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विवाह की बैठक

राजीव लोचन

विवाह की चर्चा चल रही थी। दोनों परिवारों ने लड़का और लड़की को आपस में बात करने का मौका दिया ताकि वे एक-दूसरे को समझ सकें। दोनों को अकेले छोड़ा गया, और लड़के ने बिना समय गंवाए बात शुरू की।
लड़के की बात:
"मेरा परिवार मेरे लिए सब कुछ है। माँ को एक ऐसी बहू चाहिए जो पढ़ी-लिखी हो, घर के कामों में निपुण हो, संस्कारी हो और सबका ख्याल रख सके, मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर चले। हमारा परिवार पुराने ख्यालों का तो नहीं है, लेकिन इतना जरूर चाहता है कि नई बहू हमारे रीति-रिवाजों को अपना ले। भगवान की कृपा से हमारे पास सब कुछ है। हमें आपसे दहेज या किसी और चीज की ज़रूरत नहीं। बस एक ऐसी लड़की चाहिए जो घर को जोड़कर रख सके। मेरी अपनी कोई विशेष पसंद नहीं है। मुझे एक ऐसी जीवनसाथी चाहिए जो मुझे समझे, थोड़ा देश-दुनिया की जानकारी रखे। हाँ, लंबे बाल और साड़ी पहनने वाली लड़कियाँ अच्छी लगती हैं। आपकी कोई इच्छा हो तो बताइए।"
लड़के ने अपनी बात पूरी की और लड़की की ओर देखने लगा।
लड़की का उत्तर:
लड़की अब तक शांत थी। उसने लाज के घूंघट को हटाया और स्वाभिमान के साथ सिर उठाकर बोलना शुरू किया। "मेरा परिवार मेरी ताकत है। मेरे बाबा को ऐसा दामाद चाहिए। जो उनके हर सुख-दुख में बिना अहसान जताए साथ खड़ा हो। जो परिवार में महिलाओं के कामों को सिर्फ उनका दायित्व न समझे, बल्कि जरूरत पड़ने पर मदद भी करे। जिसे अपनी माँ और पत्नी के बीच सामंजस्य बनाना आता हो। जो मुझे अपने परिवार की केवल ‘केयरटेकर’ न बनाए। मुझे अपने जीवनसाथी से ज्यादा उम्मीदें नहीं हैं, लेकिन इतना जरूर चाहती हूँ कि वह मुझे अपने परिवार में उचित सम्मान दिला सके। पठानी सूट में बिना मूंछ-दाढ़ी वाले लड़के पसंद हैं। मैं अपने चश्मे को खुद से भी ज्यादा प्यार करती हूँ और इसे कभी नहीं छोड़ूंगी। ‘सरनेम’ बदलने या न बदलने का अधिकार मेरा होना चाहिए। जहाँ तक शादी के खर्च की बात है, दोनों परिवार मिलकर आधा-आधा खर्च उठाएं। यही बराबरी और देश के विकास की एक पहल हो सकती है। और हाँ, हर बात सिर झुका कर मानते रहना संस्कारी होने की निशानी नहीं है। मुझे एक ऐसा जीवनसाथी चाहिए जो मुझे समानता के साथ समझ सके।"
लड़के ने घबराते हुए कुछ कहने की कोशिश की, लेकिन उसकी आवाज हकला गई। लड़की आत्मविश्वास से भरी हुई कमरे से बाहर चली गई।
समाज का संदेश 
कमरे में सन्नाटा छा गया। कहीं दूर, सभ्यता का तराजू मंद-मंद मुस्कुरा रहा था। सदियों बाद, उसके दोनों पलड़े बराबर हो गए थे। जब परिवार और समाज की गाड़ी में दोनों पहियों की समान भूमिका है, तो किसी एक पहिए को कम क्यों आंका जाए?

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