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- आशिकी
संगीता शर्मा शाम का समय था। सूरज धीरे-धीरे पहाड़ों के पीछे छिप रहा था, और आसमान नारंगी और गुलाबी रंगों से भर चुका था। रिया अपने घर की बालकनी में खड़ी होकर चाय की चुस्कियों के साथ इस सुंदर नज़ारे का आनंद ले रही थी। उसके मन में हलचल मची थी, क्योंकि आज उसका सामना आर्यन से हुआ था। रिया और आर्यन की मुलाकात कॉलेज के एक प्रोजेक्ट के दौरान हुई थी। आर्यन एक शांत और गम्भीर स्वभाव का लड़का था, जबकि रिया चंचल और हंसमुख थी। उनकी दुनिया भले ही अलग थी, लेकिन उनकी सोच कहीं न कहीं मिलती थी। समय बीतता गया और प्रोजेक्ट खत्म हो गया। लेकिन उनके बीच की दोस्ती और गहरी हो गई। आर्यन अक्सर रिया के लिए कविताएँ लिखा करता था, और रिया उसे हँसी-मज़ाक में टाल देती थी। एक दिन, जब आर्यन ने रिया को अपनी भावनाओं का इज़हार किया, तो वह चुप रह गई। वह खुद भी समझ नहीं पा रही थी कि उसके दिल में क्या चल रहा है। रिया ने थोड़ा समय माँगा और इस बीच वह खुद को अपने काम में व्यस्त रखने लगी। लेकिन हर बार जब वह अकेली होती, आर्यन का मुस्कुराता चेहरा उसकी आँखों के सामने आ जाता। उसे एहसास हुआ कि वह भी आर्यन से प्यार करती है। एक महीने बाद, रिया ने आर्यन को उसी जगह बुलाया, जहाँ उनकी पहली मुलाकात हुई थी। वह गुलाबी साड़ी में बेहद खूबसूरत लग रही थी। आर्यन उसकी तरफ देखता रह गया। रिया ने उसकी तरफ बढ़ते हुए कहा, "आर्यन, मैंने तुम्हें जवाब देने में समय लिया, लेकिन अब मुझे यकीन है। मैं भी तुमसे प्यार करती हूँ।" आर्यन की आँखों में खुशी के आँसू थे। उसने धीरे से रिया का हाथ पकड़ा और कहा, "तुमने मेरी दुनिया को पूरा कर दिया।" वह पल उनके लिए एक नई शुरुआत का प्रतीक था। और इस तरह, उनकी कहानी जो दोस्ती से शुरू हुई थी, सच्चे प्यार में बदल गई। *****
- बरसात की रात
डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव दो-तीन दिन पहले की बात है। मैं अपनी 8 वर्षीय बेटी को स्कूल से लेने के लिए तीन बजे स्कूल के गेट पर पहुंचा। वहाँ बच्चों को लेने आए अभिभावकों की भीड़ थी। जूनियर के.जी. के बच्चे तीन बजकर दस मिनट पर बाहर आते हैं, जबकि बड़े बच्चे तीन बजे से ही बाहर आने लगते हैं। अचानक बारिश शुरू हो गई, और सभी ने अपनी-अपनी छतरियां खोल लीं। मेरे बगल में एक सज्जन खड़े थे, जिनके पास छतरी नहीं थी। मैंने शिष्टाचार के नाते उन्हें अपनी छतरी में बुला लिया। उन्होंने कहा, "गाड़ी से जल्दी-जल्दी में आ गया, छतरी लाना भूल गया।" मैंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "कोई बात नहीं, ऐसा हो जाता है।" थोड़ी देर बाद उनका बेटा रेनकोट पहनकर बाहर आया। मैंने सज्जन को उनकी गाड़ी तक छोड़ दिया। जाते समय उन्होंने धन्यवाद कहते हुए मेरी ओर गहरी नजरों से देखा। अगली रात, नौ बजे पाटिल साहब का बेटा मेरे पास आया। वह घबराए हुए थे। "अंकल, गाड़ी चाहिए। रूबी (उनकी छह महीने की बेटी) की तबीयत बहुत खराब है, डॉक्टर के पास ले जाना है।" मैंने तुरंत कहा, "चलो, चलते हैं।" अंधेरी बरसाती रात में हम डॉक्टर के क्लिनिक पहुंचे। वहां दरवाजा बंद हो रहा था। कम्पाउंडर ने बताया कि डॉक्टर साहब लास्ट पेशेंट देख रहे हैं और अब सोमवार को ही नंबर लगेगा। मैंने कम्पाउंडर से विनती की कि बच्ची की हालत खराब है, इसे आज ही दिखाने दें। इतने में डॉक्टर साहब चैंबर से बाहर आए। मेरी ओर देखा और ठिठक गए। "अरे आप! कहिए सर, क्या बात है?" डॉक्टर साहब वही व्यक्ति थे, जिन्हें स्कूल में मैंने छतरी दी थी। डॉक्टर साहब ने बच्ची का मुआयना किया, दवा लिखी और कम्पाउंडर से कहा, "इन्हें इंजेक्शन तुरंत लगाओ और दवाएं अपने पास से दे दो।" मैंने विरोध किया तो डॉक्टर साहब बोले, "अब इस बरसाती रात में आप दवा खोजने कहां जाएंगे। कुछ तो मुझे भी आपका रंग चढ़ने दीजिए।" डॉक्टर साहब ने न फीस ली, न दवा का दाम। उन्होंने कम्पाउंडर से कहा, "ये हमारे मित्र हैं, इन्हें कभी आने से मना मत करना।" डॉक्टर साहब ने हमें गाड़ी तक छोड़ा और जाते-जाते बोले, "सर, आप जैसे लोग इस दुनिया में हैं, तो इंसानियत ज़िंदा है।" निस्वार्थ भाव से मदद करने का जो सुकून मिलता है, वह कहीं और नहीं। हमेशा बिना स्वार्थ दूसरों की मदद करते रहिए, शायद आपका यह भाव औरों पर भी असर करे। *****
- भूली हुइ यादें...
रूपम दास जब हम स्कूल में पढ़ते थे। उस स्कूली दौर में निब पैन का चलन जोरों पर था। तब कैमलिन की स्याही प्रायः हर घर में मिल ही जाती थी, कोई कोई टिकिया से स्याही बनाकर भी उपयोग करते थे और बुक स्टाल पर शीशी में स्याही भर कर रखी होती थी। 25 पैसा दो और ड्रापर से खुद ही डाल लो ये भी सिस्टम था। जिन्होंने भी पैन में स्याही डाली होगी वो ड्रॉपर के महत्व से भली भांति परिचित होंगे ! कुछ लोग ड्रापर का उपयोग कान में तेल डालने में भी करते थे। महीने में दो-तीन बार निब पैन को खोलकर उसे गरम पानी में डालकर उसकी सर्विसिंग भी की जाती थी और लगभग सभी को लगता था कि निब को उल्टा कर के लिखने से हैंडराइटिंग बड़ी सुन्दर बनती है। सामने के जेब मे पेन टांगते थे और कभी-कभी स्याही लीक होकर सामने शर्ट नीली कर देती थी जिसे हम लोग सामान्य भाषा मे पेन का पोंक देना कहते थे, पोंकना अर्थात लूज मोशन। हर क्लास में एक ऐसा एक्सपर्ट होता था जो पैन ठीक से नहीं चलने पर ब्लेड लेकर निब के बीच वाले हिस्से में बारिकी से कचरा निकालने का दावा कर लेता था। नीचे के हड्डा को घिस कर परफेक्ट करना भी एक आर्ट थी। हाथ से निब नहीं निकलती थी तो दांतों के उपयोग से भी निब निकालते थे, दांत, जीभ औऱ होंठ भी नीला होकर भगवान महादेव की तरह हलाहल पिये सा दिखाई पड़ते थे। दुकान में नयी निब खरीदने से पहले उसे पैन में लगाकर सेट करना फिर कागज़ में स्याही की कुछ बूंदे छिड़क कर निब उन गिरी हुयी स्याही की बूंदो पर लगाकर निब की स्याही सोखने की क्षमता नापना ही किसी बड़े साइंटिस्ट वाली फीलिंग दे जाता था। निब पैन कभी ना चले तो हम सभी ने हाथ से झटका देने के चक्कर में आजू बाजू वालों पर स्याही जरूर छिड़कायी होगी। कुछ बच्चे ऐसे भी होते थे जो पढ़ते लिखते तो कुछ नहीं थे लेकिन घर जाने से पहले उंगलियो में स्याही जरूर लगा लेते थे, बल्कि पैंट पर भी छिड़क लेते थे ताकि घरवालों को देख के लगे कि बच्चा स्कूल में बहुत मेहनत करता है। ******
- गलत सोच
गंगाधर द्विवेदी पति अपनी पत्नी पर गुस्से में चिल्ला रहा था, "तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरी मां को पलट कर जवाब देने की? मैं ये कभी बर्दाश्त नहीं करूंगा। आइंदा ऐसा करने की सोचो भी मत।" पत्नी ने शांत स्वर में जवाब दिया, "मैंने मम्मी जी को पलट कर कुछ नहीं कहा। बस इतना ही कहा कि दीदी से बोल दीजिए कि शाम की चाय बना दें। मुन्ना बहुत रो रहा है और मुझे छोड़ नहीं रहा। ऐसे में मेरा किचन में जाना मुश्किल है।" इस पर नंद तुरंत बोली, "तो क्या भाभी के रहते हुए मैं चाय बनाऊंगी? ये घर का काम करना मेरा नहीं है।" सास भी भड़ककर बोली, "बहू, तेरी इतनी हिम्मत कि मुझे इस तरह बात कहे?" पत्नी ने विनम्रता से कहा, "मम्मी जी, चाय बनाना कौन सा बड़ा काम है? मेरा बच्चा बहुत छोटा है, मुझे उसकी देखभाल करनी होती है।" यह सुनते ही पति और ज्यादा गुस्से में आ गया। उसने गंदी-गंदी गालियां देना शुरू कर दिया और कहा, "तेरी हिम्मत कैसे हुई मेरी मां से ऐसे बात करने की? यही तमीज सिखाई है तुझे तेरे मां-बाप ने?" सास और नंद गर्व से मुस्कुराते हुए एक-दूसरे को देखने लगीं, मानो कह रही हों कि देखो, हमारा बेटा हमारी कितनी इज्जत करता है। पत्नी अब तक चुपचाप सुन रही थी, लेकिन अब उसने दृढ़ता से जवाब दिया, "यह मेरे मां-बाप के संस्कार ही हैं कि मैं आपसे तमीज और तहजीब के साथ बात कर रही हूं। पर आपकी हरकतों और शब्दों से आपकी मां की परवरिश साफ झलक रही है।" उसने आगे कहा, "मेरी मां ने मुझे शालीनता सिखाई है, लेकिन उन्होंने मुझे यह भी सिखाया है कि अपने हक के लिए खड़े होना और लड़ना भी जरूरी है। मैं गलत के आगे झुकने वालों में से नहीं हूं। तो यह मत सोचिए कि मैं डरकर चुप हो जाऊंगी।" पत्नी की बात सुनकर पति, सास और नंद के पास कोई जवाब नहीं बचा। उनकी सारी बहस थम गई, और उन्होंने चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी। पत्नी के साहस और सच्चाई ने उनकी गलत सोच को आईना दिखा दिया। *******
- ज़मीला
हर हर नाथ मिश्रा सर्दियों की रात थी। हरखू अपनी खाट पर लेटा खिड़की के बाहर घने कोहरे को ताक रहा था। हवा इतनी ठंडी थी कि उसके हाथ-पैर सुन्न हो रहे थे, लेकिन उसके मन में एक अजीब सी गर्माहट थी। घर के कोने में ज़मीला बैठी, चूल्हे में जलती लकड़ियों को धीमा करने की कोशिश कर रही थी। उसकी साड़ी का पल्लू आधा कंधे से सरक गया था, और माथे पर झूलती उसकी जुल्फें किसी कवि की कल्पना को सजीव कर रही थीं। “हरखू, तुम खेत में इतने देर तक क्यों रहे? लगता है ठंड में वहीं गर्मी का जुगाड़ मिल गया है।” ज़मीला ने शरारती लहजे में कहा। हरखू ने खाट से उठते हुए जवाब दिया, “खेती का काम मजाक नहीं है, ज़मीला। और फिर, ये ठंड भी क्या चीज़ है जब तुझ जैसे अंगारे घर में जलते हों।” ज़मीला हँस पड़ी। “बड़े मीठे बोल बोल रहे हो आज। जरूर कुछ गुल खिला आए हो बाहर,” उसने चूल्हे में एक और लकड़ी डालते हुए कहा। हरखू उसके पास जाकर बैठ गया। “गुल तो तेरे साथ ही खिलाने का मन है, ज़मीला। आज गाँव की चौपाल पर तेरा ज़िक्र हो रहा था। बटेसर काका कह रहे थे कि मैं कितना किस्मत वाला हूँ जो मुझे तेरी जैसी बीवी मिली।” ज़मीला ने उसकी ओर तिरछी नजरों से देखा। “और तूने क्या कहा?” “मैंने कहा, किस्मत का क्या है? रिवर्स लव जिहाद कर ले, तो हर आदमी को तेरे जैसी रानी मिल सकती है,” हरखू ने छेड़ते हुए कहा। ज़मीला ने उसके कंधे पर हल्की सी चोट मारी। “बड़े चालाक हो गए हो आजकल। चलो, खिचड़ी खा लो। मैं परोस देती हूँ।” हरखू ने उसे रोकते हुए कहा, “बैठ ना, आज मैं खिचड़ी नहीं, तेरे हाथों की गर्माहट खाऊँगा।” ज़मीला उसकी बात पर लजा गई। “चुप रहो। बाहर लोग सुन लेंगे।” हरखू ने उसके हाथ पकड़ लिए। “ज़मीला, तू जानती है, मेरे लिए तेरी मुस्कान से बढ़कर कुछ नहीं। जब तू मेरे पास होती है, तो मुझे लगता है कि मैं इस दुनिया का सबसे अमीर आदमी हूँ।” ज़मीला उसकी आँखों में झाँकते हुए बोली, “तू जब ऐसे बोलता है, तो मुझे डर लगता है। कहीं तेरी बातें सच में मेरे दिल में घर न कर जाएँ।” हरखू ने उसकी हथेलियों को अपने गर्म हाथों में थाम लिया। “ज़मीला, तू मेरे लिए केवल मेरी पत्नी नहीं है। तू मेरी धरती है, जिस पर मैं हर रोज़ अपना जीवन बोता हूँ।” उस रात, चूल्हे की बुझती हुई आग और कमरे की ठंडी हवा में, हरखू और ज़मीला ने निस्वार्थ प्रेम का एक और अध्याय लिख डाला। यह प्रेम देह का था और उससे बढ़कर आत्मा का था। *******
- सच्चे दिलदार
जितेंद्र यादव आठ साल पहले की बात है। मेरी गर्लफ्रेंड नैना ने मुझे छोड़ दिया था। मैं उस वक्त नया-नया ग्रेजुएट होकर निकला था। मुझे पता चला कि नैना ने मुझे छोड़कर एक अमीर एनआरआई से शादी कर ली। वह बहुत धनी था- दिल्ली में उसके रेस्टोरेंट, पाँच-छह पेट्रोल पंप थे, और कई गाड़ियाँ थीं। इसी कारण से नैना ने उससे शादी कर ली। यह जानकर मैं बुरी तरह टूट गया था। समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ। मैं शराब पीने लगा, सिगरेट पीने लगा। कुछ समय बाद मैं मुंबई शिफ्ट हो गया और वहाँ एक नौकरी करने लगा। मेरी आदतें और भी बिगड़ती चली गईं। मैं लेडीज़ बार में जाने लगा, और मेरी शराब और सिगरेट की लत बढ़ती गई। बचपन में मेरी सिर्फ माता थीं, जो कि मेरे आठवीं कक्षा में रहने के दौरान गुजर गई थीं। मेरा पालन-पोषण मेरे दादा-दादी ने किया था। इस वक्त मैं बिल्कुल अकेला पड़ गया था और समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ। मेरी आदतें बद से बदतर होती जा रही थीं। फिर मैं कभी-कभी अपने मन को शांत करने के लिए एस्कॉर्ट्स की सेवा लेने लगा। एक दिन जब मैं सुबह उठा, तो देखा कि वह लड़की कमरे की सफाई कर रही थी। मैंने उससे पूछा, "तुम क्या कर रही हो?" उसने कहा, "यहाँ सब गंदा पड़ा हुआ था, तो मैंने सोचा साफ़ कर देती हूँ।" न जाने क्यों, मुझे अजीब सा लगने लगा। उसने खाना भी बनाया। उसके बाद मैं तैयार होकर ऑफिस चला गया। शाम को लौटते समय मैं उसके बारे में ही सोचता रहा। रात में भी मैं उसके बारे में ही सोचता रहा। अगले दिन मैंने उसी एजेंट को फोन करके उसी लड़की को दोबारा भेजने को कहा। जब वह आई, तो मुझे देखकर मुस्कुराई। उस दिन मेरा उसके साथ शारीरिक संबंध बनाने का मन नहीं था। मैं उसके साथ अपना अकेलापन बांटना चाहता था, उससे बातें करना चाहता था, अपना मन हल्का करना चाहता था। उस रात हमने एक मूवी देखी, और सारी रात एक-दूसरे के साथ लेटे रहे, लेकिन शारीरिक संबंध नहीं बनाए। उसके चेहरे पर एक चिंता की लकीर थी, जिसे उसने मुझसे नहीं बताया, लेकिन मैंने महसूस किया। धीरे-धीरे मेरा उसके प्रति लगाव बढ़ने लगा। मैंने उससे उसका नंबर माँग लिया। अगले रविवार को मैंने उसे फोन किया, "क्या तुम आज फ्री हो? अगर फ्री हो तो हम मूवी देखने चलें?" मैं उसके साथ मूवी देखने गया। इस तरह हम लोग हर रविवार मिलने लगे। उसके साथ मिलते-मिलते मेरी आदतों में काफी सुधार होने लगा। मेरी शराब और सिगरेट की लत लगभग 60-70% कम हो गई। मेरा बिखरा हुआ कमरा अब साफ़-सुथरा और रहने लायक दिखने लगा। एक दिन हम मरीन ड्राइव पर बैठे थे। उसने मेरे कंधे पर सिर रखा हुआ था और अचानक से रोने लगी। मुझसे कहने लगी, "मैं ऐसी ज़िंदगी नहीं जीना चाहती। मैं उस जगह वापस नहीं जाना चाहती। मैं चाहती हूँ कि कोई मुझे सच्चे दिल से प्यार करे, जिसके साथ मैं जीवन बिता सकूँ।" उसकी यह बात सुनकर मैं अंदर तक हिल गया, क्योंकि यह वही शब्द थे जो कुछ समय पहले नैना ने मुझसे कहे थे। उस शाम हमने साथ समय बिताया। अगले दिन से मैंने उसका फोन उठाना बंद कर दिया, उसके मैसेज का जवाब देना बंद कर दिया। उसने कई बार कॉल किया, लेकिन मैंने उससे बात नहीं की। मैं डर रहा था कि कहीं फिर से मेरा दिल न टूट जाए, जैसे नैना ने किया था। मैं इस बात से भयभीत था। फिर अगले रविवार को वह मेरे घर आई और मुझ पर गुस्सा करने लगी। लेकिन फिर मैंने उसे सब कुछ बताया। हम दोनों ने साथ बैठकर बातें कीं, एक-दूसरे के कंधे पर सिर रखकर काफी देर तक रोते रहे। कुछ दिन बाद मैंने उससे शादी करके पुणे में शिफ्ट होने का निर्णय लिया। आज हम दोनों एक साथ काफी खुश हैं। आखिर में मैं कहना चाहूँगा कि इस बात से फ़र्क नहीं पड़ता कि किसी का अतीत कैसा था। फ़र्क इस बात से पड़ता है कि वर्तमान में आप दोनों एक-दूसरे के प्रति कितने ईमानदार हैं और आपके बीच कितना प्रेम और सम्मान है। इंसान हर बार ग़लत नहीं होता; कभी-कभी मजबूरियाँ उसे ग़लत रास्ते पर ले जाती हैं। ******
- नई उड़ान
नंदिता सिंह मेरी शादी हो चुकी थी, और मैं अपने पति के घर में पहली बार कदम रख रही थी। उनके कमरे में बैठी हुई, मैं जैसे किसी का इंतज़ार कर रही थी। कमरे की हर चीज़ को ध्यान से देख रही थी। दीवारों का रंग, पेंटिंग्स, फूलों की सजावट, यहाँ तक कि मेरी तस्वीरें भी, जो मैंने कभी किसी को नहीं दी थीं। सब कुछ मेरी पसंद का था। मैं सोचने लगी कि ये सब आर्यन और उनके परिवार को कैसे पता चला। तभी दरवाज़े की आवाज़ ने मेरा ध्यान भंग किया। आर्यन, मेरे पति, दरवाज़े पर खड़े थे। उन्होंने कहा, "आराम से रहिए। मैं समझता हूँ कि आप अभी मुझे ठीक से नहीं जानतीं। कोई बात नहीं, अपना समय लीजिए। जब आप तैयार होंगी, तब हम इस रिश्ते को आगे बढ़ाएँगे। आप सहज हैं न? अगर किसी चीज़ की ज़रूरत हो, तो बताइए।" उनकी बातों का मैं सिर हिलाकर जवाब देती रही। जब उन्होंने कहा, "कपड़े बदल लीजिए, लहंगा काफ़ी भारी होगा," तो मैं चुपचाप चेंजिंग रूम की ओर चली गई। जब बाहर आई, तो देखा कि उन्होंने मेरे लिए बिस्तर लगा दिया था और ख़ुद दीवान पर सोने की तैयारी कर रहे थे। उन्होंने कहा, "आप आराम से सोइए। किसी चीज़ की ज़रूरत हो, तो मुझे बता दीजिए। शुभ रात्रि।" मैं बिस्तर पर लेट गई, लेकिन नींद नहीं आ रही थी। बीते हुए कल की यादें मन में उमड़ने लगीं। कॉलेज के दिन याद आ गए। मेरा सपना था कि मैं आईएएस बनकर देश की सेवा करूँ। लेकिन पिताजी ने मेरी आगे की पढ़ाई के बजाय मेरी शादी तय कर दी। परिवार के दबाव में, मैं आर्यन से मिलने गई। मन में असहमति थी, लेकिन कुछ कहने का साहस नहीं था। शादी के बाद, जब मैं नई ज़िंदगी के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश कर रही थी, एक दिन आर्यन मुझे कहीं ले गए। मैं हैरान रह गई जब उन्होंने मुझे एक आईएएस कोचिंग सेंटर के सामने खड़ा पाया। बिना कुछ कहे, उन्होंने मेरा दाखिला करवा दिया। लेकिन वे यहीं नहीं रुके। हर कदम पर उन्होंने मेरा साथ दिया। मैं सोचती थी कि शादी मेरे सपनों को रोक देगी, लेकिन आर्यन ने साबित किया कि सही जीवनसाथी मिल जाए, तो शादी आपके सपनों को नई उड़ान दे सकती है। आज, मैं समझ चुकी हूँ कि प्यार कहीं भी, कभी भी हो सकता है। शादी के बाद भी हमारा जीवनसाथी हमारा पहला प्यार बन सकता है। और यही मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी सच्चाई है। ******
- शराब की दुकान
रामशंकर द्विवेदी रघु एक छोटे से गांव का मेहनती किसान था। उसके पास खेती के अलावा और कोई साधन नहीं था, लेकिन मेहनत के बल पर वह अपना और अपने परिवार का पेट पालता था। सब कुछ ठीक चल रहा था, जब तक कि गांव में एक नई शराब की दुकान नहीं खुली। रघु के कुछ दोस्त शराब के बड़े शौकीन थे। हर शाम वे उसे भी साथ ले जाने लगे। पहले तो रघु ने मना किया, लेकिन उनके बार-बार बुलाने पर वह भी एक दिन चला गया। "बस एक बार, क्या बिगड़ेगा?" उसने सोचा। पहली बार शराब पीने पर उसे अजीब-सा एहसास हुआ। दुनिया हल्की लगने लगी, दुख दूर से गायब हो गए। लेकिन उसे नहीं पता था कि यह शुरुआत थी। धीरे-धीरे उसकी आदत बन गई। जो पैसे वह अपने बच्चों की पढ़ाई और घर के खर्च के लिए बचाता था, वह अब शराब पर खर्च होने लगे। घर में समस्याएं बढ़ने लगीं। उसकी पत्नी सुमन ने बहुत समझाने की कोशिश की, लेकिन रघु के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। एक दिन, खेत में काम करते हुए वह नशे में था और फसल खराब हो गई। गांववालों ने ताना मारा, लेकिन वह चुप रहा। समस्या तब और गंभीर हो गई, जब उसके बच्चे भूखे सोने लगे। एक दिन, उसकी बेटी रूचि ने उससे कहा, "बाबा, हम सब भूखे हैं। क्या आपने शराब छोड़ने का वादा नहीं किया था?" उस मासूम चेहरों की बात सुनकर रघु का दिल पसीज गया। उस रात उसने शराब की बोतल उठाई, लेकिन पीने के बजाय उसे तोड़ दिया। वह अपने परिवार की हालत को और खराब नहीं करना चाहता था। अगले दिन वह गांव के बुजुर्गों के पास गया और मदद मांगी। बुजुर्गों ने उसे सहारा दिया और समझाया कि कैसे संयम और आत्मनियंत्रण से वह अपनी जिंदगी बदल सकता है। धीरे-धीरे रघु ने मेहनत से अपना जीवन फिर से पटरी पर लाया। उसने न केवल शराब छोड़ी, बल्कि गांव में शराबबंदी की मुहिम भी शुरू की। लोग उसकी मेहनत और हिम्मत को देखकर प्रेरित हुए। इस कहानी से हमें यह सीखने को मिलता है कि नशा जीवन को बर्बाद कर सकता है, लेकिन इच्छाशक्ति से हर बुरी आदत को छोड़ा जा सकता है। *******
- बुढ़ापे की लाठी
जगजीवन तिवारी रामलाल जी 75 वर्ष की आयु के हो चुके थे। अब तक उनका शरीर काम कर रहा था तो वह छुटपुट बाहर के काम कर लिया करते थे पर अब उनका शरीर बिल्कुल ही चलना बंद हो गया था अतः वह घर पर ही रहा करते थे। रामलाल जी के कमरे से लगातार खांसने की आवाज़ आ रही थी। बाहर से बेटे व बहू दोनों आपस में धीरे-धीरे बातचीत कर रहे थे। बहू (अलका) - क्या करें पिताजी तो दिन भर खांसते ही रहते हैं। सारा काम करके बैठती हूं, उसके बाद उनकी सेवा में लगे रहो। तुम कोई वृद्ध आश्रम क्यों नहीं छोड़ आते। मेरी सहेली विभा ने भी अपने ससुर को वृद्धा आश्रम भेज दिया तब से वह दोनों बहुत सुखी हो गए।
- अजनबी का इंतजार
सरोज शुभंकर सर्दियों की ठंडी रात थी। हिमाचल के एक छोटे से गांव में बिजली गुल थी, और चारों ओर घुप अंधेरा पसरा हुआ था। रोहिणी अपने पुराने, वीरान बंगले में अकेली बैठी थी। यह बंगला उसके दादा का था, और गांव के लोग इसे "भूत बंगला" कहकर पुकारते थे। उस रात बारिश भी हो रही थी, और हवा की तेज़ सरसराहट किसी अनहोनी का संकेत दे रही थी। रोहिणी को इस सब पर यकीन नहीं था। उसने सोचा, "ये सब बेकार की बातें हैं। अगर मैं यहां डर गई, तो अपना प्रोजेक्ट कभी पूरा नहीं कर पाऊंगी।" रोहिणी लेखक थी और एक नई किताब के लिए किसी रहस्यमयी जगह की तलाश कर रही थी। इस बंगले से बेहतर जगह उसे नहीं लगी। लेकिन रात होते ही उसका मन विचलित होने लगा। घड़ी ने रात के 12 बजाए। तभी, दरवाजे पर दस्तक हुई। रोहिणी की धड़कन तेज हो गई। इस समय यहां कौन आ सकता है? गांव के लोग तो कहते थे कि कोई इस बंगले के पास भी नहीं आता। उसने धीरे-धीरे दरवाजे की ओर कदम बढ़ाए। "कौन है?" उसने कांपती आवाज़ में पूछा। कोई जवाब नहीं आया। फिर से दस्तक हुई। टॉक-टॉक-टॉक। इस बार उसने दरवाजा खोलने का फैसला किया। बाहर एक अजनबी खड़ा था। उसका चेहरा बारिश और अंधेरे में ठीक से दिखाई नहीं दे रहा था। उसने फटी हुई जैकेट पहनी थी और आंखें बिल्कुल खाली थीं। "क्या मैं अंदर आ सकता हूं?" उसने ठंडी आवाज़ में पूछा। रोहिणी घबराई हुई थी, लेकिन उसने सोचा, "शायद ये कोई मुसाफिर है।" उसने दरवाजा खोल दिया। अजनबी ने कमरे में कदम रखा और चुपचाप एक कुर्सी पर बैठ गया। उसके कपड़ों से पानी टपक रहा था, लेकिन उसकी आंखें लगातार रोहिणी को घूर रही थीं। "आप कौन हैं?" रोहिणी ने पूछा। "मैं… उसी का इंतजार कर रहा हूं, जो यहां रहने आया है," उसने जवाब दिया। रोहिणी को उसका जवाब समझ नहीं आया। "आपका मतलब क्या है?" अजनबी मुस्कुराया, लेकिन उसकी मुस्कान में कुछ ऐसा था, जो दिल दहला देने वाला था। "ये बंगला मेरा है। और तुमने इसे लेने की हिम्मत कैसे की?" रोहिणी का खून जम गया। उसने सुना था कि इस बंगले में कभी एक आदमी की रहस्यमयी मौत हुई थी। कहीं ये वही आदमी तो नहीं? अचानक कमरे की बत्तियां जलने लगीं, जो अब तक बंद थीं। लेकिन रोहिणी को कुछ और भी दिखाई दिया—कुर्सी खाली थी। वह अजनबी गायब हो चुका था। रोहिणी को अब समझ आ गया था कि गांव वाले सही कहते थे। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह था—क्या वह इस रहस्य से बच पाएगी? उस रात के बाद, रोहिणी के बारे में किसी ने कुछ नहीं सुना। लोग कहते हैं, अब वह भी उस अजनबी के साथ उसी बंगले का हिस्सा बन गई है। *****
- दीपक की माँ
अरविंद द्विवेदी मीटिंग के बीच में जब टेबल पर पड़ा फोन वाइब्रेट हुआ तो पुरे हाल को पता चल गया कि किसी का फोन आया है। बड़े पोस्ट पर विद्यमान अधिकारी नें अपनी तरफ से बड़ी विनम्रता से कहाँ कि फोन को साइलेंट करके बैठे प्लीज। दीपक नें जल्दी से फोन को उठा कर काट दिया देखा भी नहीं कि किसका फोन आया है। सॉरी सर बोलते हुऐ फटाफट फोन साइलेंट की बजाय स्विच ऑफ कर दिया। और गौर से फिर उस सफ़ेद बोर्ड की और देखने लगा जिस पर स्लाइड चल रही थी। मीटिंग के तुरंत बाद भी अपना फोन ओंन करना भूल गया। काम बला ही कुछ ऐसी है अच्छी अच्छी बात भूल जाते है इंसान। बने रहना है अगर बॉस की नजरों में, दौड़ में प्रमोशन की, पैसे की, स्टेटस की, तो पूरा समय झोकना पड़ता है। आप नहीं होंगे तो आप की जगह कोई और लेने के लिये पीछे से टक्कर मार कर आगे निकलने वाले हैं, बहुत है। थोड़ी सांस आयी इन सब बातो से तो याद आया की फोन भी पड़ा है निर्जीव कहीं जेब में। तुरंत ही निकाला और उसका बटन दबा कर फिर उसे अपने संसार में प्रवेश दिया। कुछ सोचता समझता इसके पहले ही बीवी का फोन आ गया। कहाँ हो आप का फोन भी ऑफ़ है माँजी का फोन आया था। इतना कहते है दीपक समझ गया की मीटिंग में बजने वाला वाइब्रेटर माँजी का ही होगा। थोड़ा छल्ला कर बोला 'अरे हाँ पता है वो आने का ही बोल रही होगी। करता हूँ मैं उनसे बात फ्री होकर।' फ्री होना उसके लिये ऑफिस में तो मुमकिन नहीं था। वो भी माँ से बात करने के लिये। माँ से तो शाम को भी बात कर सकते है। अभी करना क्या जरुरी है। ऑफिस का टाइम खत्म हुआ लेकिन दीपक का अभी भी चल रहा है। यह फाइल दिखने में छोटी होती है लेकिन ज़िन्दगी निकल जाती है, इनमें सर घुसा घुसा कर। ऑफिस से घर आया पत्नी नें कुछ कहाँ नहीं एक तो पहले ही लेट हो गये ऊपर से अगर फिर कोई ऐसी बात कह दी जिससे भड़ग गये तो उसकी खैर नहीं। इसलिये खाना गर्म करके खिला दिया। रात सोते समय दीपक ही अचानक बोला 'अरे तुमने याद नहीं दिलाया माँ को फोन करना था।' पत्नी बोली 'कहाँ करते यह आपका ऑफिस थोड़ी है जो रात 12 बजे तक खुला रहें समय देखो 1 बजा है, 11 बजे तो आपने घर में कदम रखा कब बात करते।' चद्दर झटकाते हुये अब पत्नी को अहसास हो गया था कि अब दिन का वो समय है जब वो थोड़ा बहुत पति को ताना मार सकती है। 'माँ को 3 साल हो गये है आपसे मिलें कब से कह रही है कि एक बार मिल लों। पर आप जाते ही नहीं।' 'अरे तुम लोग तो गये थे पिछले साल' 'हम गये थे आप को मिलना है।' 'हाँ करता हूँ कुछ महीने 2 महीने में जानें का, अभी छुट्टी नहीं लें सकता।' सुबह होते ही वही दौड़ा भाग शुरू ऑफिस जानें के पहले ही ऑफिस घर आ जाता है। फोन आते रहते हैं एक चालू रहता है तो दूसरा कतार में रहता है। इसी बीच पत्नी आयी कुछ बोलने के लिये लेकिन साहब को मूड देखकर फिर किचन में चली गई। दीपक नें जल्दी जल्दी अपने सारे ऑफिस को घर समेटा गाड़ी में डालने के लिये, गाड़ी से फिर वही ऑफिस की असली जगह पर लें जानें के लिये। पूरा दिन फिर वही करना है काम। एक बार फिर माँ का फोन आया इस बार फिर काट दिया मन में यह सोचा कि आज तो माँ से बात करूँगा ही। थोड़ा सा माँ पर प्यार भी आया। सोचा कि अब फोन आया तो जरूर उठा लूंगा। लेकिन फिर बजा नहीं, मन किया कि करें बात लेकिन फिर दूसरा मन आ गया कहने कि करेंगे ऑफिस के बाद। फिर वही बात हुई काम में उलझ कर फिर से एक बार वो भूल गया माँ से बात करना। शाम को ऑफिस से जानें में फिर लेट हो गया। घर गया तब दीपक को पत्नी को देख कर याद आया कि आज उसने भी फोन नहीं किया पहलें तो कुछ नहीं बोला लेकिन खाना खातें वक्त सोचा कि पूंछ लेता हूँ। इसके पहले कि पूछता पत्नी नें बोल दिया 'मेरा फोन ख़राब हो गया है सुबह से ओंन नहीं हो रहा है। मैं आपको बतानें वाली थी लेकिन सुबह आप बिजी थे तो नहीं बात की।' दीपक उसे कुछ कहता इसके पहले उसने घड़ी देखी समय फिर वही 10.30। सोचा माँ से बात करुँ लेकिन फिर सोचा कि अब तक वो सो गई होगी इसलिये फोन नहीं किया। सोचा सुबह तो उठते ही फोन करूँगा। इस बार इरादा पक्का था। सुबह जैसे ही ऑफिस के लिये तैयार हुआ माँ को फोन किया। फोन उठने के पहले ही सोचा कि, बड़े प्यार से माँ से बात करेगा। छुट्टी की प्लानिंग करने लगा, मन ही मन उसे लग रहा था कि माँ उसे बहुत याद कर रही है। माँ नें फोन नहीं उठाया। ऑफिस में निकलने के पहले उसने पत्नी को कहाँ कि सुनो तैयार रहना आज छुट्टी लेंकर आऊंगा शाम को माँ से मिलने चलने। पत्नी भी सोच में पड़ गई यह अचानक क्या हुआ। बोली क्यूँ सब ठीक है क्या हुआ। बोला नहीं बस कब से बुला रही है। अब मुझे भी लग रहा है माँ से मिल आऊँ। ऑफिस में जाते ही माँ का फोन आया, इस बार उसने फोन काटा नहीं।... फोन उठाते ही ऑफिस से सीधा घर गया। पत्नी देखकर चौक गई कहाँ क्या हुआ। दीपक बोला चलो जल्दी कार में बैठो माँ की तबियत ठीक नहीं है मामा का कॉल आया था। राश्ते भर यह सोचता रहा कि माँ कैसी होगी। हड़बड़ी में घर चला गया। माँ कहते-कहते घर में घुसा लेकिन माँ नहीं थी। एक पल के लिये उसे अपने 3 साल में माँ के किये फोन याद आये, जब माँ उसे बुलाती थी मिलने, लेकिन वो सिर्फ कहता आऊंगा उसे भी पता था कि वो ऊपर से कहता था जानें का कोई इरादा नहीं था। वो फोन भी याद आये जिनके आने पर वो भोए चढ़ा कर उन्हें काट देता था। यह सब घर में खड़ा होकर वो सोच ही रहा था कि पत्नी नें उसके कंधे पर हाथ रखा अरे माँ तो अस्पताल में है चले वहाँ। उसकी सुन फिर गाड़ी घुमाई अस्पताल की ओर मन में बस यही दुआ कि माँ ठीक हो बस अब हर दिन बात करूंगा, माँ की नहीं मानूँगा उनको अपने साथ ही लेकर जाऊंगा। अस्पताल पहुँचा और जब मामा नें उसे देखकर मुस्कुराते हुऐ कहाँ कि 'अब ठीक है चिंता की कोई बात नहीं' इतना सुनकर ही फिर उसकी पलकों से रुके बाँध का टूटना हुआ। बच्चों की तरह रोया। माँ के कमरे में गया तो माँ नें कहाँ 'अरे रोता क्यूँ है अभी नहीं मरने वाली ठीक हूँ बेवजह तुमको परेशान किया मैं यों भैया को कह रही थी कि मत बुलाओ उसे काम होगा।' हाथ पकडे माँ को कहने लगा, माँ मैं अच्छा बेटा नहीं हूँ। नहीं तू तो बहुत अच्छा है तभी तो दौड़ा आया। मेरे भाग अच्छे है इतनी फ़िक्र करते हो। उस पल दीपक को लगा कि वो माँ को फिर नहीं देख पायेगा। लगा कि यह बोझ लिये जीना पड़ेगा। माँ बुलाती रही वो टालता रहा। समय रहते सीख जीना बहुत बुद्धिमानी का काम है। दीपक फिर ना माना, माँ को अपने साथ ठीक होने पर लें गया। काम को छोड़ नहीं सकते लेकिन माँ को अपने साथ लें जानें के लिए तो मना सकते हैं। ******
- रिश्तों का सौंदर्य
अर्पित तिवारी रात का समय था। संजय और निधि अपने कमरे में बैठे, भविष्य की अनिश्चितताओं पर चर्चा कर रहे थे। निधि चिंतित स्वर में संजय से बोली, "देखो संजय, हमें अब बड़े भैया और भाभी से बात करनी ही पड़ेगी। मैं अब यहां रहकर अपना और बेटियों का भविष्य जोखिम में नहीं डाल सकती। समय रहते अलग हो जाना ही बेहतर है ताकि संबंधों में मिठास बनी रहे।" संजय ने उसकी बात ध्यान से सुनी, लेकिन वह चुप ही रहा। निधि ने आगे कहा, "मैं जानती हूं कि भैया और भाभी हमें कभी अलग नहीं मानते। हमारी बेटियों को भी उन्होंने हमेशा अपने बच्चों जैसा प्यार दिया है। लेकिन अब अर्पित की शादी हो चुकी है, और उसकी पत्नी, किरण, भी आ चुकी है। वो हमें माता-पिता जैसा सम्मान देती है, लेकिन अगली पीढ़ी में एक स्वाभाविक अंतर तो आ ही जाता है। अब हम उनके लिए चाचा-चाची ही रहेंगे। आजकल की लड़कियां खुद के सास-ससुर को निभा लें, तो बहुत बड़ी बात होती है।" निधि की चिंता स्पष्ट थी, वह नहीं चाहती थी कि उसकी बेटियाँ किरण पर बोझ बनें। उसने फिर कहा, "मैं अपनी बेटियों के भविष्य के लिए किसी पर निर्भर नहीं रहना चाहती।" संजय के दिल में भी कहीं यह चिंता हलचल मचा रही थी, लेकिन उसे भी भैया से अलग होने का विचार सही नहीं लग रहा था। संजय और विशाल, दो सगे भाई थे, जिन्होंने अपने जीवनभर का साथ निभाया था। उनके कपड़े का एक बड़ा शोरूम था, जो वे मिलकर चलाते थे। विशाल का एकमात्र बेटा, अर्पित, हाल ही में शादी करके घर आया था। संजय की बड़ी बेटी, श्रुति, एमबीए कर रही थी, और छोटी बेटी, पूजा, ग्रेजुएशन के अंतिम वर्ष में थी। दोनों भाइयों और परिवार के बीच असीम स्नेह था, और देवरानी-जेठानी में भी ऐसा प्रेम था कि कोई अंतर समझ नहीं पाता। तीनों बच्चों में भी सगे भाई-बहनों की तरह स्नेह था, परंतु निधि की चिंता भी गलत नहीं थी। "भविष्य का क्या भरोसा?" निधि ने सोचते हुए कहा। "बेटियों के घर बिना रुपए-पैसे के नहीं रहा जा सकता। भैया की जिम्मेदारी तो खत्म हो चुकी है, लेकिन मेरी जिम्मेदारी अभी बाकी है। मुझे अभी अपनी दोनों बेटियों की पढ़ाई और शादी का इंतजाम करना है।" संजय ने गहरी सांस लेते हुए कहा, "ठीक है निधि, मैं आज ही भैया से बात करूंगा।" दोनों पति-पत्नी बड़े भैया विशाल के कमरे की ओर बढ़ते हैं, लेकिन जैसे ही दरवाजे के पास पहुंचते हैं, अंदर से बातचीत की आवाजें उन्हें ठिठका देती हैं। विशाल अपने बेटे अर्पित से कह रहे थे, "देखो बेटा, तुम्हें पूरी आज़ादी है कि तुम चाहो तो घर के ऊपर वाले हिस्से में अपनी गृहस्थी बसा लो। ताकि किरण पर हम सब का बोझ न पड़े। लेकिन, जब तक श्रुति और पूजा की शादी नहीं हो जाती, मेरी जिम्मेदारी खत्म नहीं होती। संजय मेरा दायाँ हाथ है, उसे मैं अकेला कैसे छोड़ सकता हूँ।" किरण भी बातचीत में शामिल हो जाती है, "पापा, मुझे रिश्ते बोझ नहीं लगते। मुझे दो-दो मां-बाप और दोनों बहनों के साथ रहना ही पसंद है।" विशाल भावुक होकर बोले, "मुझे तुम्हारी सोच पर गर्व है बेटा। अब मैं निश्चिंत हूँ।" यह सब सुनकर संजय और निधि के मन में ग्लानि भर जाती है। निधि कहती है, "भैया के बारे में गलत सोचना सचमुच 'चांद पर थूकने' जैसा है।" दोनों अपने कमरे में लौट जाते हैं, यह सोचते हुए कि अपने करीबी रिश्तों को खुद की सोच के कारण तोड़ना गलत होता। रिश्तों की यह सुंदरता और आपसी समझ, इन्हीं ने उनके परिवार को एकता के सूत्र में बांध रखा था। ******