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  • तसला और कटोरा

    डॉ. कृष्ण कांत श्रीवास्तव यह कहानी उस वक्त की है, जब किसी आंदोलन के कारण महात्मा गांधी बड़ौदा जेल में बंद थे। इस वक्त तक गांधी जी का नाम काफी सुर्खियों में रहने लगा था। उनकी गिनती स्वतंत्रता संग्राम के अग्रिम पंक्तियों के नेताओं में होती थी। गांधी जी के लाखों अनुयायी उनके एक आवाहन पर एकत्रित हो जाया करते थे। उस वक्त बड़ौदा जेल का सुपरिटेंडेंट मेजर मार्टिन था। मेजर मार्टिन, गांधीजी की ख्याति से भलीभांति परिचित था। गांधी जी के बड़ौदा जेल में आते ही मेजर मार्टिन ने उनके लिए कुछ आवश्यक वस्तुओं का प्रबंध करवाना आरंभ किया। गांधीजी ने सुपरिंटेंडेंट से पूछा, “ये सारी वस्तुएँ किसके लिए आ रही हैं?” सुपरिटेंडेंट ने उत्तर दिया, “आपके लिए। मैंने सरकार को लिखा था कि इतने महान् पुरुष पर कम से कम तीन सौ रुपए महीने का खर्च तो होना ही चाहिए।” गांधीजी ने कहा, “आपको बहुत-बहुत धन्यवाद। जो आपने मेरे लिए इतना सोचा, परंतु मैं यहां पर भोग विलास के लिए नहीं आया हूं। मैं तो एक साधारण स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हूं। मुझे जेल में किसी विशेष सुविधाओं की आवश्यकता नहीं है। मैं भी अपने दूसरे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के साथ ही एक साधारण इंसान बनकर जेल में रहूंगा। मेरे ऊपर भी सिर्फ उतना ही पैसा खर्च होना चाहिए जितना कि दूसरे कैदियों के ऊपर खर्च किया जा रहा है। इस वक्त हमारा स्वास्थ्य ठीक नहीं है। यदि मैं स्वस्थ होता तो खाना भी ‘सी क्लास’ का ही खाता।” गांधी जी की बातों को सुनकर सुपरिटेंडेंट मेजर मार्टिन आश्चर्यचकित रह गया। उसने गांधी जी को प्रणाम किया और गांधीजी के आग्रह पर वे सारी वस्तुएँ वापस कर दी। उनके स्थान पर वही तसला और कटोरा आ गया, जो सामान्य कैदी को दिया जाता था। इसके बाद बड़ौदा जेल में गांधी जी ने अपनी पूरी सजा एक आम कैदी की भांति ही पूरी की। सीख - महान वही होता है जो अपने को साधारण मनुष्य से अलग नहीं समझता। ********

  • प्रेम भाव

    विद्याशंकर एक करोड़पति बहुत अड़चन में था। करोड़ों का घाटा लगा था, और सारे जीवन की मेहनत डूबने के करीब थी। नौका डगमगा रही थी। कभी मंदिर नहीं गया था, कभी प्रार्थना भी न की थी। फुरसत ही न मिली थी। पूजा के लिए उसने पुजारी रख छोड़े थे, कई मंदिर भी बनवाये थे, जहां वे उसके नाम से नियमित पूजा किया करते थे लेकिन आज इस दुःख की घड़ी में कांपते हाथों वह भी मंदिर गया। सुबह जल्दी गया, ताकि परमात्मा से पहली मुलाकात उसी की हो, पहली प्रार्थना वही कर सके। कोई दूसरा पहले ही मांग कर परमात्मा का मन खराब न कर चुका हो। बोहनी की आदत जो होती है, कमबख्त यहां भी नहीं छूटी....सो अल्ल-सुबह पहुंचा मन्दिर। लेकिन यह देख कर हैरान हुआ कि गांव का एक भिखारी उससे पहले से ही मन्दिर में मौजूद था। अंधेरा था, वह भी पीछे खड़ा हो गया, कि भिखारी क्या मांग रहा है? धनी आदमी सोचता है, कि मेरे पास तो मुसीबतें हैं; भिखारी के पास क्या मुसीबतें हो सकती हैं? और भिखारी सोचता है, कि मुसीबतें मेरे पास हैं। धनी आदमी के पास क्या मुसीबतें होंगी? एक भिखारी की मुसीबत दूसरे भिखारी के लिए बहुत बड़ी न थी । उसने सुना, कि भिखारी कह रहा है --हे परमात्मा । अगर पांच रुपए आज न मिलें तो जीवन नष्ट हो जाएगा। आत्महत्या कर लूंगा। पत्नी बीमार है और दवा के लिए पांच रुपए होना बिलकुल आवश्यक हैं। मेरा जीवन संकट में है। अमीर आदमी ने यह सुना और वह भिखारी बंद ही नहीं हो रहा है; कहे जा रहा है और प्रार्थना जारी है। तो उसने झल्लाकर अपने खीसे से पांच रुपए निकाल कर उस भिखारी को दिए और कहा - जा ये ले जा पांच रुपए, तू ले और जा जल्दी यहां से। अब वह परमात्मा से मुखतिब हुआ और बोला -- प्रभु, अब आप ध्यान मेरी तरफ दें, इस भिखारी की तो यही आदत है। दरअसल मुझे पांच करोड़ रुपए की जरूरत है।” भगवान मुस्करा उठे बोले -- एक छोटे भिखारी से तो तूने मुझे छुटकारा दिला दिया,  लेकिन तुझसे छुटकारा पाने के लिए तो मुझको तुमसे भी बढा भिखारी ढूंढना पड़ेगा। तुम सब लोग यहां कुछ न कुछ मांगने ही आते हो, कभी मेरी जरूरत का भी ख्याल आया है? धनी आश्चर्यचकित हुआ बोला - प्रभु आपको क्या चाहिए? भगवान बोले - प्रेम। मैं भाव का भूखा हूँ। मुझे निस्वार्थ प्रेम व समर्पित भक्त प्रिय है। कभी इस भाव से मुझ तक आओ; फिर तुम्हे कुछ मांगने की आवश्यकता ही नही पड़ेगी। ******

  • समर्पण

    स्नेह लता अग्रवाल ये कहानी है सुरभि की, जो भोपाल की रहने वाली थी। सुरभि की शादी के बाद वो अपने ससुराल ग्वालियर पहुंची। शादी की रौनक खत्म हो चुकी थी, और धीरे-धीरे सभी मेहमान विदा ले चुके थे। लेकिन उसकी जेठानी, अनिता, अपने दो बच्चों के साथ दो दिन और रुक गई थीं। सुरभि के सास-ससुर का पहले ही देहांत हो चुका था, और अनिता ने ही शादी के सारे इंतजामों में खूब मेहनत की थी। अनिता ने सुरभि को बहुत स्नेह दिया ताकि उसे सास की कमी न खले। उन दो दिनों में, सुरभि ने धीरे-धीरे घर के कामकाज संभालना शुरू कर दिया। अपनी शांत और सौम्य स्वभाव से उसने हर किसी का दिल जीत लिया। अनिता ने भी मन ही मन सोच लिया कि उनके भाई को एक बेहतरीन जीवनसंगिनी मिल गई है। फिर वह समय आया जब अनिता को लौटना था। विदा लेते समय, अनिता ने सुरभि को गले लगाकर कहा, "सुरभि, मेरा भाई बहुत अच्छा इंसान है, वो तुम्हें कभी कोई तकलीफ नहीं देगा। तुम उसका ख्याल रखना। और हाँ, कभी भी कोई परेशानी हो तो मुझसे बेझिझक बात करना। ग्वालियर से भोपाल ज्यादा दूर नहीं है। मैं आती रहूंगी।" सुरभि ने नम्रता से उनके पैर छुए और मुस्कुराकर कहा, "दीदी, आप निश्चिंत रहें। मैं इनका और इस घर का पूरा ध्यान रखूंगी।" अनिता तो कार में बैठ गईं, लेकिन उनके बच्चे वहीं खड़े रहे। सुरभि ने हैरानी से कहा, "अरे, जाओ ममा के साथ बैठो।" अनिता मुस्कुराई और बोली, "अब तुम आ गई हो, तो ये यहीं रहेंगे..." इतना कहकर वह अचानक चुप हो गईं। सुरभि के दिल में एक हलचल सी मच गई। क्या दीदी अपने बच्चों की जिम्मेदारी मुझ पर छोड़कर जा रही हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि भोपाल में उनके बच्चों की पढ़ाई में कोई दिक्कत आ रही है? उसने ये बातें अपने मन में ही रखीं और पति अमन का ऑफिस से लौटने का इंतजार करने लगी। जैसे ही अमन घर आया, सुरभि ने उसे चाय दी और धीरे-धीरे बातों में पूछ ही लिया, "अमन, दीदी के बच्चे यहीं हमारे साथ रहेंगे?" अमन ने शांत स्वर में जवाब दिया, "ये दीदी के बच्चे नहीं, मेरे अपने बच्चे हैं। मेरी पहली पत्नी के निधन के बाद दीदी ने ही इन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया है।" सुरभि का चेहरा फक हो गया। उसे समझ ही नहीं आया कि क्या बोले। गुस्से और नाराजगी में वो बोली, "आपने ये बात मुझसे क्यों छिपाई? क्या आप मुझसे झूठ बोले?" अमन ने गहरी सांस लेते हुए कहा, "सुरभि, मैंने तुम्हारे भाई को सब कुछ बता दिया था। उन्होंने तुम्हें नहीं बताया? मैंने तुमसे कोई बात नहीं छिपाई। फिर भी, अगर तुम्हें ये रिश्ता निभाना मुश्किल लगे तो तुम चाहो तो इस रिश्ते से आज़ाद हो सकती हो।" सुरभि के लिए ये शब्द चौंकाने वाले थे। उसे एक पल के लिए लगा जैसे जमीन खिसक गई हो। अब उसके सवाल और उलझ गए थे। क्या उसका अपना भाई उससे ये बात छिपा सकता है? वह चुपचाप सोफे पर बैठ गई, और मानो सारे सपने बिखरते हुए देख रही थी। अगली सुबह सुरभि की जेठानी, अनिता, का फोन आया। उन्होंने प्यार से कहा, "बेटा, हमने तुम्हारे भाई से कुछ भी नहीं छिपाया था। लेकिन अगर तुम्हें बच्चों से कोई परेशानी हो तो मैं इन्हें अपने पास ही रखूंगी। बस अपने भाई को मत छोड़ना, वो तुम्हें बहुत चाहता है।" सुरभि की आँखें भर आईं। उसने दिल पर हाथ रखकर सोचा कि अमन की कोई गलती नहीं है। अगर मेरे भाई ने ये बात मुझसे छिपाई, तो ये उसकी जिम्मेदारी थी, अमन की नहीं। धीरे-धीरे उसके मन में एक समझदारी का भाव आ गया। उसने सोच लिया कि प्यार और समझदारी से जिंदगी को बेहतर बनाया जा सकता है। सुरभि ने तुरंत फोन उठाया और अनिता को कहा, "दीदी, आप चिंता मत करें। मैं यहीं रहूंगी, और बच्चे भी मेरे साथ ही रहेंगे।" उसकी बात सुनकर अनिता ने राहत की साँस ली। सुरभि ने जैसे ही फोन रखा, देखा कि अमन दरवाजे पर खड़ा मुस्कुरा रहा था। उसकी आंखों में राहत और स्नेह दोनों थे। उनकी नजरें मिलीं और सुरभि शरमा कर मुस्कुरा दी। उस दिन दोनों ने समझ लिया था कि उनके रिश्ते में विश्वास और समर्पण ही सबसे बड़ा आधार है। *******

  • सकारात्मक संगति में रहें

    डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव “संगति का असर गहरा होता है, या तो यह आपको ऊँचाइयों पर पहुँचा सकती है या फिर गर्त में गिरा सकती है।” हमारे जीवन में संगति का प्रभाव बहुत बड़ा होता है। यह कहावत आपने ज़रूर सुनी होगी – "जैसी संगत वैसी रंगत।" इसका अर्थ यही है कि हमारे आस-पास के लोगों का प्रभाव हमारे विचारों, व्यवहार और भविष्य तक पर पड़ता है। सकारात्मक संगति यानी उन लोगों के साथ रहना जो उत्साह, प्रेरणा, समझदारी और आत्मविश्वास से भरे हों। ऐसे लोग जो आपके सपनों का मजाक नहीं उड़ाते, बल्कि उन्हें पूरा करने के लिए आपको प्रोत्साहित करते हैं। आइए हम समझते हैं कि सकारात्मक संगति क्या है, इसके क्या लाभ हैं, नकारात्मक संगति से कैसे बचें, और हम अपने जीवन में इसे कैसे अपना सकते हैं। ·         सकारात्मक संगति का अर्थ क्या है? सकारात्मक संगति का अर्थ है – ऐसे लोगों के साथ रहना जो: अच्छे विचारों वाले हों, प्रेरणादायक हों, आपकी अच्छाइयों को पहचानें, आपकी कमज़ोरियों पर हँसने की बजाय उन्हें सुधारने में मदद करें, आपको ऊर्जावान और आत्मनिर्भर बनाएं। सकारात्मक संगति केवल दोस्तों तक सीमित नहीं होती, बल्कि यह परिवार, सहकर्मियों, शिक्षकों, मार्गदर्शकों और यहाँ तक कि उन किताबों, वीडियो या सोशल मीडिया कंटेंट तक फैली होती है जो आपके दिमाग को प्रभावित करते हैं। ·         क्यों ज़रूरी है सकारात्मक संगति? सकारात्मक लोग आपको आपकी क्षमताओं की याद दिलाते हैं। जब आप थकते हैं या हार मानने की सोचते हैं, तो यही लोग आपको प्रेरित करते हैं और विश्वास दिलाते हैं कि आप कर सकते हैं। नकारात्मक संगति आपको थका देती है, लेकिन सकारात्मक संगति आपको ऊर्जावान और उत्साही बनाती है। उनके साथ समय बिताकर आप तनाव से मुक्त महसूस करते हैं। जब जीवन में कोई बड़ा निर्णय लेना हो, तो सही संगति आपको तटस्थ और विवेकपूर्ण सलाह देती है जो आपके हित में होती है। सकारात्मक संगति अच्छे विचार, आदर्श और अनुशासन सिखाती है जो जीवन भर काम आते हैं। सकारात्मक लोग आपको न केवल प्रेरित करते हैं, बल्कि आपकी सोच को दिशा भी देते हैं जिससे आप अपने लक्ष्यों के प्रति ज्यादा समर्पित रहते हैं। ·         नकारात्मक संगति से नुकसान जहाँ एक तरफ सकारात्मक संगति आपको ऊपर उठाती है, वहीं नकारात्मक संगति आपको नीचे गिराने में कोई कसर नहीं छोड़ती। ये वे लोग होते हैं जो: हमेशा शिकायत करते हैं, आपको हतोत्साहित करते हैं, आपकी सफलताओं से जलते हैं, आपकी असफलताओं पर हँसते हैं, गॉसिप, आलोचना और आलस्य में डूबे रहते हैं। ऐसी संगति से व्यक्ति का आत्मविश्वास कमजोर होता है, वह अपने सपनों को छोड़ देता है, और धीरे-धीरे अपनी पहचान खो बैठता है। ·         सकारात्मक संगति को पहचानें कैसे? अक्सर लोग सोचते हैं कि कौन सही संगति है और कौन नहीं। इसके लिए कुछ संकेत हैं: जिन के साथ आपका मन हल्का और खुश महसूस करता है उनके साथ समय बिताइये। वे आपकी अच्छाइयों की सराहना करते हैं और बुराइयों पर प्यार से ध्यान दिलाते हैं। वे आपके सपनों में विश्वास रखते हैं और उनका मज़ाक नहीं उड़ाते। वे सकारात्मक सोच और समाधान पर बात करते हैं, न कि केवल समस्याओं पर। वे प्रेरणादायक किताबें पढ़ते हैं, अच्छे विचार साझा करते हैं और आपको आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। ·         सकारात्मक संगति कैसे बनाएँ? आप जैसे होंगे, वैसे ही लोग आपके पास आएँगे। खुद को ईमानदार, विनम्र, और प्रेरणादायक बनाइए। सकारात्मक सोच अपने आप आकर्षण का केंद्र होती है। अगर आपके आसपास वैसे लोग नहीं हैं तो प्रेरणादायक किताबें पढ़िए, पॉडकास्ट सुनिए, मोटिवेशनल वीडियोज़ देखिए। आज के डिजिटल युग में सीखने और जुड़ने के बहुत रास्ते हैं। अपना समय उन लोगों के साथ बिताइए जो आपको बेहतर बनाते हैं। जो लोग आपकी ऊर्जा चूसते हैं उनसे धीरे-धीरे दूरी बनाइए। सेवा, सामाजिक कार्य, अध्ययन समूह, या सकारात्मक मंचों से जुड़िए जहाँ अच्छे विचारों का आदान-प्रदान होता है। हर किसी को खुश करना जरूरी नहीं। अगर कोई आपकी सोच या आत्मा को नुकसान पहुँचा रहा है, तो उसे ‘ना’ कहना सीखें। ·         सफलता के लिए संगति का प्रभाव बहुत से महान व्यक्तियों ने संगति का महत्व स्वीकार किया है। स्वामी विवेकानंद कहते थे – “हम वही बनते हैं, जो हम सोचते हैं। और हमारी सोच हमारी संगति से बनती है।” डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने अपने जीवन में हमेशा अच्छे गुरुओं और सकारात्मक सोच रखने वाले लोगों का साथ अपनाया। उन्होंने कहा था – “आपका भविष्य उस संगति पर निर्भर करता है जिसमें आप समय बिताते हैं।” महात्मा गांधी, नेल्सन मंडेला, रतन टाटा, और संदीप माहेश्वरी जैसे व्यक्तियों की सफलता में उनकी संगति, उनके मार्गदर्शक और प्रेरणास्रोतों की बड़ी भूमिका रही है। आज के युग में युवा सोशल मीडिया, दोस्तों और बाहरी दुनिया से अत्यधिक प्रभावित हैं। ऐसे में उन्हें अपने आस-पास की संगति का चयन बहुत सोच-समझकर करना चाहिए। जो दोस्त आपको गलत रास्ते पर ले जाएँ, उनसे दूर रहें। जो आपको पढ़ाई, करियर और आत्मविकास के लिए प्रेरित करें, उनके साथ समय बिताइए। जो बातें आपके आत्मबल को कमजोर करती हैं, उन्हें छोड़िए। याद रखें – आप पाँच लोगों का औसत हैं, जिनके साथ आप सबसे अधिक समय बिताते हैं। सकारात्मक संगति केवल एक विकल्प नहीं, बल्कि एक आवश्यकता है। यह जीवन की दिशा तय करती है। यह आपको आपके सपनों की ओर ले जाती है, आपको विश्वास देती है, और आपके जीवन को सुंदर बनाती है। तो आज ही निर्णय लीजिए – मैं नकारात्मक संगति से दूरी बनाऊँगा। मैं सकारात्मक सोच वाले लोगों के साथ रहूँगा। मैं खुद एक प्रेरणास्त्रोत बनूँगा, दूसरों को प्रेरित करूँगा। क्योंकि सकारात्मक संगति सिर्फ संगति नहीं, सफलता की सीढ़ी है। "रंग तो हर फूल में होता है, लेकिन बाग़ वही महकता है जहाँ अच्छी मिट्टी हो। संगति भी मिट्टी जैसी है, जो आपको या तो महका देती है या मुरझा देती है।" ******

  • रोज कुछ नया जीवन में उतारें

    डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव जीवन एक निरंतर बहती नदी है, जो कभी नहीं रुकती। हर दिन हमारे जीवन में एक नया अवसर लेकर आता है – कुछ नया सीखने, कुछ नया करने, और कुछ नया बनने का। लेकिन कई लोग इस अवसर को पहचान नहीं पाते और रोज़ की एक जैसी दिनचर्या में उलझे रहते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि जो व्यक्ति हर दिन कुछ नया सीखता है, वही आगे बढ़ता है, वही जीवन को वास्तव में जीता है। आइए हम समझते हैं कि "रोज कुछ नया जीवन में उतारना" क्यों ज़रूरी है, यह कैसे किया जा सकता है, और इसके क्या अद्भुत लाभ होते हैं। ·         जीवन में बदलाव क्यों ज़रूरी है? आपने देखा होगा कि प्रकृति खुद हर दिन नया रूप धारण करती है – सूरज हर सुबह नई रोशनी लेकर आता है, मौसम बदलते हैं, पेड़ अपने पुराने पत्ते गिराकर नए पत्तों से सजते हैं। प्रकृति से ही हमें सीखना चाहिए कि बदलाव जीवन का नियम है। अगर हम हर दिन कुछ नया नहीं सीखते या नहीं अपनाते, तो हम रुक जाते हैं – और रुकना मतलब पीछे रह जाना। ·         'रोज कुछ नया' का मतलब क्या है? यह जरूरी नहीं कि आप हर दिन कोई बहुत बड़ा बदलाव करें। “कुछ नया” का अर्थ है – एक नई आदत अपनाना, कोई नई चीज़ पढ़ना या जानना, एक नया कौशल सीखना, किसी नए व्यक्ति से मिलना, कोई नई सोच अपनाना, या फिर पुराने तरीके से कुछ नया करना। यह नया अनुभव आपके दिमाग को तरोताज़ा करता है, जीवन को जीवंत बनाता है, और आपको बेहतर इंसान बनने की राह पर आगे बढ़ाता है। ·         'रोज कुछ नया' अपनाने के लाभ व्यक्तित्व में निखार आता है। जब हम हर दिन कुछ नया सीखते हैं, तो हमारी सोच विकसित होती है। हम और अधिक समझदार, विनम्र और आत्मनिर्भर बनते हैं। आत्मविश्वास बढ़ता है। हर नई सीख या सफलता आपको यह यकीन दिलाती है कि आप और भी कुछ कर सकते हैं। नए अवसरों के लिए तैयार रहते हैं। दुनिया तेजी से बदल रही है। जो लोग नए बदलावों को अपनाते हैं, वे हर चुनौती का सामना आसानी से कर लेते हैं। मन और मस्तिष्क सक्रिय रहता है। हर दिन नई चीजें करने से दिमाग की सक्रियता बनी रहती है और मानसिक थकान दूर होती है। जीवन में उद्देश्य और प्रेरणा मिलती है। रोज़ कुछ नया करने की आदत से आपको हर दिन के लिए एक लक्ष्य मिलता है, जिससे जीवन रोचक और उद्देश्यपूर्ण बनता है। ·         हर दिन नया क्या करें? अब सवाल उठता है – हम रोज क्या नया कर सकते हैं? आइए कुछ सरल और उपयोगी उपाय जानते हैं: हर दिन कोई नया हिंदी या अंग्रेज़ी शब्द याद करें, या किसी महान व्यक्ति का विचार पढ़ें। रोज कोई भी अच्छी पुस्तक, जीवन कथा, प्रेरणात्मक लेख का केवल एक पेज पढ़ना भी आपके सोचने का तरीका बदल सकता है। रोज नए लोगों से बात करके उनके अनुभवों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। रोज कोई छोटा कौशल सीखें : जैसे टाई बाँधना, जल्दी उठना, डिजिटल टूल्स सीखना, एक नई रेसिपी बनाना – ये छोटे कदम आपके आत्मनिर्भरता को बढ़ाते हैं। रोज एक अच्छी आदत डालें जैसे – समय पर उठना, मोबाइल कम चलाना, दूसरों की बात ध्यान से सुनना, समय प्रबंधन आदि। ·         जीवन के उदाहरणों से सीखें ü  डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम ने जीवनभर हर दिन कुछ नया सीखा – चाहे वो वैज्ञानिक प्रयोग हों या अध्यात्म। उन्होंने कहा था – “सपने वो नहीं जो हम नींद में देखते हैं, सपने वो हैं जो हमें सोने नहीं देते।” और ऐसे सपनों को सच करने के लिए हर दिन नया प्रयास ज़रूरी है। ü  महात्मा गांधी कहते थे – “खुद वो बदलाव बनिए जो आप दुनिया में देखना चाहते हैं।” यह बदलाव तभी संभव है जब हम अपने जीवन में रोज़ नया सुधार और सीख को अपनाएं। ü  स्टीव जॉब्स हर दिन खुद से पूछते थे – “अगर आज मेरा आखिरी दिन होता, तो क्या मैं वही करता जो मैं करने जा रहा हूँ?” यह सवाल ही हमें हर दिन कुछ नया करने की प्रेरणा देता है। प्रिय युवाओं, आपके पास समय है, ऊर्जा है और दुनिया को बदलने की क्षमता है। इस समय को सिर्फ सोशल मीडिया, मनोरंजन या दोस्तों में न गंवाएँ। हर दिन खुद से एक सवाल पूछिए – "क्या मैंने आज कुछ नया सीखा?" अगर जवाब हाँ है – तो आप बढ़ रहे हैं। अगर नहीं – तो कुछ नया करने की शुरुआत अभी करें। याद रखें – "हर दिन एक नया अवसर है, खुद को बेहतर बनाने का।" ·         'रोज नया' के लिए अनुशासन कैसे लाएँ? सुबह के समय 15 मिनट केवल अपने विकास के लिए निकालें – पढ़ने, सोचने या योजना बनाने के लिए। डायरी या नोट्स बनाएं – हर दिन आपने क्या नया सीखा, इसे लिखें। हर हफ्ते अपने 'नए अनुभव' का मूल्यांकन करें – इससे प्रेरणा बनी रहेगी। दूसरों को भी प्रेरित करें – खुद की सीख दूसरों से साझा करें। सीख बाँटने से दो गुना असर होता है। हर व्यक्ति एक खास मकसद के लिए इस दुनिया में आया है। लेकिन उस मकसद तक पहुँचने के लिए निरंतर विकास आवश्यक है। और यह विकास तभी संभव है जब हम हर दिन कुछ नया सीखें, समझें और जीवन में उतारें। "रोज कुछ नया" जीवन को न केवल सुंदर बनाता है, बल्कि आपको आत्मनिर्भर, आत्मविश्वासी और प्रेरणादायक बनाता है। छोटे-छोटे बदलाव ही आगे चलकर बड़े परिवर्तन बनते हैं। तो आइए, आज से ही ठान लें – मैं हर दिन कुछ नया सीखूँगा, हर दिन खुद को थोड़ा बेहतर बनाऊँगा। क्योंकि जीवन तब ही सार्थक है जब हम ठहरते नहीं, बढ़ते रहते हैं। "हर दिन उठो एक नई उम्मीद के साथ, हर शाम सोओ एक नई सीख के साथ।" "जो रोज़ कुछ नया करता है, वही इतिहास बनाता है।" *******

  • गलत धारणा

    रवि शंकर गुप्ता "लीजिए भाभी मुंह मीठा कीजिए।" आशीष जी ने अपनी भाभी रमीला जी को मिठाई देते हुए कहा। रमीला जी मिठाई मुंह में रखकर बोली। "देवर जी किस चीज की मिठाई बाटी जा रही है। लगता है अबकी बार तो बेटा हुआ है देवरानी जी को।" "नहीं भाभी बेटा नहीं दूसरी भी लक्ष्मी ही आई है। और उसके आने की खुशी में ही मिठाई बांट रहा हूं।" आशीष जी ने खुश होकर अपनी भाभी से कहा। बेटी का नाम सुनकर रमीला जी का मानो मुंह कड़वा हो गया हो। मानो उन्होंने मिठाई ना खा कर कुछ कड़वी बुरी चीज खाली हो। वह एकदम मुंह बनाकर बोली..... "बेटी के होने की कौन मिठाई बांटता है। वह भी दूसरी बेटी होने की। मिठाई तो बेटों के होने की खुशी में बांटी जाती है। बेटियां तो शादी होकर ससुराल चली जाती है। बेटे ही तो वारिस होते हैं। बुढ़ापे मां बाप को देखते हैं, उनकी देखभाल करते हैं। अब देखो हमारे दो बेटे हैं। हमारे बुढ़ापे का सहारा।" रमीला जी को अपने दो बेटे होने पर बहुत घमंड था। उसी घमंड के आगे वह अपने देवर जी को नीचा दिखाना चाहती थी। लेकिन आशीष जी ने बुरा नही माना और कहा.... "कोई बात नहीं भाभी मेरे बेटा नहीं हुआ तो क्या हुआ मेरी तो यही बेटियां मेरे बुढ़ापे का सहारा बनेगी। और यह कह कर अपने घर आ गए। उधर आशीष की पत्नी मनीषा अस्पताल से डिस्चार्ज होकर घर आ गई। अब वह दोनों अपनी बेटियों को बड़े प्यार से पालने लगे। उन्हें इतने प्यार से बेटियों की परवरिश करते देखकर रमीला जी मुंह बनाती और कहती थी। "देखो कितने लाड लड़ाए हैं जा रहे हैं। जितने भी लाड लड़ा लो बेटे ही नाम रोशन करते हैं। और बेटे ही बुढ़ापे का सहारा होते हैं। बेटियों का क्या है कितने ही नखरे उठाओ लेकिन यह शादी होकर अपने ससुराल चली जाती हैं। मनीषा तुम एक बार फिर से देख लो क्या पता आपके बेटा हो जाए।" तब मनीषा उनकी बात सुनकर कहती। "भाभी बेटा होना होता तो अब तक हो जाता और वैसे भी मुझे तो मेरी दोनों बेटियां ही बहुत है। हम उनकी परवरिश करके ही अपने सारे सपने पूरे कर लेंगे। हम बेटे और बेटी में कोई फर्क नहीं मानते। मनीषा का जवाब सुनकर रमीला जी मुंह बनाती और कहती।

  • ऐसी होती हैं बेटियां

    जमुना प्रसाद मिश्र लड़कियों के एक विद्यालय में आई नई अध्यापिका बहुत खूबसूरत थी, बस उम्र थोड़ी अधिक हो रही थी लेकिन उसने अभी तक शादी नहीं की थी। सभी छात्राएं उसे देखकर तरह-तरह के अनुमान लगाया करती थीं। एक दिन किसी कार्यक्रम के दौरान जब छात्राएं उसके इर्द-गिर्द खड़ी थीं तो एक छात्रा ने बातों बातों में ही उससे पूछ लिया कि मैडम आपने अभी तक शादी क्यों नहीं की...? अध्यापिका ने कहा- "पहले एक कहानी सुनाती हूं। एक महिला को बेटे होने की लालच में लगातार पांच बेटियां ही पैदा होती रहीं। जब छठवीं बार वह गर्भवती हुई तो पति ने उसको धमकी दी कि अगर इस बार भी बेटी हुई तो उस बेटी को बाहर किसी सड़क या चौक पर फेंक आऊंगा। महिला अकेले में रोती हुई भगवान से प्रार्थना करने लगी, क्योंकि यह उसके वश की बात नहीं थी कि अपनी इच्छानुसार बेटा पैदा कर देती। इस बार भी बेटी ही पैदा हुई। पति ने नवजात बेटी को उठाया और रात के अंधेरे में शहर के बीचों-बीच चौक पर रख आया। मां पूरी रात उस नन्हीं सी जान के लिए रो रोकर दुआ करती रही। दूसरे दिन सुबह पिता जब चौक पर बेटी को देखने पहुंचा तो देखा कि बच्ची वहीं पड़ी है। उसे जीवित रखने के लिए बाप बेटी को वापस घर लाया लेकिन दूसरी रात फिर बेटी को उसी चौक पर रख आया। रोज़ यही होता रहा। हर बार पिता उस नवजात बेटी को बाहर रख आता और जब कोई उसे लेकर नहीं जाता तो मजबूरन वापस उठा लाता। यहां तक कि उसका पिता एक दिन थक गया और भगवान की इच्छा समझकर शांत हो गया। फिर एक वर्ष बाद मां जब फिर से गर्भवती हुई तो इस बार उनको बेटा हुआ। लेकिन कुछ ही दिन बाद ही छह बेटियों में से एक बेटी की मौत हो गई, यहां तक कि माँ पांच बार गर्भवती हुई और हर बार बेटे ही हुए। लेकिन हर बार उसकी बेटियों में से एक बेटी इस दुनियां से चली जाती।"

  • संतोष का फल

    रंजना द्विवेदी विलायत में अकाल पड़ गया। लोग भूखे मरने लगे। एक छोटे नगर में एक धनी दयालु पुरुष थे। उन्होंने सब छोटे लड़कों को प्रतिदिन एक रोटी देने की घोषणा कर दी। दूसरे दिन सबेरे एक बगीचे में सब लड़के इकट्ठे हुए। उन्हें रोटियाँ बँटने लगीं। रोटियाँ छोटी-बड़ी थीं। सब बच्चे एक-दूसरे को धक्का देकर बड़ी रोटी पाने का प्रयत्न कर रहे थे। केवल एक छोटी लड़की एक ओर चुपचाप खड़ी थी। वह सबके अन्त में आगे बढ़ी। टोकरे में सबसे छोटी अन्तिम रोटी बची थी। उसने उसे प्रसन्नता से ले लिया और वह घर चली आयी। दूसरे दिन फिर रोटियाँ बाँटी गयीं। उस बेचारी लड़की को आज भी सबसे छोटी रोटी मिली। लड़की ने जब घर लौटकर रोटी तोड़ी तो रोटी में से एक मुहर निकली। उसकी माता ने कहा कि – ‘मुहर उस धनी को दे आओ।’ लड़की दौड़ी गयी मुहर देने। धनी ने उसे देखकर पूछा – ‘तुम क्यों आयी हो?’ लड़की ने कहा – ‘मेरी रोटी में यह मुहर निकली है। आटे में गिर गयी होगी। देने आयी हूँ। तुम अपनी मुहर ले लो।’ धनी ने कहा – ‘नहीं बेटी! यह तुम्हारे संतोष का पुरस्कार है।’ लड़की ने सिर हिलाकर कहा – ‘पर मेरे संतोष का फल तो मुझे तभी मिल गया था। मुझे धक्के नहीं खाने पड़े।’ धनी बहुत प्रसन्न हुआ। उसने उसे अपनी धर्म पुत्री बना लिया और उसकी माता के लिये मासिक वेतन निश्चित कर दिया। वही लड़की उस धनी की उत्तराधिकारिणी हुई। ******

  • उम्मीद

    अरविंद नौखवाल एक पुत्र अपने वृद्ध पिता को रात्रिभोज के लिये एक अच्छे रेस्टोरेंट में लेकर गया। खाने के दौरान वृद्ध पिता ने कई बार भोजन अपने कपड़ों पर गिराया। रेस्टोरेंट में बैठे दूसरे खाना खा रहे लोग वृद्ध को घृणा की नजरों से देख रहे थे, लेकिन उसका पुत्र शांत था। खाने के बाद पुत्र बिना किसी शर्म के वृद्ध को वॉशरूम ले गया। उनके कपड़े साफ़ किये, चेहरा साफ़ किया, बालों में कंघी की, चश्मा पहनाया, और फिर बाहर लाया। सभी लोग खामोशी से उन्हें ही देख रहे थे। फ़िर उसने बिल का भुगतान किया और वृद्ध के साथ बाहर जाने लगा। तभी डिनर कर रहे एक अन्य वृद्ध ने उसे आवाज दी, और पूछा - क्या तुम्हें नहीं लगता कि यहाँ अपने पीछे तुम कुछ छोड़ कर जा रहे हो? उसने जवाब दिया - नहीं सर, मैं कुछ भी छोड़कर नहीं जा रहा। वृद्ध ने कहा - बेटे, तुम यहाँ प्रत्येक पुत्र के लिए एक शिक्षा, सबक और प्रत्येक पिता के लिए उम्मीद छोड़कर जा रहे हो। आमतौर पर हम लोग अपने बुजुर्ग माता-पिता को अपने साथ बाहर ले जाना पसंद नहीं करते, और कहते हैं - क्या करोगे, आपसे चला तो जाता नहीं, ठीक से खाया भी नहीं जाता, आप तो घर पर ही रहो, वही अच्छा होगा। लेकिन क्या आप भूल गये कि जब आप छोटे थे, और आपके माता पिता आपको अपनी गोद में उठाकर ले जाया करते थे। आप जब ठीक से खा नहीं पाते थे तो माँ आपको अपने हाथ से खाना खिलाती थी, और खाना गिर जाने पर डाँट नही प्यार जताती थी। फिर वही माँ बाप बुढ़ापे में बोझ क्यों लगने लगते हैं? माँ-बाप भगवान का रूप होते हैं। उनकी सेवा कीजिये, और प्यार दीजिये क्योंकि एक दिन आप भी बूढ़े होंगे। अपने माता पिता का सर्वदा सम्मान करें। ******

  • गाली पास ही रह गयी

    रमेश द्विवेदी एक लड़का बड़ा दुष्ट था। वह चाहे जिसे गाली देकर भाग खड़ा होता। एक दिन एक साधु बाबा एक बरगद के नीचे बैठे थे। लड़का आया और गाली देकर भागा। उसने सोचा कि गाली देने से साधु चिढ़ेगा और मारने दौड़ेगा, तब बड़ा मजा आयेगा; लेकिन साधु चुपचाप बैठे रहे। उन्होंने उसकी ओर देखा तक नहीं। लड़का और निकट आ गया और खूब जोर-जोर से गाली बकने लगा। साधु अपने भजन में लगे थे। उन्होंने समझ लिया कि कोई कुत्ता या कौवा चिल्ला रहा है। एक दूसरे लड़के ने कहा – ‘बाबा जी! यह आपको गालियाँ देता है?’ बाबा जी ने कहा – ‘हाँ भैया, देता तो है, पर मैं लेता कहाँ हूँ। जब मैं लेता नहीं तो सब वापस लौटकर इसी के पास रह जाती हैं। लड़का – ‘लेकिन यह बहुत खराब गालियाँ देता है।’ साधु – ‘यह तो और खराब बात है। पर मेरे तो वे कहीं चिपकी हैं नहीं, सब-की-सब इसी के मुख में भरी हैं। इसका मुख गंदा हो रहा है।’ गाली देनेवाला लड़का सुन रहा था साधु की बात। उसने सोचा, ‘यह साधु ठीक कह रहा है। मैं दूसरों को गाली देता हूँ तो वे ले लेते हैं। इसी से वे तिलमिलाते हैं, मारने दौड़ते हैं और दु:खी होते हैं। यह गाली नहीं लेता तो सब मेरे पास ही तो रह गयीं।’ लड़के को बड़ा बुरा लगा, ‘छि:! मेरे पास कितनी गंदी गालियाँ हैं।’ अन्त में वह साधु के पास गया और बोला – ‘बाबाजी! मेरा अपराध कैसे छूटे और मुख कैसे शुद्ध हो?’ साधु-‘पश्चात्ताप करने तथा फिर ऐसा न करने की प्रतिज्ञा करने से अपराध दूर हो जायगा। और ‘राम-राम’ कहने से मुख शुद्ध हो जायगा।’ ******

  • सर्वस्व दान

    रीता देवी एक पुराना मन्दिर था। दरारें पड़ी थीं। खूब जोर से वर्षा हुई और हवा चली। मन्दिर बहुत-सा भाग लड़खड़ा कर गिर पड़ा। उस दिन एक साधु वर्षा में उस मन्दिर में आकर ठहरे थे। भाग्य से वे जहाँ बैठे थे, उधर का कोना बच गया। साधु को चोट नहीं लगी। साधु ने सबेरे पास के बाजार में चंदा करना प्रारम्भ किया। उन्होंने सोचा – ‘मेरे रहते भगवान् का मन्दिर गिरा है तो इसे बनवाकर ही मुझे कहीं जाना चाहिये।’ बाजार वालों में श्रद्धा थी। साधु विद्वान थे। उन्होंने घर-घर जाकर चंदा एकत्र किया। मन्दिर बन गया। भगवान् की मूर्ति की बड़े भारी उत्सव के साथ पूजा हुई। भण्डारा हुआ। सबने आनन्द से भगवान् का प्रसाद लिया। भण्डारे के दिन शाम को सभा हुई। साधु बाबा दाताओं को धन्यवाद देने के लिये खड़े हुए। उनके हाथ में एक कागज था। उसमें लम्बी सूची थी। उन्होंने कहा – ‘सबसे बड़ा दान एक बुढ़िया माता ने दिया है। वे स्वयं आकर दे गयी थीं।’ लोगों ने सोचा कि अवश्य किसी बुढ़िया ने सौ-दो-सौ रुपये दिये होंगे। कई लोगों ने सौ रुपये दिये थे। लेकिन सबको बड़ा आश्चर्य हुआ। जब बाबा ने कहा – ‘उन्होंने मुझे चार आने पैसे और थोड़ा-सा आटा दिया है।’ लोगों ने समझा कि साधु हँसी कर रहे हैं। साधु ने आगे कहा – ‘वे लोगों के घर आटा पीसकर अपना काम चलाती हैं। ये पैसे कई महीने में वे एकत्र कर पायी थीं। यही उनकी सारी पूँजी थीं। मैं सर्वस्व दान करने वाली उन श्रद्धालु माता को प्रणाम करता हूँ।’ लोगों ने मस्तक झुका लिये। सचमुच बुढ़िया का मनसे दिया हुआ यह सर्वस्व दान ही सबसे बड़ा था। ******

  • स्वच्छता

    रंजन कुमार एक किसान ने एक बिल्ली पाल रखी थी। सफेद कोमल बालों वाली बिल्ली किसान की खाटपर ही रात को उसके पैर के पास सो जाती थी। किसान जब खेत पर से घर आता तो बिल्ली उसके पास दौड़कर जाती और उसके पैरों से अपना शरीर रगड़ती, म्याऊँ-म्याऊँ करके प्यार दिखलाती। किसान अपनी बिल्ली को थोड़ा-सा दूध और रोटी देता था। एक दिन शाम को किसान के लड़के ने अपने पिता से कहा – ‘पिताजी! आज रात को मैं आपके साथ सोऊंगा।’ किसान बोला – ‘नहीं। तुम्हें अलग खाटपर सोना चाहिये।’ लड़का कहने लगा – ‘आप बिल्ली को तो अपनी खाटपर सोने देते हैं, परंतु मुझे क्यों नहीं सोने देते?’ किसान ने कहा – ‘तुम्हें खुजली हुई है। तुम्हारे साथ सोने से मुझे भी खुजली हो जायगी। पहले तुम अपनी खुजली अच्छी होने दो।’ लड़का खुजली से बहुत तंग था। उसके पुरे शरीर में छोटे-छोटे फोड़े-जैसे हो रहे थे। खाज के मारे वह बेचैन रहता था। उसने अपने पिता से कहा – ‘यह खुजली मुझे ही क्यों हुई है? इस बिल्ली को क्यों नहीं हुई?’ किसान बोला – ‘कल सबेरे तुम्हें मैं यह बात बताऊंगा।’ दूसरे दिन सबेरे किसान ने बिल्ली को कुछ अधिक दूध और रोटी दी, लेकिन जब बिल्ली का पेट भर गया, वह दूध-रोटी छोड़कर दूर चली गयी और धूप में बैठकर बार-बार अपना एक पैर चाटकर अपने मुँह पर फिराने लगी। किसान ने अपने लड़के को वहाँ बुलाया और बोला – ‘देखो, बिल्ली कैसे अपना मुँह धो रही है। यह इसी प्रकार अपना सब शरीर स्वच्छ रखती है। इसी से इसे खुजली नहीं होती। तुम अपने कपड़े और शरीर को मैला रखते हो, इससे तुम्हें खुजली हुई है। मैल में एक प्रकार का विष होता है। वह पसीने के साथ जब शरीर के चमड़े में लगता है और भीतर जाता है, तब खुजली, फोड़े और दूसरे भी कई रोग हो जाते हैं।’ लड़के ने कहा – ‘मैं आज अपने सब कपड़े गरम पानी में उबालकर धोऊंगा। बिस्तर और चद्दर भी धोऊंगा। खून नहाऊँगा। पिताजी! इससे मेरी खुजली दूर हो जायगी।’ किसान ने बताया – ‘शरीर के साथ पेट भी स्वच्छ रखना चाहिये। देखो, बिल्ली का पेट भर गया तो उसने दूध भी छोड़ दिया। पेट भर जाने पर फिर नहीं खाना चाहिये। ऐसी वस्तुएँ भी नहीं खानी चाहिये, जिनसे पेट में गड़बड़ी हो। मिर्च, खटाई, बाजार की चाट, अधिक मिठाइयाँ खाने और चाप पीने से पेट में गड़बड़ी हो जाती है। इससे पेट साफ़ नहीं रहता। पेट साफ न रहे तो बहुत-से रोग होते हैं। बुखार भी पेट की गड़बड़ी से आता है। जो लोग जीभ के जरा-से स्वाद के लिये बिना भूख ज्यादा खा लेते हैं अथवा मिठाई, घी में तली हुई चीजें, दही-बड़े आदि बार-बार खाते रहते हैं, उनको एक खुजली ही क्यों और भी तरह-तरह की बीमारियाँ हो जाती हैं। पेट साफ रखने के लिये चोकर-मिले आटे की रोटी, हरी सब्जी तथा मौसमी, सस्ते फल अधिक खाने चाहिये।’ किसान के लड़के ने उस दिन से अपने कपड़े स्वच्छ रखने आरम्भ कर दिये। वह रोज शरीर रगड़कर स्नान करता है। वह इस बात का ध्यान रखता है कि ज्यादा न खाय तथा कोई ऐसी वस्तु न खाय, जिससे पेट में गड़बड़ी हो। उसकी खुजली अच्छी हो गयी है। वह चुस्त शरीर का तगड़ा और बलवान् हो गया है। उसके पिता और दूसरे लोग भी अब उसे बड़े प्रेम से अपने पास बैठाते हैं। *****

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