिर पड़ी। घर वालों ने उसे जैसे-तैसे संभाला। होश आने पर सलोनी ने शाश्वत से पूछा कि घर में सब कुछ होने के बावजूद आखिर उसे चोरी करने की आवश्यकता पड़ी ही क्यों। उसका जवाब सुनकर सलोनी स्तब्ध रह गई। शाश्वत ने जवाब दिया कि घर में सबसे पैसे मांग-मांग कर वह थक चुका था और वह अब जिंदगी को अपने दम पर जीना चाहता था। उसने घर वालों के सामने खुलासा किया कि वह रोज-रोज घर में किसी के सामने हाथ फैलाना सही नहीं समझता था इसलिए उसने कम समय में अधिक पाने की लालसा की वजह से अपने कुछ नामी गिरामी दोस्तों के साथ चोरी करना शुरू किया। अब तक सलोनी को समझ आ चुका था कि बच्चे की हर सही गलत ज़िद को पूरा करने का नतीजा इस हद तक खतरनाक भी हो सकता है। **********

  • वाणी, चरित्र का प्रतिबिंब है।

    व्यक्ति स्वच्छ, साफ वस्त्र धारण करता है, आकर्षक जूते-चप्पल पहनता है, आधुनिक व बड़ी गाड़ी का उपयोग करता है, विशाल, सुंदर भवन का निर्माण करता है। यह सब व्यक्ति अपने संगी-साथियों को आकर्षित करने और उनपर अपना प्रभाव छोड़ने के लिए ही करता है। ऐसे मोहक पहनावे से दूसरा व्यक्ति आकर्षित हो सकता है। इस आकर्षण को स्थाई बनाए रखने के लिए व्यक्ति के आंतरिक गुणों की सुंदरता का भी अत्यधिक महत्व हो जाता है। इन आंतरिक गुणों में प्रथम है, मधुर वाणी। बाहरी साज सज्जा होने के बाद यदि वाणी मधुर नहीं, तो व्यक्ति का आकर्षण चिरस्थाई न हो पाएगा। वाणी ही मनुष्य के चरित्र का वास्तविक प्रतिबिंब होती है। व्यक्ति के बोले गए शब्दों व उसके द्वारा किए गए कृत्यों का वास्तविक विश्लेषण व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व का दर्पण बन जाता है। व्यक्ति जब दूसरों के लिए अपशब्दों का प्रयोग करता है, तो इन शब्दों से वह स्वयं अपने उद्देश्य से भ्रमित होकर अपनी विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा को भी नुकसान पहुंचाता है। विशुद्ध सात्विक विचारों को प्रिय एवं मधुर शब्दों में व्यक्त कर मनुष्य दूसरों पर अत्यंत गहन प्रभाव छोड़ जाता है। कहा जाता है कि मधुर वाणी व प्रिय शब्दावली का प्रयोग कर व्यक्ति शत्रु को भी परास्त कर सकता है। यह गुण ही मनुष्य की इंद्रियों का दैवीय आभूषण है। अप्रिय व कटु वचनों का प्रयोग ही मनुष्य के कर्मों का निर्धारण भी करता है। मधुर वचनों के प्रयोग से मनुष्य सद्गति को प्राप्त कर सकता है। अतः मधुर वचनों के प्रयोग को एक साधना के तौर पर अपने जीवन में उतार लिया जाना चाहिए और यह निश्चित कर लेना चाहिए कि सदा सर्वदा मीठी बात ही बोलूंगा, कम बोलूंगा, और सब कुछ मधुरता की मिश्री से युक्त करके ही बोलूंगा। कड़वी बातों से जो भयंकर प्रभाव पड़ता है, वह सर्वविदित है। किसी से कटु, अप्रिय, अभद्र शब्द न बोलिए, अपनों से छोटों, नौकरों, बालको यहां तक कि जानवरों तक को अपशब्द द्वारा न पुकारिये। यदि अपशब्दों के प्रयोग से होने वाले प्रभाव की वैज्ञानिकता पर विचार किया जाए, तो हम पाते हैं कि मनुष्य द्वारा बोले गए अपशब्द, उस मनुष्य के आस-पास ही अपशब्दों का एक विद्युत चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न कर देते हैं। वह मनुष्य स्वयं उस विद्युत चुंबकीय क्षेत्र के केंद्र में स्थित होता है। अतः इन विद्युत चुंबकीय तरंगों के कुप्रभाव का सर्वाधिक असर बोले गए व्यक्ति के ऊपर ही पड़ता है। अपशब्दों के लगातार प्रयोग से विद्युत चुंबकीय तरंगों का घेरा घना होता चला जाता है। परिणाम स्वरुप उसका प्रभाव भी तीव्रतम हो जाता है। अंततः मनुष्य इन तरंगों के प्रभाव से अपने चरित्र व गरिमा की बलि देकर अशिष्ट और दुराचारी व्यक्ति के रूप में समाज में स्थापित हो जाता है। मधुर वचन सुनकर किसका ह्रदय प्रसन्न नहीं हो जाता। संसार की प्रत्येक वस्तु प्रेम से प्रभावित होती है। मनुष्य अपनी भावनाओं का अधिकांश प्रदर्शन वचनों द्वारा ही करता है। बालक की मीठी-मीठी बातें सुनकर बड़े-बड़े विद्वानों तक हृदय खिल उठता है। तभी कहा गया है कि मधुर वचन मीठी औषधि के समान लगते हैं। तो कड़वे वचन तीर के समान चुभते हैं। शिशु से लेकर वृद्ध तक संपूर्ण जगत मीठे वचनों को ही सर्वाधिक पसंद करते हैं। मधुर वचनों से मनुष्य तो क्या देवता भी प्रसन्न हो जाते हैं। मीठे का प्रभाव अत्यंत तीव्र व दूरगामी होता है। यही कारण है कि भोजन में मीठे की प्रबलता होती है। मधुर भाषण जैसी मिठास भला कहां प्राप्त की जा सकती है। स्वयं रहीम दास जी ने भी अपने मुख से कहा है कि कागा काको धन हरे, कोयल काको देय। मीठे वचन सुनाय कर, जग अपना कर लेय।। अर्थात न तो कौवे ने हमारी कोई संपत्ति हड़प ली है और न ही कोयल ने हमें कोई विशेष संपत्ति दे दी है। यह तो केवल उन दोनों की वाणी का प्रभाव है, कि कोयल को हम कितने ध्यान से सुनते हैं, जबकि कौवे को देखते ही दुत्कार देते हैं। रिचर्ड कार्लसन ने कहा, "जब हम किसी अन्य व्यक्ति की आलोचना करते हैं या उस व्यक्ति के लिए अपशब्दों का प्रयोग करते हैं, तो ऐसे शब्दों का कुप्रभाव, अमुक व्यक्ति के स्थान पर स्वयं के ऊपर ही अधिक पड़ता है।" जो कि वैज्ञानिकता के आधार पर भी उचित प्रतीत होता है। एक अन्य विचारक के अनुसार, “प्रिय भाषण में वशीकरण की महान शक्ति होती है। इससे पराए भी अपने हो जाते हैं। सर्वत्र मित्र ही मित्र दृष्टिगोचर होते हैं। मधुर भाषण एक दैवीय वरदान है। शास्त्रों में इसे सर्व शिरोमणि कहा जाता है।” माधुर्य रस से ओतप्रोत, सत्य, हितकर व प्रिय भाषण एक सिद्धि के रूप में कार्य करता है। यह आत्म-संयम, स्वार्थ-त्याग एवं प्रेम भावना से ही उत्पन्न हो सकता है। जिस व्यक्ति के मन, वचन व कर्मों में दूसरों के प्रति मधुर भाव है, उसे ही इस वशीकरण विद्या का पूर्ण ज्ञाता माना जा सकता है। ऐसे व्यक्ति के हाथ में जड़ से लेकर चेतन तक सभी को वश में कर लेने की सिद्धि प्राप्त हो जाती है। डेल कार्नेगी के अनुसार, “कोई भी मूर्ख आलोचना, निंदा और अपशब्दों का प्रयोग कर, शिकायत कर सकता है, लेकिन माधुर्य, प्रेम व आत्मसंयम से ओतप्रोत वाणी का प्रयोग एक सशक्त, आचरणवान व धर्मवीर मनुष्य ही कर सकता है।” जो व्यक्ति मधुर वचन नहीं बोलते वह अपनी वाणी का दुरुपयोग करते हैं। ऐसे व्यक्ति संसार में अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को खो बैठते हैं। तथा अपने जीवन को कष्टकारी बना लेते हैं। कड़वे वचन से उनके बनते काम बिगड़ जाते हैं तथा वे प्रतिपल अपनी विरोधी शक्तियों को जन्म देते रहते हैं। उन्हें सांसारिक जीवन में सदा अकेलापन झेलना पड़ता है। तथा मुसीबत के समय लोग उन से मुंह फेर लेते हैं। मधुर वचन बोलने वाले व्यक्ति सबको सुख शांति देते हैं। सभी ऐसे लोगों का साथ पसंद करते हैं। इससे समाज में पारस्परिक सौहार्द की भावना का संचार करने में मदद मिलती है। सामाजिक मान प्रतिष्ठा और श्रद्धा का आधार स्तंभ वाणी ही है। अपनी वाणी का प्रयोग हम जिस प्रकार करते हैं हमें वैसा ही फल मिलता है। हम अपने वचनों से अपनी सफलता के द्वार खोल सकते हैं या असफलता को निमंत्रण दे सकते हैं। मधुर बोलिए और उसके मीठे फल आपको मिलेंगे। मधुर भाषण करने वाले की जिव्हा पर साक्षात सिद्धियां निवास करती है। यह दैवीय संपत्ति का लक्षण है। शास्त्रकारों का मत है कि “सत्य बोलो और मधुर बोलो। कटु सत्य कभी मत बोलो।“ यह भी परम सत्य है कि मधुर वाणी निंदा, छिद्रान्वेषण, परदोषदर्शन, आलोचना, खरी-खोटी, नीचता, ईर्ष्या इत्यादि से बहुत दूर रहती है। इसका प्रमुख उद्देश्य दूसरों के सद्गुणों, उच्च भावनाओं, सदविचारों को प्रकट करना है। मधुर वाणी से आयु में भी वृद्धि होती है। सभी प्राणियों का यह मानवोचित कर्तव्य है, कि दूसरे की भावनाओं का आदर करें। ऐसा करने से मनुष्य के मनुष्य से गहन गंभीर भाव परक व मधुर संबंध बनते हैं। कहां भी जाता है कि हम जैसे व्यवहार की आशा दूसरों से अपने लिए करते हैं, हमें स्वयं भी दूसरों से वैसा ही व्यवहार करना चाहिए। तभी कहा गया है ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय। औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।। मनुष्य जितना ही प्रिय भाषण का उच्चारण एवं श्रवण करेगा, उतना ही शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त करेगा। इसके विपरीत खोटे वचन, खोटे सिक्कों के समान कार्य करते हैं। वह आप जिसको भी देंगे, वह आपको सूद समेत लौटा देगा। अतः मीठी वाणी में ही आनंद और माधुर्य है। ********

  • टैरो कार्ड

    एक अधेड़ सम्भ्रांत घर की महिला थाने में सुबकते हुए कह रही थी, ‘‘सर जी उसने मुझे होटल में बुलाया, फिर धोखे से, मेरी इज्जत तार-तार कर दी। दरोगा-यह तो बहुत ही गलत हुआ, आप के साथ मैडम जी!..फिर मैडम की ओर गौर से देखते हुए, अरे! मेम लग रहा, मैंने आप को कहीं देखा है। उस महिला के साथ आए कुछ परिचितों में से एक बोला-कमाल करते हैं साहब जी! आप को पता नहीं? अरे! यह मैडम जी टैरो कार्ड से लोगों का भविष्य बताती हैं। अखबारों-पत्रिकाओं में इनके रेगुलर कालम छपते हैं। कई चैनलों से इनके प्रोग्राम आते हैं। दरोगा, मैडम जी की ओर हिकारत से देखते हुए-अरे! वाह ये तो बड़ी अच्छी बात है। फिर आप मैडम जी, उस होटल में करने क्या गईं थीं। मैडम बोले, उस पहले ही मैडम का चमचा ही बोल पड़ा-दरअसल उस आदमी ने मैडम से, अपने करोबार के, भविष्य के बारे में जानने के लिए बुलाया था। ‘‘उस नामुराद निगोड़े ने होटल के कमरे में मुझे अकेले बुलाया ...मैडम फिर से सिसकने लगीं..फिर उसने जबरदस्ती मेरे साथ..अब मैडम का रूदन उनकी व्यथा-कथा बयां कर रहा था।..मुझे उस कमीने ने कहीं का न छोड़ा। उँ उँ उँ.. ऽऽऽ.. दरोगा मैडम की शिकायत दर्ज करने लगा। तब तक वहाँ मीडिया कर्मी भी सूँघते-सूँघते आ गये। क्या हुआ? क्या हुआ? सवाल-दर-सवाल दरोगा पर दागने लगे? तब दरोगा झल्लाकर, मैडम की ओर उँगली उठाकर बोला-मेरे से क्या पूछते हो? इन मैडम जी से पूछो-जो सब का भविष्य टैरो कार्ड से बताती हैं। पूछो, एक धोखेबाज ने धोखे से इनके चरित्र का, भविष्य कैसे खराब कर दिया? अब वहाँ चख-चख थी। तमाम सुलगते सवाल, मैडम और उनके समर्थकों के कलेजे झुलसा रहे थे। मैडम की बैग में पड़े टैरो कार्ड अट्टहास करते हुए कह रहे थे- दूसरों का भविष्य टैरो कार्ड से बताने वालों के भविष्य खबर की आज खबरनवीस ले रहे हैं। *******

  • रूसेड़ी बीनणी

    जब कभी कुछ भी न चल रहा होता है, तब बहुत कुछ मौन होकर घटा करता है। हर घटनाओं का अंत दुखांत हो यह जरूरी नहीं। अचानक आँख खुली...! अरे! रात के ढाई बज गये। एकल स्लीपर सीट पर सोया-सोया गूलल मैप पर देखा जोधपुर आ गया क्या? कंडेक्टर ने आवाज दी......पावटा, राई का बाग, जोधपुर वाले आ जाओं। तुरंत नीचे उतर गया सीट से। और बस से नीचे आ गया। 13 दिन पहले आया था तो पता था रास्ते का। राई बाग बस स्टेण्ड पर आ गया। और वहाँ कुर्सियों पर घोड़े बेच कर तो क्या थे ही नहीं बेचने को, लेकिन सो गया। 5 बजे उठा। 30 रूपयें देकर सुलभ शौचालय में तरोताजा होकर आया। वापस घर लौटने की टिकट बनवाई। जेब में रूपये 40 बचे थे। तो एटीएम से रूपये निकाल कर टिकट बनवाई। थोड़ी देर बाद.....! जिसका इंतजार था बार-बार फोन चेक कर रहा था। वही हुआ...! कभी-कभी चिंताओं के घेरें में जकड़ा आदमी भी बहुत खुश होता है क्योंकि वहाँ कोई प्रतिशोध या विषाद नहीं होता इसलिए कुछ चिंताओं का परिणाम सुखदायी होता है। पहुँच गये क्या गुड़िया के पापा...! तबीयत तो ठीक है न आपकी, गले में आराम आया थोड़ा बहुत। आराम से जाकर वापस आ जाओं....! हाँ! पहुँच गया। रात ढाई बजे उतर गया था। तबीयत ठीक है। तुम कैसी हो! दवा ले रही हो न! भूल तो नहीं रहीं न लेना। ना ओ! खाना जल्दी खाना सीख लो। तेरी आदत है देर से खाना खाने की। हूँ खास्यूँ। पेट में बेबी लात मारसी तेर्र बी न भूख लाग सी जणा।फेर्र मन्न बोल्ल सी थारों बेबी मेर्र लात मार्र। (वो मैसेज टाईप कर रही थी......) मैं बार-बार उस मैसेज को पढ़ रहा था। जो सिर्फ मैसेज भर न था। सुबह उठते ही पूछना अपने पति से 'आप कैसे है?' गुड़िया के पापा!..... जाकर वापस आ जाओं! कितनी भावुक होगी जब उसने ऐसा कहा....! जाकर वापस आ जाओं.....! इंतज़ार करती बैचेन आँखें, हृदय में एक सूनापन पति के पास न होने पर! क्या समझ सकेगा पुरूष अपनी पत्नी के हृदय के मर्म को या शब्दों के छल में ही बेवकूफ बनाता रहेगा हमेशा। मेरी पत्नी सबसे अच्छी है, और नहीं तो कम से कम मुझसे तो अच्छी है इसमें कोई संशय है। (इतने में मैसेज आया) 'मैं थार सूँ कोनी बोलूँ, मैं रूसेड़ी हूँ।' क्या! कल की रूसी हुई है तू! हाँ! थार्र के फर्क पड़्ड़ है! क्यूँ रूसी तो,मन्न तो बेरो कोनी क्यूँ रूसी तू। बता न के बात होई,प्लीज! मेरी सयाणी प्यारी सी बावली है न। बता न! ओ गुड़िया की मम्मा! थार के फर्क पड़े है? मन्न मनाया भी कोनी....! क्या हुआ होगा! मैंने क्या कहा ऐसा! कुछ समझ में नहीं आ रहा। वो रूठी है पर क्यों! क्या हृदय की कोमलता पर मैंने कोई आघात किया या मेरे किसी व्यवहार से,बात से कोई चोट पड़ी दिल को। फ्लैशबैक में जाकर सोचता हूँ तो कुछ याद नहीं आ रहा। पत्नी कहाँ बेवजह रूठी होगी,कुछ तो है जिसका मुझे आभास ही नहीं, पर मूर्खों को कहाँ कुछ याद रहता है वो तो बकते रहते है बस। कोई बीज वाक्य कहाँ उनके पास होते है। ऐ गुड़िया की मम्मा! मान जा न। मेरी प्यारी पत्नी है न, सॉरी! बस! रहने दो। आपको पता नहीं तो सॉरी क्यों बोल रहे है। तू सच में नाराज है। हाँ! उसने प्यार का संदेश भेजा गुड़िया के पापा को। ओ! मतलब तुम मुझसे प्यार नहीं करती गुड़िया के पापा को प्यार करती हो। हाँ! गुड़िया के पापा को करती हूँ प्यार! आपसे नहीं। चोखो जणा रह तू रूसेड़ी! मैं कर ही स्यूँ प्यार! मैं कोनी रूस्यों तू रूसी है। वो खुश हो गई। चूमने वाला ईमोजी भेजी। हूँ! अब मन्न बेरो पड़गो तू रूसेड़ी कोनी,बस! मजा ले है मेरा! ना! सच में रूठी हूँ। ठीक है जणा मैं सर(उसके जीजाजी) ने फोन कर कह दे स्यूँ ' म्हाली बावली तो रूसगी' कुण मन्ना कर्यो थान्न। अभी करो! ना! न कर सकूँ जणा तू बोल्ल कह दो। कह दो कोई कोनी मन्ना करें। (मैंने मुँह फुलाया झूठमूठ। पर उसको नहीं पता) दीदी कन्न मेरा फोन नं. है। ना! मेरे पास तो है। मैं दीदी को फोन कर कह देस्यूँ, छोटी दीदी के मोबाइल नम्बर है पास। मैं कह दूँगा। फिर ले दीदी चिड़ायेगी रोज तुमको। हूँ! कह दो।(उसको पता है मेरे पास नम्बर नहीं है।) ओ रूसेड़ी बीनणी! मान भी जा। वरना मैं कहानी लिख दूँगा। 'रूसेणी बीनणी' छपवा भी दूँगा। लिख दो! छपा दो! मैं सेमिनार में शोधपत्र पढ़ते समय बोल दूँगा मेरी बावली रूसरी है। हूँ! कह दियों। मन्न कोई कोनी जाण्ण। ऊई! ये तो है। गुड़िया की मम्मा मान जा न। अब थे जाओं। सेमिनार अच्छे से अटेंड करना। मूड ऑफ मत करो। मैं ठीक हूँ। ओ रूसेड़ी बीनणी। रूसरी भी है और बोल्ल भी है। कितनी प्यारी हो रूप तुम। मेरी रूप मुझे बहुत प्रिय है। बस! बस! मसको मत लगाओं। ठीक है। गुड़िया के पापा मैं अब काम करूँगी। सेमिनार की अच्छे से तैयारी कर लो। नाश्ता तो कर लिया न। मैं सोचने लग गया। पत्नी का संसार पति के संसार से बिल्कुल विपरीत होता है। पत्नी रूठी हो फिर भी अपने पति, बच्चें, सास-ससुर घर भर की जिम्मेदारी निभाती है भले हीं आँखों की कोर में आँसुओं का सागर लहराता हो, उसका आँचल हमेशा से प्रेम से भीगा रहता है। पुरूष कितना निष्ठुर और कर्कश होता दो मीठे बोल भी नहीं बोल सकता। सुधरना पड़ेगा मुझे तो! पर सुधारूँ क्या समझ नहीं आ रहा। उदासी तो नहीं पर मन में अजनबीपन स्वयं के प्रति अवश्य उभर आया। उदास मेरी बावली होने नहीं देती।भले। उदासी झलकने से पहले ही प्रेम का लेप लगा देती है और मुझे पता भी नहीं चलता उनकी मन की दशा का। औढ़ लेती है प्रेम की चादर और छुपा लेती है वो मर्म जिनसे पुरूष का व्यक्तित्व तिरोहित हो जाता है किन्तु स्त्री देवी की पदवी तक पहुँच जाती है। मन में कितना कुछ चल पड़ा। पत्नी रूठी है फिर भी चिंता है उसे अपने जीवन को छोड़ सबकी। मैं उसे जब-जब बावली कहता हूँ वो खुशी से झूम उठती है। परिन्दें की भाँति आकाश में उड़ना चाहती है। मैं कहता हूँ तुम बहुत मीठी हो तो बोलती है मैं तो तीखी हूँ सब यही समझते है। मैं कहता हूँ मीठा मीठे का स्वाद कैसे जाने। तो बोलती है, थे ही हो मीठा मैं तो तीखी हूँ। तुम बहुत प्यारी हूँ रूप! जिन्होंने तुमको कुछ न समझा,मैंने उसको कुछ न समझा। वो खुश हो जाती है वो चाहती मेरा एकनिष्ठ अनन्य समर्पित प्रेम। वो जानती है सीधी-साधी प्रेम की भाषा,निश्छलता बच्चों सी, चहती है चिड़िया-सी सारे दिन। मेरे घर संसार जीवन को महकाया करती है। जब वो रूसेड़ी बीनणी होती है तब पता नहीं लगने देती वो रूसी हुई है वो जिस दिन ज्यादा प्रेम प्रकट करती तब पता लगता है वो रूसी हुई है। संसार भर के पुरूष स्त्री को अपने-अपने नजरियें से देखते है और उसी के अनुकूल उसे ढालते है, स्त्री के नजरियें से पुरूष का ढलना ही पुरूषार्थ का सबसे बड़ा धर्म है। *******

  • पर्यावरण प्रदूषण एक चिंतनीय विषय

    "अरे सुरभि क्या हुआ कल से तुम मुंह फुला कर क्यों बैठी हो, कुछ तो बताओ। देखो, इतने सुंदर चेहरे पर उदासी बिल्कुल नहीं फबती, तुम तो हंसती खिलखिलाती हुई ही अच्छी लगती हो। सुबह से शाम तक तुम्हारी बक-बक सुनकर ही दिल को चैन आता है या यूं कहो कि तुम्हारी आवाज जिस दिन ना सुनूं, उस दिन मेरा दिन ही अच्छा नहीं जाता", सोमेश ने सुरभि को प्रेमपूर्वक छेड़ते हुए कहा। सोमेश की इस बात के जवाब में सुरभि मुंह बनाने लगी। "जाओ सोमेश,ज्यादा बातें न बनाओ, मुझे तुमसे कोई बात नहीं करनी, एक तो इतना बड़ा कॉन्ट्रैक्ट तुमने यूं ही हाथों से जाने दिया, इतना बड़ा नुकसान हुआ है हमें, क्या तुम्हें इस बात का अंदाजा नहीं। वैसे तो दुनिया भर में एक सफल व्यापारी होने का तमगा लिए फिरते हो, पर इतना सुनहरा अवसर तुमने जानबूझकर गंवा दिया। जाओ मुझे तुमसे कोई बात ही नहीं करनी, कहते हुए सुरभि ने सोमेश का हाथ दूसरी तरफ झटक दिया। सोमेश ने सुरभि को प्यार से समझाया, "देखो सुरभि, तुम्हारी बात बिलकुल ठीक है। मैं मानता हूं कि यह कॉन्ट्रैक्ट ना लेने से हमारा बहुत बड़ा नुकसान हुआ है, परंतु क्या यह सच नहीं है कि हमारे इस नुकसान के सामने पर्यावरण को होने वाला नुकसान बहुत बड़ा होता जिसकी भरपाई हमारे साथ-साथ हमारी आगे आने वाली पीढ़ियों तक को भी करनी पड़ती। यदि मैं यह कॉन्ट्रैक्ट ले लेता तो एक बार फिर न जाने ना कितने ही पेड़ कटते और खेती योग्य भूमि को उद्योग में तब्दील करने के लिए एक बार फिर धरती माता का शोषण होता, एक बार फिर प्रकृति चीत्कार उठती। पर्यावरण और प्रकृति का वह करूणा भरा रूदन स्वर मैं नहीं सुन पाता और मेरे मन में सदा-सदा के लिए एक टीस और पश्चाताप रह जाता कि मैं अपने पर्यावरण को प्रदूषित होने से नहीं बचा पाया, अपितु मैंने तो जानबूझकर प्रकृति को प्रदूषित करने में अपना योगदान दिया है।" प्रकृति के प्रति सोमेश का अगाध प्रेम और चिंता देखकर सुरभि की आंखों में आंसू आ गए। अब उसे अपने पति पर अति गर्व महसूस हो रहा था। सोमेश की पीठ थपथपाते हुए सुरभि ने जो कहा वह नितांत सराहनीय है। सुरभि के शब्द थे, "उमेश, आज मुझे तुम पर बहुत ज्यादा गर्व महसूस हो रहा है। आज के आधुनिक युग में जहां पैसा कमाने की दौड़ में हर इंसान अंधा हो चला है और अपने इस अंधेपन में उसे यह भी नजर नहीं आता कि तरक्की और प्रगति हासिल करने की होड़ में वह अपने ही पर्यावरण को दूषित कर रहा है, अपनी ही प्रकृति की सुंदरता को खराब कर रहा है, वहां तुम हर संभव प्रयास कर रहे हो कि पर्यावरण और प्रकृति संरक्षित रहे इसे थोड़ा सा भी नुकसान ना पहुंचे।" "आज के समय में जहां लोग इंसानों तक के बारे में नहीं सोचते, वहां तुमने प्रकृति के बारे में सोचा और इतना अच्छा सोचा, यह देख कर आज मैं फूली नहीं समा रही हूं। अब मैं तुमसे बिल्कुल नाराज नहीं हूं, अपितु मैं स्वयं भी प्रण लेती हूं कि आज के बाद मैं प्रकृति के संरक्षण और पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने के लिए हर संभव प्रयास करूंगी। मैं न तो स्वयं ऐसा कोई कार्य करूंगी जिससे प्रदूषण फैले और न ही किसी अन्य को ही ऐसा कोई कार्य करने दूंगी।" ******

  • उपन्यास सम्राट प्रेमचंद

    धनपत राय श्रीवास्तव, जो प्रेमचंद नाम से जाने जाते हैं, का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में हुआ था। वो हिन्दी और उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार, कहानीकार एवं विचारक थे। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। प्रेमचंद के जीवन का साहित्य से क्या संबंध है इस बात की पुष्टि रामविलास शर्मा के इस कथन से होती है कि- "सौतेली माँ का व्यवहार, बचपन में शादी, पण्डे-पुरोहित का कर्मकाण्ड, किसानों और क्लर्कों का दुखी जीवन-यह सब प्रेमचंद ने सोलह साल की उम्र में ही देख लिया था। इसीलिए उनके ये अनुभव एक जबर्दस्त सचाई लिए हुए उनके कथा-साहित्य में झलक उठे थे।" उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। 13 वर्ष की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों से परिचय प्राप्‍त कर लिया। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया। उनका पहला विवाह पंद्रह साल की उम्र में हुआ। १९०६ में उनका दूसरा विवाह शिवरानी देवी से हुआ जो बाल-विधवा थीं। वे सुशिक्षित महिला थीं जिन्होंने कुछ कहानियाँ और प्रेमचंद घर में शीर्षक पुस्तक भी लिखी। उनकी तीन संताने हुईं-श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव। १८९८ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी। १९१० में उन्होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास विषयसहित इंटर पास किया। १९१९ में बी.ए.[2] पास करने के बाद वे शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। १९२१ ई. में असहयोग आंदोलन के दौरान महात्मा गाँधी के सरकारी नौकरी छोड़ने के आह्वान पर स्कूल इंस्पेक्टर पद से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद उन्होंने लेखन को अपना व्यवसाय बना लिया। मर्यादा, माधुरी आदि पत्रिकाओं में वे संपादक पद पर कार्यरत रहे। इसी दौरान उन्होंने प्रवासीलाल केसाथ मिलकर सरस्वती प्रेस भी खरीदा तथा हंस और जागरण निकाला। प्रेस उनके लिए व्यावसायिक रूप से लाभप्रद सिद्ध नहीं हुआ। १९३३ ई. में अपने ऋण को पटाने के लिए उन्होंने मोहनलाल भवनानी के सिनेटोन कंपनी में कहानी लेखक के रूप में काम करने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। फिल्म नगरी प्रेमचंद को रास नहीं आई। वे एक वर्ष का अनुबंध भी पूरा नहीं कर सके और दो महीने का वेतन छोड़कर बनारस लौट आए। उनका स्वास्थ्य निरंतर बिगड़ता गया। लम्बी बीमारी के बाद ८ अक्टूबर १९३६ को उनका निधन हो गया। साहित्यिकजीवन प्रेमचंद के साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था | आरंभ में वे नवाब राय के नाम से उर्दू में लिखते थे। प्रेमचंद के लेख पहली रचना के अनुसार उनकी पहली रचना अपने मामा पर लिखा व्यंग्य थी, जो अब अनुपलब्ध है। शायद उनका वह नाटक था जो उन्होंने अपने मामा जी के प्रेम और उस प्रेम के फलस्वरूप चमारों द्वारा उनकी पिटाई पर लिखा था। इसका जिक्र उन्होंने ‘पहली रचना’नाम के अपने लेख में किया है।" उनका पहला उपलब्‍ध लेखन उर्दू उपन्यास 'असरारे मआबिद' है जो धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। इसका हिंदी रूपांतरण देवस्थान रहस्य नाम से हुआ। प्रेमचंद का दूसरा उपन्यास 'हमखुर्मा व हमसवाब' है जिसका हिंदी रूपांतरण 'प्रेमा' नाम से १९०७ में प्रकाशित हुआ। १९०८ ई. में उनका पहला कहानी संग्रह सोज़े-वतन प्रकाशित हुआ। देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत इस संग्रह को अंग्रेज़ सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया और इसकी सभी प्रतियाँ जब्त कर लीं और इसके लेखक नवाब राय को भविष्य में लेखन न करने की चेतावनी दी। इसके कारण उन्हें नाम बदलकर लिखना पड़ा। 'प्रेमचंद' नाम से उनकी पहली कहानी बड़े घर की बेटी ज़माना पत्रिका के दिसम्बर १९१० के अंक में प्रकाशित हुई। १९१५ ई. में उस समय की प्रसिद्ध हिंदी मासिक पत्रिका सरस्वती के दिसम्बर अंक में पहली बार उनकी कहानी सौत नाम से प्रकाशित हुई। १९१८ ई. में उनका पहला हिंदी उपन्यास सेवासदन प्रकाशित हुआ। इसकी अत्यधिक लोकप्रियता ने प्रेमचंद को उर्दू से हिंदी का कथाकार बना दिया। हालाँकि उनकी लगभग सभी रचनाएँ हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित होती रहीं। उन्होंने लगभग ३०० कहानियाँ तथा डेढ़ दर्जन उपन्यास लिखे। १९२१ में असहयोग आंदोलन के दौरान सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देने के बाद वे पूरी तरह साहित्य सृजन में लग गए। उन्होंने कुछ महीने मर्यादा नामक पत्रिका का संपादन किया। इसके बाद उन्होंने लगभग छह वर्षों तक हिंदी पत्रिका माधुरी का संपादन किया। उन्होंने १९३० में बनारस से अपना मासिक पत्र हंस का प्रकाशन शुरू किया। १९३२ ई. में उन्होंने हिंदी साप्ताहिक पत्र जागरण का प्रकाशन आरंभ किया। उन्होंने लखनऊ में १९३६ में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन की अध्यक्षता की। उन्होंने मोहन दयाराम भवनानी की अजंता सिनेटोन कंपनी में कथा-लेखक की नौकरी भी की। १९३४ में प्रदर्शित फिल्म मजदूर की कहानी उन्होंने ही लिखी थी। मरणोपरांत उनकी कहानियाँ "मानसरोवर" नाम से ८ खंडों में प्रकाशित हुईं। प्रेमचंद साहित्य की वैचारिक यात्रा आदर्श से यथार्थ की ओर उन्मुख है। सेवासदन के दौर में वे यथार्थवादी समस्याओं को चित्रित तो कर रहे थे लेकिन उसका एक आदर्श समाधान भी निकाल रहे थे। १९३६ तक आते-आते महाजनी सभ्यता, गोदान और कफ़न जैसी रचनाएँ अधिक यथार्थपरक हो गईं, किंतु उसमें समाधान नहीं सुझाया गया। अपनी विचारधारा को प्रेमचंद ने आदर्शोन्मुख यथार्थवादी कहा है। इसके साथ ही प्रेमचंद स्वाधीनता संग्राम के सबसे बड़े कथाकार हैं। इस अर्थ में उन्हें राष्ट्रवादी भी कहा जा सकता है। प्रेमचंद मानवतावादी भी थे और मार्क्सवादी भी। प्रगतिवादी विचारधारा उन्हें प्रेमाश्रम के दौर से ही आकर्षित कर रही थी। प्रेमचंद ने १९३६ में उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन को सभापति के रूप में संबोधन किया था। उनका यही भाषण प्रगतिशील आंदोलन के घोषणा पत्र का आधार बना। इस अर्थ में प्रेमचंद निश्चित रूप से हिंदी के पहले प्रगतिशील लेखक कहे जा सकते हैं। रचनाएँ बहुमुखी प्रतिभासंपन्न प्रेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की। उनकी ख्याति कथाकार के तौर पर हुई और अपने जीवन काल में ही वे ‘उपन्यास सम्राट’की उपाधि से सम्मानित हुए। उपन्यास · असरारेमआबिद- उर्दू साप्ताहिक आवाज-ए-खल्क़ में 8 अक्टूबर 1903 से 1 फरवरी 1905 तक धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। कालान्तर में यह हिन्दी में देवस्थान रहस्य नाम से प्रकाशित हुआ। · हमखुर्माव हमसवाब- इसका प्रकाशन 1907 ई. में हुआ। बाद में इसका हिन्दी रूपान्तरण 'प्रेमा' नाम से प्रकाशित हुआ। · किशना- इसके सन्दर्भ में अमृतराय लिखते हैं कि- "उसकी समालोचना अक्तूबर-नवम्बर 1907 के 'ज़माना' में निकली।" इसी आधार पर 'किशना' का प्रकाशन वर्ष 1907 ही कल्पित किया गया। · रूठीरानी- इसे सन् 1907 में अप्रैल से अगस्त महीने तक ज़माना में प्रकाशित किया गया। · जलवएईसार- यह सन् 1912 में प्रकाशित हुआ था। · सेवासदन- 1918 ई. में प्रकाशित सेवासदन प्रेमचंद का हिन्दी में प्रकाशित होने वाला पहला उपन्यास था। यह मूल रूप से उन्‍होंने 'बाजारे-हुस्‍न' नाम से पहले उर्दू में लिखा गया लेकिन इसका हिन्दी रूप 'सेवासदन' पहले प्रकाशित हुआ। यह स्त्री समस्या पर केन्द्रित उपन्यास है जिसमें दहेज-प्रथा, अनमेल विवाह, वेश्यावृत्ति, स्त्री-पराधीनता आदि समस्याओं के कारण और प्रभाव शामिल हैं। डॉ रामविलास शर्मा 'सेवासदन' की मुख्‍य समस्‍या भारतीय नारी की पराधीनता को मानते हैं। · प्रेमाश्रम (1922)- यहकिसान जीवन पर उनका पहला उपन्‍यास है। इसका मसौदा भी पहले उर्दू में 'गोशाए-आफियत' नाम से तैयार हुआ था लेकिन इसे पहले हिंदी में प्रकाशित कराया। यह अवध के किसान आन्दोलनों के दौर में लिखा गया। इसके सन्दर्भ में वीर भारत तलवार किसान राष्ट्रीय आन्दोलन और प्रेमचन्द:1918-22 पुस्तक में लिखते हैं कि- "1922 में प्रकाशित 'प्रेमाश्रम' हिंदी में किसानों के सवाल पर लिखा गया पहला उपन्यास है। इसमें सामंती व्यवस्था के साथ किसानों के अन्तर्विरोधों को केंद्र में रखकर उसकी परिधि के अन्दर पड़नेवाले हर सामाजिक तबके का-ज़मींदार, ताल्लुकेदार, उनके नौकर, पुलिस, सरकारी मुलाजिम, शहरी मध्यवर्ग-और उनकी सामाजिक भूमिका का सजीव चित्रण किया गया है।"[14] · रंगभूमि (1925)- इसमेंप्रेमचंदएक अंधे भिखारी सूरदास को कथा का नायक बनाकर हिंदी कथा साहित्‍य में क्रांतिकारी बदलाव का सूत्रपात करते हैं। · निर्मला (1925)- यहअनमेल विवाह की समस्याओं को रेखांकित करने वाला उपन्यास है। · कायाकल्प (1926) · अहंकार - इसका प्रकाशन कायाकल्प के साथ ही सन् 1926 ई. में हुआ था। अमृतराय के अनुसार यह "अनातोल फ्रांस के 'थायस' का भारतीय परिवेश में रूपांतर है।"[15] · प्रतिज्ञा (1927)- यहविधवा जीवन तथा उसकी समस्याओं को रेखांकित करने वाला उपन्यास है। · गबन (1928)- उपन्यासकी कथा रमानाथ तथा उसकी पत्नी जालपा के दाम्पत्य जीवन, रमानाथ द्वारा सरकारी दफ्तर में गबन, जालपा का उभरता व्यक्तित्व इत्यादि घटनाओं के इर्द-गिर्द घूमती है। · कर्मभूमि (1932)-यहअछूत समस्या, उनका मन्दिर में प्रवेश तथा लगान इत्यादि की समस्या को उजागर करने वाला उपन्यास है। · गोदान (1936)- यहउनका अन्तिम पूर्ण उपन्यास है जो किसान-जीवन पर लिखी अद्वितीय रचना है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद 'द गिफ्ट ऑफ़ काओ' नाम से प्रकाशित हुआ। · मंगलसूत्र (अपूर्ण)- यह प्रेमचंद का अधूरा उपन्‍यास है जिसे उनके पुत्र अमृतराय ने पूरा किया। इसके प्रकाशन के संदर्भ में अमृतराय प्रेमचंद की जीवनी में लिखते हैं कि इसका-"प्रकाशन लेखक के देहान्त के अनेक वर्ष बाद 1948 में हुआ।" कहानी इनकी अधिकतर कहानियोँ में निम्न व मध्यम वर्ग का चित्रण है। डॉ॰ कमलकिशोर गोयनका ने प्रेमचंद की संपूर्ण हिंदी-उर्दू कहानी को प्रेमचंद कहानी रचनावली नाम से प्रकाशित कराया है। उनके अनुसार प्रेमचंद ने अपने जीवन में लगभग 300 से अधिक कहानियाँ तथा 18 से अधिक उपन्यास लिखे है| इनकी इन्हीं क्षमताओं के कारण इन्हें कलम का जादूगर कहा जाता है| प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह सोज़े वतन (राष्ट्र का विलाप) नाम से जून 1908 में प्रकाशित हुआ। इसी संग्रह की पहली कहानी दुनिया का सबसे अनमोल रतन को आम तौर पर उनकी पहली प्रकाशित कहानी माना जाता रहा है। डॉ॰ गोयनका के अनुसार कानपुर से निकलने वाली उर्दू मासिक पत्रिका ज़माना के अप्रैल अंक में प्रकाशित सांसारिक प्रेम और देश-प्रेम (इश्के दुनिया और हुब्बे वतन) वास्तव में उनकी पहली प्रकाशित कहानी है। कुछ कहानियों का शीर्षक इस प्रकार है - अन्धेर, अनाथ लड़की, अपनी करनी, अमृत, अलग्योझा, आखिरी तोहफ़ा, आखिरी मंजिल, आत्म-संगीत, आत्माराम, दो बैलों की कथा, आल्हा, इज्जत का खून, इस्तीफा, ईदगाह, ईश्वरीय न्याय, उद्धार, एक आँच की कसर, एक्ट्रेस, कप्तान साहब, कर्मों का फल, क्रिकेट मैच, कवच, कातिल, कोई दुख न हो तो बकरी खरीद ला, कौशल़, खुदी, गैरत की कटार, गुल्‍ली डण्डा, घमण्ड का पुतला, ज्‍योति, जेल, जुलूस, झाँकी, ठाकुर का कुआँ, तेंतर, त्रिया-चरित्र, तांगेवाले की बड़, तिरसूल, दण्ड, दुर्गा का मन्दिर, देवी, देवी - एक और कहानी, दूसरी शादी, दिल की रानी, दो सखियाँ, धिक्कार, धिक्कार - एक और कहानी, नेउर, नेकी, नबी का नीति-निर्वाह, नरक का मार्ग, नैराश्य इत्यादि। ***********

  • गुरू की सीख

    गुरु रामदास विद्यालय में हिंदी शिक्षक के रूप में कार्य करते थे। गुरु रामदास बड़े दिनों बाद आज शाम को घर लौटते वक़्त अपने दोस्त गोपाल जी से मिलने उसकी दुकान पर गए। गोपाल जी शहर में कपड़े का व्यापार करते थे। इतने दिनों बाद मिल रहे दोस्तों का उत्साह देखने लायक था। दोनों ने एक दुसरे को गले लगाया और दुकान पर ही बैठ कर गप्पें मारने लगे। चाय पीने के कुछ देर बाद गुरु जी बोले, “भाई एक बात बता, पहले मैं जब भी आता था तो तेरी दुकान में खरीदारों की भीड़ लगी रहती थी और हम बड़ी मुश्किल से बात कर पाते थे। लेकिन आज स्थिति बदली हुई लग रही है, बस इक्का-दुक्का खरीदार ही दुकान में दिख रहे हैं और तेरा स्टाफ भी पहले से काफी कम हो गया है।” दोस्त बड़े ही मजाकिया लहजे में बोला, “अरे कुछ नहीं गुरु जी, हम इस मार्केट के पुराने खिलाड़ी हैं। आज धंधा ढीला है तो कोई बात नहीं। कल फिर जोर पकड़ लेगा और पुरानी रौनक वापस आ जाएगी।” इस पर गुरु जी कुछ गंभीर होते हुए बोले, “देख भाई, व्यापार में चीजों को इतना हलके में मत ले। मैं देख रहा हूँ कि इसी रोड पर कपड़ों की तीन-चार और बड़ी दुकाने खुल गयी हैं, प्रतियोगिता बहुत बढ़ गयी है…और ऊपर से…” गुरु जी अपनी बात पूरी करते उससे पहले ही, दोस्त उनकी बात काटते हुए बोला, “अरे ऐसी दुकानें तो बाजार में आती-जाती रहती हैं, इनसे अपने व्यापार में कुछ फर्क नहीं पड़ता।” गुरु जी विद्यालय के समय से ही, अपने दोस्त के हट को जानते थे और वो भली प्रकार समझ गए कि ऐसे समझाने पर वो उनकी बात नहीं समझेगा। कुछ समय बाद उन्होंने दुकान बंदी के दिन; दोस्त को अपने घर चाय पर बुलाया। दोस्त, निर्धारित समय पर उनके घर पहुँच गया। कुछ देर बातचीत के बाद गुरु जी उसे अपने घर में बनी एक व्यक्तिगत प्रयोगशाला में ले गए और बोले, “देख यार, आज मैं तुझे एक बड़ा ही रोचक प्रयोग दिखता हूँ।” गुरु जी ने कांच के एक बड़े से जार में गरम पानी लिया और उसमे एक जिंदा मेंढक डाल दिया। गरम पानी से सम्पर्क में आते ही मेंढक खतरा भांप गया और कूद कर जार से बाहर भाग गया। इसके बाद गुरु जी ने जार को खाली कर उसमें ठंडा पानी भर दिया, और एक बार फिर मेंढक को उसमे डाल दिया। इस बार मेंढक आराम से ठंडे पानी मे तैरने लगा। तभी गुरु जी ने एक विचित्र कार्य किया, उन्होंने जार में भरे ठंडे पानी को बर्नर की सहायता से धीरे-धीरे गरम करना प्रारंभ कर दिया। कुछ ही देर में पानी का तापमान बढ़ने लगा। मेंढक को ये बात कुछ अजीब लगी पर उसने खुद को इस तापमान के हिसाब से व्यवस्थित कर लिया। इस बीच बर्नर जलता रहा और पानी और भी गरम होता गया। पर हर बार मेढक पानी के तापमान के हिसाब से खुद को व्यवस्थित कर लेता और आराम से पड़ा रहता। लेकिन उसकी भी गर्म पानी सहने की एक क्षमता थी। जब पानी का तापमान काफी अधिक हो गया और खौलने को आया। तब मेंढक को अपनी जान पर मंडराते खतरे का आभास हुआ। और उसने पूरी ताकत से जार के बाहर छलांग लगाने की कोशिश की। पर बार-बार खुद को बदलते तापमान में ढालने में उसकी काफी उर्जा खर्च हो चुकी थी और अब खुद को बचाने के लिए न ही उसके पास शक्ति थी और न ही समय। देखते ही देखते पानी उबलने लगा और मेंढक की जार के भीतर ही मौत हो गयी। प्रयोग देखने के बाद दोस्त बोला- गुरु जी आपने तो मेंढक की जान ही ले ली। परंतु आप ये सब मुझ को क्यों दिखा रहे हैं? गुरु जी बोले, “मेंढक की जान मैंने नहीं ली। मेंढक ने खुद अपनी जान ली है। अगर वो बिगड़ते हुए माहौल में बार-बार खुद को व्यवस्थित नहीं करता बल्कि उससे बचने का कुछ उपाय ढूंढता तो वो आसानी से अपनी जान बचा सकता था। और ये सब मैं तुझे इसलिए दिखा रहा हूँ क्योंकि कहीं न कहीं तू भी इस मेढक की तरह व्यवहार कर रहा है। तेरा अच्छा-ख़ासा व्यापार है, पर तू बाजार की बदल रही परिस्थितियों के अनुसार कार्य नहीं कर रहा है, और बस ये सोच कर बैठ जाता है कि आगे सब कुछ अपने आप ठीक हो जाएगा। पर याद रख अगर तू आज ही हो रहे बदलाव के अनुसार खुद को नहीं बदलेगा तो हो सकता है इस मेंढक की तरह कल को संभलने के लिए तेरे पास भी न ऊर्जा हो, न सामर्थ्य हो और न ही समय हो।” गुरु जी की सीख ने दोस्त की आँखें खोल दीं, उसने गुरु जी को गले लगा लिया और वादा किया कि एक बार फिर वो परिवर्तन को अपनाएगा और अपने व्यापार को पुनः पूर्व की भांति स्थापित करेगा। सार - अपने सामाजिक व व्यापारिक जीवन में हो रहे बदलावों के प्रति सतर्क रहिये, ताकि बदलाव की बड़ी से बड़ी आंधी भी आपकी जड़ों को हिला न पाएं। ******

  • जीवन की सच्ची पूंजी

    एक बार एक शक्तिशाली राजा दुष्यंत घने वन में शिकार खेल रहा थे। अचानक मौसम बिगड़ गया। आकाश में काले बादल छा गए और मूसलाधार वर्षा होने लगी। धीरे-धीरे सूर्य अस्त हो गया और घना अंधेरा छा गया। अँधेरे में राजा अपने महल का रास्ता भूल गये और सिपाहियों से अलग हो गये। भूख प्यास और थकावट से व्याकुल राजा जंगल के किनारे एक ऊंचे टीले पर बैठ गये। थोड़ी देर बाद उन्होंने वहाँ तीन अबोध बालकों को खेलते देखा। तीनों बालक अच्छे मित्र दिखाई पड़ते थे। वे गाँव की ओर जा रहे थे। सुनो बच्चों, ‘जरा यहाँ आओ।’ राजा ने उन्हें बुलाया। बालको के वहाँ पहुंचने पर राजा ने उनसे पूछा, “क्या कहीं से थोड़ा भोजन और जल मिलेगा? मैं बहुत प्यासा हूँ और भूख भी बहुत लगी है।” बालकों ने उत्तर दिया, “अवश्य, हम घर जा कर अभी कुछ ले आते है।” बालक गाँव की ओर भागे और तुरंत जल और भोजन ले आये। राजा बच्चों के उत्साह और प्रेम को देखकर अत्यधिक प्रसन्न हुए। राजा बोले, “प्यारे बच्चों, मैं इस देश का राजा हूं और तुम लोगों से अत्यंत प्रसन्न हूं। तुम लोग जीवन में क्या करना चाहते हो? मैं तुम सब की सहायता करना चाहता हूँ।” राजा की बात सुनकर बालक आश्चर्यचकित हो गए व सोच में पड़ गए। कुछ देर विचारने के बाद एक बालक बोला, “मुझे धन चाहिए। मैंने कभी दो समय की रोटी भरपेट नहीं खायी है। कभी सुन्दर वस्त्र नहीं पहने है इसलिए मुझे केवल धन चाहिए। इस धन से, मैं अपनी आवश्यकताओं को पूरा करूंगा।” राजा मुस्कुरा कर बोले, “ठीक है, मैं तुम्हें इतना धन दूँगा कि जीवन भर सुखी रहोगे।” राजा के शब्द सुनते ही बालकों की ख़ुशी का ठिकाना न रहा। दूसरे बालक ने बड़े उत्साह से राजा की ओर देखा और पूछा, “क्या आप मुझे एक बड़ा-सा बँगला और घोड़ागाड़ी दे सकते हैं?” राजा ने कहा, “अगर तुम्हें यही चाहिए तो तुम्हारी इच्छा भी पूरी कर दी जाएगी।” तीसरे बालक ने बड़ी गंभीरता के साथ कहा, “मुझे न धन चाहिए न ही बंगला-गाड़ी। मुझे तो आप बस ऐसा आशीर्वाद दीजिए जिससे मैं पढ़-लिखकर विद्वान बन सकूँ और पूर्ण शिक्षित होकर मैं अपने देश की सेवा कर सकूँ।” तीसरे बालक की इच्छा सुनकर राजा अत्यंत प्रभावित हुआ। राजा ने उस बालक के लिए अपने राज्य में ही उत्तम शिक्षा का प्रबंध कर दिया। वह परिश्रमी बालक था, इसलिए दिन-रात एक करके उसने पढाई की और बहुत बड़ा विद्वान बन गया और समय आने पर राजा ने उसकी योग्यता को परख कर अपने राज्य में मंत्री पद पर नियुक्त कर लिया। कुछ समय बीता और एक दिन अचानक राजा को वर्षों पहले घटी उस घटना की याद आई। उन्होंने मंत्री से कहा, “वर्षों पहले तुम्हारे साथ जो दो अन्य बालक थे, अब उनका क्या हाल-चाल है। मैं चाहता हूँ कि एक बार फिर मैं एक साथ तुम तीनो से मिलूं, अतः कल अपने उन दोनों मित्रों को राजमहल में भोजन पर आमंत्रित कर लो।” मंत्री ने दोनों मित्रों को राजमहल में भोजन पर आने का संदेशा भिजवा दिया और अगले दिन सभी एक साथ राजा के सामने उपस्थित हो गए। “आज तुम तीनों मित्रों को एक बार फिर साथ देखकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। अपने मंत्री के बारे में तो मैं जानता हूँ। पर तुम दोनों अपने बारे में कुछ बताओ।” राजा ने मंत्री के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा। जिस बालक ने राजा से धन माँगा था वह दुखी होते हुए बोला, “राजा साहब, मैंने उस दिन आपसे धन मांग कर बहुत बड़ी गलती की। इतना सारा धन पाकर मैं आलसी बन गया और बहुत सारा धन बेकार की चीजों में खर्च कर दिया, मेरा बहुत सा धन चोरी भी हो गया। और कुछ एक वर्षों में ही मैं वापस उसी स्थिति में पहुँच गया जिसमें आपने मुझे देखा था।” बंगला-गाडी मांगने वाला बालक भी अपना रोना रोने लगा, “महाराज, मैं बड़े ठाट से अपने बंगले में रह रहा था, पर वर्षों पहले आई बाढ़ में मेरा सबकुछ बर्वाद हो गया और मैं भी अपने पहले जैसी स्थिति में पहुँच गया। दोनों बालकों की कहानी सुनकर राजा मुस्कुराए और जीवन में फिर कभी ऐसी गलती न करने की सलाह देकर उन्हें विदा किया। सार - धन-संपदा सदा हमारे पास नहीं रहती पर ज्ञान जीवन-भर मनुष्य के साथ रहता है और काम आता है और उसे कोई चुरा भी नहीं सकता। इसलिए सबसे बड़ा धन “विद्या” ही है।” ******

  • अंतिम बार

    "बाबू, ई प्योर शीशम के लकड़ी हौ।चमक नहीं देखत हौ, और हल्का कितना हौ लईकन सब पचासों साल बैठी तबो कुछ ना होई। "सीताराम बढ़ई की कही ये बातें जैसे लगती हैं कल की ही बात हो, लेकिन, इस बात को सुने अवधेश को सालों हो गये। अवधेश ने कमरे को एक बार फिर निहारा। करीने से सजे हुए बेंच और टेबल, जिस पर जगह-जगह धूल जम गई थी। सामने लगी ट्यूबलाइट उसको जैसे मुँह चिढ़ा रही थी। वो अपने अवचेतन में कहीं गहरा धँसता चला गया। आज से दस साल पहले जब उसने ये कोचिंग इंस्टीटयूट शुरू किया था। ये सोचकर कि जो तकलीफ उसे गाँव में उठानी पड़ी है। वो तकलीफ आसपास के लोगों को नहीं उठानी पड़े।वो, शिक्षक ही बनेगा। कितना अच्छा तो पेशा है।समाज में लोग कितना सम्मान देते हैं। सब लोग प्रणाम सर..... प्रणाम सर कहते नहीं थकते, और, उसे शुरू से किताबों से कितना लगाव रहा है।खुद भी पढ़ो और दूसरे लोगों को भी शिक्षित करो, लेकिन, इधर कोरोना के कारण पिछले एक-सवा साल से कोचिंग बंद थी। सरकार सब कुछ खोलने की अनुमति देती है, लेकिन कोचिंग इंस्टीटयूट पर जैसे उसे पाला मार जाता है। जिम, रेडिमेड, शापिंग माल, बस, ट्रेन, हवाई जहाज सब खुल गये हैं, लेकिन, सरकार को पढाई से ही चिढ़ है।कोचिंग वाले टैक्स नहीं देते ना! इसलिए भी सरकार इन लोगों को कोचिंग इंस्टीटयूट खोलने की अनुमति नहीं देती। अगर वो भी कोई जिम या शापिंग माल चलाता तो क्या सरकार उसको रोक लेती? नहीं, बिल्कुल नहीं! वो बहुत कोशिश करता रहा कि वो अपना कोचिंग इंस्टीटयूट बंद ना करे, लेकिन, घर में छोट-छोटे बच्चे हैं।उनके खाने पीने के लाले पड़ गये हैं। पिताजी को डॉक्टर को दिखाना है। दिसंबर आधा गुजर गया है।माँ का स्वेटर भी लेना है। ठंढ़ से काँपती रहती है। आखिर बूढ़ी काया में ताकत ही कितनी होती है। स्वेटर जगह-जगह से फट गया है, और स्वेटर के कुछ हिस्से तो छीजकर आर-पार भी दिखने लगे हैं।कई दिनों से माँ कह रही है। घर के अंदर तो पहन सकती हूँ, लेकिन, बाहर निकलते मुझे शर्म आती है। आखिर, लोग क्या कहेंगे।एक शिक्षक की माँ फटा हुआ स्वेटर पहने हुए है। रमा ने भी कई बार शॉल के लिए तगादा कर दिया है।कहती है आँगनबाड़ी जाते हुए ठंढ़ लगती है। अब रमा को शॉल भी एक दो दिन में खरीदकर देता हूँ। आखिर रमा की आँगनबाड़ी वाली नौकरी ना होती तो आज वे लोग कहीं भीख माँग रहे होते। उसको मिलने वाले छह हजार रूपये से ही तो घर अब तक चल रहा है।नहीं तो इस आपदा काल में कौन किसकी मदद करता है? सबसे जरूरी काम है पिताजी को डॉक्टर को दिखाना। उनकी खाँसी रुकती ही नहीं। आखिर, कितने दिनों तक मेडिकल से लेकर सिरप पिलाई जाये। सारी कंपनियों के सिरप एक-एक करके देख लिए। जितने रूपये सिरप और गोलियों पर खर्च किये।उतने में तो किसी अच्छे डॉक्टर को दिखला देते, लेकिन, डॉक्टर भी पाँच सौ से कम में नहीं मानेगा।कोरोना के समय में एक तो डॉक्टर सामने से देखते नहीं। आनलाइन दिखलाना है तो दिखलाओ नहीं तो जै राम जी की। उसने बेंच को छुआ तो धूल के साथ-साथ जैसे उसके हाथ में अतीत के खुरचन भी आ गये। टीचर्स डे और वसंत पंचमी पर कितना सजाते थे छात्र इस इंस्टीटयूट को। कैसा लकदक करता था यही इंस्टीटयूट छात्र-छात्राओं के हँसी ठहाकों से। अवधेश को कमरे की एक-एक चीज से प्रेम था। उसने इंटीरियर डिजाइनर से अपने इंस्टीटयूट को सजवाया था। गुलाबी पेंट, बढ़ियाँ कार्पेट, अच्छी कुर्सी और मेज।शानदार ब्लैकबोर्ड, टेबल के ऊपर सजे भाँति-भाँति के पेन।कैसे वो सफेद कमीज और काली पैंट पहन कर नियम से सुबह छह बजे ही नाश्ता-पानी करके चल देता था।फिर, देर रात गये ही घर लौटता।उसने नीचे ऊपर सब मिलाकर तीन-चार कमरे ले रखे थे। दो तीन और लड़को को भी रख लिया था। पहले काम के घंटे बढ़ते गये।उसके अंदर एक जूनून सा छाने लगा। फिर, छात्रों की बढ़ती संख्या को देखकर उसने रूम बढ़ा दिये। फिर, टीचर भी बढ़ाने पड़े।मिला जुलाकर साठ-सत्तर हजार रूपये महीने में वो कमा ही लेता था। फिर, धीरे-धीरे नई तकनीक आने से उसने कुछ कम्प्यूटर भी खरीद लिये और भी कई कमरे किराये पर ले लिये थे। और स्टाफ़ बढाया। खूब मेहनत करने लगा। वो अपने साथ-साथ और लोगों को भी रोजगार दे सकता है। ये सोचकर ही उसका सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था, और हमेशा उसे इस बात की खुशी रही।सब लोग हँसी खुशी से जी रहे थें। तभी कोरोना ने दस्तक दी और सबकुछ जहाँ का तहाँ जमकर रह गया।रोज सड़कों पर दौड़ने वाली उसकी स्कुटी घर में एक किनारे खड़ी हो गई। कभी-कभार कोई सामान लाने जाना होता तो, स्कुटी के भाग खुलते और वो रोड़ पर दौड़ती।नियमित आनेवाले टीचर्स अब दिखने बंद हो गये। पहले उसने औने-पौने दाम में कम्प्यूटर बेचे।शुरूआती दौर में तो तीन-चार महीने का लंबा लॉकडाउन लगा। अचानक से आने वाले पैसे आने बंद हो गये।खर्च ज्यों-का-त्यों।बहुत बचत करने की आदत शुरू से नहीं रही। पैसा आता था तो पता नहीं चलता था।कितना भी खर्च कर लो।कोई फर्क नहीं पड़ता था, लेकिन, अचानक से पैसे आने बंद होने से दिमाग जैसे सुन्न पड़ने लगा। जरुरी चीजों को तो नहीं टाला जा सकता था, लेकिन, गैर जरूरी चीजों पर सख्त पाबंदी लगा दी गई।चाऊमिन, पिज़्ज़ा मोमोज़ सब बंद। फिर, इंस्टीटयूट के मकान मालिक का तगादा बढ़ने लगा। नीचे के अतिरिक्त लिए गये कमरे को गैर जरूरी समझकर छोड़ दिया गया।ये सोचकर कि पता नहीं कितना लंबा लॉकडाउन चलेगा, और हर महीने का किराया भी चढ़ता जायेगा। सारे-के-सारे कम्प्यूटर पहले ही बिक चुके थें। कमरे वैसे भी खाली ही थे।सारे फर्नीचर को दो कमरों में समेटा गया, और कमरों की चाभी साल भर पहले ही मकान मालिक को सौंप दी गई। ये सोचकर कि आज नहीं तो कल जब सब कुछ ठीक-ठाक हो जायेगा तो फिर, से कमरे को किराये पर ले लिया जायेगा। लेकिन, जब दूसरी लहर आयी और फिर, डेढ़ दो महीने का लॉकडाउन लगा, तो रमा जैसे बिफरती हुई बोली- "क्या, कोचिंग इंस्टीटयूट के अलावा दूसरा कोई काम नहीं है? पेपर बेचो, सब्जी बेचो, फल बेचो कुछ भी करो। लेकिन, अब घर की हालत मुझसे देखी नहीं जाती, और मेरी आँगनबाड़ी की कमाई से कुछ होने जाने वाला नहीं है। वो ऊँट के मुँह में जीरा का फोरन जैसा साबित हो रहा है। तुम जल्दी कुछ करो। नहीं तो मैं बच्चों को लेकर अपने मायके चली जाऊँगी।" और यही सोचकर अवधेश ने ये फैसला किया था, कि अब और इंतजार करना मूर्खता के सिवाय कुछ नहीं है। हो सकता है सालों कोरोना खत्म ना हो।तब तो सालों उसका इंस्टीटयूट बंद रहेगा। रमा ठीक कहती है। मुझे अपना इंस्टीटयूट बंद करके कोई और काम करना चाहिए।नहीं तो घर कैसे चलेगा? और यही सोचकर उसने एक जरूरत मंद संस्था को बहुत कम कीमत पर अपना फर्नीचर बेचने का फैसला किया था। "भैया, आटो वाला आ गया है, सामान लेने।" रघुवीर ने टोका तो अवधेश अतीत के नर्म बिस्तर से हकीकत की ठोस जमीन पर गिरा। " हुँ... हाँ... कौन रघुवीर अच्छा आटो वाला आ गया। चलो अच्छा है।" अवधेश के भीतर कुछ पिघला, कार्पेट, दीवार, टेबल या छत या कि दस साल का सुहाना सफर और उसकी आँखे भींगनें लगी। उसने आखिरी बार कमरे को गौर से निहारा। लगा जैसे सब कुछ छूटा जा रहा है, और वो किसी भी कीमत पर उसे नहीं छोड़ना चाहता। रघुवीर ने पूछा- "क्या हुआ भईया..?" लेकिन, अवधेश, रघुवीर की बातों का कोई जबाब नही दे सका। बस भर्राये गले से बोला- "कुछ नहीं रघुवीर.. l" शाम का धुँधलका गहराने लगा था। उसे लगा कमरे को पलटकर अंतिम बार देख ले। लेकिन, उसकी हिम्मत नहीं पड़ी।धीरे-धीरे नीम अंधेरे में वो सीढ़ियों से नीचे उतर गया। ************

  • खाली कागज का कमाल

    तुषार भूख से व्याकुल था। सुबह से चाय तक पीने को नहीं मिली थी। इस अनजान जगह में अपहरण करके लाए हुए चार दिन हो चुके थे किंतु वह अभी तक अपने उस अपहरणकर्ता को ढंग से पहचान भी नहीं पाया है। पहचाने भी कैसे, उसका लगभग आधा चेहरा तो बड़े फ्रेम के काले चश्मे में छिपा रहता है। मम्मी-पापा, पप्पू-सोनू, दादी माँ चार दिन से कितने परेशान होंगे। किसी से खाना भी नहीं खाया गया होगा। पापा ने शायद अखबार में फोटो निकलवाया होगा। थाने में भी रिपोर्ट लिखाई होगी। सोचते-सोचते वह फिर रोने लगा। वह भी कितना पागल था, जो बातों में आ गया। इस तरह अपहरण करके ले जाने के कितने क़िस्से-कहानियाँ वह पढ़ता-सुनता रहा है फिर भी अपना अपहरण करा बैठा। हैड मास्टर साहब ने बुलाकर कहा था, "तुषार तुम्हारे घर से किसी का फोन आया है कि आज ड्राइवर कार लेकर तुम्हें लेने नहीं आ सकेगा वे फैक्ट्री के रमेश नाम के नौकर को भेज रहे हैं, वह काला चश्मा लगाता है, तुमको पहचानता भी है, उसके साथ टैक्सी करके आ जाना।' छुट्टी के समय स्कूल के गेट पर पहुँचते ही काला चश्मा लगाए हुए एक आदमी आगे आया "चलिए छोटे साहब।' "तुमने मुझे कैसे पहचान लिया,...मैंने तो तुम्हें पहले कभी नहीं देखा।' "पहले मैं चश्मा नहीं लगाता था। कुछ दिन पहले आँख का ऑपरेशन करवाया है, तभी से लगाने लगा हूँ. इसीलिए आप नहीं पहचान पा रहे हैं।' "चलो जल्दी से टैक्सी पकड़ो। बहुत ठंडी हवा है, सर्दी लग रही है।' पास में खड़ी एक टैक्सी में वे बैठ गए थे जिसे एक सरदार जी चला रहे थे। तभी उसने चौंक कर कहा - "रमेश टैक्सी गलत रास्ते पर जा रही है।' "खैर चाहते हो तो चुपचाप बैठो, खबरदार जो शोर मचाया।' टैक्सी के चारों तरफ के शीशे बंद थे। चिल्लाने पर भी आवाज बाहर नहीं जा सकती थी। इसीलिए वह सहम कर चुप हो गया। न जाने कितनी सड़कें, चौराहे, गलियाँ, मोड़ पार करने के बाद एक सुनसान जगह कुछ खँडहरों के बीच टैक्सी उन्हें उतार कर चली गई। एक-दो घंटे बाद रात घिर आई थी। चारों तरफ गहरा अंधेरा था। एक-दूसरे को ठीक से देख पाना भी मुश्किल था। तब उसे बहुत पैदल चलना पड़ा, उसके बाद एक कोठरी में बंद कर दिया गया था। दरवाजे पर ताला खुलने की आवाज से उसका ध्यान भंग हुआ। उसने अंदाजा लगाया कि चश्मे वाला आदमी खाना लेकर आया होगा, दरवाजा खुलने के साथ ही हल्का सा प्रकाश भी कमरे में घुस आया। उसकी नजर चश्मे वाले के पैरों पर पड़ी। उसके दोनों पैरों में छह-छह उँगली थीं। तभी उसे अपने घर में काम कर चुके एक नौकर रमुआ का ख्याल आया। उसने अपने मम्मी-पापा से सुना था कि उसके हाथ-पैरों में छह-छह उँगलियाँ थीं... रंग गोरा था, एक आँख की पुतली पर सफेदी फैली थी। जब वह स्वयं चार-पाँच वर्ष का था तभी अलमारी में से गहने निकालते हुए मम्मी ने रमुआ को पकड़ा था...पापा के आने तक वह भाग चुका था। रमुआ की उसे याद नहीं है पर अब वह चश्मे में छिपी उसकी आँखें देखना चाहता था। वह कागज में रोटी- सब्जी रख कर उसे खाने को दे गया था। दरवाजे में कई सुराख थे जिसमें से काफी रोशनी अंदर आ सकती थी किंतु उस पर बाहर से किसी कपड़े का पर्दा डाल दिया गया था जिससे कमरे में अंधेरा रहता और वह बाहर भी नहीं देख सकता था। भूख उसे तेजी से लगी थी। मोटी-मोटी रोटियों को छूते ही उसे फिर माँ याद आ गई। माँ के हाथ के बने करारे परांठे याद आ गए। मन न होते हुए भी उसने रोटी खाई व लोटे से पानी पी गया। अभी वह गिलास में चाय देकर बाहर निकला ही था कि कमरे में रोशनी की एक रेखा देखकर उसने किवाड़ की दरार से बाहर झाँका। वह आदमी चश्मा हाथ में लिए सरदार से बातें कर रहा था। यह देखकर उसकी खुशी का ठिकाना न रहा कि उसकी एक आँख खराब थी उसमें सफेदी फैली थी। उसने प्रसन्नता से अपनी पीठ स्वयं थपथपाई कि वह भी कहानी के पात्रों जैसा नन्हा जासूस हो गया है। तभी उसकी आशा पुन: निराशा में बदल गई। ठीक है उसने जासूसी करके अपहरणकर्ता का पता लगा लिया है, उसे पहचान लिया है लेकिन क्या फायदा.. यह जानकारी वह घर या पुलिसवालों तक कैसे पहुँचाए, पाँच दिन हो चुके हैं। किसी भी दिन यह मुझे मार डालेंगे। वह फिर सुबकने लगा। किवाड़ों पर हुई खटपट की आवाज सुनकर उसने सोचा, अभी तो वह चाय देकर गया था पुन: क्यों आ रहा है.. क्या पता कहीं दूसरी जगह ले जाए या हो सकता है मार ही दे। चश्मे वाले ने उसके हाथ में एक लिफाफा थमाया और कहा, "पेन तुम्हारे बस्ते में होगा, कागज भी होगा। अपने पापा को पत्र लिखो कि जिंदा देखना चाहते हैं तो माँगी हुई रकम बताई हुई जगह पर पहुँचा दें। पुलिस को बताने की कोशिश हर्गिज़ न करें वर्ना बेटे को हमेशा के लिए खो देंगे।' किसी के खाँसने की आवाज सुन कर वह बाहर जाते हुए बोला, "दरवाजे का पर्दा हटा देता हूँ, कमरे में रोशनी हो जाएगी। जल्दी से पत्र लिख दो, लिफाफे पर पता भी लिख दो, मैं अभी आकर ले जाऊँगा।' "वाह बेटे, तुम तो बहुत तेज हो। जैसा मैंने कहा था वैसा ही लिख दिया। पत्र को खाली कागज में क्यों लपेट दिया है ?' उसने कागज को उलट-पलट कर देखते हुए कहा। "थोड़ी देर पहले आप कह रहे थे बादल हो रहे हैं, पानी बरस सकता है। इसीलिए पत्र को खाली कागज में लपेट दिया है। लिफाफा भीग भी जाए तो पत्र न भीगे। अक्षर मिट गए तो पापा पढ़ेंगे कैसे। फिर मुझे कैसे ले जाएँगे।' "शाबाश ठीक किया तुमने।' पत्र गए तीन दिन हो चुके थे। इस बीच वह सोते-जागते तरह-तरह की कल्पनाएँ करता रहा था। सपने में कभी उसे चश्मे वाला छुरा लिए अपनी तरफ आता हुआ दिखता। कभी सब बीमार माँ के पास बैठे हुए दिखाई देते। कभी उदास खड़े पापा दिखते, कभी रोती हुई बहन दिखती। तभी उसे एक तेज आवाज सुनाई दी- "तुषार... तुषार, तुम कहाँ हो' अरे यह तो पापा की आवाज है। वह चौंक कर उठा और दरवाजा पीटने लगा -" पापा मैं यहाँ हूँ, इस कोठरी में।' तभी ताला तोड़ने की आवाज आई। दरवाजा खुलते ही पहले दरोगा जी अंदर आए फिर पापा आए। वह पापा से लिपट कर जोर-जोर से रोने लगा।...पापा भी उसे सीने से लगाए रो रहे थे - "मेरे बेटे मैं आ गया, तू ठीक तो है न?' घर जाते हुए उसने रास्ते में पूछा - "पापा उस दिन कार मुझे लेने क्यों नहीं आई थी।' "बेटे फोन पर किसी ने कहा था कि आज स्कूल में फंक्शन है। तुषार को लेने के लिए कार दो घंटे लेट भेजना, ऐसा कई बार हो चुका है... हमें क्या पता था कि धोखा हो सकता है।' घर पर उसे देखने वालों की भीड़ इकट्ठी थी। सब इतने खुश थे, जैसे कोई उत्सव हो। सबको मिठाई बाँटी जा रही थी। तभी उसने पूछा- "मम्मी उस घर का पता कैसे लगा?' "जब अपहरणकर्ता का ही पता लग गया फिर उसके घर का पता लगाना कौन सा मुश्किल था।...सब तेरे उस पत्र के साथ आए खाली कागज का कमाल है।' "माँ, उस कागज को पढ़ा किसने ? मैंने तो अंधेरे में तीर मारा था। मुझे उम्मीद नहीं थी कि कोई उसे पढ़ पाएगा।' पप्पू ने गर्व से सीना फुलाकर कहा - "भैया मैंने पढ़ा था।' "तूने! तूने कैसे पढ़ा ?' "चार-पाँच दिन पहले तुम्हारे दोस्त संदीप भैया आए थे। उदास थे, बहुत देर बैठे रहे। वही बता रहे थे कि अपहरण वाले दिन उन्होंने तुम को एक पेन्सिल दी थी जिसका लिखा कागज पर दिखाई नहीं देता। उन्होंने पढ़ने की तरकीब भी बताई थी। तुम्हारे पत्र के साथ आए खाली कागज को पापा ने उलट-पलट कर बेकार समझ कर फेंक दिया था। मैं तब खाना खा रहा था। मुझे संदीप भैया की बात याद आ गई। मैंने कागज उठा लिया और उस पर दाल की गर्म कटोरी रख कर घुमादी।....देखते ही देखते कागज पर लिखे तुम्हारे अक्षर चमकने लगे। बिना पढ़े ही मैं उसे लेकर पापा के पास गया। पत्र से पता लग गया कि अपहरण रमुआ ने किया है फिर क्या था, घर में हलचल मच गई। पापा तभी पुलिस स्टेशन गए और उनकी सहायता से तुम्हें ढूँढ़ लाए।' तभी पापा खुशी से चहकते हुए घर में घुसे और कुर्सी पर आराम से बैठते हुए बोले- "साला रमुआ भी पकड़ में आ गया है।' फिर कुछ ठहर कर पूछा - "तुषार बेटे उस खाली कागज का रहस्य क्या था?' "भैया क्या वह जादू की पेन्सिल थी?' "अरे नहीं, जादू कैसा, असल में वह पेन्सिल मोम की थी इसीलिए उसके लिखे अक्षर कागज पर दिखाई नहीं दे रहे थे। पप्पू ने उस पर गर्म कटोरी रख दी, गर्मी पाकर मोम पिघल गया और अक्षर स्पष्ट दिखने लगे, यही उसका रहस्य था।' "भाई कुछ भी हो खाली कागज ने कमाल कर दिखाया। वर्ना पता नहीं तुझे फिर से देख भी पाते या नहीं।' माँ की आँखों में हर्ष के आँसू थे।' *****************

  • बदरंग जिंदगी

    दामोदर को एहसास हुआ कि उसे फिर, से पेशाब लग गई है।पता नहीं उसका गुर्दा खराब हो गया है, या शायद कोई और बात है।अब, बिना डॉक्टर को दिखाये उसे कैसे पता चलेगा कि उसको बार-बार पेशाब क्यों आता है? ऐसा नहीं है कि उसने डॉक्टर को नहीं दिखाया। उसने कई-कई डॉक्टरों को दिखाया, लेकिन, समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। उसे लगातार पेशाब आना बंद ही नहीं होता है। वो आखिर करे भी तो क्या करे? अब उसका डॉक्टरों पर से जैसे विश्वास ही उठ गया है। उसे लगता है कि उसके मर्ज की दवा शायद अब किसी भी डॉक्टर के पास नहीं है। कभी-कभी उसे ऐसा भी लगता है कि वो एक ऐसे जँगल में पहुँच गया जहाँ से उसे बाहर निकलने का रास्ता ही नहीं सूझ रहा है, और, वो उसी जँगल में आजीवन भटकता रहकर कहीं मर-खप जायेगा। उसे अपने जीवन में सब कुछ अच्छा लगता है, लेकिन, उसे अच्छा नहीं लगता कि उसे बार-बार पेशाब आये।ज्यादा पेशाब आने से उसे बार-बार पेशाब करने काम को छोड़कर जाना पड़ता है। उसके मालिक, यानि कारखाने के मालिक, उसकी इस हरकत पर बड़ी बारीक नजर रखे हुए रहते हैं, और वो तब मन ही मन भीतर से कटकर रह जाता है। जब, मालिक उसे टेढ़ी नजर से देखते हैं, और, मन ही मन गुर्राते हैं। और भला गुर्राये भी क्यों ना? उसे छह हजार रुपये महीने भी तो देते हैं, और वो इधर साल भर से काम भी तो ठीक से नहीं कर पा रहा है। उसको कभी-कभी खुद भी लगता है कि वो काम छोड़ दे, और अपने घर पर ही रहे। तब तक, जब तक की उसकी बार-बार पेशाब करने वाली बीमारी खत्म ना हो जाये, लेकिन अगर वो काम छोड़ देगा तो खायेगा क्या? बार-बार ये सवाल उसके दिमाग में कौंध जाता है। अमन की उम्र भी भला क्या है? मात्र उन्नीस साल! इतने कम उम्र में ही उसने पूरे घर की जिम्मेदारी संभाल ली है। ऐसे उम्र में दूसरे बच्चे जब बाप के पैसे पर कहीं किसी कॉलेज में अय्याशी कर रहे होते हैं। उस समय अमन सारे घर को देखने लगा है। आखिर क्या होता है आजकल छ: हजार रूपये में? आज अगर अमन को मिलने वाले पँद्रह हजार रूपये उसको नहीं मिलते तो क्या वो घर चला पाता? नहीं बिल्कुल नहीं! और अमन हर महीने याद करके उसकी दवा ऑनलाइन खरीदकर भेज देता है। नहीं तो उसकी सैलरी में तो वो अपनी दवा तक नहीं खरीद पाता। आज एक दवा खरीदने जाओ तो, वो दो सौ रूपये का मिलता है, लेकिन अगले महीने जाओ तो कंपनी उसी दवा पर दस-बीस फीसदी रेट बढ़ा देती है, और, आजकल डॉक्टर के केबिन के बाहर मरीजों से ज्यादा उसे मेडिकल रि-पर्जेंटेटिव वाले लड़के ही दिखाई देते हैं। मरीजों को ठेलते-ठालते अंदर घुसने को बेताब दिख पड़ते हैं ये लड़के! जो, थोड़ी बहुत भी नैतिकता डॉक्टरों में बची थी। वो इन कमबख़्त दवा कंपनियों ने खत्म कर रखी है।रोज एक दवा कंपनी बाजार में उतर जाती है और, उसके ऊपर दबाव होता है, अपने प्रोडक्ट की मार्केटिंग का। जहाँ चूकते-चूकते आखिरकार डॉक्टर भी हथियार डाल ही देते हैं।रोज एक नया चेहरा वैसे ही एक कृत्रिम मुस्कुराहट ओढ़े हुए उनके केबिन में दाखिल हो जाता है, और ना चाहते हुए भी वो उनकी दवा मरीजों को लिख देते हैं।दवाओं पर मनमाना दाम कंपनी लगाती है और कंपनी के टार्गेट और मुनाफे के बीच फँस जाते हैं उसके जैसे लोग। उसको लगा वो कुछ देर और रूका तो उसका पेशाब पैंट में ही निकल जायेगा। लोग उसकी इस बीमारी पर बुरा सा मुँह बनाते हैं।खास कर उसके सहकर्मी, और उसने अपनी बहुत देर से दबी हुई इच्छा आखिरकार, दिनेश को बताई। दिनेश उसका साथी है। रोज काम करने बैरकपुर से रघुनाथपुर वो दिनेश की मोटर साइकिल से ही आता जाता है। उसके पास अपनी मोटरसाइकिल नहीं है। उसका घर, दिनेश के घर के बगल में ही है इसलिए वो उसकी मोटरसाइकिल से ही काम पर आता जाता है। "दिनेश मैं आता हूँ, पेशाब करके।" इतना कहकर वो निपटने के लिए जाने लगा, लेकिन, तभी दिनेश की बात को सुनकर रूक गया। दिनेश ने कारखाने से छुट्टी होने के बाद अभी कारखाने का गेट बंद ही किया था कि दामोदर की इस अप्रत्याशित बात को सुनकर झुँझला पड़ा- "अगर, तुम्हें पेशाब करने जाना ही था, तो कारखाना बंद होने से पहले ही चले जाते, और हाँ, अभी तुम थोड़ी देर पहले भी तो पेशाब करने गये थे।पता नहीं तुमको कितना बार पेशाब लगता है? एक हमलोग हैं। कारखाना में घुसने के बाद बहुत मुश्किल से दो या ज्यादा से ज्यादा तीन बार जाते होंगे, लेकिन, तुमको तो दिन भर में पचास बार पेशाब लगता है।पता नहीं क्या हो गया है तुम्हें? किसी अच्छे डॉक्टर को क्यों नहीं दिखाते?" दामोदर के चेहरे पर जमाने भर की कातरता उभर आई। उसके सूखे हुए बदरंग चेहरे पर नजर पड़ते ही दिनेश का दिल भी डूबने लगा, और वो उसकी परेशानी को समझते हुए बोला - "ठीक है जाओ, लेकिन, जरा जल्दी आना। आज मुझे मेरे बेटे को पार्क लेकर जाना है। घूमाने के लिए। वो पिछले कई हफ्तों से कह रहा है। पापा, आप कभी मुझे पार्क लेकर नहीं जाते। आज अगर मैं जल्दी नहीं गया तो वो फिर सो जायेगा और कल फिर, से वही तमाशा करेगा घूमने जाने के लिए। अखिर, इन मालिक लोगों के लिए सुबह नौ बजे से रात को नौ बजे तक काम करते-करते अपने बाल-बच्चों को कहीं घूमाने का समय ही नहीं मिल पाता।" "हाँ आता हूँ।" कहकर दामोदर जल्दी से पान मसाला की एक पुड़िया फाड़कर अपने मुँह में डालता हुआ, पेशाब करने चला गया। दामोदर, सेठ घनश्याम दास के यहाँ पिछले बीस सालों से काम करता आ रहा। दिनेश अभी नया-नया है। दोनों गाड़ी पर बैठे और, अपने गंतव्य की ओर चल पड़े। बात के छोर को दिनेश ने पकड़ा- "तुम्हे ये बीमारी कब से हुई है, और तुम इसका इलाज क्यों नहीं करवाते दामोदर?" दामोदर बोला- "अरे भईया इलाज की मत पूछो। पिछले लॉकडाउन में, मैं अपनी सोसाइटी की गेट पर खड़ा-खड़ा ही बेहोश होकर गिर पड़ा था। वो, तो बगल के एक दुकानदार ने देख लिया, और सोसाइटी के गार्ड की मदद से मुझे मेरठ भिजवाया। सात दिनों तक "जैक" हास्पिटल में रहा। एक दिन का पँद्रह हजार रुपये चार्ज था वहाँ का।केवल सात दिनों में ही एक लाख रूपये से ज्यादा उड़ गये। फिर, मेरे लड़के ने नर्सरी हास्पिटल में मुझे भर्ती कराया। तब जाकर अभी मेरी हालत में कुछ सुधार आया है। अगर वो, दुकानदार और गार्ड़ ना होते तो आज मैं तुम्हारे सामने जिंदा ना होता।" "और, सारा खर्चा कहाँ से आया। सेठजी ने कुछ मदद की या नहीं?" दिनेश बाइक चलता हुआ बोला। "अरे, मुझे कहाँ होश था। लड़का बता रहा था उसने मालिक को फोन करके पैसे माँगे थे, लेकिन मालिक की सुई दो हजार पर अटकी हुई थी। बड़ी हील-हुज्जत के बाद उन्होंने पाँच हजार रूपये दिए।" "बाकी के पैसों का इंतजाम कैसे हुआ?" "कुछ अगल-बगल से कर्ज लिया, और बाकी मेरे ससुर जी ने लगभग चार लाख रूपये देकर मेरी मदद की। तब जाकर मेरी जान बची।" मोटर साइकिल एक मेडिकल स्टोर के बगल से गुजरी। दामोदर ने दिनेश को गाड़ी रोकने के लिए कहा। और, वो लपकता हुआ मेडिकल स्टोर की तरफ बढ़ गया। उसकी दवा खत्म हो गयी थी। उसने दुकानदार को पर्ची दिखाई दुकानदार ने पर्ची को बड़े गौर से देखा और दवाई निकालकर उसने काउंटर पर रख दिया और दामोदर से बोला- "इस बार भी कंपनी ने दवा का दाम बढ़ा दिया है। उसनें एम. आर. पी. पर नजर डालते हुए कहा। पिछले बार ये दो सौ पचास रुपये की आती थी, अब दो सौ सत्तर रूपये लगेंगे। क्या करूँ दे दूँ?" दामोदर ने जेब में हाथ डाला, और पैसे गिने एक-दो उसके पास दो सौ रूपये थे। उसी में उसे रास्ते में घर के लिए एक लीटर दूध भी लेना था। पैसा नहीं बचेगा उसने दुकानदार से कहा- "फिलहाल मुझे दो दिन की दो गोली दे दो। बाकी जब तनख्वाह मिलेगी तब आकर ले जाऊँगा।" दवा लेकर खुदरा पैसा उसने जेब के हवाले किया और वापस आकर बाइक पर बैठ गया। रास्ते में उसने एक लीटर दूध भी लिया। घर, पहुँचकर उसने हाथ मुँह धोया और पलंग पर लेट गया।तब तक उसकी पत्नी रूची चाय बनाकर ले आयी।एक प्याली उसने दामोदर को दी और दूसरी प्याली खुद लेकर चाय पीने लगी। चाय पीते-पीते वो, बोली- "आज, घर का मकान मालिक, आया था और घर का किराया भी माँग रहा था। कह रहा था कि दो महीने का किराया तो पूरा हो ही गया है, और, अब तीसरा महीना भी लगने वाला है। आप लोग जल्दी से जल्दी किराया दीजिये नहीं तो घर खाली कर दीजिए।" "ये हरीश भी अजीब आदमी है। वो जानता है, कि अभी कोविड़ का समय है, और ऐसी नाजुक स्थिति है। यहाँ हम लोग दाने-दाने को तरस रहे हैं। एक टाइम माड़-भात तो एक टाइम पानी या शर्बत पीकर ही काम चला रहे हैं। एक तो खाने-पीने वाले राशन की परेशानी। उस पर से हर महीने का किराया। आखिर कहाँ से लाकर दे आदमी इस गाढ़े समय में किराया? इन ढ़ाई महीनों में वो पहले ही अपने जान पहचान के सभी लोगों से कर्ज ले चुका है। अभी उसने पहले से लिए कर्ज को ही नहीं चुकाया है, तो ये कमरे का किराया कहाँ से लाकर देगा? उसको भी सोचना चाहिए। दो-ढ़ाई महीने से दुकान बंद है। जब मालिक से पैसा मिलेगा तब उसको किराया भी मिल ही जायेगा।कौन से हम भागे जा रहे हैं?" दामोदर को लगा जैसे उसके सीने पर किसी ने बहुत भारी पत्थर रख दिया हो। जिससे उसका साँस फूलने लगा हो, और अब तब में उसका दम घुट जायेगा, और वो वहीं पलंग पर खत्म हो जायेगा। वो उठकर पलंग पर बैठ गया। "आज माँ का फोन भी आया था।कह रही थीं कि एक बार में ना सही लेकिन, किस्तों में ही चार लाख रुपये थोड़ा-थोड़ा करके लौटा दें। मेरी छोटी बहन निम्मो की शादी तय हो गयी है। अगले साल कोई अच्छा सा लगन देखकर पिताजी निम्मो की शादी कर देना चाहते हैं। तुमसे सीधे-सीधे कहते नहीं बना तो, उन्होंने माँ से फोन करके कहलवाया है।" रुची ने डरते-डरते धीरे से कहा। "ठीक है, उनका भी कर्ज, हम लोग चुका देंगे, लेकिन, थोड़ा समय चाहिए।" दामोदर छत को घूरते हुए बोला। रात काफी गहरा चुकी थी।रुची कब की सो गई थी। लेकिन, दामोदर को नींद नहीं आ रही थी। रह-रह कर वो बदरंग हो चुकी दीवार और छत को घूरता जा रहा था।उसे कभी-कभी ये भी लगता है कि उस दीवार और छत की तरह ही उसकी जिंदगी भी बदरंग हो गई है। एक दम बेकार पपड़ी छोड़ती, और सीलन से भरी हुई! क्या पाया आज उसने पचास-पचपन साल की उम्र में? कुछ भी तो नहीं! ताउम्र वो खटता रहा लेकिन, उसके हाथ में क्या लगा? सिवाये शून्य के! एक नपी तौली जिंदगी जो, खुशी से ज्यादा उसे दु:ख ही देती रही।ज्यादातर वक्त अभाव में ही बीता।अचानक उसे लगा कि उसे फिर, से पेशाब लग गया है, वो उठकर फारिग होने चला गया। आकर वापस लेटा तो रूची की नींद खुल गई। उबासी लेती हुई रूची ने पूछा- "क्या हुआ नींद नहीं आ रही है क्या?" "नहीं। लगता है पलंग में खटमल हो गये हैं, और मुझे काट रहे हैं।" दामोदर बिछौना ठीक करता हुआ बोला। रूची ने अच्छा कहा और उबासी लेती हुई फिर, से सो गई। उसके बगल वाला कमरा उसकी बेटी प्रीती का है। पापा के आने की आहट पाकर उसने जल्दी से अपने कमरे की बत्ती बंद कर ली। लेकिन, दामोदर के दिमाग में एक नई दुश्चिंता ने घर करना शुरू कर दिया। आखिर इस साल प्रीति का पच्चीसवाँ लगने वाला है। आखिर कबतक जवान लड़की को कोई घर में रखेगा। कल को कहीं कुछ ऊँच-नीच हो गई तो! तमाम दुश्चिंताओं के बीच दामोदर रात भर करवटें बदलता रहा। लेकिन, उसे नींद नहीं आई। *********

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