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निःस्वार्थ बलिदान

डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव

एक छोटे से कस्बे में राघव नाम का एक व्यक्ति रहता था। वह एक साधारण मजदूर था, जिसने अपनी पूरी ज़िंदगी मेहनत करके अपने परिवार का पेट पाला था। उसकी पत्नी का निधन बहुत पहले हो गया था, वह अपने दो बच्चों-एक बेटा, आर्यन, और एक बेटी, मीरा को अकेले ही पाल रहा था।
राघव हमेशा मानता था कि बेटा ही बुढ़ापे का सहारा होता है, इसलिए उसने आर्यन की पढ़ाई के लिए कई बलिदान दिए। उसने पैसे उधार लिए, अतिरिक्त मेहनत की, और कई बार भूखा तक रहा ताकि आर्यन की कॉलेज की फीस भर सके। दूसरी ओर, मीरा की पढ़ाई को कभी प्राथमिकता नहीं दी गई। वह समझदार और मेहनती थी, लेकिन घर में उसकी शिक्षा को ज़रूरी नहीं माना गया। फिर भी, उसने कभी शिकायत नहीं की और चुपचाप अपने पिता का साथ देती रही।
समय बीतता गया। आर्यन ने अपनी पढ़ाई पूरी की और एक बड़े शहर में नौकरी करने चला गया। उसने शादी कर ली और घर आना लगभग बंद कर दिया। जब भी राघव उसे फोन करता, आर्यन हमेशा व्यस्त होने का बहाना बनाता। धीरे-धीरे उसने फोन उठाना भी बंद कर दिया।
दूसरी ओर मीरा हमेशा अपने पिता के साथ रही। उसे कभी भी वैसे अवसर नहीं मिले जैसे आर्यन को मिले थे, लेकिन उसने एक स्कूल में शिक्षिका की नौकरी कर ली और घर की पूरी ज़िम्मेदारी संभाल ली। वह अपने पिता के लिए खाना बनाती, घर का सारा काम करती, और यह सुनिश्चित करती कि वे कभी अकेला महसूस न करें।
एक सर्दी में, राघव गंभीर रूप से बीमार पड़ गया। उसके इलाज के लिए पैसों की सख्त ज़रूरत थी। बहुत हिम्मत जुटाकर उसने आर्यन को फोन किया, यह उम्मीद करते हुए कि उसका बेटा उसकी मदद करेगा। कई बार कोशिश करने के बाद आर्यन ने फोन उठाया और ठंडे स्वर में कहा, "बाबा, मेरे पास अपना परिवार है, मुझे उनके लिए भी सोचना पड़ता है। अभी मैं इतना खर्च नहीं कर सकता। आप किसी और से मदद मांग लीजिए।"
यह सुनकर राघव का दिल टूट गया। जिस बेटे के लिए उसने अपनी पूरी ज़िंदगी लगा दी, वही अब उसे छोड़कर चला गया था।
उस रात, जब राघव चुपचाप बैठा था, मीरा उसके पास आई। उसने पिता का कांपता हाथ अपने हाथों में लिया और कहा, "बाबा, चिंता मत करो। मैं हूं न, मैं आपका ख्याल रखूंगी।"
अगले दिन, मीरा ने अपने सोने के कंगन बेच दिए जो उसकी इकलौती कीमती चीज़ थी ताकि अपने पिता के इलाज का खर्च उठा सके। उसने उनकी देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी।
एक शाम, जब राघव ने मीरा को खाना बनाते देखा, तो उसकी आँखों में आँसू आ गए। काँपती आवाज़ में उसने कहा, "मीरा, मैं अंधा था। मैं उस बेटे के पीछे भागता रहा जिसने मुझे छोड़ दिया, और उस बेटी की कदर नहीं की जो मेरे लिए सबसे बड़ा वरदान बनी। मुझे माफ कर दो, मेरी बच्ची।"
मीरा हल्के से मुस्कुराई और अपने पिता के आँसू पोंछते हुए बोली, "बाबा, बेटी प्यार में न किसी इनाम की उम्मीद रखती है, न किसी पहचान की। वह बस प्यार करती है, क्योंकि यही उसका स्वभाव होता है।"
उस रात, राघव ने सालों बाद चैन की नींद सोई, यह जानते हुए कि उसके पास दुनिया का सबसे अनमोल खजाना है-एक बेटी का निःस्वार्थ प्यार।
बेटियां सच में अनमोल होती हैं। दुनिया बेटों को ज़्यादा महत्व देती है, लेकिन मुश्किल समय में अक्सर बेटियां ही अपने माता-पिता का सबसे बड़ा सहारा बनती हैं। अगर आपके पास एक बेटी है, तो उसे प्यार करें, उसकी कद्र करें, और कभी उसे कम न आंकें।

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