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- और, रजनीगन्धा मुरझा गये..
महेश कुमार केशरी "पापा लाईट नहीं है, मेरी ऑनलाइन क्लासेज कैसे होंगी... ..? ..कुछ...दिनों में मेरी सेकेंड टर्म के एग्जाम शुरू होने वाले हैं.. कुछ दिनों तक तो मैनें अपनी दोस्त नेहा के घर जाकर पावर बैंक चार्ज करके काम चलाया, लेकिन अब रोज - रोज किसी से पावर बैंक चार्ज करने के लिए कहना अच्छा नहीं लगता, आखिर, कब आयेगी हमारे घर बिजली.?" संध्या... अपने पिता आदित्य से बड़बड़ाते हुए बोलीl "आ जायेगी, बेटा बहुत जल्दी आ जायेगीl" आदित्य जैसे अपने आपको आश्वसत करते हुए अपनी बेटी संध्या से बोला, लेकिन, वो जानता है कि वो संध्या को केवल दिलासा भर दे रहा हैl सच तो ये है कि अब मखदूमपुर में बिजली कभी नहीं आयेगीl सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर ही बिजली विभाग ने यहाँ के घरों की बिजली काट रखी हैl पानी की पाइपलाइन खोद कर धीरे- धीरे हटा दी जायेगी, और धीरे - धीरे मखदूमपुर से तमाम मौलक नागरिक सुविधाएँ स्वत: ही खत्म हो जायेंगी और, सर से छत छिन जायेगाl फिर, वो सुलेखा, संध्या, सुषमा और परी, को लेकर कहाँ जायेगा? बहुत मुश्किल से वो अपने एल. आई. सी. के निधि और अपने पिता श्री बद्री प्रसाद जी की रिटायरमेंट से मिले पँद्रह- बीस लाख रूपये से एक अपार्टमेंट खरीद पाया थाl तिनका - तिनका जोड़करl जैसे गौरैया अपना घर बनाती हैl सोचा था कि, अपनी बच्चियों की शादी करने के बाद वो आराम से अपनी पत्नी सुलेखा के साथ रहेगाl बुढ़ापे के दिन आराम से अपनी छत के नीचे काटेगा, लेकिन, अब ऐसा नहीं हो सकेगाl उसे ये घर खाली करना होगा, नहीं तो, नगर - निगम वाले आकर, जे. सी बी. से तोड़ देंगेl वो दिल्ली से सटे फरीदाबाद के पास मखदूमपुर गाँव में रहता है l पिछले बीस - बाईस सालों से मखदूमपुर में तीन कमरों के अपार्टमेंट में वो रह रहा हैl बिल्ड़र संतोष तिवारी ने घर बेचते वक्त ये बात साफ तौर पर नहीं बताई थीl ये जमीन अधिकृत नहीं हैl यानी वो निशावली के जंगलों के बीच जंगलों और पहाड़ों को काटकर बनाया गया एक छोटा सा कस्बा जैसा थाl जहाँ आदित्य रहता आ रहा था, हालाँकि, वो अपार्टमेंट लेते वक्त उसके पिता श्री बद्री प्रसाद और उसकी पत्नी सुलेखा ने मना भी किया था -"मुझे तो ड़र लग रहा हैl कहीं..ये जो तुम्हारा फैसला है, वो कहीं हमारे लिए बाद में सिरदर्द ना बन जायेl" तब उसी क्षेत्र के एक नामी- गिरामी नेता रंकुल नारायण ने सुलेखा, आदित्य और बद्री प्रसाद को आश्वसत भी किया था.- "अरे, कुछ नहीं होगा l आप लोग आँख मूँद कर लीजिए यहाँ अपार्टमेंटl मैनें..खुद अपने रिश्तेदारों और दोस्तों को दिलाया है, यहाँ अपार्टमेंटl मैं पिछले पँद्रह - बीस सालों से यहाँ विधायक हूँl चिंता करने की कोई बात नहीं हैl" रंकुल नारायण का बहनोई था बिल्ड़र संतोष तिवारीl ये बात अगले आने वाले विधानसभा चुनाव में पता चली थीl जब अनाधिकृत कालोनी के टूटने की बात आदित्य को पता चलीl रंकुल नारायण ने उस साल के विधानसभा चुनाव में, सारे लोगों को आश्वासन दिया था कि, आप लोगों को घबराने की कोई जरूरत नहीं हैl आप लोग मुझे इस विधानसभा चुनाव में जीतवा दीजियेl फिर मैं असेंबली में मखदूमपुर की बात उठाता हूँ, कि नहीं आप खुद ही देखियेगाl कोई नहीं खाली करवा सकता, ये मखदूमपुर का इलाकाl हमने आपके राशन कार्ड बनवायेl हमने आपके घरों में बिजली के मीटर लगवायेl यहाँ कुछ नहीं था, जंगल था जंगल, लेकिन, हमने जंगलों को कटवाकर पाईपलाइन बिछायाl आप लोगों के घरों तक पानी पहुंचाया, ये कोई बहुत बड़ी बात नहीं हैl अनाधिकृत को अधिकृत करवानाl असेंबली में चर्चा की जायेगी, और कुछ उपाय कर लिया जायेगाl इस मखदूमपुर वाले प्रोजेक्ट में मेरे बहनोई का कई सौ करोड़ रुपया लगा हुआ हैl इसे हम किसी भी कीमत पर अधिकृत करवा कर ही रहेंगे, और अंततः रंकुल नारायण की बातों पर लोगों ने विश्वास कर उसे भारी मतों से जीतवा दिया थाl और, रंकुल नारायण के विधानसभा चुनाव जीतने के साल भर बाद ही सुप्रीम कोर्ट का ये आदेश आया था, कि मखदूमपुर कस्बा बसने से निशावली के प्राकृतिक सौंदर्य और पर्यावरण को बहुत ही नुकसान हो रहा हैl लिहाजा, जो अनाधिकृत कस्बा मखदूमपुर बसाया गया हैl उसे अविलंब तोड़ा जायेl और डेढ़ - दो महीने का वक्त खुले में रखे कपूर की तरह धीरे-धीरे उड़ रहा थाl "पापा.. ना हो .. तो .. आप मुझे मेरी दोस्त सुनैना के घर छोड़ आईयेl वहाँ मेरी पावरबैंक भी चार्ज हो जायेगी और, मैं सुनैना से मिल भी लूँगीl मुझे कुछ नोटस भी उससे लेने हैंl" आदित्य को भी ये बात बहुत अच्छी लगीl सुनैना के घर जाने वालीl बच्ची का मन लग जायेगा... कोविड़ में घर-में रहते- रहते बोर हो गई हैl आदित्य ने स्कूटी निकाली और, गाड़ी स्टार्ट करते हुए बोला - "आओ, बेटी बैठोl " थोड़ी देर में स्कुटी सड़क पर दौड़ रही थीl संध्या को सुनैना के घर छोड़कर कुछ जरुरी काम को निपटा कर वो राशन का सामान पहुँचाने घर आ गया थाl "मैं, क्या करूँ, सुलेखा? तीन-तीन जवान बच्चियों को लेकर कहां किराये के मकान में मारा-मारा फिरूँगाl और अब उम्र भी ढलान पर होने को आ रही हैl आखिर, बुढ़ापे में कहीं तो सिर टिकाने के लिए ठौर चाहिए हीl कुछ मेरे एल. आई. सी. के फँड हैं, कुछ बाबूजी के रिटायरमेन्ट का पैसा पड़ा हुआ हैl जोड़-जाड़कर कुछ पँद्रह-बीस लाख रुपये तो हो ही जाएँगेl कुछ, संतोष तिवारी से नेगोशियेट (मोल- भाव) भी कर लेंगेl और तब आदित्य ने बीस लाख में वो तीन कमरों वाला अपार्टमेंट खरीद लिया थाl बिल्ड़र संतोष तिवारी से l लेकिन, तब सुलेखा ने आदित्य को मना करते हुए कहा था- "पता नहीं क्यों ये संतोष तिवारी और रंकुल नारायण मुझे ठीक आदमी नहीं जान पड़तेl इन पर विश्वास करने का दिल नहीं करता हैl" लेकिन, आदित्य बहुत ही सीधा- साधा आदमी था lवो किसी पर भी सहज ही विश्वास कर लेता था l तभी उसकी नजर अपनी पत्नी सुलेखा पर गईl शायद आठवाँ महीना लगने को हो आया हैl पेट कितना निकल गया हैl उसने देखा सुलेखा नजदीक के चापाकल से मटके में एक मटका पानी सिर पर लिये चली आ रही हैl साथ में उसकी दो छोटी बेटियां, परी और सुषमा भी थींl वो अपने से ना उठ पाने वाले वजन से ज्यादा पानी दो-दो बाल्टियों में भरकर नल से लेकर आ रही थींl आदित्य ने देखा तो दौड़ कर बाहर निकल आया, और, सुलेखा के सिर से मटका उतारते हुए बोला - "पानी नहीं.. आ रहा है.. क्या... ?" तभी उसका ध्यान बिजली पर चला गयाl बिजली तो कटी हुई हैl आखिर, पानी चढ़ेगा तो कैसे?, मोटर तो बिजली से चलता है..नाl "नहीं- पानी कैसे आयेगा..? बिजली कहाँ है... एक बात कहूँ, बुरा तो नहीं मानोगे नाl ना हो तो... मुझे मेरे पापा के घर कुछ दिनों के लिए पहुँचा दोl जब यहाँ कुछ व्यवस्था हो जायेगी तो यहाँ वापस बुला लेनाl बच्चा भी ठीक से हो जायेगा, और, मुझे थोड़ा आराम भी मिलेगाl यहाँ इस हालत में मुझे बहुत तकलीफ हो रही हैl पानी भी नहीं आ रहा हैl बिजली भी नहीं आ रही हैl सुलेखा चेहरे का पसीना पल्लू से पोंछते हुए बोलीl अभी तक सुलेखा और बेटियों को घर टूटने वाला हैl ये बात जानबूझकर, आदित्य ने नहीं बताई है l खाँ- मा-खाँ वो, परेशान हो जायेंगी...l "हाँ, पापा घर में बहुत गर्मी लगती हैl पता नहीं बिजली कब आयेगीl हमें नानू के घर पहुँचा दो ना पापा.. "परी बोलीl "हाँ, बेटा, कोविड़ कुछ कम हो तो तुम लोगों को नानू के घर पहुँचा दूँगाl" आदित्य परी के सिर पर हाथ फेरते हुए बोलाl "तुम हाथ - मुँह धो लो मैं, चाय गर्म करती हूँl "सुलेखा, गैस पर चाय चढ़ाते हुए बोलीl चाय पीकर वो टहलते हुए, नीचे बालकनी में आ गयाl कॉलोनी में, कॉलोनी को खाली करवाने की बात को लेकर ही चर्चा चल रही थीl कुलविंदर सिंह बोले- "यहीं, वारे(महाराष्ट्र) के जंगलों को काटकर वहाँ मेट्रो बनाया गया.. वहाँ सरकार कुछ नहीं कह रही है, लेकिन हमारी कॉलोनी इन्हें अनाधिकृत लग रही हैl सब सरकार के चोंचले हैंl मेट्रो से कमाई है, तो, वहाँ वो पर्यावरण संरक्षण की बात नहीं करेगीl लेकिन, हमारे यहाँ, निशावली के जँगलों और पर्यावरण को नुकसान पहुँच रहा हैl हुँह..पता नहीं कैसा सौंदर्यीकरण कर रही है, सरकार? फिर, ये हमारा राशन कार्ड, वोटर कार्ड, आधार कार्ड किसलिए बनाये गये हैं? केवल, वोट लेने के लिएl जब, कोई बस्ती-कॉलोनी बस रही होती है, बिल्ड़र उसे लोगों को बेच रहा होता हैl तब, सरकारों की नजर इस पर क्यों नहीं जाती? हम अपनी सालों की मेहनत से बचाई, पाई-पाई जोड़कर रखते हैंl अपने बाल-बच्चों के लिएl और, कोई कारपोरेट या बिल्ड़र हमें ठगकर चला जाता हैl तब, सरकार की नींद खुलती हैl हमें सरकार कोई दूसरा घर कहीं और व्यवस्था करके दे, नहीं तो हम यहाँ से हटने वाले नहीं हैंl घोष बाबू सिगरेट की राख चुटकी से झाड़ते हुए बोले - ".. अरे.. छोड़िये कुलविंदर सिंहl ये सारी चीजें सरकार और, इन पूँजीपतियों के साँठगाँठ से ही होती है, अगर अभी जांच करवा ली जाये तो आप देखेंगे कि हमारे कईमिनिस्टर, एम. पी. , एम. एल. ए. इनके रिश्तेदार इस फर्जी वाड़े में पकड़े जायेंगेl सरकार के नाक के नीचे इतना बड़ा काँड़ होता हैl करोड़ों के कमीशन बंट जाते हैं, और आप कहते हैं, कि सरकार को कुछ पता नहीं होताl कोई मानेगा इस बात कोl सब, सेटिंग से होता हैl नहीं तो इस देश में एक आदमी फुटपाथ पर भीख माँगता है, और दूसरा आदमी केवल तिकड़म भिड़ाकर ऐश करता है... ये आखिर, कैसे होता है..? सब, जगह सेटिंग काम करती हैl" उसका नीचे बालकनी में मन नहीं लगा वो वापस अपने कमरे में आ गया, और बिस्तर पर आकर पीठ सीधा करने लगाl तुमसे मैं कई बार कह चुकी हूँ, लेकिन तुम मेरी कोई भी बात मानों तब नाl अगर, होटल नहीं खुल रहा है, तो कोई और काम-धाम शुरू करोl समय से आदमी को सीख लेनी चाहिएl कोरोना का दो महीना बीतने को हो आया, और, सरकार, होटलों को खोलने के बारे में कोई विचार नहीं कर रही हैl आखिर, और लोग भी अपना बिजनेस चेंज कर रहे हैं, लेकिन, पता नहीं, तुम क्यों इस होटल से चिपके हुए हो..? कौन, समझाये, सुलेखा को बिजनेस चेंज करना इतना आसान नहीं होता हैl एक बिजनेस को सेट करने में कई- कई पीढ़ियां निकल जाती हैंl फिर, उसकेदादा-परदादा ये काम कई पीढ़ियों से करते आ रहे थेंl इधर नया बिजनेस शुरू करने के लिए नई पूँजी चाहिएl कहाँ से लेकर आयेगा वो अब नई पूँजी..? इधर, होटल पर बिजली का बकाया बिल बहुत चढ़ गया हैl स्टाफ का दो तीन महीने का पुराना बकाया चढ़ा हुआ था हीl रही-सही कसर इस कोरोना ने निकाल दीl कुल चार-पाँच महीनों का बकाया चढ़ गया होगाl अब तक दूकान खोलते-खोलते दूकान का मालिक, सिर पर सवार हो जायेगाl दूकान के भाड़े के लिएl दूध वाले, राशन वाले को भी लॉकड़ाउन खुलते ही पैसे देने होगेंl पिछले बीस-बाईस सालों का संबंध है उनकाl इसलिए, वे कुछ कह नहीं पा रहे हैंl आखिर, वो करे तोक्या करे..? पिछले, लॉकड़ाउन में भी जब संध्या और सुषमा के स्कूल वालों ने कैम्पस केयर (एजुकेशन ऐप) को लॉक कर दिया थाl तो, मजबूरन उसे जाकर स्कूल की फीस भरनी पड़ी थीl आखिर, स्कूल वाले भी करें तो क्या करें? उनके भी अपने खर्चे हैंl बिल्ड़िंग का भाड़ा, स्टाफ का खर्चा और स्कूल के मेंटेनेंस का खर्चाl कोई भी हवा पीकर थोड़ी ही जी सकता हैl आखिर, कहाँ, गलती हुई उससेl वो इस देश का नागरिक हैl उसे वोट देने का अधिकार हैl वो सरकार को टैक्स भी देता हैl सारी चीजें उसके पास थींl पैन कार्ड, राशन कार्ड, वोटर कार्ड, आधार कार्ड, लेकिन, जिस घर में वो इधर बीस - बाईस सालों से रहता आ रहा थाl वो घर ही अब उसका नहीं थाl घर भी उसने पैसे देकर ही खरीदा थाl उसे ये उसकी कहानी नहीं लगती, बल्कि, उसके जैसे दस हजार लोगों की कहानी लगती हैl मखदूमपुर दस हजार की आबादी वाला कस्बा थाl ऐसा, शायद, दुनिया के सभी देशों में होता है l नकली पासपोर्ट, नकली वीजा वैध- अवैध नागरिकताl सभी जगह इस तरह के दस्तावेज, पैसे के बल पर बन जाते हैंl सारे देशों में सारे मिडिल क्लास लोगों की एक जैसी परेशानी हैl ये केवल उसकी समस्या नहीं है, बल्कि उसके जैसे सैंकड़ों-लाखों करोड़ों लोगों की समस्या हैl बस, मुल्क और, सियासत बदल जाते हैंl स्थितियाँ कमोबेश एक जैसी ही होती हैंl सबकी एक जैसी लड़ाईयाँ बस लड़ने वाले लोग, अलग-अलग होते हैंl जमीन जमीन का फर्क है, लेकिन, सारे जगहों पर हालात एक जैसे ही हैंl आदित्य का सिर भारी होने लगा और पता नहीं कब वो नींद की आगोश में चला गयाl इधर, वो, सुलेखा और, अपनी तीनों बेटियों को अपने ससुर के यहाँ लखनऊ पहुँचा आया थाl और, बहुत धीरे से इन हालातों के बारे में उसने सुलेखा को बताया थाl "अरे, बाबूजी, अब, ये रजनीगन्धा के पौधे को छोड़ भी दीजियेl देखते नहीं पत्तियों कैसी मुरझा कर टेढ़ी हो गईं हैंl अब नहीं लगेगा रजनीगन्धाl लगता है, इसकी जड़ें सूख गई हैl बाजार जाकर नया रजनीगन्धा लेते आइयेगा मैं लगा दूँगाl " माली, ने आकर जब आवाज लगाई तब, जाकर, आदित्य की निंद्रा टूटीl " ऊँ.. क्या..चाचा. आप कुछ कह रहे थें..?" आदित्य ने रजनीगन्धा के ऊपर से नज़र हटाईl करीब-करीब बीस-पच्चीस दिन हो गया हैl उसे, नये किराये के मकान में आयेl अगल-बगल से एक लगाव जैसा भी अब हो गया हैl शिवचरन, माली चाचा भी कभी-कभी उसके घर आ जाते हैंl इधर-उधर की बातें करने लगते हैं, तो समय का जैसे पता ही नहीं चलताl मखदूमपुर से लौटते हुए, वो अपने अपार्टमेंट में से ये रजनीगन्धा का पौधा कपड़े में लपेट कर अपने साथ लेते आया थाl आखिर, कोई तो निशानी उस अपार्टमेंट की होनी चाहिएl जहाँ इतने साल निकाल दियेl "मैं, कह रहा था कि बाजार से एक नया रजनीगन्धा का पौधा लेते आनाl लगता... है, इसकी जड़ें सूख गईं हैंl नहीं तो, पत्ते में हरियाली जरूर फूटतीl देखते नहीं कैसे मुरझा गयी हैं पत्तियाँ? कुँभलाकर पीली पड़ गईं हैंl लगता है, इनकी जड़ें सूख गई हैंl बेकार में तुम इन्हें पानी दे रहे होl" "हाँ, चचा,पीला तो मैं भी पड़ गया हूँl जड़ों से कटने के बाद आदमी भी सूख जाता हैl अपनी जड़ों से कट जाने के बाद आदमी का भी कहीं कोई वजूद बचता है क्या..? बिना मकसद की जिंदगी हो जाती हैl पानी इसलिए दे रहा हूँ... कि कहीं ये फिर, से हरी-भरी हो जाएँl एक उम्मीद है, अभी भी जिंदा है..कहीं भीतर..!" और, आदित्य वहीं रजनीगन्धा के पास बैठकर फूट फूट कर रोने लगाl बहुत दिनों से जब्त की हुई नदी अचानक से भरभराकर टूट गई थी, और शिवचरन चाचा उजबकों की तरह आदित्य को घूरे जा रहे थेंl उनको कुछ समझ में नहीं आ रहा थाl **********
- हाथी और दर्जी
रमन अवस्थी एक गाँव में एक दर्जी रहता था। वह नेकदिल, दयालु और मिलनसार था। सभी गाँव वाले अपने कपड़े उसी को सीने दिया करते थे। एक दिन दर्जी की दुकान में एक हाथी आया। वह भूखा था। दर्जी ने उसे केला खिलाया। उस दिन के बाद से हाथी रोज दर्जी की दुकान में आने लगा। दयालु दर्जी उसे रोज केला खिलाता। बदले में हाथी कई बार उसे अपनी पीठ पर बिठाकर सैर पर ले जाता। दोनों की घनिष्ठता देखकर गाँव वाले भी हैरान थे। एक दिन दर्जी को किसी काम से बाहर जाना पड़ा। उसने अपने बेटे को दुकान पर बिठा दिया। जाते जाते वह उसे केला देते हुए कह गया कि हाथी आये, तो उसे खिला देना। दर्जी का बेटा बड़ा शरारती था। दर्जी के जाते ही उसने केला खुद खा लिया। जब हाथी आया, तो उसके शैतानी दिमाग में एक शरारत सूझी। उसने एक सुई ली और उसे अपने पीछे छुपाकर हाथी के पास गया। हाथी ने समझा कि वह केला देने के लिए आया है। इसलिए अपनी सूंड आगे बढ़ा दी। उसके सूंड बढ़ाते ही दर्जी के बेटे ने उसे सुई चुभो दी। हाथी दर्द से बिलबिला उठा। ये देखकर दर्जी के लड़के को बड़ा मज़ा आया और वह ताली बजाकर ख़ुश होने लगा। दर्द से बिलबिलाता हाथी गाँव की नदी की ओर भागा। वहाँ जाकर उसने अपनी सूंड पानी में डाल दी। कुछ देर नदी के शीतल जल में रहकर उसे राहत महसूस हुई। उसे दर्जी के लड़के पर बड़ा गुस्सा आ रहा था। उसने उसे सबक सिखाने की ठानी और अपनी सूंड में कीचड़ भरकर दर्जी की दुकान की तरफ बढ़ा। दर्जी के लड़के ने जब फिर से हाथी को आते देखा, तो सुई लेकर बाहर आ गया। वह हाथी के पास आते ही उसे सुई चुभाने के लिए आगे बढ़ा, मगर हाथी ने सूंड में भरा सारा कीचड़ उस पर उड़ेल दिया। लड़का दुकान के दरवाज़े के सामने खड़ा था। वह ऊपर से नीचे तक कीचड़ से लथपथ हो गया। दुकान के अंदर भी छिटक गया और लोगों द्वारा दिए गए कपड़े भी गंदे हो गये। उसी समय दर्जी भी अपना काम निपटाकर दुकान वापस आया। वहाँ की ये हालत देखकर उसे कुछ समझ नहीं आया। उसने अपने बेटे से पूछा, तो बेटे ने सारी बात बता दी। दर्जी ने बेटे को समझाया कि तुमने हाथी के साथ बुरा व्यवहार किया है, इसलिए उसने भी तुम्हारे साथ वैसा ही व्यवहार किया है। जैसा व्यवहार करोगे, वैसा ही पाओगे। आज के बाद किसी के साथ बुरा मत करना। फिर दर्जी ने हाथी के पास जाकर उसकी पीठ सहलाई और उसे केला खिलाया। हाथी ख़ुश हो गया। दर्जी के बेटे ने भी उसे केले खिलाये, जिससे हाथी और उसकी दोस्ती हो गई। उस दिन के बाद से हाथी दर्जी के बेटे को भी अपनी पीठ पर बिठाकर घुमाने लगा। अब दर्जी के बेटे ने शरारत छोड़ दी और सबसे अच्छा व्यवहार करने लगा।
- तर्पण
महेश कुमार केशरी विवेक की मौत ठंड लगने की वजह से हो गयी थी। दाह -संस्कार से घर लौटकर आते हुए भी तन्मय ने एक बार वही सवाल अपने दादा गोपी बाबू के सामने दोहराया था। जिसे बार - बार गोपी बाबू टाल जाना चाह रहा थें। वो कैसे जबाब देते? अभी तो वे, अपने इकलौते बेटे की मौत के सदमे से उबर भी नहीं पाये थें। अपने बेटे की लाश को कँधा देना हर बाप के लिये दुनिया का सबसे मुश्किल काम होता है। गोपी बाबू के कँठ भींगने लगते हैं। जब कोई विवेक की बात करता है। करीब सप्ताह भर पहले भी घर की सफाई के वक्त उसने वही सवाल दुहराया था - "दादा, आप घर की सफाई क्यों करवा रहें हैं? उस दिन भी आप लोगों ने पापा के मरने के बाद पूरे घर को धुलवाया था। पंडित जी से पूछा , तो उन्होंने कहा कि मरने के बाद मरे हुए आदमी के कारण घर अपवित्र हो जाता है। इसलिये हम घर की साफ- सफाई करते हैं। उसे धोते हैं।" पूरे घर में चारों तरफ पेंट की गंध फैली हुई थी। तन्मय के कार चलाते हुए हाथ अचानक से तब रूक गये। जब उसने गोपी बाबू को अपना सिर मुँड़वाते हुए देखा। हैरत से ताकते हुए उसने अपने दादा गोपी बाबू से पूछा - "दादा आप सिर क्यों मुँड़वा रहें हैं?" गोपी बाबू पीढ़े पर अधबैठे और झुके हुए ही बोले - "बेटा, ऐसे ही।" "ऐसे ही कोई काम नहीं होता बताईये ना?" तन्मय जिद करते हुए बोला। इस बार गोपी बाबू बेबस हो गये। फिर वे बोले - "बेटा जब हमारा कोई अपना गुजर जाता है। तो उसको हम अपनी सबसे प्यारी चीज अर्पित कर देते हैं। ये हमारा उस व्यक्ति के प्रति हमारी निष्ठा का सूचक होता है। हमारे यहाँ के संस्कार में इसे तर्पण कहते हैं। इस मामले में हमारे बाल हमारी सबसे प्यारी चीजों में से एक होते हैं। इसलिये हम अपने बाल मुँडवाकर अपने पूर्वजों से उऋण होते हैं।उनको सम्मान देते हैं। उनसे ये वादा भी करतें हैं , कि उसके मरने के बाद उसके बचे हुए कामों को हम पूरा करेंगें। बालों का मुँडन उस मृतक व्यक्ति के प्रति हमारा शोक भी होता है।" तन्मय ने गोपी बाबू से फिर पूछा - "कैसा शोक दादा? एक तरफ हम छुआ- छूत और बीमारियों के डर से अपना बाल मुँडवा लेते हैं और, शोक का नाम देते हैं। ये हमारा आडंबर नहीं है तो क्या है? पापा के मरने के बाद हम अपने घर को धुलवा रहे हैं। उस पर पुताई करवा रहें हैं। जैसे, पापा मरने के बाद हमारे लिये अछूत हो गयें हों। जीते जी उन्होंने इस घर के लियेऔर हमारे लिये कितना कुछ किया। मैनें एक बार कहा। और वो मेरे लिये लैपटॉप ले आये। मम्मी के लिये स्कूटी खरीदी। ये घर बनाया। सारी ज़िंदगी मेहनत करते रहे। और मरने के बाद हमारे लिये अछूत हो गये। कितने मतलबी हैं, हम लोग! जहाँ उन्हे लिटाया गया उस जगह को पानी से धोया गया। घर के ऊपर चूना, वर्निश पेंट - पुचारा हो रहा है। आपके - हमारे बालों का तर्पण हो रहा है। छि: कितनी खराब है ये दुनिया!" तन्मय के चेहरे पर हिकारत के भाव उभर आये थें। गोपी बाबू का कँठ अपने पोते की बातें सुनकर रूँधने लगा था। वो सच ही तो कह रहा था। ***********
- बेकरार दिल
प्रेम नारायण बहुत गंवाया मैंने तेरी बेखुदी से कभी शोहरत मिली तो कभी बदनामी मिली सिर्फ तेरी नाकामी से हमने न कभी चाहा था तेरी दुनियां से जुदा होना मगर क्या करूं आप तो खफा थे मेरी नादानी से हाल अब बद से बदतर हुआ जा रहा है तुझसे दिल लगाने से नुकसान ही हुआ मेरी नादानी से गैरों से धोखा खाए तो हम संभल गए मगर दोस्ती कर दुश्मनी क्यूं ये न समझ सके अपनी खामी से चाहें तो ठुकरा दें मर्ज़ी है आपकी मगर कब तक ज़ुल्म जमा होगा अब हम न करेंगे शिकवा तुम्हीं से बगावत का इल्म हममें नहीं क्या पता था वो दौर भी आएगा जब सामना होगा इक दूजे की नाकामी से *******
- बरखा ऋतु
प्रदीप श्रीवास्तव बरसे बरखा सुहानी रे.... आई ऋतुओं की रानी रे..... सावन के महीने में, झूलों की कहानी रे...... बरसे बरखा............ जब नील गगंन में , काले काले मेघा छाये रे । मोती बनकर ये बूँदे , निर्झर धरती पे बरसाये । मिलकर गाये गीत सुहाने रे ।। बरसे बरखा........... निर्मल जल गिरता पानी, मोती चॉदी सा चमके पानी । मस्त अल्हड़ चले पवन पुरवाई , पेड़ो शाख़ो पे जवानी छाई । सब दिलों पे मस्ती छाई रे ।। बरसे बरखा.............. ताल पोखर कुंआ तलैया रे , खेतों में होवन लगी बुआई रे । खेतों मेडों पे बैठी नवतरुणाई , गीत सुहावन गाये रे । मोर मोरनी संग नाचे रे ।। बरसे बरखा............... *********
- बंधन
सम्पदा ठाकुर मैं बांध नहीं रही तुम्हें किसी बंधन में ना करवा रही तुमसे कोई करार बेफिक्र रहो तुम हो आजाद पर मुझे मत रोको यार जिस बंधन में बंध चुकी हूं मैं नहीं हो सकती उससे आजाद मैं नहीं कहती तुमसे तुम हर पल करो मुझसे बात पर जब मेरा दिल करे तब सुना दिया करो अपनी आवाज बस एक झलक दिखला दिया करो जब करना चाहे दिल तेरा दीदार मुझे पता है मेरी खुशी के लिए मेरा दिल रखने के लिए कर लेते हो मुझसे बात मगर कहीं ना कहीं मेरे दिल में है एक आस खुद पर और मुझे मेरे रब पर हमको है पूरा विश्वास एक ना एक दिन तुम भी इस बंधन को मानोगे यार तुम भी करोगे हमसे प्यार जिस तरह मैं हर पल महसूस करती हूं तुमको तुमको भी होगा मेरा एहसास बस उस पल का है इंतजार। *******
- सीखना सतत प्रक्रिया है।
पिंकी सिंघल कहा जाता है कि जब सीखने की प्रक्रिया बंद हो जाती है उसी पल से हमारा विकास होना भी अवरुद्ध होने लगता है हमारे आगे बढ़ने के अवसर उसी क्षण समाप्त हो जाते हैं। ऐसे में एक सीमा तक हमने जितना कुछ सीखा, जाना उसी के सहारे हमें आगे का जीवन जीना होता है। जिस पल हमारे मन में यह बात घर कर जाती है कि अब हम सब कुछ सीख चुके हैं और आगे कुछ सीखने की हमें कोई आवश्यकता नहीं रह गई है, तो समझ लीजिए उससे अधिक दुर्भाग्य की बात हमारे लिए दूसरी कोई हो ही नहीं सकती। सीखने सिखाने की प्रक्रिया जीवन पर्यंत चलती रहती है हम हर पल हर क्षण कुछ नया सीखते हैं। अपने जीवन में मिलने वाले हर शख्स से हमें कुछ ना कुछ सीखने को मिलता है। सीखने का कोई अंत होता ही नहीं है। जैसे ही हमें यह महसूस होने लगता है कि अब हमें जीवन का काफी अनुभव हो गया है और दुनियादारी की समझ हमारे भीतर आ गई है उसी क्षण हमें कुछ ऐसा नया ज्ञान, नया अनुभव, नई सीख मिलती है जिसके बाद हममें फिर से कुछ नया सीखने की उत्सुकता जागृत होने लगती है और हम सीखने की उसी दिशा में खींचे चले जाते हैं। जब तक हम उस नए ज्ञान को ग्रहण नहीं कर लेते और नवीन चीजों को सीख समझ नहीं लेते, तब तक हमें सब्र नहीं आता और हम बेचैन रहते हैं। वस्तुत: यही बेचैनी ही तो हमें नित नया सीखने के लिए प्रेरित करती है। ज्ञान पिपासु होने की प्रवृत्ति प्रति क्षण प्रबल होती जाती है जिसके शांत होने पर ही हमें सुकून का अहसास होता है। अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर सीखना है क्या और कैसे बेहतर तरीके से सीखा जा सकता है? मेरे हिसाब से जीवन में सब कुछ औपचारिक तरीके से ही नहीं सीखा जाता अपितु अप्रत्यक्ष एवम अनौपचारिक माध्यमों से भी व्यक्ति काफी कुछ सीख जाता है। कभी-कभी हम दूसरों को कुछ करते देख स्वत: ही कुछ नया सीख जाते हैं। यह भी आवश्यक नहीं है कि कुछ नया सिखाने वाला हमसे उम्र में बड़ा ही हो। हम सभी अपने दैनिक जीवन में इस प्रकार का अनुभव करती हैं कि कभी-कभी हम छोटे छोटे बच्चों से भी बड़ी-बड़ी, गहरी और नवीन बातें सीख जाते हैं। बच्चों द्वारा कभी-कभी हमें ऐसी सीख दे दी जाती है जिसे देख हम खुद अचंभित रह जाते हैं। इसलिए सीखने सिखाने का आयु से कोई खास संबंध नहीं होता। दूसरी बात, केवल दूसरों की आकांक्षाओं और आशाओं पर खरा उतरने के लिए ही ना सीखे सिखाएं अपितु अपनी क्षमताओं, कैपेसिटी और पेसे के हिसाब से ही सीखें और आगे बढ़ने का प्रयास करें। अपनी उत्सुकता को कभी ठंडा ना पड़ने दें क्योंकि उत्सुकताओं में आया हुआ उबाल ही हमें एक बेहतर इंसान बनने में मदद करता है। तीसरी बात, सीखने सिखाने की कोई निश्चित उम्र नहीं होती यदि कोई कहे कि एक निश्चित आयु तक ही व्यक्ति कुछ सीख सकता है तो यह सर्वथा गलत माना जाएगा। जैसा कि मैंने ऊपर भी कहा कि यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो तमाम उम्र चलती रहती है। जाने अनजाने में भी हम दूसरे लोगों से बहुत कुछ सीख जाते हैं जिसे अंग्रेजी में इनडायरेक्ट लर्निंग का नाम दिया जाता है। किताबी ज्ञान कभी भी उस ज्ञान का होड़ नहीं कर सकता जो ज्ञान व्यक्ति खुद कुछ सही गलत करके और अपने आसपास के वातावरण और अनुभवों से प्राप्त करते हैं। सीखने से तात्पर्य केवल किसी चीज को समझना ही नहीं है अपितु उस समझ और ज्ञान को अपने दैनिक जीवन में प्रयोग में लाना भी होता है। असली मायनों में सीख तभी कारगर मानी जाती है जब उस सीख से प्राप्त समझ और ज्ञान को हम अपने जीवन में अपनाते हैं और अपने जीवन को पहले से अधिक बेहतर बनाने का यथासंभव प्रयास करते हैं। सीखने सिखाने की प्रक्रिया तो जीव जंतुओं में भी देखी गई है। एक छोटी सी चींटी भी दूसरी चीटियों को पंक्ति बद्ध हो कर चलता देखती है तो स्वत: ही पंक्ति में चलना प्रारंभ कर देती है। उस चींटी को ऐसा करने के लिए किसी ने नहीं बोला अपितु यह ज्ञान यह सीख उसे दूसरों को देखकर मिला, जिसे उसने अपने जीवन में अपनाया। कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन में प्राप्त ज्ञान और नई चीजों को सीखने का वास्तविक लाभ हमें तभी प्राप्त हो सकता है जब हम उसे अपने दैनिक जीवन में प्रयोग में लाएं अपने ज्ञान से दूसरों को भी लाभान्वित करें और मिलजुलकर एक सभ्य और पहले से कहीं अधिक विकसित समाज का नव निर्माण करने में अपना योगदान दें। *************
- इस नदी की धार में...
दुष्यंत कुमार इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है, नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है। एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों, इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है। एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी, आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है। एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी, यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है। निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी, पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है। दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर, और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है। ********
- दुर्घटना
महेश कुमार केशरी गाड़ी स्टेशन पर रूकी, और मैं हडबड़ाते हुए स्टेशन के बाहर निकलकर अपने गंतव्य की ओर जाने के लिये मुड़ा। तभी स्टेशन के बाहर किसी आटो वाले का एक्सीडेंट हो गया था। भीड़ में से कोई उसे अस्पताल तक ले जाने के लिये तैयार नहीं था। लोग पुलिस केस के डर से उस युवक को हाथ नहीं लगा रहे थें। भीड़ को चीरता हुआ जब मैं वहाँ पहुँचा तो वो युवक वहाँ पड़ा कराह रहा था। बाहर से घुटने छिले हुए दिख रहे थें। दु:ख की पीड़ा उसके चेहरे पर साफ दिखाई दे रही थी। आनन-फानन में मैनें एक आटो वाले को रुकवाया। और उस युवक को जिसको काफी गंभीर चोट आई थी, उठाकर लोगों की मदद से शाँति-निकेतन अस्पताल की तरफ भागा। इस घटना में मुझे एक चीज बड़ी अजीब लग रही थी, पता नहीं क्यों मुझे लग रहा था कि मैं इस युवक को जानता हूँ। इस युवक को कहीं देखा है। लेकिन, कहाँ देखा है। ये याद नहीं आ रहा था। चूँकि उसकी हालत अभी काफी गंभीर थी। इसलिये उससे कुछ पूछना सरासर मुझे बेवकूफी ही लग रहा था। अस्पताल पहुँचकर सबसे पहले मैनें उसे अस्पताल में भर्ती करवाया। दो- दिनों तक उस युवक को होश नहीं आया था। दो दिनों तक लगातार मैं शाँति - निकेतन अस्पताल में ही रहा। तीसरे दिन उसको होश आया। जब उसको होश आया तो मैनें पूछा - "कैसा लग रहा है तुम्हें? क्या तुम अब ठीक हो?" युवक कुछ बोला नहीं। केवल मन- ही - मन मुस्कुरा रहा था। "मैं पिछले दो- दिनों से तुमसे एक बात पूछना चाह रहा था। क्या हम इससे पहले भी कभी मिले हैं?" उसने "हाँ" में सिर हिलाया। फिर बोला - "आप कोई दस-एक साल पहले मुझसे मिले थें। उस समय मैं दसवीं में पढ़ता था। उस समय आपको ट्रेन पकड़नी थी। मेरे बोर्ड़ के एक्जाम चल रहें थें। लेकिन, मेरे पास फार्म भरने तक के पैसे भी नहीं थें। ये बात मैनें ऐसे ही आपको आटो में बताई थी। तब ये जानकर आप आटो से उतरते वक्त पाँच सौ रूपये का एक नोट मुझे देते गये थें । मैं मना करता रहा। लेकिन, आप नहीं माने थें। जल्दीबाजी में आप पैसे पकड़ाकर चले गये थें। आपने उस वक्त मेरा नाम भी पूछा था। मैं वही सुनील हूँ।" अचानक मुझे भी दस साल पहले की वो घटना याद आ गई। अरे, तुम तो बहुत बड़े हो गये हो। घर में सब कैसे हैं? अब तो तुम्हारी मूछें भी निकल आयी हैं। सुनील कोई प्रतिक्रिया ना देकर सीधे मेरे पैरों पर गिर पड़ा। उसकी आँखों में आँसू थें। वो कह रहा था। आप जरूर कोई फरिश्ते हैं। जब भी आते हैं। मेरी मदद करने के लिये ही आते हैं। आप ना होते तो मैं मर ही गया होता। मैनें उसे गले लगाते हुए कहा। मैं सिर्फ एक इंसान हूँ। फरिश्ता-वरिश्ता कुछ भी नहीं हूँ। आखिर, आदमी ही आदमी के काम आता है। पैसे होने पर हर इंसान को एक - दूसरे की मदद करनी चाहिये। **************
- एक शिष्य का सफरनामा
वर्ष 2013-14 में मेरी फेशबुक पर एक मित्रता निवेदन आया, मेंने देखा नाम था सपना सोनी।मित्रता निवेदन स्वीकार ने के बाद निरंतर साहित्य संबंधित चर्चाएँ होती रहीं।उस वक्त वह अपनी मानसिक रोग से पीड़ित बेटी के दुख से बेहद आहत थीं, उनका दिल करता था कि बेटी के साथ दिल खोल कर उससे बात करे उस पर अपना ममत्व लुटाए, पर ला इलाज बीमारी के चलते वह चाह कर भी अपनी बेटी के साथ अपनी भावनाओं को साझा नहीं कर पातीं थीं। सपना सोनी को अपनी बेटी से जो कुछ कहने की इच्छा होती थी, उन भावनाओं को वह कविता के रूप में अपनी डायरी में सजोती जा रहीं थीं।उनमें से कुछ दिल को छूले ने बाली रचनाओं में से किसी एक रचना को कभी कभार अपनी फेशबुक की टाइमलाइन पर भी पोस्ट करती रहतीं थीं।यह बात अलग है कि अब वह बिटिया रानी इस दुनिया में नहीं रही। वार्तालाप के दौरान एक दिन उन्होंने कविता परिमार्जन हेतु आग्रह किया जिसे मेंने सहर्ष स्वीकारते हुए अपनी क्षमतानुसार उनकी रचनाओं को परिमार्जित करता रहा। इसी दौरान मेरे परम मित्र दिल्ली के मसहूर शायर आदरणीय मंगल नसीम जी उनके समपर्क में आए और उन्होंने सपना सोनी को एक बेटी की तरह ग़जल की विधवत शिक्षादी।साथ ही सपना सोनी की शुरीली आवाज में कविता पाठ करते देख उनको मंचों पर कविता पाठ करने के अवसर मुहैया कराए। उसके बाद सपना सोनी हर रोज कविता के नए नए सोपान लिखती गईं और मंचों से ले कर तमाम टी.वी चैनलों पर कविता पाठ करती नजर आईं।उन्होंने तमाम अवसरों पर मुझ से गुरुशिष्या के कर्तव्यों के निर्वहन हेतु रूबरू मुलाकात करने के प्रयास किये, किन्तु ऐसा कोई अवसर नहीं मिला कि रूबरू मिल सकें । संयोग से एक बार मसहूर कवि/लेखक आदरणीय साहित्य मनीषी ज्ञान पीठ पुरस्कार से सम्मानित श्रद्धेय प्रो. नामवर सिंहजी द्वारा स्थापित नारायणी साहित्य अकादमी के तत्वावधान में आयोजित अखिल भारतीय कवि सम्मेलन हेतु मैं अहमदाबाद से दिल्ली की यात्रा पर था। संयोग से उस दिन 27- जुलाई 2018 गुरु पूर्णिमा थी। मैं जिस रेलगाड़ी में था वह सुबह करीब 9:00 बजे राजस्थान के दौसा स्टेशन पर पहुंची। राजस्थान की चर्चित और सुप्रसिद्ध कवियत्री सपना सोनी जी अपने जीवन साथी मनोज कुमार सोनी के साथ सुबह से मेरी रेलगाड़ी के पहुचने की प्रतीक्षा करती दौसा स्टेशन पर मिलीं। उन्होंने शाल, नारियल, वस्त्र और स्वरचित पुस्तक "मनकाझरना" देकर फूल हार से अकिंचन को गुरु की उपाधि से सम्मानित किया जोकि, मेरे साहित्य लेखन के लिए सबसे बड़ी उपाधि थी। यसस्वीभव: का आशीर्वाद देकर मैं पुनः अपनी रेलगाड़ी में जा बैठा। चूँकि उस स्टेशन पर उस रेलगाड़ी के रुकने का कुल समय 5 मिनट ही था। आज वही सपना सोनी तमाम टी.वी. चैनलों पर कविता पाठ करते हुए मसहूर कवि / लेखक और सोनी सब पर प्रख्यात टी.वी. धारावाहिक तारक मेहता का उलटा चसमा में तारक मेहता के अभिनय में नजर आने बाले आदरणीय शैलेन्द्र लोढाजी द्वारा संचालित शेमारू टी. वी. चैनल पर धारावाहिक वाह भाई वाह कार्यक्रम तक के सफरना मे की कुछ यादें आप सबके साथ साझा करते हुए गौरव महसूस कर रहा हूँ। साथ ही कामना करता हूँ कि सपना सोनी साहित्य के हर रोज नए आयामों को छुएँ। इसी शुभाषीश के साथ आप सब को मेरा सादर नमन। ********
- दो रुपए
कस्बे के किनारे तंग गलियों की एक बस्ती। छोटे-छोटे कमरे के मकान, कोठरी, नंगी ईटों पर डगमगाती टीन की चादरें, कच्ची मिट्टी की दीवारें, फूंस के छप्पर का घूंघट ओढ़े आंधी तूफान, बरसात, धूप, लालची नजरों से अपने अस्तित्व को बचाने की कोशिश में बहुत थकी सी पर खड़ी है। सूर्यास्त के बाद अंधेरे में डूब जाती यह बस्ती। बस मिट्टी के तेल की ठिवरी, लालटेन, बरसात में कड़कती बिजली से ही दिखाई देती है। कई पीढ़ी की यही जीवन शैली। कोठरी के दरवाजे पर एक फटा मैला पर्दा, बैठने उठने को एक चरमराई चारपाई, पानी का घड़ा उस पर एक गिलास। गृहस्ती के नाम पर एक लोहे का संदूक, पीछे खुली जगह में मिट्टी का चूल्हा, पिचके काले पड़ चुके अल्मुनियम के चंद बर्तन। ईटों पर सजी घर की परचून, दाल, चावल, आटा, मसाले के टेढ़े मेढ़े डिब्बे। एक दो जोड़ी खूंटी पर टंगी धोती, ब्लाउज, पेटीकोट, अंगोछा। सजने सवरने के लिए आले में रखी लालता, सुरमेदानी, बिंदी, नाखूनी, दांत की मिस्सी, गुलाबी रंग, कुछ नकली गहने बुंदे, झुमकी, चेन, कमरबंद, पायल। एक और चीज जो जरूरी वह आइना हर घर में होता है। बस्ती में एक कुआं जो उन सब का एक क्लब है। हर सुबह, शाम, दोपहर मिलजुल कर सुख-दुख, हंसी मजाक की साझेदारी, आपस में गम हल्का करने का एक ही स्थान। रात के अंधेरे में एक ही आवाज तैरती और गूंजती है। मसलती कलियों का क्रंदन, युवती की सिसकियां प्रोडा की फुसफुसाहट, गाली गलौज, दूध पीते बच्चों का रोना और मर्द की बेशर्म, बहसी क्रूरतम हंसी के ठहाके, चौखट पर वृद्धा की खांसी की ठन ठन। दिन की उदासी शाम होते ही चहल-पहल में बदल जाती है। लाला गिरधारी लाल दुकान बंद कर नए कुर्ता धोती में इत्र की फुलौरी लगाए पान चबाते गली में घुसते हैं। लाइन से कमरों के दरवाजों का पर्दा हटता है और एक मंडी सज जाती है। लालाजी पूरी गली पर एक नजर डालते हैं और फिर एक दरवाजे पर ठहर जाते हैं। पूछते हैं क्या भाव है? पेट की आग होठों पर एक नकली हंसी में बदल जाती है और शर्माती हुई एक आवाज बोली बस दो रुपए। लालाजी बोले मेरे दादाजी तो अठन्नी दे देते थे। साहब महंगाई कितनी बढ़ गई है। और वह हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींच लेती है। टूटे दरवाजे की सांकल बंद हो जाती है। चौखट पर बैठी बूढ़ी काकी की खांसी और तेज हो जाती है। मनुष्य की सभ्यता का सबसे पुराना व्यापार। देह मंडी। एक अंधेरा संसार खरीद-फरोख्त बस दो रुपए। *******
- लस्सी का कुल्हड़
एक दूकान पर लस्सी का ऑर्डर देकर हम सब दोस्त- आराम से बैठकर एक दूसरे की खिंचाई और हंसी-मजाक में लगे ही थे कि, लगभग 70-75 साल की बुजुर्ग स्त्री पैसे मांगते हुए हमारे सामने हाथ फैलाकर खड़ी हो गई। उनकी कमर झुकी हुई थी, चेहरे की झुर्रियों में भूख तैर रही थी। नेत्र भीतर को धंसे हुए किन्तु सजल थे। उनको देखकर मन में न जाने क्या आया कि मैंने जेब में सिक्के निकालने के लिए डाला हुआ हाथ वापस खींचते हुए उनसे पूछ लिया: दादी लस्सी पियोगी? मेरी इस बात पर दादी कम अचंभित हुईं और मेरे मित्र अधिक क्योंकि अगर मैं उनको पैसे देता तो बस 5 या 10 रुपए ही देता लेकिन लस्सी तो 40 रुपए की एक है। इसलिए लस्सी पिलाने से मेरे गरीब हो जाने की और उस बूढ़ी दादी के द्वारा मुझे ठग कर अमीर हो जाने की संभावना बहुत अधिक बढ़ गई थी। दादी ने सकुचाते हुए हामी भरी और अपने पास जो मांग कर जमा किए हुए 6-7 रुपए थे, वो अपने कांपते हाथों से मेरी ओर बढ़ाए। मुझे कुछ समझ नहीं आया तो मैने उनसे पूछा, ये किस लिए? इनको मिलाकर मेरी लस्सी के पैसे चुका देना बाबूजी। भावुक तो मैं उनको देखकर ही हो गया था। रही बची कसर उनकी इस बात ने पूरी कर दी। एकाएक मेरी आंखें छलछला आईं और भरभराए हुए गले से मैने दुकान वाले से एक लस्सी बढ़ाने को कहा। उन्होने अपने पैसे वापस मुट्ठी मे बंद कर लिए और पास ही जमीन पर बैठ गई। अब मुझे अपनी लाचारी का अनुभव हुआ क्योंकि मैं वहां पर मौजूद दुकानदार, अपने दोस्तों और कई अन्य ग्राहकों की वजह से उनको कुर्सी पर बैठने के लिए नहीं कह सका। डर था कि कहीं कोई टोक ना दे। कहीं किसी को एक भीख मांगने वाली बूढ़ी महिला के उनके बराबर में बिठाए जाने पर आपत्ति न हो जाये। लेकिन वो कुर्सी जिस पर मैं बैठा था, मुझे काट रही थी। लस्सी कुल्लड़ों में भरकर हम सब मित्रों और बूढ़ी दादी के हाथों मे आते ही मैं अपना कुल्लड़ पकड़कर दादी के पास ही जमीन पर बैठ गया क्योंकि ऐसा करने के लिए तो मैं स्वतंत्र था। इससे किसी को आपत्ति नहीं हो सकती थी। हां, मेरे दोस्तों ने मुझे एक पल को घूरा, लेकिन वो कुछ कहते उससे पहले ही दुकान के मालिक ने आगे बढ़कर दादी को उठाकर कुर्सी पर बैठा दिया और मेरी ओर मुस्कुराते हुए हाथ जोड़कर कहा: ऊपर बैठ जाइए साहब! मेरे यहां ग्राहक तो बहुत आते हैं, किन्तु इंसान तो कभी-कभार ही आता है। दुकानदार के आग्रह करने पर मैं और बूढ़ी दादी दोनों कुर्सी पर बैठ गए हालांकि दादी थोड़ी घबराई हुई थी मगर मेरे मन में एक असीम संतोष था।