Search Results
889 results found with an empty search
- नीलकंठ
गुलशन नंदा असावधानी से पर्दा उठाकर ज्यों ही आनंद ने कमरे में प्रवेश किया, वह सहसा रुक गया। सामने सोफे पर हरी साड़ी में सुसज्जित एक लड़की बैठी कोई पत्रिका देखने में तल्लीन थी। आनंद को देखते ही वह चौंककर उठ खड़ी हुई। 'आप!' सकुवाते स्वर में उसने पूछा, 'जी, मैं रायसाहब घर पर हैं क्या?' 'जी नहीं, अभी ऑफिस से नहीं लौटे।' 'और मालकिन। आनंद ने पायदान पर जूते साफ करते हुए पूछा। 'जरा मार्किट तक गई हैं। 'घर में और कोई नहीं?' 'संध्या है, उनकी बेटी! अभी आती है।' वह साड़ी का पल्लू ठीक करती हुई बोली। 'आपको पहले देखने का कभी...।' 'जी, मैं सहेली हूँ उसकी। वह बात काटते हुए बोली, 'आप बैठिए, मैं उसे अभी बुलाकर लाती हूँ।' जैसे ही वह संध्या को बुलाने दूसरे कमरे की ओर मुड़ी, किनारे रखी मेज से टकरा गई, फिर अपने को संभालती हुई शीघ्रता से भाग गई। आनंद उसकी अस्त-व्यस्त दशा देख मुस्कुरा उठा और दीवार पर लगे चित्रों को देखने लगा। कुछ समय तक न संध्या और न उसकी सखी ही आई तो आनंद ने बिना आहट किए दूसरे कमरे में प्रवेश किया। सामने वह लड़की खड़ी बाथरूम का किवाड़ खटखटा रही थी। आनंद हौले से एक ओर हट गया। 'अभी कितनी देर और है तुझे !' लड़की ने तनिक ऊँचे स्वर में पूछा। 'चिल्लाए क्यों जा रही है, कह जो दिया आती हूँ, परंतु वह कौन है?' भीतर से सुनाई दिया। 'मैं क्या जानूं? बैठक में बैठा देवी जी की प्रतीक्षा कर रहा है।' 'तू चलकर उसका मन बहला जरा, मैं अभी आई।' 'वाह! अतिथि तुम्हारा और मनोरंजन करें हम।' साथ ही चिटखनी खुलने की आवाज सुनाई पड़ी।
- मालकिन मैं या तुम
गीता तिवारी शादी की उम्र हो रही थी और मेरे लिए लड़कियां देखी जा रही थीं। मैं मन ही मन काफी खुश था कि चलो कोई तो ऐसा होगा जिसे मैं अपना हमसफर बोलूंगा, जिसके साथ जब मन करे प्यार करूंगा। मेरी अच्छी खासी नौकरी थी, घर में बूढ़ी मां और पापा थे, और इतनी कमाई थी कि अपने पत्नी का खर्चा उठा सकूं। ये सारी बातें सोच-सोचकर खुश होता था। मां की उम्र भी हो गई थी, तो एक प्वाइंट ये भी लोगों को बताता कि मुझे शादी की कोई जल्दी नहीं, ये तो मां हैं जिनकी उम्र निकल रही है, उनके लिए शादी करनी है। लोग भी मेरी बात मानते, लेकिन मन में तो मेरे भी चाहत थी कि मेरी शादी हो जाए। मेरी शादी दिव्या से फिक्स हो गई। मैंने दिव्या को बोला कि हम आगे जाकर बहुत अच्छी जिंदगी जीने वाले हैं, क्योंकि मेरे घर में कोई नहीं है। बस तुम्हें मेरे मां-बाप का ध्यान रखना होगा। दिव्या ने तुरंत बोला, "आपके मां-बाप भी मेरे मां-बाप हो जाएंगे शादी के बाद।" दिव्या की अच्छी बातों से मुझे दिन-रात और ज्यादा प्रेम होने लगा था। कभी परिवार संभालने की बातें, कभी शरारत भरी रोमांटिक बातें सुनकर मैं बहुत खुश था। मानो एक परफेक्ट जिंदगी मुझे मिल गई हो। शादी के बाद हम दोनों घूमने गए, सब कुछ बहुत अच्छा था। ना जाने क्यों इस पल हम दोनों को ऐसा लगता था कि बस हम एक-दूसरे से लिपटे रहें। अब जिनकी शादी हुई होगी, वो समझ पा रहे होंगे कि मैं क्या बोलना चाहता हूं। घूमने के बाद जब घर आया, तो ज्यादातर समय ऑफिस के लिए ही होता था। छुट्टी में जब कभी मम्मी-पापा बाहर जाते, तो दिव्या मैडम मूड में रहती थी। कब, क्या, कहां, कैसे हो जाता था, पता नहीं चलता था। मुझे अब लगने लगा था कि एक ऐसी पत्नी मिली है, जो घर की जरूरतों को समझती है, साथ में मेरी शारीरिक जरूरतों का भी ध्यान रखती है। संबंध बनाने के लिए खुद ही पहल करती है, और यदि कभी मैं कर दूं तो माना नहीं करती बल्कि पूरा साथ देती है। अब जिंदगी में इससे अच्छा क्या होगा? फालतू में मेरे दोस्त बोलते थे कि शादी मत करो, लाइफ खराब हो जाती है। हमारी शादी को 2 महीने हुए थे, दिव्या ने बोला, "अजी, मुझे साड़ी में दिक्कत होती है, क्या मैं घर पर सूट पहन सकती हूं?" मैंने तुरंत बोला, "हां, क्यों नहीं पहन सकती हो, चलो अभी दिलाता हूं।" हम दोनों बाजार से घर आए, मम्मी ने उसके हाथ में सूट देखा, कुछ बोली नहीं। अगली सुबह जब वह नहाकर सूट पहनकर निकली, तो मम्मी ने बोला, "तुमने सूट क्यों पहन लिया? हमारे यहां शादी के 6 महीने तक नई बहू को सिर्फ साड़ी पहननी होती है। रोज कोई न कोई देखने आता है, सबके सामने सूट पहनकर जाओगी, अच्छा नहीं लगेगा। और बार-बार दिन भर कपड़ा बदलो, ये भी अच्छा नहीं है।" इस पर दिव्या ने मां को सॉरी बोला और बोली, "मैंने तो इनसे पूछकर लिया था।" तभी मां बोलती हैं, "ये कौन होता है ये सब डिसाइड करने वाला? अभी मैं हूं तो मैं करूंगी, जब मैं मर जाऊं तो जैसे मन वैसे रहना।" इसे सुनने के बाद आज मुझे पहली बार घर में अपनी औकात का पता चला। मासूमियत से दिव्या मेरी तरफ देख रही थी, शायद ये बताना चाहती थी कि मेरी वजह से उसे डांट पड़ गई। पत्नी प्रेम में लिप्त होकर मैंने मां से बोल दिया, "अरे मम्मी, उसकी गलती नहीं है, मुझसे पूछी थी वो।" मां ने तुरंत बोला, "2 महीने हुआ नहीं और आगए पत्नी का पक्ष लेने। इस घर में मालिक मैं हूं या तुम हो?" अब मेरे पास कोई जवाब नहीं था, हम दोनों एक-दूसरे को देखे और अंदर चले गए। इस बात से दिव्या डर गई थी और अब वह हर काम मां से पूछकर करने लगी। लेकिन मां के लिए ये भी एक आफत, अब उनका कहना था कि तुम 28 साल की हो, तुम्हें खुद बुद्धि होनी चाहिए कि क्या करना है, क्या नहीं। हर चीज के लिए मेरे पास मत आया करो। लेकिन अब इस बार दिव्या भी चिढ़ गई, पर मां से कुछ बोली नहीं। जब मैं ऑफिस से आया तो अंदर आते ही मां बोलने लगी, "तुम्हारी धर्मपत्नी को बुद्धि नाम की चीज नहीं है।" मैंने मां को समझाया कि जाने दो, सीख जाएगी, थोड़ा समय दो। इस पर मां ने मुझसे मुंह फूला लिया और उदास रोते मन से कहा, "तुम बदल गए हो।" और पीछे से धीरे-धीरे मेरे पिता जी देखते हुए हंस रहे थे, मानो ऐसा जता रहे हों कि कैसे उन्होंने पहले ही भविष्य देखा हुआ था। इसके बाद कमरे में गया तो वहां दिव्या का मुंह फूला हुआ था। कमरे में घुसते ही उसने मुझसे बोला, "मैं कितनी भी कोशिश कर लूं, मां कभी खुश नहीं होती। हर चीज की एक सीमा होती है और यह सारी बातें सीमा से भी ऊपर हैं।" मैंने उसे पकड़ा और बोला, "घबराओ मत, थोड़ा समय लगेगा मां को संभलने में, क्योंकि तुम्हारे अलावा उनका कोई और नहीं है। वह तुम्हें अपना मानती हैं इसलिए तुमसे ऐसी बातें करती हैं। चलो, चल के नीचे खाना खाते हैं, बहुत तेज भूख लगी है।" ऐसा बोलकर हम नीचे आते हैं और मैं मन में ही सोचता हूं, दिव्या को तो मैं धीरे से किसी भी तरह से मना लूंगा, एक रात की बात है, एक बार जहां लिपट के सोया, सब कुछ सुबह ठीक हो जाएगा। मां के लिए कुछ सोचना पड़ेगा। नीचे खाना खाने के बाद मैं और दिव्या अपने कमरे में जाते हैं। दिव्या अभी भी थोड़ी नाराज लग रही थी। मैंने उसे बोला, "क्यों मां की बात का इतना बुरा मानती हो?" उसने तुरंत मुझसे बोला, "मेरी कोई गलती भी नहीं होती और हर चीज के लिए मुझे दोषी ठहरा दिया जाता है। मैं कुछ अच्छा भी करने जाती हूं तो उसमें भी मेरी बुराई निकल जाती है।" मैंने उसे जोर से गले लगाया और बोला, "ऐसा कुछ नहीं है, समय के साथ सारी चीज ठीक हो जाएगी।" और अब बारी थी कुछ करने की, लेकिन उसने मुझे अपने से दूर कर दिया और बोला, "मेरा मन नहीं है।" अब जो मुझे लगता था कि एक रात लिपट के सोने से अगली सुबह सब कुछ ठीक हो जाएगा, यह बातें झूठी समझ आने लगीं। धीरे-धीरे हर छोटी-छोटी चीज पर घर में लड़ाई झगड़ा होने लगा। मां को दिव्या की कुछ चीजें पसंद नहीं आतीं और दिव्या को मां की बहुत सारी चीजें नहीं पसंद आतीं। दिव्या का कहना था कि घर उसका भी है और हर छोटी चीज के लिए परमिशन लेना उसे ठीक नहीं लगता। उधर मां का कहना था कि इस गृहस्थी को मैंने बसाया है और तुम्हें हैंडओवर किया है, इसलिए अभी भी इसकी मालकिन मैं ही हूं। तुम्हें जो भी पूछना है मुझसे पूछ कर करो। दोनों अपनी बात पर बिल्कुल सही थीं। एक तरफ दिव्या, जिसके साथ मुझे पूरी जिंदगी बितानी थी, दूसरी तरफ मेरी मां, जिन्होंने इस गृहस्ती को संभाला था, मुझे पाल-पोसकर बड़ा किया था। लेकिन इन दोनों की लड़ाई का असर सीधा-सीधा मेरे ऊपर दिख रहा था और मैं पिसता जा रहा था। धीरे-धीरे बात कहीं ज्यादा बढ़ने लगी और घर में प्रतिदिन लड़ाई झगड़े की नौबत आ गई। अब मुझे भी लगने लगा था कि जो मेरे दोस्त बोलते थे कि शादी करने से बहुत ज्यादा खुशी नहीं मिलती, बल्कि लाइफ में टेंशन आता है, वह क्यों बोलते थे। इसी तरह एक दिन अत्यधिक बात बढ़ने पर मैं रात को दोनों लोगों के कमरे में गया। सबसे पहले मैं मां के कमरे में गया और मां को समझाया, "देखो मां, तुम दोनों के झगड़े की वजह से मेरा करियर खराब हो रहा है और मैं ठीक से रह नहीं पा रहा हूं। मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकता और ना मैं दिव्या को छोड़ सकता हूं। तो इसलिए थोड़ी नरम हो जाओ, जो चीज जैसे चल रही है, चलने दो।" इस बार मैं थोड़ा कठोर था। मां से तुरंत बोलने के बाद मैं अपनी पत्नी के कमरे में गया और यही बात उससे भी कही, "देखो, मां की उम्र हो चुकी है। यदि तुम यह सोच रही हो कि मां अपने आप को बदल सकती हैं, तो यह होना मुमकिन नहीं है। बदलना तुम्हें खुद को होगा, जिसमें मैं तुम्हारा पूरा साथ दूंगा। मैं ना तुम्हें छोड़ सकता हूं, क्योंकि तुम मेरा भविष्य हो, और ना मैं अपनी मां को छोड़ सकता हूं, क्योंकि उन्होंने मुझे पाल-पोस कर इस लायक बनाया है। तो कोई बीच का रास्ता निकालो और घर में शांति से रहो।" यह बात होने के कुछ दिन बाद धीरे-धीरे चीजें फिर से संभालने लगीं। *******
- रामू का चमत्कार
श्रीपाल शर्मा कभी-कभी जिंदगी हमें ऐसे मोड़ पर ले आती है, जहाँ ना पैसा काम आता है, ना ताकत, ना ओहदा। बस एक उम्मीद बचती है, जो अक्सर किसी अनजाने चेहरे से मिल जाती है। कहते हैं, भगवान जब मदद भेजता है, तो वह अक्सर ऐसी शक्ल में आता है, जिसे हम नजरअंदाज कर देते हैं। यह कहानी है दिल्ली के मशहूर अरबपति विक्रम मल्होत्रा की। उसकी पत्नी मीरा आईसीयू में जिंदगी और मौत के बीच जूझ रही थी। सारे नामी डॉक्टर जवाब दे चुके थे। लाखों रुपए, बड़ी टीम, आधुनिक मशीनें - सब कुछ था। लेकिन किसी के पास मीरा की सांसें वापस लाने का जवाब नहीं था। विक्रम का चेहरा झुका हुआ था। उसके पास दौलत का हर जरिया था, लेकिन उस वक्त वह बिल्कुल असहाय महसूस कर रहा था। वह पास की बेंच पर बैठकर भगवान से रहम की भीख मांग रहा था। “हे भगवान, अगर तू कहीं है तो मुझे एक उम्मीद दे, एक रास्ता दिखा।” तभी पीछे से एक धीमी आवाज आई, “साहब, अगर आप इजाजत दें तो मैं आपकी बीवी को बचा सकता हूं।” विक्रम ने मुड़कर देखा - सामने अस्पताल का दुबला-पतला सफाई कर्मी रामू खड़ा था, हाथ में पोछा पकड़े हुए। विक्रम के चेहरे पर पहले हैरानी, फिर हल्की सी हंसी आई, “तू मेरी बीवी को बचाएगा?” लेकिन कुछ ही मिनटों बाद वही हंसी सन्नाटे में बदल गई। क्योंकि जो हुआ, उसने पूरे आईसीयू, डॉक्टरों और खुद विक्रम की सोच को हिला दिया। रामू ने आगे बढ़कर मीरा के माथे पर हाथ रखा, उसकी हथेली में एक अजीब सी गर्माहट थी। उसने मीरा का हाथ थामा और शांत स्वर में प्रार्थना करने लगा। कुछ ही देर बाद मीरा की सांसों में हल्की सी हरकत दिखाई दी। मॉनिटर पर ग्राफ स्थिर होने लगे। डॉक्टर हैरान हो गए, नर्सें दौड़ पड़ीं। विक्रम की आंखों से आंसू बहने लगे। मीरा की उंगलियां हिली, पलकें कांपीं, और आखिरकार उसकी आंखें खुल गईं। डॉक्टरों ने कहा, “यह तो किसी चमत्कार से कम नहीं।” विक्रम के पांव जैसे जमीन से चिपक गए। उसकी आंखों से बहते आंसू अब सिर्फ दुख के नहीं थे, उनमें विश्वास और आभार भी था। बाहर खड़े लोग अब कहने लगे, “यह साधारण सफाई कर्मी नहीं, यह तो खुद ईश्वर का भेजा हुआ दूत है।” जब माहौल थोड़ा शांत हुआ, विक्रम तेजी से रामू के पास गया और कांपती आवाज में पूछा, “रामू, तुमने यह कैसे किया? बड़े-बड़े डॉक्टर हार मान चुके थे, मशीनें जवाब दे चुकी थीं, और तुम्हारे स्पर्श से मेरी पत्नी जिंदा हो उठी। यह चमत्कार कैसे हुआ?” रामू ने मुस्कुराकर जवाब दिया, “साहब, मैं कोई डॉक्टर नहीं हूं। मेरी मां कहा करती थी कि बीमार शरीर को सिर्फ दवा नहीं, बल्कि सच्चे मन की दुआ और विश्वास की भी जरूरत होती है। मेरी बीवी भी इसी अस्पताल में इलाज ना मिलने के कारण चल बसी थी। उस दिन मैंने ठान लिया कि मैं दूसरों की जान बचाने की कोशिश जरूर करूंगा। आज वही दुआ मैंने आपकी बीवी के लिए मांगी थी।” विक्रम का दिल भर आया। उसने भावुक स्वर में कहा, “रामू, आज तुमने मुझे सिखाया कि असली दौलत पैसे से नहीं, दिल से होती है। तुम्हारे जैसे लोग ही इस दुनिया को जीने लायक बनाते हैं।” उस दिन अस्पताल की दीवारों ने एक ऐसा सबक देखा जिसे किताबों में नहीं लिखा जाता। अमीरी और गरीबी का फर्क मिट गया था। वहां सिर्फ इंसानियत की जीत थी और एक साधारण सफाई कर्मी की सच्चाई ने करोड़ों की सोच बदल दी थी। कभी-कभी भगवान मंदिरों में नहीं, बल्कि किसी साधारण इंसान के हाथों में मिल जाते हैं। ******
- रसीद का आखिरी नाम
रेखा जौहरी दिल्ली की गलियों में सुबह की हल्की रोशनी फैली थी। सड़क किनारे रसीद का छोले कुलचे वाला ठेला था, जिस पर टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में लिखा था – “रसीद का छोले कुलचे”। रसीद के पास अपनी मां का दिया ताबीज, बाप की पुरानी साइकिल और ठेले का जंग लगा चम्मच ही उसकी पूरी दुनिया थी। रसीद कम बोलता था, लेकिन उसकी आँखों में अनगिनत कहानियाँ छिपी थीं। गली के बच्चे उसे ‘रसीद भाई’ कहते, कभी वो उन्हें मुफ्त में कुलचे देता, कभी कहानी सुनाता। हर रोज दोपहर को एक बूढ़ा आदमी वहाँ से गुजरता, साफ कपड़े, चमकदार जूते, माथे पर शिकन। रसीद उसे पहचानता नहीं था, लेकिन बूढ़ा हर बार अजीब नजर से उसे देखता, जैसे कोई पुराना पन्ना फिर सामने आ गया हो। एक दिन, जब वह आदमी छोले कुलचे खाने आया, रसीद ने उसकी उंगली में वही सोने की अंगूठी देखी, जो उसने अपने पिता के हाथ में देखी थी। उसके पिता, सलीम मियां, एक मिल में काम करते थे। मिल बंद हो गई थी, और उस ऑर्डर को रद्द करने वाले थे विष्णु मेहरा – वही आदमी। उस दिन सलीम मियां ने कहा था, “रसीद, मेहनत कभी धोखा नहीं देती, लेकिन लोग दे देते हैं।” गरीब छोले-कुलचे वाले लडके ने अमीर आदमी को ऐसा सबक सिखाया कि पूरा शहर देखता रह गया फिर जो हुआ…. रसीद के भीतर बचपन की भूख, मां की बीमारी, बाप की बेबसी सब उमड़ आई। उसने विष्णु से पूछा, “साहब, आपको सलीम मियां याद हैं?” विष्णु ने चौंक कर कहा, “इतने पुराने नाम अब याद कहां रहते हैं बेटा।” रसीद बस मुस्कुरा दिया, लेकिन उसकी मुस्कान के पीछे तूफान था। उस रात, रसीद ने ठेला बंद किया और देर तक बैठा रहा। वह सोच रहा था, “अगर अब्बू को नौकरी से नहीं निकाला होता, तो शायद अम्मी जिंदा होती।” अगले दिन उसने ठेले पर नया बोर्ड लगाया – “रसीद का आखिरी नाम”। लोगों ने पूछा, “नाम क्यों बदला?” रसीद ने कहा, “कभी-कभी इंसान को अपना जवाब याद रखना पड़ता है।” अब उसके छोले में दर्द का स्वाद घुल गया था। विष्णु रोज आता, रसीद बिना बोले खाना परोसता। धीरे-धीरे विष्णु की आंखों में अपराध-बोध आने लगा। तीसरे हफ्ते विष्णु ने कहा, “तुम्हारे छोले में कुछ है बेटे, जो किसी और के खाने में नहीं।” रसीद ने जवाब दिया, “यह नमक बाजार से नहीं, जख्मों से निकला है। रात गहरी थी। रसीद ने आसमान की तरफ देखा, जैसे अपने बाप से बातें कर रहा हो। अगले दिन उसने बोर्ड लगाया – “आज सिर्फ भूखे को खाना मुफ्त”। भीड़ लग गई। शाम को विष्णु आया, संकोच से पूछा, “आज खाना फ्री क्यों?” रसीद ने जवाब दिया, “कभी किसी ने सबका काम बंद करवा दिया था। आज उसी की याद में सबका खाना खुला है।” विष्णु अब रोज आने लगा, सिर झुकाकर बैठता। एक दिन रसीद ने उसके सामने अपने पिता का इस्तीफा पत्र रखा। विष्णु की आंखों में पछतावा था। रसीद ने कहा, “सुधार माफी से बड़ा है। अगर मजदूरों की फैमिली याद है, तो चलिए उनकी जिंदगी में फिर से रोटी जलाएं – इस बार प्यार की।” विष्णु ने सारी बची रकम लंगर में लगा दी। अब वह रोज ठेले पर आता, कभी पैसे लेकर, कभी चाय। रसीद अब गली का बेटा बन गया था, जिसने सबको सिखा दिया – माफी किसी को छोटा नहीं, बड़ा बनाती है। एक दिन पत्रकार ने पूछा, “आप दिल्ली के सबसे ईमानदार छोले वाले कहलाते हैं, क्या कहना चाहेंगे?” रसीद मुस्कुराया, “जब जमीर जिंदा हो, पेशा छोटा नहीं होता।” समय बीता, ठेले की जगह कम्युनिटी किचन बन गया। एक शाम विष्णु को दिल का दौरा पड़ा। अस्पताल में उसने रसीद से कहा, “मेरे नाम के आगे अपना नाम जोड़ लो।” रसीद बोला, “साहब, अब आपका नाम मेरे छोले में पहले ही घुल चुका है।” विष्णु मुस्कुरा कर चला गया। रसीद ने ठेले की दीवार पर लिखवाया – “नाम मिट जाते हैं, नेक काम कभी नहीं।” अब हर गरीब, मजदूर, बेसहारा इंसान वहां खाना खाता और दीवार को देखकर कहता – यही है असली इंसाफ। एक बच्चा पूछता, “अंकल, नाम क्या है आपका?” रसीद मुस्कुराता, “बेटा, नाम जरूरी नहीं – जिस छोले में किसी का दर्द घुल जाए, वही रसीद का आखिरी नाम है।” *****
- विश्वास की मूर्ति
शिव शंकर सुजीत मार्केट में चलते चलते अचानक से दौड़ने लगता है और दौड़ते हुए जाकर एक महिला के आगे रूक जाता है। और दौड़ने की वजह से हाफ रहा होता है। महिला - बड़े आश्चर्य से देखते हुए बोली, अरे सुजीत तुम, मुझे तो यकीन ही नही हो रहा है कि, इतने दिनों बाद आज हम दोनों फिर से मिले हैं। सुजीत ने हांफते हुए कहा कि, मैं बड़ी देर से तुम्हें देख रहा था लेकिन ठीक से पहचान नहीं पा रहा था इसलिए बोल नहीं पाया लेकिन जब देखा कि तुम अब चली जाओगी तो मुझे दौड़ना पड़ा, तुम्हारा परिचय पूछने के लिए, लेकिन यह अच्छा हुआ कि तुम मुझे देखते ही पहचान ली। महिला - और तुम मुझे क्यों नहीं पहचान पा रहे थे। सुजीत - अरे! हाई स्कूल में जब थे तभी के मिले थे तब से लेकर कितने वर्ष बीत गए। वैसे भी लड़कियों में ज्यादा परिवर्तन हो जाता है, खास कर शादी होने के बाद तो चाल ढाल पहनावा मेकअप सबकुछ ही बदल जाता है। महिला - ओ.. हो.. लेकिन तुम नही बदले जैसे पहले हंसी मजाक करते थे वैसे आज भी। रत्ना, अच्छा यह बताओ कि तुम इधर कहा जा रही थी ? रत्ना - मैं अपने कमरे पर जा रही थी मेरे पति का तबादला हो गया इसी शहर में इसलिए यही पास में किराए का मकान ले रखा है । सुजीत - अरे इसी रास्ते से तो मैं रोज अपने आफिस जाता हूं अब तुम मेरा नम्बर लिख लो फिर मिलेंगे। रत्ना - अरे इतनी भी क्या जल्दी है इस शहर में भला कोई अपना तो मिला। अब चलो मेरे साथ मेरे पति आफिस से आते ही होंगे उनसे मिलवा दूं और मेरे हाथ की एक कप चाय भी पी लेना। रत्ना के जिद करने पर सुजीत उसके साथ उसके कमरे पर जाता है और रत्ना ने अपने पति से सुजीत का परिचय कराती है, चाय पिलाती है। सुजीत - अच्छा मेरी पत्नी मेरा इन्तजार कर रही होगी। मै चलता हूं। रत्ना और उसके पति - अच्छा ठीक है मिलते रहिएगा। सुजीत का अब बार बार आना जाना हंस हंस कर बतलाना एक दूसरे की बातें शेयर करना। रत्ना के पति के दिल में ठेस पहुचा रहीं थी वह सोचने लगा कि कहीं यह दोनों मुझे धोखा तो नहीं दें रहे हैं या फिर कही इन लोगो का पुराना अफेयर तो नहीं है अब उसे उन लोगो का मिलना बात करना बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था। किन्तु रत्ना और सुजीत ऐसे घुल मिल गए थे जैसे दोनों एकही घर के हो। एक दिन रत्ना के पति घर नहीं थे और सुजीत और रत्ना शापिंग कर रहे थे कपड़े चूज कर रहे थे कि न जाने कहां से रत्ना के पति देख रहे थे लेकिन वे उस समय वहां कुछ नहीं कहे और सीधे घर पहुंच गए। और रत्ना के घर पहुंचते ही। पति - कहा से मुंह उठाए चली आ रही हो? रत्ना - शापिंग कर के, मगर आप ऐसे क्यों बोल रहे है? पति - और नहीं तो कैसे बोलूं, अरे शुकर मना, नहीं तो मेरी जगह कोई दूसरा होता तो अब तक तुम्हें धक्के मारकर घर से बाहर निकाल चुका होता। रत्ना - मगर क्यों? मेरी ग़लती क्या है? पति - अच्छा तो अब यह भी बताना पड़ेगा कि तुमने किया क्या है, ग़ैर मर्द के साथ शापिंग कर रही हो, गुलछर्रे उड़ा रही हो और हमसे पूछती हो कि मेरी ग़लती क्या है? रत्ना - क्या बकते हो! सुजीत ऐसा वैसा नहीं है। एसी घिनौनी बातें करने से पहले तुम्हें सोचना चाहिए। पति - अच्छा तो अब तुम उसका पक्ष भी लेने लगी,कि ऐसा वैसा नहीं है। अरे मैं भी आदमी पहचानता हूं। वह जबसे तेरी सूरत देखा है तूं पतंग की तरह उसकी तरफ खिंची जा रही हो। रत्ना - मै आपको कैसे समझाऊं मैं उसे बचपन से जानती हूं वह बेहद शरीफ और नेक इन्सान है और अगर तुम्हें उस पर विश्वास नहीं है तो ठीक है लेकिन मैं तुम्हारी पत्नी हूं मुझ पर तो तुम्हें भरोसा होना चाहिए। पति - कैसा विश्वास किसका भरोसा ऐ भरोसा का ही तो नतीजा है। अब आज से उसका मिलना जुलना बंद। रत्ना - मिलना जुलना बंद तो क्या मैं उसकी तरफ देखती भी नहीं यदि तुम मुझे पहले ही बता देते कि तुम्हें बुरा लग रहा है। लेकिन एक बात याद रखना कि हर इंसान बुरा नहीं होता। और अगर मैं बुरी नही हूं तो कोई और बुरा रहकर भी मेरा क्या कर सकता है। रत्ना रोते हुए घर के अन्दर चली जाती है। अगले एक दिन बाद रविवार था। सुजीत सुबह रत्ना के घर पहुंच कर दरवाजा नांक करता है। अन्दर से रत्ना के पति ने दरवाजा खोला, सामने सुजीत को देखकर बोले, आ गये सुबह सुबह मिलने, मेरी पत्नी है वो। क्यों हम लोगों का जीना हराम कर रखा है तुमने, अगर तुमको पसंद थी तो इसी से शादी क्यों नहीं कर ली कम से कम मैं तो परेशानी से बच जाता। सुजीत - भाई साहब आप गलत इल्जाम लगा रहे है । रत्ना के पति - दूर हो जाओ मेरे सामने से और आज से कभी दिखाई मत देना। सुजीत सोचता हुआ अपने घर वापस आ गया। सुजीत की पत्नी - आप शान्त क्यों बैठे हैं? क्या रत्ना आज नहीं मिली या रत्ना किसी परेशानी में हैं। सुजीत - कुछ नहीं। सुजीत की पत्नी - आप मुझसे कभी झूठ नहीं बोलते फिर आज क्यों? सच बताओं मुझे! क्या हुआ है? सुजीत सब बातें अपनी पत्नी को बता देता है। सुजीत की पत्नी रत्ना के घर आ जाती है और दरवाजा नाक करती है और रत्ना के पति दरवाजा खोलते है। मै सुजीत की पत्नी आप से बात करने आई हूं। रत्ना के पति - जी बताइए क्या बात है। सुजीत की पत्नी - आप ने हमारे पति को क्या कहा और क्यों कहा? रत्ना के पति - जी मेरी आड़ में मेरी पत्नी के साथ शापिंग कर रहे थे। सुजीत की पत्नी - तो क्या हो गया अरे आप के लिए वह जूता ले रही थी और मेरे लिए वो साड़ी ले रहे थे। और एक बात बता दूं प्यार विश्वास का होता है। आप न जाने कैसे पति है जो अपनी पत्नी को न पहचान पाए वो दूसरे को क्या पहचान पाएगा। फिलहाल वो आपकी पत्नी है मुझे कोई लेना देना नहीं। लेकिन एक बात ध्यान से सुन लीजिए कि आपको हमारे पति पर इस तरह से इल्जाम लगाने का कोई हक नहीं। लेकिन वो प्यार भी केवल मुझसे ही करते है। इसलिए ध्यान रखिएगा आगे से हमारे पति को ऐसी तकलीफ मत दीजिएगा । सुजीत की पत्नी वापस चली जाती है लेकिन रत्ना के पति सोच में डूब जाते है। एक औरत को अपने पति पर इतना गुमान, इतना विश्वास, इतना प्रेम और एक मैं? ******
- बंद मुट्ठी
रजनीकांत द्विवेदी एक बार की बात है, एक राजा ने घोषणा की कि वह कुछ दिनों के लिए पूजा करने के लिए अपने राज्य के मंदिर में जाएगा। जैसे ही मंदिर के पुजारी को यह खबर मिली, उसने राजा की यात्रा के लिए सब कुछ सही करने के लिए मंदिर को सजाने और रंगने का काम शुरू कर दिया। इन खर्चों को पूरा करने के लिए पुजारी ने 6,000 रुपये का कर्ज लिया। जिस दिन राजा मंदिर पहुंचे, उन्होंने दर्शन, पूजा और अर्चना की। समारोह के बाद, उन्होंने आरती की थाली में दान (दक्षिणा) के रूप में चार रुपये रखे और फिर अपने महल में लौट आए। जब पुजारी ने देखा कि पूजा की थाली में सिर्फ़ चार रुपये रखे गए हैं, तो वह बहुत क्रोधित हुआ। उसे उम्मीद थी कि राजा, सर्वोच्च शासक होने के नाते, बहुत बड़ी रकम देगा, लेकिन उसे सिर्फ़ चार रुपये मिले! इस बात की चिंता में कि वह कर्ज कैसे चुकाएगा, उसने एक योजना बनाई। पुजारी ने राजा से प्राप्त एक वस्तु की नीलामी करने का फैसला किया। उसने पास के एक गाँव में नीलामी की घोषणा की, लेकिन वस्तु को अपनी बंद मुट्ठी में छिपा लिया, ताकि कोई न देख सके कि वह क्या है। लोगों ने सोचा कि राजा की वस्तु बहुत कीमती होगी, इसलिए उन्होंने तुरंत बोली लगानी शुरू कर दी। नीलामी की शुरुआत 10,000 रुपये से हुई, जो देखते ही देखते 50,000 रुपये तक पहुंच गई, लेकिन पुजारी ने फिर भी वस्तु बेचने से इनकार कर दिया। नीलामी की खबर आखिरकार राजा के कानों तक पहुंची। राजा ने तुरंत अपने सैनिकों को पुजारी को बुलाने के लिए भेजा और उसे नीलामी में अपनी वस्तु न बेचने के लिए कहा। इसके बजाय, राजा ने पुजारी को वस्तु के बदले में सवा लाख (1,25,000) रुपये देने की पेशकश की , जिससे लोगों के सामने उसकी गरिमा बच गई। उस क्षण से, यह कहानी इस कहावत का स्रोत बन गई: “जब डेढ़ लाख की बंद मुट्ठी खुली, तो उसका मूल्य राख से भी अधिक था!” यह कहावत इस बात का प्रतीक है कि कैसे छिपी हुई और महत्वहीन लगने वाली चीजें पहली नज़र में जितनी दिखती हैं, उससे कहीं अधिक मूल्यवान हो सकती हैं। यह कहावत आज भी प्रचलन में है। *******
- मेरा फ़र्ज
अरुण कुमार गुप्ता पिताजी के जाने के बाद आज पहली दफ़ा हम दोनों भाईयों में जम कर बहसबाजी हुई। फ़ोन पर ही उसे मैंने उसे खूब खरी-खरी सुना दी। पुश्तैनी घर छोड़कर मैं कुछ किलोमीटर दूर इस सोसायटी में रहने आ गया था। उन तंग गलियों में रहना मुझे और मेरे बच्चों को कतई नहीं भाता था। हम दोनों मियां-बीबी की अच्छी खासी तनख्वाह के बूते हमने ये बढ़िया से फ्लैट ले लिया। सीधे-साधे से हमारे पिताजी ने कोई वसीयत तो की नहीं पर उस पुश्तैनी घर पर मेरा भी तो बराबर का हक बनता है। छोटा भाई मना नहीं करता, लिखा-पढ़ी को भी राजी है पर दिक्कत अब ये है कि वो मेरे वाले हिस्से में कोचिंग सेंटर खोलना चाह रहा है। उसकी टीचर की नौकरी सात महीने पहले छूट चुकी है। दो महीने पहले ही आस-पास कहीं किराये का कमरा लेकर कोचिंग सेंटर खोला है। फोन पर कह रहा था, "आपके वाले हिस्से में कोचिंग सेंटर खोल लूँ तो मेरा किराया बच जाएगा।" अब भला ये क्या बात हुई। चीज मेरी बरतेगा वो। ऊपर से मेरी धर्मपत्नी भी उसी की बात को सही ठहराते हुए बोली, "खोलने दो ना उसे कोचिंग सेंटर, छोटा भाई है आपका। मुश्किल में है कुछ सहारा ही हो जायेगा। आखिर बड़े भाई हो कुछ तो फ़र्ज बनता है कि नहीं।" अब क्या बोलता, अखबार मेज पर पटका, थैला उठाया और सब्जी लेने निकल आया। मंडी में घुसते ही महीने भर से नदारद अपना सब्जी वाला भईया नज़र आया। कई सालों से उससे ही सब्ज़ी लेता आ रहा हूँ। फटाफट वहीं जा पहुंचा। "कहाँ ग़ायब हो गया था रे, महीना हो गया मुझे इधर-उधर से औने-पौने दाम में सब्जी लेते हुए।" "गाँव गया था साब जी। छोटे भाई की माली हालत खराब हो गई थी। गया और सब ठीक कर आया। घर में ही छोटी सी दुकान करा दी। बापू नहीं है तो क्या हुआ बड़ा भाई भी तो बाप समान होता है ना, साब जी।" ये सुनकर लगा जैसे मैं जम सा गया। थैला वहीं छोड़कर ऑटो लिया और उन जानी पहचानी तंग गलियों से होता हुआ अपने पुराने घर जा पहुँचा। बाहर खेलते हुए भाई के दोनों बच्चे मुझे देखते ही ''ताऊ जी, ताऊ जी" कहकर लिपट गए। आवाज सुनकर छोटा भी बाहर निकल आया। मैं उसे डाँटते हुए बोला, "क्यूँ रे, बहुत बड़ा हो गया है तू। मैंने जरा सा कुछ बोल क्या दिया, तुझ से तो पलट कर फ़ोन भी ना किया गया।" "अपने जब साफ़-साफ़ मना कर दिया तो फिर फोन क्यूँ करता।" "हाँ-हाँ जैसे तू तो मेरी हर बात मानता है।" "क्यों नहीं मानता आप बोल कर तो देखो।" "ये कुछ पैसे हैं रख ले, तेरी कोचिंग सेंटर के फर्नीचर की मरम्मत के लिए। यहाँ शिफ़्ट करने से पहले सब ठीक करा लियो।" "मतलब मैं यहाँ अपना..........। आपका ये एहसान मैं.........।" कहते-कहते उसका गला भर आया। "एहसान नहीं पगले, ये तो मेरा फ़र्ज है जो मैं भूल गया था।" और ये बोलते हुए मेरी आँखें.........। *******
- मीठे बोल
रीता सिंह नव विवाहित जोड़ा किराए का मकान देखने के लिए शर्मा जी के घर पहुंचा। दोनों मियां बीवी खुश हो गए चलो कुछ रौनक होगी कितना सुंदर जोड़ा है हम इन्हें घर जरूर देंगे। "आंटी अंकल हमें दो रुम किचन का मकान चाहिए.. क्या हम मकान देख सकते हैं? घुटनों के दर्द से बेहाल सीमा जी उठते हुए बोली "हां हां बेटा क्यों नहीं देख लो। बाजू में ही छोटा पोर्शन किराए के लिए बनवाया था आर्थिक सहायता भी होगी तनिक रौनक भी लगी रहेगी। मकान बहुत पसंद आया जोड़े को "अंकल हम लोग कल इतवार को ही शिफ्ट कर जाएंगे" राघव जी भी खुश होकर बोले "हां बेटा बिल्कुल बिल्कुल" दूसरे दिन से सूने से घर में रौनक आ गई। सारा दिन सामान जमाकर जैसे ही नीतू रवि फुरसत होकर बैठे ही थे कि दरवाजे की घंटी बज उठी.... दरवाजा खोला तो देखा राघव जी थे "बेटा तुम्हारी आंटी ने तुम्हें खाना खाने के लिए बुलाया है।" रवि बोल पड़ा "अरे क्यों तकलीफ की आंटी ने... हम तो बाहर से ऑर्डर करने ही वाले थे।" पोपले मुंह से हंसते हुए राघव जी बोले "आज़ थके हुए हो.... खा लो, कल से अपने हिसाब से इंतज़ाम कर लेना।" सीमा जी और राघव जी से अनजाना सा लगाव हो गया नीतू और रवि को, ये जानकर कि उनके दोनों बेटे परदेश में ही स्थायी तौर पर बस चुके हैं.... दोनों का मन भर आया। नीतू! "सारी रात अंकल के खांसने और कराहने की आवाज़ आती रही तनिक देखकर आता हूं कहीं तबियत ज्यादा खराब तो नहीं हो गई।" "ठीक है जाओ, मैं नाश्ता लेकर आती हूं... साथ ही नाश्ता कर लेंगे।" "क्यों तकलीफ की बेटा! बुढ़ापे में तो ये सब लगा ही रहता है... लगता है इनकी खांसी की आवाज से सो नहीं पाए तुम लोग?" "अरे नहीं आंटी! ऐसा नहीं है मैं अभी डॉक्टर के पास ले जाऊंगा अंकल को, दवा देंगे तो तबियत संभल जाएगी।" बेबसी से दोनों की ओर देखती हुई सीमा जी बोलीं..... "बेटा! दवा से ज्यादा अपनेपन से भरे मीठे बोल की जरूरत है हमें, बस इसी की कमी थी, जो तुम दोनों ने पूरी कर दी" पल्लू से आंखे पोंछतीं सीमा जी बोलीं, राघव जी की आंखों भी बरस पड़ीं।" ******
- एकता की ताकत
डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव जंगली भैंसों का एक झुण्ड जंगल में घूम रहा था। तभी एक बछड़े ने पुछा... पिता जी, क्या इस जंगल में ऐसी कोई चीज है जिससे डरने की ज़रुरत है? बस शेरों से सावधान रहना.. भैंसा बोला। हाँ, मैंने भी सुना है कि शेर बड़े खतरनाक होते हैं...। अगर कभी मुझे शेर दिखा तो मैं जितना हो सके उतनी तेजी से दौड़ता हुआ भाग जाऊँगा... बछड़ा बोला। नहीं.. इससे बुरा तो तुम कुछ कर ही नहीं सकते.. भैंसा बोला। बछड़े को ये बात कुछ अजीब लगी..वह बोला। क्यों? वे खतरनाक होते हैं... मुझे मार सकते हैं तो भला... मैं भाग कर अपनी जान क्यों ना बचाऊं? भैंसा समझाने लगा.... अगर तुम भागोगे तो शेर तुम्हारा पीछा करेंगे। भागते समय वे तुम्हारी पीठ पर आसानी से हमला कर सकते हैं और तुम्हे नीचे गिरा सकते है। और एक बार तुम गिर गए तो मौत पक्की समझो। तो.. तो। .. ऐसी स्थिति में मुझे क्या करना चाहिए ? बछड़े ने घबराहट में पुछा। अगर तुम कभी भी शेर को देखो... तो अपनी जगह डट कर खड़े हो जाओ और ये दिखाओ की तुम जरा भी डरे हुए नहीं हो। अगर वो ना जाएं तो...। उसे अपनी तेज सींघें दिखाओ और खुरों को जमीन पर पटको। अगर तब भी शेर ना जाएं तो धीरे -धीरे उसकी तरफ बढ़ो... और अंत में तेजी से अपनी पूरी ताकत के साथ उस पर हमला कर दो। भैंसे ने गंभीरता से समझाया। ये तो पागलपन है.... ऐसा करने में तो बहुत खतरा है। अगर शेर ने पलट कर मुझ पर हमला कर दिया तो? बछड़ा नाराज होते हुए बोला। बेटे!! अपने चारों तरफ देखो। क्या दिखाई देता है? भैंसे ने कहा। बछड़ा घूम - घूम कर देखने लगा ..। उसके चारों तरफ ताकत वर भैंसों का बड़ा सा झुण्ड था। अगर कभी भी तुम्हे डर लगे.. तो ये याद रखो कि हम सब तुम्हारे साथ हैं। अगर तुम मुसीबत का सामना करने की बजाये, भाग खड़े होते हो, तो हम तुम्हें नहीं बचा पाएंगे। लेकिन अगर तुम साहस दिखाते हो और मुसीबत से लड़ते हो तो हम मदद के लिए ठीक तुम्हारे पीछे खड़े होंगे। बछड़े ने गहरी सांस ली और अपने पिता को इस सीख के लिए धन्यवाद दिया। हम सभी की ज़िन्दगी में भी शेर हैं। कुछ ऐसी समस्याएं हैं जिनसे हम डरते हैं, जो हमें भागने पर, हार मानने पर मजबूर करना चाहती हैं। लेकिन अगर हम भागते हैं तो वे हमारा पीछा करती हैं और हमारा जीना मुश्किल कर देती हैं। इसलिए उन मुसीबतों का सामना करिये। उन्हें दिखाइए कि आप उनसे डरते नहीं हैं। दिखाइए कि आप सचमुच कितने ताकतवर हैं और पूरे साहस और हिम्मत के साथ उल्टा उनकी तरफ टूट पड़िये। और जब आप ऐसा करेंगे तो आप पाएंगे कि आपके परिवार और दोस्त पूरी ताकत से आपके पीछे खड़े हैं। ******
- समय और धैर्य
डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव एक साधु था, वह रोज घाट के किनारे बैठ कर चिल्लाया करता था, ”जो चाहोगे सो पाओगे", "जो चाहोगे सो पाओगे" बहुत से लोग वहाँ से गुजरते थे पर कोई भी उसकी बात पर ध्यान नही देता था और सब उसे एक पागल आदमी समझते थे। एक दिन एक युवक वहाँ से गुजरा और उसने उस साधु की आवाज सुनी, “जो चाहोगे सो पाओगे”, जो चाहोगे सो पाओगे”, और आवाज सुनते ही उसके पास चला गया। उसने साधु से पूछा ”महाराज आप बोल रहे थे कि ‘जो चाहोगे सो पाओगे’ तो क्या आप मुझको वो दे सकते हो जो मैं जो चाहता हूँ ?” साधु उसकी बात को सुनकर बोला “हाँ बेटा तुम जो कुछ भी चाहता है मैं उसे जरुर दुँगा, बस तुम्हे मेरी बात माननी होगी। लेकिन पहले ये तो बताओ कि तुम्हे आखिर चाहिये क्या ?” युवक बोला ”मेरी एक ही ख्वाहिश है मैं हीरों का बहुत बड़ा व्यापारी बनना चाहता हूँ।“ साधू बोला, ”कोई बात नहीं!! मैं तुम्हे एक हीरा और एक मोती देता हूँ, उससे तुम जितने भी हीरे मोती बनाना चाहोगे बना पाओगे !” और ऐसा कहते हुए साधु ने अपना हाथ आदमी की हथेली पर रखते हुए कहा, “पुत्र, मैं तुम्हे दुनिया का सबसे अनमोल हीरा दे रहा हूँ! लोग इसे ‘समय’ कहते हैं, इसे तेजी से अपनी मुट्ठी में पकड़ लो और इसे कभी मत गंवाना, तुम इससे जितने चाहो उतने हीरे बना सकते हो!“ युवक अभी कुछ सोच ही रहा था कि साधु उसका दूसरी हथेली, पकड़ते हुए बोला, ”पुत्र, इसे पकड़ो, यह दुनिया का सबसे कीमती मोती है, लोग इसे “धैर्य” कहते हैं! जब कभी समय देने के बावजूद परिणाम ना मिलें तो इस कीमती मोती को धारण कर लेना, याद रखना जिसके पास यह मोती है, वह दुनिया में कुछ भी प्राप्त कर सकता है।“ युवक गम्भीरता से साधु की बातों पर विचार करता है और निश्चय करता है कि आज से वह कभी अपना समय बर्वाद नहीं करेगा और हमेशा धैर्य से काम लेगा। और ऐसा सोचकर वह हीरों के एक बहुत बड़े व्यापारी के यहाँ काम शुरू करता है और अपनी मेहनत और ईमानदारी के बल पर एक दिन खुद भी हीरों का बहुत बड़ा व्यापारी बनता है। मित्रो ‘समय’ और ‘धैर्य’ वह दो हीरे- मोती हैं जिनके बल पर हम बड़े से बड़ा लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं। अतः ज़रूरी है कि हम अपने कीमती समय को बर्बाद ना करें और अपनी मंज़िल तक पहुँचने के लिए धैर्य से काम लें। *******
- माँ की पीड़ा
राजीव कुमार एक ठंडी शाम थी। हवा में हल्की ठंडक थी, और आसमान में घने बादल छाए हुए थे। छत पर अकेली बैठी सुलोचना बुत बनी हुई थी, उसकी आँखें कहीं दूर टिकी थीं। बारिश कब से शुरू हो चुकी थी, पर उसे इसका कोई अहसास नहीं था। उसका बदन थर-थर काँप रहा था, मगर मानो वो खुद को महसूस ही नहीं कर रही थी। ठंडी हवाएँ उसे कंपा रही थीं, लेकिन वह अपने विचारों में गुम थी। अचानक उसे अपने नाम की पुकार सुनाई दी। "कहाँ हो सुलोचना? पूरा घर छान मारा, और तुम यहाँ छत पर भीग रही हो! जल्दी नीचे चलो, कपड़े बदलो। आज तुम्हारे लिए चाय मैं बनाऊँगा।" शिवकांत जी ने उसकी हथेली थामकर उसे धीरे से उठाया और कमरे की ओर ले गए। ऐसा लग रहा था मानो सुलोचना को अब तक किसी बात का होश ही नहीं था। शिवकांत जी ने कमरे में पहुँचकर उसे झकझोरते हुए कहा, “जल्दी से कपड़े बदल लो, सुलोचना। ठंड लग जाएगी, बीमार पड़ जाओगी। मैं तुमसे नाराज़ नहीं हूँ। जो हुआ, वो अब गुज़रा वक्त है। वो लोग अब चले गए हैं, कभी वापस नहीं आएँगे। तुम्हें तकलीफ होगी, पर मैं खुश हूँ कि अब कोई तुम्हें अपमानित नहीं करेगा। कोई हमारी इज़्ज़त पर और धब्बा नहीं लगा पाएगा।” सुलोचना ने कुछ नहीं कहा। चुपचाप अलमारी से कपड़े उठाए और बाथरूम में चली गई। नहा कर, कपड़े बदल कर, वो रसोई की ओर बढ़ी। रसोई का माहौल बिखरा हुआ था, मानो थोड़ी देर पहले हुए घटनाक्रम की गवाही दे रहा हो। वह खुद से बुदबुदाई, "काश मेरी कोई औलाद ही न होती..." पहली बार उसके मुँह से ऐसी कड़वी बात निकली थी, लेकिन उसके दिल की घुटन इससे कहीं ज्यादा थी। शिवकांत जी भी उसके पीछे रसोई में आ गए। उन्होंने चाय का पानी चढ़ा दिया और उसके साथ बिखरा सामान समेटने लगे। चाय बनाते हुए शिवकांत ने गंभीर स्वर में कहा, “सुलोचना, देख लो, कुणाल का कोई सामान तो नहीं छूट गया? जो भी उसका है, सब उसके मुँह पर फेंक कर आऊँगा। इतनी बदतमीजी! न अपने माता-पिता की इज्ज़त का ख्याल रखा, न उस प्यार का जो हमने उसे दिया। वह ससुराल के बहकावे में आकर हमें बेइज़्ज़त कर रहा है।” सुलोचना ने उदासी से सिर झुका लिया। उसने धीरे से कहा, “क्या कमी कर दी थी हमने? सब कुछ तो बाद में उसी का होने वाला था। फिर ये जिद क्यों कि अभी से घर अपने और बहू के नाम करवा लें। मैं तो ममता में अंधी हो जाती अगर बहू की बातें मेरे कानों में नहीं पड़ी होतीं। अच्छा होता अगर हम बेऔलाद ही रहते... ये दुख तो नहीं सहना पड़ता।” शिवकांत जी का कंधा पकड़ कर वह फूट-फूट कर रोने लगी। उसकी सिसकियाँ पूरे कमरे में गूँज रही थीं, और शिवकांत जी उसे सांत्वना देते हुए उसकी पीड़ा को महसूस कर रहे थे। ******
- पश्चाताप
रमाशंकर मिश्रा सुमन की शादी को अभी कुछ ही साल हुए थे। वो अपने पति राजेश और सास के साथ रहती थी। शुरू में सब कुछ ठीक था, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, सुमन के और उसकी सास के बीच छोटे-छोटे मामलों को लेकर मतभेद होने लगे। एक दिन सुमन को पता चला कि उसका सोने का हार नहीं मिल रहा है। उसने सारा घर छान मारा, हर जगह ढूंढ़ा, लेकिन हार का कहीं नामोनिशान नहीं था। सुमन को अपने मन में शक हुआ कि कहीं उसकी सास ने ही तो हार नहीं चुराया। उसे याद आया कि उसकी सास ने एक बार उसके गहनों को बड़े ध्यान से देखा था। मन ही मन सुमन को यकीन हो गया कि हार की चोरी उसकी सास ने ही की है। वह गुस्से में तमतमाती हुई अपने पति के पास गई। सुमन ने गुस्से में कहा, "राजेश, मेरा सोने का हार चोरी हो गया है। और मुझे पूरा यकीन है कि तुम्हारी माँ ने ही इसे चुराया है। वो हमेशा मेरे गहनों को बड़े ध्यान से देखती रहती हैं।" राजेश ने सुमन को शांत करने की कोशिश की और कहा, "सुमन, ये तुम क्या कह रही हो? माँ कभी ऐसा नहीं कर सकतीं। तुमने अच्छी तरह से खोजा?" लेकिन सुमन के मन में शक गहरा बैठ चुका था। उसने अपनी आवाज़ को और ऊँचा करते हुए कहा, "मैंने हर जगह देख लिया, वो हार नहीं मिल रहा। ये जरूर तुम्हारी माँ ने ही चुराया होगा। उनकी नज़र मेरे गहनों पर कब से थी।" राजेश ने एक बार फिर समझाने की कोशिश की, "सुमन, प्लीज चुप हो जाओ। माँ पर इस तरह का इल्ज़ाम लगाना ठीक नहीं है।" सुमन ने उसकी एक न सुनी और ताने मारते हुए बोली, "अगर मुझे न्याय नहीं मिला, तो मैं ये घर छोड़कर चली जाऊँगी। तुम हमेशा अपनी माँ की ही तरफदारी करते हो।" राजेश को अपनी माँ की यादें एक-एक करके याद आने लगीं। कैसे उसकी माँ ने उसे पालने-पोसने के लिए अपने हिस्से की रोटी तक छोड़ दी थी। उसकी माँ की एक-एक कुर्बानी उसे याद आ रही थी। उसने अपनी आवाज़ को संयम में रखते हुए कहा, "सुमन, अगर तुम्हें लगता है कि ये घर छोड़कर जाना ही सही है, तो तुम चली जाओ। लेकिन एक बात याद रखना, जो माँ अपने हिस्से की रोटी तक बेटे के लिए छोड़ देती थी, वो कभी चोरी नहीं कर सकती।" यह बात सुनकर सुमन को लगा कि शायद उसने ज्यादा ही कह दिया। वो कुछ क्षणों के लिए चुप हो गई, लेकिन अपने मन के संदेह को छोड़ नहीं पाई। सुमन की बातें और उसके इल्जाम सुनते हुए राजेश की माँ दरवाजे के पीछे खड़ी थी। उसने अपने बेटे की बातें सुनीं, और उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। उसे अपने बेटे पर गर्व हुआ कि उसने अपनी माँ पर भरोसा बनाए रखा, लेकिन साथ ही उसे इस बात का भी दुःख हुआ कि उसकी बहू ने उस पर ऐसे घिनौने आरोप लगाए। रात हो गई, लेकिन उस घर में सन्नाटा पसरा हुआ था। राजेश और सुमन के बीच जो अनकहा संवाद था, उसने एक अजीब सी खामोशी को जन्म दिया। अगले दिन सुबह सुमन को अचानक एक पुराने बक्से में हार मिल गया। उसे याद आया कि उसने किसी काम के चलते कुछ दिन पहले उसे वहाँ रख दिया था, लेकिन फिर भूल गई। सुमन का दिल धड़क उठा। उसे अपने किए पर गहरा पछतावा हुआ। उसने सोचा कि क्या वह इतनी छोटी बात को इतना बड़ा मुद्दा बनाकर सही कर रही थी? उसे अपनी सास पर इल्जाम लगाने की बात बार-बार कचोट रही थी। उसने सोचा, "मैंने माँ जैसी सास पर इतनी भयानक बात का इल्जाम लगा दिया।" सुमन का मन अब शर्मिंदगी से भर चुका था। उसे समझ में आ गया था कि वह अपने शक के कारण अनजाने में ही बहुत गलत कर चुकी थी। फिर वह अपनी सास के कमरे में गई। उसकी सास एक चुपचाप बैठी हुई थी। सुमन ने उनके पास जाकर धीमे स्वर में कहा, "माँजी, मुझे माफ कर दीजिए। मैंने आप पर बेबुनियादी आरोप लगाए। मैं बहुत शर्मिंदा हूँ।" उसकी सास ने उसकी ओर देखा, और बिना किसी नाराजगी के मुस्कुराते हुए उसे गले लगा लिया। वह बोलीं, "बेटी, मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है। मैं जानती हूँ कि कभी-कभी शक और गुस्सा हमसे ऐसी बातें कहलवा देते हैं, जिनका हमें बाद में पछतावा होता है।" सुमन की आँखों में आँसू आ गए। उसने सोचा कि जो इंसान उसे इतना प्यार और अपनापन दे सकता है, उस पर उसने ऐसा इल्जाम लगाया। उसे समझ में आ गया कि सच्चा अपनापन और प्यार कभी किसी को चोट पहुँचाना नहीं सिखाता। उस दिन के बाद सुमन ने न केवल अपनी सास के साथ अपना रिश्ता मजबूत किया, बल्कि खुद को भी बदलने का संकल्प लिया। उसने ठान लिया कि वह अब किसी भी रिश्ते में शक और गलतफहमी को कभी जगह नहीं देगी। ******











