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  • गुरू की सीख

    गुरु रामदास विद्यालय में हिंदी शिक्षक के रूप में कार्य करते थे। गुरु रामदास बड़े दिनों बाद आज शाम को घर लौटते वक़्त अपने दोस्त गोपाल जी से मिलने उसकी दुकान पर गए। गोपाल जी शहर में कपड़े का व्यापार करते थे। इतने दिनों बाद मिल रहे दोस्तों का उत्साह देखने लायक था। दोनों ने एक दुसरे को गले लगाया और दुकान पर ही बैठ कर गप्पें मारने लगे। चाय पीने के कुछ देर बाद गुरु जी बोले, “भाई एक बात बता, पहले मैं जब भी आता था तो तेरी दुकान में खरीदारों की भीड़ लगी रहती थी और हम बड़ी मुश्किल से बात कर पाते थे। लेकिन आज स्थिति बदली हुई लग रही है, बस इक्का-दुक्का खरीदार ही दुकान में दिख रहे हैं और तेरा स्टाफ भी पहले से काफी कम हो गया है।” दोस्त बड़े ही मजाकिया लहजे में बोला, “अरे कुछ नहीं गुरु जी, हम इस मार्केट के पुराने खिलाड़ी हैं। आज धंधा ढीला है तो कोई बात नहीं। कल फिर जोर पकड़ लेगा और पुरानी रौनक वापस आ जाएगी।” इस पर गुरु जी कुछ गंभीर होते हुए बोले, “देख भाई, व्यापार में चीजों को इतना हलके में मत ले। मैं देख रहा हूँ कि इसी रोड पर कपड़ों की तीन-चार और बड़ी दुकाने खुल गयी हैं, प्रतियोगिता बहुत बढ़ गयी है…और ऊपर से…” गुरु जी अपनी बात पूरी करते उससे पहले ही, दोस्त उनकी बात काटते हुए बोला, “अरे ऐसी दुकानें तो बाजार में आती-जाती रहती हैं, इनसे अपने व्यापार में कुछ फर्क नहीं पड़ता।” गुरु जी विद्यालय के समय से ही, अपने दोस्त के हट को जानते थे और वो भली प्रकार समझ गए कि ऐसे समझाने पर वो उनकी बात नहीं समझेगा। कुछ समय बाद उन्होंने दुकान बंदी के दिन; दोस्त को अपने घर चाय पर बुलाया। दोस्त, निर्धारित समय पर उनके घर पहुँच गया। कुछ देर बातचीत के बाद गुरु जी उसे अपने घर में बनी एक व्यक्तिगत प्रयोगशाला में ले गए और बोले, “देख यार, आज मैं तुझे एक बड़ा ही रोचक प्रयोग दिखता हूँ।” गुरु जी ने कांच के एक बड़े से जार में गरम पानी लिया और उसमे एक जिंदा मेंढक डाल दिया। गरम पानी से सम्पर्क में आते ही मेंढक खतरा भांप गया और कूद कर जार से बाहर भाग गया। इसके बाद गुरु जी ने जार को खाली कर उसमें ठंडा पानी भर दिया, और एक बार फिर मेंढक को उसमे डाल दिया। इस बार मेंढक आराम से ठंडे पानी मे तैरने लगा। तभी गुरु जी ने एक विचित्र कार्य किया, उन्होंने जार में भरे ठंडे पानी को बर्नर की सहायता से धीरे-धीरे गरम करना प्रारंभ कर दिया। कुछ ही देर में पानी का तापमान बढ़ने लगा। मेंढक को ये बात कुछ अजीब लगी पर उसने खुद को इस तापमान के हिसाब से व्यवस्थित कर लिया। इस बीच बर्नर जलता रहा और पानी और भी गरम होता गया। पर हर बार मेढक पानी के तापमान के हिसाब से खुद को व्यवस्थित कर लेता और आराम से पड़ा रहता। लेकिन उसकी भी गर्म पानी सहने की एक क्षमता थी। जब पानी का तापमान काफी अधिक हो गया और खौलने को आया। तब मेंढक को अपनी जान पर मंडराते खतरे का आभास हुआ। और उसने पूरी ताकत से जार के बाहर छलांग लगाने की कोशिश की। पर बार-बार खुद को बदलते तापमान में ढालने में उसकी काफी उर्जा खर्च हो चुकी थी और अब खुद को बचाने के लिए न ही उसके पास शक्ति थी और न ही समय। देखते ही देखते पानी उबलने लगा और मेंढक की जार के भीतर ही मौत हो गयी। प्रयोग देखने के बाद दोस्त बोला- गुरु जी आपने तो मेंढक की जान ही ले ली। परंतु आप ये सब मुझ को क्यों दिखा रहे हैं? गुरु जी बोले, “मेंढक की जान मैंने नहीं ली। मेंढक ने खुद अपनी जान ली है। अगर वो बिगड़ते हुए माहौल में बार-बार खुद को व्यवस्थित नहीं करता बल्कि उससे बचने का कुछ उपाय ढूंढता तो वो आसानी से अपनी जान बचा सकता था। और ये सब मैं तुझे इसलिए दिखा रहा हूँ क्योंकि कहीं न कहीं तू भी इस मेढक की तरह व्यवहार कर रहा है। तेरा अच्छा-ख़ासा व्यापार है, पर तू बाजार की बदल रही परिस्थितियों के अनुसार कार्य नहीं कर रहा है, और बस ये सोच कर बैठ जाता है कि आगे सब कुछ अपने आप ठीक हो जाएगा। पर याद रख अगर तू आज ही हो रहे बदलाव के अनुसार खुद को नहीं बदलेगा तो हो सकता है इस मेंढक की तरह कल को संभलने के लिए तेरे पास भी न ऊर्जा हो, न सामर्थ्य हो और न ही समय हो।” गुरु जी की सीख ने दोस्त की आँखें खोल दीं, उसने गुरु जी को गले लगा लिया और वादा किया कि एक बार फिर वो परिवर्तन को अपनाएगा और अपने व्यापार को पुनः पूर्व की भांति स्थापित करेगा। सार - अपने सामाजिक व व्यापारिक जीवन में हो रहे बदलावों के प्रति सतर्क रहिये, ताकि बदलाव की बड़ी से बड़ी आंधी भी आपकी जड़ों को हिला न पाएं। ******

  • जीवन की सच्ची पूंजी

    एक बार एक शक्तिशाली राजा दुष्यंत घने वन में शिकार खेल रहा थे। अचानक मौसम बिगड़ गया। आकाश में काले बादल छा गए और मूसलाधार वर्षा होने लगी। धीरे-धीरे सूर्य अस्त हो गया और घना अंधेरा छा गया। अँधेरे में राजा अपने महल का रास्ता भूल गये और सिपाहियों से अलग हो गये। भूख प्यास और थकावट से व्याकुल राजा जंगल के किनारे एक ऊंचे टीले पर बैठ गये। थोड़ी देर बाद उन्होंने वहाँ तीन अबोध बालकों को खेलते देखा। तीनों बालक अच्छे मित्र दिखाई पड़ते थे। वे गाँव की ओर जा रहे थे। सुनो बच्चों, ‘जरा यहाँ आओ।’ राजा ने उन्हें बुलाया। बालको के वहाँ पहुंचने पर राजा ने उनसे पूछा, “क्या कहीं से थोड़ा भोजन और जल मिलेगा? मैं बहुत प्यासा हूँ और भूख भी बहुत लगी है।” बालकों ने उत्तर दिया, “अवश्य, हम घर जा कर अभी कुछ ले आते है।” बालक गाँव की ओर भागे और तुरंत जल और भोजन ले आये। राजा बच्चों के उत्साह और प्रेम को देखकर अत्यधिक प्रसन्न हुए। राजा बोले, “प्यारे बच्चों, मैं इस देश का राजा हूं और तुम लोगों से अत्यंत प्रसन्न हूं। तुम लोग जीवन में क्या करना चाहते हो? मैं तुम सब की सहायता करना चाहता हूँ।” राजा की बात सुनकर बालक आश्चर्यचकित हो गए व सोच में पड़ गए। कुछ देर विचारने के बाद एक बालक बोला, “मुझे धन चाहिए। मैंने कभी दो समय की रोटी भरपेट नहीं खायी है। कभी सुन्दर वस्त्र नहीं पहने है इसलिए मुझे केवल धन चाहिए। इस धन से, मैं अपनी आवश्यकताओं को पूरा करूंगा।” राजा मुस्कुरा कर बोले, “ठीक है, मैं तुम्हें इतना धन दूँगा कि जीवन भर सुखी रहोगे।” राजा के शब्द सुनते ही बालकों की ख़ुशी का ठिकाना न रहा। दूसरे बालक ने बड़े उत्साह से राजा की ओर देखा और पूछा, “क्या आप मुझे एक बड़ा-सा बँगला और घोड़ागाड़ी दे सकते हैं?” राजा ने कहा, “अगर तुम्हें यही चाहिए तो तुम्हारी इच्छा भी पूरी कर दी जाएगी।” तीसरे बालक ने बड़ी गंभीरता के साथ कहा, “मुझे न धन चाहिए न ही बंगला-गाड़ी। मुझे तो आप बस ऐसा आशीर्वाद दीजिए जिससे मैं पढ़-लिखकर विद्वान बन सकूँ और पूर्ण शिक्षित होकर मैं अपने देश की सेवा कर सकूँ।” तीसरे बालक की इच्छा सुनकर राजा अत्यंत प्रभावित हुआ। राजा ने उस बालक के लिए अपने राज्य में ही उत्तम शिक्षा का प्रबंध कर दिया। वह परिश्रमी बालक था, इसलिए दिन-रात एक करके उसने पढाई की और बहुत बड़ा विद्वान बन गया और समय आने पर राजा ने उसकी योग्यता को परख कर अपने राज्य में मंत्री पद पर नियुक्त कर लिया। कुछ समय बीता और एक दिन अचानक राजा को वर्षों पहले घटी उस घटना की याद आई। उन्होंने मंत्री से कहा, “वर्षों पहले तुम्हारे साथ जो दो अन्य बालक थे, अब उनका क्या हाल-चाल है। मैं चाहता हूँ कि एक बार फिर मैं एक साथ तुम तीनो से मिलूं, अतः कल अपने उन दोनों मित्रों को राजमहल में भोजन पर आमंत्रित कर लो।” मंत्री ने दोनों मित्रों को राजमहल में भोजन पर आने का संदेशा भिजवा दिया और अगले दिन सभी एक साथ राजा के सामने उपस्थित हो गए। “आज तुम तीनों मित्रों को एक बार फिर साथ देखकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। अपने मंत्री के बारे में तो मैं जानता हूँ। पर तुम दोनों अपने बारे में कुछ बताओ।” राजा ने मंत्री के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा। जिस बालक ने राजा से धन माँगा था वह दुखी होते हुए बोला, “राजा साहब, मैंने उस दिन आपसे धन मांग कर बहुत बड़ी गलती की। इतना सारा धन पाकर मैं आलसी बन गया और बहुत सारा धन बेकार की चीजों में खर्च कर दिया, मेरा बहुत सा धन चोरी भी हो गया। और कुछ एक वर्षों में ही मैं वापस उसी स्थिति में पहुँच गया जिसमें आपने मुझे देखा था।” बंगला-गाडी मांगने वाला बालक भी अपना रोना रोने लगा, “महाराज, मैं बड़े ठाट से अपने बंगले में रह रहा था, पर वर्षों पहले आई बाढ़ में मेरा सबकुछ बर्वाद हो गया और मैं भी अपने पहले जैसी स्थिति में पहुँच गया। दोनों बालकों की कहानी सुनकर राजा मुस्कुराए और जीवन में फिर कभी ऐसी गलती न करने की सलाह देकर उन्हें विदा किया। सार - धन-संपदा सदा हमारे पास नहीं रहती पर ज्ञान जीवन-भर मनुष्य के साथ रहता है और काम आता है और उसे कोई चुरा भी नहीं सकता। इसलिए सबसे बड़ा धन “विद्या” ही है।” ******

  • अंतिम बार

    "बाबू, ई प्योर शीशम के लकड़ी हौ।चमक नहीं देखत हौ, और हल्का कितना हौ लईकन सब पचासों साल बैठी तबो कुछ ना होई। "सीताराम बढ़ई की कही ये बातें जैसे लगती हैं कल की ही बात हो, लेकिन, इस बात को सुने अवधेश को सालों हो गये। अवधेश ने कमरे को एक बार फिर निहारा। करीने से सजे हुए बेंच और टेबल, जिस पर जगह-जगह धूल जम गई थी। सामने लगी ट्यूबलाइट उसको जैसे मुँह चिढ़ा रही थी। वो अपने अवचेतन में कहीं गहरा धँसता चला गया। आज से दस साल पहले जब उसने ये कोचिंग इंस्टीटयूट शुरू किया था। ये सोचकर कि जो तकलीफ उसे गाँव में उठानी पड़ी है। वो तकलीफ आसपास के लोगों को नहीं उठानी पड़े।वो, शिक्षक ही बनेगा। कितना अच्छा तो पेशा है।समाज में लोग कितना सम्मान देते हैं। सब लोग प्रणाम सर..... प्रणाम सर कहते नहीं थकते, और, उसे शुरू से किताबों से कितना लगाव रहा है।खुद भी पढ़ो और दूसरे लोगों को भी शिक्षित करो, लेकिन, इधर कोरोना के कारण पिछले एक-सवा साल से कोचिंग बंद थी। सरकार सब कुछ खोलने की अनुमति देती है, लेकिन कोचिंग इंस्टीटयूट पर जैसे उसे पाला मार जाता है। जिम, रेडिमेड, शापिंग माल, बस, ट्रेन, हवाई जहाज सब खुल गये हैं, लेकिन, सरकार को पढाई से ही चिढ़ है।कोचिंग वाले टैक्स नहीं देते ना! इसलिए भी सरकार इन लोगों को कोचिंग इंस्टीटयूट खोलने की अनुमति नहीं देती। अगर वो भी कोई जिम या शापिंग माल चलाता तो क्या सरकार उसको रोक लेती? नहीं, बिल्कुल नहीं! वो बहुत कोशिश करता रहा कि वो अपना कोचिंग इंस्टीटयूट बंद ना करे, लेकिन, घर में छोट-छोटे बच्चे हैं।उनके खाने पीने के लाले पड़ गये हैं। पिताजी को डॉक्टर को दिखाना है। दिसंबर आधा गुजर गया है।माँ का स्वेटर भी लेना है। ठंढ़ से काँपती रहती है। आखिर बूढ़ी काया में ताकत ही कितनी होती है। स्वेटर जगह-जगह से फट गया है, और स्वेटर के कुछ हिस्से तो छीजकर आर-पार भी दिखने लगे हैं।कई दिनों से माँ कह रही है। घर के अंदर तो पहन सकती हूँ, लेकिन, बाहर निकलते मुझे शर्म आती है। आखिर, लोग क्या कहेंगे।एक शिक्षक की माँ फटा हुआ स्वेटर पहने हुए है। रमा ने भी कई बार शॉल के लिए तगादा कर दिया है।कहती है आँगनबाड़ी जाते हुए ठंढ़ लगती है। अब रमा को शॉल भी एक दो दिन में खरीदकर देता हूँ। आखिर रमा की आँगनबाड़ी वाली नौकरी ना होती तो आज वे लोग कहीं भीख माँग रहे होते। उसको मिलने वाले छह हजार रूपये से ही तो घर अब तक चल रहा है।नहीं तो इस आपदा काल में कौन किसकी मदद करता है? सबसे जरूरी काम है पिताजी को डॉक्टर को दिखाना। उनकी खाँसी रुकती ही नहीं। आखिर, कितने दिनों तक मेडिकल से लेकर सिरप पिलाई जाये। सारी कंपनियों के सिरप एक-एक करके देख लिए। जितने रूपये सिरप और गोलियों पर खर्च किये।उतने में तो किसी अच्छे डॉक्टर को दिखला देते, लेकिन, डॉक्टर भी पाँच सौ से कम में नहीं मानेगा।कोरोना के समय में एक तो डॉक्टर सामने से देखते नहीं। आनलाइन दिखलाना है तो दिखलाओ नहीं तो जै राम जी की। उसने बेंच को छुआ तो धूल के साथ-साथ जैसे उसके हाथ में अतीत के खुरचन भी आ गये। टीचर्स डे और वसंत पंचमी पर कितना सजाते थे छात्र इस इंस्टीटयूट को। कैसा लकदक करता था यही इंस्टीटयूट छात्र-छात्राओं के हँसी ठहाकों से। अवधेश को कमरे की एक-एक चीज से प्रेम था। उसने इंटीरियर डिजाइनर से अपने इंस्टीटयूट को सजवाया था। गुलाबी पेंट, बढ़ियाँ कार्पेट, अच्छी कुर्सी और मेज।शानदार ब्लैकबोर्ड, टेबल के ऊपर सजे भाँति-भाँति के पेन।कैसे वो सफेद कमीज और काली पैंट पहन कर नियम से सुबह छह बजे ही नाश्ता-पानी करके चल देता था।फिर, देर रात गये ही घर लौटता।उसने नीचे ऊपर सब मिलाकर तीन-चार कमरे ले रखे थे। दो तीन और लड़को को भी रख लिया था। पहले काम के घंटे बढ़ते गये।उसके अंदर एक जूनून सा छाने लगा। फिर, छात्रों की बढ़ती संख्या को देखकर उसने रूम बढ़ा दिये। फिर, टीचर भी बढ़ाने पड़े।मिला जुलाकर साठ-सत्तर हजार रूपये महीने में वो कमा ही लेता था। फिर, धीरे-धीरे नई तकनीक आने से उसने कुछ कम्प्यूटर भी खरीद लिये और भी कई कमरे किराये पर ले लिये थे। और स्टाफ़ बढाया। खूब मेहनत करने लगा। वो अपने साथ-साथ और लोगों को भी रोजगार दे सकता है। ये सोचकर ही उसका सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था, और हमेशा उसे इस बात की खुशी रही।सब लोग हँसी खुशी से जी रहे थें। तभी कोरोना ने दस्तक दी और सबकुछ जहाँ का तहाँ जमकर रह गया।रोज सड़कों पर दौड़ने वाली उसकी स्कुटी घर में एक किनारे खड़ी हो गई। कभी-कभार कोई सामान लाने जाना होता तो, स्कुटी के भाग खुलते और वो रोड़ पर दौड़ती।नियमित आनेवाले टीचर्स अब दिखने बंद हो गये। पहले उसने औने-पौने दाम में कम्प्यूटर बेचे।शुरूआती दौर में तो तीन-चार महीने का लंबा लॉकडाउन लगा। अचानक से आने वाले पैसे आने बंद हो गये।खर्च ज्यों-का-त्यों।बहुत बचत करने की आदत शुरू से नहीं रही। पैसा आता था तो पता नहीं चलता था।कितना भी खर्च कर लो।कोई फर्क नहीं पड़ता था, लेकिन, अचानक से पैसे आने बंद होने से दिमाग जैसे सुन्न पड़ने लगा। जरुरी चीजों को तो नहीं टाला जा सकता था, लेकिन, गैर जरूरी चीजों पर सख्त पाबंदी लगा दी गई।चाऊमिन, पिज़्ज़ा मोमोज़ सब बंद। फिर, इंस्टीटयूट के मकान मालिक का तगादा बढ़ने लगा। नीचे के अतिरिक्त लिए गये कमरे को गैर जरूरी समझकर छोड़ दिया गया।ये सोचकर कि पता नहीं कितना लंबा लॉकडाउन चलेगा, और हर महीने का किराया भी चढ़ता जायेगा। सारे-के-सारे कम्प्यूटर पहले ही बिक चुके थें। कमरे वैसे भी खाली ही थे।सारे फर्नीचर को दो कमरों में समेटा गया, और कमरों की चाभी साल भर पहले ही मकान मालिक को सौंप दी गई। ये सोचकर कि आज नहीं तो कल जब सब कुछ ठीक-ठाक हो जायेगा तो फिर, से कमरे को किराये पर ले लिया जायेगा। लेकिन, जब दूसरी लहर आयी और फिर, डेढ़ दो महीने का लॉकडाउन लगा, तो रमा जैसे बिफरती हुई बोली- "क्या, कोचिंग इंस्टीटयूट के अलावा दूसरा कोई काम नहीं है? पेपर बेचो, सब्जी बेचो, फल बेचो कुछ भी करो। लेकिन, अब घर की हालत मुझसे देखी नहीं जाती, और मेरी आँगनबाड़ी की कमाई से कुछ होने जाने वाला नहीं है। वो ऊँट के मुँह में जीरा का फोरन जैसा साबित हो रहा है। तुम जल्दी कुछ करो। नहीं तो मैं बच्चों को लेकर अपने मायके चली जाऊँगी।" और यही सोचकर अवधेश ने ये फैसला किया था, कि अब और इंतजार करना मूर्खता के सिवाय कुछ नहीं है। हो सकता है सालों कोरोना खत्म ना हो।तब तो सालों उसका इंस्टीटयूट बंद रहेगा। रमा ठीक कहती है। मुझे अपना इंस्टीटयूट बंद करके कोई और काम करना चाहिए।नहीं तो घर कैसे चलेगा? और यही सोचकर उसने एक जरूरत मंद संस्था को बहुत कम कीमत पर अपना फर्नीचर बेचने का फैसला किया था। "भैया, आटो वाला आ गया है, सामान लेने।" रघुवीर ने टोका तो अवधेश अतीत के नर्म बिस्तर से हकीकत की ठोस जमीन पर गिरा। " हुँ... हाँ... कौन रघुवीर अच्छा आटो वाला आ गया। चलो अच्छा है।" अवधेश के भीतर कुछ पिघला, कार्पेट, दीवार, टेबल या छत या कि दस साल का सुहाना सफर और उसकी आँखे भींगनें लगी। उसने आखिरी बार कमरे को गौर से निहारा। लगा जैसे सब कुछ छूटा जा रहा है, और वो किसी भी कीमत पर उसे नहीं छोड़ना चाहता। रघुवीर ने पूछा- "क्या हुआ भईया..?" लेकिन, अवधेश, रघुवीर की बातों का कोई जबाब नही दे सका। बस भर्राये गले से बोला- "कुछ नहीं रघुवीर.. l" शाम का धुँधलका गहराने लगा था। उसे लगा कमरे को पलटकर अंतिम बार देख ले। लेकिन, उसकी हिम्मत नहीं पड़ी।धीरे-धीरे नीम अंधेरे में वो सीढ़ियों से नीचे उतर गया। ************

  • खाली कागज का कमाल

    तुषार भूख से व्याकुल था। सुबह से चाय तक पीने को नहीं मिली थी। इस अनजान जगह में अपहरण करके लाए हुए चार दिन हो चुके थे किंतु वह अभी तक अपने उस अपहरणकर्ता को ढंग से पहचान भी नहीं पाया है। पहचाने भी कैसे, उसका लगभग आधा चेहरा तो बड़े फ्रेम के काले चश्मे में छिपा रहता है। मम्मी-पापा, पप्पू-सोनू, दादी माँ चार दिन से कितने परेशान होंगे। किसी से खाना भी नहीं खाया गया होगा। पापा ने शायद अखबार में फोटो निकलवाया होगा। थाने में भी रिपोर्ट लिखाई होगी। सोचते-सोचते वह फिर रोने लगा। वह भी कितना पागल था, जो बातों में आ गया। इस तरह अपहरण करके ले जाने के कितने क़िस्से-कहानियाँ वह पढ़ता-सुनता रहा है फिर भी अपना अपहरण करा बैठा। हैड मास्टर साहब ने बुलाकर कहा था, "तुषार तुम्हारे घर से किसी का फोन आया है कि आज ड्राइवर कार लेकर तुम्हें लेने नहीं आ सकेगा वे फैक्ट्री के रमेश नाम के नौकर को भेज रहे हैं, वह काला चश्मा लगाता है, तुमको पहचानता भी है, उसके साथ टैक्सी करके आ जाना।' छुट्टी के समय स्कूल के गेट पर पहुँचते ही काला चश्मा लगाए हुए एक आदमी आगे आया "चलिए छोटे साहब।' "तुमने मुझे कैसे पहचान लिया,...मैंने तो तुम्हें पहले कभी नहीं देखा।' "पहले मैं चश्मा नहीं लगाता था। कुछ दिन पहले आँख का ऑपरेशन करवाया है, तभी से लगाने लगा हूँ. इसीलिए आप नहीं पहचान पा रहे हैं।' "चलो जल्दी से टैक्सी पकड़ो। बहुत ठंडी हवा है, सर्दी लग रही है।' पास में खड़ी एक टैक्सी में वे बैठ गए थे जिसे एक सरदार जी चला रहे थे। तभी उसने चौंक कर कहा - "रमेश टैक्सी गलत रास्ते पर जा रही है।' "खैर चाहते हो तो चुपचाप बैठो, खबरदार जो शोर मचाया।' टैक्सी के चारों तरफ के शीशे बंद थे। चिल्लाने पर भी आवाज बाहर नहीं जा सकती थी। इसीलिए वह सहम कर चुप हो गया। न जाने कितनी सड़कें, चौराहे, गलियाँ, मोड़ पार करने के बाद एक सुनसान जगह कुछ खँडहरों के बीच टैक्सी उन्हें उतार कर चली गई। एक-दो घंटे बाद रात घिर आई थी। चारों तरफ गहरा अंधेरा था। एक-दूसरे को ठीक से देख पाना भी मुश्किल था। तब उसे बहुत पैदल चलना पड़ा, उसके बाद एक कोठरी में बंद कर दिया गया था। दरवाजे पर ताला खुलने की आवाज से उसका ध्यान भंग हुआ। उसने अंदाजा लगाया कि चश्मे वाला आदमी खाना लेकर आया होगा, दरवाजा खुलने के साथ ही हल्का सा प्रकाश भी कमरे में घुस आया। उसकी नजर चश्मे वाले के पैरों पर पड़ी। उसके दोनों पैरों में छह-छह उँगली थीं। तभी उसे अपने घर में काम कर चुके एक नौकर रमुआ का ख्याल आया। उसने अपने मम्मी-पापा से सुना था कि उसके हाथ-पैरों में छह-छह उँगलियाँ थीं... रंग गोरा था, एक आँख की पुतली पर सफेदी फैली थी। जब वह स्वयं चार-पाँच वर्ष का था तभी अलमारी में से गहने निकालते हुए मम्मी ने रमुआ को पकड़ा था...पापा के आने तक वह भाग चुका था। रमुआ की उसे याद नहीं है पर अब वह चश्मे में छिपी उसकी आँखें देखना चाहता था। वह कागज में रोटी- सब्जी रख कर उसे खाने को दे गया था। दरवाजे में कई सुराख थे जिसमें से काफी रोशनी अंदर आ सकती थी किंतु उस पर बाहर से किसी कपड़े का पर्दा डाल दिया गया था जिससे कमरे में अंधेरा रहता और वह बाहर भी नहीं देख सकता था। भूख उसे तेजी से लगी थी। मोटी-मोटी रोटियों को छूते ही उसे फिर माँ याद आ गई। माँ के हाथ के बने करारे परांठे याद आ गए। मन न होते हुए भी उसने रोटी खाई व लोटे से पानी पी गया। अभी वह गिलास में चाय देकर बाहर निकला ही था कि कमरे में रोशनी की एक रेखा देखकर उसने किवाड़ की दरार से बाहर झाँका। वह आदमी चश्मा हाथ में लिए सरदार से बातें कर रहा था। यह देखकर उसकी खुशी का ठिकाना न रहा कि उसकी एक आँख खराब थी उसमें सफेदी फैली थी। उसने प्रसन्नता से अपनी पीठ स्वयं थपथपाई कि वह भी कहानी के पात्रों जैसा नन्हा जासूस हो गया है। तभी उसकी आशा पुन: निराशा में बदल गई। ठीक है उसने जासूसी करके अपहरणकर्ता का पता लगा लिया है, उसे पहचान लिया है लेकिन क्या फायदा.. यह जानकारी वह घर या पुलिसवालों तक कैसे पहुँचाए, पाँच दिन हो चुके हैं। किसी भी दिन यह मुझे मार डालेंगे। वह फिर सुबकने लगा। किवाड़ों पर हुई खटपट की आवाज सुनकर उसने सोचा, अभी तो वह चाय देकर गया था पुन: क्यों आ रहा है.. क्या पता कहीं दूसरी जगह ले जाए या हो सकता है मार ही दे। चश्मे वाले ने उसके हाथ में एक लिफाफा थमाया और कहा, "पेन तुम्हारे बस्ते में होगा, कागज भी होगा। अपने पापा को पत्र लिखो कि जिंदा देखना चाहते हैं तो माँगी हुई रकम बताई हुई जगह पर पहुँचा दें। पुलिस को बताने की कोशिश हर्गिज़ न करें वर्ना बेटे को हमेशा के लिए खो देंगे।' किसी के खाँसने की आवाज सुन कर वह बाहर जाते हुए बोला, "दरवाजे का पर्दा हटा देता हूँ, कमरे में रोशनी हो जाएगी। जल्दी से पत्र लिख दो, लिफाफे पर पता भी लिख दो, मैं अभी आकर ले जाऊँगा।' "वाह बेटे, तुम तो बहुत तेज हो। जैसा मैंने कहा था वैसा ही लिख दिया। पत्र को खाली कागज में क्यों लपेट दिया है ?' उसने कागज को उलट-पलट कर देखते हुए कहा। "थोड़ी देर पहले आप कह रहे थे बादल हो रहे हैं, पानी बरस सकता है। इसीलिए पत्र को खाली कागज में लपेट दिया है। लिफाफा भीग भी जाए तो पत्र न भीगे। अक्षर मिट गए तो पापा पढ़ेंगे कैसे। फिर मुझे कैसे ले जाएँगे।' "शाबाश ठीक किया तुमने।' पत्र गए तीन दिन हो चुके थे। इस बीच वह सोते-जागते तरह-तरह की कल्पनाएँ करता रहा था। सपने में कभी उसे चश्मे वाला छुरा लिए अपनी तरफ आता हुआ दिखता। कभी सब बीमार माँ के पास बैठे हुए दिखाई देते। कभी उदास खड़े पापा दिखते, कभी रोती हुई बहन दिखती। तभी उसे एक तेज आवाज सुनाई दी- "तुषार... तुषार, तुम कहाँ हो' अरे यह तो पापा की आवाज है। वह चौंक कर उठा और दरवाजा पीटने लगा -" पापा मैं यहाँ हूँ, इस कोठरी में।' तभी ताला तोड़ने की आवाज आई। दरवाजा खुलते ही पहले दरोगा जी अंदर आए फिर पापा आए। वह पापा से लिपट कर जोर-जोर से रोने लगा।...पापा भी उसे सीने से लगाए रो रहे थे - "मेरे बेटे मैं आ गया, तू ठीक तो है न?' घर जाते हुए उसने रास्ते में पूछा - "पापा उस दिन कार मुझे लेने क्यों नहीं आई थी।' "बेटे फोन पर किसी ने कहा था कि आज स्कूल में फंक्शन है। तुषार को लेने के लिए कार दो घंटे लेट भेजना, ऐसा कई बार हो चुका है... हमें क्या पता था कि धोखा हो सकता है।' घर पर उसे देखने वालों की भीड़ इकट्ठी थी। सब इतने खुश थे, जैसे कोई उत्सव हो। सबको मिठाई बाँटी जा रही थी। तभी उसने पूछा- "मम्मी उस घर का पता कैसे लगा?' "जब अपहरणकर्ता का ही पता लग गया फिर उसके घर का पता लगाना कौन सा मुश्किल था।...सब तेरे उस पत्र के साथ आए खाली कागज का कमाल है।' "माँ, उस कागज को पढ़ा किसने ? मैंने तो अंधेरे में तीर मारा था। मुझे उम्मीद नहीं थी कि कोई उसे पढ़ पाएगा।' पप्पू ने गर्व से सीना फुलाकर कहा - "भैया मैंने पढ़ा था।' "तूने! तूने कैसे पढ़ा ?' "चार-पाँच दिन पहले तुम्हारे दोस्त संदीप भैया आए थे। उदास थे, बहुत देर बैठे रहे। वही बता रहे थे कि अपहरण वाले दिन उन्होंने तुम को एक पेन्सिल दी थी जिसका लिखा कागज पर दिखाई नहीं देता। उन्होंने पढ़ने की तरकीब भी बताई थी। तुम्हारे पत्र के साथ आए खाली कागज को पापा ने उलट-पलट कर बेकार समझ कर फेंक दिया था। मैं तब खाना खा रहा था। मुझे संदीप भैया की बात याद आ गई। मैंने कागज उठा लिया और उस पर दाल की गर्म कटोरी रख कर घुमादी।....देखते ही देखते कागज पर लिखे तुम्हारे अक्षर चमकने लगे। बिना पढ़े ही मैं उसे लेकर पापा के पास गया। पत्र से पता लग गया कि अपहरण रमुआ ने किया है फिर क्या था, घर में हलचल मच गई। पापा तभी पुलिस स्टेशन गए और उनकी सहायता से तुम्हें ढूँढ़ लाए।' तभी पापा खुशी से चहकते हुए घर में घुसे और कुर्सी पर आराम से बैठते हुए बोले- "साला रमुआ भी पकड़ में आ गया है।' फिर कुछ ठहर कर पूछा - "तुषार बेटे उस खाली कागज का रहस्य क्या था?' "भैया क्या वह जादू की पेन्सिल थी?' "अरे नहीं, जादू कैसा, असल में वह पेन्सिल मोम की थी इसीलिए उसके लिखे अक्षर कागज पर दिखाई नहीं दे रहे थे। पप्पू ने उस पर गर्म कटोरी रख दी, गर्मी पाकर मोम पिघल गया और अक्षर स्पष्ट दिखने लगे, यही उसका रहस्य था।' "भाई कुछ भी हो खाली कागज ने कमाल कर दिखाया। वर्ना पता नहीं तुझे फिर से देख भी पाते या नहीं।' माँ की आँखों में हर्ष के आँसू थे।' *****************

  • बदरंग जिंदगी

    दामोदर को एहसास हुआ कि उसे फिर, से पेशाब लग गई है।पता नहीं उसका गुर्दा खराब हो गया है, या शायद कोई और बात है।अब, बिना डॉक्टर को दिखाये उसे कैसे पता चलेगा कि उसको बार-बार पेशाब क्यों आता है? ऐसा नहीं है कि उसने डॉक्टर को नहीं दिखाया। उसने कई-कई डॉक्टरों को दिखाया, लेकिन, समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। उसे लगातार पेशाब आना बंद ही नहीं होता है। वो आखिर करे भी तो क्या करे? अब उसका डॉक्टरों पर से जैसे विश्वास ही उठ गया है। उसे लगता है कि उसके मर्ज की दवा शायद अब किसी भी डॉक्टर के पास नहीं है। कभी-कभी उसे ऐसा भी लगता है कि वो एक ऐसे जँगल में पहुँच गया जहाँ से उसे बाहर निकलने का रास्ता ही नहीं सूझ रहा है, और, वो उसी जँगल में आजीवन भटकता रहकर कहीं मर-खप जायेगा। उसे अपने जीवन में सब कुछ अच्छा लगता है, लेकिन, उसे अच्छा नहीं लगता कि उसे बार-बार पेशाब आये।ज्यादा पेशाब आने से उसे बार-बार पेशाब करने काम को छोड़कर जाना पड़ता है। उसके मालिक, यानि कारखाने के मालिक, उसकी इस हरकत पर बड़ी बारीक नजर रखे हुए रहते हैं, और वो तब मन ही मन भीतर से कटकर रह जाता है। जब, मालिक उसे टेढ़ी नजर से देखते हैं, और, मन ही मन गुर्राते हैं। और भला गुर्राये भी क्यों ना? उसे छह हजार रुपये महीने भी तो देते हैं, और वो इधर साल भर से काम भी तो ठीक से नहीं कर पा रहा है। उसको कभी-कभी खुद भी लगता है कि वो काम छोड़ दे, और अपने घर पर ही रहे। तब तक, जब तक की उसकी बार-बार पेशाब करने वाली बीमारी खत्म ना हो जाये, लेकिन अगर वो काम छोड़ देगा तो खायेगा क्या? बार-बार ये सवाल उसके दिमाग में कौंध जाता है। अमन की उम्र भी भला क्या है? मात्र उन्नीस साल! इतने कम उम्र में ही उसने पूरे घर की जिम्मेदारी संभाल ली है। ऐसे उम्र में दूसरे बच्चे जब बाप के पैसे पर कहीं किसी कॉलेज में अय्याशी कर रहे होते हैं। उस समय अमन सारे घर को देखने लगा है। आखिर क्या होता है आजकल छ: हजार रूपये में? आज अगर अमन को मिलने वाले पँद्रह हजार रूपये उसको नहीं मिलते तो क्या वो घर चला पाता? नहीं बिल्कुल नहीं! और अमन हर महीने याद करके उसकी दवा ऑनलाइन खरीदकर भेज देता है। नहीं तो उसकी सैलरी में तो वो अपनी दवा तक नहीं खरीद पाता। आज एक दवा खरीदने जाओ तो, वो दो सौ रूपये का मिलता है, लेकिन अगले महीने जाओ तो कंपनी उसी दवा पर दस-बीस फीसदी रेट बढ़ा देती है, और, आजकल डॉक्टर के केबिन के बाहर मरीजों से ज्यादा उसे मेडिकल रि-पर्जेंटेटिव वाले लड़के ही दिखाई देते हैं। मरीजों को ठेलते-ठालते अंदर घुसने को बेताब दिख पड़ते हैं ये लड़के! जो, थोड़ी बहुत भी नैतिकता डॉक्टरों में बची थी। वो इन कमबख़्त दवा कंपनियों ने खत्म कर रखी है।रोज एक दवा कंपनी बाजार में उतर जाती है और, उसके ऊपर दबाव होता है, अपने प्रोडक्ट की मार्केटिंग का। जहाँ चूकते-चूकते आखिरकार डॉक्टर भी हथियार डाल ही देते हैं।रोज एक नया चेहरा वैसे ही एक कृत्रिम मुस्कुराहट ओढ़े हुए उनके केबिन में दाखिल हो जाता है, और ना चाहते हुए भी वो उनकी दवा मरीजों को लिख देते हैं।दवाओं पर मनमाना दाम कंपनी लगाती है और कंपनी के टार्गेट और मुनाफे के बीच फँस जाते हैं उसके जैसे लोग। उसको लगा वो कुछ देर और रूका तो उसका पेशाब पैंट में ही निकल जायेगा। लोग उसकी इस बीमारी पर बुरा सा मुँह बनाते हैं।खास कर उसके सहकर्मी, और उसने अपनी बहुत देर से दबी हुई इच्छा आखिरकार, दिनेश को बताई। दिनेश उसका साथी है। रोज काम करने बैरकपुर से रघुनाथपुर वो दिनेश की मोटर साइकिल से ही आता जाता है। उसके पास अपनी मोटरसाइकिल नहीं है। उसका घर, दिनेश के घर के बगल में ही है इसलिए वो उसकी मोटरसाइकिल से ही काम पर आता जाता है। "दिनेश मैं आता हूँ, पेशाब करके।" इतना कहकर वो निपटने के लिए जाने लगा, लेकिन, तभी दिनेश की बात को सुनकर रूक गया। दिनेश ने कारखाने से छुट्टी होने के बाद अभी कारखाने का गेट बंद ही किया था कि दामोदर की इस अप्रत्याशित बात को सुनकर झुँझला पड़ा- "अगर, तुम्हें पेशाब करने जाना ही था, तो कारखाना बंद होने से पहले ही चले जाते, और हाँ, अभी तुम थोड़ी देर पहले भी तो पेशाब करने गये थे।पता नहीं तुमको कितना बार पेशाब लगता है? एक हमलोग हैं। कारखाना में घुसने के बाद बहुत मुश्किल से दो या ज्यादा से ज्यादा तीन बार जाते होंगे, लेकिन, तुमको तो दिन भर में पचास बार पेशाब लगता है।पता नहीं क्या हो गया है तुम्हें? किसी अच्छे डॉक्टर को क्यों नहीं दिखाते?" दामोदर के चेहरे पर जमाने भर की कातरता उभर आई। उसके सूखे हुए बदरंग चेहरे पर नजर पड़ते ही दिनेश का दिल भी डूबने लगा, और वो उसकी परेशानी को समझते हुए बोला - "ठीक है जाओ, लेकिन, जरा जल्दी आना। आज मुझे मेरे बेटे को पार्क लेकर जाना है। घूमाने के लिए। वो पिछले कई हफ्तों से कह रहा है। पापा, आप कभी मुझे पार्क लेकर नहीं जाते। आज अगर मैं जल्दी नहीं गया तो वो फिर सो जायेगा और कल फिर, से वही तमाशा करेगा घूमने जाने के लिए। अखिर, इन मालिक लोगों के लिए सुबह नौ बजे से रात को नौ बजे तक काम करते-करते अपने बाल-बच्चों को कहीं घूमाने का समय ही नहीं मिल पाता।" "हाँ आता हूँ।" कहकर दामोदर जल्दी से पान मसाला की एक पुड़िया फाड़कर अपने मुँह में डालता हुआ, पेशाब करने चला गया। दामोदर, सेठ घनश्याम दास के यहाँ पिछले बीस सालों से काम करता आ रहा। दिनेश अभी नया-नया है। दोनों गाड़ी पर बैठे और, अपने गंतव्य की ओर चल पड़े। बात के छोर को दिनेश ने पकड़ा- "तुम्हे ये बीमारी कब से हुई है, और तुम इसका इलाज क्यों नहीं करवाते दामोदर?" दामोदर बोला- "अरे भईया इलाज की मत पूछो। पिछले लॉकडाउन में, मैं अपनी सोसाइटी की गेट पर खड़ा-खड़ा ही बेहोश होकर गिर पड़ा था। वो, तो बगल के एक दुकानदार ने देख लिया, और सोसाइटी के गार्ड की मदद से मुझे मेरठ भिजवाया। सात दिनों तक "जैक" हास्पिटल में रहा। एक दिन का पँद्रह हजार रुपये चार्ज था वहाँ का।केवल सात दिनों में ही एक लाख रूपये से ज्यादा उड़ गये। फिर, मेरे लड़के ने नर्सरी हास्पिटल में मुझे भर्ती कराया। तब जाकर अभी मेरी हालत में कुछ सुधार आया है। अगर वो, दुकानदार और गार्ड़ ना होते तो आज मैं तुम्हारे सामने जिंदा ना होता।" "और, सारा खर्चा कहाँ से आया। सेठजी ने कुछ मदद की या नहीं?" दिनेश बाइक चलता हुआ बोला। "अरे, मुझे कहाँ होश था। लड़का बता रहा था उसने मालिक को फोन करके पैसे माँगे थे, लेकिन मालिक की सुई दो हजार पर अटकी हुई थी। बड़ी हील-हुज्जत के बाद उन्होंने पाँच हजार रूपये दिए।" "बाकी के पैसों का इंतजाम कैसे हुआ?" "कुछ अगल-बगल से कर्ज लिया, और बाकी मेरे ससुर जी ने लगभग चार लाख रूपये देकर मेरी मदद की। तब जाकर मेरी जान बची।" मोटर साइकिल एक मेडिकल स्टोर के बगल से गुजरी। दामोदर ने दिनेश को गाड़ी रोकने के लिए कहा। और, वो लपकता हुआ मेडिकल स्टोर की तरफ बढ़ गया। उसकी दवा खत्म हो गयी थी। उसने दुकानदार को पर्ची दिखाई दुकानदार ने पर्ची को बड़े गौर से देखा और दवाई निकालकर उसने काउंटर पर रख दिया और दामोदर से बोला- "इस बार भी कंपनी ने दवा का दाम बढ़ा दिया है। उसनें एम. आर. पी. पर नजर डालते हुए कहा। पिछले बार ये दो सौ पचास रुपये की आती थी, अब दो सौ सत्तर रूपये लगेंगे। क्या करूँ दे दूँ?" दामोदर ने जेब में हाथ डाला, और पैसे गिने एक-दो उसके पास दो सौ रूपये थे। उसी में उसे रास्ते में घर के लिए एक लीटर दूध भी लेना था। पैसा नहीं बचेगा उसने दुकानदार से कहा- "फिलहाल मुझे दो दिन की दो गोली दे दो। बाकी जब तनख्वाह मिलेगी तब आकर ले जाऊँगा।" दवा लेकर खुदरा पैसा उसने जेब के हवाले किया और वापस आकर बाइक पर बैठ गया। रास्ते में उसने एक लीटर दूध भी लिया। घर, पहुँचकर उसने हाथ मुँह धोया और पलंग पर लेट गया।तब तक उसकी पत्नी रूची चाय बनाकर ले आयी।एक प्याली उसने दामोदर को दी और दूसरी प्याली खुद लेकर चाय पीने लगी। चाय पीते-पीते वो, बोली- "आज, घर का मकान मालिक, आया था और घर का किराया भी माँग रहा था। कह रहा था कि दो महीने का किराया तो पूरा हो ही गया है, और, अब तीसरा महीना भी लगने वाला है। आप लोग जल्दी से जल्दी किराया दीजिये नहीं तो घर खाली कर दीजिए।" "ये हरीश भी अजीब आदमी है। वो जानता है, कि अभी कोविड़ का समय है, और ऐसी नाजुक स्थिति है। यहाँ हम लोग दाने-दाने को तरस रहे हैं। एक टाइम माड़-भात तो एक टाइम पानी या शर्बत पीकर ही काम चला रहे हैं। एक तो खाने-पीने वाले राशन की परेशानी। उस पर से हर महीने का किराया। आखिर कहाँ से लाकर दे आदमी इस गाढ़े समय में किराया? इन ढ़ाई महीनों में वो पहले ही अपने जान पहचान के सभी लोगों से कर्ज ले चुका है। अभी उसने पहले से लिए कर्ज को ही नहीं चुकाया है, तो ये कमरे का किराया कहाँ से लाकर देगा? उसको भी सोचना चाहिए। दो-ढ़ाई महीने से दुकान बंद है। जब मालिक से पैसा मिलेगा तब उसको किराया भी मिल ही जायेगा।कौन से हम भागे जा रहे हैं?" दामोदर को लगा जैसे उसके सीने पर किसी ने बहुत भारी पत्थर रख दिया हो। जिससे उसका साँस फूलने लगा हो, और अब तब में उसका दम घुट जायेगा, और वो वहीं पलंग पर खत्म हो जायेगा। वो उठकर पलंग पर बैठ गया। "आज माँ का फोन भी आया था।कह रही थीं कि एक बार में ना सही लेकिन, किस्तों में ही चार लाख रुपये थोड़ा-थोड़ा करके लौटा दें। मेरी छोटी बहन निम्मो की शादी तय हो गयी है। अगले साल कोई अच्छा सा लगन देखकर पिताजी निम्मो की शादी कर देना चाहते हैं। तुमसे सीधे-सीधे कहते नहीं बना तो, उन्होंने माँ से फोन करके कहलवाया है।" रुची ने डरते-डरते धीरे से कहा। "ठीक है, उनका भी कर्ज, हम लोग चुका देंगे, लेकिन, थोड़ा समय चाहिए।" दामोदर छत को घूरते हुए बोला। रात काफी गहरा चुकी थी।रुची कब की सो गई थी। लेकिन, दामोदर को नींद नहीं आ रही थी। रह-रह कर वो बदरंग हो चुकी दीवार और छत को घूरता जा रहा था।उसे कभी-कभी ये भी लगता है कि उस दीवार और छत की तरह ही उसकी जिंदगी भी बदरंग हो गई है। एक दम बेकार पपड़ी छोड़ती, और सीलन से भरी हुई! क्या पाया आज उसने पचास-पचपन साल की उम्र में? कुछ भी तो नहीं! ताउम्र वो खटता रहा लेकिन, उसके हाथ में क्या लगा? सिवाये शून्य के! एक नपी तौली जिंदगी जो, खुशी से ज्यादा उसे दु:ख ही देती रही।ज्यादातर वक्त अभाव में ही बीता।अचानक उसे लगा कि उसे फिर, से पेशाब लग गया है, वो उठकर फारिग होने चला गया। आकर वापस लेटा तो रूची की नींद खुल गई। उबासी लेती हुई रूची ने पूछा- "क्या हुआ नींद नहीं आ रही है क्या?" "नहीं। लगता है पलंग में खटमल हो गये हैं, और मुझे काट रहे हैं।" दामोदर बिछौना ठीक करता हुआ बोला। रूची ने अच्छा कहा और उबासी लेती हुई फिर, से सो गई। उसके बगल वाला कमरा उसकी बेटी प्रीती का है। पापा के आने की आहट पाकर उसने जल्दी से अपने कमरे की बत्ती बंद कर ली। लेकिन, दामोदर के दिमाग में एक नई दुश्चिंता ने घर करना शुरू कर दिया। आखिर इस साल प्रीति का पच्चीसवाँ लगने वाला है। आखिर कबतक जवान लड़की को कोई घर में रखेगा। कल को कहीं कुछ ऊँच-नीच हो गई तो! तमाम दुश्चिंताओं के बीच दामोदर रात भर करवटें बदलता रहा। लेकिन, उसे नींद नहीं आई। *********

  • अवीर गुलाल की होली

    चंपक वन में होली मनाने की तैयारी में सभी जानवर जी जान से जुटे हुए थे। क्या छोटा क्या बड़ा सभी जानवर अपनी-अपनी खरीदारी में लगे हुए थे। चंपक वन का प्रधान मंत्री टनटन हाथी ने सारे चंपक वन में मुनादी करवा दी कि इस साल हमारे घर आ कर सभी जानवरों को होली मनानी होगी। होली पर सभी को बढ़िया बढ़िया पकवान खाने को मिलेगा। तथा बेहतरीन होली खेलने वाले जानवर को हमारे तरफ से पुरस्कार भी दिया जाएगा। मुनादी सुन कर सारे जानवर बहुत खुश हुए। होली के दिन प्रधान मंत्री टनटन हाथी के घर जानवरों का आना शुरू हो गया। सबसे पहले मिन्टू हिरन, बिट्रटू जेबरा और ओम ओम भालू एक साथ पधारे। फिर बारी-बारी से छोटू खरगोश, चिन्टू गैड़ा, बंटू बंदर, विकी सियार, चुन्नू चूहा, रिंकी गिलहरी और लम्बू जीराफ आकर जमा हो गए। प्रधान मंत्री टनटन हाथी का दोस्त मिन्टू हिरन पूछ पड़ा यार टनटन तुम्हारे इस होली प्रोग्राम में दारा शेर, बीरू बाघ, चंदू चीता और यीशु गैंड़ा अभी तक क्यों नही आए? हमें क्या पता क्यों नही आए मगर बुलावा तो हमने सबको दिया था। क्या पता वे सब कहीं और गए हो और देर से आए तब तक आप सब जानवर मिल कर भोजन कीजिए प्रधान मंत्री टनटन हाथी कह कर चुप हो गए। कुर्सी पर बैठे सभी जानवरों के आगे लगे मेज पर पकवानों से भरी थाली मोनू वनमानुष द्वारा रखा जाने लगा। सारे जानवर अपनी-अपनी थाली में गोझियां, मालपुआ, खड़पुडी, गुलगुला, रसगुल्लापुड़ी, पोलाव, मटर-पनीर तथा सलाद देख कर खुशी से फुले नही समाए। खाने की थाली अपनी ओर खिंच कर सभी जानवर खाना खाने लगे। तभी एक चमचमाती गाड़ी से दारा शेर, बीरू बाघ, चंदू चीता और यीशु गैड़ा वहां आए और गाड़ी से बाहर निकल कर खाने की कुर्सी पर जा बैठे। तभी प्रधान मंत्री टनटन हाथी सबसे पूछ पड़ा आप सब को आने में इतना देर क्यों हो गई? इतना सुनना था कि दारा शेर बोल पडा हम चारों मित्रों को होली मनाने के लिए नंदन वन के राजा पहलवान शेर का बुलावा आ जाने से हम सब वहीं होली खेलने चले गए थे। इसलिए यहां आने में देर हो गई। मोनू वनमानुष ने चारो मित्रों के सामने पकवानों से भरी थाली खाने के लिए रख दिए। सभी मित्र एक साथ खाना खाने लगे। खाना खाने के बाद होली खेलने के लिए अपनी-अपनी पिचकारी और रंग अपने-अपने हाथों में उठा लिया। तभी दारा शेर बोल उठा हम सब नंदन वन से अवीर गुलाल की होली खेल कर आ रहे हैं, इसलिए हम चाहते हैं यहां पर भी अवीर गुलाल की होली खेली जाए। ताकी हम जहरीले केमिकल वाले रंगों से बच सकें। हमारा सुझाव सबको पसंद है तो हां या ना में जवाब दे। दारा शेर की बात सुन कर सारे जानवर एक साथ बोल पड़े हम सब अवीर गुलाल की होली खेलना चाहते है। इतना सुनना था कि दारा शेर, टनटन हाथी और सारे जानवर एक दूसरे के माथे और गाल पर अवीर गुलाल लगा कर खूब मजे से होली मनाने लगे। होली समाप्त होते ही प्रधान मंत्री टनटन हाथी ने घोषण की इस साल दारा शेर ने हम सब को अवीर गुलाल की होली खेलने की बात बता कर बहुत नेक काम किया है। और हम सब को जहरीले रंगों से बचाया है इसलिए मैं इस साल का पुरस्कार दारा शेर को देने का ऐलान करता हूं। अगले साल से हम सब सिर्फ अवीर गुलाल से ही होली खेलेंगे। दारा शेर प्रधान मंत्री टनटन शेर की ओर से चांदी का सिल्ड और पांच हजार रूपया नगद पा कर खुशी से फुला नही समाया। पुरस्कार पाने की खुशी में सभी जानवर दारा शेर को बधाई दे कर अपने घर जाने लगे। **********

  • जीवन की प्राथमिकताएं

    शिक्षक ने आज कक्षा में प्रवेश करते ही मेज पर एक बड़ा सा खाली शीशे का जार रख दिया। शिक्षक ने जार को पत्थर के बड़े-बड़े टुकड़ों से भर दिया। जार को पूरा भरने के बाद उन्होंने छात्रों से पूछा क्या जार भर गया है? इस पर सभी छात्रों ने सामूहिक शब्दों में कहा “हाँ, जार भर गया है।” तब शिक्षक ने छोटे-छोटे कंकड़ो से भरा एक डिब्बा उठाया और उन्हें जार में भरने लगे। जार को थोडा हिलाने पर ये कंकड़ पत्थरों के बीच व्यवस्थित हो गए। एक बार फिर उन्होंने छात्रों से पूछा कि क्या जार भर गया है? सभी ने पुनः हाँ में उत्तर दिया। तभी शिक्षक ने एक रेत से भरा डिब्बा निकाला और उसमें भरी रेत को जार में डालने लगे। रेत ने बची-खुची जगह भी भर दी। एक बार फिर उन्होंने पूछा कि क्या जार भर गया है? इस बार सभी ने एक साथ उत्तर दिया, “हाँ, अब तो यह पूरी तरह भर गया है।” लेकिन अब शिक्षक ने पानी से भरी एक बोतल को इस जार में उड़ेल दिया। शिक्षक छात्रों को संबोधित करते हुए बोले कि देखो छात्रों, जार ने एक बोतल पानी को भी अपने अंदर समा लिया। ऐसा कह कर शिक्षक ने छात्रों को समझाना शुरू किया, “मैं चाहता हूँ कि आप इस बात को समझें कि ये जार आपके जीवन का एक प्रतिबिंब है। बड़े-बड़े पत्थर आपके जीवन की ज़रूरी वस्तुएं हैं- जैसे आप का परिवार, आपका जीवन साथी, आपके माता पिता, आपका स्वास्थ्य इत्यादि। यह सभी ऐसी वस्तुएं है कि अगर आपकी बाकी सारी वस्तुएं खो भी जाएँ और सिर्फ ये रहे तो भी आपकी ज़िन्दगी पूर्ण रहेगी। जार में पड़े छोटे कंकर उन वस्तुओं को दर्शाते हैं जिनकी हमारे जीवन में आवश्यकता तो है परंतु यदि प्राथमिकता के तौर पर देखा जाए तो ऐसी वस्तुओं को हम दूसरी श्रेणी की प्राथमिकता में रख सकते हैं जैसे हमारी नौकरी, हमारी कार, हमारी साइकिल इत्यादि। जार में पड़ी रेत और पानी बाकी सभी छोटी-मोटी चीजों को दर्शाती हैं। अगर आप जार को पहले रेत और पानी से भर देंगे तो कंकडों और पत्थरों के लिए कोई जगह नहीं बचेगी। यही आपके जीवन के साथ होता है। अगर आप अपना सारा समय और उर्जा छोटी-छोटी चीजों में लगा देंगे तो आपके पास कभी उन चीजों के लिए समय नहीं होगा जो आपके जीवन के लिए परम आवश्यक हैं। उन चीजों पर ध्यान दीजिये जो आपके जीवन की खुशी के लिए आवश्यक है। अपने बच्चों के साथ खेलिए, अपने जीवन साथी के साथ घूमने जाइए, अपने परिवार के साथ देशाटन पर जाइए और खूबसूरत छुट्टियां बिताइए। ऐसा न कर, यदि आप अपना सारा वक्त ऑफिस अथवा व्यापार में ही व्यतीत कर देते हैं तो आप जीवन के इन महत्वपूर्ण क्षणों से दूर हो जाएंगे। आपकी जिंदगी नीरस व तनावपूर्ण व्यतीत होने लगेगी। अपने जीवन की प्राथमिकताओं को पहचाने, इनके अतिरिक्त सभी वस्तुएं रेत के समान हैं। सार - यदि मनुष्य अपने जीवन की प्राथमिकताओं को न पहचान कर व्यर्थ के कार्यों में अपने को व्यस्त रखता है तो ऐसे मनुष्यों का जीवन नीरस व उत्साहहीन व्यतीत होता है। ******

  • सिरफिरा हाथी

    बहुत समय पहले की बात है। गांव में एक अध्यापक रहते थे। उनके अनेकों विद्यार्थी थे। एक दिन अध्यापक ने अपने सभी विद्यार्थियों को अपने पास बुलाया और बड़े प्यार से समझाया, विद्यार्थियों सभी जीवों में ईश्वर का वास होता है इसलिए हमें सबका आदर व सत्कार करना चाहिए। कुछ दिनों बाद अध्यापक जी ने अपने प्रांगण में एक विशाल हवन का आयोजन किया। हवन की लकड़ी के लिए कुछ विद्यार्थियों को पास के जंगल में भेजा गया। विद्यार्थी हवन के लिए लकड़ियाँ चुन रहे थे कि तभी वहाँ एक सिरफिरा हाथी आ धमका। सभी विद्यार्थी शोर मचा कर जान बचाने के लिए भागने लगे, “भागो…। हाथी आया…सिरफिरा हाथी आया…।” लेकिन उन सबके बीच एक आदर्श विद्यार्थी ऐसा भी था जो इस खतरनाक परिस्थिति में भी डरा नहीं और शांत खड़ा रहा। उसे ऐसा करते देख उसके साथियों को बड़ा ही आश्चर्य हुआ और उनमे से एक बोला, “ये तुम क्या कर रहे हो? देखते नहीं सिरफिरा हाथी इधर ही आ रहा है, भागो और जल्द से जल्द अपनी जान बचाओ।” इस पर विद्यार्थी बोला, “तुम लोग जाओ और बचाओ अपनी जान, मुझे इस हाथी से कोई भय नहीं है । अध्यापक जी ने कहा था, कि हर जीव में ईश्वर का वास होता है इसलिए भागने कि कोई जरुरत नहीं क्योंकि ईश्वर हमें हानि नहीं पहुंचा सकता।”ऐसा कह कर वह वहीं खड़ा रहा और जैसे ही हाथी पास आया वह विद्यार्थी उस सिरफिरे हाथी को नमन करने लगा। लेकिन हाथी तो सिरफिरा था और कहां रुकने वाला था, वह सामने आने वाली हर एक चीज को तहस नहस करता जा रहा था। जैसे ही विद्यार्थी उसके सामने आया हाथी ने उसे अपनी सूड़ से उठाया और एक ओर जोर से पटक कर आगे बढ़ गया। विद्यार्थी के शरीर पर बहुत चोट आई, वह घायल हो कर वहीं बेहोश हो गया। काफी समय बाद जब उसे होश आया तो वह आश्रम में था और अध्यापक जी उसके सामने खड़े थे। अध्यापक जी बोले, “सिरफिरे हाथी को आते देखकर भी तुम वहाँ से हटे क्यों नहीं जबकि तुम्हें पता था कि वह तुम्हें चोट ही नहीं पहुंचा सकता बल्कि जान से मार भी सकता था।” तब विद्यार्थी बोला, “अध्यापक जी आपने ही तो कुछ दिन पहले समझाया था कि सभी जीवों में ईश्वर का वास होता है। यही कारण था कि मैं भागा नहीं, मैंने नमस्कार करना ही उचित समझा।” इस पर अध्यापक जी ने विद्यार्थी को समझाया, “बेटा तुम मेरी आज्ञा मानते हो ये बहुत अच्छी बात है मगर मैंने ये भी तो सिखाया है कि विपरीत परिस्थितियों में अपना विवेक नहीं खोना चाहिए। हाथी आ रहा था, यह तो तुमने देखा और वह सिरफिरा है यह भी तुम्हें ज्ञात हो गया था। फिर भी हाथी को तुमने ईश्वर का रूप समझा। मगर बाकी विद्यार्थियों ने जब तुम्हें रोका तो भी तुम्हें क्यों कुछ समझ नहीं आया। उन्होंने तो तुम्हें मना किया था। अन्य विद्यार्थियों की बात का तुमने विश्वास क्यों नहीं किया। उनकी बात मान लेते तो तुम्हें इतनी अधिक तकलीफ का सामना नहीं करना पड़ता, तुम्हारी ऐसी हालत भी नहीं होती। जल में भी ईश्वर का वास है पर किसी जल को लोग देवता पर चढ़ाते हैं और किसी जल का लोग नहाने धोने में प्रयोग करते हैं। हमेशा देश, काल और परिस्थिति को ध्यान में रखकर ही आपना निर्णय लेना चाहिए।” सार - हमें दूसरों कि बात का अनुसरण तो जरुर करना चाहिए मगर विशेष परिस्थिति में अपने विवेक का प्रयोग करने से नहीं चूकना चाहिए। परिस्थितियों के अनुसार निर्णय को परिवर्तित करने में ही बुद्धिमानी है। *******

  • संगत का प्रभाव

    एक राजा का तोता मर गया। उन्होंने कहा- मंत्रीप्रवर! हमारा पिंजरा सूना हो गया। इसमें पालने के लिए एक तोता लाओ। तोते सदैव तो मिलते नहीं। राजा पीछे पड़ गये तो मंत्री एक संत के पास गये और कहा- भगवन्! राजा साहब एक तोता लाने की जिद कर रहे हैं। आप अपना तोता दे दें तो बड़ी कृपा होगी। संत ने कहा- ठीक है, ले जाओ। राजा ने सोने के पिंजरे में बड़े स्नेह से तोते की सुख-सुविधा का प्रबन्ध किया। तोता ब्रह्ममुहूर्त में बोलने लगा- जय भगवान,,, ओम् तत्सत्.... ओम् तत्सत् ... उठो राजा! उठो महारानी! दुर्लभ मानव-तन मिला है। यह सोने के लिए नहीं, भजन करने के लिए मिला है। चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीर। तुलसीदास चंदन घिसै तिलक देत रघुबीर।।' कभी रामायण की चौपाई तो कभी गीता के श्लोक उसके मुँह से निकलते। पूरा राजपरिवार बड़े सवेरे उठकर उसकी बातें सुना करता था। राजा कहते थे कि तोता क्या मिला, एक संत मिल गये। हर जीव की एक निश्चित आयु होती है। एक दिन वह तोता मर गया। राजा, रानी, राजपरिवार और पूरे राष्ट्र ने हफ़्तों शोक मनाया। झण्डा झुका दिया गया। किसी प्रकार राजपरिवार ने शोक संवरण किया और राजकाज में लग गये। पुनः राजा साहब ने कहा-- मंत्रीवर! खाली पिंजरा सूना-सूना लगता है, एक तोते की व्यवस्था करें! मंत्री ने इधर-उधर देखा, एक कसाई के यहाँ वैसा ही तोता एक पिंजरे में टँगा था। मंत्री ने कहा कि राजा साहब चाहते की ये तोता उन्हें मिले। कसाई ने कहा कि हम आपके राज्य में ही तो रहते हैं। हम नहीं भी देंगे तब भी आप उठा ही ले जायेंगे। मंत्री ने कहा-- नहीं नहीं, हमारी विनती है। कसाई ने बताया कि किसी बहेलिये ने एक वृक्ष से दो तोते पकड़े थे। एक को उसने महात्माजी को दे दिया था और दूसरा मैंने खरीद लिया था। राजा को चाहिये तो आप ले जाएं। अब कसाईवाला तोता राजा के पिंजरे में पहुँच गया। राजपरिवार बहुत प्रसन्न हुआ। सबको लगा कि वही तोता जीवित होकर चला आया है। दोनों की नासिका, पंख, आकार, चितवन सब एक जैसे थे। लेकिन बड़े सवेरे तोता उसी प्रकार राजा को बुलाने लगा जैसे वह कसाई अपने नौकरों को उठाता था कि.. उठ! हरामी के बच्चे! राजा बन बैठा है। मेरे लिए ला अण्डे, नहीं तो पड़ेंगे डण्डे! ये ही बात बार बार दोहराने लगा राजा को इतना क्रोध आया कि उसने तोते को पिंजरे से निकाला और गर्दन मरोड़कर किले से बाहर फेंक दिया। दोनों तोते, सगे भाई थे। एक की गर्दन मरोड़ दी गयी, तो दूसरे के लिए झण्डे झुक गये, भण्डारा किया गया, शोक मनाया गया। आखिर भूल कहाँ हो गयी ? अन्तर था तो संगति का ! सत्संग की कमी थी। संगत ही गुण होत है, संगत ही गुण जाय। बाँस फाँस अरु मीसरी, एकै भाव बिकाय।। पूरा सद्गुरु ना मिला, मिली न साँची सीख। भेष जती का बनाय के, घर-घर माँगे भीख। शिक्षा :- अपने बच्चों को उच्चशिक्षा के साथ साथ अच्छे संस्कार भी दीजिए ताकि वो जहां भी जाये सबका समान करे और अपने आचरण से खुद के साथ परिवार का नाम भी रोशन करे। ***********

  • सफलता का रहस्य

    एक नौजवान युवक ने अपने जीवन यापन हेतु बड़े उत्साह के साथ एक व्यापार की शुरुआत की, परंतु दुर्भाग्यवश कुछ ही समय में किसी बड़े घाटे की वजह से उसका व्यापार बंदी की कगार पर पहुंच गया। व्यापार की बंदी नौजवान के उदासी का कारण बन गई और काफी समय बीत जाने पर भी उसने कोई और काम नहीं शुरू किया। युवक की इस परेशानी का पता उसके गुरुजन को भी लगा, जो पहले कभी उसे पढ़ा चुके थे। उन्होंने एक दिन युवक को अपने घर बुलाया और पूछा, “क्या बात है आज-कल तुम बहुत परेशान रहते हो और कोई व्यापार भी नहीं करते?” “बस कुछ नहीं गुरुजी मैंने एक व्यापार प्रारंभ किया था परंतु उस व्यापार में इच्छा अनुसार वृद्धि ना हो सकी और मुझे आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा और मुझे काम बंद करना पड़ा, इसीलिए थोड़ा परेशान रहता हूँ ।” युवक बोला। गुरुजी बोले, “इसमें इतना घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि व्यापार में इस प्रकार की दुर्घटनाएं तो होती ही रहती है।” “लेकिन मैंने व्यापार बनाने के लिए कड़ी मेहनत की थी, मैं तन-मन-धन से इस काम में जुटा था, फिर मैं नाकामयाब कैसे हो सकता हूँ।” युवक कुछ झुंझलाते हुए बोला । गुरुजी कुछ देर के लिए शांत हो गए, फिर कुछ सोच कर उन्होंने कहा, “बेटा, मेरे पीछे आओ, “टमाटर के इस मरे हुए पौधे को देखो।” “ये तो बेकार हो चुका है, इसे देखने से क्या फायदा।”, युवक बोला। गुरुजी बोले, “मैंने जब इस पौधे को रोपा था तब मैंने इस पौधे की अन्य पौधों की भांति ही पूरा रखरखाव किया था मैंने इसे समय पर पानी दिया, समय पर खाद डाली, समय पर कीटनाशक का छिड़काव भी किया, परंतु फिर भी यह पौधा ऐसा हो गया।” “तो क्या ?”, युवक बोला। गुरुजी ने समझाया, “चाहे तुम कितना भी प्रयास क्यों न कर लो, परंतु परिणाम पर हमारा अधिकार नहीं होता। हम उसे तय नहीं कर सकते। बस हम उन्हीं चीजों पर नियंत्रण कर सकते हैं जो हमारे हाथ में हैं, बाकी चीजों को हमें भगवान पर छोड़ देना चाहिए।” “तो अब मैं क्या करूँ? यदि सफलता की कोई गारंटी नहीं है तो फिर प्रयास करने से क्या फायदा?”,युवक बोला। “बेटा, बहुत से लोग बस इसी बहाने का सहारा लेकर अपनी जिंदगी में कोई भी बड़ा कार्य करने का साहस नहीं करते कि जब सफलता की निश्चितता ही नहीं है तो फिर प्रयास करने से क्या फायदा !”, गुरुजी बोले। “हाँ, यदि लोग ऐसा सोचते हैं तो सही ही सोचते हैं। इतनी मेहनत, इतना पैसा, इतना समय देने के बाद भी अगर सफलता केवल एक संयोग मात्र ही है, तो इतना सब कुछ करने से क्या फायदा।”, युवक बाहर निकलते हुए बोला। “रुको-रुको, जाने से पहले जरा इस दरवाजे को भी खोलकर देखो।” गुरुजी ने एक दरवाजे की तरफ इशारा करते हुए कहा। युवक ने दरवाजा खोला, सामने बड़े-बड़े लाल टमाटरों का ढेर पड़ा हुआ था। “ये कहाँ से आये ?”, युवक ने आश्चर्य से पूछा। “बेशक, टमाटर के सभी पौधे नहीं मरे थे। यदि तुम लगातार सही दिशा में प्रयास करते रहो, तो सफलता की संभावनाएं अत्यधिक प्रबल हो जाती है। लेकिन अगर तुम एक-दो प्रयासों के बाद हार मानकर बैठ जाते हो तो तुम्हें जीवन में कोई सफलता प्राप्त नहीं होती।” गुरुजी ने अपनी बात पूरी की। युवक को अब जीवन में सफलता के रहस्य की बात पूर्ण रुप से समझ आ गई थी। अब वह एक नए जोश और उत्साह के साथ अपने काम में लगने के लिए तैयार था। सार - जो लोग सफलता प्राप्त करने के लिए निरंतर प्रयास करते रहते हैं उन्हें आज नहीं तो कल सफलता मिल ही जाती है। याद रखिये कि जीवन की नाकामयाबी ही कामयाबी की तरफ बढ़ता एक कदम होता है। ******

  • कद्दू की तीर्थयात्रा

    हमारे यहाँ तीर्थ यात्रा का बहुत ही धार्मिक व संस्कारिक महत्त्व है। पहले के समय तीर्थ यात्रा में जाना बहुत कठिन कार्य माना जाता था। तीर्थ यात्रियों द्वारा पैदल या बैलगाड़ी में यात्रा की जाती थी। यात्रा में थोड़े-थोड़े अंतर पर रुकना होता था। विविध प्रकार के लोगों से मिलना जुलना होता था, समाज का दर्शन होता था। विविध बोली और विविध रीति-रीवाज से तीर्थ यात्रियों का परिचय होता था। कई कठिनाईओं से गुजरना पड़ता, तो कई प्रकार के अनुभव भी प्राप्त होते थे। एकबार तीर्थ यात्रा पर जानेवाले लोगों के संघ ने एक संत जी के पास जाकर उनके साथ चलने की प्रार्थना की। सोचा कि संत के साथ होने से यात्रा का महत्व दो गुना हो जाएगा। संत जी ने यात्रा पर जाने में अपनी असमर्थता बताई। उन्होंने तीर्थ यात्रियों को एक कड़वा कद्दू देते हुए कहा, “किन्ही कारणों वश, मैं तो आप लोगों के साथ जा नहीं सकता लेकिन आप इस कद्दू को साथ ले जाईए और जहाँ-जहाँ भी स्नान करें, इसे भी उस पवित्र जल में स्नान करा लाये आपकी महान कृपा होगी।” लोगों ने संत के गूढार्थ पर गौर किये बिना ही वह कद्दू ले लिया और जहाँ-जहाँ गए, स्नान किया, वहाँ-वहाँ कद्दू को भी स्नान करवाया, मंदिर में जाकर दर्शन किया तो कद्दू को भी दर्शन करवाया और ऐसा कर उन्होंने संत की आज्ञा का अनुपालन किया। ऐसे यात्रा पूरी कर सब वापस आए और उन लोगों ने वह कद्दू संतजी को वापस दिया। संतजी ने सभी यात्रियों को अपने आश्रम में प्रीतिभोज पर आमंत्रित किया। तीर्थ यात्रियों को विविध पकवान परोसे गए। तीर्थ में घूमकर आये हुए कद्दू की सब्जी विशेष रूप से बनवायी गयी। सभी यात्रियों ने खाना शुरू किया और सबने कहा कि “यह सब्जी तो कड़वी है।” संतजी ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि “यह सब्जी तो उसी कद्दू से बनी है, जो तीर्थ स्नान कर आया है। बेशक यह तीर्थाटन के पूर्व कड़वा था, मगर तीर्थ दर्शन तथा स्नान के बाद भी इस में कड़वाहट तो पहले जैसी ही बनी हुई है।” यह सुन कर सभी यात्रियों को अपनी गलती का बोध हो गया कि ‘हमने तीर्थाटन किया है लेकिन अपने मन एवं स्वभाव को सुधारा नहीं तो तीर्थयात्रा का कोई मूल्य नहीं है। हम भी इस कड़वे कद्दू जैसे कड़वे रहकर वापस आये हैं।’ सार - जब तक हमारे व्यवहार व सोच में परिवर्तन नहीं होता है हमारी तीर्थ यात्रा अधूरी ही मानी जाती है। संस्कारों में आधारभूत परिवर्तन ही तीर्थ यात्रा का वास्तविक प्रतिफल है।

  • ग्रहण (Part 2)

    लगभग बारह वर्ष पूर्व का वह दिन मेरी आँखों के सामने जीवंत हो उठा। मैं क्लीनिक में मरीज देख रही थी। एक दंपत्ति अपनी तेरह-चौदह साल की बेटी के साथ क्लीनिक पर आए। बच्ची दर्द में थी और एक ही बात बोले जा रही थी, ‘‘मुझे इंजेक्शन लगा दीजिए। मुझे मार दीजिए। मुझे नहीं जीना है।’’ रोते हुए उसके पिता ने बताया कि वह लोग एक रिश्तेदार के घर गृह प्रवेश में गए थे। बेटी का दसवीं का बोर्ड था तो वह अपने शिक्षक की प्रतीक्षा में घर पर ही रुक गई थी। हम जब शाम को लौटे तो बेटी इस हाल में मिली। वह शिक्षक दरिंदा निकला। वह हाथ जोड़कर बोले, ‘‘हम पुलिस के पास नहीं जाना चाहते डॉक्टर। उसका तो कुछ नहीं होगा हमारी लड़की बदनाम हो जाएगी। हम इसकी परीक्षा के बाद यह शहर ही छोड़ देंगे। हमारी मदद कर दीजिए।’’ मैं उनकी पीड़ा को समझ सकती थी। मेरे जेठ की बेटी इस हादसे से गुजरी थी। जेठ जी स्वयं पुलिस में थे। पर क्या लाभ हुआ पुलिस, कोर्ट, कचहरी इन सब का तनाव और समाज की हिकारत भरी नजर, वह बेचारी नहीं झेल पाई और साल पूरा होते-होते पंखे से लटक कर मर गई। मैं बच्ची के इलाज के साथ-साथ उसकी काउंसलिंग भी करने लगी। वह जब घबराती अपनी मम्मी के साथ मेरे पास आ जाती। फिर धीरे-धीरे अकेले आने लगी। दूसरे शहर जा कर भी वह फोन से संपर्क में रही। फिर एक दिन मैंने उससे कहा, ‘‘देखो बेटा तुम 12वीं में आ गई हो, और अब पूरी तरह से ठीक हो गई हो। तुम्हारे लिए जरूरी है कि तुम इस दुर्घटना को भूल जाओ। इसके लिए तुम्हें मुझे भी भूलना होगा।’’ ‘‘आपको ?....आपको कैसे भूल सकती हूँ मैं? मेरी माँ ने मुझे जन्म दिया है, पर यह नई ज़िंदगी आपकी दी हुई है।’’ वो कांपती हुई आवाज में बोली थी। ‘‘माँ कह रही हो तो माँ की बात मानो। सब कुछ भूल कर एक नई जिंदगी जियो। जब शादी करोगी तो मुझे जरूर बताना, मैं आऊंगी।’’ ‘‘शादी?...... मैं..... मैं ...मुझसे कौन शादी करेगा?’’ ‘‘क्यों तुमने कौन सा पाप किया है? तुम शादी करोगी और एक आम ज़िन्दगी जीओगी। बस इस दुर्घटना का जिक्र किसी से कभी नहीं करना। मैंने अपनी मेडिकल फाइल में भी तुम्हारा असली नाम नहीं लिखा है। उसमें तुम छाया हो। तुम अपने असली नाम के साथ आराम से जियो और आठ साल के लंबे अंतराल के बाद आज अचानक वही छाया, प्रिया के रूप में मेरे सामने थी। बेटे की आवाज से मैं वापस वर्तमान में लौट आई। ‘‘माँ, इसे क्या हुआ?’’ ‘‘डर गई है। बिना गलती के गिल्टी महसूस कर रही है।’’ प्रिया के सिर पर हाथ फेरते हुए मैंने जवाब दिया। ‘‘बिना गलती के कैसे? इसी की वजह से तो आप इतना थकीं।’’ प्रिया की ओर देखते हुए ऋतिक बोला। ‘‘.......... प्रिया सिर उठाकर अपलक ऋतिक को देख रही थी।’’ ‘‘अब तुम्हारी सजा ये है प्रिया, कि अब तुम माँ के लिए चाय बना कर लाओ और जो बचे उसमें से थोड़ी सी मुझे भी दे देना।’’ कमरे का वातावरण थोड़ा हल्का हो गया। तकिया की टेक के सहारे दोनों ने मुझे बैठा दिया। चाय पीते हुए मैंने प्रिया की ओर देखा। ‘‘प्रिया चाय तो तुमने अच्छी बनाई है। चलो रसोई में तुम पास हो गई। पर अभी तुम्हारी परीक्षा बाकी है। मेरी बहू बनने के लिए तुम्हें एक परीक्षा और पास करनी होगी।’’ प्रिया और ऋतिक दोनों एक दूसरे की ओर देखने लगे। ‘‘माँ?’’ ऋतिक हिचकता सा बोला। ‘‘तुम्हें ऐतराज है क्या?’’ ‘‘न, न....नहीं माँ।’’ ‘‘तुम्हें प्रिया?’’ नहीं... बिल्कुल नहीं। ‘‘ठीक है, फिर ऋतिक तुम अपने कमरे में जाओ मुझे अकेले प्रिया से बात करनी है। उसके बाद तुम्हें बुला लेंगे।’’ ‘‘जी’’ चकित सा ऋतिक खड़ा हो गया और प्रिया की ओर देखता हुआ बाहर चला गया। प्रिया अब सीधे मेरी ओर देख रही थी। “प्रिया, मुझे तुमसे एक वादा चाहिए।’’ ‘‘माँ, मुझ जैसी ग्रहण लगी लड़की को आप जानते बूझते हुए क्यों स्वीकार रही हैं अपने इतने लायक बेटे के लिए। आप मना भी तो कर सकती हैं।’’ क्यों मना करूंगी, तुम्हारे जैसी कोमल हृदय वाली बेटी, मेरी बहू बने यही तो हमेशा चाहा है मैंने। तुमसे, तुम्हारे साथ से, मेरे बेटे की खुशियाँ हैं। यह खुशी मैं उसे देना चाहती हूँ। बस एक वादा चाहिए तुमसे।’’ ‘‘कौन सा वादा माँ?’’ ‘‘कभी, किसी भी कमजोर पल में उस हादसे का जिक्र ऋतिक से नहीं करोगी। यही वादा चाहिए मुझे।’’ ‘‘इतनी बड़ी बात छुपाना क्या उचित होगा?’’ ‘‘प्रिया जिंदगी में बहुत से हादसे होते हैं। क्या हम हमेशा उनका बोझा पीठ पर ढोते रहते हैं? वे घट कर अतीत हो जाते हैं। यही होना भी चाहिए ।’’ ‘‘.....वह मौन मुझे देख रही थी। प्रिया, मेरा बेटा बहुत सुलझा हुआ है फिर भी मैं नहीं चाहती कि किसी अनचाहे अतीत का काला साया मेरे बेटे बहू के जीवन में बेचैनियाँ लाए। इसीलिये...।’’ ‘‘आपकी भावना समझ सकती हूँ। माँ, मैं आपसे वादा करती हूँ, मेरे मरने तक इस बात का जिक्र मेरी जुबान पर कभी नहीं आएगा।’’ प्रिया मेरा हाथ पकड़े हुए थी। ‘‘प्रिया, अपने मम्मी पापा से कहना कि जब वे आएंगे तो हम पहली बार मिल रहे होंगे। यह याद रखेंगे।’’ ‘माँ, आप बहुत महान हैं।’ भावुकता में प्रिया मेरे गले लग गई। प्यार से उसकी पीठ थपथपा कर मैंने कहा ,‘अब ऋतिक को बुला लो।’ प्रिया के साथ ऋतिक कमरे में आया तो उसके चेहरे पर प्रश्न साफ दिखाई दे रहा था। ‘तेरी प्रिया, मेरी परीक्षा में पास हो गई। यह चाँद सी सुंदर लड़की मुझे बहू के रूप में स्वीकार है।’ ‘चाँद में तो दाग होता है माँ। ग्रहण लगता है।’ ऋतिक ने प्रिया को छेड़ने के अंदाज में कहा। ‘चांद उस ग्रहण के साथ ही तो पूर्ण होता है बेटा। वैसे ही हम सब भी अनेक अच्छाई और बुराई के पुतले हैं और हमें एक दूसरे को संपूर्णता में स्वीकारना होता है। प्रिया हम दोनों को हमारी कमियों के साथ स्वीकारेगी और हम दोनों को भी प्रिया को उसकी सारी अच्छाई और सारी बुराई के साथ उसे स्वीकारना होगा।’ ‘मैं ..तो ...माँ...।” ‘मैं जानती हूँ। तू उसे छेड़ रहा है। ......अच्छा अब तुम दोनों रसोई से कुछ लाकर खिलाओ तो मुझे, भूख लग गई है।’ उठते हुए प्रिया बोली, ‘मैं लाती हूँ माँ।’ ‘........और हां प्रिया, अपने मम्मी-पापा से बोलना मुझसे जल्दी आकर मिलें। और उन्हें यह भी बता देना कि मुझे शादी की जल्दी है।’ ऋतिक और प्रिया के चेहरे खिल उठे और दोनों मुस्कुराते हुए कमरे से बाहर चले गए। समाप्त *********************