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  • स्वच्छता

    रंजन कुमार एक किसान ने एक बिल्ली पाल रखी थी। सफेद कोमल बालों वाली बिल्ली किसान की खाटपर ही रात को उसके पैर के पास सो जाती थी। किसान जब खेत पर से घर आता तो बिल्ली उसके पास दौड़कर जाती और उसके पैरों से अपना शरीर रगड़ती, म्याऊँ-म्याऊँ करके प्यार दिखलाती। किसान अपनी बिल्ली को थोड़ा-सा दूध और रोटी देता था। एक दिन शाम को किसान के लड़के ने अपने पिता से कहा – ‘पिताजी! आज रात को मैं आपके साथ सोऊंगा।’ किसान बोला – ‘नहीं। तुम्हें अलग खाटपर सोना चाहिये।’ लड़का कहने लगा – ‘आप बिल्ली को तो अपनी खाटपर सोने देते हैं, परंतु मुझे क्यों नहीं सोने देते?’ किसान ने कहा – ‘तुम्हें खुजली हुई है। तुम्हारे साथ सोने से मुझे भी खुजली हो जायगी। पहले तुम अपनी खुजली अच्छी होने दो।’ लड़का खुजली से बहुत तंग था। उसके पुरे शरीर में छोटे-छोटे फोड़े-जैसे हो रहे थे। खाज के मारे वह बेचैन रहता था। उसने अपने पिता से कहा – ‘यह खुजली मुझे ही क्यों हुई है? इस बिल्ली को क्यों नहीं हुई?’ किसान बोला – ‘कल सबेरे तुम्हें मैं यह बात बताऊंगा।’ दूसरे दिन सबेरे किसान ने बिल्ली को कुछ अधिक दूध और रोटी दी, लेकिन जब बिल्ली का पेट भर गया, वह दूध-रोटी छोड़कर दूर चली गयी और धूप में बैठकर बार-बार अपना एक पैर चाटकर अपने मुँह पर फिराने लगी। किसान ने अपने लड़के को वहाँ बुलाया और बोला – ‘देखो, बिल्ली कैसे अपना मुँह धो रही है। यह इसी प्रकार अपना सब शरीर स्वच्छ रखती है। इसी से इसे खुजली नहीं होती। तुम अपने कपड़े और शरीर को मैला रखते हो, इससे तुम्हें खुजली हुई है। मैल में एक प्रकार का विष होता है। वह पसीने के साथ जब शरीर के चमड़े में लगता है और भीतर जाता है, तब खुजली, फोड़े और दूसरे भी कई रोग हो जाते हैं।’ लड़के ने कहा – ‘मैं आज अपने सब कपड़े गरम पानी में उबालकर धोऊंगा। बिस्तर और चद्दर भी धोऊंगा। खून नहाऊँगा। पिताजी! इससे मेरी खुजली दूर हो जायगी।’ किसान ने बताया – ‘शरीर के साथ पेट भी स्वच्छ रखना चाहिये। देखो, बिल्ली का पेट भर गया तो उसने दूध भी छोड़ दिया। पेट भर जाने पर फिर नहीं खाना चाहिये। ऐसी वस्तुएँ भी नहीं खानी चाहिये, जिनसे पेट में गड़बड़ी हो। मिर्च, खटाई, बाजार की चाट, अधिक मिठाइयाँ खाने और चाप पीने से पेट में गड़बड़ी हो जाती है। इससे पेट साफ़ नहीं रहता। पेट साफ न रहे तो बहुत-से रोग होते हैं। बुखार भी पेट की गड़बड़ी से आता है। जो लोग जीभ के जरा-से स्वाद के लिये बिना भूख ज्यादा खा लेते हैं अथवा मिठाई, घी में तली हुई चीजें, दही-बड़े आदि बार-बार खाते रहते हैं, उनको एक खुजली ही क्यों और भी तरह-तरह की बीमारियाँ हो जाती हैं। पेट साफ रखने के लिये चोकर-मिले आटे की रोटी, हरी सब्जी तथा मौसमी, सस्ते फल अधिक खाने चाहिये।’ किसान के लड़के ने उस दिन से अपने कपड़े स्वच्छ रखने आरम्भ कर दिये। वह रोज शरीर रगड़कर स्नान करता है। वह इस बात का ध्यान रखता है कि ज्यादा न खाय तथा कोई ऐसी वस्तु न खाय, जिससे पेट में गड़बड़ी हो। उसकी खुजली अच्छी हो गयी है। वह चुस्त शरीर का तगड़ा और बलवान् हो गया है। उसके पिता और दूसरे लोग भी अब उसे बड़े प्रेम से अपने पास बैठाते हैं। *****

  • अधर बावरे जिह्वा पागल

    डॉ देवेंद्र तोमर   अधर बावरे जिह्वा पागल कहने को कुछ भी कह जाऍं तुम्हीं कहो क्या कह सकता हूँ तुमसे मुझको प्यार नहीं है। एक नहीं अनगिन मौकों पर मुझे तुम्हारा प्यार मिला है। मान मनव्वल पाया तुमसे मनचाहा मनुहार मिला है। रुठा हुआ मनाया तुमने अपने हृदय लगाया तुमने। तुम्हीं कहो क्या कह सकता हूँ मुझ पर कुछ उपकार नहीं है। तुम्हीं कहो क्या कह सकता हूँ तुमसे मुझको प्यार नहीं है। कर्तव्यों की कदम कदम पर लाज रखी है तुमने मन से। इतना किया भरोसा मुझ पर जितना ऑंखों को दरपन से। मेरे हाथों माँग भराई बेंदी अपने भाल सजायी। तुम्हीं कहो क्या कह सकता हूँ मुझ पर कुछ अधिकार नहीं है। तुम्हीं कहो क्या कह सकता हूँ तुमसे मुझको प्यार नहीं है। मेरे अपने नासूरों पर मरहम नेह लगाया तुमने। जब भी और जहाँ भी देखा बिखरा हुआ सजाया तुमने। क्षण भर को भी रहा न रोगी सारी पीड़ा तुमने भोगी। तुम्हीं कहो क्या कह सकता हूँ मुझ पर कुछ उपचार नहीं है। तुम्हीं कहो क्या कह सकता हूँ तुमसे मुझको प्यार नहीं है। अधर बावरे जिह्वा पागल कहने को कुछ भी कह जाऍं तुम्हीं कहो क्या कह सकता हूँ तुमसे मुझको प्यार नहीं है। *****

  • बच्चों से क्षमा मांगो

    प्रो.पुनीत शुक्ला   ​तुम अपने उन बच्चों से तुरन्त क्षमा माँगो जिनको तुमने केवल इस बात पर पीट दिया क्योंकि उन्होंने तुम्हारी बात नहीं मानी।   तुम अपने उन बच्चों से तुरन्त क्षमा माँगो जिनको तुमने केवल इसलिए मार दिया या छोड़ दिया क्योंकि उन्होंने अपनी पसन्द का जीवनसाथी चुना।   तुम अपने उन पड़ोसियों से तुरन्त क्षमा माँगो जिनको तुमने केवल इसलिये नफ़रत किया क्योंकि वे दूसरे धर्म, जाति या विचारधारा के व्यक्ति थे।   तुम अपने उन पड़ोसियों से तुरन्त क्षमा माँगो जिनको तुमने केवल इसलिये सज़ा दिया क्योंकि उनके पूर्वजों ने कुछ गलतियाँ की थीं।   तुम अगर इस तरह क्षमा माँगोगे तो तुम्हारी ग़लतियों में सुधार नहीं होगा लेकिन, यह संसार थोड़ा सा सुधर जायेगा और, आने वाली पीढ़ियों के लिये रहने लायक एक अच्छी दुनिया का निर्माण शुरू होगा। *****

  • लहरें गिनना

    रमापति शुक्ला एक दिन अकबर बादशाह के दरबार में एक व्यक्ति नौकरी मांगने के लिए अर्जी लेकर आया। उससे कुछ देर बातचीत करने के बाद बादशाह ने उसे चुंगी अधिकारी बना दिया। बीरबल, जो पास ही बैठा था, यह सब देख रहा था। उस आदमी के जाने के बाद वह बोला- “यह आदमी जरूरत से ज्यादा चालाक जान पड़ता है। बेईमानी किये बिना नहीं रहेगा।“ थोड़े ही समय के बाद अकबर बादशाह के पास उस आदमी की शिकायतें आने लगीं कि वह प्रजा को काफी परेशान करता है तथा रिश्वत लेता है। अकबर बादशाह ने उस आदमी का तबादला एक ऐसी जगह करने की सोची, जहां उसे किसी भी प्रकार की बेईमानी का मौका न मिले। उन्होंने उसे घुड़साल का मुंशी मुकर्रर कर दिया। उसका काम था घोड़ों की लीद उठवाना। मुंशीजी ने वहां भी रिश्वत लेना आरम्भ कर दिया। मुंशीजी साईसों से कहने लगे कि तुम घोड़ों को दाना कम खिलाते हो, इसलिए मुझे लीद तौलने के लिए भेजा गया है। यदि तुम्हारी लीद तौल में कम बैठी तो अकबर बादशाह से शिकायत कर दूंगा। इस प्रकार मुंशीजी प्रत्येक घोड़े के हिसाब से एक रुपया लेने लगे। अकबर बादशाह को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने मुंशीजी को यमुना की लहरें गिनने का काम दे दिया। वहां कोई रिश्वत व बेईमानी का मौका ही नहीं था। लेकिन मुंशीजी ने वहां भी अपनी अक्ल के घोड़े दौड़ा दिये। उन्होंने नावों को रोकना आरम्भ कर दिया कि नाव रोको, हम लहरें गिन रहे हैं। अत: नावों को दो-तीन दिन रुकना पड़ता था। नाव वाले बेचारे तंग आ गए। उन्होंने मुंशीजी को दस रुपये देना आरम्भ कर दिया। अकबर बादशाह को जब इस बात का पता लगा तो उन्होंने लिखकर आज्ञा दी, “नावों को रोको मत, जाने दो?” उस मुंशी ने उस लिखित में थोड़ा सुधार कर टंगवा दिया, "नावों को रोको, मत जाने दो" और वसूली करने लगे। अंततः बादशाह को उस मुंशी को सार्वजनिक सेवा से बाहर करना ही पड़ा। ******

  • सच्ची मित्रता

    रमाशंकर त्रिपाठी राकेश अपने ऑफिस से घर के लिए जा रहा था। उसके घर के रास्ते में एक पुल पड़ता था जिसके नीचे से गहरी नदी बहती थी। जब राकेश वह पुल पार कर रहा था तो देखता है कि एक आदमी पुल से नीचे कूदने वाला था। राकेश उसे जाकर रोकता है,” यह क्या कर रहे हो भाई? ऐसा क्या हुआ है?” “मैं अपना सब कुछ लुटा चुका हूं। छोटा सा व्यापार था मेरा। वह बर्बाद हो गया है। कैसे अपने घर परिवार का पोषण करूंगा।” वह आदमी कहते कहते रोने लगता है। “तो ठीक है मर जाओ और पीछे अपने परिवार को एक और दुःख दे जाओ। क्या करेंगे वह, तुम्हारा दुख मनाएंगे या लोगों के पैसे चुकाने के रास्ते ढूंढेंगे” राकेश ने उसे डांटा। राकेश की डांट सुनकर हो आदमी थोड़ा संभला। तब राकेश ने उसके बारे में उससे सारी बात पूछी। “मेरा नाम अजय है। मेरा कपड़ों का छोटा सा व्यापार था। पिछले महीने शहर में जो दंगे हुए थे उसमें मेरी दुकान और कारखाना जला दिया गया। समझ नहीं आता लोगों के पैसे कहां से चुकाऊंगा और कैसे अपना घर चलाऊंगा।” राकेश को अजय अपने बारे में सब कुछ बताता है। राकेश उसे सांत्वना देते हुए कहता है,”मेरा लकड़ी का बहुत बड़ा काम है। कईं जगह पर माल भी सप्लाई करता हूं। तुम मेरा व्यापार में हाथ बंटाओगे तो अपनी परेशानियों से बाहर निकल सकते हो और मुझे भी साथ मिल जाएगा। मैं जल्द ही तुम्हें अपने ऑफिस बुलाता हूं, अभी तुम अपने घर जाओ।” पूरी कानूनी जांच पड़ताल के बाद राकेश अजय के साथ होने वाले अग्रिमेंट के कागज़ तैयार करवाता है और उससे बुलाता है। अजय राकेश का साथ कारोबार में आ जाता है। दोनों का कारोबारी दिमाग और मेहनत उस कारोबार को बहुत तरक्की देती है। अजय ने धीरे-धीरे अपना सारा कर्ज़ा उतार दिया और राकेश की मदद से अपने व्यापार को फिर से खड़ा किया। अब वह राकेश के साथ सिर्फ विचार विमर्श का काम देखता था। सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था। उन दोनों की मित्रता परिवार के हर छोटे-बड़े समारोह में सबको दिख जाती थी। यूं तो दोनों एक दूसरे के अच्छे मित्र थे परंतु अजय के लिए राकेश भगवान का रूप था, वह एक तरीके से सब कुछ था उसके लिए। लेकिन उस दोस्ती पर काली नज़र थी राकेश के भाई रमेश की। वो बिल्कुल नकारा और अय्याश आदमी था। राकेश की तरह ना तो कोई काम करता और ना ही भाई की कंपनी में हाथ बंटाता। वह तो बस यही चाहता था कि उसको हिस्सा मिलता रहे वह भी मुफ्त में। अजय के आने पर उसको बड़ा बुरा लगा था। उसने चालाकी से अपने एक वकील दोस्त के साथ मिलकर कंपनी के हर कागज़ात की नकली कॉपी बनवा रखी थी। एक दिन रमेश को सही मौका मिल जाता है। राकेश किसी काम से शहर से बाहर गया था। अजय भी अब कंपनी में कम ही आता-जाता था। रमेश को सुनहरा मौका मिला और उसने फर्ज़ी कागज़ात कंपनी के असली कागज़ात के साथ बदल दिए। जब राकेश वापिस आता है तो रमेश सब कुछ अपने नाम दिखाकर उसे कंपनी से बाहर कर देता है। राकेश को उधार रखना पसंद नहीं था। इसलिए उसने घर गिरवी पर रखकर लेनदारों का हिसाब चुकता किया। अजय भी शहर में नहीं था। जब उसे सारी बात पता चलती है तो वह सीधे राकेश के घर जाता है। उसे देखकर राकेश की आंखें भर आती हैं वह कहता है,” मैं यह घर छोड़कर कहीं और ठिकाना देखता हूं।” अजय उसके पैरों में गिर कर रो पड़ता है,” मुझे इतना पराया समझ लिया। मेरे होते हुए आपको कहीं और जाना पड़े तो लानत है मुझ पर। मैं आपके लिए बेशक दोस्त हूं पर आप मेरे लिए भगवान का रूप हैं। मैं आपके लिए जो कुछ भी करूं वह बहुत कम है। चलिए भाभी जी और बेटे को लेकर अपने दूसरे घर।” अजय का परिवार पूरे गर्मजोशी के साथ राकेश और उसके परिवार का स्वागत करता है। उनके रहने की बहुत अच्छी व्यवस्था भी कर दी जाती है। अब उन दोनों के बेटे एक साथ स्कूल जाते थे। अजय और राकेश मिलकर सारी बातों का पता लगाते हैं। अपने कुछ विश्वास पात्र दोस्त जो पुलिस अफसर और वकील हैं, उनके साथ मिलकर दोनों को रमेश की सारी कारस्तानी समझ में आ जाती है। सबके साथ बातचीत के दौरान वह दोनों यह तो समझ गए थे कि असली कागज़ात का मिलना तो नामुमकिन है। रमेश में उन्हें खत्म कर दिया होगा। लेकिन वह दोनों यह बात भी अच्छी तरह जानते हैं कि रमेश के बसकी कारोबार संभालना नहीं है। वह जल्द ही उसे बर्बाद कर देगा। वह दोनों अब सही मौके का इंतजार करते हैं। उसी बीच अब राकेश अजय के कारोबार में मदद करने लगता है। अजय को राकेश की मदद से अपने कारोबार को आगे बढ़ाने के लिए कई तरीके पता चलते हैं और अब वह ज़्यादा अच्छा कमाने लगता है। इसी तरह से 6 महीने बीत जाते हैं। एक दिन वह लोग अखबार में पढ़ते हैं कि रमेश की कंपनी को खासा नुकसान हो रहा है। अगले ही दिन दोनों उससे मिलने पहुंच जाते हैं। ”देखो रमेश तुमने जो करा मैं उसका कुछ नहीं कर पाया। उसके लिए तो मैं तुम्हें कभी माफ भी नहीं करूंगा। लेकिन आज मैं जो कहने जा रहा हूं उससे तुम अपने आप को लोगों और पुलिस से बचा सकते हो। तुम्हारी सारी धोखेबाजी के बारे में मुझे सब कुछ मालूम है। बेहतर यही है कि तुम मेरी कंपनी और पैसा मुझे वापस कर दो। मैं तुम्हें इतने पैसे दे दूंगा कि तुम अपने आप को बचा सकते हो।” राकेश ने कहा। रमेश के पास और कोई चारा नहीं था, उसको राकेश की बात माननी पड़ी। अब अजय और राकेश के वकीलों द्वारा नए कागज़ात बनवाए गए और सारी कानूनी औपचारिकता पूरी करी गई। राकेश ने रमेश को हमेशा के लिए अपनी ज़िंदगी से अलग कर दिया। जिसके पास अजय और राकेश की तरह सच्ची मित्रता हो वह कभी डूब ही नहीं सकता। देर से ही सही उसे किनारा ज़रूर मिल जाता है। *******

  • सोच बदलो, इंडिया बदलो

    डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव भारत एक युवा देश है। यहां की 65% जनसंख्या 35 वर्ष से कम उम्र की है। इतनी बड़ी युवा शक्ति किसी भी राष्ट्र के लिए वरदान होती है, लेकिन यह शक्ति तभी फलदायी सिद्ध होती है जब उसमें सकारात्मक सोच, सशक्त नेतृत्व और परिवर्तन की ललक हो। आज भारत को सबसे अधिक जरूरत है — सोच बदलने की। "सोच बदलो, इंडिया बदलो" केवल एक नारा नहीं, बल्कि एक आंदोलन है, जो भारत को एक सशक्त, विकसित और समावेशी राष्ट्र में परिवर्तित कर सकता है। सोच की ताकत सोच वह बीज है, जिससे व्यवहार, आदतें, समाज और राष्ट्र का निर्माण होता है। यदि हम सकारात्मक, समावेशी और रचनात्मक सोच रखते हैं, तो उसका असर हमारे कार्यों और समाज पर स्पष्ट दिखाई देता है। वहीं, नकारात्मक और संकुचित सोच केवल समस्याओं को जन्म देती है। उदाहरण के तौर पर, यदि कोई युवा सोचता है कि "सरकारी नौकरी ही सफलता है", तो वह केवल सीमित अवसरों की ओर देखेगा। लेकिन अगर वह सोचता है कि "मैं अपने हुनर से कुछ नया कर सकता हूँ", तो वह उद्यमिता, स्टार्टअप और नवाचार की दिशा में आगे बढ़ेगा। यही सोच है जो भारत को आत्मनिर्भर बनाएगी। युवा सोच को क्यों बदलना जरूरी है? भारत में आज भी कई युवा बेरोजगारी, सामाजिक भेदभाव, भ्रष्टाचार और नशे की लत जैसे समस्याओं से घिरे हैं। इसका मुख्य कारण सिर्फ संसाधनों की कमी नहीं है, बल्कि सोच की रुकावट है। अगर युवा सोच ले कि “परिस्थितियाँ मेरी किस्मत तय करेंगी”, तो वह हमेशा हार मानेगा। लेकिन अगर वह माने कि “मेरे विचार और कर्म ही मेरी किस्मत तय करेंगे”, तो वह बदलाव लाएगा। युवाओं को चाहिए कि वे चुनौतियों को अवसर मानें, असफलताओं से सीखें, और निरंतर आत्मविकास के पथ पर आगे बढ़ें। सकारात्मक सोच से बदलाव कैसे संभव है? सोच बदलने का अर्थ है — आलोचना से समाधान की ओर बढ़ना। भारत में यदि हम भ्रष्टाचार, जातिवाद या लिंगभेद को खत्म करना चाहते हैं, तो पहले हमें अपनी सोच से इन्हें निकालना होगा। जब कोई युवा यह सोचता है कि "मैं जात-पात नहीं मानता", तब समाज में समरसता आती है। जब कोई लड़की यह सोचती है कि "मैं किसी लड़के से कम नहीं", तब समानता बढ़ती है। जब कोई बेरोजगार यह सोचता है कि "मैं खुद अवसर पैदा करूंगा", तब भारत में नए रोजगार जन्म लेते हैं। शिक्षा में सोच का बदलाव आज भारत को केवल डिग्रीधारी नहीं, बल्कि विचारशील, रचनात्मक और सशक्त युवा चाहिए। हमारी शिक्षा प्रणाली को भी सोच में बदलाव लाना होगा — रट्टा प्रणाली से हटकर नवाचार, संवाद और कौशल पर आधारित शिक्षा की ओर बढ़ना होगा। शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी पाना नहीं, बल्कि इंसान को समाज के लिए उपयोगी बनाना होना चाहिए। जब युवा “अंक” से अधिक “अंकुश” पर ध्यान देंगे, यानी अपने व्यवहार, दृष्टिकोण और विचारों पर काम करेंगे, तभी असली शिक्षा संभव होगी। समाज को बदलने वाली सोच हमारा समाज आज भी रूढ़िवादिता और परंपराओं की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है। लेकिन युवा पीढ़ी में इतनी शक्ति है कि वह इन बेड़ियों को तोड़कर एक नया युग शुरू कर सकती है। जब युवा दहेज को नकारेगा, तभी यह कुप्रथा समाप्त होगी। जब युवा पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी समझेगा, तभी आने वाली पीढ़ियों को स्वच्छ भारत मिलेगा। जब युवा स्वदेशी उत्पादों को अपनाएगा, तभी भारत आत्मनिर्भर बनेगा। डिजिटल सोच की दिशा में कदम आज का युवा टेक्नोलॉजी से जुड़ा हुआ है, लेकिन आवश्यकता है कि वह इसका उपयोग केवल मनोरंजन के लिए न कर, बल्कि ज्ञान, विकास और नवाचार के लिए करे। सोशल मीडिया पर केवल ट्रेंडिंग चीजें न देखे, बल्कि उसमें अपनी सकारात्मक बातों से बदलाव लाने की कोशिश करे। यूट्यूब पर केवल मजेदार वीडियो न देखें, बल्कि स्किल्स सीखने वाले चैनल भी देखें। मोबाइल का इस्तेमाल केवल चैट के लिए न करें, बल्कि उसके जरिए बिजनेस, कोर्स और करियर को मजबूत बनाएं। बदलाव के उदाहरण भारत में कई ऐसे युवा हैं जिन्होंने सोच बदलकर समाज में बदलाव लाया: अरुणाचल की पुलोम लोबोम — जिन्होंने अपनी सोच से महिलाओं को हथकरघा उद्योग में आत्मनिर्भर बनाया। तमिलनाडु की सुगंधा — जिन्होंने गांव में लड़कियों के लिए डिजिटल लर्निंग सेंटर शुरू किया। गुजरात के मयूर — जिन्होंने खेती के पारंपरिक तरीकों को छोड़कर ड्रोन और AI से खेती शुरू की। इन युवाओं की सोच ने भारत के कोनों में रोशनी फैलाई है। कैसे बदलें अपनी सोच? असफलता से न डरें: हर असफलता एक सबक होती है। सकारात्मक संगति में रहें: जिस वातावरण में आप रहते हैं, वही आपकी सोच को बनाता है। नई चीजें सीखें: रोज कुछ नया जानें, पढ़ें और उसे जीवन में उतारें। समय का सदुपयोग करें: वक्त को बर्बाद करना, जीवन को बर्बाद करना है। छोटी शुरुआत करें: बड़े बदलाव की शुरुआत हमेशा छोटे कदमों से होती है। निष्कर्ष "सोच बदलो, इंडिया बदलो" केवल एक आदर्श वाक्य नहीं, बल्कि हर युवा के जीवन का ध्येय होना चाहिए। जब हर युवा अपनी सोच को नकारात्मकता से निकालकर सकारात्मकता, रचनात्मकता और नवाचार की दिशा में ले जाएगा, तब भारत सच्चे अर्थों में विश्वगुरु बनेगा। युवाओं! ये समय है खुद को बदलने का, सोचने का, आगे बढ़ने का। क्योंकि जब आप बदलेंगे, तभी भारत बदलेगा। आइए! संकल्प लें — आज से, अभी से — अपनी सोच को बदलें, और भारत को एक नई दिशा दें। ******

  • बड़ों की बात मानो

    सरिता देवी एक बड़ा भारी जंगल था, पहाड़ था और उसमें पानी के शीतल निर्मल झरने थे। जंगल में बहुत-से पशु रहते थे। पर्वत की गुफा में एक शेर, एक शेरनी और शेरनी के दो छोटे बच्चे रहते थे। शेर और शेरनी अपने बच्चों को बहुत प्यार करते थे। जब शेर के बच्चे अपने माँ-बाप के साथ जंगल में निकलते थे, तब उन्हें देखकर जंगल के दूसरे पशु भाग जाया करते थे। लेकिन शेर-शेरनी अपने बच्चों को बहुत  कम अपने साथ ले जाते थे। वे बच्चों को गुफा में छोड़कर वन में अपने भोजन की खोज में चले जाया करते थे। शेर और शेरनी अपने बच्चों को बार-बार समझाते थे कि वे अकेले गुफा से बाहर भूलकर भी न निकलें। लेकिन बड़े बच्चे को यह बात अच्छी नहीं लगती थी। एक दिन जब बच्चों के माँ-बाप जंगल में गये थे, बड़े बच्चे ने छोटे से कहा – ‘चलो झरने से पानी पी आवें और वनमें थोड़ा घूमें। हिरनों को डरा देना मुझे बहुत अच्छा लगता है।’ छोटे बच्चे ने कहा – ‘पिताजी ने कहा है कि अकेले गुफा से मत निकलना। झरने के पास जाने को तो उन्होंने बहुत मन किया है। तुम ठहरो। पिताजी या माता जी को आने दो। हम उनके साथ जाकर पानी पी लेंगे।’ बड़े बच्चे ने कहा – ‘मुझे प्यास लगी है। सब पशु तो हम लोगों से डरते ही हैं। डरने की क्या बात है?’ छोटा बच्चा अकेला जाने को तैयार नहीं हुआ। उसने कहा – ‘मैं तो माँ-बाप की बात मानूँगा। मुझे अकेला जाने में डर लगता है।’ बड़े भाई ने कहा – ‘तुम डरपोक हो, मत जाओ, मैं तो जाता हूँ।’ बड़ा बच्चा गुफा से निकला और झरने के पास गया। उसने भर पेट पानी पिया और तब हिरनों को ढूँढ़ने इधर-उधर घूमने लगा। उस जंगल में उस दिन कुछ शिकारी आये थे। शिकारियों ने दूरसे शेर के अकेले बच्चे को घूमते देखा तो सोचा कि इसे पकड़कर किसी चिड़िया खाने को बेच देने से रुपये मिलेंगे। छिपे-छिपे शिकारी लोगों ने शेर के बच्चे को चारों ओर से घेर लिया और एक साथ उस पर टूट पड़े। उन लोगों ने कम्बल और कपड़े डालकर उस बच्चे को पकड़ लिया। बेचारा शेर का बच्चा क्या करता। वह अभी कुत्ते-जितना बड़ा भी नहीं हुआ था। उसे कम्बल में खूब लपेटकर उन लोगों ने रस्सियों से बाँध दिया था। वह न तो छटपटा सकता था, न गुर्रा सकता था। शिकारियों ने इस बच्चे को एक चिड़िया खाने को बेच दिया। वहाँ वह एक लोहे के कटघरे में बंद कर दिया गया। वह बहुत दु:खी था। उसे अपने माँ-बाप की बड़ी याद आती थी। बार-बार वह गुर्राता और लोहे की छड़ों को नोचता था, लेकिन उसके नोचने से छड़ टूट तो सकती नहीं थी। जब भी वह शेर का बच्चा किसी छोटे बालक को देखता था, बहुत गुर्राता और उछलता था। यदि कोई उसकी भाषा समझता तो वह उससे अवश्य कहता – ‘तुम अपने माँ-बाप तथा बड़ों की बात अवश्य मानना। बड़ों की बात न मानने से पीछे पश्चात्ताप करना पड़ता है। मैं बड़ों की बात न मानने से ही यहाँ बंदी हुआ हूँ।’ *****

  • मित्रता की परख

    डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव रमानाथ और दीनानाथ में गहरी दोस्ती थी। दोनों ही एक-दूसरे पर जान छिड़कने का दम भरा करते थे। एक दिन दोनों घने जंगल से होकर गुजर रहे थे कि मार्ग में उन्हें एक भालू आता दिखाई दिया। वह उनकी तरफ़ ही आ रहा था। रमानाथ तेजी से भागकर निकट के पेड़ पर चढ़ गया। उसने अपने मित्र दीनानाथ की तनिक भी चिंता नही की। वह बोला, ‘भाई दीनानाथ! जान है तो जहान है। तुम भी अपने बचाव का रास्ता खोजो।’ दीनानाथ को पेड़ पर चढ़ना नही आता था और न ही उसके पास वहाँ से भागने का कोई मौका था। अचानक उसके मस्तिष्क में एक सुनी-सुनाई बात याद आई कि मृतक को भालू नही खाते वह तुरंत ही साँस रोककर बेजान-सा होकर लेट गया। उसने अपनी आँखें बंद कर ली। भालू दीनानाथ के पास आया और उसके शरीर को सूँघकर चुपचाप आगे बढ़ गया। जब भालू कुछ दूर निकल गया तब दीनानाथ उठ बैठा और रमानाथ भी पेड़ से नीचे उतर आया। उसने दीनानाथ से पूछा, ‘भालू ने तुम्हारे कान में क्या कहा था?’ दीनानाथ बोला, ‘उसने कहा कि स्वार्थी मित्रों से हमेशा दूर रहना चाहिए।’ सार - मित्रता करने का दम भरना बेशक अच्छी बात है। लेकिन यदि मित्रता निभानी नही आती तो सब बेकार है। सच्चे मित्र की परख तो संकटकाल में ही होती है। भालू ने बेशक दीनानाथ के कान में कुछ नही कहा, परंतु वह समझ गया कि रमानाथ से किनारा करना ही ठीक होगा। अतः स्वार्थी मित्रों से बचकर रहना चाहिए। *****

  • मुर्गे की सीख

    रवि कुमार एक बड़ा व्यापारी था, गांव में उसके पास बहुत से मकान, पालतू पशु और कारखाने थे। एक दिन वह अपने परिवार सहित कारखानों, मकानों और पशुशालाओं आदि का मुआयना करने के लिए गांव में गया। उसने अपनी एक पशुशाला भी देखी जहां एक गधा और एक बैल बंधे हुए थे। उसने देखा कि वे दोनों आपस में वार्तालाप कर रहे हैं। व्यापारी पशु-पक्षियों की बोली समझता था, इसलिए वह चुपचाप खड़ा होकर दोनों की बातें सुनने लगा। बैल गधे से कह रहा था, “तू बड़ा ही भाग्यशाली है जो मालिक तेरा इतना ख्याल रखता है। खाने को दोनों समय जौ और पीने के लिए साफ पानी मिलता है। इतने आदर-सत्कार के बदले तुझसे केवल यह काम लिया जाता है कि कभी मालिक तेरी पीठ पर बैठकर कुछ दूर सफर कर लेता है। और तू जितना भाग्यवान है, मैं उतना ही अभागा हूं। मैं सवेरा होते ही पीठ पर हल लादकर जाता हूं। वहां दिन भर हलवाहे मुझे हल में जोतकर चलाते हैं।” गधे ने यह सुनकर कहा, “ऐ भाई! तेरी बातों से लगता है कि सचमुच तुझे बड़ा कष्ट है। किंतु सच तो यह है कि तू यदि मेहनत करते-करते मर भी जाए, तो भी ये लोग तेरी दशा पर तरस नहीं खाएंगे। अत: तू एक काम कर, फिर तुझसे इतना काम नहीं लिया जाएगा और तू सुख से रहेगा।” “ऐसा क्या करूं मित्र?” उत्सुकता से बैल ने पूछा। बैल के पूछने पर गधे ने कहा, “तू झूठ-मूठ का बीमार पड़ जा। एक शाम को दाना-भूसा मत खा और अपने स्थान पर इस प्रकार लेट जा कि अब मरा कि तब मेरा।” दूसरे दिन सुबह जब हलवाहा बैल को लेने के लिए पशुशाला में पहुंचा तो उसने देखा कि रात की लगाई सानी ज्यों-की-त्यों रखी है और बैल धरती पर पड़ा हांफ रहा है। उसकी आंखें बंद हैं और उसका पेट फूला हुआ है। हलवाहे ने समझा कि बैल बीमार हो गया है। यही सोचकर उसने उसे हल में न जोता। उसने व्यापारी को बैल की बिमारी की सुचना दी। व्यापारी यह सुनकर जान गया कि बैल ने गधे की शिक्षा पर अमल करके स्वयं को रोगी दिखाया है। उसने हलवाहे से कहा, “आज गधे को हल में जोत लो।” तब हलवाहे ने गधे को हल में जोतकर उससे सारा दिन काम लिया। इधर, बैल दिन भर बड़े आराम से रहा। वह नांद की सारी सानी खा गया और गधे को दुआएं देता रहा। जब गधा गिरता-पड़ता खेत से आया तो बैल ने कहा, “भाई तुम्हारे उपदेश के कारण मुझे बड़ा सुख मिला।” गधा थकान के कारण उत्तर न दे सका और आकर अपने स्थान पर गिर पड़ा। वह मन-ही-मन अपने को धिक्कारने लगा, ‘अभागे, तूने बैल को आराम पहुंचाने के लिए अपनी सुख-सुविधा में व्यवधान डाल लिया।’ दूसरे दिन व्यापारी रात्रि भोजन के पश्चात अपनी पत्नी के साथ गधे की प्रतिक्रिया जानने के लिए पशुशाला में जा बैठा और पशुओं की बातें सुनने लगा। गधे ने बैल से पूछा, “सुबह जब हलवाहा तुम्हारे लिए दाना-घास लाएगा, तो तुम क्या करोगे?” “जैसा तुमने कहा है वैसा ही करूंगा।” बैल ने उत्तर दिया। इस पर गधे ने कहा, “नहीं, ऐसा मत करना, वरना जान से जाओगे। शाम को लौटते समय हमारा स्वामी तुम्हारे हलवाहे से कह रहा था कि कल किसी कसाई और चर्मकार को बुला लाना और बैल जो बीमार हो गया है, उसका मांस और खाल बेच डालना। मैंने जो सुना था वह मित्रता के नाते बता दिया। अब तेरी इसी में भलाई है कि सुबह तेरे आगे चारा डाला जाए तो तू उसे जल्दी से उठकर खा लेना और स्वस्थ बन जाना, फिर हमारा स्वामी तुझे स्वस्थ देखकर तुझे मारने का इरादा छोड़ देगा।” यह बात सुनकर बैल भयभीत होकर बोला, “भाई, ईश्वर तुझे सदा सुखी रखे। तेरे कारण मेरे प्राण बच गए। अब मैं वही करूंगा जैसा तुने कहा है।” गधे और बैल की बातें सुनकर व्यापारी ठहाका लगाकर हंस पड़ा। उसकी स्त्री को इस बात से बड़ा आश्चर्य हुआ। वह पूछने लगी कि तुम अकारण ही क्यों हंस पड़े? व्यापारी ने कहा, यह बात बताने को नहीं है, मैं सिर्फ यह कह सकता हूं कि मैं बैल और गधे की बातें सुनकर हंसा हूं।” स्त्री ने कहा, “मुझे भी यह विद्या सिखाओ, जिससे तुम पशुओं की बोली समझ लेते हो।” इस पर व्यापारी ने इनकार कर दिया। स्त्री बोली, “आखिर तुम मुझे यह क्यों नहीं सिखाते?” व्यापारी बोला, “अगर मैंने तुझे यह विद्या सिखाई तो मैं जीवित नहीं रहूंगा।” स्त्री ने कहा, “तुम झूठ बोल रहे हो। क्या वह आदमी, जिसने तुम्हें यह विद्या सिखाई थी, सिखाने के बाद मर गया था? तुम कैसे मर जाओगे? कुछ भी हो, मैं तुमसे यह विद्या सीखकर ही रहूंगी। अगर तुम मुझे नहीं सिखाओगे, तो मैं प्राण त्याग दूंगी।” यह कहकर वह व्यापारी की स्त्री घर में आ गई और अपनी कोठरी का दरवाजा बंद करके रात भर चिल्लाती रही और गाली-गलौज करती रही। व्यापारी रात को तो किसी तरह सो गया, लेकिन दूसरे दिन भी वही हाल देखा तो उसने स्त्री को समझाया, “तू बेकार जिद्द करती है। यह विद्या तेरे सीखने योग्य नहीं है।” स्त्री ने कहा , “जब तक तुम मुझे यह भेद नहीं बताओगे, मैं खाना-पीना छोड़े रहूंगी और इसी प्रकार चिल्लाती रहूंगी।” इस पर व्यापारी तनिक क्रोधित हो उठा और बोला , “अरी मुर्ख! यदि मैं तेरी बात मान लूंगा तो तू विधवा हो जाएगी। मैं मर जाऊंगा।” स्त्री ने कहा, “तुम जियो या मरो मेरी बला से, लेकिन मैं तुमसे यह सीखकर ही रहूंगी कि पशुओं की बोली कैसे समझी जाती है।” व्यापारी ने जब देखा कि वह महामुर्खा अपना हठ छोड़ ही नहीं रही है, तो उसने अपने और ससुराल के रिश्तेदारों को बुलाया ताकि वे उस स्त्री को अनुचित हठ छोड़ने के लिए समझाएं। उन लोगों ने भी उस मुर्ख स्त्री को हर प्रकार समझाया, लेकिन वह अपनी जिद्द से न हटी। उसे इस बात की बिलकुल चिंता न थी कि उसका पति मर जाएगा। छोटे बच्चे मां की दशा देखकर रोने लगे। व्यापारी की समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह अपनी स्त्री को कैसे समझाए कि इस विद्या को सीखने का हठ ठीक नहीं है। वह अजीब दुविधा में था ‘अगर मैं बताता हूं, तो मेरी जान जाती है और नहीं बताता तो मेरी स्त्री रो-रोकर मर जाएगी।’ इसी उधेड़बुन में वह अपने घर के बाहर जा बैठा। तभी उसने देखा कि उसका कुत्ता, उसके मुर्गे को मुर्गियों के साथ विहार करते देखकर गुर्राने लगा है। कुत्त्ने ने मुर्गे से कहा, “तुझे लज्जा नहीं आती कि आज के जैसे दुखदायी दिन भी तू मौज-मजा कर रहा है।” मुर्गे ने कहा, “आज ऐसी क्या बात हो गई कि मैं आनन्द न करूं?” कुत्ता बोला, “आज हमारे स्वामी अति चिंतातुर है। उसकी स्त्री की मति मारी गई है और वह उससे ऐसे भेद को पूछ रही है जिसे बताने से हमारा मालिक तुरंत ही मर जाएगा। लेकिन अब यदि वह उसे वह भेद नहीं बताएगा तो उसकी स्त्री रो-रोकर मर जाएगी। इसी से सारे लोग दुखी हैं और तेरे अतरिक्त कोई ऐसा नहीं है जो मौज-मजे की बात भी सोचे।” मुर्गा बोला, “हमारा स्वामी मुर्ख है, जो एक ऐसी स्त्री का पति है जो उसके अधीन नहीं है। मेरी तो पचास मुर्गियां हैं और सब मेरे अधीन है। अगर स्वामी मेरे बताए अनुसार काम करे, तो उसका दुख अभी दूर हो जाएगा।” कुत्ते ने पूछा, “वह क्या करे कि उस मुर्ख स्त्री की समझ वापस आ जाए?” मुर्गे ने कहा, “हमारे स्वामी को चाहिए कि एक मजबूत डंडा लेकर उस कोठरी में जाए जहां उसकी स्त्री चीख और चिल्ला रही है। दरवाजा अंदर से बंद कर ले और स्त्री की जमकर पिटाई करे। कुछ देर बाद उसकी स्त्री अपना हठ छोड़ देगी।” मुर्गे की बात सुनकर व्यापारी में जैसे नई चेतना आ गई। वह उठा और एक मोटा डंडा लेकर उस कोठरी में जा पहुंचा जिसमें बैठी उसकी स्त्री चीख-चिल्ला रही थी। दरवाजा अंदर से बंद करके व्यापारी ने स्त्री पर डंडे बरसाने शुरू कर दिए। कुछ देर चीख-पुकार करने पर भी जब स्त्री ने देखा कि डंडे पड़ते ही जा रहे हैं, तो वह घबरा उठी। वह पति के पैरों पर गिरकर कहने लगी, “अब हाथ रोक लो, अब मैं कभी ऐसी जिद्द नहीं करूंगी।” इस पर व्यापारी ने हाथ रोक लिया और मुर्गे को मन-ही-मन धन्यवाद दिया जिसके सुझाव से उसकी पत्नी सीधे रास्ते पर आ गई थी। *****

  • क़र्ज़

    शिव शंकर मेहता अखबार में अपने दोस्त की तस्वीर देखकर मुकुंद की आंखों में नमी आ गई। आज उसके दोस्त का कितना नाम है। सारा देश डॉक्टर प्रताप सिंह की उपलब्धियों पर गर्वान्वित महसूस कर रहा है। मुकुंद उसकी तस्वीर को देखते ही अतीत में खो गया। प्रताप और मुकुंद एक ही गांव में रहते थे। मुकुंद प्रताप से दो साल बड़ा था। प्रताप के पिताजी एक मामूली से किसान थे और मुकुंद के पिता गांव के ज़मीदार थे। मुकुंद के पिता को उसका प्रताप के साथ उठना बैठना पसंद नहीं था। पर मुकुंद के लिए प्रताप सिर्फ दोस्त नहीं बल्कि छोटे भाई समान था। एक दिन भी प्रताप से मिले बिना नहीं रहता था। समय के साथ-साथ दोनों की दोस्ती और गहरी होती चली गई। मुकुंद, छिपकर पढ़ाई में प्रताप की मदद किया करता था। अपने पिता से पैसे ले, वह प्रताप को पढ़ाई के लिए पुस्तकें लाकर देता था। वह प्रताप को बहुत बड़ा आदमी बनता देखना चाहता था। और फिर प्रताप ने परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया था उस दिन मुकुंद ने पूरे गांव में मिठाई बांटी थी। प्रताप भी मुकुंद की बहुत इज़्ज़त करता था। उसका मानना था कि मेडिकल की पढ़ाई में इतना बढ़िया प्रदर्शन वह केवल मुकुंद की मदद से ही कर पाया था। “तू उसकी इतनी मदद करता है। देखना, एक दिन वह तुझे भूल जाएगा।” मुकुंद के पिता अक्सर उसको समझाते थे। “पिताजी, दोस्ती में किसने किसको कितना दिया, ये मायने नहीं रखता। और हम दोनों की दोस्ती इतनी कच्ची नहीं है कि मुझसे दूर जाकर प्रताप मुझे भूल जाएगा।” मुकुंद मुस्कुराते हुए बोला। प्रताप मैडिकल की पढ़ाई करने शहर चला गया। कुछ समय तक वह आता जाता रहता था। पर फिर पढ़ाई बढ़ती गई और प्रताप मसरूफ होता चला गया। मुकुंद ने भी ज़मीदारी का काम संभाल लिया, पर हर समय प्रताप के आने का इंतज़ार करता रहता। जब मुकुंद का ब्याह हुआ तो उसे यकीन था कि प्रताप ज़रूर आएगा। पर प्रताप के फाइनल परीक्षा होने के कारण वह आने में असमर्थ रहा। फिर भी मुकुंद ने बुरा नहीं माना। पर जब मुकुंद की माताजी के देहांत पर भी प्रताप नहीं आया तो मुकुंद को अपने पिता की कही बात सत्य लगने लगी। प्रताप शहर जाकर वहीं का हो‌ गया। उसने गांव और गांववासियों से नाता ही तोड़ लिया। मुकुंद ने भी धीरे–धीरे प्रताप के वापस आने की आस छोड़ दी। पर उसके माता-पिता का वह बराबर ख्याल रखता था। जब प्रताप के पिता का देहांत हुआ तब प्रताप विदेश में था। वहां से आने में जब उसने अपनी असमर्थता व्यक्त की तो मुकुंद ने ही एक बेटे के सारे कर्तव्य निभाते हुए उनका अंतिम संस्कार किया। “मैं तेरा ये एहसान कभी नहीं भूलूंगा। बस एक एहसान और कर दे भाई। मैंने माँ को यहां लाने के लिए डाक से टिकट भेजी है। उसे मुझ तक पहुंचा दे।” प्रताप ने फोन पर कहा। मुकुंद ने केवल ठीक है कह फोन रख दिया और प्रताप की माँ को उसके पास भिजवाने का इंतज़ाम कर दिया। उसके बाद मुकुंद ने कभी प्रताप से बात करने की कोशिश नहीं की और ना ही कभी प्रताप का कोई खत या फोन आया। आज इतने सालों बाद प्रताप की तस्वीर देख मुकुंद भावविभोर हो उठा था। मन कर रहा था कि अभी प्रताप उसके सामने आ जाए और वो उसे गले से लगा ले। पर हॉस्पिटल के उस बेड पर पड़ा मुकुंद उठने में भी असमर्थ था। शहर के बड़े से बड़ा डॉक्टर भी उसके कैंसर की बिमारी को ठीक नहीं कर पा रहा था। उस दिन आंखों में आंसू लिए मुकुंद अपनी पत्नी से बोला, “इस जीवन से अच्छा तो भगवान मुझे उठा ले। तुम सब भी मेरे कारण परेशान हो गए हो।” “पिताजी, आप फ़िक्र ना करें, मैंने देश के सबसे बड़े डॉक्टर को बुलाया है। देखना आप ठीक हो जाएंगे।” मुकुंद के बेटे ने उसे दिलासा देते हुए कहा। “बेटा, तू बेकार मुझे जीवित रखने की कोशिश कर रहा है। मैं….अब…” ये कहते – कहते ही मुकुंद बेहोश हो गया। जब मुकुंद की आंखें खुलीं तो उसने अपने समस्त परिवार को अपने इर्दगिर्द खड़ा देखा। “आप सब यहां? मैं…मैं मरने वाला हूँ क्या?” मुकुंद ने दुखी स्वर में कहा। “मेरे होते हुए ऐसा कभी हो सकता है क्या?” मुकुंद के कानों को एक परिचित सी आवाज़ सुनाई दी। मुकुंद ने मुड़ कर देखा तो प्रताप को खड़ा पाया। “प्रताप! तू यहां? आखिर याद आ गई तुझे मेरी?” मुकुंद ने आंखों के आंसुओं को पोंछते हुए कहा। प्रताप उसके गले लग कर खूब रोया। “माफ़ कर दे दोस्त। शहर की तेज़ रफ़्तार में इतना तेज़ चलने लगा कि अपने कब पीछे छूट गए पता ही नहीं चला। पर तेरी याद हमेशा दिल में थी। माफ़ कर दे भाई। तूने मेरे लिए कितना कुछ किया और मैं तेरे किसी सुख-दुख में काम नहीं आ पाया। तेरी दोस्ती का कर्ज़ तो उतारना ही था मेरा भाई। मरने के बाद ये कर्ज़ अपने साथ ऊपर लेकर जाता तो भगवान को क्या मुँह दिखाता।” “दोस्ती में कर्ज़ नहीं होता मेरे दोस्त। माना मैं तुझसे नाराज़ था, पर दिल से तेरे लिए हमेशा दुआ ही निकलती थी। तेरी कामयाबी से सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था।” मुकुंद ने कहा। “पिताजी, प्रताप चाचू ने ही आपका कामयाब ऑपरेशन किया है और अब आप बिल्कुल स्वस्थ हैं।” मुकुंद के बेटे ने कहा। “हांजी, भाईसाहब का यह कर्ज़ तो हम जीवन भर नहीं उतार पाएंगे। आपको नया जीवन दिया है इन्होंने।” ये कह मुकुंद की पत्नी रोने लगी। “अरे! भाभी आप शर्मिंदा कर रहे हैं मुझे। आज मैं यदि अपने दोस्त को बचा पाया तो इसके लिए भी सारा श्रेय मुकुंद को ही जाता है। ये मदद ना करता तो मैं डॉक्टरी की पढ़ाई ही नहीं पढ़ पाता। इसका बहुत बड़ा क़र्ज़ है मुझपर।” प्रताप ये कहते हुए रो पड़ा। “पगले! दोस्ती में एक दोस्त दूसरे दोस्त पर एहसान नहीं करता। ये तो दिल का रिश्ता है। इसमें कैसा क़र्ज़। दोबारा ऐसा कहना भी मत।” ये कहते हुए मुकुंद की आंखें खुशी से छलक उठीं। उसने अपने बिछड़े दोस्त को सीने से लगा लिया। और उसके बाद दोनों कभी जुदा नहीं हुए। ******

  • शर्त

    देवी प्रसाद यादव शहर के सबसे बड़े बैंक में एक बार एक बुढ़िया आई। उसने मैनेजर से कहा - “मुझे इस बैंक में कुछ रुपये जमा करने हैं।” मैनेजर ने पूछा - कितने हैं? वृद्धा बोली - होंगे कोई दस लाख। मैनेजर बोला - वाह क्या बात है, आपके पास तो काफ़ी पैसा है, आप करती क्या हैं? वृद्धा बोली - कुछ खास नहीं, बस शर्तें लगाती हूँ। मैनेजर बोला - शर्त लगा-लगा कर आपने इतना सारा पैसा कमाया है? कमाल है… वृद्धा बोली - कमाल कुछ नहीं है, बेटा, मैं अभी एक लाख रुपये की शर्त लगा सकती हूँ कि तुमने अपने सिर पर विग लगा रखा है। मैनेजर हँसते हुए बोला - नहीं माताजी, मैं तो अभी जवान हूँ और विग नहीं लगाता। तो शर्त क्यों नहीं लगाते? वृद्धा बोली। मैनेजर ने सोचा यह पागल बुढ़िया खामख्वाह ही एक लाख रुपये गँवाने पर तुली है, तो क्यों न मैं इसका फ़ायदा उठाऊँ… मुझे तो मालूम ही है कि मैं विग नहीं लगाता। मैनेजर एक लाख की शर्त लगाने को तैयार हो गया । वृद्धा बोली - चूँकि मामला एक लाख रुपये का है, इसलिये मैं कल सुबह ठीक दस बजे अपने वकील के साथ आऊँगी और उसी के सामने शर्त का फ़ैसला होगा। मैनेजर ने कहा - ठीक है, बात पक्की… मैनेजर को रात भर नींद नहीं आई.. वह एक लाख रुपये और बुढ़िया के बारे में सोचता रहा। अगली सुबह ठीक दस बजे वह बुढ़िया अपने वकील के साथ मैनेजर के केबिन में पहुँची और कहा - क्या आप तैयार हैं? मैनेजर ने कहा - बिलकुल, क्यों नहीं? वृद्धा बोली - लेकिन चूँकि वकील साहब भी यहाँ मौजूद हैं और बात एक लाख की है, अतः मैं तसल्ली करना चाहती हूँ कि सचमुच आप विग नहीं लगाते, इसलिये मैं अपने हाथों से आपके बाल नोचकर देखूँगी। मैनेजर ने पल भर सोचा और हाँ कर दी, आखिर मामला एक लाख का था। वृद्धा मैनेजर के नजदीक आई और मैनेजर के बाल नोचने लगी। उसी वक्त अचानक पता नहीं क्या हुआ, वकील साहब अपना माथा दीवार पर ठोंकने लगे। मैनेजर ने कहा - अरे.. अरे.. वकील साहब को क्या हुआ? वृद्धा बोली - कुछ नहीं, इन्हें सदमा लगा है, मैंने इनसे पाँच लाख रुपये की शर्त लगाई थी कि आज सुबह दस बजे मैं शहर के सबसे बड़े बैंक के मैनेजर के बाल नोचकर दिखा दूँगी। *****

  • एक प्यारा सपना

    मीणा कुमारी राजेश बाबू की उम्र पचास साल हो चुकी थी, लेकिन उनकी सुबह की आदतें वही थीं। नींद से उठते ही एक करवट लेते और अपनी पत्नी मीता से हमेशा की तरह चाय बनाने को कहते। एक और करवट लेकर वह फिर से रजाई ओढ़कर आराम से लेट जाते। लेकिन आज सुबह कुछ अलग था। कुछ समय इंतजार करने के बाद भी चाय की कोई आहट नहीं आई। थोड़ी हैरानी के साथ उन्होंने फिर से आवाज दी। जब कोई जवाब नहीं आया, तो राजेश बाबू को बेचैनी सी महसूस हुई। उन्होंने उठकर लाईट जलाई और मीता को हिलाया। पर इस बार मीता में कोई हलचल नहीं थी। उनका दिल घबरा उठा। रजाई हटाकर देखा तो मीता एक ओर चुपचाप निढाल पड़ी थी। राजेश बाबू के लिए यह सहन करना बहुत मुश्किल था। देखते ही देखते लोग उनके पास जुटने लगे, और फिर मीता का अंतिम संस्कार हो गया। अगला हफ्ता तो जैसे राजेश बाबू के लिए धुंधला सा गुजरा। उनका एक ही बेटा था, जो अब अमेरिका में रहता था। बेटे ने लौटकर पापा से कहा कि वे भी उसके साथ चलें। राजेश बाबू तैयार तो हो गए, पर उनका मन कहीं मीता की यादों में ही अटका रहा। मीता का साथ उन्हें अब हर पल महसूस होता – वह कितना ख्याल रखती थी उनका, लेकिन उन्होंने कभी उसकी कद्र नहीं की। हर छोटी बात में वह उसकी गलती निकालते और कभी उसकी तारीफ नहीं करते। मीता फिर भी मुस्कुराते हुए सारा काम संभाल लेती थी, यहां तक कि जब घर की नौकरानी भी दो महीने की छुट्टी पर चली गई थी, तब भी मीता सब काम अकेले ही कर रही थी, बिना किसी शिकन के। अब उन्हें मीता की वो बातें याद आने लगीं, जिन पर पहले कभी ध्यान नहीं दिया था। काश, उन्होंने उसे कभी सराहा होता। काश, उसके साथ थोड़ा अच्छा बर्ताव किया होता। ये ख्याल आते ही उनकी आंखें भीग जातीं। आज राजेश बाबू का सामान पैक हो चुका था। वो अमेरिका जाने के लिए तैयार हो रहे थे। सामान समेटते हुए उनकी नजर मीता की तस्वीर पर पड़ी, और भावनाओं का बांध टूट गया। आंखों से आंसू बहते हुए उन्होंने तस्वीर के सामने कहा, "मीता, माफ कर दो मुझे। मैं तुम्हारे बिना कुछ नहीं हूं। आज समझ पाया हूं कि मैं तुमसे कितना प्यार करता था।" अचानक किसी ने उन्हें पीठ पर हल्के से झकझोरा। उन्होंने चौंककर आंखें खोलीं, और देखा कि मीता उनके पास बैठी थी, उन्हें प्यार से देख रही थी। वो सब एक सपना था। राजेश बाबू को एक पल के लिए विश्वास ही नहीं हुआ, पर अगले ही पल उन्होंने मीता का हाथ अपने हाथों में थाम लिया, और उनकी आंखों से आंसू बहते जा रहे थे। सिर्फ एक बात निकल पाई उनके मुंह से, "आई लव यू, मीता... आई लव यू।" और मीता, भीगी आंखों से बस उन्हें अपलक देखे जा रही थी, जैसे इस पल का उन्हें भी इंतजार था। ******