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  • मेच्योर लव स्टोरी

    सरिता जायसवाल चालीस पार की एक महिला और एक पुरुष पास-पास ही रहते थे, दोनों अकेले थे। दोनों दोस्त हो गये और साथ समय बिताने लगे, एक दूसरे को पसंद करने लगे। बैंक कर्मचारी वरुण फ्लैट किराये पर लेकर अकेला रहने आया। उसकी उम्र 41 साल, कद 5 फुट 7 इंच लम्बा, गेहुंआ रंग और फिट शरीर था। वरुण के सामने वाले फ्लैट में एक महिला रहती थी, पर कभी बात नहीं हुई। वही महिला वरुण के बैंक में खाता खुलवाने आयी। आधार कार्ड से पता चला- नाम मीनाक्षी, उम्र 50, उनकी और वरुण की मातृभाषा एक है। वरुण ने मातृभाषा में बात की - मीनाक्षी जी, खाता खोलने में दो दिन लगेंगे। दो दिन बाद वरुण ने मीनाक्षी को बताया- पासबुक, चेक बुक, तैयार है। उनके बीच थोड़ी बात हुई, वरुण ने मीनाक्षी को ध्यान से देखा। मीनाक्षी का चेहरा सुन्दर था, भरा बदन, गेहुंआ रंग, उनकी आंखें बहुत सुन्दर थी, उनके नाम मीनाक्षी (मछली जैसी आँखों वाली) के नाम के अनुरूप। करीब 5 फुट लम्बी। मीनाक्षी की आवाज़ मधुर थी, वह बात सलीके से करती थी। अगली शाम वरुण ने चाय बनाते समय देखा दूध फट गया है। वरुण ने मीनाक्षी की कालबेल बजाई मीनाक्षी ने दरवाज़ा खोला। वरुण- आप मुझे थोड़ा दूध दे सकती हैं? चाय बनानी है। मेरी रसोई में दूध खराब हो गया है।

  • पुत्र की भूल

    डॉ. कृष्ण कांत श्रीवास्तव एक बार पिता और पुत्र जलमार्ग से यात्रा कर रहे थे, और दोनों रास्ता भटक गये। वे दोनों एक जगह पहुँचे, जहाँ दो टापू आस-पास थे। पिता ने पुत्र से कहा, अब लगता है हम दोनों का अंतिम समय आ गया है। दूर-दूर तक कोई सहारा नहीं दिख रहा है। अचानक उन्हें एक उपाय सूझा, पिता ने पुत्र से कहा कि वैसे भी हमारा अंतिम समय नज़दीक है तो क्यों न हम ईश्वर की प्रार्थना करें। उन्होने दोनों टापू आपस में बाँट लिए। एक पर पिता और एक पर पुत्र, और दोनों अलग-अलग ईश्वर की प्रार्थना करने लगे। पुत्र ने ईश्वर से कहा, हे भगवन, इस टापू पर पेड़-पौधे उग जाए जिसके फल-फूल से हम अपनी भूख मिटा सकें। प्रार्थना सुनी गयी, तत्काल पेड़-पौधे उग गये और उसमें फल-फूल भी आ गये। उसने कहा ये तो चमत्कार हो गया। फिर उसने प्रार्थना की, एक सुंदर स्त्री आ जाए जिससे हम यहाँ उसके साथ रहकर अपना परिवार बसाएँ। तत्काल एक सुंदर स्त्री प्रकट हो गयी। अब उसने सोचा कि मेरी हर प्रार्थना सुनी जा रही है, क्यों न हम ईश्वर से यहाँ से बाहर निकलने का रास्ता माँगे? उसने ऐसा ही किया। उसने प्रार्थना की, एक नाव आ जाए जिसमें सवार होकर हम यहाँ से बाहर निकल सकें। तत्काल नाव प्रकट हुई, और पुत्र उसमें सवार होकर बाहर निकलने लगा। तभी एक आकाशवाणी हुई, बेटा तुम अकेले जा रहे हो? अपने पिता को साथ नहीं लोगे? तो पुत्र ने कहा, उनको छोड़ो, वो इसी लायक हैं, प्रार्थना तो उन्होंने भी की, लेकिन आपने उनकी एक भी नहीं सुनी। शायद उनका मन पवित्र नहीं है, तो उन्हें इसका फल भोगने दो ना? आकाशवाणी कहती है – बेटा, क्या तुम्हें पता है, कि तुम्हारे पिता ने क्या प्रार्थना की? पुत्र बोला नहीं। तो सुनो, तुम्हारे पिता ने एक ही प्रार्थना की, कि हे भगवन, मेरा बेटा आपसे जो माँगे, उसे दे देना। आकाशवाणी सुनकर पुत्र बड़ा लज्जित हुआ और उसने जीवन में ऐसी गलती दोबारा ना करने की प्रतिज्ञा की। यहां ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वह हम सबको इस लायक बनाएं कि हम अपने माता-पिता के साये में हमेशा हँसते मुस्कराते रहें। ******

  • तोते का पिंजरा

    राम शंकर कुशवाहा एक बार गुप्ता जी को अपने ही गांव के मुखिया जी के यहां दावत पर जाना था। बेचारे गुप्ता जी इसके लिए बड़े उत्साहित थे और खुश भी । उस वक़्त जमाना पुराना था, बिजली, बल्ब, स्ट्रीट लाइट वगैरह तब हर इलाक़े, गांव या कस्बे में नहीं हुआ करती थी। उन्होंने सोचा कि आज तो बहुत देर रात तक शेरोशायरी, मौसिकी और शराब की महफ़िल जमेगी, इसलिए अंधेरे में घर लौटने में दिक्कत हो सकती है तो क्यूँ न घर से अपना लालटेन भी साथ लेकर चलें। फिर जैसा कि उन्होंने सोचा था, महफ़िल वैसी ही बहुत देर रात तक चली। गुप्ता जी जैसे तैसे नशे में टुन्न होकर घर लौटे। बेचारे अपने घर आकर दोपहर तक सोते रहे। शाम को उनकी गांव के मुखिया जी से मुलाकात हुई तो उन्होंने गुप्ता जी से कहा,"जनाब, हमारे आने से आपके आराम में कहीं कोई खलल तो नहीं पड़ा न?" गुप्ता जी:- जी नहीं मुखिया जी...बिलकुल भी नहीं, कहिए, कैसे याद किया....? मुखिया जी :- कैसी रही कल की दावत? रात के अंधेरे में घर पहुंचने में कोई तकलीफ तो नहीं हुई न आपको? गुप्ता जी : "साहब, कैसा अंधेरा? लालटेन तो थी मेरे पास औऱ रही बात दावत की तो वो तो बहुत ही उम्दा थी। महफ़िल तो और भी बेहतरीन थी।" मुखिया जी :"जी शुक्रिया! वो मैं कह रहा था कि यदि आपको क़भी मेरे घर तरफ़ आना हुआ तो अपनी लालटेन लेते जाइयेगा .....और जो कल रात नशे में आप हमारे घर से तोते का पिंजरा उठा ले आए थे, वो फ़िलहाल मुझें लौटा दीजिए। *****

  • एक कप कॉफी

    सरोज रावत   ग्रेजुएशन की पहली साल में ही शैली की शादी हो गई। उसका पति कुनाल और परिवार के सभी लोग बड़े प्यारे और खुले विचारों के थे। जब शैली की शादी तय हुई थी, तभी उसकी सास ने खुल के कह दिया था, “बेटा! शादी भले ही हो जाये, पर तुम अपनी पढ़ाई-लिखाई कभी मत छोड़ना। जितना चाहो उतना आगे बढ़ना।” ससुराल में पहले दिन से ही सब उससे ऐसे बर्ताव करते, जैसे वो यहां जाने कितने सालों से रह रही है। हर चीज़ में उसकी राय ली जाती और उसकी पसंद को महत्व दिया जाता। सच कहूं तो शैली का ससुराल ऐसा था, जैसे ससुराल का सपना हर लड़की देखती है, पर हकीकत में सबकी किस्मत शैली जैसी नहीं होती।

  • मित्र की मदद

    मुकेश ‘नादान’ बी.ए. की परीक्षा के लिए फीस जमा करने का समय आ गया था। सबके रुपयों की व्यवस्था हो गई थी। केवल चोरबागान के गरीब मित्र हरिदास की व्यवस्था नहीं हो पाई थी। वह फीस जमा नहीं कर सका। इसके अतिरिक्त एक वर्ष का शुल्क भी बाकी थी। निश्चय ही इस प्रकार की विशेष अवस्था में रुपए माफ कर देने की भी व्यवस्था थी, और उसका भार राजकुमार नामक कॉलेज के एक वृद्ध किरानी पर था। हरिदास चट्टोपाध्याय ने देखा कि किसी भाँति परीक्षा-शुल्क तो दिया जा सकता है, किंतु कॉलेज का मासिक शुल्क देना असंभव है। लेकिन राजकुमार बाबू दयाशील के रूप में जाने जाते थे, भले ही नशाखोर के रूप में उनकी थोड़ी बदनामी थी। सब सुनकर नरेंद्र ने हरिदास को भरोसा दिलाया कि सब ठीक हो जाएगा। दो-एक दिन के बाद जब राजकुमार बाबू की मेज पर काफी भीड़ लग गई और एक के बाद एक लड़के रुपए जमा कर रहे थे, तब नरेंद्रनाथ ने भीड़ को ठेलते हुए आगे जाकर राजकुमार बाबू से कहा, “महाशय, लगता है, हरिदास मासिक शुल्क दे नहीं सकेगा। आप थोड़ी कृपा कर उसे माफ कर दें। उसे परीक्षा देने के लिए भेजने पर वह अच्छी तरह पास करेगा, और नहीं भेजने पर सब बेकार हो जाएगा।” राजकुमार ने मुँह बनाकर कहा, “तुझे धृष्टतापूर्वक पैरवी करने की जरूरत नहीं है। तू जा, अपने चरखे में तेल देने जा। मासिक शुल्क नहीं देने पर मैं उसे परीक्षा नहीं देने दूँगा।” धमकी खाकर नरेंद्र वापस आए। मित्र भी हताश हुए। तथापि नरेंद्र ने भरोसा देकर कहा, “तू हताश क्यों होता है? वह बुड्ढा यूँ ही धमकी देता है। मैं कहता हूँ, तेरा उपाय अवश्य कर दूँगा, तू निशंचित रह।” इधर नरेंद्र घर न जाकर एक अफीम के अड्डे पर गए। पता लगाया कि राजकुमार अभी भी नहीं आए हैं। नरेंद्र तब अपने शरीर को ढककर एक गली में हेदो की ओर स्थिर दृष्टि से देखने लगे। शाम का अँधेरा जब और घना हो गया, तब राजकुमार को अफीम सेवन करने वालों के अड्डे की ओर चोरी-चोरी आते देखा। अकस्मात्‌ नरेंद्र गली के मुँह पर आकर राजकुमार के रास्ते के आगे खड़ा हो गया। नरेंद्र को देखते ही बूढ़े को लगा कि विपदा आ गई। तथापि सहजभाव से उन्होंने पूछा, “क्या रे दत्त, यहाँ क्यों? ” नरेंद्र ने हरिदास की प्रार्थना फिर दुहराई और साथ-साथ यह भय भी दिखाया कि प्रार्थना मंजूर नहीं होने पर अफीम की गोली के अड्डे की बात कॉलेज में प्रचारित कर दूँगा। बूढ़े ने तब कहा, “बच्चा, क्रोध क्यों करता है? तू जो कहता है, वही होगा। तू जो कहता है तो क्या मैं उसे नहीं करूँगा? ” नरेंद्र ने तब जानना चाहा कि यदि यह उनका वास्तविक मनोभाव है तो सुबह ही यह कहने में क्या आपत्ति थी? बूढ़े ने समझा दिया कि उस समय माफ करने से उसका उदाहरण देकर दूसरे लड़के भी ऐसा ही करने लगते। किंतु कॉलेज का मासिक शुल्क माफ होने पर भी परीक्षा शुल्क माफ नहीं होगा, वह देना ही होगा। नरेंद्र ने भी सहमति प्रकट कर विदा ली। इधर नरेंद्र की आँख से ओझल होते ही राजकुमार थोड़ा इधर-उधर देखकर अफीम की गोली के अड्डे में घुस गए। हरिदास का निवास-स्थान चोरबागान के भुवनमोहन सरकार की गली में था। सूर्योदय के पहले ही नरेंद्र ने अपने मित्र के घर आकर दरवाजे को थपथपाया और गाना शुरू किया- भावार्थ-निर्मल-- पावन उषाकाल में आओ तन्मय ध्यान करो पूर्ण ब्रह्म का, जो है अनुपम चिर अनंत महिमा आगार। 'उदयाचल के शुभ भाल पर जिनकी प्रेमानन-छाया बालारुण बनकर शोभित है देखो ज्योतिर्मय साकार। इस शुभ दिन में मधु समीर बहता है कर उनका गुणगान और ढालता रहता अहरह वह मधुर अमृत की धार। सब मिल-जुलकर चलो चलें भगवत्‌ के दिव्य निकेतन में हृदय-थाल में आज सजाकर अपने अमित प्रेम-उपहार। इसके बाद हरिदास को कहा, “ओ रे, खूब आनंद करो, तुम्हारा कार्य सिदूध हो गया है। मासिक शुल्क के रुपए अब तुम्हें नहीं देने होंगे।” इसके बाद उस शाम की कथा सुनाकर सबको हँसने पर विवश कर दिया। ******

  • शिकायतों का कबाड़ा

    सुमन रायजादा काफी देर बेल बजने के बाद अंजलि ने बड़े बेमन से जाकर दरवाजा खोला। शेखर घर में इंटर होते ही सोफे पर जाकर बैठ गए। सुबह की घटना चलचित्र की भाँति दिमाग में चलने लगी। शेखर की गलती सिर्फ इतनी थी कि अंजलि की सहेली सिखा को अपने घर आने के लिए मना कर दिया था। क्योंकि उसे लगता था कि पड़ोसियों की बातें आकर के शेयर करती हैं। जिससे अंजली सुनकर व्यथित होती है और उसके ऊपर बुरा असर पड़ रहा है। इसी बात को लेकर दोनों में कहासुनी हो गई थी। बात इतनी बढ़ गई थी कि अंजलि ने मायके जाने का निर्णय ले लिया। शेखर कुछ नहीं बोला और ऑफिस निकल गया था। घर पर अंजली अपनी तैयारी पूरी कर चुकी थी। शेखर ने बहुत मनाने की कोशिश की पर अंजली नहीं मानी और जाने लगी। शेखर ने बोला अगर तुम नहीं मानती हो तो कोई बात नहीं, कहीं भी जाते समय बड़ों का आशीर्वाद लेते हैं। तुम जाओ और माता पिता का आशीर्वाद ले लो। मैं तब तक गाड़ी निकालता हूं।

  • बांझ

    लक्ष्मी कुमावत रचना को अब यहां घुटन हो रही थी। उस रिपोर्ट को हाथ में लिए वो सदमे में पिछले आधे घंटे से खड़ी हुई थी। उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि उसके साथ इतना बड़ा धोखा हो रहा है। उसका पति मयंक उसके साथ इतना कुछ कर गया। उसे उसकी बिल्कुल उम्मीद नहीं थी। कहाँ तो वो दुनिया भर के ताने मयंक के प्यार में भुला देती थी। और कहाँ ये रिपोर्ट? मयंक का प्यार केवल छलावा भर था। क्या सच है क्या झूठ, उसे अभी भी समझ में नहीं आ रहा था। पर इस बात को वो मयंक के मुंह से ही सुनना चाहती थी। लेकिन वो तो अपने परिवार वालों के साथ अपनी छोटी बहन सावी की सगाई में गया हुआ था उसे अकेला यहां छोड़कर। क्योंकि अभी थोड़ी देर पहले काफी हंगामा हुआ था। बरबस ही उसे वो दिन याद हो आया जब पाँच साल पहले वो मयंक की दुल्हन बनकर इस घर में आई थी। दोनों की ही अरेंज कम लव मैरिज थी। लव मैरिज जब मजबूरी में अरेंज की जाती है तब जाहिर सी बात है कि ससुराल वालों के दिल में बहू को जगह बनाने में वैसे भी बहुत देर लगती है। शादी कर रचना जब ससुराल आई तो ससुराल में सास मालिनी जी, ननद सावी, देवर सुदेश और पति मयंक ही था। घर में सास मालिनी जी का रुतबा था। मजाल है उनके सामने दोनों बेटे कुछ कह जाए। पर रचना ने अपनी तरफ से कहीं कोई कमी नहीं छोड़ी। अपनी तरफ से उसने हमेशा ससुराल वालों को खुश करने की कोशिश ही की। लेकिन ससुराल वालों को कभी खुश ना होना था, ना वो लोग हुए। और इस आग में घी का काम रचना के माँ न बनने ने पूरी तरह से किया। शादी के दो तीन साल तक तो मयंक खुद ही बच्चा नहीं चाहता था। लेकिन एक साल पूरा होते होते तो मालिनी जी ने बच्चें की रट लगा दी। उनका बच्चे के लिए इतना मन देखकर आखिर मयंक फैमिली प्लान करने को तैयार हुआ। लेकिन काफी कोशिशों के बावजूद भी रचना कनसीव नहीं कर पाई। इन्हीं कोशिशें में दो साल और निकल गए। साथ ही साथ मालिनी जी के ताने भी तेज होते गए। तब डॉक्टर के कहने पर दोनों ने अपना पूरा मेडिकल चेकअप करवाया। पहले तो मयंक तैयार ही नहीं हुआ। और ना ही मालिनी जी इसके लिए तैयार थी। उनके अनुसार तो कमी रचना में ही थी। बड़ी मुश्किल से मयंक राजी हुआ था। लेकिन जब रिपोर्ट आई तो पता चला कि कमी रचना में ही थी। हालांकि रचना ने रिपोर्ट नहीं देखी थी। उसने तो बस मयंक की बातों पर विश्वास किया था। बस तब से मालिनी जी ने मयंक की दूसरी शादी की बात शुरू कर दी। हालांकि मयंक कभी भी इसके लिए तैयार नहीं हुआ। उसने बच्चा गोद लेने के लिए भी कहा लेकिन मालिनी जी तैयार नहीं हुई। अब तो देवर सुदेश की भी शादी हो चुकी थी और देवरानी नेहा ने दो महीने बाद ही खुशखबरी सुना दी। बस फिर क्या था? तानों का वार और तेज होता गया। एक दिन ऐसा नहीं जाता था जब मालिनी जी उसके दिल के टुकड़े-टुकड़े ना कर देती। लेकिन हर बार मयंक उसके साथ खड़ा हो जाता। बस यही उसके लिए सुकून के पल होते थे। कुछ ही दिनों बाद मालिनी जी ने रचना का कमरा ऊपर वाले फ्लोर पर कर दिया। साथ ही एक छोटी रसोई भी बनवा दी। ये कहकर की कि वो रचना का साया नेहा पर नहीं पड़ने देगी। आज देवरानी का बेटा भी एक साल का हो चुका है लेकिन मजाल हैं कि मालिनी जी ने आज तक उस बच्चे को रचना को हाथ तक लगाने दिया हो। आज सावी की सगाई थी। खास ननद की सगाई थी लेकिन ये बात उसे पड़ोस में से पता चली। सुबह जब सब लोग घर से निकलने की तैयारी कर रहे थे तो रचना वहां पहुंच गई। और सबसे पहला सवाल मालिनी जी से ही किया, "मम्मी जी आपने बताया तक नहीं कि आज सावी की सगाई है। क्या मैं इस घर की सदस्य नहीं हूं। मुझे जानने का हक नहीं है?" लेकिन मालिनी जी ने रचना की तरफ देखने की जगह मयंक से सवाल किया, "तूने बताया नहीं इसे?" इतने में मयंक रचना के पास आया और उसे ऊपर ले जाते हुए बोला, "रचना अभी ये सब बातें छोड़ो। चलो, ऊपर चलो" "नहीं मयंक, ये गलत है। मुझे पड़ोसियों से पता चल रहा है कि सावी की सगाई है। मैं भी तो भाभी हूं उसकी। ले जाना तो दूर की बात है। मैं ये बात जानूँ, क्या ये मेरा हक नहीं है" इतने में मालिनी जी गुस्सा होते हुए बोली, "आज खुशी का दिन है। और मैं चाहती हूँ कि मेरी बेटी की झोली आशीर्वाद से भरे। अपनी बेटी पर तेरा साया नहीं चाहती थी इसलिए तुझे नहीं बताया" "मां अब बस भी करो ना। मैं रचना को लेकर जा तो रहा हूं। फिर क्यों बोले जा रही हो आप" मयंक का रचना का साथ देना मालिनी जी को अच्छा नहीं लगा तो वो मयंक को सुनाते हुए बोली, "हां तू ही साथ दे इसका। एक बार मेरी बेटी की शादी हो जाने दे। उसके बाद तो इसका इस घर से हमेशा हमेशा के लिए किस्सा ही खत्म करुँगी। मैं तेरी दूसरी शादी करवा कर ही रहूँगी। पता नहीं तू क्यों झेल रहा है इस बाँझ।। " "बस करो मां। एक शब्द भी नहीं बोलोगी आप" अचानक मयंक बोला तो मालिनी जी चुप हो गई। मयंक रचना का हाथ पकड़ कर उसे ऊपर लेकर आ गया। रचना की आंखों से आंसू बहे जा रहे थे। मयंक उसे समझाते हुए बोला, "बस, इसीलिए मैं तुम्हें नहीं बता रहा था। मैं जानता था कि तुम्हें दुख होगा। क्योंकि माँ तुम्हें ले जाने को तैयार नहीं होगी। देखो रचना, मेरी बात को समझो। बड़ा भाई होने के नाते मुझे तो जाना ही पड़ेगा। पर मैं तुम्हारा दिल नहीं तोड़ना चाहता था। इसलिए तुम्हें नहीं बताया। प्लीज, मेरी बात को समझो" मयंक अपनी बात समझाते हुए बोला। खूब देर तक उसे चुप कराने की कोशिश करता रहा। तभी नीचे से मालिनी जी की आवाज आई, "मयंक जल्दी चलो, देर हो रही है। लड़के वाले आ गए होंगे" सुनकर मयंक ने रचना को कहा, "रचना, देखो मुझे अपनी जिम्मेदारी तो निभानी ही पड़ेगी ना। प्लीज तुम रो मत। अगर तुम इसी तरह रोती रहोगी तो मेरा दिल नहीं लगेगा। और अगर तुम चाहती हो तो मैं भी नहीं जाऊंगा। मैं तुम्हारे पास ही बैठ जाता हूं" कह कर मयंक वही पलंग पर बैठ गया। उसे वहां ऐसे बैठे देखकर रचना के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। वो अपने आंसू पोछते हुए बोली, "मैं भला कौन होती हूं एक भाई को अपनी बहन की सगाई में जाने से रोकने वाली। मैं सावी के इतने खूबसूरत दिन को खराब नहीं करूंगी। तुम जाओ। मैं नहीं रो रही हूं" कहते हुए रचना ने मयंक को वहां से विदा किया।मयंक को विदा करने के काफी देर तक रचना यूं ही चुपचाप बैठी रही। फिर पता नहीं क्या सोचकर अलमारी की सफाई करने लगी। उस अलमारी की सफाई जिसे मयंक कभी हाथ तक नहीं लगाने देता था। काफी दिन से मयंक अलमारी की सफाई करने के लिए कह रहा था। सो रचना ने सोचा कि मयंक को तो वक्त मिल नहीं रहा है, इसलिए वो ही इसे साफ कर देगी। और अलमारी की सफाई करते समय ये रिपोर्ट वाली फाइल उसके हाथ लगी। बस तब से रचना यूं ही शाॅक होकर बैठी हुई है। कुछ सोच कर रचना उठी और घर को लॉक कर बाहर निकल गई। कुछ देर बाद सब लोग घर पर आ गए तब तक रचना भी घर आ गई। जब रचना वापस घर आई तो मयंक ने उसे देखकर कहा, "रचना कहां गई थी तुम?" उसे देखकर रचना को बात करने की इच्छा नहीं हो रही थी। पर फिर भी बोली, "डॉक्टर के पास गई थी। मन कुछ खराब हो रहा था" "क्या कहा डॉक्टर ने?" मयंक ने फिक्र जताते हुए कहा।  "डॉक्टर ने कहा कि मैं मां बन सकती हूं। मुझ में कोई कमी नहीं है। इसलिए आते समय रास्ते में से मिठाई लेकर आई हूं" कहते हुए रचना मिठाई का डिब्बा लेकर मयंक के पास आई और उसे खोलकर मयंक का मुंह मीठा कराने लगी। पर मयंक ने उसका हाथ रोकते हुए कहा, "पर रचना। वो पिछली मेडिकल रिपोर्ट तो।।।" "अरे हां, वो मेडिकल रिपोर्ट। उस रिपोर्ट में तो कहीं नहीं लिखा था कि मैं माँ नहीं बन सकती। है ना मयंक?" रचना ने प्रश्न भरी नजरों से मयंक की तरफ देखा। तब तक मालिनी जी बोली, "अब चाहे तू कुछ भी तमाशा कर ले। तू इस घर में नहीं रहेगी। अब तो मैं अपने बेटे की दूसरी शादी कर के ही रहूंगी। तेरे जैसी बाँझ को तो इस घर में मैं बिल्कुल ना रहने दूँ" "बाँझ?? आज ये शब्द चुभ नहीं रहा मुझे। जानते हो क्यों मयंक? क्योंकि आज तुम्हारी रिपोर्ट मेरे हाथ में आई। ये बाँझ शब्द तो उस 'धोखे' से बहुत छोटा है जो तुम मेरे साथ कर रहे थे। तुम्हारी मां मुझ पर तानों के वार पर वार किये जा रही थी और तुम? तुम चुपचाप सुने जा रहे थे। मुझे लगा था कि तुम मेरा साथ दे रहे हो। तुम मुझे अकेला कभी नहीं छोड़ोगे।लेकिन सबसे पहले अकेला तो तुमने छोड़ा मुझे। बस अब और नहीं" "रचना मुझे माफ कर दो। मुझसे हिम्मत ही नहीं हुई कि मैं सबके सामने सच्चाई ।।।" मयंक कहते-कहते चुप हो गया। "तू क्यों उससे माफी मांग रहा है? इसके जैसी बहुत आएगी। जाने दे इसे। तेरे लिए मैं एक से बढ़कर एक रिश्ते लेकर आऊँगी " "बिल्कुल लाइए मां जी, बिल्कुल लाइए। अपने बेटे की दूसरी शादी करवाईए। पर उससे भी कुछ नहीं होने वाला। क्योंकि आपका बेटा ही पिता नहीं बन सकता" रचना की बात सुनकर मालिनी जी ने मयंक की तरफ देखा। मयंक गर्दन झुकाए खड़ा हुआ था। मालिनी जी को समझते देर नहीं लगी कि आखिर मयंक किस बात की माफी रचना से मांग रहा है। ये देखकर वो अपनी बात पलटते हुए बोली, "बहु ठीक है, मयंक से गलती हो गई। अब तू क्या बात पकड़ कर बैठी हुई है। बच्चा नहीं हो सकता तो बच्चा गोद लिया जा भी सकता है" "अरे वाह माँ जी, बहुत जल्दी बात पलटना तो कोई आपसे सीखे। बहु बाँझ है तो दूसरी बहू आ जाएगी। लेकिन बेटा बच्चा पैदा नहीं कर सकता तो बच्चा गोद ले लेंगे। क्यों? मुझे ये फैसला मंजुर नहीं है। मुझे इस धोखे से भरे हुए रिश्ते से छुटकारा चाहिए" कहकर रचना अपने कमरे में अपना सामान लेने चली गई। मालिनी जी ने उसे खूब रोकने की कोशिश की पर रचना नहीं रुकी। और आखिर ये रिश्ता यहीं खत्म हो गया। *****

  • कशक

    अजीत अस्थाना मेरी और रमन की शादी शुदा जिंदगी खुशहाल थी। घर में कोई कमी नहीं थी। सास, ससुर और एक देवर का मेरा छोटा सा संसार था। रमन एक मल्टीनेशनल कंपनी में अधिकारी थे। अच्छी तनख्वाह और सारी सुख सुविधा थी। रमन मुझे दिलो जान से चाहते थे। शादी के डेढ़ वर्ष बीतते बीतते हम एक पुत्र के मां, बाप हो गए। पोते को पा कर उसके दादा, दादी, चाचा सभी खुश थे। उनका परिवार दरभंगा में रहता था। मैं, रमन और बेटा राजू के साथ उनकी नौकरी पर पटना में रहते थे। मेरा मायका बनारस में था। रमन हर दूसरे दिन हम दोनों को बाहर घुमाने फिराने ले जाते। अक्सर हम होटल में ही रात का खाना खाते। सच मूच मुझे दुनिया की सारी खुशीयां मिल गई थी। सच ही कहते हैं, मां, बाप की पसंद और मर्जी से किए फैसले अच्छे होते हैं। सब कुछ ठीक ठाक था। मगर अक्सर जब सब अच्छा होता है तब कभी-कभी बुराई का आगाज भी हो जाता है। एक दिन रमन ऑफिस से आए तो हमेशा की तरह खुश नही थे। उनके चेहरे की परेशानी देख कर मुझे फिक्र होने लगी। वह जब भी घर लौटते तो सब से पहले मुझे ढूंढते फिर राजू के साथ खेलने लगते। मगर उस दिन ऐसा नहीं हुआ। रमन अपना बैग सोफा पर रख कर चुप चाप बैठ गए। मुझे चिंता हुई तो वजह पूछने पर "कुछ नहीं" कह कर कमरे में चले गए। मै समझी कि ऑफिस की कोई परेशानी होगी। मैने रोज की तरह चाय बनाई और ले कर उनके कमरे में गई। पलंग पर बिना कपड़ा बदले चुपचाप पड़ा देख कर मुझे ज्यादा चिंता होने लगी। इस तरह परेशान हाल मैंने इन्हें कभी नही देखा था। मैंने चाय उनकी ओर बढ़ायी तो बिना मेरी ओर देखे कहा "रख दो टेबल पर" मुझे इनका व्यवहार अजीब सा लगा। कारण पूछने पर झुंझलाते हुए कहा "मुझसे बार बार मत पूछो। जब बताना होगा तो बता दूंगा" मुझे आगे कुछ भी पूछने की हिम्मत नहीं हुई। मैं किचन में चली आई। एक घंटे बाद सोए हुए राजू को कमरे में ले कर आई, तब तक वह सो चुके थे। मैने खाने के लिए उठाया, मगर उन्होंने कह दिया कि भूख नहीं है। मैं काफी देर तक चिंतित रही। पता नही मुझे कब नींद आ गई। सुबह देर से मेरी नींद खुली। रमन बिना मुझे जगाए पता नहीं कब ऑफिस चले गए थे। मैं दिन भर परेशान हाल, शाम होने का इंतजार करती रही। मैने सोच रखा था कि शाम को उनके परेशानी की वजह पूछ कर ही रहूंगी। शाम को वह देर से लौटे। उन्हें चाय दे कर सामने बैठ गई और परेशानी की वज़ह जानने की जिद करने लगी। मेरी जिद पर रमन गौर से मेरी आंखों में देखने लगे। उस दिन उनकी आंखों में देख कर मैं सिहर उठी थी। इनकी आंखों में इतनी बेचैनी मैने पहले कभी नही देखी थी। बार-बार पूछने पर उन्होंने उल्टा मुझसे सवाल किया "शादी से पहले पंकज से तुम्हारा क्या रिश्ता था...?” यह सुनते हीं मेरा सर चकराने लगा। मेरे हाथ पांव कांपने लगे। मेरी जुबान सिल गई। उनकी घूरती आंखों का सामना करने की मेरे अंदर हिम्मत खत्म हो चुकी थी। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि रमन के सवाल का क्या जवाब दूं..? वह लगातार मुझे घूर रहे थे। मैं ऊतना ही नर्वस हो रही थी। मुझे खामोश देख कर उनके होठों पर एक कुटिल मुस्कान उभरी। उन्होंने कहा "शायद सच बोलने की हिम्मत तुम्हारे अंदर खत्म हो गई है न..?" रमन मेरे पास से उठे और घर से बाहर निकल गए। मैं पत्थर की तरह सोफा पर जम सी गई। राजू सो गया था। घर के अंदर का सन्नाटा मुझे और ज्यादा भयभीत कर रहा था। मैं सोचने लगी कि अचानक पंकज की बात पूछने की क्या वजह होगी। शादी के तीन साल बाद अचानक पंकज का जिक्र हमारे बीच आ जाने से मैं डर सी गई थी। कहते हैं न कि हर डर के पीछे कोई न कोई छुपी वजह जरूर होती है। मुझे पहले डर हुआ करता था क्योंकि मेरे मायके के रिश्तेदार और वहां के पास पड़ोस के लोग जब भी काम से पटना आते तो रमन से ऑफिस में मिल कर जाते। इस लिए मैं हमेशा चौकस रहती। यह सच है कि शादी से पहले मैं पंकज को पसंद करती थी। पंकज भी मुझे चाहते थे। मेरे पड़ोस में रहने वाला पंकज एक अच्छा लड़का था। वह सुंदर था और पढ़ाई में अव्वल भी था। उसमें हर वह बात थी जिससे कोई भी लड़की आकर्षित हो सकती थी। हम दोनों दिल ही दिल में एक दूसरे को पसंद करते थे। मगर हमने अपने दिलों की बात एक दूसरे पर कभी भी जाहिर नहीं किया था। पड़ोसी होने के कारण हमारा राफ्ता हमेशा होता। हम एक दुसरे के काम भी आते। एक दूसरे का ख्याल भी रखते। हम दोनों एक दूसरे के जज़बाद की परवाह भी करते। दोस्तों में हमारी पसंदगी की चर्चा भी होती। मगर हम दोनों एक दूसरे से प्यार का इजहार नहीं कर पाए थे। या यूं समझे की हमारी हिम्मत नहीं हुई थी। मुहल्ले में भी लोग हम दोनों को शक की नजर से देखते थे। मगर हम कभी भी एक दुसरे के सामने अपने प्यार का इजहार नहीं कर पाए। उसका मुख्य कारण था, हमारे परिवारों का संस्कारी होना। हम दोनों को अपने माता, पिता की भावनाओं का हमेशा और खुद से ज्यादा परवाह होती। कई बार हमें मौका भी मिला जब अपने प्यार का इजहार कर सकते थे। मगर संस्कारी परवरिश और परिवार की इज्जत ने हमें ऐसा करने से रोक दिया था। इसी बीच मेरे घर वालों ने मेरा रिश्ता रमन से तय कर दिया। जिस दिन मेरी शादी की तारीख तय की गई, उस दिन पंकज ने हिम्मत दिखाई और अपने प्यार का इजहार कर दिया। मगर उसके इस स्वीकारोक्ति में देरी होने तथा पापा के फैसले से इंकार करने की हिम्मत मुझमें नहीं होने के कारण, मैंने अपने दिल की बात पंकज से छुपा ली और प्यार से इंकार कर दिया। क्योंकि मैं जानती थी कि अगर मैं अपने दिल की सच्चाई उसे बता देती तो वह मर जाता। मेरे दिल में भी उसके लिए प्यार है, यह जान कर वह मेरी जुदाई बर्दाश्त नहीं कर पाता। इस लिए मैंने सच्चाई की छुपा लिया था। मेरी शादी हो गई। पंकज से बिछड़ने का दुख मुझे बहुत दिनों तक सताता रहा। मगर वक्त हर घाव को भर देता है। पति का प्यार, ससुराल का दुलार मुझे मेरे गम से बाहर निकलने में बहुत मदद की। मैं लगभग पंकज को भूल गई। कभी-कभी जब मायके जाती तब पंकज के बारे में जानकारी होती। वह मेरे लिए दीवाना हो गया था। अपनी जिंदगी बरबाद करने पर तुला था। यह सब जान कर मुझे दुख होता। मेरी वजह से उसकी जिंदगी खराब हो गई थी। मैं खुद को उसका गुनहगार समझती। क्या हो जाता अगर मैं पहले ही उसके प्यार को स्वीकार कर लेती और अपने घर वालों से अपनी इक्षा जाहिर कर के उससे शादी कर लेती..? फिर जब वापस रमन के पास लौटती तो कुछ दिन में पंकज को भूल जाती। मैं बेचैनी से रमन का इंतजार करती रही। काफी रात को वह लौटा। उनका चेहरा अब भी तमतमाया हुआ था। मैं उनके सामने गुनहगार की तरह महसूस कर रही थी। मैं समझ नहीं पा रही थी कि इस मुश्किल से किस तरह निकलूं। रमन ने कपड़े बदले और बिना खाए सोने चले गए। मैने भी खाना नहीं खाया था। पलंग पर हम दोनों खामोश पड़े थे। मैं बात करना चाहती थी क्योंकि बात करना ही इस मुश्किल का एक मात्र हल था। मगर रमन दूसरी ओर सर घुमाए पड़े थे। मुझे मालूम था कि उनकी आंखों में भी नींद नहीं थी। मैने हिम्मत कर के कहा "तुमने जो पूछा था, उसका जवाब सुनना नहीं चाहोगे...?” वह उसी तरह मुंह फेरे पड़े रहे। मैने फिर कहा "अगर तुमने सवाल किया है तो जब तक जवाब नहीं सुनोगे तो सवाल का क्या मतलब रह जाएगा..? मैं तुम्हारे हर सवाल का जवाब देना चाहती हूं, चाहे इसका परिणाम कुछ भी हो" मेरी इस बात का असर हुआ। रमन मेरी ओर मुड़ कर मुझे देखने लगे। मुझे अब भी उनकी घूरती आंखों में देखने में मुश्किल हो रही थी। मगर मुझे सामना तो करना ही था। मैने मुश्किल से कहना शुरू किया "पंकज मेरे पड़ोस में रहता है। हम लोग हमउम्र थे। एक पड़ोसी होने के नाते हमारा पारिवारिक संबंध था। हम लोगों का एक दूसरे के घर आना जाना था। इस संबंध के कारण पंकज के दिल में मेरे लिए कब आकर्षण हो गया, इसकी जानकारी मुझे नहीं थी। मेरी शादी जब तुमसे तय हो गई तब उसने मुझे प्रपोज किया था, जिसे मैने इंकार कर दिया था। अगर मेरे दिल में कुछ भी होता तो या तो मैं तुमसे शादी करने से इंकार कर देती या फिर तुम्हारे साथ खुशहाल जिंदगी नही जी पाती। तुम बहुत पहले मेरे दिल के अंदर के चोर को जान गए होते। क्या तुमने कभी भी मेरे प्यार में कभी या खोट महसूस किया था...? मेरी तरफ से बस यही सच है" मैने इतनी बातें एक ही सांस में कह दिया। क्योंकि मुझे किसी भी तरह अपने संसार को बचाना था। मैने जो कहा उसमे पंकज के तरफ का पक्ष, सच था किंतु मैंने अपने सच को छुपा लिया था। शादी से पहले जब पंकज ने अपने प्यार का इजहार किया था तब भी मैने उससे झूठ कह कर अपनी सच्चाई को छुपाया था। मेरी बात सुनने के बाद रमन ने कोई भी प्रतिक्रिया नही दी। और वह दूसरी तरफ मुंह फेर कर सो गया। मैं भी यह सोच कर सोने की कोशिश करने लगी कि हो सकता है रमन मेरी बात समझ कर सुबह ठीक हो जाएंगे। मगर ऐसा नहीं हुआ। शीशे में पड़े खरोच की तरह रमन के दिल में मेरे लिए खोट कम नहीं हुई। कई दिन हो गए, रमन खुल कर मुझ से बात नहीं करते। वह अपने जरूरत के हिसाब से ही बोलते। मुझे उनके व्यवहार से परेशानी होने लगी। इसी तरह दो महीने गुजर गए। मैं रमन के दिल से बात निकाल नहीं पाई। वह बात-बात में पंकज के नाम पर ताना देने लगे। यह मुझे बुरा लगता। एक समय ऐसा भी आया जब उनसे मेरी लड़ाई भी होने लगी। मेरे भी बर्दाश्त की कोई हद थी। रमन कई बार मुझे मायके छोड़ आने की धमकी देते। पहले मैं सुन कर रह जाती। मगर अब मैं भी बोलने लगी थी। मैने भी कहना शुरू कर दिया था कि मुझे मायके छोड़ दो। वह दिन भी आ गया जब मुझे पापा के पास जाने का निश्चय करना पड़ा। मैं उनके तानों से तंग आ गई थी। रमन ने एक बार भी मुझे रोकने की कोशिश नहीं की। सीधा ट्रेन का रिजर्वेशन टिकिट मेरे हाथ में थमा दिया। मैं भी जोश में थी सो चल पड़ी। मायके पहुंचने के बाद मैने पापा, मां से कुछ भी नहीं बताया। कहा कि बहुत दिनों से आप लोगों की याद सता रही थी, इस लिए आ गई। मुझे उम्मीद थी कि जल्द ही रमन का गुस्सा शांत होगा, उसे मेरी तथा राजू की कमी महसूस होगी तो खुद लेने आ जायेंगे। मायके में आने की खबर पंकज को मिल चुकी थी। वह मुझसे संपर्क करना चाह रहा था। एक दिन मेरी मुलाकात हो गई। उसकी हालत देख कर मेरा दिल रो पड़ा। उसने तो मेरे प्यार में दिवानगी पाल ली थी। उसे अब तक यकीन नहीं हुआ था कि मैं उससे प्यार नहीं करती थी। उसने इशारों-इशारों में कई बार मुझ से सच जानना चाहा, मगर मैं उसकी जिंदगी और अपनी शादी बचाने के लिए झूठ का सहारा लेती रही। मुझे पंकज का सामना करना मुश्किल होता जा रहा था। मैं चाहती थी कि वह मुझे भूल जाए। इसी तरह कई महीने बीत गए। ना रमन मुझे लेने आए, ना ही कभी फोन किया। पापा, मां को इतने दिन मुझे यहां रहने से चिंता होने लगी। वे बार=बार मुझे रमन को फोन कर के बुलाने को कहने लगे। मैं टालती रही। जल्द ही उन्हें शक हो गया। एक दिन पापा ने रमन को फोन कर दिया। रमन ने कठोरता से कह दिया कि उसे मेरी जरूरत नहीं है। अपनी बेटी को अपने पास ही रखें। रमन के रुखे जवाब से मां, पापा परेशान हो गए। एक दिन पंकज मिला तो उसने भी काफी महीने से पापा के पास रहने की वजह पूछ ली। मैने भी भावना में आ कर रमन के शक के बारे में बता दिया। पंकज को दुख हुआ। वह मेरी फिक्र से और ज्यादा चिंतित हो गया। उसे इस बात का अफसोस हो रहा था कि उसके एक तरफा प्रेम की भेट मेरी जिंदगी चढ़ गई थी। उसने इशारों=इशारों में कहा कि अगर मैं वापस रमन के पास लौटना नहीं चाहती या रमन कोई तरजीह नहीं दे रहा है तो वह मुझे मेरे बेटे के साथ खुशी-खुशी अपनाने के लिए तैयार है। मगर यह मुझे मंजूर नहीं था। भले हीं शादी से पहले मैं पंकज को चाहती थी, मगर शादी के बाद किसी गैर मर्द की कल्पना करना मेरे संस्कार में नहीं था। मैने पंकज के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया। एक दिन अचानक पंकज ने बताया कि वह जल्द शादी करने वाला है। उसने यह भी बताया कि अगर मेरी जिंदगी मुश्किल में नहीं होती तो वह पूरी जिंदगी मेरी यादों के सहारे काट देता। अचानक एक दिन रमन का फोन आया। उसने बताया कि पंकज अपनी शादी का कार्ड ले कर शहर आया था। उसने रमन को यह कह कर कार्ड दिया कि "आप हमारे मुहल्ले के दामाद हैं, इसलिए वह खास तौर से उन्हें निमंत्रित करने आया है" मैं समझ गई कि पंकज ने यह कुर्बानी मेरे लिए ही दी थी। पंकज की शादी के रिसेप्शन में रमन खास तौर पर आए। उन्हें अब मेरी बात पर भरोसा हुआ था। स्टेज पर पंकज अपनी दुल्हन के साथ बैठा था। रमन और मैं दोनो को मिलने स्टेज पर गए। रमन और मुझ से मिलते वक्त पंकज के होठों पर तो मुस्कुराहट थी। मगर उसकी आंखों के दर्द को सिर्फ मैं ही पहचान रही थी। अगले दिन रमन जब लौटे तब साथ में मैं और राजू भी थे। रमन की जब भी मुझसे आंख मिलती, उसमें उसका अपराध बोध होता, मानो उसने मुझ पर शक कर के गलती कर दी हो। जहां उनके दिल में खुशी होती वहीं मेरा दिल बेजुबान होता। उसमें कहीं न कहीं पंकज के लिए कशक जरूर होती। ******

  • जीवन की सीख

    रमाशंकर द्विवेदी एक बार की बात है। एक खूबसूरत लड़की अपने शादी-शुदा जिंदगी से तंग आकर अपने जीवनसाथी की हत्या करना चाहती थी। एक सुबह वह दौड़कर अपनी मां के पास गई और बोली, "मां, मैं अपने पति से थक गई हूं, मैं अब उसको और उसकी बकवास का समर्थन नहीं कर सकती। मैं उसे मारना चाहती हूं, लेकिन मुझे डर है कि देश का कानून मुझे जिम्मेदार ठहराएगा, क्या आप मदद कर सकती हैं। मुझे मां?" माँ ने उत्तर दिया: - हां मेरी बेटी, मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं, और जरूर करूंगी, लेकिन, एक छोटा सा काम है जो तुम्हें करना होगा क्या तुम वो कर पाओगी। बेटी ने पूछा "कौन सा काम? आप बस कहो मैं उसे बाहर निकालने के लिए कोई भी काम करने को तैयार हूं।" ठीक है, माँ ने कहा, 1.   तुम्हें उसके साथ शांति बनानी होगी, ताकि उसके मरने पर किसी को तुम पर शक न हो। 2.  उसे जवान और आकर्षक दिखने के लिए आपको खुद को संवारना होगा। 3. तुम्हें उसकी अच्छी देखभाल करनी होगी और उसके प्रति बहुत अच्छा और सराहना पूर्ण व्यवहार करना होगा। 4. तुम्हें धैर्यवान, प्रेमपूर्ण और कम ईर्ष्यालु होना होगा, अधिक सुनने वाले कान होने चाहिए, अधिक सम्मानजनक और आज्ञाकारी होना चाहिए। 5. उसके लिए अपना पैसा खर्च करने होंगा और जब वह तुम्हें किसी भी चीज के लिए पैसे ना दे तो भी नाराज नहीं होना होगा। 6. उसके खिलाफ आवाज न उठाएं बल्कि शांति और प्रेम को प्रोत्साहित करें ताकि जब वह मर चुका हो तो भी किसी को तुम्हारे ऊपर कभी भी संदेह न हो। क्या तुम यह सब कर सकती हो? माँ से पूछा। हाँ जरूर मैं बिल्कुल कर सकती हूं। उसने जवाब दिया। ठीक है, माँ ने कहा। माँ ने उसे एक चूर्ण का पैकेट दिया और उसको जानकारी देते हुए कहा की इस चूर्ण को लेकर उसके प्रतिदिन के भोजन में थोड़ा सा मिला दें, इससे वह धीरे-धीरे मर जाएगा। 30 दिन बाद महिला अपनी मां के पास वापस आई और बोली। माँ, अब मेरा अपने पति को मारने का कोई इरादा नहीं है। अब तक मुझे उससे फिर से प्यार हो गया है क्योंकि वह पूरी तरह से बदल गया है, वह अब इतना प्यारा पति है जितना मैंने कभी सोचा था। उसने रोते-रोते अपनी माँ से कहा की मैं जहर से उसे मरने से बचाने के लिए क्या कर सकती हूँ? प्लीज़ मेरी मदद करो माँ। उसने दुःखी स्वर में विनती की। माँ ने उत्तर दिया; चिंता मत करो मेरी बेटी। उस दिन मैंने तुम्हें जो दिया वह सिर्फ टरमयुरिक पाउडर था। यह उसे कभी नहीं मारेगा। वास्तव में, कहीं न कहीं तुम ही वो जहर थीं जो धीरे-धीरे आपके पति को तनाव और वैराग्य से मार रही थी। जब तुमने उससे प्यार करना, उसका सम्मान करना और उसकी देखभाल करना शुरू किया, तो तुमने उसे खुद ही बचा लिया और साथ ही साथ अपना परिवार भी। ******

  • पति प्रेम

    अर्चना सिंह एक छोटे से गांव में एक पति थक हार कर घर लौटा और अपनी पत्नी से पानी मांगा। जब पत्नी पानी लेकर आई, तो पति गहरी नींद में सो गया। पत्नी ने अपने पति के प्रति प्रेम और करुणा के कारण पूरी रात उसके पास गिलास हाथ में लिए खड़ी बिताई, यह सोचते हुए कि अगर वह जाग जाए तो उसे तुरंत पानी दे सके। यह बात पूरे गांव में फैल गई और सम्राट ने उसे उसकी निस्वार्थ सेवा के लिए सम्मानित किया। सम्राट ने महसूस किया कि यह महिला प्रेम और सेवा की जीवंत मूर्ति है और उसकी संस्कृति का जीवंत प्रतीक है। इस घटना से प्रेरित होकर पड़ोसी महिला ने भी रातभर अपने पति के पास गिलास लेकर खड़े होने का नाटक किया ताकि उसे भी सम्मान और पुरस्कार मिले। हालांकि, उसके अंदर प्रेम और निस्वार्थ भावना का अभाव था। सम्राट ने उसकी इस नकल और पाखंड को भांप लिया और उसे दंड दिया। उसने कहा कि करना और होना दो अलग बातें हैं। जब कर्म भावना से प्रकट होता है, तभी उसका मूल्य होता है। सम्राट ने स्पष्ट किया कि प्रेम, सेवा, भक्ति जैसी भावनाएं सिर्फ क्रियाओं से नहीं जानी जा सकतीं। इनका वास्तविक अर्थ तभी होता है जब वे हमारे हृदय में गहराई से महसूस हों। इस प्रकार की प्रामाणिकता ही सच्चा सम्मान और पुरस्कार प्राप्त कराती है। नकली कृत्यों से केवल बाहरी दिखावा किया जा सकता है, परन्तु ऐसे कृत्यों में वह आत्मिक ऊर्जा नहीं होती जो सच्चे भावों से उत्पन्न होती है। जीवन में भी हम अकसर दूसरों की नकल करते हैं या उनके तरीकों को अपनाने का प्रयास करते हैं, चाहे वह किसी धार्मिक आचरण में हो या जीवन के अन्य पहलुओं में। सार - प्रत्येक व्यक्ति को अपनी राह स्वयं बनानी चाहिए और अपने भावनात्मक स्तर पर ईश्वर से जुड़ना चाहिए। किसी और के तरीके या आचारण को अपनाने से केवल बाहरी दिखावा होता है और उस प्रामाणिकता का अभाव रहता है जो सच्चे प्रेम, भक्ति और सेवा के लिए आवश्यक होती है। *****

  • दिव्य कमल

    हरिशंकर गोयल "श्री हरि" गन्धमादन पर्वत पर सम्राट युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव, द्रोपदी, ऋषि धौम्य, महर्षि लोमश और अन्य साधु संत "नर नारायण" क्षेत्र में ठहरे हुए थे। सामने अलकनंदा कल कल करती हुई बह रही थी और उस क्षेत्र को जीवन दान दे रही थी। यह वह क्षेत्र था जहां "बदरी" विशाल वृक्ष पाये जाते थे। इन बदरी वृक्षों के कारण यह क्षेत्र "बद्री विशाल" के नाम से जाना जाता था। नवीं शताब्दी में यहां पर आदि शंकराचार्य ने बद्रीनाथ मठ की स्थापना की थी। यह वह समय था जब पाण्डवों को 12 वर्ष का वनवास मिला हुआ था। अर्जुन दिव्य अस्त्र लेने के लिए तपस्या करने चले गये थे और वहीं से वे स्वर्ग लोक में देवराज इन्द्र के अतिथि बनकर रह रहे थे। अर्जुन ने कहा था कि वे पांच वर्षों के पश्चात इसी गन्धमादन पर्वत पर मिलेंगे। महाराज युधिष्ठिर सहित शेष पाण्डव अर्जुन से मिलने के लिए गन्धमादन पर्वत पर आये हुए थे। अर्जुन से मिलने के लिए सभी लोग अत्यंत व्याकुल थे। सम्राट युधिष्ठिर ऋषि धौम्य और महर्षि लोमश के साथ धार्मिक, नैतिक चर्चा करने में व्यस्त हो गये। नकुल और सहदेव उनकी सुरक्षा में तैनात थे। महाबली भीमसेन और महारानी द्रोपदी खुले आसमान में आकर प्रकृति का आनंद लेने लगे। चारों ओर फैली हुई हिमालय पर्वत श्रंखला जिसकी चोटियां बर्फ से ढकीं हुई थीं, बहुत ही रमणीक लग रही थी। इन चोटियों पर जब सूर्य की किरणें पड़ती थीं तब वे किरणें उन चोटियों से ऐसे फिसल फिसल जाती थीं जैसे किसी अप्सरा के बदन से पानी की बूंदें फिसल जाती हैं और वे उस मादक बदन से जुदा होकर उसकी जुदाई में स्वत: नष्ट हो जाती हैं। पवन में ऐसी मादकता भरी हुई थी जैसे किसी नवयौवना के नयनों में सैकड़ों मधुशालाऐं भरी हुई होती हैं। चारों ओर विभिन्न प्रकार के पुष्पों की ऐसी महक आ रही थी जैसे सुन्दरियों के किसी जलसे में उनके बदन की पृथक-पृथक महकों के सम्मिश्रण से बनी अद्भुत महक आ रही हो। वह अलौकिक प्राकृतिक सौन्दर्य भीमसेन के हृदय में प्रेम का सागर भर रहा था और भीमसेन अपने सम्मुख एक शिला पर बैठी पांचाली के नैसर्गिक सौन्दर्य को अपलक निहार रहे थे। भीमसेन द्रोपदी के लावण्य रस का पान करने लगे। "ऐसे क्या देख रहे हैं? आज पहली बार देख रहे हैं क्या मुझे, प्राण"? द्रोपदी भीमसेन को "प्राण" कहकर बुलाती थी। द्रोपदी ने अपने पांचों पतियों को पृथक पृथक संबोधन दे रखे थे। द्रोपदी को यद्यपि पांचों पाण्डव हृदय के गहनतम तल से प्रेम करते थे किन्तु भीमसेन तो द्रोपदी के हृदय में ही रहते थे। द्रोपदी के काले घुंघराले केश भीमसेन के मुख को चूम रहे थे। भीमसेन उन केशों के मधुर स्पर्श से रोमांचित हुए जा रहे थे। जिस तरह द्रोपदी का सौन्दर्य दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा था उसी तरह भीमसेन के हृदय में द्रोपदी के लिए प्रेम बढ़ रहा था। जैसे ही भीमसेन द्रोपदी के लहराते हुए बालों को छूने को हुए तो द्रोपदी ने भीमसेन को रोक दिया।  "रुकिए प्राण! इन केशों को स्पर्श मत कीजिए" "पर क्यों पांचाली? क्या ये केश मेरे छूने से मैले हो जाऐंगे"? आश्चर्य से देखते हुए भीमसेन बोले। "नहीं, वो बात नहीं है प्राण। ये केश अभी अपवित्र हैं। इन्हें दुष्ट दुशासन के अपवित्र हाथों ने छुआ है। आपके हाथ तो गंगा मां की तरह पवित्र हैं। इन अपवित्र केशों को छूकर आपके हाथ अपवित्र हो जायेंगे प्राण। आपने ही तो प्रतिज्ञा ली है कि आप इन्हें दुष्ट दुशासन के रक्त से प्रक्षालित करेंगे। ये केश उस दिन का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं प्राण! जिस दिन मैं अपने केश उस दुष्ट के रक्त से प्रक्षालित करूंगी, तब सर्वप्रथम आप ही इन केशों को संवारना क्योंकि तब ये केश आपके पवित्र हाथों के छूने के योग्य हो जायेंगे"। द्रोपदी की आंखों से प्रेम की बरसात हो रही थी लेकिन उनमें विवशता भी नजर आ रही थी और पीड़ा भी छुपी हुई थी जो अपनी उपस्थिति स्वयं बता रही थी। दोनों पति पत्नी इसी तरह प्रेमालाप में निमग्न थे कि हवा का एक बहुत तेज झोंका आया। उस झोंके से पांचाली का उत्तरीय हवा में उड़ गया। द्रोपदी का अनिन्द्य सौन्दर्य यकायक अनावृत हो गया। शर्म से द्रोपदी भीमसेन से लिपट गई और उसने अपने बदन को भीमसेन की विशाल छाती से ढंक लिया। इतने में एक विचित्र प्रकार का पुष्प पांचाली के सामने आकर गिरा। वह दिव्य पुष्प हरा और स्वर्ण रंग के कमल के सदृश था जो कि बहुत ही मनोहारी था। उसकी सुगंध भी दिव्य थी। द्रोपदी ने झटपट वह कमल उठा लिया और अपने कोमल अधरों से लगा लिया। भीमसेन यह अद्भुत दृश्य देख रहे थे और सोच रहे थे कि दोनों में अधिक कोमल कौन है, पांचाली के अधर या वे दिव्य सौगन्धिक कमल? "प्राण! ये कौन से पुष्प हैं? ऐसा पुष्प मैंने आज पहली बार देखा है। क्या ये कमल इस गंधमादन पर्वत पर ही मिलते हैं? मैं ऐसे बहुत से पुष्प चाहती हूं प्राण! क्या आप मेरे लिए इन्हें लेकर आयेंगे"? द्रोपदी की आंखों में उन दिव्य सौगन्धिक कमल के लिए उतनी ही प्रीति थी जितनी एक बालक के मन में प्रथम बार पूर्ण विकसित चन्द्रमा को देखकर प्रीति उपजती है और वह उसे पाने के लिए मचल उठता है। द्रोपदी भी दिव्य सौगन्धिक कमलों के लिए मचलने लगी थी। उसकी आंखें उस सौगन्धिक कमल पर चिपक गईं थीं। उसके अधर उस सौगन्धिक कमल के रस का पान कर रहे थे। द्रोपदी के हृदय में उसे पाने के लिए सागर में उठने वाले तूफान की तरह आसक्ति का तूफान उठ रहा था। पांचाली की ऐसी हालत देखकर भीमसेन ने पांचाली को अपने दोनों मजबूत बाजुओं में कसते हुए कहा। "ये दिव्य सौगन्धिक कमल हैं प्रिये! ये एक दिव्य सरोवर में होते हैं। उस दिव्य सरोवर के स्वामी यक्षराज कुबेर हैं। उस सरोवर में ऐसे सहस्त्रों दिव्य सौगन्धिक कमल खिल रहे हैं। कहो तो मैं सारे के सारे दिव्य सौगन्धिक कमल लाकर आपका श्रंगार कर दूं। या फिर आपके ऊपर उन दिव्य सौगन्धिक कमलों की बरसात कर दूं। मैं ऐसा कौन सा कार्य करूं प्रिये जिससे आपकी मनोकामना पूर्ण हो जाये? मैं आपके कपोलों के मध्य भाग में स्थित गह्वर द्वय की सौगंध खाकर कहता हूं प्रिया कि मुझे जो आनंद आपकी कामना पूर्ति में आता है, वैसा आनंद तो दुष्ट दुशासन का वध करने में भी नहीं आएगा। मुझे आज्ञा दो पांचाली कि यह प्रेमी अपनी "हृदया" के लिए क्या कर सकता है जिससे उसकी प्रेमिका का संपूर्ण प्रेम उसे हासिल हो सके"? भीमसेन द्रोपदी की पलकें चूमकर बोले। "नाथ! मैं तो सदा से ही आपकी हूं। आप मेरे हृदय में उसी प्रकार बसते हैं जिस प्रकार कैलाश में भोलेनाथ, बैकुण्ठ में नारायण और ब्रह्म लोक में ब्रह्मा जी। मैंने आज प्रथम बार इन दिव्य सौगन्धिक कमलों को देखा है, इनकी कोमलता को महसूस किया है, इनकी सुगंध में डूबी हूं। इससे मेरे मन में इनके लिए एक विशेष प्रकार का राग उत्पन्न हो गया है और हृदय में कामनाओं के अनंत सागर प्रकट हो गये हैं। मैं जब भी कंत (युधिष्ठिर को द्रोपदी कंत कहकर ही बुलाती थी) को देखती हूं, दुख के सागर में निमग्न हो जाती हूं। वे इस स्थिति के लिए सदैव अपने आपको मन ही मन कोसते रहते हैं। हमारे कष्टों का हेतु वे स्वयं को समझते हैं। सम्राट का हृदय एकदम निर्मल है प्राण। उसमें अभी भी दुर्योधन के लिए कोई क्रोध, घृणा नहीं है किन्तु जुए के खेल के लिए क्षोभ अवश्य है। वे जुंआ खेलना नहीं चाहते थे प्राण, उन्होंने तो अपने "तात श्री" के आदेश का पालन किया था। उन्हें राज्य गंवाने का कोई मलाल नहीं है लेकिन उन्हें अपने अनुजों के कष्ट की वेदना अवश्य है। उन्हें अपनी प्रतिष्ठा खो देने की ग्लानि नहीं है अपितु मेरे दग्ध हृदय के कारण संताप बहुत अधिक है। मैं चाहती हूं कि ऐसे दिव्य सौगन्धिक कमलों का हार उन्हें पहनाऊं, इनका एक मुकुट बनाकर सम्राट के सूने मस्तक पर सजाऊं और उनके चरणों में दिव्य सौगन्धिक कमल चढ़ाकर मैं अपने प्रेम की पुष्पांजलि अर्पित करूं जिससे उन्हें पल दो पल को ही सही, थोड़ी सी मुस्कान तो दे सकूं। उनके चेहरे पर आने वाली एक स्मित मुस्कान मेरे लिए सौ जन्मों के वरदान के सदृश है प्राण! क्या आप मेरी ये कामना पूरी करेंगे स्वामी"? द्रोपदी के अंग अंग से याचना प्रकट हो रही थी। आंखों से, अधरों से, ग्रीवा से, उभय करों से और मुख मुद्रा से। भीमसेन के लिए द्रोपदी की प्रत्येक इच्छा भगवान का आदेश सदृश थी। प्रेम की यह कैसी रीति है कि भीमसेन अपनी प्रिया के प्रेम में उन्मत्त हो रहे हैं और द्रोपदी सम्राट युधिष्ठिर के चेहरे पर मुस्कुराहट की एक लकीर देखने के लिए अधीर हो रही हैं। इसके बावजूद भीमसेन का द्रोपदी के लिए प्रेम कम होने के बजाय और बढ़ता ही जा रहा था। "आप धन्य हैं पांचाली जो आप ज्येष्ठ के हृदय की बात जानती हैं वरना हम चारों भाई तो आज तक उनके हृदय की थाह कभी ले ही नहीं पाये। माता कुंती भी उनके हृदय के गहनतम स्थल तक पहुंच नहीं पाईं। ये आपके निश्चल प्रेम का ही परिणाम है कि आप उनकी मुख मुद्रा से ही उनके हृदय की गति भांप लेती हैं। ज्येष्ठ कभी अपने हृदय की बात नहीं बताते हैं। वे हम चारों भ्राताओं से उसी तरह स्नेह करते हैं जिस तरह परमात्मा अपने सभी जीवों से स्नेह करते हैं। मैं अभी थोड़ी देर में दिव्य सौगन्धिक कमल लेकर आता हूं। तब तक आप ज्येष्ठ को यह अहसास होने मत देना कि मैं कुबेर द्वारा रक्षित उस दिव्य सरोवर से दिव्य सौगन्धिक कमल लाने गया हूं वरना वे मेरी सुरक्षा के लिए बहुत चिंतित हो उठेंगे"। द्रोपदी के नर्म नाजुक हाथों को अपने हाथों में लेकर उन्हें चूमते हुए भीमसेन ने कहा। "वो तो ठीक है प्राण, पर कंत की सुरक्षा का क्या होगा? हृदय (द्रोपदी अर्जुन को हृदय कहकर बुलाती है) भी यहां नहीं हैं और आप भी यहां से चले जायेंगे तो क्या कंत असुरक्षित नहीं रह जायेंगे"? द्रोपदी के चेहरे पर चिन्ता की लकीरें साफ दिखाई दे रही थीं। "आप ठीक कहती हैं प्रिये। यद्यपि अनुज नकुल और सहदेव दोनों पर्याप्त हैं ज्येष्ठ की सुरक्षा के लिए किन्तु मैं ज्येष्ठ की सुरक्षा की और पुख्ता व्यवस्था कर देता हूं"। कहते हुए भीम ने अपने पुत्र घटोत्कच का स्मरण किया। घटोत्कच तुरंत उपस्थित हो गया और बोला। "मेरे लिए क्या आदेश है तात"? "मैं आपकी माता के लिए दिव्य सौगन्धिक कमल लेने के लिए अभी दिव्य सरोवर जा रहा हूं। जब तक मैं वापस लौटकर नहीं आ जाऊं, तब तक सम्राट और अपनी माता की सुरक्षा का ध्यान रखना पुत्र। और हां, ज्येष्ठ को तुम्हारी उपस्थिति की जानकारी नहीं होनी चाहिए नहीं तो वे मेरे लिए नाहक ही चिंता करेंगे"। "जी, उन्हें पता नहीं चलेगा, तात्"। भीमसेन पवन की गति से दिव्य सरोवर की ओर चल दिये। रास्ते में सघन वन को अपने बाजुओं से मसलते हुए वे तेजी से आगे बढने लगे। भीम द्रोपदी की हर ख्वाहिश पूरी करना चाहते थे। जब जब द्रोपदी उनसे कोई ख्वाहिश करती थीं तब तब उन्हें अपार आनंद प्राप्त होता था। द्रोपदी को ज्ञात था कि भीम उनकी हर ख्वाहिश पूरी करते हैं इसलिए वह अपनी ख्वाहिशें केवल भीम को बताती थीं। भीमसेन को इसी बात में गर्व होता था कि द्रोपदी उनसे बच्चों की तरह फरमाइश करती है। प्रेम की पराकाष्ठा अपने प्रेमी को प्रसन्न करने में है न कि अपनी मन मर्जी करने में। गंधमादन पर्वत की दुर्गम चढाई चढने के कारण द्रोपदी क्लान्त होकर बेहोश हो गई थी और भूमि पर गिर पड़ी थी तब नकुल और सहदेव ने द्रोपदी के पैर दबाकर, तलवों की मालिश कर और भांति भांति के जतन कर उनकी चेतना लौटाई थी। यही प्रेम है। प्रेम में न कोई छोटा होता है और न कोई बड़ा। प्रेम सबसे बड़ा होता है। भीमसेन उस दिव्य सरोवर तक पहुंच गये। कितना सुंदर सरोवर था वह। नील वर्णी, स्वच्छ, अमृत तुल्य। भीमसेन ने मन ही मन यक्ष राज कुबेर का स्मरण किया और उनका पूजन किया। कुबेर तत्काल वहां उपस्थित हो गये और उन्होंने भीमसेन को आज्ञा प्रदान कर दी कि वे जो भी चाहते हैं कर सकते हैं। तब भीमसेन ने सरोवर का अमृत तुल्य जल पीकर न केवल अपनी प्यास बुझाई अपितु उस जल से जीवन और बल भी प्राप्त किया। सरोवर में सहस्त्रों दिव्य सौगन्धिक कमल खिले हुए थे। वे एक तरफ से हरे रंग के थे तो दूसरी तरफ से स्वर्णिम आभा लिये हुए थे। नीचे से देखो तो हरा समंदर दिखाई देता था और ऊपर से देखो तो सूर्य भगवान की "ऊषा" के दर्शन होते थे। भीमसेन ने उन दिव्य सौगन्धिक कमलों को प्रणाम किया और उन्हें तोड़ने लगे। उनकी सुगंध भी दिव्य ही थी। यह पुष्प में ही गुण होता है जो उसको तोड़ने वाले के हाथों को भी महका देता है। भीमसेन का संपूर्ण बदन उन दिव्य सौगन्धिक कमलों को तोड़ने के कारण दिव्य सुगंध से महक रहा था। भीमसेन ने हजारों कमल तोड़कर अपने उत्तरीय में बांध लिये थे। उनके चेहरे पर अपनी पत्नी की इच्छा पूरी करने के भाव स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। भीमसेन ने सहस्त्रों दिव्य सौगन्धिक कमल लाकर द्रोपदी के चरणों में डाल दिये। एक साथ इतने दिव्य सौगन्धिक कमल देखकर द्रोपदी प्रसन्न होकर नृत्य करने लगी। बाद में उसने उनके विभिन्न आभूषण बनाये और सम्राट युधिष्ठिर को अपने हाथों से पहनाये। प्रेम का इससे श्रेष्ठ उदाहरण और क्या हो सकता था? *****

  • निषिद्ध भोजन

    मुकेश ‘नादान’ एक दिन नरेंद्र होटल में खाना खा आया और आकर श्रीरामकृष्ण देव से कहा, “महाराज, आज एक होटल में, साधारण लोग जिसे निषिद्ध कहते हैं, वह खा आया हूँ।” श्रीरामकृष्ण ने समझ लिया कि नरेंद्र बहादुरी दिखाने के लिए वैसी बात नहीं कर रहा है, बल्कि उसने वैसा काम किया है कि यह जानकर उसे स्पर्श करने या घर का लोटा, घड़ा आदि का इस्तेमाल करने में यदि उन्हें आपत्ति हो तो पहले से ही सावधान कर देने के लिए वैसा कह रहा है। ऐसा समझकर श्रीरामकृष्ण ने उत्तर दिया, “तुझे उसका दोष नहीं लगेगा। मांस खाकर भी यदि कोई भगवान्‌ में मन लगाता है, तो वह पवित्र हो जाता है। और साग-भाजी खाकर यदि विषय-भोग में डूबा रहे, तो वह मांस खाने वाले की अपेक्षा किसी तरह से कम नहीं है। तूने निषिद्ध वस्तु खाई है, उससे मुझे कुछ भी बुरा मालूम नहीं हो रहा है।” श्रीरामकृष्ण नरेंद्रनाथ की परीक्षा लेते, उन पर विश्वास करते, उन्हें प्यार करते और प्रेमपूर्वक अध्यात्म के जीवन-पथ पर बढ़ने का उपदेश करते। यह श्रीरामकृष्ण की अपनी स्नेह सिक्‍त नियमन की रीति थी। कई क्षेत्रों में यह रीति रंग-रस का रूप भी धारण कर लेती थी। नरेंद्र ने एक बार श्रीरामकृष्ण के समक्ष कुछ भक्तों के विश्वास की अंधविश्वास कहकर निंदा की। इस पर श्रीरामकृष्ण ने कहा था, “विश्वास में “अंधा' क्‍या होता है? विश्वास की भी क्या आँखें होती हैं? या तो विश्वास कह या फिर ज्ञान कह। 'अंधा' और 'आँखवाला' विश्वास ये सब क्या हैं? ” शुरू-शुरू में नरेंद्रनाथ काली, कृष्ण आदि देवी-देवताओं को नहीं मानते थे और अद्वैतवाद को भी स्वीकार नहीं करते थे। “सभी ब्रह्म है।” इस बात को सुनकर उन्होंने परिहास करते हुए कहा था, “क्या ऐसा भी कभी संभव है? ऐसा होने पर तो लोटा भी ब्रह्म है और कटोरा भी ब्रह्म है!” सगुण-निराकार, ब्रह्म की दूवैत भाव से उपासना करने वाले नरेंद्र जीवन और ब्रह्म में अभेद है, इसे स्वीकार करने में संकोच का अनुभव करता और कहता, “नास्तिकता से यह किस प्रकार भिन्‍न है? सृष्टि जीव अपने को सृष्टा समझे, इससे अधिक पाप और क्या हो सकता है? ग्रंथकर्ता ऋषि-मुनियों का मस्तिष्क अवश्य ही विकृत हो गया था, नहीं तो ऐसी बातें वे कैसे लिख सकते थे? ” स्पष्टवादी नरेंद्र के स्वरूप के प्रति स्थिर दृष्टि रखने वाले श्रीरामकृष्ण इस प्रकार की विपरीत आलोचना से भी विचलित हुए बिना केवल हँसते और अपने योग्य शिष्य की स्वतंत्र विचारधारा को जबरदस्ती नहीं बदलकर तर्कपूर्ण कोमल प्रतिवाद के स्वर में कहा करते, “तू इस समय उनकी बातें न लेना चाहे तो न ले, पर ऋषि-मुनियों की निंदा और ईश्वर के स्वरूप की इतिश्री क्यों करता है? तू सत्यस्वरूप भगवान्‌ को पुकारता चल, उसके बाद वे जिस रूप में तेरे सामने प्रकट होंगे, उसी पर विश्वास कर लेना।” नरेंद्र की विरोधी युक्तियों के बावजूद श्रीरामकृष्ण उन्हें श्रेष्ठ अधिकारी मानकर अद्वैतवाद के विषय में सुनाया करते तथा दक्षिणेश्वर आने पर “अष्टावक्र संहिता' आदि अद्वैत-विषयक ग्रंथों का पाठ करते। फिर एक दिन की घटना कुछ दूसरे रूप में ही आ उपस्थित हुई। इन सब विषयों में कालीबाड़ी निवासी श्री प्रतापचंद्र हाजरा नरेंद्र से सहमत थे। हाजरा महाशय की आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं थी। इस कारण धर्म-लाभ के लिए ऊँची आकांक्षा रहने पर भी धन-प्राप्ति की कामना ने उनके जीवन को जटिल कर दिया था। वे दक्षिणेश्वर में रहकर साधनारत होने पर भी सिद्धि-लाभ कर अर्थ-उपार्जन की लालसा भी अपने मन में रखते थे, फिर समागत श्री रामकृष्ण के अनुरागी भक्तों को समझाना चाहते कि वे कोई कम साधू नहीं हैं। हाजरा को श्रीरामकृष्ण भली-भाँति पहचानते थे। इसी से वे युवा भक्तों को सावधान कर देते, “मूर्ख हाजरा की भारी बनियाई बुद्धि है, उसकी बात मत सुनना।” फिर भी हाजरा के साथ नरेंद्र की अच्छी मित्रता थी-तंबाकू सेवन के लिए भी और हाजरा महाशय की सहसा किसी बात को न मानकर उसके विरुद्ध तर्कयुक्ति उपस्थित करने की उपयुक्त बुद्धिमत्ता के लिए भी। दोनों के ऐसे भाव को देखकर श्रीरामकृष्ण कहते, “हाजरा महाशय नरेंद्रनाथ के 'फेरेंड' (मित्र) हैं।” नरेंद्रनाथ के दक्षिणेश्वर आने पर आनंद की लहरें उठने लगती थीं। नरेन्द्रनाथ गीत पर गीत गाते जाते। श्रीरामकृष्ण उस पावन पवित्र सुमधुर कंठ से आत्मतत्व सुनकर समाधिस्थ हो जाते और फिर अर्ध-ब्रह्मज्ञान में लीन होकर कोई विशेष गीत सुनना चाहते। अंत में नरेंद्रनाथ के मुख से भक्तिमूलक या आत्मसमर्पण-सूचक “तुझसे हमने दिल को लगाया, जो कुछ है सो तू ही है।' आदि अथवा ऐसे ही किसी भजन के न सुनने तक उन्हें पूर्ण परितृप्ति नहीं होती थी। इसके पश्चात्‌ अद्वैतवाद के गंभीर तत्त्वों के संबंध में श्रीरामकृष्ण अनेक उपदेश दिया करते थे। नरेंद्रनाथ सुनते जाते थे किंतु वे उपदेश पूर्णतः समझ नहीं पाते थे। *****

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