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  • आंटी नहीं 'मां'

    रूपाली चौधरी रात दस बजे के क़रीब, थकी-हारी नेहा घर पहुंची तो भाभी ने रूखेपन से कहा, "दीदी, तुम्हारा खाना ढंक रखा है, चाहो तो गरम करके खा लेना।" नेहा ने सिर हिलाते हुए 'अच्छा' कहा और कपड़े बदलने अपने कमरे में चली गई। हाथ-मुंह धोकर, खाना लेकर वह कमरे में आई ही थी कि भाभी की बातें उसके कानों में पड़ीं। "अब तो हद हो गई है। रोज़ ही रात को देर से लौटना, कभी खाना खाया तो ठीक, नहीं खाया तो ठीक। इन्होंने तो नाक में दम कर रखा है। मोहल्लेवालों अन्य की बातें सुन-सुनकर तो मेरे कान पक गए, पता नहीं ऐसा क्या काम करती हैं? भगवान जाने, कब तक छाती पर मूंग दलती रहेंगी?" भाभी भैया से ये सब कह रही थीं। अब तक भैया ने एक शब्द भी नहीं कहा था। इस पर खीझती हुई भाभी बोली, "अब कुछ बोलो भी। तुम्हारी शह पाकर ही तो सिर पर चढ़ती जा रही हैं, कल ही दीदी से साफ़-साफ़ बात कर लो, वरना मैं ही पूछ लूंगी।" इस पर भैया का कुछ धीमा स्वर कुछ धीमी आवाज़ में सुनाई दिया, "अरे! ऐसा ग़ज़ब मत करना भागवान! उसी की कमाई से तो यह घर चल रहा है। कुछ और निर्णय ले लिया उसने तो पछताती फिरोगी। भूल गईं क्या वो पिछली घटना, जब हमारे तंग करने पर गर्ल्स हॉस्टल रहने चली गई थी वह। तब घर में कैसे फांके पड़ गए थे। कितनी मुश्किल से मना कर लाए थे हम उसे?" ये बातें नेहा के दिल में नश्तर-सी चुभ रही थीं। ये सब बातें अब तो आए दिन होने लगी थीं। नेहा सुन-सुनकर थक चुकी थी। हर बार खून का घंट पीकर रह जाती। उसकी भूख ख़त्म हो चुकी थी, उसने थाली को वापस रसोई में लाकर रख दिया और चुपचाप बिस्तर पर आकर लेट गई। नींद आंखों से कोसों दूर थी। सुबह उसे जल्दी मिसेज़ अग्रवाल के यहां पहुंचना था। दिनभर कभी ट्रेन का तो कभी बस का सफ़र करना व एक जगह से दूसरी जगह पहुंचना… यह उसकी विनचर्या का हिस्सा था। नेहा फ़िजियोथेरेपिस्ट थी। उसे अपने मरीज़ के घर जाकर व्यायाम-मालिश आदि के बारे में बताना, समझाना पड़ता, इसके लिए उसे मुंबई जैसे शहर में बहुत भाग-दौड़ करनी पड़ती थी। उसके मरीज़ों में कई नामी-गिरामी हस्तियां थीं, काफ़ी अच्छी प्रैक्टिस चल रही थी उसकी। पर इस मुकाम तक पहुंचने में उसे काफ़ी मेहनत व संघर्ष करना पड़ा। जिंदगी के पन्द्रह साल उसने इस पेशे में बिता दिए थे, तब कहीं जाकर वह इस मंजिल तक पहुंची थी। उसे काफ़ी जद्दोजेहद करनी पड़ी थी अपने आपको स्थापित करने में। नेहा को याद आने लगे वो दिन, जब वह छोटी थी। बड़े भाई के बाद हुई थी वह। ख़ूब नाज़ों से पाला था उसे उसके मम्मी-पापा ने। नन्हीं प्यारी सी गुड़िया लगती थी वो। उसके पापा उसकी हर फ़रमाइश पूरी करते। हमेशा कहते, "नेहा की मां, देखना एक दिन मेरी बेटी इतनी बड़ी अफसर बनेगी कि दुनिया इसके आगे झुकेगी। पढ़ाई में इतनी होशियार है और सुंदर भी है। इसके लिए तो मैं राजकुमार सा दूल्हा ढूंढूंगा।" मां भी पिता का समर्थन करती। उनके यहां कई पीढ़ियों से बेटी नहीं हुई थी। अतः बेटी की बहुत ख़्वाहिश थी उसके पापा को। पर यही हालत तब ख़त्म सी हो गई जब एक और बेटे की चाह में उनके यहां और छह बहनें लाइन से पैदा हो गईं। पिताजी सब संभाल ही रहे थे कि एक दिन हार्ट अटैक में चल बसे, उस वक़्त वह दसवीं कक्षा में थी। सात-सात बहनों में इकलौता भाई अधिक लाड़-प्यार से बिगड़ गया था। उसका मन पढ़ाई में बिल्कुल नहीं लगता था। वहीं नेहा पढ़ाई में होशियार थी। पिता की मृत्यु के पश्चात् मां ने भी खाट पकड़ ली। अब तो स्वयं की पढ़ाई, घर का काम, छोटी-छोटी बहनों की देखभाल सभी की ज़िम्मेदारी अकेले नेहा पर आ पड़ी थी। उसने पिता के मिले प्रोविडेन्ट फंड की रकम को बैंक में जमा करवाया तथा साथ ही ट्यूशन्स भी करने लगी। समय ने उसे वक़्त से पहले ही परिपक्व बना दिया था। बारहवीं के बाद उसने फ़िज़ियोथेरेपिस्ट का कोर्स किया। साथ ही घर, परिवार, बहनें सबकी ज़िम्मेदारियों को निभाती रही। उसके पिता के दोस्त थे मंगल सेन जी। उनकी सिफ़ारिश पर उसे किसी प्राइवेट नर्सिंग होम में फ़िज़ियोथेरेपिस्ट का काम मिल गया। तब उसकी उम्र मुश्किल से बीस बरस रही होगी। तब से जो जद्दोजेहद शुरू हुई, वह आज तक चल रही थी। बहनों को पढ़ाकर, कुछ बनाकर, एक-एक को निबटाती गई वह। मां बिस्तर पर लेटी-लेटी बार-बार बलैया लेती रहीं। भाई आवारा निकल गया। बुरी सोहबत में रहने लगा। उससे तो घर में कोई मदद मिलती नहीं थी। उल्टे वो ही नेहा से मांग-मांग कर पैसे ले जाता। नेहा जब अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्त हुई तब पाया कि बालों में सफ़ेदी झलकने लगी थी। अपनी तरफ़ तो उसका ध्यान ही नहीं गया था। बीच-बीच में जब कभी कोई रिश्तेदार उसके लिए रिश्ता लेकर आते, मां किसी-न-किसी बहाने से टाल देतीं। वह भी अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास कर अपने सारे जज़्बातों को जज़्ब कर लेती। भाई की भी शादी हो गई। शुरू-शुरू में तो भाभी का व्यवहार सही रहा। पर बाद में वही भाभी अपने रंग दिखाने लग गई। घर में नेहा का स्थान सिर्फ़ पैसे कमाने वाली मशीन की तरह रह गया था। अब तो मां भी कुछ बदल-सी गई थीं। बहू की 'हां' में 'हां' मिलाते हुए वे भी नेहा को ही बात-बेबात दोषी ठहराने लगतीं। भाभी भी अपनी ही दुनिया में मस्त रहती। आए दिन कुछ-न-कुछ फ़रमाइश नेहा से करती रहती। कभी कहती, "दीदी, आज बबलू की फीस भरनी है," तो कभी कहती, "आज कपड़ों के लिए पैसा चाहिए" या "आज पिंकी कह रही थी कि बुआ से कहना मुझे साइकिल दिला दें"… आदि-आदि। नेहा भी भाई के बच्चों को मां सा प्यार देती। अपनी सारी कमाई भतीजे-भतीजी व घर पर लुटाती रहती। बहनों के ख़र्चे भी बढ़ते जा रहे थे। आज डॉली के यहां तीज आएगी। आज मंजू के बेटा होने का फंक्शन है। उसके यहां सामान जाएगा। जयपुर वाली बहन की मैरिज एनिवर्सरी है। उसके यहां अच्छा सा तोहफ़ा लेकर भाई जाएगा। उसके लिए साड़ी, उसके सास-ससुर के कपड़े, बच्चे के कपड़े, फल-मिठाई जाएगी, उसका ख़र्चा। आए दिन मां की फ़रमाइशें… कुछ-न-कुछ लगा ही रहता। उसने कभी सोचा भी न था कि उसे लाड़ करनेवाली यही मां, उसकी अपनी सगी मां इतनी बदल जाएगी। उसकी शादी का तो कभी ख़्याल तक नहीं आया। ऊपर से कुछ कह दो तो घर में हंगामा, मां का रोना-धोना शुरू कि "आज तेरे पिता ज़िंदा होते तो मेरी यह दशा तो न होती। मैं तो अपाहिज़ हो गई हूं, तुम्हारे टुकड़ों पर पल रही हूं, मैं तो हूं ही करमजली, मौत भी तो नहीं आती।" मां का बड़बड़ाना एक बार शुरू होता तो रुकने का नाम ही न लेता। वह सुबह एक कप चाय पीकर जल्दी निकल जाती और शाम ढले थकी-हारी लौटती। भाभी से यह कभी न होता कि जहां बबलू, पिंकी का टिफ़िन पैक कर रही है, वहीं उसके लिए भी दो परांठे सेंक दे। हर महीने घर के ख़र्चे के लिए सारी कमाई हाथ में रख दो। उस पर भी यह जलालत भरी ज़िंदगी, क्या यूं ही घुट-घुटकर जीती रहेगी? क्या यूं ही चलती रहेगी ज़िंदगी? आख़िर कब तक? सोचते-सोचते उसकी आंख लग गई। अगले दिन जब उठी, तो सिर बहुत भारी था। मन नहीं कर रहा था तैयार होने का, पर घर पर रहकर भी क्या करती? दूसरे मिसेज़ अग्रवाल की आर्थराइटिस बहुत बढ़ी हुई थी। उनका व्यायाम व मसाज करने के लिए जाना ही था। बहुत पुरानी मरीज़ थी वो उसकी। फीस भी अच्छी मिलती थी वहां से। बेमन से तैयार हुई। एक कप चाय पीकर निकल पड़ी। उसके काम पर जाने के रास्ते में एक अनाथालय पड़ता था। वह जब भी विले पार्ले उतरकर अपनी मरीज़ के घर तक पहुंचती, उस अनाथालय की ओर बरबस ही उसकी दृष्टि उठ जाती। कुछ समय से चार-पांच साल का एक प्यारा सा बच्चा, अनाथालय के गेट को अपने नन्हें-नन्हें हाथों से पकड़े, खड़ा हुआ उसे जाते टुकुर-टुकुर देखता रहता। वह भी उसकी प्यारी-सी मुद्रा पर दृष्टि डाले बिना न रह पाती, काफ़ी दिनों तक यह क्रम चलता रहा। एक दिन वह कुछ टॉफ़ियां लेकर उस बच्चे के पास पहुंची और बैग से निकालकर उसे देने ही वाली थी कि वह घबराकर पीछे मुड़ा और लंगड़ाता हुआ अंदर चला गया। नेहा उसकी चाल को देखकर उसकी परेशानी समझ गई और काफ़ी देर तक वहां खड़ी रही। उसका मन उस बच्चे को देखकर व्यथित-सा हो उठा और अनमनी सी वह वहां से चल दी। उस दिन अपने सारे काम तो उसने निबटाये, पर मन के किसी कोने में वही बच्चा, उसकी लंगडाहट, मासूम सा चेहरा आदि आंखों के सामने तैरता रहा। अगले दिन वह जब फिर से वहां से गुज़री, तब वही बच्चा उसे उसी मुद्रा में दिखाई पड़ा। वह यंत्रचालित सी उसके पास पहुंच गई। वह उसे देखकर पीछे मुड़कर लौटा नहीं, इस पर नेहा ने उसे बैग से टॉफियां निकालकर देने के लिए हाथ बढ़ाया। लेकिन बच्चे ने अपना हाथ नहीं बढ़ाया, नेहा ने कहा, "बेटा ले लो।" इस पर वह तुतलाता हुआ बोला, "आंटी डांटेंगी।" नेहा को बच्चे की इस बात से उसकी समझदारी का एहसास हुआ। उसने कहा, "अच्छा बेटा, एक बात बताओ, तुम्हारी आंटी 'हां' कह देंगी तब तो ले लोगे ना?" इस पर उसने 'हां' में सिर हिला दिया। नेहा ने पूछा, "बेटा, तुम्हारा नाम क्या है?" "बंटी" उसने जवाब दिया। नेहा ने फिर पूछा, "हमसे दोस्ती करोगे?" उस पर फिर उसने 'हां' की मुद्रा में सिर हिला दिया। अब तो नेहा का यह नित्यक्रम हो गया। वे दोनों मानो एक-दूसरे की प्रतीक्षा में रहते थे। नेहा के मन में मातृत्व की भावना हिलोरें लेने लगी। उसकी भी शादी हो गई होती तो उसके भी प्यारे-प्यारे बच्चे होते। उसे वह बच्चा इतना प्यारा लगता कि उसने निर्णय ले लिया कि वह उसे गोद ले लेगी। उस दिन वह अपने एक मरीज़, जो कि वकील थे, से मिली व गोद लेने के सारे नियम जाने, उस दिन घर लौटने पर वह विचारों के झंझावातों में ही उलझी रही। इस घर में रहकर तो उस बच्चे को पालना नामुमकिन था। फिर वह क्या करे? इसी कशमकश में वह घिरी रही, फिर भी कुछ फ़ैसले उसने कर ही लिए थे। उसने घरवालों की चोरी से बैंक अकाउंट खोल रखा था, जिसमें वह हर महीने रुपए जमा कराती आ रही थी। अब तक तो काफ़ी पैसे इकट्ठे हो गए थे। उसने निर्णय लिया कि वह अपना अलग घर ले लेगी, चाहे छोटा-सा ही क्यों न हो। इस निर्णय में मानो उसे जीवन जीने की एक नई दिशा मिली। उस रात वह बंटी को लेकर अपने नए जीवन के बारे में सोचती रही व निर्णय लिया कि कल सबसे पहला काम वह अनाथालय की संचालिका से मिलने का करेगी। अगले दिन जब वह उठी तो बहुत ख़ुश थी। उसे यूं लग रहा था मानो सूरज की किरणें भी उसकी ख़ुशी में साथ देकर दमक रही थीं। वह तैयार होकर निकली व अनाथालय जा पहुंची। बंटी हमेशा की तरह अनाथालय के गेट के पास खड़ा था। उसे लेकर वह अनाथालय की संचालिका के पास जा पहुंची व बंटी को गोद लेने की अपनी मंशा उसने ज़ाहिर की। उसकी आर्थिक स्थिति, कामकाज आदि के बारे में विस्तृत जानकारी पूछी गई। इन सबसे संतुष्ट हो, उसे कुछ औपचारिकताएं पूरी करने के लिए अगले दिन बुलवाया गया। उस दिन उसने अपनी पहचान के बिल्डर से मिलकर एक फ्लैट ख़रीदने की बात की व अग्रिम राशि के रूप में रकम जमा करवाने की बात हो गई। फ्लैट भी वह देख आई। फ्लैट का कब्जा भी उसे जल्दी ही मिल जाना तय हो गया। अब समस्या यह थी कि दिनभर बंटी के पास कौन रहेगा? कौन-से स्कूल में उसे दाख़िला दिलाना सही रहेगा? इसका भी प्रबंध उसने कर लिया, पूरे दिन की आया का इंतज़ाम हो गया। स्कूल भी घर के पास ही था। वहां भी नेहा दाखिले की बात कर आई। फार्म वगैरह ले आई। अब बस बंटी का संरक्षण मिलते ही वह उसे घर लाने को आतुर थी। अपनी एक छोटी-सी दुनिया शुरू करने के लिए, जिसमें वह होगी और मातृत्व की कमी पूरा करने के लिए बंटी होगा। उसे बेटा मिलेगा और बंटी को मां। उस रात घर आकर उसने अपने निर्णय से घरवालों को अवगत कराया। सबके चेहरे फक्क पड़ गए। भाई व भाभी ने बच्चों की दुहाई दी। कहा, "क्या तुम्हारे भतीजे-भतीजी तुम्हारे अपने नहीं हैं, जो पराया बच्चा गोद लेने की सोच रही हो? वो भी जिसकी जात का पता नहीं, मां-बाप का भी पता नहीं।" ख़ूब रोना-धोना हुआ। उसे तरह-तरह से समझाया गया। रिश्तों की दुहाई दी गई। उसके दायित्वों का एहसास कराया गया। साम, दाम, दंड, भेद जब कुछ भी काम न कर सके, तब मां ने रोना शुरू कर दिया, नेहा तब भी नहीं पिघली। उस दिन उसने पहली बार अपना मुंह खोला, "किन रिश्तों की दुहाई दे रहे हैं आप लोग? मैं तो सिर्फ़ पैसा कमाने की मशीन हूं? मेरे दर्द को कभी समझा आप लोगों ने? मेरी भावनाओं की क़द्र की क्या आप लोगों ने? मैं तो छाती पर मूंग दल रही हूं ना आप लोगों के। मेरी वजह से मोहल्ले में आपकी छीछालेदार होती है ना। मैं भी कभी विवाह योग्य थी। क्या मेरी चिंता हुई थी आप लोगों को? कहने को ये मेरी मां हैं, पर इन पैंतीस सालों में इन्होंने मेरे साथ जैसा व्यवहार किया, वैसा तो सौतेली मां भी न करती। फिर भाभी के लिए तो क्या कहूं, वह तो पराए घर की लड़की है। मेरा यह भाई, जिसे भाई कहने में भी शर्म आती है। क्या दायित्व निभाया इसने भाई होने का? जब से होश संभाला है मां तुम्हारी ही गृहस्थी को पार लगाती रही। है ना तुम्हारा यह लाडला, संभालेगा अपनी ज़िम्मेदारी, तब सारे नेग पूरे करवाना अपनी बेटियों के, जो मुझसे करवाती रहीं। जिन बेटियों का पक्ष लेकर मुझसे लड़ती रहीं। अब आए ना वो आप लोगों को संभालने। आपकी बेटियों ने भी जैसा व्यवहार मेरे साथ किया, दुश्मन भी ना करता। सुबह से रात तक काम में अपने आपको डुबोए रखा। असमय ही बूढ़ा बना दिया मुझको। क्या मेरे कुछ अरमान नहीं हो सकते हैं? इसके बारे में सोचा कभी आपने? बहुत जी ली आप लोगों के लिए। अब जीऊंगी सिर्फ़ अपने लिए और अपने बेटे के लिए।" सभी को अवाक् छोड़ वह अपने कमरे में आई। अपना सामान समेटा और अगली सुबह का इंतज़ार करने लगी, अब वह भी अपने छोटे से आशियां में अपने बेटे के साथ रहेगी। अगली सुबह जब वह सूटकेस लेकर अपने कमरे से बाहर निकली, तो देखा बैठक में पूरा परिवार जमा था। बच्चे सहमे हुए से खड़े थे। भाई ने बोलने के लिए मुंह खोला ही था कि तपाक से नेहा ने कहा, "बस! मुझे और कुछ नहीं सुनना। मेरा निर्णय अंतिम निर्णय है और इसे मैंने बहुत सोच-समझकर लिया है। बच्चों की पढ़ाई के लिए मैंने बैंक में पैसे जमा करवा दिये हैं। ये लो पास बुक और चेक बुक। मैं नहीं चाहती कि आपके साथ ये निर्दोष भी सज़ा भुगतें।" और यह कहकर अपना सामान लिए वह तीर-सी निकल गई सबको अवाक् छोड़कर। थोड़े दिनों तक वह हॉस्टल में रही। इस बीच उसे फ्लैट का कब्ज़ा मिल गया। घर का ज़रूरी सामान ख़रीदकर घर को व्यवस्थित किया। अनाथालय जाकर सारी ज़रूरी औपचारिकताएं पूरी कीं और बंटी की उंगली पकड आ गई अपने घर। बंटी घर आकर बहुत प्रसन्न था। कहने लगा, "आंटी, ये घर तो बहुत सुंदर है।" इस पर नेहा ने बंटी से कहा, "आज से मैं तेरी आंटी नहीं 'मां' हूं बेटा। बोल 'मां।" बंटी ने कहा- "मां!" नेहा ने उसे सीने से लगा लिया। उसकी आंखें नम थीं। यह ख़ुशी के भावातिरेक का संकेत था। नेहा ने निश्चय किया कि वह घर पर ही ज़्यादा-से-ज़्यादा मरीज़ देखा करेगी, ताकि बंटी के पैर को भी ठीक कर सके। अच्छे डॉक्टर को दिखाकर उसने बंटी की तकलीफ़ के बारे में जाना और सही व्यायाम, मालिश आदि करना शुरू कर दिया। बंटी अब काफ़ी ठीक हो चला था। उसका स्वास्थ्य भी अच्छा होने लगा। नेहा ख़ुश थी अपने छोटे से संसार में, अपने बेटे के साथ। ******

  • स्वयंवर

    रमाकांत द्विवेदी एक राजा की बेटी की शादी होनी थी। बेटी की ये शर्त थी कि जो भी 20 तक की गिनती सुनाएगा उसको राजकुमारी अपना पति चुनेगी। गिनती ऐसी हो जिसमें सारा संसार समा जाये। जो नहीं सुना सकेगा, उसको 20 कोड़े खाने पड़ेंगे। ये शर्त केवल राजाओं के लिए ही है। अब एक तरफ राजकुमारी का वरण और दूसरी तरफ कोड़े। एक-एक करके राजा महाराजा आए। राजा ने दावत भी रखी। मिठाई और सब पकवान तैयार कराए गए। पहले सब दावत का मजा ले रहे होते हैं। फिर सभा में राजकुमारी का स्वयंवर शुरू होता है। एक से बढ़ कर एक राजा महाराजा आते हैं। सभी गिनती सुनाते हैं जो उन्होंने पढ़ी हुई थी, लेकिन कोई भी वह गिनती नहीं सुना सका जिससे राजकुमारी संतुष्ट हो सके। अब जो भी आता कोड़े खा कर चला जाता। कुछ राजा तो आगे ही नहीं आए। उनका कहना था कि गिनती तो गिनती होती है। राजकुमारी पागल हो गई है। ये केवल हम सबको पिटवा कर मजे लूट रही है। ये सब नजारा देख कर एक हलवाई हंसने लगता है। वह कहता है, डूब मरो राजाओं, आप सबको 20 तक गिनती नहीं आती। ये सुनकर सब राजा उसको दण्ड देने के लिए बोलते हैं। राजा उनसे पूछता है कि क्या तुम गिनती जानते हो, यदि जानते हो तो सुनाओ। हलवाई कहता है, हे राजन यदि मैंने गिनती सुनाई तो क्या राजकुमारी मुझसे शादी करेगी? क्योंकि मैं आपके बराबर नहीं हूं और ये स्वयंवर भी केवल राजाओं के लिए है, तो गिनती सुनाने से मुझे क्या फायदा? पास खड़ी राजकुमारी बोलती है, ठीक है यदि तुम गिनती सुना सके तो मैं तुमसे शादी करूंगी। और यदि नहीं सुना सके तो तुम्हें मृत्युदंड दिया जायेगा। सब देख रहे थे कि आज तो हलवाई की मौत तय है। हलवाई को गिनती बोलने के लिए कहा जाता है। राजा की आज्ञा लेकर हलवाई गिनती शुरू करता है। एक भगवान, दो पक्ष, तीन लोक, चार युग, पांच पांडव, छह शास्त्र, सात वार, आठ खंड, नौ ग्रह, दस दिशा, ग्यारह रुद्र, बारह महीने, तेरह रत्न, चौदह विद्या, पन्द्रह तिथि, सोलह श्राद्ध, सत्रह वनस्पति, अठारह पुराण, उन्नीसवीं तुम और बीसवां मैं... सब हक्के-बक्के रह जाते हैं। राजकुमारी हलवाई से शादी कर लेती है। इस गिनती में संसार के सारी वस्तु मौजूद हैं। यहां शिक्षा से बड़ा तजुर्बा है। *****

  • अधूरी ख्वाहिशें

    डॉ. कृष्णा कांत श्रीवास्तव माँ के दहेज में बोन चाइना का एक नाजुक टी सेट आया था। माँ उस टी सेट को किसी खजाने की तरह संजो कर रखती थीं, हमेशा सबसे सुरक्षित जगह पर। वह कभी उसे इस्तेमाल नहीं करतीं, लेकिन गर्व से कहतीं, "ये सेट बड़े घरों के लोगों का है। देखो, ये Teacups और saucers हैं, कप को प्लेट में रखकर चाय पी जाती है। ये Teapot है, इसमें गर्म पानी डालते हैं, ये Milk/cream jug है जिसमें गर्म दूध होता है, और ये Sugar pot जिसमें शुगर क्यूब्स रखे जाते हैं। और मेहमानों से शालीनता से पूछा जाता है - ‘चीनी कितने चम्मच लेंगे?’ यही होता है बड़े घरों के लोगों का अंदाज।" टी सेट को माँ हमेशा अलमारी के ऊपरी हिस्से में रखतीं-एकदम अनछुआ। हर दिवाली उसे नीचे उतारतीं, हल्के हाथों से उसकी धूल झाड़तीं और फिर से सजाकर वापस उसी ऊँचाई पर रख देतीं। माँ का सपना था कि एक दिन उनका खुद का घर होगा, जहाँ वह इस टी सेट का इस्तेमाल कर सकेंगी। उनकी कल्पनाओं में, बालकनी में पिता जी ओवरकोट में बैठे होंगे और माँ पशमीना ओढ़े, मुस्कुराते हुए उन्हें चाय पेश करेंगी, "चीनी कितनी लेंगे?" लेकिन पिता जी की हर पोस्टिंग पर टी सेट ध्यान से पैक होकर चल पड़ता। गाँव के सरकारी क्वार्टर में तो बस जगह भर मिलती थी। डाइनिंग टेबल रखने की भी गुंजाइश कहाँ थी। हर बार पिता जी दिलासा देते, "अगली बार, घर बड़ा होगा तो टी सेट निकाल लेंगे।" पर अगली बार कभी आई नहीं। माँ के दिल में यह कसक हमेशा रही। उन्होंने हमेशा एक ऐसा घर चाहा, जिसमें एक कोना उनका हो। बालकनी में पिता जी हों, रेडियो पर समाचार की धीमी आवाज हो, और वह बड़ी सादगी से पिता जी से पूछें, "चीनी कितनी लेंगे?" समय बीत गया, माँ और पिता जी दोनों इस दुनिया से विदा हो गए। वह टी सेट आज भी अलमारी में अनछुआ रखा है। दिवाली की सफाई के दौरान जब उसकी धूल झाड़ी जाती है, तब यह एहसास होता है कि माँ का वह सपना हमेशा सपना ही रह गया, वह कभी पूछ न पाईं - "चीनी कितनी लेंगे?" अधूरी ख्वाहिशें- हर इंसान की ज़िंदगी में एक सपना होता है, छोटी-छोटी हसरतें होती हैं, जिन्हें वह बड़े जतन से संजोता है। पर हर ख्वाहिश कहाँ पूरी होती है? कई ख्वाहिशें बस इंतजार करती रह जाती हैं। आखिर में, जिंदगी की हकीकतें हमारे सपनों पर भारी पड़ ही जाती हैं। बस यही है... जिंदगी। *****

  • देर रात घर लौटते हैं

    रजनीश सचान   वे ऐसे नहीं चलते जैसे हत्या के लिए नौकरी पर रखे गए सैनिक चलते हैं वे ऐसे नहीं चलते जैसे पहलू खान के पीछे चलते गौ-रक्षक वे ऐसे नहीं चलते जैसे अँधेरा होने पर चलती हैं लड़कियाँ वे ऐसे नहीं चलते जैसे चलता है दक्खिन टोले का कोई इंसान उत्तर दिशा की तरफ़ वे ऐसे नहीं चलते जैसे हत्यारे चलते हैं भभूत लपेटे नंग-धड़ंग वे ऐसे नहीं चलते जैसे न्यूज़ स्टूडियो में चलता है कोई एंकर वे ऐसे नहीं चलते जैसे चलता है डरा हुआ तानाशाह तोप में घुसकर वे ऐसे नहीं चलते जैसे अम्बानी चलता है रोज़ अपने घर से   उनके क़दम तो ऐसे चलते हैं जैसे उँगलियाँ चलती रही होंगी बीथोवन की पियानो पर प्रेम में पगी एकदम अभ्यस्त जैसे ये पैर सिर्फ़ उसी एक रास्ते पर चलने के लिए बने हैं वे बार-बार चलते हैं उसी एक गली में बाम पर नज़रें टिकाए उनका चलना देर रात तक चलता है जब तक कि बीथोवन का वह पीस ख़त्म नहीं हो जाता जो बुना है उसने अपनी प्रेमिका की याद में प्रेमी देर रात ही घर लौटते हैं। *****

  • बदलाव

    महेश कुमार केशरी "मयंक आ रहा है। उससे पूछो उसके लिए क्या बनाऊँ। फिश करी, हिल्सा मछली, या चिकन करी, या मटन बोलो दीदी। उसको क्या पसंद है? उसको तो नानवेज बहुत पसंद है ना? चिकेन करी बनाऊँ। "कादंबरी ने हुलसते हुए मोनालिसा से पूछा। "अभी मयंक तो तेरे पास अगले सप्ताह ही जायेगा, ना। तुमने इतनी जल्दी भी तैयारी शुरु कर दी। अभी उसके पापा का सीजन का टाईम है। कोई ठीक नहीं है। मयंक जाये-जाये ना भी जाये नानी के पास। अभी मयंक के पिताजी से बात नहीं हुई है।" "फिर भी दीदी।" "ठीक है, मैं इनसे बात करके देखती हूँ। मान गये तो ठीक। नहीं तो मयंक को जब छुट्टी होगी। तो देख आयेगा नानी को और तुमसे भी मिल लेगा।" "माँ, बीमार है दीदी। और तुमको तो पता है कि नानी मयंक को कितना स्नेह या दुलार करती है। बेचारी को कितनी आशा है कि मयंक और तुमलोग उससे मिलने आओगे। और फिर तुम लोगों को तो घर-द्वार, काम-काज और बाल-बच्चों से कभी फुर्सत नहीं मिलती है ना। ये सब तो जीवन भर लगा ही रहेगा। आखिर, माँ-बाप को चाहिए ही क्या? उसकी औलादें बूढ़ापे में आकर उसका हाल-चाल लें। लेकिन‌ किसको कहाँ समय और फुर्सत है। सब लोग दुनियादारी में व्यस्त हैं। और माँ-बाप उनकी तरफ टकटकी लगाये ताक रहें हैं। सोचते हैं कि बच्चों को फुर्सत होगी तो एक नजर उनको आकर देख लेंगे। माँ-बाप अपने बच्चों से कुछ माँगते थोड़ी हैं। बस इतना चाहते हैं। कि वे उनका हाल-चाल ले लें। थोड़ा बहुत करीब बैठकर बातचीत ही कर लें। इतना ही उनके लिया बहुत है। खैर, मैं तुमसे बहुत छोटी हूँ। तुमको भला क्यों समझा रही हूँ? तुम भी तो बाल-बच्चों वाली हो। तुम्हें भी तो भला इसकी समझ होगी।" कादंबरी का गला भींगने लगा था। भावुक तो मोनालिसा भी हो गई थी। वो भी तो जड़ और निपट गँवार हुई जाती है। इस घर और गिरस्ती के फेर में। आखिर क्या करे वो भी। सुबह की उठी-उठी रात कहीं ग्यारह-बारह बजे तक उसको आराम मिलता है। फिर घर में चार-पाँच बजे से ही खटर-पटर चालू हो जाती है। बीस-पच्चीस साल इस घर गिरस्ती को जोड़ते हुए दिन पखेरू की तरह उड़ गये। मयंक के पापा को दुकान जाने में देरी हो रही थी। वो बैठक से नाश्ते के लिये आवाज लगा रहे थे। "अरे नाश्ता बन गया हो तो दे दो। मुझे जल्दी से निकलना है। अगर देर होगी तो कह दो। बाहर जाकर ही कर लूँगा।" नरेश जी की आवाज मोनालिसा के कानों में पड़ी। ये आवाज फोन के स्पीकर से कादंबरी क़ो भी सुनाई पड़ी। कादंबरी बोली -"दीदी, मयंक को फोन दो ना। उससे ही पूछ लेती हूँ। उसको जन्मदिन पर क्या खाना पसंद है।" "हाँ, ये ठीक कहा तुमने। देती हूँ मयंक को फोन। ठीक भी रहेगा। मौसी समझे और मयंक समझे। मम्मी को भला क्या मतलब। लेकिन, सुनो मैं ठीक-ठाक तो नहीं कह सकती। लेकिन, मयंक के पापा भी अगर हाँ कहेंगे। तभी मैं मयंक को तुम्हारे पास उसके जन्मदिन पर भेजूँगी। तुम्हें तो पता है। सर्दियों के मौसम में गद्दे-कंबल और रजाई की बिक्री दुकान में कितनी बढ़ जाती है। दो-तीन आदमी अलग से रखने पड़ते हैं। बाबूजी से हाँलाकि कुछ नहीं हो पाता। तब भी वो गल्ले पर बैठते हैं। दो-तीन लोग हर साल हम लोग बढ़ाते हैं। लेकिन काम हर साल जैसे बढता ही चला जाता है।" "काम कभी खत्म होने वाला नहीं है, दीदी। आदमी को मरने के बाद ही फुर्सत मिलती है। दीदी मयंक को फोन दो ना।" मोनालिसा ने मयंक को आवाज लगायी -"बेटा मयंक मौसी का फोन है।" मयंक चहकते हुए किचन में आकर कादंबरी से बात करने लगा -"हाँ, मौसी।" "तुम आ रहे हो ना अगले सप्ताह। उस दिन तुम्हारा जन्मदिन भी है। बोल खाने में क्या बनाऊँ। चिकन करी, मीट या मछली।" "जो तुम्हें अच्छा लगे मौसी बना लेना।" कुछ ही दिनों में सप्ताह खत्म होकर वो दिन भी आ गया। जिस दिन मयंक को मौसी के यहाँ जाना था। मयंक ने सुबह की बस ली थी। रास्ते भर वो आज के खास दिन को वो याद करके रोमांचित हो रहा था। सब लोगों ने उसको बधाई संदेश भेजा था। दोस्तों ने। माँ-पापा बड़े भइया और लोगों ने भी। दादा-दादी ने भी उसके लालाट को चूमा था। उसको आशी दीदी ने तो निकलते समय उसकी आरती करी थी। उसको रोली का टीका और अक्षत लगाया था। और फिर उसको यात्रा में निकलने से पहले उसके मुँह में दही-चीनी खिलाकर विदा किया था। दोस्तों से भी उसको बधाई संदेश सुबह से मिलते आ रहे थे। वो सुबह उठकर सबसे पहले दादा-दादी के कमरे में गया था। जहाँ उसने अपने दादा दादी से आशीर्वाद लिया था। और उसके बाद उसने माँ-पापा का आशीर्वाद पैर छूकर लिया था। सब लोग बड़े खुश थे। नाश्ते में उसने खीर-पुडी, और मिठाई खाई थी। ठंड की सुबह धूप भी बहुत मीठी-मीठी लग रही थी। घर के सब लोगों ने उसकी यात्रा सुखद और शुभ हो इसकी कामना की थी। दरअसल वो अपनी मौसी से मिलने और अपनी नानी को देखने के लिए शहर जा रहा था। उसकी नानी बीमार चल रही थी। नानी का बडा मन था कि मरने से पहले वो मयंक को एक बार देख लें। वो मयंक के माँ से बार-बार कहतीं कि मेरी साँसों का अब कोई आसरा नहीं है। ज्यादा दिन बचूँ-बचूँ ना भी बचूँ। इसलिए मयंक को और तुम लोगों को एक बार देख लूँ। तुम मयंक को एक बार मेरे पास भेज दो। और समय निकालकर एक बार तुम लोग भी आकर मुझसे मिल लो। पता नहीं कब मेरा समय पूरा हो जाये। मयंक की सेवा उसकी नानी ने बचपन में खूब की थी। नानी से मयंक को कुछ खास लगाव भी था। वो अपने ननिहाल में सबसे छोटा भी था। बस चल पड़ी थी। खिड़की से खूबसूरत मीठी धूप मयंक के चेहरे पर फैल रही थी। कत्थई स्वेटर पर धूप पड़कर मयंक के शरीर को एक अलहदा से सुकून पहुँचा रही थी। अभी उसका सफर भी बहुत लंबा था। मीठी धूप और स्वेटर की गर्मी ने मयंक को अपने आगोश में ले लिखा था। मयंक अपने बचपन में चला गया था। उसका ननिहाल, उसके गाँव के घर में नानी छोटे-छोटे चूजे पालती थी। नन्हें-नन्हें चूजे एक दूसरे के पीछे भागते तो मयंक उनको हुलस कर देखता। वो अपनी थाली की रोटी और कभी चावल के टुकड़े नानी और माँ-मौसी से छुपाकर उन चूजों को खिला देता। उसके शहर वाले घर में एक मछलियों से भरा पाट था। उसमें मछलियों को तैरते देखता तो उसे बड़ा अच्छा लगता। देखो लाल वाली मछली आगे तैरकर काली वाली मछली से आगे बढ़ गई है। औरेंज वाली मछली कैसे बहुत धीरे-धीरे चल रही है। अचानक से बस कहीं झटके से रूकी और मयंक की नींद खुल गई। उसका स्टाप आ गया था। मयंक बस से नीचे उतरा। तो उसको वही छोटे-छोटे चूजे और पाट की मछलियों की याद आने लगी। एक बारगी वो बड़ा होकर भी अपने बचपन को याद करने लगा। उसको वो आगे-पीछे भागते रंग-बिरंगे चूजे बहुत प्यारे लगते थे। उसको पाट की रंग-बिरंगी और एक दूसरे के आगे-पीछे भागती हुई मछलियाँ भी बहुत भाती थी। वो सोचने लगा आज कितना शुभ दिन है। आज उसका जन्मदिन है। और आज वो उन चूजों को उन रंग-बिरंगी मछलियों को खायेगा। अपने जन्मदिन पर वो किसी की हत्या करेगा। इस शुभ दिन पर। नहीं-नहीं वो ऐसा बिल्कुल नहीं करेगा। वो आज क्या कभी भी अब किसी जानवर की हत्या केवल अपने खाने-पीने के लिये कभी नहीं करेगा। नहीं-नहीं ऐसा वो बिल्कुल भी नहीं करेगा। बल्कि आज क्या वो आज से कभी भी जीव की हत्या नहीं करेगा। चूजों के साथ-साथ उसे नानी भी याद आ गयी। वो कुछ सालों पहले एक बार नानी से मिला था। नानी के पैर अच्छे से काम नहीं कर रहे थे। वो बहुत धीरे-धीरे बिलकुल चुजों की तरह चल रही थी। रंग-बिरंगी  मछलियों की तरह रेंग रही थी। मयंक के आँखों के कोर भींगने लगे। उसने रूमाल निकालकर आँखों को साफ किया। फिर फोन निकालकर कादंबरी मौसी को लगाया -"मौसी, आप पूछ रही थीं ना कि मैं, मेरे जन्मदिन पर क्या खाऊँगा।" "हाँ, मयंक तुम इतने दिनों के बाद हमारे घर आ रहे हो। तुम्हारी पसंद का ही आज खाना बनेगा। तुम्हारे मौसाजी, मछली या चिकन लेने के लिए निकलने ही वाले हैं। बोलो बेटा क्या खाओगे? आज तुम्हारी पसंद का ही खाना बनेगा।" "मौसी मेरी बात मानोगी। आज मेरा जन्मदिन है। और मैं अपने जनमदिन पर किसी की हत्या नहीं करना चाहता। और अपने ही जन्मदिन क्यों बल्कि किसी के जन्मदिन पर भी मैं किसी की हत्या करना या होने देना पसंद नहीं करूँगा। आज से ये मैं प्रण लेता हूँ। कि, कभी भी अपने जीभ के स्वाद के लिए किसी भी जीव-जंतु की हत्या नहीं करूँगा।" दूसरी तरफ कादंबरी सकते में थी। उसको कोई जबाब देते नहीं बन रहा था। उसने फिर से एक बार मयंक को टटोलने की गरज से पूछा-"अच्छा ठीक है। आज भर खा लो। तमको तो पसंद है ना नानवेज। अपने अगले जन्मदिन पर अगले साल से मत खाना।" "नहीं मौसी। मैनें आज से ही प्रण लिया है कि मैं अब अपने स्वाद के लिये किसी जीव की हत्या नहीं करूँगा।" "ठीक है, तब क्या खाओगे?" "खीर-पूड़ी ..।"  "ठीक है, तुम घर आओ, नानी से मिलो। तुम्हारे लिये खीर पुड़ी बनाती हूँ।" ******

  • शेरशाह का न्याय

    वृंदावनलाल वर्मा वह नहा रही थी। ऋतु न गरमी की, न सर्दी की। इसलिए अपने आँगन में निश्चिंतता के साथ नहा रही थी। छोटे से घर की छोटी सी पौर के किवाड़ भीतर से बंद कर लिए थे। घर की दीवारें ऊँची नहीं थीं। घर में कोई था नहीं, इसलिए वह मौज के साथ नहा रही थी। सुंदरी थी, युवती, गोरी नारी। पानी के साथ हँसते-मुसकराते आमोदमग्न थी। पठान बादशाह शेरशाह सूरी का शाहजादा इस्लामशाह झूमते हुए हाथी पर सवार, उसी घर के सामनेवाली सड़क से चला आ रहा था – कारचोबी, जरतार की अंबरी, सुनहला रुपहला हौदा, गहरे हरे रंग की चमकती हुई मखमल की चाँदनी, हौदे पर चमकते हुए मोतियों की झालरें चाँदनी के सुनहले बेलबूटों से दमक में होड़ लगानेवाली। हौदे में शाहजादे के घुटने के पास ही पच्चीकारी के कामवाला सोने का पानदान भी रखा था। पानों पर सुनहले वर्क चढ़े हुए। कुछ उसके मुँह में भी थे। वर्क की एकाध चिंदी होंठों की मोटाई और कोनों पर थी। वह मजे में पान चबा रहा था, धीरे-धीरे मिठास ले रहा था।

  • यमराज का बेटा

    प्रभा कांत द्विवेदी यमलोक में आज यमराज कुछ उक्ताए हुए से टहल रहे थे। वैसे तो यमलोक स्वर्गलोक का ही एक हिस्सा था, मगर स्वर्ग से बिलकुल अलग-ढलग सा... यहां न तो स्वर्ग वाले बागीचे, पहाड़ और झरने थे, ना कोई मधुर संगीत या नृत्य करती हुई अप्सराओं के घुंघरू की झंकार सुनाई देते थे, और चौबीसों घंटे नीम अंधेरा सा छाया हुआ रहता था। इन सब बातों की तो यमराज को आदत थी, क्योंकि उन का प्राण हरने का कार्य उन्हें काफी व्यस्त रखता था, और काम समाप्त होने के बाद उन्हें ऐसे ही वातावरण में शांति मिलती थी। मगर आज उन की प्राण हरने की सूची में किसी का भी नाम नहीं था। मृत्युलोक से भी वे काफी परिचित थे, क्योंकि वहां का तो उन का प्रतिदिन आना-जाना लगा रहता था। लेकिन उस समय उन का ध्यान मात्र उन लोगों पर रहता, जिनके उन्हें प्राण हरने होते थे। आज जब की उन्हें वहां कोई काम नहीं था, उन की दृष्टि दूर दिखने वाले मृत्युलोक के गोले पर पड़ी। कुछ देर तक यूं ही उस तरफ ताकते रहने के बाद, उनको लगा कि मृत्युलोक के किसी एक खास हिस्से में अजीब सा कुछ चल रहा था। उन्होंने अपनी दूर की दृष्टि सक्रिय कर के, उस तरफ केन्द्रित कर के देखा, तो एक जवान लड़की किसी पुरुष से बड़े जोरों का झगड़ा कर रही थी। यमराज बस उसे देखते ही रहे गए। उस गौरवर्ण लड़की के गाल गुस्से से तमतमा कर लाल हो गए थे। बड़ी बड़ी आंखों से जैसे चिंगारियां फूट रही थी। गुस्से से वो जब अपना सिर झटकती थी, तो उसकी काली नागिन सी लंबी चोटी नितंब पर ज़ोर से झूल जाती, और झटका यमराज के हृदय को लगता। थोड़ी देर में, एक बूढ़ा एक छोटे से घर से बाहर आया और बोला, "लता बेटी, अब गुस्सा थूक दे, झगड़ा मत कर... चल, आ, अंदर आजा", और किसी तरह से समझा बुझा के, उस का हाथ पकड़ के, लड़की को घर में ले गया। "उफ्फ!" यमराज ने सोचा, "सही जीवन तो बस मृत्युलोक में ही है।" "मेरा अस्तित्व भी कोई अस्तित्व है? प्राण हारना, और बस प्राण हारना। और लोगों के चहेरे पर सिर्फ दो ही भाव देखने को मिलते हैं, या तो पीड़ा, या फिर भय! तंग आ गया हूं मैं इस अस्तित्व से। ना कोई मित्र है न साथी। अगर इस लता जैसी स्त्री का साथ मिल जाए तो.... क्या स्त्री है वोह भी! कैसे लड़ रही थी। मुझ जैसे मृत्यु के देवता के बिलकुल लायक!" क्षणभर के लिए उन्होंने सोचा कि ईश्वर से विनती करके वे लता के प्राण हरकर उसे यमलोक ले आएं। मगर फ़िर उन्हें याद आया कि यमलोक में तो कोई शरीर या फिर आत्म भी नहीं रहे सकती। उन्होंने मन ही मन कोई निश्चय किया, और ईश्वर के पास जाके, प्रणाम करके, उनके चरणों में बैठ गए। "क्या बात है यमराज?" ईश्वर ने मुस्कुरा कर पूछा। "कुछ व्याकुल लग रहे हो। कोई समस्या?" "प्रभु, वैसे तो कोई समस्या नहीं", यमराज हाथ जोड़ कर बोले, "मगर लाखों वर्षों से यह प्राण हरने का कार्य करते करते उक्ता गया हूं। और कोई दूसरा अनुभव तो मुझे मिला ही नहीं इतने सालों में!" "यमराज", ईश्वर बोले "सब से आसान काम तो आप ही के हिस्से में है। सिर्फ प्राण हर के चित्रगुप्त के हवाले ही तो करना है। ऊपर से भैंसे पर सवार हो के पूरे ब्रह्मांड की प्रतिदिन सैर करते हो! और आप का रोब भी कितना! पूरा संसार कांपता है आप के नाम से!" "यही तो बात है प्रभु!" यमराज बोले। "तंग आ गया हूं मैं लोगों के दुखी और भयभीत चेहरे देख देख के! अब मुझे लोगों का डर नहीं, प्रेम चाहिए। किसी स्त्री का स्नेह और मुलायम स्पर्श चाहिए।" "यह तो शक्य नहीं है यमराज", ईश्वर ने कहा। "यमलोक में तो कोई भी जीव नहीं रहे सकता। "इसी लिए प्रभु, मेरी लाखों वर्ष की सेवा के बदले मुझे अब निवृत्ति भेंट दे दीजिए।" यमराज ने कहा। "निवृत्ति पा कर करोगे क्या?" ईश्वर ने आश्चर्य से पूछा। "मैंने मृत्युलोक के भारतवर्ष में लता नामक एक स्त्री देखी है।", यमराज थोड़ा शरमा कर बोले। मैं उसी को अपनी जीवनसंगिनी बनाना चाहता हूं। मैं भी चाहता हूं कि मेरा एक छोटा सा घर हो, संतान हो.... प्रभु, यदि आज तक की मेरी सेवा से आप प्रसन्न हैं तो मुझे मानव अवतार का वरदान दे दीजिए।" यमराज ने हाथ जोड़ कर ईश्वर से विनती की। "कौन, वोह बूढ़े की बेटी लता? यमराज कहीं पगला तो नहीं गए हो?" ईश्वर इतने चौंक गए थे यमराज की बात सुनकर, कि क्षणभर के लिए अपना ऐश्वर्य भूल गए। और फिर बोले,"अरे, वोह लता कैसी है, यह मैं जानता हूं। मैंने बनाया है उसे। दुखी हो जाओगे यमराज! उस का विचार निकाल दो मन से, और शांति का जीवन व्यतीत करो, जैसे आज तक करते आए हो।" लेकिन यमराज ने भी ठान ली थी। वे तो ईश्वर के चरण पकड़ कर बैठ गए, और तब तक चरणों को पकड़े रखा, जब तक ईश्वर ने उन की बात नहीं मानी। आखिरकार थक हार के ईश्वर को यमराज की बात माननी ही पड़ी। "ठीक है यमराज, जाओ। लेलो मानव अवतार का अनुभव! लेकिन याद रहे, एक बार मृत्युलोक में जाओगे तो फिर कभी वापस नहीं आ पाओगे। मैं आप को फिर से स्वीकार नहीं करूंगा।" "जो आज्ञा प्रभु!" खुश हो कर यमराज बोले। ईश्वर ने आगे कहा, "मृत्युलोक के वस्त्रों की एक जेब में आप को कुछ मुद्राएं मिलेगी। उन मुद्रा के बिना मृत्युलोक में एक भी काम नहीं होता। संभाल के खर्च करना इन मुद्राओं को। थोड़ी सी ही हैं, जो आप की शुरुआत के लिए काम आएगी। आगे चल के, बाकी जीवन व्यतीत करने के लिए आप ही को काम-काज करके ऐसी और मुद्राएं कमानी होगी।" इतना कहे के, आशीर्वाद देके ईश्वर ने यमराज को मृत्युलोक की और रवाना कर दिया। यमराज जब मृत्युलोक में बसने के लिए आए, तो वे मृत्युलोक के सीधे सादे वस्त्र धारण किए हुए, एक सुंदर से युवान के रूप में आए। ईश्वर ने उन्हें लता जिस मोहल्ले में रहती थी, वहीं उतारा था। एकाध दिन मोहल्ले में इधर-उधर घूमने के बाद उन्हें जीवन में पहेली बार भूख का अनुभव हुआ। पहले तो उन्हें पता नहीं चला कि इसके लिए क्या किया जाए। लेकिन फिर उन्हें हलवाई की दुकान दिखी, और वहां से आती पकवानों की सुगंध से उन को मिठाई खाने का मन हुआ। दुकान पर जाके उन्हों ने कुछ मिठाई मांगी, तो हलवाई ने उन से पैसे मांगे। यमराज को ईश्वर की बात याद आई, और उन्होंने जेब में हाथ डाल कर थोड़ी सी मुद्राएं दे कर मिठाई खरीद के खाई। आज उन्हे भूख की व्यथा, और खाने की संतुष्टि का अनुभव हुआ, और यह भी ज्ञान हो गया, कि जल्दी ही उन्हें कुछ काम ढूंढना पड़ेगा, जिससे की वोह और मुद्राएं कमा सकें। वे मोहल्ले में घूमते-फिरते लता को देखते रहते, और जितना उसे देखते उतना ही उस के प्रति और आकर्षित होते रहते। फिर एक दिन उन्हें पता चला कि लता के घर के बिलकुल सामने ही एक बूढ़े वैद्य की हाट, और हाट के पीछे एक छोटा सा घर भी था जो कि वोह वैद्य बड़े सस्ते में बेच रहा था, और निवृत्ति पाकर काशी जा बसना चाहता था। यमराज को लगा कि अगर यह घर और हाट उसे मिल जाए तो बस, बात ही बन जाए। बूढ़े वैद्य के साथ कुछ मोल-भाव कर के, अपने जेब की सारी मुद्राएं उन्होंने उस के सामने रख दी। उस वैद्य को भी अपनी मिल्कियत की कीमत एक साथ मिल रही थी इस लिए वह भी थोड़े से कम दाम लेने को तैयार हो गया। उसने यमराज को हाट में रखे कुछ औषध और जड़ी-बूटी से परिचित करवाया, और अपने आयुर्वेद की पोथी भी उन्हें दे दी, जिसमे उस के जीवनभर के वैद्य ज्ञान का निचोड़ था। यमराज कुछ दिन के लिए तो हाट बंद रख के उन औषधों और पोथी में खोए रहे, और जब उन्हें लगा कि लोगों की बीमारी का उपचार करने को कुछ कुछ सक्षम हो गए हैं, तब साफ सफाई करके उन्होंने हाट खोली। धीरे धीरे लोग उपचार के लिए उन के पास आने लगे, और उन की अच्छी खासी कमाई भी होने लगी। प्राण हरने वाले, कुछ हद तक प्राण बचाने वाले बन गए। लता का बूढ़ा बाप भी बीमार रहता था, तो वह भी यह युवा वैद्य की हाट पर पिता के लिए दवाइयां लेने आने लगी। दोनों के बीच परिचय बढ़ा, और एक दिन यमराज ने उस के सामने विवाह का प्रस्ताव रख दिया, जो कि लता ने स्वीकार लिया, और यमराज का घर संसार भी शुरू हो गया। विवाह के एक साल बाद लता ने एक सुंदर से बेटे को जन्म दिया। लेकिन विवाह के कुछ ही महीनों ही बाद यमराज को पता चल गया कि लता ग़ज़ब की लड़ाकू थी। बेटे के साथ वह जितनी प्रेमल थी, पति के साथ इतनी ही कठोर। यमराज तो उस की एक दहाड़ से कांप जाते थे। एक बार तो झगड़ा करते करते लता ने उन्हें मारने के लिए मुसला उठा लिया। यह देख के यमराज एक ही छलांग लगा कर घर से लपक निकले, और वो भागे, वो भागे, की मृत्युलोक से सीधे स्वर्गलोक में, ईश्वर के चरणों में जा गिरे! "क्षमा प्रभु, क्षमा!" वे बोल पड़े। "बचा लो मुझे! बड़ी गलती हो गई मुझसे, कि आप की बात टाली मैंने! दुखी हो गया हूं उस स्त्री से मैं! मुझे बचा लो प्रभु!" "अब तो कुछ नहीं हो सकता यमराज", ईश्वर ने कुछ गंभीर मुखमुद्र धारण कर के कहा। "याद है, मैने आप से कहा था कि एक बार मृत्युलोक में जाओगे, तो वापस यमलोक नहीं आ पाओगे?" "सब याद है प्रभु!" यमराज गिड़गिड़ा कर बोले। "बड़ी भूल हो गई मुझसे! मुझे फिर से स्वीकार लो! अब कभी ऐसी भूल नहीं होगी!" सच पूछो तो ईश्वर भी मन ही मन बड़े प्रसन्न हुए थे यमराज को देख कर। इन दोएक वर्षो में उन्हें कोई ऐसा नहीं मिला था जो कि व्यवस्थित ढंग से प्राण हरने का कार्य कर सके। कभी कोई किसी की मृत्यु की घड़ी टाल देता था, तो कभी कोई गलत व्यक्ति के प्राण हर लाता था। पूरी सृष्टि का जन्म-मृत्यु का संतुलन बिगड़ा पड़ा था। अब यमराज को देख कर ईश्वर ने मन में योजना बना ली, कि अब संसार में कोई महामारी फैला कर, यमराज द्वारा ढेर सारे प्राण हरवा कर यह बिगड़ा हुआ संतुलन ठीक किया जा सकता है। उन्होंने जैसे उपकार करते हुए कहा, "ठीक है यमराज, इस बार पहेली गलती समझ के क्षमा कर देता हूं। याद रहे आगे चलके ऐसी भूल नहीं होनी चाहिए। अब भूल जाओ सब कुछ, और काम पे लग जाओ।" फिर तो क्या था? यमराज अपने प्राण हरने के काम पर लग गए। लता अकेली बेटे को बड़ा करने लगी। उस के लाड़-प्यार ने बेटे को पूरी तरह बिगाड़ के रख दिया था। न तो वह कुछ पढ़ाई करता था, न ही कोई काम करता था। ऐसे ही कुछ वर्षों बाद, लता की मृत्यु की घड़ी तय हो गई, तो यमराज उस के भी प्राण हर के ले आए। लेकिन लता की मृत्यु के पश्चात, यमराज को बेटे की बड़ी चिंता होने लगी। वे जानते थे, कि लता के लाड़-प्यार के कारण न तो उन का बेटा पढ़ा था, और ना ही कुछ काम के योग्य था। एक दिन उन्होंने बेटे को स्वप्न में दर्शन दिए। "बेटा, कुछ काम कर लो। बिना काम किए मृत्युलोक में नहीं जी पाओगे। एक काम करो, मेरी जो वैद्य वाली हाट है वोह खोलो। उस में जो मेरी पोथी है वह पढ़ो।  पुराने औषध सब फैंक दो, और पोथी में बताई विधि के अनुसार जड़ी-बूटी ला के नए औषध तैयार कर के वैद्य का काम शुरू कर दो। सामान्य बीमारियां तो थोड़ी बहुत गलत दवाई से भी ठीक हो ही जाएगी। लेकिन जिनकी बीमारी गंभीर है, उन बीमारों को जब तुम देखने जाओ, तो उन के सिरहाने की तरफ दृष्टि करना। अगर मुझे वहां बैठा पाओ तो समझ लेना कि उन की मृत्यु निश्चित है। उन का उपचार हाथ मत धरना। अगर मुझे वहां बैठा न पाओ तो उन का उपचार शुरू कर देना। क्योंकि उन की मृत्यु निश्चित नहीं हुई है, वह भी धीरे-धीरे ठीक हो ही जाएंगे। इस से होगा यह कि एक पारखी वैद्य के तौर पे तुम्हारी ख्याति हो जाएगी" पिता से इतना मशवरा पा कर लड़के की आंख खुल गई। उस ने बिलकुल वही किया जो उस के पिता ने स्वप्न में बताया था। धीरे-धीरे एक काबिल वैद्य के तौर पे उस की ख्याती चारों और फैल गई..... कि जिस बीमार का उपचार युवा वैद्य हाथ धरते हैं, वोह बीमार हमेशा ठीक हो ही जाता है, और जो मरने वाला होता है उस की मृत्यु के बारे में वैद्य एक ही दृष्ट में बता देते हैं। ऐसे में हुआ यों कि एक दूर देश के राज्य की राजकुमारी बीमार हो गई। कईं वैद्य-हकीमों के उपचार से कोई फायदा नहीं हुआ। राजकुमारी की सेहत दिन प्रतिदिन बिगड़ती जा रही थी। राजा ने ऐलान करवाया, कि जो भी राजकुमारी को ठीक कर पाएगा, उस का विवाह राजकुमारी से करवाया जाएगा, और आधा राज्य भी उसे पुरस्कार स्वरूप दिया जाएगा। इसके बाद तो देश भर के वैद्य, हकीम, नीम-हकीम, टोना-टोटका करने वाले सब ने राज-महल जाके अपनी विद्या और अपने नसीब को परखा, लेकिन कोई भी सफल नहीं हुआ। जब राजा-रानी लगभग निराश हो चुके थे, तब एक दिन एक मंत्री समाचार लाया, कि दूर के एक प्रदेश में एक युवा वैद्य है, जिस का उपचार अमोघ है। राजा ने यमराज के बेटे को तत्काल आने का संदेशा ले कर सैनिकों को भेजा। युवा वैद्य आया, और जैसे ही राजकुमारी के भवन में पैर रखा, तो उस ने अपने पिता को राजकुमारी के सिरहाने पाया, और उस का दिल डूब गया। उस ने राजकुमारी के साथ पूर्ण एकांत की विनती की, और अपने आप को को बेहोश राजकुमारी के साथ भवन में बंद कर दिया। भवन के द्वार बंद होते ही उसने अपने पिता को प्रणाम किया, और फिर बोला, "बापू, आप राजकुमारी का सिरहाना छोड़ के चले जाओ। आप तो जानते हो कि यदि मैंने इसे बचा लिया तो मेरा भविष्य उज्जवल हो जाएगा।" "जानता हूं बेटे", यमराज बोले। लेकिन किस के प्राण हरने हैं, और कब हरने हैं, यह निर्णय मेरा नहीं, ईश्वर का होता है। मैं तो सिर्फ उन की आज्ञा का पालन करता हूं। और ईश्वर की आज्ञा का उल्लंघन तो मैं नहीं कर सकता।" बेटा लाख गिड़गिड़ाया, लेकिन बाप ने उस की एक नहीं सुनी। फिर बेटे ने पूछा, "कब की है राजकुमारी की मृत्यु की घड़ी?" "आज से ठीक तीन दिन बाद, प्रातः चार बजे की।" पिता ने बताया। "तो फिर बापू, आप अभी तो यहां से चले जाओ ना?" बेटा बोला "तीन दिन बाद, मृत्यु की घड़ी पर ही आना यहां। एक पिता होने के नाते आप इतना तो कर ही सकते हो ना मेरे लिए?" "हां, इतना तो मैं कर ही सकता हूं", पिता ने कहा, "पर इससे तुम्हारा क्या फायदा होगा, बेटा? तीन दिन बाद तो मैं आ ही जाऊंगा, और इस के प्राण हर ही लूंगा।" "वोह आप मुझ पर छोड़ दीजिए," बेटा बोला। "मैं कोई उपाय सोचना चाहता हूं, और आप के यहां रहते मैं कुछ सोच नहीं पाऊंगा।" यमराज हंस पड़े, "बेटा, इस में तुम्हारा सोचा या मेरा सोचा कुछ नहीं होगा। होगा वही, जो ईश्वर ने निर्धारित किया है। लेकिन तुम इतना कहे रहे हो, तो अभी के लिए मैं चला जाता हूं। मेरे जाते ही राजकुमारी की तबियत थोड़ी ठीक भी हो जाएगी। लेकिन याद रहे, इस बात को ले कर ज्यादा खुश मत होना, क्योंकि उस की मृत्यु की घड़ी पर जैसे ही मैं आऊंगा, वोह अचानक से मृत्यु को प्राप्त हो जाएगी।" बेटा कुछ नहीं बोला और उसने हाथ जोड़ कर पिता को प्रणाम किया, और यमराज वहां से लुप्त हो गए। यमराज के वहां से जाते ही राजकुमारी की सांसों की गति ठीक हो गई। उस के अब तक ठंडे पड़े हाथ पैरों में गर्मी आ गई। युवा वैद्य ने राजा और रानी को संदेशा भेजा की राजकुमारी थोड़ी ठीक है, और वह दोनों उसे कल सुबह देखने आ सकते हैं। राजा-रानी जब बेटी को देखने आए, तब तो बेटी की आंख भी खुल चुकी थी,और युवा वैद्य उसे कुछ औषधि पीला रहा था। बेटी को बड़े दिनों बाद होश में पाकर राजा-रानी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। लेकिन युवा वैद्य ने कहा कि तीन दिन तक सिर्फ माता-पिता ही मिल सकते हैं राजकुमारी से, और वह भी सिर्फ आधे घंटे के लिए..... बाकी उसे पूर्ण एकांत चाहिए राजकुमारी के साथ, उस के उपचार के लिए। असल में उसे एकांत चाहिए था सोचने के लिए, कि किस तरह वोह अपने पिता को मात दे, और राजकुमारी की मृत्यु को टाल दे। ना तो वह रातों को सो पाता था, ना ही दिन को कुछ खा पाता था। पहरेदारों, सेवकों और राजा-रानी को लगता था कि युवा वैद्य राजुमारी की सेवा में इतने व्यस्त हैं कि उन्हें ना तो अपने खान-पान का, और ना ही नींद का होश है। मगर सच बात तो यह थी कि वह चिंता और सोच में डूबा हुआ था, और सिर झुकाए बस राजकुमारी के भवन में टहलता रहता था। तीन दिन तो जैसे तीन घड़ी में बीत गए! अभी तक उसे कोई उपाय नहीं सूझा था। राजकुमारी की निर्धारित मृत्यु की आखरी रात के साढ़े तीन बज चुके थे। राजकुमारी शांति से सो रही थी, मगर यमराज के बेटे को पता था कि उस की मृत्यु की घड़ी में बस आधा घंटा बाकी था। तभी अचानक उसे एक युक्ति सुझी, और मारे खुशी के वोह लगभग नाच उठा। अब उसे इस आधे घंटे की एक-एक घड़ी एक-एक साल जितनी लंबी लगने लगी। काफी राह देखने के बाद सुबह के चार बज गए, और उसी क्षण में यमराज प्रकट हुए। वह जैसे ही प्रकट हुए, बेटा पीछे मुड़ कर बोला, "मां! जल्दी आ जाओ! बापू आ गए!" बस, इतना सुनते ही मारे डर के यमराज वोह भागे, वोह भागे, कि सीधे यमलोक पहुंच गए। यहां, राजकुमारी की मृत्यु की घड़ी टल गई। और मृत्यु की घड़ी टलते ही, उसकी सेहत बड़ी तेज़ी से ठीक होने लगी। राजकुमारी के ठीक होते ही, यमकुमार से उस का ब्याह हो गया, और अपने वचन के अनुसार, राजा ने उसे अपने आधे राज्य से भी पुरस्कृत किया। अब यमकुमार इस पृथ्वी के एक छोटे से राज्य का राजा भी बन गया। ******

  • जीत की बात

    सतीश सक्सेना ओठों पर आ जाए जो उस गीत की बातें करते हैं! जो मन को छू जाये उसी संगीत की बातें करते हैं! अम्मा दादी नानी बाबा से हम चलना सीखे हैं, स्नेही आँचल में कटे, अतीत की बातें करते हैं! जीवन भर तस्वीर संजोये, लेकिन ढूंढ न पाए हैं, अपने सपनों में आये उस मीत की बातें करते हैं! हमको कौन शाबाशी देगा, सन्नाटों में रहते हैं! कब्रों के संग बैठ जमीं से, प्रीत की बातें करते हैं! कंगूरों से रही लड़ाई, इंसानों से प्यार किया! ऐसे बुरे समय में भी हम, जीत की बातें करते हैं। ******

  • ज़िंदगी का पाठ

    आदित्य कुमार बाजपेई "माँ, आप अपनी सीखें अपने पास ही रखिए। आप पुराने ज़माने की हैं। आपको कुछ पता नहीं। मैं आदित्य के साथ और नहीं रह सकती। हमारा रिश्ता अब पहले जैसा नहीं रहा। मैं इसे यहीं खत्म करना चाहती हूँ। इसमें गलत क्या है?" नेहा ने गुस्से में कहा। अमिता ने संयम रखते हुए उत्तर दिया, "बेटा, हम तो पुराने ज़माने के लोग हैं। तुम्हारे जैसे मॉडर्न नहीं, जो आज पति से मन भर गया तो रिश्ता खत्म करने की बात करने लगें। तुम्हें एहसास हो रहा है कि आदित्य तुम्हारे टाइप का नहीं है, जबकि तुमने खुद उसे चुना था।"

  • विवाह की बैठक

    राजीव लोचन विवाह की चर्चा चल रही थी। दोनों परिवारों ने लड़का और लड़की को आपस में बात करने का मौका दिया ताकि वे एक-दूसरे को समझ सकें। दोनों को अकेले छोड़ा गया, और लड़के ने बिना समय गंवाए बात शुरू की। लड़के की बात: "मेरा परिवार मेरे लिए सब कुछ है। माँ को एक ऐसी बहू चाहिए जो पढ़ी-लिखी हो, घर के कामों में निपुण हो, संस्कारी हो और सबका ख्याल रख सके, मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर चले। हमारा परिवार पुराने ख्यालों का तो नहीं है, लेकिन इतना जरूर चाहता है कि नई बहू हमारे रीति-रिवाजों को अपना ले। भगवान की कृपा से हमारे पास सब कुछ है। हमें आपसे दहेज या किसी और चीज की ज़रूरत नहीं। बस एक ऐसी लड़की चाहिए जो घर को जोड़कर रख सके। मेरी अपनी कोई विशेष पसंद नहीं है। मुझे एक ऐसी जीवनसाथी चाहिए जो मुझे समझे, थोड़ा देश-दुनिया की जानकारी रखे। हाँ, लंबे बाल और साड़ी पहनने वाली लड़कियाँ अच्छी लगती हैं। आपकी कोई इच्छा हो तो बताइए।" लड़के ने अपनी बात पूरी की और लड़की की ओर देखने लगा। लड़की का उत्तर: लड़की अब तक शांत थी। उसने लाज के घूंघट को हटाया और स्वाभिमान के साथ सिर उठाकर बोलना शुरू किया। "मेरा परिवार मेरी ताकत है। मेरे बाबा को ऐसा दामाद चाहिए। जो उनके हर सुख-दुख में बिना अहसान जताए साथ खड़ा हो। जो परिवार में महिलाओं के कामों को सिर्फ उनका दायित्व न समझे, बल्कि जरूरत पड़ने पर मदद भी करे। जिसे अपनी माँ और पत्नी के बीच सामंजस्य बनाना आता हो। जो मुझे अपने परिवार की केवल ‘केयरटेकर’ न बनाए। मुझे अपने जीवनसाथी से ज्यादा उम्मीदें नहीं हैं, लेकिन इतना जरूर चाहती हूँ कि वह मुझे अपने परिवार में उचित सम्मान दिला सके। पठानी सूट में बिना मूंछ-दाढ़ी वाले लड़के पसंद हैं। मैं अपने चश्मे को खुद से भी ज्यादा प्यार करती हूँ और इसे कभी नहीं छोड़ूंगी। ‘सरनेम’ बदलने या न बदलने का अधिकार मेरा होना चाहिए। जहाँ तक शादी के खर्च की बात है, दोनों परिवार मिलकर आधा-आधा खर्च उठाएं। यही बराबरी और देश के विकास की एक पहल हो सकती है। और हाँ, हर बात सिर झुका कर मानते रहना संस्कारी होने की निशानी नहीं है। मुझे एक ऐसा जीवनसाथी चाहिए जो मुझे समानता के साथ समझ सके।" लड़के ने घबराते हुए कुछ कहने की कोशिश की, लेकिन उसकी आवाज हकला गई। लड़की आत्मविश्वास से भरी हुई कमरे से बाहर चली गई। समाज का संदेश  कमरे में सन्नाटा छा गया। कहीं दूर, सभ्यता का तराजू मंद-मंद मुस्कुरा रहा था। सदियों बाद, उसके दोनों पलड़े बराबर हो गए थे। जब परिवार और समाज की गाड़ी में दोनों पहियों की समान भूमिका है, तो किसी एक पहिए को कम क्यों आंका जाए? *******

  • अधूरा सर्वे

    रमेश चन्द्र वर्मा                                           दरवाजे पर टिंग-टॉन्ग की आवाज गूंजती है। "बहू, देखना कौन है?" सोफे पर लेटकर टीवी देख रहे ससुर ने कहा। अनिता किचन से निकलकर दरवाज़ा खोलती है। "हाँ जी, आप कौन?" अनिता ने पूछा। "महिलाओं की स्थिति पर एक सर्वे चल रहा है। उसी की जानकारी के लिए आई हूँ," दरवाज़े पर खड़ी महिला ने जवाब दिया। "कौन है बहू?" पूछते हुए रमेश जी बाहर आ जाते हैं। महिला: "बाऊजी, सर्वे करने आई हूँ।" रमेश जी: "हाँ पूछिए।" महिला: "आपकी बहू सर्विस करती हैं या हाउस वाइफ हैं?" अनिता 'हाउस वाइफ' बोलने ही वाली होती है कि उससे पहले रमेश जी बोल पड़ते हैं। रमेश जी: "सर्विस करती है।" "किस पद पर हैं और किस कंपनी में काम कर रही हैं?" महिला ने पूछा। रमेश जी कहते हैं, "वो एक नर्स है, जो मेरा और मेरी पत्नी का बखूबी ध्यान रखती है। हमारे उठने से लेकर रात के सोने तक का हिसाब बहू के पास होता है। ये जो मैं आराम से लेटकर टीवी देख रहा था ना वो अनिता की बदौलत ही है।" "अनिता बेबीसीटर भी है। बच्चों को नहलाने, खिलाने और स्कूल भेजने का काम भी वही देखती है। रात को रो रहे बच्चे को नींद माँ की थपकी से ही आती है।" "मेरी बहू ट्यूटर भी है। बच्चों की पढ़ाई की जिम्मेदारी भी इसी के कंधे पर है। घर का पूरा मैनेजमेंट इसी के हाथों में है। रिश्तेदारी निभाने में इसे महारत हासिल है।" "मेरा बेटा एयरकंडीशन्ड ऑफिस में चैन से अपने काम कर पाता है तो इसी की बदौलत। इतना ही नहीं ये मेरे बेटे की एडवाइजर भी है।" "ये हमारे घर की इंजन है। जिसके बिना हमारा घर तो क्या, इस देश की रफ्तार ही थम जाएगी।" महिला: "बाऊजी, मेरे फॉर्म में इनमें से एक भी कॉलम नहीं है, जो आपकी बहू को वर्किंग कह सके।" रमेश जी मुस्कुराते हुए कहते हैं, "फिर तो आपका ये सर्वे ही अधूरा है।" महिला: "लेकिन बाऊजी, इससे इनकम तो नहीं होती है ना।" रमेश जी कहते हैं, "अब आपको क्या समझाएं। इस देश की कोई भी कंपनी ऐसी बहुओं को वो सम्मान, वो सैलरी नहीं दे पाएगी।" बड़ी शान से वो कहते हैं, "मेरी हार्ड वर्किंग बहू की इनकम हमारे घर की मुस्कुराहट है!" ******

  • छोटी बहू

    अनामिका तिवारी मेरी एक सहेली है। उसका नाम मिताली है। मैं अक्सर उसके घर जाया करती। मैं देखती कि उसकी छोटी भाभी चेहरे पर एक सौम्य मुस्कान लिए बस अपने काम में लगी रहती थीं। अगर कभी फुर्सत मिली तो अपने कमरे में जाकर अकेली बैठी रहती, क्योंकि उन्हें घर का कोई सदस्य पसंद नहीं करता था। वजह उनका रंग साँवला था, और वह होमसाइंस में स्नातक थी। मिताली के घर में सब डॉक्टर या इंजीनियर, या बड़ी प्राइवेट कंपनी में हायर पोस्ट पर थे। छोटी भाभी को मिताली के पापा ने गुण और संस्कार देखकर पसंद किया था, क्योंकि इसके पहले घर में दो बड़ी बहूए आ चुकी थी जो कि अच्छी कंपनी में काम करती थी। लेकिन उसके बाद भी घर में बहू की कमी खलती थी, क्योंकि उनमें संस्कारों की बहुत कमी थी, और वह अपने ओहदे और पैसों के घमंड में रहती थी। मिताली के पापा चाहते थे कि घर में कोई एक सदस्य तो ऐसा हो जो पूरे परिवार को लेकर चले। कम से कम तब तक जब तक वह जीवित है, इसीलिए वह छोटी बहू बहुत सोच समझ कर लाये थे। लेकिन फिर भी सब की सोच एक जैसी नहीं होती इसलिए उन्हें कोई पसंद नहीं करता था। एक दिन की बात है, उनके घर कुछ मेहमान आए उनके साथ आए एक छोटे बच्चे से कांच का गिलास गिरकर टूट गया, और उसके बारीक टुकडे पूरे फर्श पर फैल गए।

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