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  • मेरा दुश्मन

    कृष्ण बलदेव वैद वह इस समय दूसरे कमरे में बेहोश पड़ा है। आज मैंने उसकी शराब में कोई चीज़ मिला दी थी कि ख़ाली शराब वह शरबत की तरह गट-गट पी जाता है और उस पर कोई ख़ास असर नहीं होता। आँखों में लाल ढोरे-से झूलने लगते हैं, माथे की शिकनें पसीने में भीगकर दमक उठती हैं, होंठों का ज़हर और उजागर हो जाता है, और बस—होश-ओ-हवास बदस्तूर क़ायम रहते हैं। हैरान हूँ कि यह तरकीब मुझे पहले कभी क्यों नहीं सूझी। शायद सूझी भी हो, और मैंने कुछ सोचकर इसे दबा दिया हो। मैं हमेशा कुछ-न-कुछ सोचकर कई बातों को दबा जाता हूँ। आज भी मुझे अंदेशा तो था कि वह पहले ही घूँट में ज़ायक़ा पहचान कर मेरी चोरी पकड़ लेगा। लेकिन गिलास ख़त्म होते-होते उसकी आँखें बुझने लगी थीं और मेरा हौसला बढ़ गया था। जी में आया था कि उसी क्षण उसकी गरदन मरोड़ दूँ, लेकिन फिर नतीजों की कल्पना से दिल दहलकर रह गया था। मैं समझता हूँ कि हर बुज़दिल आदमी की कल्पना बहुत तेज़ होती है, हमेशा उसे हर ख़तरे से बचा ले जाती है। फिर भी हिम्मत बाँधकर मैंने एक बार सीधे उसकी ओर देखा ज़रूर था। इतना भी क्या कम है कि साधारण हालात में मेरी निगाहें सहमी हुई-सी उसके सामने इधर-उधर फड़फड़ाती रहती हैं। साधारण हालात में मेरी स्थिति उसके सामने बहुत असाधारण रहती है। ख़ैर, अब उसकी आँखें बंद हो चुकी थीं और सर झूल रहा था। एक ओर लुढ़ककर गिर जाने से पहले उसकी बाँहें दो लदी हुई ढीली टहनियों की सुस्त-सी उठान के साथ मेरी ओर उठ आई थीं। उसे इस तरह लाचार देखकर भ्रम हुआ था कि वह दम तोड़ रहा है। लेकिन मैं जानता हूँ कि वह मूज़ी किसी भी क्षण उछलकर खड़ा हो सकता है। होश सँभालने पर वह कुछ कहेगा नहीं। उसकी ताक़त उसकी ख़ामोशी में है। बातें वह उस ज़माने में भी बहुत कम किया करता था, लेकिन अब तो जैसे बिलकुल गूँगा हो गया हो।

  • प्रायश्चित

    भगवतीचरण वर्मा अगर कबरी बिल्ली घर-भर में किसी से प्रेम करती थी तो रामू की बहू से, और अगर रामू की बहू घर-भर में किसी से घृणा करती थी तो कबरी बिल्ली से। रामू की बहू, दो महीने हुए मायके से प्रथम बार ससुराल आई थी, पति की प्यारी और सास की दुलारी, चौदह वर्ष की बालिका। भंडार-घर की चाभी उसकी करधनी में लटकने लगी, नौकरों पर उसका हुक्म चलने लगा, और रामू की बहू घर में सब कुछ; सासजी ने माला ली और पूजा-पाठ में मन लगाया। लेकिन ठहरी चौदह वर्ष की बालिका, कभी भंडार-घर खुला है तो कभी भंडार-घर में बैठे-बैठे सो गई। कबरी बिल्ली को मौक़ा मिला, घी-दूध पर अब वह जुट गई। रामू की बहू की जान आफ़त में और कबरी बिल्ली के छक्के-पंजे। रामू की बहू हाँडी में घी रखते-रखते ऊँघ गई और बचा हुआ घी कबरी के पेट में। रामू की बहू दूध ढककर मिसरानी को जिन्स देने गई और दूध नदारद। अगर बात यहीं तक रह जाती, तो भी बुरा न था, कबरी रामू की बहू से कुछ ऐसा परच गई थी कि रामू की बहू के लिए खाना-पीना दुश्वार। रामू की बहू के कमरे में रबड़ी से भरी कटोरी पहुँची और रामू जब आए तब तक कटोरी साफ़ चटी हुई। बाज़ार से बालाई आई और जब तक रामू की बहू ने पान लगाया बालाई ग़ायब। रामू की बहू ने तय कर लिया कि या तो वही घर में रहेगी या फिर कबरी बिल्ली ही। मोर्चाबंदी हो गई, और दोनों सतर्क। बिल्ली फँसाने का कठघरा आया, उसमें दूध बालाई, चूहे, और भी बिल्ली को स्वादिष्ट लगने वाले विविध प्रकार के व्यंजन रखे गए, लेकिन बिल्ली ने उधर निगाह तक न डाली। इधर कबरी ने सरगर्मी दिखलाई। अभी तक तो वह रामू की बहू से डरती थी; पर अब वह साथ लग गई, लेकिन इतने फ़ासिले पर कि रामू की बहू उस पर हाथ न लगा सके। कबरी के हौसले बढ़ जाने से रामू की बहू को घर में रहना मुश्किल हो गया। उसे मिलती थीं सास की मीठी झिड़कियाँ और पतिदेव को मिलता था रूखा-सूखा भोजन।

  • एक कर्ज़ ऐसा भी...

    ऋतिक द्विवेदी "डॉक्टर साहब, जब आप छुट्टी पर थे, तब कोई आदमी अपनी माँ को यहाँ भर्ती कराकर चला गया और आज तक वापस नहीं आया। समस्या ये है कि वह बुढ़िया भी अपने बारे में कुछ बता नहीं पा रही हैं। हमने बहुत कोशिश की, लेकिन भर्ती कराने वाले ने नाम और पता सब गलत दिया था। अब हम क्या करें? इतने दिन किसी को रख नहीं सकते और ऐसे छोड़ भी नहीं सकते,"रिसेप्शनिस्ट ने बताया, तो डॉक्टर को आश्चर्य के साथ-साथ गुस्सा भी आया। "कितने दिन से भर्ती है और बेटे ने अब तक कोई खोज खबर नहीं ली? हद है! कैसा निर्दयी बेटा है जो अपनी माँ का साथ तब छोड़ गया जब उसे सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी। वैसे उस बूढ़ी माई ने कुछ बताया?" डॉक्टर ने कोट उतारते हुए पूछा। "नहीं, डॉक्टर साहब। वो कुछ भी नहीं बोलतीं। हां, कभी-कभी किसी 'बबुआ' का नाम लेकर बुदबुदाती हैं, लेकिन हम समझ नहीं पाते।" "बबुआ...?" ये नाम सुनते ही डॉक्टर के दिल में एक झुरझुरी सी फैल गई। कहीं ये वही तो नहीं? वह लगभग दौड़ते हुए उस बुजुर्ग महिला के बेड की तरफ गया। सिकुड़ी हुई, कमजोर और बीमार हालत में लेटी बुढ़िया को देखते ही उसकी आँखें भर आईं। "हाँ, ये वही थीं। मगर बहुत बीमार और जर्जर हो चुकी थीं।" उसे अपने बचपन की याद आ गई। वह तीन-चार साल का ही था, जब अम्मा उसे अनाथालय से लाकर अपने घर में खिलाती-पिलाती थीं। वह रोज़ थोड़ी देर के लिए उसे अपने घर लातीं, मनपसंद चीज़ें बनाकर उसे खिलातीं, और कहतीं, "हमारा बबुआ बड़ा होकर डॉक्टर बनेगा, फिर जब हम बीमार पड़ेंगे तो दवाई देगा, है ना?" "हां अम्मा, डाक्कल बनूंगा, औल दवाई दूंगा," वह तुतलाते हुए कहता। उसकी दुनिया सिर्फ अम्मा पर ही सिमट गई थी। वक्त गुजरता गया। पढ़ाई में अव्वल रहने के कारण और शिक्षकों की मदद से वह मेडिकल कॉलेज में चुना गया और दूसरे शहर जाने लगा। अम्मा से बिछड़ते वक्त बहुत रोया, पर अम्मा ने समझाया, "यहां रहोगे तो डॉक्टर कैसे बनोगे? थोड़े समय की ही तो बात है, फिर हम साथ रहेंगे।" लेकिन पढ़ाई और दूरियों के कारण उसका मिलना-जुलना कम होता गया। फिर एक दिन खबर आई कि अम्मा का बेटा उन्हें लेकर गाँव चला गया। उसने अम्मा को ढूंढने की बहुत कोशिश की, पर किसी को भी उनके गाँव का पता नहीं पता था। "और आज, इतने सालों बाद, अम्मा इस हालत में यहां हैं?" वह बुढ़िया के पास जाकर धीरे से फुसफुसाया, "अम्मा, देखो, तुम्हारा बबुआ डॉक्टर बन गया है। अब तुम्हें दवाई दूंगा।" उनकी आँखों में एक हल्की चमक आई, पर तुरंत गायब हो गई। "तुम कौन हो बच्चा?" वह बमुश्किल बुदबुदाईं। डॉक्टर की आँखों से आँसू बह निकले। यही अम्मा कभी कहती थीं, "मेरी याददाश्त इतनी अच्छी है कि लाखों की भीड़ में तुझे पहचान लूंगी।" पर आज उन्हें पहचानना भी मुश्किल हो रहा था। "सर, आप रो रहे हैं? इन्हें आप जानते हैं?" रिसेप्शनिस्ट ने पूछा। "हाँ, इन्हें बहुत अच्छे से जानता हूँ। इनका मुझ पर बहुत बड़ा कर्ज़ है... ममता का कर्ज़।" संयत होते हुए डॉक्टर ने कहा, "इनके डिस्चार्ज पेपर्स तैयार करो। अब ये मेरे साथ चलेंगी, अपने बबुआ के घर।" ******

  • बलवा

    महेश कुमार केशरी रोज की तरह आज भी किशून ऑटो लेकर स्टैंड़ पर पहुँचा था। दोपहर होने को हो आई थी। लेकिन, अब तक बोहनी नहीं हुई थी।  रह-रहकर उसके दिमाग में आरती की कही बातें याद आ रही थीं। दोपहर से पहले किसी तरह आलू, प्याज, और कुछ हरी सब्जियाँ लेते आना। घर में सब्जी एक छँटाक नहीं है। गैस भी खत्म होने वाला है। एक-आध दिन चल जायेगा। उसके बाद लाना ही होगा। सोनू अब चार साल का हो गया। खाने-पीने में वैसे ही नखराहा है।  गिन-चुनकर ही चीजें खाता है। सोनू को और कुछ नहीं तो कम-से-कम पाव भर दूध तो देना ही होगा। ग्वाला, दूध के पैसे के लिये तगादा करके गया है। महीना पूरा होने वाला है।   लगता है आज भी बोहनी नहीं होगी। पिछले चार दिनों में पिछली जमा पूँजी किशून खा गया था। आखिर, इधर कुछ दिनों से शहर के हालात कुछ ठीक नहीं हैं। किसी ने पैगंबर साहब के बारे में कुछ कह दिया है। राजधानी में बलवा मचा हुआ है। कई पुलिस वाले के सिर फूट गये हैं। एहतियातन श्रीरामपुर में भी पुलिस ने तीन-चार दिनों से निषेधाज्ञा लगा दी है। चार-पाँच आदमी एक साथ एक जगह जमा नहीं हो सकते। खैर, प्रशासन ने ठीक ही तो किया है। नहीं तो कहाँ-कहाँ और किस-किस के सिर फूटेंगें कोई नहीं जानता। पुलिस वाले भी बेचारे अफसरान का हुक्म बजातें हैं।  अभी वो, अपने में खोया हुआ ये बातें सोच ही रहा था कि सामने से, जैनुल अपनी ऑटो किशुन के बगल में लाकर खड़ा करते हुए बोला-"और, किशून भैया, आज भी सवारी मिली या नहीं। कि खाली सड़क नापते ही आज का दिन भी निकलने  वाला है।" "तुमने मेरी मुँह की बात छीन ली। यही सवाल मैं तुमसे पूछने वाला था कि तुमको भी कहीं आज सवारी मिली या नहीं?" किशून ने हाथ पर सुर्ती मलते हुए जैनुल से पूछा।  " अरे, नहीं भईया जबसे राजधानी में बलबा मचा है। कोई घर से बाहर निकल कहाँ रहा है?  परसों एक ठो भाड़ा मिला था। उसके बाद से सूखा पड़ा है, भैया। लाओ थोड़ी खैनी मुझे भी दे दो। " जैनुल ऑटो साइड़ में लगाते हुए बोला। "सुना है, राजधानी में तुम्हारे ससुर मकबूल साहब पर दंगाईयों ने रोड़े बाजी की है। और तुम्हारे ससुर का सिर फूट गया है। अब कैसी हालत है उनकी? कमबख्त दँगाईयों का कुछ दीन-ईमान तो होता नहीं। दोनों तरफ ऐसे सौ-पचास फसादी लोग ऐसे भरे पड़े हैं। जो आग में घी डालने का काम करते हैं। हुँह बेड़ा गर्क हो इन फसादियों का।  "किशून ने बुरा सा मुँह बनाया और सुर्ती, जैनुल की तरफ बढ़ा दिया।  "अरे, कल की पैसेंजर ट्रेन से ससुर जी को ही तो देखने गया था। दँगाईयों ने सिर तो फोड़ा ही। किसी ने थाने में आग भी लगा दी। ससुर जी मरते-मरते बचे हैं।  यास्मीन को वहीं ससुर जी की सेवा में लगा रखा है। वो, मेरे साथ आने को तैयार नहीं हुई। आखिर, उसको किस मुँह से अपने साथ लाता। बाप बिस्तर पर पड़ा है। और, मैं उससे कैसे कहता कि मेरे साथ वापस लौट चलो? मेरी सास तो ये खबर सुनकर बेहोश हो गई थी। वो भी अस्पताल में हैं। आखिर, ससुर जी भी क्या करें? साहब का हुक्म तो बजाना ही पड़ता है। आखिर इस पापी पेट का सवाल जो है। हर आदमी दँगें में भी पेट के लिये ही बाहर निकलता है। हुक्मरान बँद ए.सी. कमरों में रिआया को आपस में कैसे लड़वाया जाये इसका रोड़-मैप बनाते हैं। और बलि का बकरा बनता है,  आम-आदमी। आखिर, क्या मिलता है? लोगों को धर्म के नाम पर लड़कर आज तक मैं ये समझ नहीं पाया। आम मेहनत कश आदमी,  हमारी तुम्हारी तरह बाल-बच्चों की जरूरतों के लिये सड़कों पर मारा-मारा फिरता है। सियासतदाँ अपनी-अपनी रोटी सेंकने में लगे रहते हैं। लोगों को आपस में भड़काते हैं। और लड़वाते है। नयी उम्र के, अनाड़ी किस्म के लोग उनके चक्कर में पड़ जाते हैं। और शहर जल उठता है। " "भैया, इसी को तो राजनीति कहते हैं।" किशून ऑटो के लुकिंग ग्लास को पोंछते हुए बोला।  तभी जैनुल ने लोगों की एक भीड़ को तलवार और बँदूकों के साथ अपनी ओर आते हुए देखा। उनके हाथों में कुछ धार्मिक झँड़े भी थें। और वो नारे लगाते हुए आ रहे थें। जैनुल ने ऑटो को जल्दी से स्टार्ट किया। और किशून की ओर चिल्लाकर बोला- "भाग भाई किशून, भाग।  दँगाई आ रहें हैं।" किशून ने भी ऑटो जैनुल की आवाज सुनकर उसी दिशा में भगा लिया। जिधर जैनुल भगा रहा था। काफी देर तक वे ऑटो को सड़क पर भगाते रहे। अब वो, दँगाईयों से दूर निकल आये थें। गली की मोड़ पर जहाँ गली खत्म होती थी। वहाँ किशून ने गाड़ी रोकी और जैनुल का शुक्रिया अदा किया- "भाई अगर तूने आज अवाज ना लगाई होती तो, आज मैं गया था काम से। " जैनुल हँसते हुए बोला-"भाई, किशून अगर इंसान-इंसान के काम नहीं आये तो फिर लोगों का इंसानियत पर से भरोसा उठ जायेगा। और देख किशून, मेरी बात ध्यान  से सुन जब तक माहौल शाँत ना हो जाये ऑटो घर से बाहर मत निकालियो। अच्छा भाई चलता हूँ। अपना ख्याल रखना। जै राम जी की।" किशून ने भी जैनुल को उसी आवाज में हिदायत दी, और जैनुल से बोला- "जैनुल भाई मामला शाँत होने तक,  तुम भी, ऑटो घर से बाहर मत निकालना। जिंदा रहे तो फिर मिंलेंगें। अच्छा भाई खुदा हाफिज।" दोनों ऑटो आगे जाकर सड़क पर कहीं  गुम हो गये। *****

  • अनजान देवता

    आशीष चौहान रमाशंकर की कार जैसे ही सोसायटी के गेट में घुसी, गार्ड ने उन्हें रोक कर कहा- “साहब, यह महिला आपके नाम और पते की चिट्ठी लेकर न जाने कब से भटक रही हैं।” रमाशंकर ने चिट्ठी लेकर देखा, नाम और पता तो उन्हीं का था, पर जब उन्होंने चिट्ठी लाने वाली की ओर देखा तो उसे पहचान नहीं पाए। चिट्ठी एक बहुत ही गरीब कमजोर महिला ले कर आई थी। उनके साथ बीमार सा एक लड़का भी था। उन्हें देख कर रमाशंकर को तरस आ गया। शायद बहुत देर से वे घर तलाश रही थी। उन्हें अपने घर लाकर कहा, “पहले तो आप बैठ जाइए।” इसके बाद नौकर को आवाज़ लगाई, “रामू इन्हें पानी ला कर दो।” पानी पी कर महिला ने थोड़ी राहत महसूस की तो रमाशंकर ने पूछा, “अब बताइए किससे मिलना है?”

  • धर्म और प्रेम

    निधि सिंह नीतू अपनी डेस्क पर काम में व्यस्त थी, तभी एक प्यून ने आकर कहा, "नीतू जी, मालिक आपको अपने केबिन में बुला रहे हैं।" नीतू ने हल्का-सा मुस्कराते हुए उत्तर दिया, "ठीक है, जाती हूं," लेकिन मन में यह सोचने लगी कि विक्रम ने मुझे क्यों बुलाया है। "खैर, बुलाया है तो जाना पड़ेगा," उसने अपने आपको समझाया। वह विक्रम के ऑफिस में गई और बोली, "सर, आपने मुझे बुलाया?" "जी हां, बैठिए," विक्रम ने सामने की कुर्सी की ओर इशारा किया। वह बड़े ध्यान से नीतू के चेहरे को देख रहे थे, जहाँ संतोष और आत्मविश्वास की झलक थी। अचानक उन्होंने एक पेपर उसके सामने रखते हुए कहा, "नीतू, आपने दूसरी बार प्रमोशन से इनकार कर दिया। यह मेरे लिए हैरानी की बात है। आज जहाँ ऑफिस में हर कोई पदोन्नति के लिए होड़ लगा रहा है, आप हैं कि फिर से इनकार कर रही हैं। आखिर कारण क्या है?" नीतू ने सहजता से मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, "सर, जीवन में इच्छाएँ अनंत होती हैं। हम सभी इच्छाओं के झूले में झूलते रहते हैं और बड़ी-बड़ी पेंगें लगाते हैं। लेकिन मैं इस पर विश्वास नहीं करती। मैं उतनी ही पेंग लगाती हूँ जितनी कि मुझे आवश्यकता है। मैं जिस पद पर हूँ, उससे खुश हूँ।" विक्रम ने कहा, "नीतू, मैं आपको लगभग तीन वर्षों से देख रहा हूँ। मैनेजर और अन्य सभी कर्मचारी आपके काम की तारीफ करते हैं। मगर, तरक्की किसे नहीं पसंद? आखिर कोई तो कारण होगा जो आप मुझसे छिपा रही हैं। एक गौरवमयी पद, गाड़ी, बंगले की सहूलियत, बड़ा शहर भला किसको आकर्षित नहीं करता? जिंदगी एक सुनहरे मोड़ पर आपका इंतज़ार कर रही है और आप मोड़ की ओर जाना ही नहीं चाहतीं। अच्छा, एक मालिक और कर्मचारी के नाते नहीं, एक दोस्त के नाते ही सही, कुछ तो बताइए।" नीतू ने गंभीरता से विक्रम की ओर देखा और फिर बोली, "सर, मुझे अपने माता-पिता के प्रति अपना धर्म आकर्षित करता है। मेरे माता-पिता के विवाह के कई साल बाद मेरा जन्म हुआ और मैं इकलौती संतान हूँ। मम्मी-पापा काफी उम्र के हो चले हैं। आप तो जानते ही हैं, एक पौधा कहीं भी मिट्टी में पनप जाता है, लेकिन वृक्ष नहीं। उन्हें यहाँ रहना पसंद है। यहाँ वे खुशी-खुशी जिंदगी जी रहे हैं। अगर मैं उन्हें नए शहर में ले जाऊं और उनका नया जलवायु अनुकूल नहीं हुआ तो..." विक्रम ने उनकी बातों को ध्यान से सुना और कहा, "आपकी चिंता समझ में आती है। लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि यह अवसर आपके जीवन में एक नया अध्याय खोल सकता है?" नीतू ने आगे कहा, "माना बड़ा बंगला, गाड़ी, ओहदा होगा। लेकिन जिनके लिए मेरा जीवन है, यदि वे वहाँ खुश नहीं रह पाएंगे, तो ऐसे ओहदे, बंगले, गाड़ी मेरे लिए बेमानी हैं। इसलिए मैं यह जगह छोड़कर नहीं जा सकती।" विक्रम ने चुप रहकर कहा, "लेकिन आपने अब तक शादी नहीं की। मैं मीन..." नीतू ने फिर से अपनी बात रखी, "सर, मैंने कहा ना, मेरे माता-पिता पहले मेरी जिम्मेदारी हैं। आजकल ऐसे लड़के नहीं मिलते जो लड़की के माता-पिता की भी सेवा करने की अनुमति दें। मतलब, लड़केवाले अपने परिवार के आगे भूल जाते हैं कि एक लड़की के भी माता-पिता होते हैं। बस इसलिए।" "इसलिए आपने अब तक शादी नहीं की?" विक्रम ने मुस्कुराते हुए कहा। "जी, इसलिए मुझे कोई प्रमोशन नहीं चाहिए, सर," नीतू ने अपने अंतिम निर्णय को स्पष्ट किया। विक्रम ने नीतू की धर्मनिष्ठा पर मुग्ध होकर कहा, "क्या मुझसे शादी करोगी? मेरा इस दुनिया में कोई नहीं है। एक अच्छे जीवनसाथी की तलाश में हूँ, जो मुझे अब तक नहीं मिली थी। आपको देखकर लगता है मेरी तलाश पूरी हो गई है। मुझे एक अच्छे जीवनसाथी के साथ-साथ माता-पिता का प्यार भी मिल जाएगा। तो कहिए, मुझे अपना जीवनसाथी बनाओगी?" यह अप्रत्याशित निवेदन सुनकर नीतू कुछ पल के लिए निःशब्द रह गई। उसने धीरे से हाथ आगे बढ़ाया और विक्रम के हाथ को थाम लिया। अब एकसाथ दो ज़िंदगियाँ एक सुनहरे मोड़ की ओर अग्रसर थीं। इस नए अध्याय में धर्म और प्रेम का संगम हुआ, जहाँ नीतू ने न केवल अपने माता-पिता की सेवा का संकल्प लिया, बल्कि विक्रम के साथ एक नई यात्रा की शुरुआत भी की। दोनों ने एक-दूसरे को समझा और समर्थन दिया, जिससे उनके रिश्ते में विश्वास और प्रेम की नींव रखी गई। ******

  • स्वार्थी लोग

    महेश कुमार केशरी सिस्टर मरियम बच्चों को पढ़ा रही थीं -"बच्चों हमारे अलग-अलग धर्मों में जितने भी लार्ड हुए हैं। उन सबमें एक समानता रही है। कि उन्होंने हमेशा त्याग की भावना को अपनाया। दूसरों के लिये अपना जीवन तक दाँव पर लगा दिया। जैसे हमारे लार्ड शिवा हैं। आपने पढ़ा भी होगा। शिव जी ने खुद विष का पान किया। ताकि हमारी धरती बची रहे। राम जी ने भाई के लिये चौदह साल का वनवास कबूल लिया। प्रभु यीशू दूसरों की भलाई के लिये सलीब पर टँगे। पैगंबर साहब ने अपने सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी दी। आप लोग जानते हैं। भगवान ऐसा क्यों करते हैं। ताकि, दुनिया में शाँति कायम रहे। लोग धरती पर आपसी भाईचारे और मेल मुहब्बत से रहें। शिव जी का हलाहल पी जाना। राम जी का बनवास चले जाना। जीसस का सलीब पर टँग जाना। पैगंबर साहब का अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी देना। हमें सिखाता है कि हम भी त्याग करें। दूसरे को अगर हमारे होने से तकलीफ हो तो हम  भी वनवास चले जायें। ताकि अशाँति ना फैले। दूसरों का यदि भला हो तो हम सलीब पर भी टँग जायें। इसलिये हम इन्हें अपना आदर्श मानते हैं। इनके व्यक्तित्व के गुणों को हम अपने जीवन में उतारे। तभी हमारा उद्धार होगा। समाज का कल्याण होगा। विश्व का कल्याण होगा। " जोसेफ अपने क्लास का सबसे होनहार बच्चा था। उसने सिस्टर मरियम से एक सवाल पूछा - "सिस्टर मरियम आप एक बात बतायें। जब इनका जीवन चरित्र इतना उत्कृष्ट है। तो फिर, देश में दँगें क्यों होते हैं? देश भर में जो आज हालात हैं। हमारा आधा देश आज जल रहा है। ये किसके कारण हो रहा है। क्या हमारे राजनेताओं ने लार्ड शिवा, लार्ड राम, या जीसस या पैगंबर साहब से कुछ नहीं सिखा। जो आज देश में इतनी अशाँति फैली हई है। क्या उन्होंने इनको नहीं पढ़ा? क्या उनके अंदर त्याग की भावना नहीं है? ये क्यों नहीं सीखते हमारे लार्ड से।" सिस्टर मरियम ने जोसेफ के सिर पर प्यार से हाथ फिराते हुए कहा - "बेटा हर कोई लार्ड शिवा, राम या जीसस, या पैगंबर नहीं हो सकता। इसके लिये त्याग की भावना आदमी के अंदर होनी चाहिये। राजनेताओं के अंदर अपना स्वार्थ है। लिप्सा है। भोग की वृति है। त्याग नहीं है। लालसा है। इनसे अच्छा जीवन तो मजदूरों का है। किसानों का है। जो दो रोटी अपनी मेहनत से कमाकर खाते हैं। अपना परिवार ही नहीं अपने देश के निर्माण में भी योगदान करते हैं। लार्ड शिवा, लार्ड राम या जीसस और पैगंबर के ये बहुत ही करीब के लोग हैं। इसका कारण ये है कि इनमें भी त्याग की  बहुत बड़ी इच्छा शक्ति होती है। ये परिवार से पहले देश के बारे में सोचते हैं। देश और समाज निर्माण में इनका योगदान बहुत बड़ा होता है। लेकिन हम इन्हें कभी सम्मानित नहीं करतें हैं। अपने समाज के किसी बड़े राजनेता को किसी आकेजन पर हम बुलाते हैं। और इसमें अपनी बड़ी शान समझते हैं।  दरअसल असली सम्मान इन मजदूरों और किसानों को मिलना चाहिये। जो कि हमारे युग निर्माता हैं। स्वार्थियों को हमें कभी सम्मानित नहीं करना चाहिये। जो हमें जात-पात, धर्म और मजहब में बाँटकर,  हममें फूट डालकर अपनी राजनीतिक महत्वकाँक्षाओं की पूर्ति में लगे रहते हैं। " *****

  • सम्यक दृष्टि

    शैलेन्द्र सिंह एक राजा था, बहुत प्रभावशाली, बुद्धि और वैभव से संपन्न। आस-पास के राजा भी समय-समय पर उससे परामर्श लिया करते थे। एक दिन राजा अपनी शैया पर लेटे-लेटे सोचने लगा, मैं कितना भाग्यशाली हूं। कितना विशाल है मेरा परिवार, कितना समृद्ध है मेरा अंत:पुर, कितनी मजबूत है मेरी सेना, कितना बड़ा है मेरा राजकोष। ओह! मेरे खजाने के सामने कुबेर के खजाने की क्या बिसात? मेरे राजनिवास की शोभा को देखकर अप्सराएं भी ईर्ष्या करती होंगी। मेरा हर वचन आदेश होता है। राजा कवि हृदय था और संस्कृत का विद्वान था। अपने भावों को उसने शब्दों में पिरोना शुरू किया। तीन चरण बन गए, चौथी लाइन पूरी नहीं हो रही थी। जब तक पूरा श्लोक नहीं बन जाता, तब तक कोई भी रचनाकार उसे बार-बार दोहराता है। राजा भी अपनी वे तीन लाइनें बार-बार गुनगुना रहा था - चेतोहरा: युवतय: स्वजनाऽनुकूला: सद्बान्धवा: प्रणयगर्भगिरश्च भृत्या: गर्जन्ति दन्तिनिवहास्विरलास्तुरंगा: मेरी चित्ताकर्षक रानियां हैं, अनुकूल स्वजन वर्ग है, श्रेष्ठ कुटुंबी जन हैं। कर्मकार विनम्र और आज्ञापालक हैं, हाथी, घोड़ों के रूप में विशाल सेना है। लेकिन बार-बार गुनगुनाने पर भी चौथा-चरण बन नहीं रहा था। संयोग की बात है कि उसी रात एक चोर राजमहल में चोरी करने के लिए आया था। मौका पाकर वह राजा के शयनकक्ष में घुस गया और पलंग के नीचे दुबक कर कर बैठ गया। चोर भी संस्कृत भाषा का विज्ञ और आशु कवि था। समस्यापूर्ति का उसे अभ्यास था। राजा द्वारा गुनगुनाए जाते श्लोक के तीन चरण चोर ने सुन लिए। राजा के दिमाग में चौथी लाइन नहीं बन रही है, यह भी वह जान गया लेकिन तीन लाइनें सुन कर उस चोर का कवि मन भी उसे पूरा करने के लिए मचलने लगा। वह भूल गया कि वह चोर है और राजा के कक्ष में चोरी करने घुसा है। अगली बार राजा ने जैसे ही वे तीन लाइनें पूरी कीं, चोर के मुंह से चौथी लाइन निकल पड़ी, सम्मीलने नयनयोर्नहि किंचिदस्ति॥ राज्य, वैभव आदि सब तभी तक है, जब तक आंख खुली है। आंख बंद होने के बाद कुछ नहीं है। अत: किस पर गर्व कर रहे हो? चोर की इस एक पंक्ति ने राजा की आंखें खोल दीं। उसे सम्यक् दृष्टि मिल गई। वह चारों ओर विस्फारित नेत्रों से देखने लगा-ऐसी ज्ञान की बात किसने कही? कैसे कही? उसने आवाज दी, पलंग के नीचे जो भी है, वह मेरे सामने उपस्थित हो। चोर सामने आ कर खड़ा हुआ। फिर हाथ जोड़ कर राजा से बोला, हे राजन! मैं आया तो चोरी करने था, पर आप के द्वारा पढ़ा जा रहा श्लोक सुनकर यह भूल गया कि मैं चोर हूं। मेरा काव्य प्रेम उमड़ पड़ा और मैं चौथे चरण की पूर्ति करने का दुस्साहस कर बैठा। हे राजन! मैं अपराधी हूं। मुझे क्षमा कर दें। राजा ने कहा, तुम अपने जीवन में चाहे जो कुछ भी करते हो, इस क्षण तो तुम मेरे गुरु हो। तुमने मुझे जीवन के यथार्थ का परिचय कराया है। आंख बंद होने के बाद कुछ भी नहीं रहता-यह कह कर तुमने मेरा सत्य से साक्षात्कार करवा दिया। गुरु होने के कारण तुम मुझसे जो चाहो मांग सकते हो। चोर की समझ में कुछ नहीं आया लेकिन राजा ने आगे कहा- आज मेरे ज्ञान की आंखें खुल गईं। इसलिए शुभस्य शीघ्रम् - इस सूक्त को आत्मसात करते हुए मैं शीघ्र ही संन्यास लेना चाहता हूं। राज्य अब तृण के समान प्रतीत हो रहा है। तुम यदि मेरा राज्य चाहो तो मैं उसे सहर्ष देने के लिए तैयार हूं। चोर बोला, राजन! आपको जैसे इस वाक्य से बोध पाठ मिला है, वैसे ही मेरा मन भी बदल गया है। मैं भी संन्यास स्वीकार करना चाहता हूं। राजा और चोर दोनों संन्यासी बन गए। एक ही पंक्ति ने दोनों को स्पंदित कर दिया। यह है सम्यक द्रष्टि का परिणाम। जब तक राजा की दृष्टि सम्यक् नहीं थी, वह धन-वैभव, भोग-विलास को ही सब कुछ समझ रहा था। ज्यों ही आंखों से रंगीन चश्मा उतरा, दृष्टि सम्यक् बनी कि पदार्थ पदार्थ हो गया और आत्मा-आत्मा..!! ******

  • गाढ़ा सिंदूर

    आरती तिवारी मेरी शादी मेरी मर्जी के खिलाफ एक साधारण से लड़के के साथ कर दी गई थी। उसके घर में बस उसकी माँ थी, और कोई नहीं। शादी में उसे बहुत सारे उपहार और पैसे मिले थे, पर मेरा दिल कहीं और था। मैं किसी और से प्यार करती थी, और वो भी मुझसे। लेकिन किस्मत ने मुझे यहाँ ला दिया, अपने ससुराल। शादी की पहली रात जब वो दूध लेकर आया, मैंने उससे पूछा, "एक पत्नी की मर्जी के बिना पति उसे छूए तो उसे बलात्कार कहते हैं या हक?" उसने बस इतना कहा, "आपको इतनी गहराई में जाने की जरूरत नहीं है। मैं सिर्फ शुभ रात्रि कहने आया हूँ," और कमरे से बाहर चला गया। मैं सोच रही थी कि झगड़ा हो जाए ताकि मैं इस अनचाहे रिश्ते से छुटकारा पा सकूं, मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। मैं उस घर में रहकर भी घर का कोई काम नहीं करती थी। दिनभर ऑनलाइन रहती और न जाने किस-किस से बातें करती। उसकी माँ, बिना किसी शिकायत के, घर का सारा काम करती रहती, और उसके चेहरे पर हमेशा एक मुस्कान होती। मेरे पति एक साधारण कंपनी में काम करते थे—बेहद मेहनती और ईमानदार। हमारी शादी को एक महीना हो चुका था, लेकिन हम पति-पत्नी की तरह कभी साथ नहीं सोए थे। उस दिन, जब मैंने उसकी माँ के बनाए खाने को बुरा-भला कहकर फेंक दिया, तो उसने पहली बार मुझ पर हाथ उठाया। बस, मुझे वही चाहिए था—एक बहाना झगड़े का। मैं पैर पटकते हुए घर से निकल गई, अपने पुराने प्यार से मिलने। वो मुझसे कहता, "कब तक यहाँ रहोगी? चलो, भाग चलते हैं कहीं दूर।" पर सच तो यह था कि मेरे पास कुछ भी नहीं था, और वो खाली हाथ भागने को तैयार नहीं था। फिर एक दिन, मेरे ससुराल में एक घटना घटी। मैंने पहली बार अपने पति की अलमारी खोली। उसमें मेरा बैंक पासबुक, एटीएम कार्ड, और वो सारे गहने थे, जो मेरे घरवालों ने मुझसे छीन लिए थे। मुझे ये सब देखकर झटका लगा। साथ ही, उसकी डायरी में मेरे लिए एक खत रखा था। उसमें लिखा था कि उसने मेरी हर चीज को संजोकर रखा था, और दहेज में मिले सारे पैसे मेरे अकाउंट में ट्रांसफर कर दिए थे। उसने लिखा कि वो मुझे प्यार से इस रिश्ते में बाँधना चाहता है, न कि जबरदस्ती। उसकी इन बातों ने मेरे दिल को छू लिया। मैंने सोचा भी नहीं था कि ये "गंवार" मुझे इस तरह से समझ सकता है, बिना कुछ कहे। धीरे-धीरे, मुझे एहसास हुआ कि वो मुझे उसी सादगी से प्यार करता है, जिस सादगी से उसने मुझे अपनी जिंदगी में जगह दी थी। अगली सुबह, मैंने सिंदूर गाढ़ा करके अपनी माँग में भरा और अपने पति के ऑफिस चली गई। वहाँ पहुँचकर मैंने सबके सामने कहा, "अब सब ठीक है। हम साथ-साथ एक लंबी छुट्टी पर जा रहे हैं।" उस दिन, मुझे समझ आया कि जिन फैसलों को मैं गलत मानती थी, वही मेरे लिए सबसे सही थे। मेरे माँ-बाप ने मेरे लिए जो भी किया, वो सिर्फ मेरे भले के लिए था। ******

  • घुलते हुए दो जिस्म

    सन्दीप तोमर   सीने पर जो चाँद तुम टांक गई थी, वो रफ्ता-रफ्ता बढ़ता जाता है, जैसे मेंरे तुम्हारे बीच पनप रहा एहसास हो, जो बदल जाता है पूनम की रात के बड़े आकार में, तब हम दोनों की अठखेलियाँ कभी छोटे कैनवास पर तो कभी दिखाई देती हैं क्षितिज के पार जाते हुए, ये चाँद कैसे बदलता है अपना रंग कभी जामुनी, कभी सन्तरी तो कभी धवल, कभी लिपटाए हुए कुछ कालिमा, ये चाँद बना रहता है गवाह हमारे बीच के खुमार और ढलती शाम का, आहिस्ता-आहिस्ता घुलता है यह चाँद बर्फ के ग्लोब सा, और... घुलते हुए दो जिस्म हो जाते हैं विलीन एक दूजे में। *****

  • कहानी कैसे लिखूँ?

    आदित्य नारायण शुक्ला   ओस से लिखूँ या अश्कों से लिखूँ मैं दिल की कहानी कैसे लिखूँ...?? फूलों पे लिखूँ या हाथों पे लिखूँ होंठों की ज़बानी कैसे लिखूँ...??? है दिल की बातें बहुत सारी यूँ तो बहुत कुछ कहना है कुछ सुनना है...!!! इस कागज़ के एक टुकड़े पर मैं अपनी कहानी कैसे लिखूँ...??? *****

  • निःस्वार्थ बलिदान

    डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव एक छोटे से कस्बे में राघव नाम का एक व्यक्ति रहता था। वह एक साधारण मजदूर था, जिसने अपनी पूरी ज़िंदगी मेहनत करके अपने परिवार का पेट पाला था। उसकी पत्नी का निधन बहुत पहले हो गया था, वह अपने दो बच्चों-एक बेटा, आर्यन, और एक बेटी, मीरा को अकेले ही पाल रहा था। राघव हमेशा मानता था कि बेटा ही बुढ़ापे का सहारा होता है, इसलिए उसने आर्यन की पढ़ाई के लिए कई बलिदान दिए। उसने पैसे उधार लिए, अतिरिक्त मेहनत की, और कई बार भूखा तक रहा ताकि आर्यन की कॉलेज की फीस भर सके। दूसरी ओर, मीरा की पढ़ाई को कभी प्राथमिकता नहीं दी गई। वह समझदार और मेहनती थी, लेकिन घर में उसकी शिक्षा को ज़रूरी नहीं माना गया। फिर भी, उसने कभी शिकायत नहीं की और चुपचाप अपने पिता का साथ देती रही। समय बीतता गया। आर्यन ने अपनी पढ़ाई पूरी की और एक बड़े शहर में नौकरी करने चला गया। उसने शादी कर ली और घर आना लगभग बंद कर दिया। जब भी राघव उसे फोन करता, आर्यन हमेशा व्यस्त होने का बहाना बनाता। धीरे-धीरे उसने फोन उठाना भी बंद कर दिया। दूसरी ओर मीरा हमेशा अपने पिता के साथ रही। उसे कभी भी वैसे अवसर नहीं मिले जैसे आर्यन को मिले थे, लेकिन उसने एक स्कूल में शिक्षिका की नौकरी कर ली और घर की पूरी ज़िम्मेदारी संभाल ली। वह अपने पिता के लिए खाना बनाती, घर का सारा काम करती, और यह सुनिश्चित करती कि वे कभी अकेला महसूस न करें। एक सर्दी में, राघव गंभीर रूप से बीमार पड़ गया। उसके इलाज के लिए पैसों की सख्त ज़रूरत थी। बहुत हिम्मत जुटाकर उसने आर्यन को फोन किया, यह उम्मीद करते हुए कि उसका बेटा उसकी मदद करेगा। कई बार कोशिश करने के बाद आर्यन ने फोन उठाया और ठंडे स्वर में कहा, "बाबा, मेरे पास अपना परिवार है, मुझे उनके लिए भी सोचना पड़ता है। अभी मैं इतना खर्च नहीं कर सकता। आप किसी और से मदद मांग लीजिए।" यह सुनकर राघव का दिल टूट गया। जिस बेटे के लिए उसने अपनी पूरी ज़िंदगी लगा दी, वही अब उसे छोड़कर चला गया था। उस रात, जब राघव चुपचाप बैठा था, मीरा उसके पास आई। उसने पिता का कांपता हाथ अपने हाथों में लिया और कहा, "बाबा, चिंता मत करो। मैं हूं न, मैं आपका ख्याल रखूंगी।" अगले दिन, मीरा ने अपने सोने के कंगन बेच दिए जो उसकी इकलौती कीमती चीज़ थी ताकि अपने पिता के इलाज का खर्च उठा सके। उसने उनकी देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक शाम, जब राघव ने मीरा को खाना बनाते देखा, तो उसकी आँखों में आँसू आ गए। काँपती आवाज़ में उसने कहा, "मीरा, मैं अंधा था। मैं उस बेटे के पीछे भागता रहा जिसने मुझे छोड़ दिया, और उस बेटी की कदर नहीं की जो मेरे लिए सबसे बड़ा वरदान बनी। मुझे माफ कर दो, मेरी बच्ची।" मीरा हल्के से मुस्कुराई और अपने पिता के आँसू पोंछते हुए बोली, "बाबा, बेटी प्यार में न किसी इनाम की उम्मीद रखती है, न किसी पहचान की। वह बस प्यार करती है, क्योंकि यही उसका स्वभाव होता है।" उस रात, राघव ने सालों बाद चैन की नींद सोई, यह जानते हुए कि उसके पास दुनिया का सबसे अनमोल खजाना है-एक बेटी का निःस्वार्थ प्यार। बेटियां सच में अनमोल होती हैं। दुनिया बेटों को ज़्यादा महत्व देती है, लेकिन मुश्किल समय में अक्सर बेटियां ही अपने माता-पिता का सबसे बड़ा सहारा बनती हैं। अगर आपके पास एक बेटी है, तो उसे प्यार करें, उसकी कद्र करें, और कभी उसे कम न आंकें। *****

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