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- क्यू आर कोड
महेश कुमार केशरी मिंटू का आठ साल का लड़का बीमारा था। दशहरे का कलश स्थापना हो चुका था। लेकिन, दुकानदारी बहुत ठप चल रही थी। वो मेले ठेले में घूम-घूम कर बैलून-फोकना बेचता है। जब से सावन लगा था। तब से ही पूरा का पूरा सावन और भादो निकल गया था। लेकिन कहीं से पैसा नहीं आ रहा था। हाथ बहुत तँग चल रहा था। ये सावन भादो और पूस एक दम से कमर तोड़ महीने होते हैं। बरसात में कहीं आना जाना नहीं हो पाता। पूस खाली खाली रह जाता है। कोई नया काम इस महीने लोग शुरू नहीं करते। किसने बनाया ये महीना। ये काल दोष। खराब महीना या अशुभ महीना। पेट के ऊपर ये बातें लागू नहीं होती। पेट को हमेशा खुराक चाहिए। मिंटू को पेट से अशुभ कुछ भी नहीं लगता। पेट नहीं मानता शुभ अशुभ! उसको खाना चाहिए। उसको दिन महीने साल से कोई मतलब नहीं है। मनहूस से मनहूस महीने में भी पेट को खाना चाहिए। पेट को कहाँ पता है कि ये मनहूस महीना है। शुभ-महीना है। या अशुभ महीना? काश! कि पेट को भी पता होता कि सावन-भादो और पूस में काम नहीं मिलता है। इसलिये पेट को भूख ना लगे। लेकिन पेट है कि समय हुआ नहीं कि उमेठना चालू कर देता है। उसको नहीं पता कि मुँबई-दिल्ली में बरसात में काम बँद हो जाता है। काम ही नहीं रहता तो मालिक भला क्योंकर बैठाकर पैसे देगा। सही भी है। वो भी दो महीने से बैठा हुआ है। भर सावन और भादो। लिहाजा ग्राहक का लस नहीं है, बाजार में। मानों कि बाजार को जैसे साँप सूँघ गया हो। बरसात तो जैसे तैसे निकल गई थी। बी.पी. एल. कार्ड से पैंतीस किलो आनाज मिल जाता था। अनाज के नाम पर मिलता ही भला क्या है। रोड़ी बजरी मिले चावल। तिस पर भी पैंतीस किलो की जगह कोटे वाला तीस किलो ही अनाज देता है। पाँच किलो काट लेता है। एक दिन मिंटू विफर पड़ा था। गुड्डू पंसारी पर खीजते हुए बोला -"क्या भाई तुम लोगों का पेट सरकारी कमाई से नही भरता क्या? जो हम गरीबों का आनाज काट लेते हो। इस गरीबी में हम घर कैसे चला रहे हैं। हम ही जानते हैं।" गुड्डू पंसारी टोन बदलते हुए बोला -"अरे यार हम लोग तुमको गरीबों का हक मारने वाले लगते हैं, क्या? जो ऐसा बोल रहे हो। ये जो टेंपो-ट्रैक्टर से आनाज बी. पी. एल. कार्ड धारियों को बाँटते हैं। इसका भाड़ा एक बार में तीन हजार लगता है। सरकार हम लोगों को बाँटने के लिये अनाज जरूर देती है। लेकिन, ट्रैक्टर-टेंपो का किराया, गोदाम तक माल पहुँचाने के लिये ठेले का भाड़ा, थोड़े देती है।" "तब काहे देती है, अनाज हम गरीबों को। जब तुमलोग पैंतीस किलो में से भी पाँच किलो काट ही लेते हो। और भाई तुम भी भला क्यों अपनी जेब से भरते हो। जब इस बिजनस में घाटा है। तो छोड दो ना ये बिजनस।" "अरे, भाई तुमको नहीं लेना हो तो मत लो। काहे चिक-चिक करते हो। बी. पी. एल. कार्ड़ से जरूर पैंतीस किलो मिलता है। लेकिन इस रूम का भाड़ा। ये जो लाइट जलती है। उसका बिल। फिर सामान तौलने के लिये आदमी रखना पड़ता है। और तुमको तो पता है। इस बी. पी. एल. कार्ड के आ जाने से सब लोग राजा बन गया है। दशहरा के बाद दीपावली आने वाली है। कल नीचे धौड़ा में दो मजदूर खोजने गये थे। दीपावली पर घर की पुताई करने के लिए। तुम्हारे नीचे धौड़ा के दो मजदूरों को पूछा। बोले दो ठो रूम है। और एक ठो बरंडा है केतना लेगा। ई हराम का पैंतीस किलो चावल खा- खाकर ये लोग मोटिया गया है। दोनों मजदूर ताश खेल रहे थे। अव्वल तो टालते रहे। बोले कि अभी भादो का महीना है। अभी पँद्रह बीस दिन से हमलोग कहीं बाहर काम करने नहीं गये हैं। बदन बुखार से तप रहा था। अभी भी बदन-हाथ बहुत दर्द कर रहा है। उनको फुसलाकर चौक पर चाय पिलाने ले गया। चाय पी लिये। फिर भी टालते रहे। सोचा होगा गरजू है। समझ गये गुड्डू पंसारी आज काम पड़ा है, तो गधे को भी बाप बना रहा है। जानते हो हमको क्या जबाब दिया। बोला एक रूम का तीन हजार लेंगे। दो ठो रूम और बरंडा का कुल मिलाकर सात हजार लेंगें। करवाना है करवाओ। नहीं तो छोड़ दो। इस बी. पी. एल. के अनाज ने लोगों को कोढ़िया बना दिया है। दिनभर ताश और मोबाइल में रील्स देखते और बनाते हुए बीत रहा है। अभी तो सरकार हर गरीब घर में दीदी योजना में रूपया दे रही है। एक परिवार में अट्ठारह साल और अट्ठारह साल से अधिक उम्र के लोगों को हजार दो हजार रूपया हर महीना मिल रहा है। हर महीने लोग खाते में पैसा ले रहें हैं। इससे मुसीबत और बढ़ गई है। कटनी रोपनी में मजूर नहीं मिल रहें हैं। अभी इस दुकान के लड़के को जो रखा है। वो मेरे दूर के साढू का लड़का है। तीन सौ रूपये रोज के दे रहा था। रोज की मजदूरी। तो इधर महीने भर से ये और मेरा दूर का साढू मुँह फुलईले था। बोला साढू भाई रिश्तेदारी अपनी जगह है। लेकिन हमारा लड़का तोरा कोटा में बेगारी काहे खटेगा। आज लेबर कुली का हाजिरी भी सात-आठ सौ है। तो हमरा लड़का बेगारी काम करने थोड़ी आपके यहाँ गया है। कम से कम पँद्रह हजार महीना उसको खिला पिला कर दीजिए। नहीं तो गुजरात से उसको बीस हजार महीना काम के लिये रोज फोन आ रहा है। बोलियेगा तो भेजेंगे। नहीं तो आपके यहाँ जैसा ढेर काम पड़ा है। हमरे लड़का के यहाँ। ऊ तो रिश्तेदारी है, आपके साथ। नहीं तो हमारे घर में खुद की बहुत लँबी-चौड़ी खेती हैl अब आप ही बोलिये गली के इस टुटपूँजिये दुकान का किराया चार हजार रूपया है। पंखा-लाइट बत्ती का डेढ़-दो हजार रूपये का बिल आता है। दो ठो गोदाम रखें हैं। उसका छ: हजार अलग से दते हैं। सब मिलाकर जोड़ियेगा तो मेरा इसमें बचता उचता कुछ नहीं है। ऊ तो बाप दादा के समय से राशन-पानी और कोटे का काम चल रहा है। इसीलिए खींच-खाच के चला रहे हैं। नहीं तो एक रूपया किलो का कोटे का चावल बेचकर गुजार हो चुका होता। ऊ तो चौक पर एक होटल है। और ये राशन की दुकान है। जिसमें हेन तेन छिहत्तर आइटम रखे हैं। तब जाकर बहुत मुश्किल से कहीं चला पा रहें हैं। नहीं तो कितने लोगों ने जन वितरण प्रणाली की दुकान को बँद कर दूसरा तीसरा बिजनस कर लिया।" गुड्डू पंसारी बहुत मक्कार किस्म का आदमी है। बी. पी. एल. चावल में पहले तो पैंतीस की जगह तीस किलो चावल देता ह़ै। बी. पी. एल का बढिया वाला चावल निकालकर सस्ते वाला चावल बाँटता है। जो चावल एक रूपये किलो का होता है। उसको चालीस पचास रूपये किलो बेचता है। अव्वल तो दुकान खोलता ही नहीं। आजकल करके टरकाता रहता है। कई बार इसकी शिकायत ब्लाक के सी. ओ., बी. डी. ओ. से भी की गई। लेकिन सब के सब चोर हैं। ये गुड्डू पंसारी सबको पैसे खिलाता रहता है। मिंटू ने मुआयना किया। बारिश कब की खत्म हो गई थी। आसमान में धूप भी खिल आई थी। उसको कुछ आशा जग गई। कई दिनों से लगातार बारिश ने नाक में दम कर रखा था। बाहर निकलन मुश्किल हो रहा था। दो दिन वो उसी शॉपिंग मॉल के आसपास में ही भटकता रहा था। एक दिन एक खिलौना बिका था। उस दिन, दिन भर बारिश होती रही थी। दस बारह घँटे वो इधर उधर भटकता रहा था। लेकिन उस दिन पता नहीं कैसा मनहूस दिन था। कि एक ही खिलौना पूरे दिन भर में बिका था। घर में बी. पी. एल का चावल था। उसको डबकार किसी तरह माँड भात खाया था। उसके अगले दो-तीन दिन भी वैसे ही कटे थे। गीला मड-भत्ता खाकर। पेट है तो खाना ही पड़ेगा। पेट की मजबूरी है। "ए फोकना वाले ये कुत्ता कितने का दिया।" पीछे से किसी महिला ने आवाज लगाई। "ले, लो ना सत्तर रूपये का एक है, बहन।" "हूँह इतना छोटा कुत्ता। और वो भी प्लास्टिक का। ठीक से बोलो। तुमलोगों ने तो लूटना चालू कर दिया है।" "क्या लूट लूँगा बहन। सत्तर रूपये में बंगला थोड़ी बन जायेगा। तुम भी कमाल करती हो।" "ले लो पैंसठ लगा दूँगा।" "नहीं-नहीं चालीस की लगाओ। दो लूँगी।" "चालीस में तो नुकसान हो जायेगा, बहन। अच्छा चलो तुम दो के सौ रुपये दे देना।" "नहीं भैया इतने ही दूँगी। प्लास्टिक के खिलौने का भी भला इतना दाम होता है। देना है तो दो। नहीं तो मैं कहीं और से ले लूँगी।" मिंटू के पास एक ग्राहक देखकर खुद्दन और पोपन जोर-जोर से अपने मुँह में फँसे हुए बाजे को बजाने लगे। मिंटू को लगा वो ना देगा। तो हो सकता है। खुद्दन और पोपन दे दें। बेकार में बारह बजे बोहनी हो रही है। वो भी होते-होते रह जाये। "ले लो बहन चलो, पचास का ही ले ल़ो। दो निकालो सौ रुपये।" खुद्दन ने मिंटू और उस औरत की बातें सुन ली थी। खुद्दन मुँह का बाजा बजाना छोड़कर चिल्लाया -"खिलौने ले लो खिलौने। पचास के दो। पचास के दो।" औरत ने गरजू समझा -"बोली, पचास के एक नहीं दो दोगे। तब लूँगी।" "छोड़ दो बहन, मैं नहीं दे सकता। उस खुद्दन से ही ले लो। वही पचास के दो दे सकता है। मेरे बस की बात नहीं है। मैं, आपको खिलौने नहीं दे सकता।" महिला खुद्दन के पास गई। मोल तोल किया। फिर वापस मिंटू के पास आ गयी। "सही-सही लगालो भईया। खुद्दन पचास के दो दे रहा है। लेकिन उसके कुत्ते की सिलाई खराब है। धागा बाहर निकला हुआ है। नहीं तो खुद्दन से ही ले लेती।" पोपन महिला और मिंटू के करीब सरक आया था। उसने भी दो तीन दिन से कुछ नहीं बेचा था। बरसात में तो लोग निकल ही नहीं रहे थे। पोपन के बच्चे भी घर में भूख से बिलबिला रहे थे। पोपन ने आवाज दी -"बढिया खिलौने, छोटे बड़े हर तरह के खिलौने। सस्ते बढ़िया खिलौने। खिलौने ले लो खिलौने। पचास के दो खिलौने।" महिला पोपन की तरफ मुड़ी। लेकिन फिर आधे रास्ते से लौट गई। मिंटू से बोली-"लगा दो पचास के दो खिलौने। तुमसे ही ले लूँगी।" मिंटू खीज गया। उसने सोचा इस बला को किसी तरह टाला जाये। मुस्कुराते हुए बोला -"दो बहन तुम पचास रूपये ही दे दो।" महिला ने फोन निकाला -"लाओ अपना क्यू आर कोड दो।" "क्यू आर कोड।" "हाँ, पैसे किसमें लोगे। मोबाइल नंबर बताओ। उसमें डाल दूँगी। आजकल पैसे लेकर कौन चलता है। लाओ दो जल्दी करो। मुझे जाना है।" "क्यू आर कोड तो नहीं है। मैं मोबाइल नहीं रखता।" "आँय।" "इस डिजीटल युग में भी ऐसे लोग हैं। जो मोबाइल नहीं रखते। अच्छा तुम्हें अपना या अपने किसी परिचित या किसी रिश्तेदार का मोबाईल नंबर या खाता नंबर याद है। उसमें ही डाल देती हूँ।" "मेरे पास कोई बैंक का खाता नहीं है। हम गरीब लोग हैंl आज खाते हैं, तो कल के लिये सोचते हैं। हमारा वर्तमान ही नहीं होता है। तो भविष्य कैसा? हाँ हमारा अतीत जरूर होता है। लेकिन बहुत ही खुरदरा होता है, बहनl बहन, हम बँजारे लोग हैं। हमारा ये काम सीजनल होता है। महीने-दो महीने दुर्गापूजा, दीपावली, छठ तक हम लोग ये प्लास्टिक के खिलौने बेचते हैं। फिर कारखाने में लौट जाते हैं। वहाँ काम करने लगते हैं। " "लो, तुम यहाँ हो स्वीटी। मैं तुम्हें मॉल के इस कोने से उस कोने तक ढूँढ़ता फिर रहा हूँ।" ये आदमी उस महिला का पति जैसा लग रहा था। "अरे, आप आ गये। देखिये इसके पास मोबाइल भी नहीं है। मुझे पेमेंट करनी है। और क्यू आर कोड भी नहीं है, इसके पास। इस डिजीटल होती दुनिया में ऐसे-ऐसे लोग भी हैं। सचमुच बड़ा ताज्जुब होता है। ऐसे लोगों को देखकर मुझे। आज भी ऐसे लोग हैं, हमारे देश में। हमारा देश ऐसे लोगों के चलते ही बहुत पीछे हैं। छोड़ो मैं भी किन बातों में पड़ गई। ये यू. पी. आई. नहीं ले रहा है। पचास का नोट दो। दो खिलौने लिये है इससे। है, तुम्हारे पास पचास रूपये, खुल्ले।" महिला के पति ने जेब से पर्स निकाला। और खोज खाजकर कहीं से ढूँढ़-ढाँढ़कर पचास का नोट निकालकर दे दिया। फिर, उस महिला से बोला -"ऐसे तो कम-से-कम तुम मत इसको बोलो। बहुत से लोग हैं। जिनके पास मोबाइल खरीदने तक के पैसे नहीं है। और मोबाइल खरीद भी लें। तो डाटा कहाँ से भरवायेंगे। सब लोग तो सक्षम नहीं ना होते।" महिला -"डिस्कसटिंग मैन।" मिंटू समझ नहीं पाया। महिला अपने पति से बोली - "अर्णव के जन्मदिन पर आपने क्या लिया।" पति ने पालीबैग से एक मिंटू के साइज से थोड़ा सा बड़ा साइज का एक कुत्ता निकालकर दिखाया। "अरे वाह ये तो बहुत प्यारा है। अर्णव बहुत खुश हो जायेगा।" "कितने का लिया।" "अरे छोड़ो जाने दो।" "बताओ ना।" "ढाई सौ का।" महिला की नजर मिंटू से एक बार मिली। लेकिन महिला ज्यादा देर तक मिंटू से आँख ना मिला सकी। मिंटू के चेहरे का भाव कुछ यूँ था। मानो कह रहा हो। कि हम शापिंग मॉल वालों की तरह नहीं ठगते। "देख लिया, बहन। हमलोग आपको ठगते नहीं। बस पेट पालने के लिए ही खिलौने बेचते हैं। कहाँ पचास के दो कुत्ते। और कहाँ ढाई सौ का एक! "मिंटू के स्वर मे़ व्यंग्य था। महिला मिंटू का सामना बहुत देर तक ना कर सकी। दौड़कर गाड़ी में जाकर बैठ गई। पति, मिंटू से -"अच्छा यंगमैन चलता हूँ। फिर मिलेंगे।" मिंटू मुस्कुराया। उस औरत के जाते ही मिंटू के सारे खिलौने बिक गये। और छ: सात सौ रूपयों की अच्छी खासी बिक्री हो गयी थी। वो दोपहर में खाना खाने के लिये अपने घर जाने लगा। तभी उसको ख्याल आया कि कुछ सौदा भी घर लेकर जाना है। वो गुड्डू के यहाँ जाना चाहता था। लेकिन उस बेईमान आदमी को याद करते ही उसका मन अंदर से घृणा से भर उठा। वो जीतू के यहाँ चला गया। और बोला भाई जीतू -"आटा कैसे दिए।" "तीस रूपये किलो।" "सरसों तेल?" "एक सौ अस्सी रूपये किलो।" "अरे भाई, क्यों लूट मचा रखी है। अभी सप्ताह भर पहले ही तो डेढ़ सौ रूपये किलो था। फिर अचानक से आज एक सौ अस्सी रूपये किलो कैसे हो गया? भला एक सप्ताह में इतना दाम बढ़ता है।" ."एक सप्ताह छोड़ दो भाई। यहाँ रोज दाम बढ़ रहे हैं।" "और रहड की दाल का क्या भाव है?" "एक सौ साठ रूपये किलोl" मिंटू ने मन-ही मन-हिसाब लगाया। अगर एक किलो सरसों का तेल, एक किलो आटा, और एक किलो दाल ली जाये तो तीन चार सौ रूपये तो ऐसे ही निकल जायेंगे। छुटकु बीमार है। पहले उसको डॉक्टर के पास दिखला लेना चाहिए। फिर राशन के बारे में विचार किया जायेगा। *******
- संगीत प्रेमी
मुकेश ‘नादान’ नरेंद्र उन दिनों अपने पिता के घर भोजन करने के लिए केवल दो बार जाया करते थे, और दिन-रात निकट के रामतनु बसु की गली में स्थित नानी के घर रहकर पढ़ा करते थे। वे केवल पढ़ने की खातिर ही यहाँ रहते थे। नरेंद्र अकेले रहना पसंद करते थे। घर पर अनेक लोग थे, बड़ा हल्ला-गुल्ला था, रात में जप-ध्यान में बड़ी बाधा होती थी। नानी के घर पर अधिक लोग नहीं थे। जो दो-एक व्यक्ति थे, उनसे नरेंद्र को कोई बाधा नहीं होती थी। बंधु-बांधवों में जिनकी जब इच्छा होती, यहाँ आ उपस्थित होते। नरेंद्र ने अपने इस अपूर्व कमरे का नाम रखा था-'टं'। किसी को साथ लेकर वहाँ जाने पर कहते, “चलो “टं' में चलें।' कमरा काफी छोटा था-चौड़ाई चार हाथ, लंबाई प्रायः उसकी दुगुनी। सामान में एक केनवस (मजबूत मोटे कपड़े) की खाट, उस पर मैला छोटा सा एक तकिया। फर्श पर एक फटी बड़ी चटाई बिछी हुई। एक कोने में एक तानपुरा, उसी के समीप एक सितार और एक डुग्गी। डुग्गी कभी इस चटाई पर पड़ी रहती या कभी खाट के नीचे, अथवा कभी खाट के ऊपर रखी रहती। कमरे के एक कोने में एक साधारण हक्का, उसके निकट थोड़ा सा तंबाकू का गुल और राख गिराने के लिए एक मिट्टी का ढक्कन रखे रहते। उन सब के पास ही तंबाकू (पीनी), टिकिया और दियासलाई रखने का एक मिट्टी का पात्र रखा होता। और ताक पर, खाट पर, चटाई के ऊपर, यहाँ-वहाँ पढ़ने की पुस्तकें बिखरी पड़ी रहतीं। एक दीवार में एक रस्सी की अलगनी लगी थी, उस पर धोती, कुरता और एक चादर झूलती थी। कमरे में दो टूटी शीशियाँ रखी थीं, जो हाल ही में वे रोगग्रस्त हुए थे, इसका प्रमाण थीं। कमरे का बिखरे होने का एकमात्र कारण यह था कि उनका इन सब वस्तुओं की ओर कोई ध्यान नहीं था। बचपन से ही उनमें किसी भोग्य वस्तु के प्रति अपने सुख की कामना नहीं दिखाई पड़ती थी। एक दिन नरेंद्र मनोयोगपूर्वक अध्ययन कर रहे थे। इसी समय किसी मित्र का आगमन हुआ। भोजनादि कर नरेंद्र पढ़ रहे थे। मित्र ने आकर कहा, “भाई, रात में पढ़ना, अभी दो गीत गाओ।” नरेंद्र ने तुंत पाठ्य-पुस्तक समेटकर एक ओर रख दीं। सितार पर सुर बाँधकर नरेंद्र ने गाना शुरू करने के पहले मित्र ने कहा, “तुम डुग्गी ले लो।” मित्र ने कहा, “भाई, मैं तो बजाना जानता नहीं। स्कूल में टेबुल को हथेली से ठोककर बजाता हूँ, तो क्या इसी से तुम्हारे साथ तबला-डुग्गी बजा सकता हूँ।” नरेंद्र ने तुंरत स्वयं थोड़ा बजाकर दिखाया और कहा, “भली-भाँति देख लो। जरूर बजा सकोगे? कोई कठिन काम नहीं है। ऐसा करते हुए केवल ठेका देते जाओ, इसी से हो जाएगा।” साथ ही गीत का बोल भी कह दिया। दो-एक बार प्रयास कर किसी तरह मित्र ठेका बजाने लगे। गान शुरू हो गया। ताल-लय में उन्नत होकर और उन्मत्त कर नरेंद्र का हृदयस्पर्शी गीत चलने लगा-टप्पा, टप खयाल, धुपद, बँगला, हिंदी, संस्कृत। नए ठेके के समय नरेंद्र ऐसे ही सहज भाव से बोल के साथ ठेका आदि दिखा देते कि एक ही दिन में कव्वाली, एकताला, आड़ाठेका (संगीत का एक ताल विशेष), मध्यमान, यहाँ तक कि सुरफाँक ताल तक उसके दूवारा बजवा लिया। मित्र बीच-बीच में चिलम भरकर नरेंद्र को पिलाता और स्वयं पीता। यह केवल इसलिए कि तबला बजाने के कार्य में थोड़ा अवकाश नहीं लेने पर हाथ टूट जाने का भय था। किंतु नरेंद्र के गान में विराम नहीं। हिंदी का गीत होने पर नरेंद्र उसका अर्थ कहता-दिन कहाँ से बीत गया पता ही नहीं। शाम हो आई, घर का नौकर एक टिमटिमाता दीया रख गया। क्रमश: रात के दस बजे दोनों व्यक्तियों को होश होने पर उन दिनों के नियमानुसार विदा लेकर नरेंद्र खाना खाने पिता के घर चला गया। उनके मित्र ने अपने घर के लिए प्रस्थान किया। इस प्रकार पढ़ने के समय नरेंद्र को कितनी बाधाएँ होती थीं, कहा नहीं जा सकता। किंतु कितनी ही बाधा क्यों न हो, नरेंद्र निर्विकार रहता था। *****
- लौटा दी खुशियां
दिलीप कुमार जैसे ही बाहर की घंटी बजी, तो नौकर ने पूजा को आकर बताया कि पडोस वाली कमला आन्टी, अभी-अभी टैक्सी से उतर कर सामान सहित बाहर खडी है। पूजा हैरान सी उसे घूरते हुए जल्दी-जल्दी बाहर आई। अभी सुबह ही तो सारे मुहल्ले ने उन्हें नम ऑखो से विदाई दी थी। वह अपने इकलौते बेटे गौरव के साथ कैनेडा जा रही थी। अपने पति की मृत्यु के बाद वह अकेली हो गयी थी। बेशक सारा मुहल्ला उन का अपना था। वह काफी मिलनसार, सुख दुख सान्झा करने वाली महिला थी। सब को उनका जाना बहुत अखर रहा था, पर सब सोच कर प्रसन्न थे कि शेष जीवन वह पूरे परिवार के साथ हंसी, खुशी से बितायेगी। दरवाजे पर सामान सहित कमला जी को देख कर पूजा को विश्वास नही आया। उसने नौकर को सामान भीतर लाने को कहा। एक बार उसके मन मे आया कि शायद फ्लाईट छूट गयी हो, पर गौरव को भी साथ होना चाहिए था। जैसे ही उसने गौरव के बारे में पूछा तो उन की ऑखो से ऑसू बह निकले। पूजा ने प्यार से उनकी पीठ थपथपाई और पानी पिलाया। थोडी देर बाद जब कमला जी संयत हुई तो उन्होंने बताना शुरु किया।
- माई का श्राप
संजय नायक "शिल्प" वो तीन बेटों की माँ थी। बेटों को छोटी उम्र में ही छोड़कर पिता गुजर गया था। गंगा नाम था उसका, जैसे ही पति गया वो ठाकुर जी के चरणों में चली गई। बस दिन रात उनका ही ध्यान करती मेहनत मजदूरी कर तीनों बच्चों को बड़ा किया। श्याम प्रसाद, राम प्रसाद और शिव प्रसाद ये ही तीनों उसकी दुनिया थे। भगवान की बहुत सेवा और मेहनत के बाद तीनों बेटों को ब्याह लाई थी गंगा माई। सब कहते थे कि गंगा माई के स्वर से ईश्वर बोलते हैं वो जो कहती है पत्थर की लकीर है। सब उसे गंगा माई कहते थे। पूरे गांव वालों को गंगा माई की भक्ति पर अटूट श्रद्धा थी। नसीब पर किसका ज़ोर चला है नियति अपने आप सब करती है। श्याम प्रसाद की पत्नी मुँहफट थी, गंगा माई से उसका छत्तीस का आंकड़ा था। उन दोनों में अक्सर बहस होती रहती थी। एक रोज़ ऐसी ही बहस होकर झगड़े में तब्दील हो गई। उस दिन श्याम प्रसाद कुछ तैश में आ गया शायद वो पत्नी से दबता था। उस रोज़ वो अपनी पत्नी के पक्ष में गंगा बाई से ज़ोर से बोल गया और उसे कलहगारी कह गया। गंगा माई को बहुत दुख और गुस्सा आया उन्होंने श्याम प्रसाद को श्राप दे दिया, "आज तूने अपनी पत्नी के साथ खड़ा होकर मेरे लिए गलत बोला, जा मैं तुझे श्राप देती हूँ तू गूंगा हो जाये आज के बाद एक शब्द भी न बोल पाये।" श्याम प्रसाद ने अपनी माता के दुख को महसूस किया और अपनी गलती को भी, उस दिन से श्याम प्रसाद जानकर गूंगा हो गया, उस घटना के बाद वो कभी नहीं बोला। पूरे गाँव और आस पास के गाँवों में ये चर्चा फैल गई कि गंगा माई ने अपने ही बेटे को गूंगा होने का श्राप दे दिया और उसकी आवाज़ चली गई। गंगा माई की शक्ति और भक्ति का दूर-दूर तक प्रसार हो गया। गाँव वाले अब उसकी इज़्ज़त करने के बजाय उससे डर गए, तीनों बहुएँ भी डर गईं। उसके बाद कोई भी गंगा माई के सामने ऊँची आवाज़ में नहीं बोला। सब उसे नाराज़ करने से डरने लगे कि न जाने कब गंगा माई क्रुद्ध होकर कोई वाणी निकाल दे और वो सच हो जाये। पर गंगा माई अपने श्राप और बेटे के गूंगा होने से दुखी हुई। वो ईश्वर से माफ़ी माँगती रही कि ऐसे अपराध के लिए ईश्वर उसे माफ़ कर दे .... अपने ही बेटे की आवाज़ वो लील गई। पर उसे ईश्वर पर अटूट विश्वास हो गया कि उसकी ज़बान को ईश्वर ने फलीभूत किया। वक़्त चलता रहता है रुकता नहीं। इस बात को बाईस साल गुज़र गए। गंगा माई वृद्ध हो गई और उसने खटिया पकड़ ली। उसे दुःख था उसने बेटे को श्राप दिया और उसकी आवाज़ चली गई। उसे श्राप से मुक्ति का कोई उपाय नहीं आता था। जब वो मरणासन्न थी उसने अपनी अंतिम इच्छा ज़ाहिर की, कि उसे श्याम प्रसाद से अकेले में बात करनी है। उसकी अंतिम इच्छा के लिए श्याम प्रसाद माई के कमरे में गया। माई ने श्याम प्रसाद के आगे हाथ जोड़े और कहा, " मेरे प्रिय श्याम मैंने तुझे अनजाने में श्राप दे दिया कि तू गूंगा हो जाये और तेरी आवाज़ चली गई। मैं इस श्राप का कोई तोड़ नहीं जानती, पर मैं बहुत दुखी हूँ। मेरे प्राण बस इसीलिए अटके हैं कि इन बाईस सालों में तू बोल न पाया, पर तेरी आवाज़ आ जाये तो मैं चैन से मर सकूंगी और ईश्वर मुझे अपने चरणों में जगह दे दे। वो पल भर का गुस्सा था मैं सच में नहीं चाहती थी तुम्हारी आवाज़ चली जाए। मैं अभागिन इस अपराध बोध से ख़ुद को मुक्त नहीं कर पा रही हूँ।" उसकी बात सुनकर श्याम प्रसाद ने उठकर उस कमरे के दरवाजे को बन्द कर दिया और कुंडी चढ़ा दी। वो गंगा माई के पास आकर बैठ गया और बोला," माई मैं बोल सकता हूँ....आज से ही नहीं पिछले बाईस साल से बोल सकता हूँ, पर जानकर गूंगा बन गया, ताकि तुम्हारी भक्ति पर किसी को संदेह न हो। साथ ही मेरी पत्नी ही नहीं तुम्हारी बाकी दोनों बहुएँ भी डर से तुम्हारे सामने न बोलें और तुम्हें दुख न पहुंचाएं। सब तुम्हारी इज़्ज़त करें, चाहें डर से ही सही। मैंने देखा है बाबा के जाने के बाद आपने हमें किन कठिन परिस्थितियों में पाल पोस कर बड़ा किया है। जिस दिन तुमने मुझे गूंगा होने का श्राप दिया था, उस दिन तुमने ठाकुर जी पर अटूट विश्वास कर वो श्राप दिया था। अगर वो फलीभूत न होता तो तुम्हारा भी ठाकुर जी पर से विश्वास उठ जाता, और मुझे दुख था कि मैं पहली बार तुम्हारे सामने बोल गया, मैंने जान बूझकर गूंगा होकर तुम्हारे श्राप को जिया। ये ज़रूरी था क्योंकि जो भगवान श्याम थे वो भी अपनी माई की हर बात को मानते थे तो ये श्याम अपनी माई की बात कैसे न मानता? आज आपका दिया श्राप खत्म हुआ और मेरी आवाज़ आ गई है। आप मन में कोई बोझ न रखकर ईश्वर के भजन करो। मैं आपसे बहुत प्रेम करता हूँ, आप मुझे उस दिन की गलती के लिए क्षमा कर दो।" ऐसा कहकर श्याम प्रसाद ने अपनी माई के हाथ अपने हाथों में पकड़ लिए। माई के गले से आवाज निकली "हे ठाकुर जी मुझे अपने चरणों में स्थान देना।" एक हिचकी के साथ माई के प्राण पखेरू उड़ गये। श्याम प्रसाद ने माई के कमरे का दरवाजा खोला और ये घोषणा कि माई ने जाते जाते मुझे श्राप से मुक्त कर दिया और मेरी आवाज लौटा दी, बोलो गंगा माई की जय। समवेत स्वर में एक जयकारा गूंजा। ये ख़बर जंगल में आग की तरह आस पास के गाँवों में फैल गई कि गंगा माई जाते जाते अपने बेटे को श्राप मुक्त कर गई। आस पास के गांवों के हज़ारों लोग गंगा माई के अंतिम संस्कार में शामिल हुए और उनकी अर्थी को अपना कंधा लगाकर खुद को धन्य समझते रहे। धन्य है वो बेटा जिसने अपनी माई, जो कि जीवन भर दुखियारी रही, को देवी बना दिया था। ********
- नई संस्कृति
राजीव जैन वह साहब सुबह उठा। नहा धो कर, नाश्ता कर आफिस के लिये तैयार होने लगा कि अचानक ही एक जूते का तस्मा कसते कसते टूट गया। इतना समय नहीं बचा था कि बाजार जाकर नया तस्मा खरीद कर आ पाता। गाड़ी आकर गेट पर लग चुकी थी। जैसे-तैसे पुराने तस्में से जूते कसे और ये सोच कर आफिस रवाना हुआ कि शाम को आफिस से लौटते समय नये तस्में खरीद लायेगें। आफिस से छुट्टी हुई। साहब गाड़ी में सवार सीधे एक बढ़िया मार्केट में पंहुचे। बड़े-बड़े शो रुम। चमचमाती दुधिया लाईट्स। खूब भीड़। साहब एक शो रुम में घुसे। सेल्समैन भागा-भागा आया-कहिये साहब? किस ब्रान्ड के जूते दिखाऊं? मुझे जूते नहीं सिर्फ तस्में चाहिये कहते हुये साहब ने सोफे पर बैठते हुये कहा। सेल्समैन मुंह बनाकर बोला-साहब यहां केवल नये जूते मिलते हैं, आप कहीं और जा कर पता करें। इस तरह साहब कई दुकानों पर गये, हर जगह एक जैसा जवाब। यहां पुराने का कोई काम नहीं। एक सेल्समैन ने तो यहां तक कह दिया कि क्या रखा है इस पुराने जूतों में, इन्हें फेकिये व नये जूते ले ले। आज कल तो लोग वृद्ध माता पिता को वृद्धाश्रम छोड़ आते है, ये तो जूते हैं। आईये नये जूते दिखाताहूं, खरीदिये-और सारी प्राब्लम साल्व। न रहेगे पुराने जूते न ढूढने होगे इनके लिये नये तस्में। साहब नये जूते पहन बाहर आये तो देखा बाहर ठेलो पर लोग पेपर प्लेट्स व पेपर ग्लास मे खा पी कर डस्ट बिन में फेकते जा रहे है। उन्हें लगा जैसे पुराना जूता उनको समझा कर कह रहा था- बाबू मोशाय, कुछ समझ आया। अब भी नहीं समझे क्या? ये है नया कल्चर-आज की नई संस्कृति-यानि कि यूज एन्ड थ्रो। ओल्ड से न करो कोई मोह। समझे क्या। साहब ने अपने पुराने जूते वहीं डस्टबिन में फेके, चैन की सांस ली और अपनी गाड़ी की ओर बढ़ गये। *****
- भाव
श्रीमती सिन्हा विश्वास हमारी ये..गऊ-गंवई सी सीधी सादी। अभी नए-नए ब्याह के लाए हैं ना इसी से शहरी चाल-चालाकी नहीं समझती। मैं सुबह से शाम तक डयूटी पर और वो घर में निपट अकेली। ऊब जाती होगी तभी तो रोज़ मेरी स्कूटर की आवाज़ सुनकर भाग के आ जाती बाहर। कभी पल्लू कभी चुन्नी की ओट से झांकती इनकी आंखों की वो गजब चमक देखने के लिए मैं सामने के मोड़ से ही हॉर्न बजाना शुरू कर देता। पड़ोस की बिंदो ताई टोक भी चुकी इस खातिर, मगर मैं बुरा नहीं मानता। मेरे पीछे उनकी शीला बहू से बीच-बीच में बोल-बतियाकर ये अपना मन लगाए रहती है ना इसीलिए। सोचता हूं कभी-कभार थोड़ा घुमा-टहला दूं। चूड़ी, बिंदी, काजल ही खरीदवा दूं खुश रहेगी। नई नौकरी जेब तंग..इससे ज्यादा खर्चे की सोचता भी नहीं मगर जब भी पूछो इनका वही ना-नुकुर! हिला देती अपना सिर दाएं-बाएं..बावली! लेकिन आज खुदी तैयार, ‛ए जी बाज़ार ले चलिए।’
- अकेली लड़की
सूरजभान पिछले शनिवार की रात थी, करीब 11:30 बज रहे थे। मैं ऑफिस से निकला और पार्किंग से अपनी बाइक लेकर अपने घर की ओर जा रहा था। जाड़े का मौसम था, सड़कें बिल्कुल सुनसान थीं। मैं तेजी से अपने घर की तरफ जा रहा था परंतु कुछ दूर जाने के बाद मैंने देखा कि एक सुन्दर लड़की सड़क के किनारे खड़ी है और मदद के लिए हाथ दे रही है। मैंने तुरंत बाइक रोकी, लेकिन मेरे रुकने से एक रिक्शा जो उसी तरफ आ रहा था, वह आगे बढ़ गया। मैंने कहा, "जी कहिए, मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूं?" लड़की ने ऊँचे स्वर में बोली, "मैंने ऑटो को हाथ दिया था, और आपके रुकने की वजह से वह चला गया। बड़ी मुश्किल से एक ऑटो आया था।" उनकी यह बात सुनकर मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ। इतनी रात को एक अकेली महिला को मेरे कारण परेशानी का सामना करना पड़ रहा था। मैंने उनसे अपनी गलती के लिए उनसे माफी मांगी और पूछा कि अगर आप बुरा न माने तो "मैं आपको छोड़ देता हूँ" लेकिन उन्होंने साफ इनकार कर दिया। मैंने फिर कहा, देखिए रात बहुत हो चुकी है, सड़कें सुनसान हैं। आपको अकेला छोड़ना सही नहीं है। मैं आपको छोड़ देता हूं "लेकिन वह मानने को तैयार ही नहीं थी। मैंने मन में सोचा, "क्या करूं? यहां रुकना बेकार है। लेकिन अगर इसे कुछ हो गया, तो मैं खुद को कभी भी माफ नहीं कर पाऊंगा।" मैंने उनसे कहा, "आप ऑटो का इंतजार करें। मैं यहीं दूर खड़ा रहूंगा। अगर मदद की जरूरत हो, तो मुझे बता दीजिए।" इतना कहने के बाद मैं कुछ दूरी पर खडा था। करीब आधा घंटा बीत गया। ठंड बढ़ती जा रही थी, और कोई ऑटो नहीं आया। मैंने फिर से उनसे लिफ्ट के लिए पूछा, लेकिन उन्होंने फिर से मना कर दिया। उनकी हिचकिचाहट देखकर मैंने सोचा कि उन्हें मुझ पर विश्वास नहीं हो रहा है। मैंने पर्स से अपना आधार कार्ड और ड्राइविंग लाइसेंस निकालते हुए कहा, "देखिए, यह मेरा पहचान पत्र है। इसे आप अपने पास रख सकती हैं। मैं आपको सीधे आपके घर तक छोड़ दूंगा। मेरे लिए आप मेरी बहन जैसी हैं।" मेरे इन शब्दों ने शायद उन्हें कुछ राहत दी। उन्होंने थोड़ी मुस्कान के साथ कहा, "ठीक है, लेकिन मैं सिर्फ वहाँ तक चलूँगी, जहां तक मुझे सुरक्षित लगे।" वह मेरी बाइक पर बैठ गई और हम चल पड़े। रास्ते में उन्होंने कुछ नहीं कहा। करीब 40 किलोमीटर चलने के बाद उन्होंने अचानक कहा, "बस, यहीं रोक दीजिए।" वह उतरकर एक गली की ओर दौड़ पड़ी और चंद पलों में मेरी आंखों से ओझल हो गई। मन को तसल्ली हुई कि वह सुरक्षित घर पहुंच गई। और मैं घर की ओर निकला जब मैं घर पहुंचा, तो रात के तीन बज चुके थे। पापा गुस्से में थे, मम्मी और बहन भी जाग रही थी। मैंने बिना कुछ बताए सीधे अपने कमरे की ओर चल दिया और फिर सुबह 11 बजे बहन ने आकर मुझे जगाया, "भैया, नीचे कोई लड़की आई है। मैंने देखा एक ल़डकी है साथ में उसके मम्मी-पापा भी हैं। क्या कुछ गड़बड़ कर दी क्या मैंने ?" आधे सोते हुए मैं नीचे गया। वहां वही लड़की खड़ी थी, जिनकी मैंने कल रात में मदद की थी। उनके साथ उनके माता-पिता भी थे। लड़की मुस्कुराई और बोली, "भैया, आपने मेरी इतनी मदद की, लेकिन मैं आपको धन्यवाद भी नहीं कह सकी। यह रहा आपका आधार कार्ड और पर्स। आप जैसे लोग इस दुनिया में बहुत कम होते हैं।" फिर उन्होंने मुझे thank you बोला उसके माता-पिता ने भी मुझे ढेरों आशीर्वाद दिए और अपने घर आने का निमंत्रण देकर चले गए। उनके जाते ही पापा ने मुझे सीने से लगा लिया और कहा, "मुझे गर्व है कि तुम मेरे बेटे हो। लेकिन रात को यह बात बता दी होती, तो बेवजह चिंता नहीं होती। "मैंने कहा, "पापा, आपकी चिंता हमेशा मेरी भलाई के लिए ही होती है।"पापा, मम्मी और बहन ने मुझे फिर गले लगा लिया। उस दिन पापा की एक बात ने मेरी सोच बदल दी "अकेली लड़की मौका नहीं, जिम्मेदारी होती है।" ******
- तीसरी गलती
ललिता सिंह टूर पर जाने के लिए समीरा ने सारी तैयारी कर ली थी। उसने दो बैग में सारा सामान भर लिया। बेटी को पैकिंग करते देख नीला ने पूछा, "इस बार कुछ ज्यादा सामान नहीं ले जा रही हो?" "हां मां, ज्यादा तो है," गंभीर स्वर में समीरा ने कहा। अपने जुड़वां भाई अतुल, भाभी रेखा को बाय कहकर, उदास आंखों से मां को देखती हुई समीरा निकल गई। 10 मिनट बाद ही समीरा ने नीला को फोन किया, "मां, एक पत्र लिखकर आपकी अलमारी में रख आई हूं। जब समय मिले, पढ़ लेना।" इतना कहकर उसने फोन काट दिया।
- प्रेम पदचाप
डॉ. जहान सिंह ‘जहान’ सुशीरो जापान का एक सुंदर खुशहाल गांव, जो अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए जाना जाता है। भले लोगों की बस्ती। धान की खेती और फलों के बाग, जीवकोपार्जन का मुख्य साधन। आईको एक खूबसूरत भोली भाली लड़की, जिसे सारा गांव प्यार करता था। माता-पिता गरीब किसान खेतों में काम करते थे। स्कूल के बाद आईको उनके काम में हाथ बटाती थी। एक दिन वो माँ बाप को खेतों पर खाना देने जा रही थी। रास्ते में गांव के एक मनचले लड़के ने उसके साथ जबरदस्ती की। मजबूर आईको रोती गिड़गिड़ाती रही, विनती करती रही पर अपने को बचा न सकी। लौटकर उसने सब बात बताई। गरीब माँ बाप रोते हुए गांव के मुखिया के पास गए। मुखिया ने उन्हें सांत्वना दी। पंचायत ने उस नीच लड़के को गांव से निकाल दिया। धीरे-धीरे उन लोगों का जीवन पुनः सामान्य हो गया। एक दिन गांव का मुखिया अपने खेत देखने निकला। उसने देखा कि आईको अकेली खेत में काम कर रही थी। उसके माँ-बाप दूर जंगल में लकड़ी लेने गए हुए थे। मुखिया भेड़ की खाल में भेड़िया था। उसकी नीयत खराब हो गई। उसने भी लड़की के साथ मुँह काला किया। आइको बेसहारा रोती चिल्लाते घर पहुंची माँ बाप के पैरों तले जमीन खिसक गई। वह गरीब मुखिया का सामना कैसे करेंगे? फिर भी साहस बटोरकर उन्होंने पंचायत बुलायी। मुखिया ने वक्त की नजाकत देखकर उससे विवाह करने की घोषणा कर दी। न्याय हो गया 14 साल की मासूम को 50 साल के बुड्ढे को बांध दिया गया। इतना बेमेल विवाह वो बेजान जिंदगी गुजार रही थी। वक्त गुजरता गया। द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ हो गया। जापान तबाह हो गया। लोग इधर उधर भागने लगे। मुखिया मर गया था आइको पर दुखों का जैसे पहाड़ टूट पड़ा हो। अब वो अपना नया जन्म मान कर भाग निकली। विदेश जा रहे एक पानी के जहाज पर बैठ गयी। नहीं मालूम कहाँ जा रही है? यूरोप के किसी पोर्ट पर जलपोत रुका। लोग उतरकर जाने लगे। वो भी उतर कर चलदी। एक नौजवान अकेली लड़की, भाषा की परेशानी, भूखी प्यासी लाचार गलियों में भटकती हुई एक छोटे से मकान के बाहर टीन सेट में खड़ी हो गयी। पानी बरस रहा था। रात हो गई थी, कहाँ जाये। मजबूर आइको ने दरवाजा खटखटा दिया। हैनरी ने दरवाजा खोला। परेशान हो गया। विश्व युद्ध का समय, अनजान एक जवान लड़की को वो भी हावभाव से जापानी। वो सोच नहीं पा रहा था, क्या करें? सर्दी से कांप रही थी, रोने की सिसकियां उसे और बेचैन कर रही थी। हैनरी एक अच्छा इंसान था। दयावश उसने आइको को घर के अंदर आने की इजाजत दे दी। कॉफी पिलाई, थर थर काँपती आईको कुछ स्थिर हुई। हैनरी पुराने कबाड़ का एक स्टोर उसी घर में चलाता था। अकेला रहता था। आइको थोड़ी देर बाद कमरे में पड़ी बेतरतीब चीजों को सलीके से लगाकर रसोई की तरफ चली गई। हैनरी चिंतित था वो क्या करे और उसे गौर से बस देखता जा रहा था। इतनी खूबसूरती, एक साथ गोरा बदन, मांसल पिंडलीयां, पूरा भरा पूरा सीना, कोमल होठ, और सुनहरे बाल। आइको चाय बनाकर ले आयी और इसारों से समझाने की कोशिश करने लगी कि मैं यहाँ आप पर बोझ नहीं बनूँगी। आपके साथ स्टोर में सहायता करूँगी। हैनरी बोझिल मन से उसे गेट पर छोड़ने जा रहा था। बरसात इतनी तेज और रात अंधेरी कहाँ जाएगी? इस विचार ने उसके कदम पीछे खींच लिए। हैनरी ने उसे रात रुकने की इजाजत दे दी। आइको के आंखो में आंसू और धन्यवाद कहते हुए उसके गले लगकर रोने लगी। इतनी देर तक दोनों उसी स्थिति में खड़े रहे। हैनरी की आँखों में आंसू थे। इतने वर्षों बाद किसी ने उसे गले लगाया था। रात आईको सोफे पर लेटी और इतनी थकी थी। फौरन सो गयी। पर हैनरी सारी रात जागता रहा। बस आईको को देखता रहा। हैनरी ने अपनी पूर्व प्रेमिका के लिए एक कीमती अंगूठी बनवाई थी। विश्व युद्ध के दौरान वह उससे बिछड़ गई थी और वो उसे अंगूठी नहीं दे सका। आज उस अंगूठी को देखकर पुराने दिन एक बार चलचित्र की तरह चलकर गुजर गए। हैनरी वो अंगूठी साफ करके शो केस में सजा रहा था। आइको ने देखा और कहा, ये बहुत सुन्दर है। हेनरी ने कहा, तुम रख लो। आइको बोली ये तो बेशकीमती है, अगर मुझसे खो गई तो मैं कैसे वापस करूँगी? इसे मैं नहीं ले सकती। हैनरी कुछ देर सोच विचार करता रहा। फिर अचानक उसने शादी के लिए प्रपोज कर दिया। आइको हस्तप्रद खड़ी थी। आँखों से आंसू बह रहे थे। उसका यह दूसरा जन्म जैसा था। शर्माकर उसने कहा, आपकी पत्नी बनना मेरे मेरा सौभाग्य होगा और अंगूठी पहन ली। अगले दिन चर्च में जाकर शादी कर ली। “प्रेम पदचाप कितने खामोश होते हैं? दिलों तक चले आते हैं। बिना किसी आहट के।” विश्व युद्ध समाप्त हो गया। विदेशी नागरिकों को उनके देश भेजा जाने लगा। आईको और हैनरी ने जापान जाने का पासपोर्ट बनवा लिया। इस उम्मीद से कि पत्नी के साथ पति भी जा सकता है। दो दिन बाद जापान का जलपोत जाएगा। दोनों लोग अपना ज़रूरी सामान और हैनरी अपने महंगे आर्ट पीस ज्वैलरी भी साथ ले जाना चाहता था। दोनों बंदरगाह पहुंचे ,पर हैनरी को अधिकारियों ने जाने से मना कर दिया। आइको बहुत गिड़गिड़ाती रही, प्रार्थना करती रही। हैनरी ने हाथ पकड़ लिया और अपना सारा सामान, पैसे अधिकारियों को देने का लालच दिया। पर वो जा ना सका। अंगूठी वाला हाथ हैनरी चूमता रहा। अधिकारी ने खींचकर आईको को अलग कर दिया और दरवाजा बंद कर दिया। जहाज अलविदा। दोनों के कानों में एक ही सायरन गूंजता रहा। किस्मत ने चाहा तो फिर मिलेंगे। एक ऐसा सच्चा प्यार जो कभी मरा नहीं। आईको जीवन के आखिरी दिनों तक रोज शाम जापान के बंदरगाह पर आती थी। यूरोप से आने वाले लोगों की भीड़ में हैनरी को तलाशती रही। उसके पास एक स्कार्फ था। जो हैनरी ने उसे पहली रात में दिया था। बस एक निशानी याद की। जिसने उसे बिछड़ कर भी बिछड़ने नहीं दिया। हैनरी इधर, उसका रूमाल, जो पासपोर्ट पर हाथ छुड़ाने में उसके उसके पास आ गया था। उसे लेकर हर रोज़ जापान से आने वाले जहाज के यात्रियों में आईको को ढूंढता रहा। “प्रेम के इम्तिहान कई होते हैं। पर प्रेम कभी मरता नहीं।। बिना इंतजार के प्रेम का क्या कोई किस्सा है।।” *******
- अच्छाई की जीत
रमाशंकर द्विवेदी प्रबुद्ध नाम का बटेर था जो कि स्वभाव से बड़ा दयालु और परोपकारी था। वह हर एक जीव को अपने समान ही मानता है और इसलिए कभी किसी कीट-पतंग को मारकर अपना भोजन नहीं बनाता था तथा दूसरे पशु-पक्षियों को भी ऐसा करने से मना किया करता था। वह प्रतिदिन पक्षियों को उपदेश भी देता था कि किसी जीव-जंतु को मारकर पेट भरना अच्छा नहीं है। ईश्वर ने पेट भरने के लिए तरह-तरह के फल और अनाज दिए है तो क्यों न हम उनसे अपना पेट भरे!! बटेर का उपदेश दूसरे पक्षियों को तो बहुत अच्छा लगता था, पर चील को बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था। वह मन ही मन बटेर से जला करती थी और उसको नुकसान पहुँचाने की दृष्टि से बाकि पक्षियों से उसकी बुराई किया करती थी। बटेर जानता था कि चील उससे जलती है और उसके विरुद्ध पक्षियों को भड़काती है। किन्तु फिर भी वह उसकी बातों का बुरा नहीं मानता था और न ही अच्छाई का साथ छोड़ता। एक दिन दोपहर के समय सभी पक्षी दाने-चारे के लिए बाहर चले गए। घोसले में केवल उनके अंडे और छोटे-छोटे बच्चे रह गए थे। उस वक्त बटेर भी अपने घोंसले में आराम कर रहा था। तभी सहसा उसके कानों में चीखने और चिल्लाने की आवाज सुनाई पड़ी। वह तुरंत अपने घोंसले से बाहर निकला और इधर-उधर देखने लगा। वह यह देखकर स्तब्ध हो गया कि चील के घोंसले की ओर धीरे-धीरे एक काला साँप बढ़ रहा है। बच्चे उसी को देखकर चीख-चिल्ला रहे है। बटेर तीव्र गति से उड़कर नाग के पास जा पहुँचा और बोला, “अपनी कुशलता चाहते हो तो भाग जाओ! अगर घोंसले के अंदर घुसने की कोशिश की तो मैं शोर मचा दूंगा और तब तुम्हें अपनी जान से हाथ धोना पड़ सकता है।” नाग ने उत्तर दिया, “चील तुम्हारे साथ इतना बुरा व्यवहार करती है फिर भी तुम उसके बच्चों की रक्षा कर रहे हो। जाओं तुम आराम करों। मुझे चील के बच्चों को खाने दो क्योंकि चील बड़ी दुष्ट प्रकृति की है।” बटेर ने कहा, “चील मेरी बुराई चाहती है तो चाहने दो लेकिन मैं तो केवल भला करना चाहता हूँ। चील अपना काम करती है, और मैं अपना काम करूँगा। मेरे रहते तुम चील के बच्चों को नहीं खा सकते। इसके लिए मुझे अपने प्राण ही क्यों न देने पड़े, पर मैं चील के बच्चों की रक्षा अवश्य करूँगा। बटेर की बात सुनकर नाग क्रुद्ध हो उठा। वह फुफकारता हुआ बोला, “मुझसे बैर मोल ले रहे हो, तुम्हें पछताना पड़ सकता है। एक बार फिर सोच लो।” बटेर ने उत्तर दिया, “सोच लिया है। बहुत करोगो, काट ही लोगो न!! मरना तो एक दिन है ही! अच्छा है, बुराई को मार कर मरूं। तुम्हें जो कुछ करना है कर लेना मगर मैं तुम्हें चील के बच्चों को खाने नहीं दूंगा।” हार मानकार नाग को वहाँ से जाना पड़ा। संध्या होने पर जब चील अपने घोंसले में वापस लौटी तो उसके बच्चों ने बटेर की बड़ी प्रसंशा करते हुए बोले - अगर आज बटेर चाचा न होते तो दुष्ट नाग हम लोगों को निगल जाता। अपने बच्चों के मुँह से बटेर की तारीफ सुनकर चील क्रुद्ध हो बोली - उसकी इतनी हिम्मत कि वह मेरे घोंसले तक आ पहुँचा। मैं उस बटेर से इसका बदला ले कर रहूंगी। चील कई दिनों तक मन-ही-मन सोच विचार करती रही। आखिर उसे बटेर से बदला लेने का एक उपाय सूझा कि क्यों न गिद्ध को ही बटेर के खिलाफ भड़का दे तो वह जरुर मेरी मदद करेगा। चील एक दिन गिद्ध के घर गई और थोड़ी देर इधर-उधर की बातें करने के बाद बोली - हे गिद्धराज! बटेर इस तरह का प्रचार कर रहा है कि किसी को भी जीव की हत्या नहीं करनी चाहिए। लेकिन महाराज, अगर उसका प्रचार सफल हो गया तो आपको भूखा मरना पड़ेगा। क्योंकि जीवों को मारे बिना आप का काम नहीं चल सकता। चील की बात सुनकर गिद्ध आवेश में आ गया और बोला, “अच्छा बटेर ऐसा कहता है!! तब तो उसका प्रबंध करना ही पड़ेगा।” चील और गिद्ध ने बटेर को मार डालने का निश्चय किया। दोनों ने तय किया कि कल अर्धरात्रि में जब सभी पक्षी सोते रहेंगे, तो वे दोनों बटेर के घोंसले पर हमला कर उसे मार देंगे। दूसरे दिन अर्धरात्रि को जब सभी पक्षी अपने-अपने घोंसले में सो रहे थे, तब गिद्ध और चील दबे पांव बटेर के घोंसले के पास जा पहुँचे। दोनों ने बड़े आश्चर्य के साथ देखा कि उनसे पहले ही एक काला नाग धीरे-धीरे बटेर के घोंसले की ओर बढ़ रहा था। यह वही काला नाग था जिसे बटेर ने चील के बच्चों को खाने से रोका था। संयोग की बात, वह भी उसी वक्त बटेर से बदला लेने के लिए आया था। चुकि चील, गिद्ध और नाग की पहले से ही शत्रुता है। अत: जैसे ही उन्होंने एक दूसरे को देखा तो बटेर को हानि पहुँचना भूल गए और तीनों आपस में ही लड़ने लगे। तीनों की चीख-पुकार सुनकर सभी पक्षी अपने-अपने घोंसले से बाहर आ गए। लड़ाई इतनी भयंकर थी कि कोई भी उन्हें बचा न सका और तीनों आपस में लड़कर मर गए। बुरे का अंत हमेशा बुरा ही होता है। ******
- द्रौपदी का कर्ज
वीरेन्द्र प्रताप अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा महल में झाड़ू लगा रही थी। तो द्रौपदी उसके समीप गई उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोली, "पुत्री भविष्य में कभी तुम पर घोर से घोर विपत्ति भी आए तो कभी अपने किसी नाते-रिश्तेदार की शरण में मत जाना। सीधे भगवान की शरण में जाना।" उत्तरा हैरान होते हुए माता द्रौपदी को निहारते हुए बोली, "आप ऐसा क्यों कह रही हैं माता?" द्रौपदी बोली, "क्योंकि यह बात मेरे ऊपर भी बीत चुकी है। जब मेरे पांचों पति कौरवों के साथ जुआ खेल रहे थे, तो अपना सर्वस्व हारने के बाद मुझे भी दांव पर लगाकर हार गए। फिर कौरव पुत्रों ने भरी सभा में मेरा बहुत अपमान किया। मैंने सहायता के लिए अपने पतियों को पुकारा मगर वो सभी अपना सिर नीचे झुकाए बैठे थे। पितामह भीष्म, द्रोण धृतराष्ट्र सभी को मदद के लिए पुकारती रही मगर किसी ने भी मेरी तरफ नहीं देखा, वह सभी आँखें झुकाए आँसू बहाते रहे। सबसे निराशा होकर मैंने श्रीकृष्ण को पुकारा, "आपके सिवाय मेरा और कोई भी नहीं है, तब श्रीकृष्ण तुरंत आए और मेरी रक्षा की।" जब द्रौपदी पर ऐसी विपत्ति आ रही थी तो द्वारिका में श्री कृष्ण बहुत विचलित होते हैं। क्योंकि उनकी सबसे प्रिय भक्त पर संकट आन पड़ा था। रूकमणि उनसे दुखी होने का कारण पूछती हैं तो वह बताते हैं मेरी सबसे बड़ी भक्त को भरी सभा में नग्न किया जा रहा है। रूकमणि बोलती हैं, "आप जाएँ और उसकी मदद करें।" श्री कृष्ण बोले, "जब तक द्रोपदी मुझे पुकारेगी नहीं मैं कैसे जा सकता हूँ। एक बार वो मुझे पुकार लें तो मैं तुरंत उसके पास जाकर उसकी रक्षा करूँगा। तुम्हें याद होगा जब पाण्डवों ने राजसूर्य यज्ञ करवाया तो शिशुपाल का वध करने के लिए मैंने अपनी उंगली पर चक्र धारण किया तो उससे मेरी उंगली कट गई थी। उस समय "मेरी सभी पत्नियाँ वहीं थी। कोई वैद्य को बुलाने भागी तो कोई औषधि लेने चली गई। मगर उस समय मेरी इस भक्त ने अपनी साड़ी का पल्लू फाड़ा और उसे मेरी उंगली पर बाँध दिया। आज उसी का ऋण मुझे चुकाना है, लेकिन जब तक वो मुझे पुकारेगी नहीं मैं जा नहीं सकता।" अत: द्रौपदी ने जैसे ही भगवान कृष्ण को पुकारा प्रभु तुरंत ही दौड़े गए। *****
- पहला केस
संगीता चावला जूही कोर्ट में अपना केस लड़ रही थी। जज ने कहा, "आज के लिए कोर्ट स्थगित की जाती है।" ये सुनकर जूही ने वहां मौजूद लोगों की ओर देखा, जो उसकी अगली चाल जानने को उत्सुक थे। मीडिया के सवालों से बचने के लिए जूही तेजी से अपनी कार की ओर बढ़ गई।जूही के सामने विपक्ष के वकील और कोई नहीं, बल्कि उसका अपना भाई था। जूही ने वकालत में जो कुछ सीखा, अपने पिता और भाई से ही सीखा था। लेकिन उसके पिता, अरुण शर्मा, लड़कियों के वकील बनने के खिलाफ थे। उनका मानना था कि लड़कियां ये प्रोफेशन ठीक से नहीं संभाल सकतीं। इस केस का सीधा संबंध जूही के परिवार से था। उसके पिता ने उसके भाई को वकील बनाने के लिए अपनी जमीन गिरवी रख दी थी। लेकिन जिसने जमीन गिरवी रखी थी, उसने लालच में आकर जमीन वापस नहीं की और वहां बिजनेस कॉम्प्लेक्स बनाने की योजना बना ली। यहां तक कि उसने जूही के भाई को भी अपने पक्ष में मिला लिया। अगले दिन कोर्ट में सुनवाई के दौरान जूही केस जीत गई। जब वह घर पहुंची तो उसने अपने पापा से कहा, "डैड, ये रही हमारी जमीन।" अरुण शर्मा ने जूही को गले से लगा लिया। उन्होंने कहा, "मैं तुम्हें जमीन वापस मिलने की खुशी में नहीं, बल्कि तुम्हारी आखिरी दलील सुनकर गले लगा रहा हूं।" जूही की आखिरी दलील थी: "जज साहब, उन बच्चों को भी सजा मिलनी चाहिए जो अपने माता-पिता की मेहनत और प्यार को भूलकर उन्हीं के खिलाफ खड़े हो जाते हैं। जो उस डाल को काटने लगते हैं जिसने उन्हें फल-फूलने का मौका दिया।" अरुण शर्मा ने जूही के साहस और समझदारी को सराहा, और उन्हें अपनी बेटी पर गर्व हुआ। ******