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  • सम्यक दृष्टि

    शैलेन्द्र सिंह एक राजा था, बहुत प्रभावशाली, बुद्धि और वैभव से संपन्न। आस-पास के राजा भी समय-समय पर उससे परामर्श लिया करते थे। एक दिन राजा अपनी शैया पर लेटे-लेटे सोचने लगा, मैं कितना भाग्यशाली हूं। कितना विशाल है मेरा परिवार, कितना समृद्ध है मेरा अंत:पुर, कितनी मजबूत है मेरी सेना, कितना बड़ा है मेरा राजकोष। ओह! मेरे खजाने के सामने कुबेर के खजाने की क्या बिसात? मेरे राजनिवास की शोभा को देखकर अप्सराएं भी ईर्ष्या करती होंगी। मेरा हर वचन आदेश होता है। राजा कवि हृदय था और संस्कृत का विद्वान था। अपने भावों को उसने शब्दों में पिरोना शुरू किया। तीन चरण बन गए, चौथी लाइन पूरी नहीं हो रही थी। जब तक पूरा श्लोक नहीं बन जाता, तब तक कोई भी रचनाकार उसे बार-बार दोहराता है। राजा भी अपनी वे तीन लाइनें बार-बार गुनगुना रहा था - चेतोहरा: युवतय: स्वजनाऽनुकूला: सद्बान्धवा: प्रणयगर्भगिरश्च भृत्या: गर्जन्ति दन्तिनिवहास्विरलास्तुरंगा: मेरी चित्ताकर्षक रानियां हैं, अनुकूल स्वजन वर्ग है, श्रेष्ठ कुटुंबी जन हैं। कर्मकार विनम्र और आज्ञापालक हैं, हाथी, घोड़ों के रूप में विशाल सेना है। लेकिन बार-बार गुनगुनाने पर भी चौथा-चरण बन नहीं रहा था। संयोग की बात है कि उसी रात एक चोर राजमहल में चोरी करने के लिए आया था। मौका पाकर वह राजा के शयनकक्ष में घुस गया और पलंग के नीचे दुबक कर कर बैठ गया। चोर भी संस्कृत भाषा का विज्ञ और आशु कवि था। समस्यापूर्ति का उसे अभ्यास था। राजा द्वारा गुनगुनाए जाते श्लोक के तीन चरण चोर ने सुन लिए। राजा के दिमाग में चौथी लाइन नहीं बन रही है, यह भी वह जान गया लेकिन तीन लाइनें सुन कर उस चोर का कवि मन भी उसे पूरा करने के लिए मचलने लगा। वह भूल गया कि वह चोर है और राजा के कक्ष में चोरी करने घुसा है। अगली बार राजा ने जैसे ही वे तीन लाइनें पूरी कीं, चोर के मुंह से चौथी लाइन निकल पड़ी, सम्मीलने नयनयोर्नहि किंचिदस्ति॥ राज्य, वैभव आदि सब तभी तक है, जब तक आंख खुली है। आंख बंद होने के बाद कुछ नहीं है। अत: किस पर गर्व कर रहे हो? चोर की इस एक पंक्ति ने राजा की आंखें खोल दीं। उसे सम्यक् दृष्टि मिल गई। वह चारों ओर विस्फारित नेत्रों से देखने लगा-ऐसी ज्ञान की बात किसने कही? कैसे कही? उसने आवाज दी, पलंग के नीचे जो भी है, वह मेरे सामने उपस्थित हो। चोर सामने आ कर खड़ा हुआ। फिर हाथ जोड़ कर राजा से बोला, हे राजन! मैं आया तो चोरी करने था, पर आप के द्वारा पढ़ा जा रहा श्लोक सुनकर यह भूल गया कि मैं चोर हूं। मेरा काव्य प्रेम उमड़ पड़ा और मैं चौथे चरण की पूर्ति करने का दुस्साहस कर बैठा। हे राजन! मैं अपराधी हूं। मुझे क्षमा कर दें। राजा ने कहा, तुम अपने जीवन में चाहे जो कुछ भी करते हो, इस क्षण तो तुम मेरे गुरु हो। तुमने मुझे जीवन के यथार्थ का परिचय कराया है। आंख बंद होने के बाद कुछ भी नहीं रहता-यह कह कर तुमने मेरा सत्य से साक्षात्कार करवा दिया। गुरु होने के कारण तुम मुझसे जो चाहो मांग सकते हो। चोर की समझ में कुछ नहीं आया लेकिन राजा ने आगे कहा- आज मेरे ज्ञान की आंखें खुल गईं। इसलिए शुभस्य शीघ्रम् - इस सूक्त को आत्मसात करते हुए मैं शीघ्र ही संन्यास लेना चाहता हूं। राज्य अब तृण के समान प्रतीत हो रहा है। तुम यदि मेरा राज्य चाहो तो मैं उसे सहर्ष देने के लिए तैयार हूं। चोर बोला, राजन! आपको जैसे इस वाक्य से बोध पाठ मिला है, वैसे ही मेरा मन भी बदल गया है। मैं भी संन्यास स्वीकार करना चाहता हूं। राजा और चोर दोनों संन्यासी बन गए। एक ही पंक्ति ने दोनों को स्पंदित कर दिया। यह है सम्यक द्रष्टि का परिणाम। जब तक राजा की दृष्टि सम्यक् नहीं थी, वह धन-वैभव, भोग-विलास को ही सब कुछ समझ रहा था। ज्यों ही आंखों से रंगीन चश्मा उतरा, दृष्टि सम्यक् बनी कि पदार्थ पदार्थ हो गया और आत्मा-आत्मा..!! ******

  • गाढ़ा सिंदूर

    आरती तिवारी मेरी शादी मेरी मर्जी के खिलाफ एक साधारण से लड़के के साथ कर दी गई थी। उसके घर में बस उसकी माँ थी, और कोई नहीं। शादी में उसे बहुत सारे उपहार और पैसे मिले थे, पर मेरा दिल कहीं और था। मैं किसी और से प्यार करती थी, और वो भी मुझसे। लेकिन किस्मत ने मुझे यहाँ ला दिया, अपने ससुराल। शादी की पहली रात जब वो दूध लेकर आया, मैंने उससे पूछा, "एक पत्नी की मर्जी के बिना पति उसे छूए तो उसे बलात्कार कहते हैं या हक?" उसने बस इतना कहा, "आपको इतनी गहराई में जाने की जरूरत नहीं है। मैं सिर्फ शुभ रात्रि कहने आया हूँ," और कमरे से बाहर चला गया। मैं सोच रही थी कि झगड़ा हो जाए ताकि मैं इस अनचाहे रिश्ते से छुटकारा पा सकूं, मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। मैं उस घर में रहकर भी घर का कोई काम नहीं करती थी। दिनभर ऑनलाइन रहती और न जाने किस-किस से बातें करती। उसकी माँ, बिना किसी शिकायत के, घर का सारा काम करती रहती, और उसके चेहरे पर हमेशा एक मुस्कान होती। मेरे पति एक साधारण कंपनी में काम करते थे—बेहद मेहनती और ईमानदार। हमारी शादी को एक महीना हो चुका था, लेकिन हम पति-पत्नी की तरह कभी साथ नहीं सोए थे। उस दिन, जब मैंने उसकी माँ के बनाए खाने को बुरा-भला कहकर फेंक दिया, तो उसने पहली बार मुझ पर हाथ उठाया। बस, मुझे वही चाहिए था—एक बहाना झगड़े का। मैं पैर पटकते हुए घर से निकल गई, अपने पुराने प्यार से मिलने। वो मुझसे कहता, "कब तक यहाँ रहोगी? चलो, भाग चलते हैं कहीं दूर।" पर सच तो यह था कि मेरे पास कुछ भी नहीं था, और वो खाली हाथ भागने को तैयार नहीं था। फिर एक दिन, मेरे ससुराल में एक घटना घटी। मैंने पहली बार अपने पति की अलमारी खोली। उसमें मेरा बैंक पासबुक, एटीएम कार्ड, और वो सारे गहने थे, जो मेरे घरवालों ने मुझसे छीन लिए थे। मुझे ये सब देखकर झटका लगा। साथ ही, उसकी डायरी में मेरे लिए एक खत रखा था। उसमें लिखा था कि उसने मेरी हर चीज को संजोकर रखा था, और दहेज में मिले सारे पैसे मेरे अकाउंट में ट्रांसफर कर दिए थे। उसने लिखा कि वो मुझे प्यार से इस रिश्ते में बाँधना चाहता है, न कि जबरदस्ती। उसकी इन बातों ने मेरे दिल को छू लिया। मैंने सोचा भी नहीं था कि ये "गंवार" मुझे इस तरह से समझ सकता है, बिना कुछ कहे। धीरे-धीरे, मुझे एहसास हुआ कि वो मुझे उसी सादगी से प्यार करता है, जिस सादगी से उसने मुझे अपनी जिंदगी में जगह दी थी। अगली सुबह, मैंने सिंदूर गाढ़ा करके अपनी माँग में भरा और अपने पति के ऑफिस चली गई। वहाँ पहुँचकर मैंने सबके सामने कहा, "अब सब ठीक है। हम साथ-साथ एक लंबी छुट्टी पर जा रहे हैं।" उस दिन, मुझे समझ आया कि जिन फैसलों को मैं गलत मानती थी, वही मेरे लिए सबसे सही थे। मेरे माँ-बाप ने मेरे लिए जो भी किया, वो सिर्फ मेरे भले के लिए था। ******

  • घुलते हुए दो जिस्म

    सन्दीप तोमर   सीने पर जो चाँद तुम टांक गई थी, वो रफ्ता-रफ्ता बढ़ता जाता है, जैसे मेंरे तुम्हारे बीच पनप रहा एहसास हो, जो बदल जाता है पूनम की रात के बड़े आकार में, तब हम दोनों की अठखेलियाँ कभी छोटे कैनवास पर तो कभी दिखाई देती हैं क्षितिज के पार जाते हुए, ये चाँद कैसे बदलता है अपना रंग कभी जामुनी, कभी सन्तरी तो कभी धवल, कभी लिपटाए हुए कुछ कालिमा, ये चाँद बना रहता है गवाह हमारे बीच के खुमार और ढलती शाम का, आहिस्ता-आहिस्ता घुलता है यह चाँद बर्फ के ग्लोब सा, और... घुलते हुए दो जिस्म हो जाते हैं विलीन एक दूजे में। *****

  • कहानी कैसे लिखूँ?

    आदित्य नारायण शुक्ला   ओस से लिखूँ या अश्कों से लिखूँ मैं दिल की कहानी कैसे लिखूँ...?? फूलों पे लिखूँ या हाथों पे लिखूँ होंठों की ज़बानी कैसे लिखूँ...??? है दिल की बातें बहुत सारी यूँ तो बहुत कुछ कहना है कुछ सुनना है...!!! इस कागज़ के एक टुकड़े पर मैं अपनी कहानी कैसे लिखूँ...??? *****

  • निःस्वार्थ बलिदान

    डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव एक छोटे से कस्बे में राघव नाम का एक व्यक्ति रहता था। वह एक साधारण मजदूर था, जिसने अपनी पूरी ज़िंदगी मेहनत करके अपने परिवार का पेट पाला था। उसकी पत्नी का निधन बहुत पहले हो गया था, वह अपने दो बच्चों-एक बेटा, आर्यन, और एक बेटी, मीरा को अकेले ही पाल रहा था। राघव हमेशा मानता था कि बेटा ही बुढ़ापे का सहारा होता है, इसलिए उसने आर्यन की पढ़ाई के लिए कई बलिदान दिए। उसने पैसे उधार लिए, अतिरिक्त मेहनत की, और कई बार भूखा तक रहा ताकि आर्यन की कॉलेज की फीस भर सके। दूसरी ओर, मीरा की पढ़ाई को कभी प्राथमिकता नहीं दी गई। वह समझदार और मेहनती थी, लेकिन घर में उसकी शिक्षा को ज़रूरी नहीं माना गया। फिर भी, उसने कभी शिकायत नहीं की और चुपचाप अपने पिता का साथ देती रही। समय बीतता गया। आर्यन ने अपनी पढ़ाई पूरी की और एक बड़े शहर में नौकरी करने चला गया। उसने शादी कर ली और घर आना लगभग बंद कर दिया। जब भी राघव उसे फोन करता, आर्यन हमेशा व्यस्त होने का बहाना बनाता। धीरे-धीरे उसने फोन उठाना भी बंद कर दिया। दूसरी ओर मीरा हमेशा अपने पिता के साथ रही। उसे कभी भी वैसे अवसर नहीं मिले जैसे आर्यन को मिले थे, लेकिन उसने एक स्कूल में शिक्षिका की नौकरी कर ली और घर की पूरी ज़िम्मेदारी संभाल ली। वह अपने पिता के लिए खाना बनाती, घर का सारा काम करती, और यह सुनिश्चित करती कि वे कभी अकेला महसूस न करें। एक सर्दी में, राघव गंभीर रूप से बीमार पड़ गया। उसके इलाज के लिए पैसों की सख्त ज़रूरत थी। बहुत हिम्मत जुटाकर उसने आर्यन को फोन किया, यह उम्मीद करते हुए कि उसका बेटा उसकी मदद करेगा। कई बार कोशिश करने के बाद आर्यन ने फोन उठाया और ठंडे स्वर में कहा, "बाबा, मेरे पास अपना परिवार है, मुझे उनके लिए भी सोचना पड़ता है। अभी मैं इतना खर्च नहीं कर सकता। आप किसी और से मदद मांग लीजिए।" यह सुनकर राघव का दिल टूट गया। जिस बेटे के लिए उसने अपनी पूरी ज़िंदगी लगा दी, वही अब उसे छोड़कर चला गया था। उस रात, जब राघव चुपचाप बैठा था, मीरा उसके पास आई। उसने पिता का कांपता हाथ अपने हाथों में लिया और कहा, "बाबा, चिंता मत करो। मैं हूं न, मैं आपका ख्याल रखूंगी।" अगले दिन, मीरा ने अपने सोने के कंगन बेच दिए जो उसकी इकलौती कीमती चीज़ थी ताकि अपने पिता के इलाज का खर्च उठा सके। उसने उनकी देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक शाम, जब राघव ने मीरा को खाना बनाते देखा, तो उसकी आँखों में आँसू आ गए। काँपती आवाज़ में उसने कहा, "मीरा, मैं अंधा था। मैं उस बेटे के पीछे भागता रहा जिसने मुझे छोड़ दिया, और उस बेटी की कदर नहीं की जो मेरे लिए सबसे बड़ा वरदान बनी। मुझे माफ कर दो, मेरी बच्ची।" मीरा हल्के से मुस्कुराई और अपने पिता के आँसू पोंछते हुए बोली, "बाबा, बेटी प्यार में न किसी इनाम की उम्मीद रखती है, न किसी पहचान की। वह बस प्यार करती है, क्योंकि यही उसका स्वभाव होता है।" उस रात, राघव ने सालों बाद चैन की नींद सोई, यह जानते हुए कि उसके पास दुनिया का सबसे अनमोल खजाना है-एक बेटी का निःस्वार्थ प्यार। बेटियां सच में अनमोल होती हैं। दुनिया बेटों को ज़्यादा महत्व देती है, लेकिन मुश्किल समय में अक्सर बेटियां ही अपने माता-पिता का सबसे बड़ा सहारा बनती हैं। अगर आपके पास एक बेटी है, तो उसे प्यार करें, उसकी कद्र करें, और कभी उसे कम न आंकें। *****

  • आशिकी

    संगीता शर्मा शाम का समय था। सूरज धीरे-धीरे पहाड़ों के पीछे छिप रहा था, और आसमान नारंगी और गुलाबी रंगों से भर चुका था। रिया अपने घर की बालकनी में खड़ी होकर चाय की चुस्कियों के साथ इस सुंदर नज़ारे का आनंद ले रही थी। उसके मन में हलचल मची थी, क्योंकि आज उसका सामना आर्यन से हुआ था। रिया और आर्यन की मुलाकात कॉलेज के एक प्रोजेक्ट के दौरान हुई थी। आर्यन एक शांत और गम्भीर स्वभाव का लड़का था, जबकि रिया चंचल और हंसमुख थी। उनकी दुनिया भले ही अलग थी, लेकिन उनकी सोच कहीं न कहीं मिलती थी। समय बीतता गया और प्रोजेक्ट खत्म हो गया। लेकिन उनके बीच की दोस्ती और गहरी हो गई। आर्यन अक्सर रिया के लिए कविताएँ लिखा करता था, और रिया उसे हँसी-मज़ाक में टाल देती थी। एक दिन, जब आर्यन ने रिया को अपनी भावनाओं का इज़हार किया, तो वह चुप रह गई। वह खुद भी समझ नहीं पा रही थी कि उसके दिल में क्या चल रहा है। रिया ने थोड़ा समय माँगा और इस बीच वह खुद को अपने काम में व्यस्त रखने लगी। लेकिन हर बार जब वह अकेली होती, आर्यन का मुस्कुराता चेहरा उसकी आँखों के सामने आ जाता। उसे एहसास हुआ कि वह भी आर्यन से प्यार करती है। एक महीने बाद, रिया ने आर्यन को उसी जगह बुलाया, जहाँ उनकी पहली मुलाकात हुई थी। वह गुलाबी साड़ी में बेहद खूबसूरत लग रही थी। आर्यन उसकी तरफ देखता रह गया। रिया ने उसकी तरफ बढ़ते हुए कहा, "आर्यन, मैंने तुम्हें जवाब देने में समय लिया, लेकिन अब मुझे यकीन है। मैं भी तुमसे प्यार करती हूँ।" आर्यन की आँखों में खुशी के आँसू थे। उसने धीरे से रिया का हाथ पकड़ा और कहा, "तुमने मेरी दुनिया को पूरा कर दिया।" वह पल उनके लिए एक नई शुरुआत का प्रतीक था। और इस तरह, उनकी कहानी जो दोस्ती से शुरू हुई थी, सच्चे प्यार में बदल गई। *****

  • बरसात की रात

    डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव दो-तीन दिन पहले की बात है। मैं अपनी 8 वर्षीय बेटी को स्कूल से लेने के लिए तीन बजे स्कूल के गेट पर पहुंचा। वहाँ बच्चों को लेने आए अभिभावकों की भीड़ थी। जूनियर के.जी. के बच्चे तीन बजकर दस मिनट पर बाहर आते हैं, जबकि बड़े बच्चे तीन बजे से ही बाहर आने लगते हैं। अचानक बारिश शुरू हो गई, और सभी ने अपनी-अपनी छतरियां खोल लीं। मेरे बगल में एक सज्जन खड़े थे, जिनके पास छतरी नहीं थी। मैंने शिष्टाचार के नाते उन्हें अपनी छतरी में बुला लिया। उन्होंने कहा, "गाड़ी से जल्दी-जल्दी में आ गया, छतरी लाना भूल गया।" मैंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "कोई बात नहीं, ऐसा हो जाता है।" थोड़ी देर बाद उनका बेटा रेनकोट पहनकर बाहर आया। मैंने सज्जन को उनकी गाड़ी तक छोड़ दिया। जाते समय उन्होंने धन्यवाद कहते हुए मेरी ओर गहरी नजरों से देखा। अगली रात, नौ बजे पाटिल साहब का बेटा मेरे पास आया। वह घबराए हुए थे। "अंकल, गाड़ी चाहिए। रूबी (उनकी छह महीने की बेटी) की तबीयत बहुत खराब है, डॉक्टर के पास ले जाना है।" मैंने तुरंत कहा, "चलो, चलते हैं।" अंधेरी बरसाती रात में हम डॉक्टर के क्लिनिक पहुंचे। वहां दरवाजा बंद हो रहा था। कम्पाउंडर ने बताया कि डॉक्टर साहब लास्ट पेशेंट देख रहे हैं और अब सोमवार को ही नंबर लगेगा। मैंने कम्पाउंडर से विनती की कि बच्ची की हालत खराब है, इसे आज ही दिखाने दें। इतने में डॉक्टर साहब चैंबर से बाहर आए। मेरी ओर देखा और ठिठक गए। "अरे आप! कहिए सर, क्या बात है?" डॉक्टर साहब वही व्यक्ति थे, जिन्हें स्कूल में मैंने छतरी दी थी। डॉक्टर साहब ने बच्ची का मुआयना किया, दवा लिखी और कम्पाउंडर से कहा, "इन्हें इंजेक्शन तुरंत लगाओ और दवाएं अपने पास से दे दो।" मैंने विरोध किया तो डॉक्टर साहब बोले, "अब इस बरसाती रात में आप दवा खोजने कहां जाएंगे। कुछ तो मुझे भी आपका रंग चढ़ने दीजिए।" डॉक्टर साहब ने न फीस ली, न दवा का दाम। उन्होंने कम्पाउंडर से कहा, "ये हमारे मित्र हैं, इन्हें कभी आने से मना मत करना।" डॉक्टर साहब ने हमें गाड़ी तक छोड़ा और जाते-जाते बोले, "सर, आप जैसे लोग इस दुनिया में हैं, तो इंसानियत ज़िंदा है।" निस्वार्थ भाव से मदद करने का जो सुकून मिलता है, वह कहीं और नहीं। हमेशा बिना स्वार्थ दूसरों की मदद करते रहिए, शायद आपका यह भाव औरों पर भी असर करे। *****

  • भूली हुइ यादें...

    रूपम दास जब हम स्कूल में पढ़ते थे। उस स्कूली दौर में निब पैन का चलन जोरों पर था। तब कैमलिन की स्याही प्रायः हर घर में मिल ही जाती थी, कोई कोई टिकिया से स्याही बनाकर भी उपयोग करते थे और बुक स्टाल पर शीशी में स्याही भर कर रखी होती थी। 25 पैसा दो और ड्रापर से खुद ही डाल लो ये भी सिस्टम था। जिन्होंने भी पैन में स्याही डाली होगी वो ड्रॉपर के महत्व से भली भांति परिचित होंगे ! कुछ लोग ड्रापर का उपयोग कान में तेल डालने में भी करते थे। महीने में दो-तीन बार निब पैन को खोलकर उसे गरम पानी में डालकर उसकी सर्विसिंग भी की जाती थी और लगभग सभी को लगता था कि निब को उल्टा कर के लिखने से हैंडराइटिंग बड़ी सुन्दर बनती है। सामने के जेब मे पेन टांगते थे और कभी-कभी स्याही लीक होकर सामने शर्ट नीली कर देती थी जिसे हम लोग सामान्य भाषा मे पेन का पोंक देना कहते थे, पोंकना अर्थात लूज मोशन। हर क्लास में एक ऐसा एक्सपर्ट होता था जो पैन ठीक से नहीं चलने पर ब्लेड लेकर निब के बीच वाले हिस्से में बारिकी से कचरा निकालने का दावा कर लेता था। नीचे के हड्डा को घिस कर परफेक्ट करना भी एक आर्ट थी। हाथ से निब नहीं निकलती थी तो दांतों के उपयोग से भी निब निकालते थे, दांत, जीभ औऱ होंठ भी नीला होकर भगवान महादेव की तरह हलाहल पिये सा दिखाई पड़ते थे। दुकान में नयी निब खरीदने से पहले उसे पैन में लगाकर सेट करना फिर कागज़ में स्याही की कुछ बूंदे छिड़क कर निब उन गिरी हुयी स्याही की बूंदो पर लगाकर निब की स्याही सोखने की क्षमता नापना ही किसी बड़े साइंटिस्ट वाली फीलिंग दे जाता था। निब पैन कभी ना चले तो हम सभी ने हाथ से झटका देने के चक्कर में आजू बाजू वालों पर स्याही जरूर छिड़कायी होगी। कुछ बच्चे ऐसे भी होते थे जो पढ़ते लिखते तो कुछ नहीं थे लेकिन घर जाने से पहले उंगलियो में स्याही जरूर लगा लेते थे, बल्कि पैंट पर भी छिड़क लेते थे ताकि घरवालों को देख के लगे कि बच्चा स्कूल में बहुत मेहनत करता है। ******

  • गलत सोच

    गंगाधर द्विवेदी पति अपनी पत्नी पर गुस्से में चिल्ला रहा था, "तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरी मां को पलट कर जवाब देने की? मैं ये कभी बर्दाश्त नहीं करूंगा। आइंदा ऐसा करने की सोचो भी मत।" पत्नी ने शांत स्वर में जवाब दिया, "मैंने मम्मी जी को पलट कर कुछ नहीं कहा। बस इतना ही कहा कि दीदी से बोल दीजिए कि शाम की चाय बना दें। मुन्ना बहुत रो रहा है और मुझे छोड़ नहीं रहा। ऐसे में मेरा किचन में जाना मुश्किल है।" इस पर नंद तुरंत बोली, "तो क्या भाभी के रहते हुए मैं चाय बनाऊंगी? ये घर का काम करना मेरा नहीं है।" सास भी भड़ककर बोली, "बहू, तेरी इतनी हिम्मत कि मुझे इस तरह बात कहे?" पत्नी ने विनम्रता से कहा, "मम्मी जी, चाय बनाना कौन सा बड़ा काम है? मेरा बच्चा बहुत छोटा है, मुझे उसकी देखभाल करनी होती है।" यह सुनते ही पति और ज्यादा गुस्से में आ गया। उसने गंदी-गंदी गालियां देना शुरू कर दिया और कहा, "तेरी हिम्मत कैसे हुई मेरी मां से ऐसे बात करने की? यही तमीज सिखाई है तुझे तेरे मां-बाप ने?" सास और नंद गर्व से मुस्कुराते हुए एक-दूसरे को देखने लगीं, मानो कह रही हों कि देखो, हमारा बेटा हमारी कितनी इज्जत करता है। पत्नी अब तक चुपचाप सुन रही थी, लेकिन अब उसने दृढ़ता से जवाब दिया, "यह मेरे मां-बाप के संस्कार ही हैं कि मैं आपसे तमीज और तहजीब के साथ बात कर रही हूं। पर आपकी हरकतों और शब्दों से आपकी मां की परवरिश साफ झलक रही है।" उसने आगे कहा, "मेरी मां ने मुझे शालीनता सिखाई है, लेकिन उन्होंने मुझे यह भी सिखाया है कि अपने हक के लिए खड़े होना और लड़ना भी जरूरी है। मैं गलत के आगे झुकने वालों में से नहीं हूं। तो यह मत सोचिए कि मैं डरकर चुप हो जाऊंगी।" पत्नी की बात सुनकर पति, सास और नंद के पास कोई जवाब नहीं बचा। उनकी सारी बहस थम गई, और उन्होंने चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी। पत्नी के साहस और सच्चाई ने उनकी गलत सोच को आईना दिखा दिया। *******

  • ज़मीला

    हर हर नाथ मिश्रा सर्दियों की रात थी। हरखू अपनी खाट पर लेटा खिड़की के बाहर घने कोहरे को ताक रहा था। हवा इतनी ठंडी थी कि उसके हाथ-पैर सुन्न हो रहे थे, लेकिन उसके मन में एक अजीब सी गर्माहट थी। घर के कोने में ज़मीला बैठी, चूल्हे में जलती लकड़ियों को धीमा करने की कोशिश कर रही थी। उसकी साड़ी का पल्लू आधा कंधे से सरक गया था, और माथे पर झूलती उसकी जुल्फें किसी कवि की कल्पना को सजीव कर रही थीं। “हरखू, तुम खेत में इतने देर तक क्यों रहे? लगता है ठंड में वहीं गर्मी का जुगाड़ मिल गया है।” ज़मीला ने शरारती लहजे में कहा। हरखू ने खाट से उठते हुए जवाब दिया, “खेती का काम मजाक नहीं है, ज़मीला। और फिर, ये ठंड भी क्या चीज़ है जब तुझ जैसे अंगारे घर में जलते हों।” ज़मीला हँस पड़ी। “बड़े मीठे बोल बोल रहे हो आज। जरूर कुछ गुल खिला आए हो बाहर,” उसने चूल्हे में एक और लकड़ी डालते हुए कहा। हरखू उसके पास जाकर बैठ गया। “गुल तो तेरे साथ ही खिलाने का मन है, ज़मीला। आज गाँव की चौपाल पर तेरा ज़िक्र हो रहा था। बटेसर काका कह रहे थे कि मैं कितना किस्मत वाला हूँ जो मुझे तेरी जैसी बीवी मिली।” ज़मीला ने उसकी ओर तिरछी नजरों से देखा। “और तूने क्या कहा?” “मैंने कहा, किस्मत का क्या है? रिवर्स लव जिहाद कर ले, तो हर आदमी को तेरे जैसी रानी मिल सकती है,” हरखू ने छेड़ते हुए कहा। ज़मीला ने उसके कंधे पर हल्की सी चोट मारी। “बड़े चालाक हो गए हो आजकल। चलो, खिचड़ी खा लो। मैं परोस देती हूँ।” हरखू ने उसे रोकते हुए कहा, “बैठ ना, आज मैं खिचड़ी नहीं, तेरे हाथों की गर्माहट खाऊँगा।” ज़मीला उसकी बात पर लजा गई। “चुप रहो। बाहर लोग सुन लेंगे।” हरखू ने उसके हाथ पकड़ लिए। “ज़मीला, तू जानती है, मेरे लिए तेरी मुस्कान से बढ़कर कुछ नहीं। जब तू मेरे पास होती है, तो मुझे लगता है कि मैं इस दुनिया का सबसे अमीर आदमी हूँ।” ज़मीला उसकी आँखों में झाँकते हुए बोली, “तू जब ऐसे बोलता है, तो मुझे डर लगता है। कहीं तेरी बातें सच में मेरे दिल में घर न कर जाएँ।” हरखू ने उसकी हथेलियों को अपने गर्म हाथों में थाम लिया। “ज़मीला, तू मेरे लिए केवल मेरी पत्नी नहीं है। तू मेरी धरती है, जिस पर मैं हर रोज़ अपना जीवन बोता हूँ।” उस रात, चूल्हे की बुझती हुई आग और कमरे की ठंडी हवा में, हरखू और ज़मीला ने निस्वार्थ प्रेम का एक और अध्याय लिख डाला। यह प्रेम देह का था और उससे बढ़कर आत्मा का था। *******

  • सच्चे दिलदार

    जितेंद्र यादव आठ साल पहले की बात है। मेरी गर्लफ्रेंड नैना ने मुझे छोड़ दिया था। मैं उस वक्त नया-नया ग्रेजुएट होकर निकला था। मुझे पता चला कि नैना ने मुझे छोड़कर एक अमीर एनआरआई से शादी कर ली। वह बहुत धनी था- दिल्ली में उसके रेस्टोरेंट, पाँच-छह पेट्रोल पंप थे, और कई गाड़ियाँ थीं। इसी कारण से नैना ने उससे शादी कर ली। यह जानकर मैं बुरी तरह टूट गया था। समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ। मैं शराब पीने लगा, सिगरेट पीने लगा। कुछ समय बाद मैं मुंबई शिफ्ट हो गया और वहाँ एक नौकरी करने लगा। मेरी आदतें और भी बिगड़ती चली गईं। मैं लेडीज़ बार में जाने लगा, और मेरी शराब और सिगरेट की लत बढ़ती गई। बचपन में मेरी सिर्फ माता थीं, जो कि मेरे आठवीं कक्षा में रहने के दौरान गुजर गई थीं। मेरा पालन-पोषण मेरे दादा-दादी ने किया था। इस वक्त मैं बिल्कुल अकेला पड़ गया था और समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ। मेरी आदतें बद से बदतर होती जा रही थीं। फिर मैं कभी-कभी अपने मन को शांत करने के लिए एस्कॉर्ट्स की सेवा लेने लगा। एक दिन जब मैं सुबह उठा, तो देखा कि वह लड़की कमरे की सफाई कर रही थी। मैंने उससे पूछा, "तुम क्या कर रही हो?" उसने कहा, "यहाँ सब गंदा पड़ा हुआ था, तो मैंने सोचा साफ़ कर देती हूँ।" न जाने क्यों, मुझे अजीब सा लगने लगा। उसने खाना भी बनाया। उसके बाद मैं तैयार होकर ऑफिस चला गया। शाम को लौटते समय मैं उसके बारे में ही सोचता रहा। रात में भी मैं उसके बारे में ही सोचता रहा। अगले दिन मैंने उसी एजेंट को फोन करके उसी लड़की को दोबारा भेजने को कहा। जब वह आई, तो मुझे देखकर मुस्कुराई। उस दिन मेरा उसके साथ शारीरिक संबंध बनाने का मन नहीं था। मैं उसके साथ अपना अकेलापन बांटना चाहता था, उससे बातें करना चाहता था, अपना मन हल्का करना चाहता था। उस रात हमने एक मूवी देखी, और सारी रात एक-दूसरे के साथ लेटे रहे, लेकिन शारीरिक संबंध नहीं बनाए। उसके चेहरे पर एक चिंता की लकीर थी, जिसे उसने मुझसे नहीं बताया, लेकिन मैंने महसूस किया। धीरे-धीरे मेरा उसके प्रति लगाव बढ़ने लगा। मैंने उससे उसका नंबर माँग लिया। अगले रविवार को मैंने उसे फोन किया, "क्या तुम आज फ्री हो? अगर फ्री हो तो हम मूवी देखने चलें?" मैं उसके साथ मूवी देखने गया। इस तरह हम लोग हर रविवार मिलने लगे। उसके साथ मिलते-मिलते मेरी आदतों में काफी सुधार होने लगा। मेरी शराब और सिगरेट की लत लगभग 60-70% कम हो गई। मेरा बिखरा हुआ कमरा अब साफ़-सुथरा और रहने लायक दिखने लगा। एक दिन हम मरीन ड्राइव पर बैठे थे। उसने मेरे कंधे पर सिर रखा हुआ था और अचानक से रोने लगी। मुझसे कहने लगी, "मैं ऐसी ज़िंदगी नहीं जीना चाहती। मैं उस जगह वापस नहीं जाना चाहती। मैं चाहती हूँ कि कोई मुझे सच्चे दिल से प्यार करे, जिसके साथ मैं जीवन बिता सकूँ।" उसकी यह बात सुनकर मैं अंदर तक हिल गया, क्योंकि यह वही शब्द थे जो कुछ समय पहले नैना ने मुझसे कहे थे। उस शाम हमने साथ समय बिताया। अगले दिन से मैंने उसका फोन उठाना बंद कर दिया, उसके मैसेज का जवाब देना बंद कर दिया। उसने कई बार कॉल किया, लेकिन मैंने उससे बात नहीं की। मैं डर रहा था कि कहीं फिर से मेरा दिल न टूट जाए, जैसे नैना ने किया था। मैं इस बात से भयभीत था। फिर अगले रविवार को वह मेरे घर आई और मुझ पर गुस्सा करने लगी। लेकिन फिर मैंने उसे सब कुछ बताया। हम दोनों ने साथ बैठकर बातें कीं, एक-दूसरे के कंधे पर सिर रखकर काफी देर तक रोते रहे। कुछ दिन बाद मैंने उससे शादी करके पुणे में शिफ्ट होने का निर्णय लिया। आज हम दोनों एक साथ काफी खुश हैं। आखिर में मैं कहना चाहूँगा कि इस बात से फ़र्क नहीं पड़ता कि किसी का अतीत कैसा था। फ़र्क इस बात से पड़ता है कि वर्तमान में आप दोनों एक-दूसरे के प्रति कितने ईमानदार हैं और आपके बीच कितना प्रेम और सम्मान है। इंसान हर बार ग़लत नहीं होता; कभी-कभी मजबूरियाँ उसे ग़लत रास्ते पर ले जाती हैं। ******

  • नई उड़ान

    नंदिता सिंह मेरी शादी हो चुकी थी, और मैं अपने पति के घर में पहली बार कदम रख रही थी। उनके कमरे में बैठी हुई, मैं जैसे किसी का इंतज़ार कर रही थी। कमरे की हर चीज़ को ध्यान से देख रही थी। दीवारों का रंग, पेंटिंग्स, फूलों की सजावट, यहाँ तक कि मेरी तस्वीरें भी, जो मैंने कभी किसी को नहीं दी थीं। सब कुछ मेरी पसंद का था। मैं सोचने लगी कि ये सब आर्यन और उनके परिवार को कैसे पता चला। तभी दरवाज़े की आवाज़ ने मेरा ध्यान भंग किया। आर्यन, मेरे पति, दरवाज़े पर खड़े थे। उन्होंने कहा, "आराम से रहिए। मैं समझता हूँ कि आप अभी मुझे ठीक से नहीं जानतीं। कोई बात नहीं, अपना समय लीजिए। जब आप तैयार होंगी, तब हम इस रिश्ते को आगे बढ़ाएँगे। आप सहज हैं न? अगर किसी चीज़ की ज़रूरत हो, तो बताइए।" उनकी बातों का मैं सिर हिलाकर जवाब देती रही। जब उन्होंने कहा, "कपड़े बदल लीजिए, लहंगा काफ़ी भारी होगा," तो मैं चुपचाप चेंजिंग रूम की ओर चली गई। जब बाहर आई, तो देखा कि उन्होंने मेरे लिए बिस्तर लगा दिया था और ख़ुद दीवान पर सोने की तैयारी कर रहे थे। उन्होंने कहा, "आप आराम से सोइए। किसी चीज़ की ज़रूरत हो, तो मुझे बता दीजिए। शुभ रात्रि।" मैं बिस्तर पर लेट गई, लेकिन नींद नहीं आ रही थी। बीते हुए कल की यादें मन में उमड़ने लगीं। कॉलेज के दिन याद आ गए। मेरा सपना था कि मैं आईएएस बनकर देश की सेवा करूँ। लेकिन पिताजी ने मेरी आगे की पढ़ाई के बजाय मेरी शादी तय कर दी। परिवार के दबाव में, मैं आर्यन से मिलने गई। मन में असहमति थी, लेकिन कुछ कहने का साहस नहीं था। शादी के बाद, जब मैं नई ज़िंदगी के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश कर रही थी, एक दिन आर्यन मुझे कहीं ले गए। मैं हैरान रह गई जब उन्होंने मुझे एक आईएएस कोचिंग सेंटर के सामने खड़ा पाया। बिना कुछ कहे, उन्होंने मेरा दाखिला करवा दिया। लेकिन वे यहीं नहीं रुके। हर कदम पर उन्होंने मेरा साथ दिया। मैं सोचती थी कि शादी मेरे सपनों को रोक देगी, लेकिन आर्यन ने साबित किया कि सही जीवनसाथी मिल जाए, तो शादी आपके सपनों को नई उड़ान दे सकती है। आज, मैं समझ चुकी हूँ कि प्यार कहीं भी, कभी भी हो सकता है। शादी के बाद भी हमारा जीवनसाथी हमारा पहला प्यार बन सकता है। और यही मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी सच्चाई है। ******

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