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क्यू आर कोड

महेश कुमार केशरी

मिंटू का आठ साल का लड़का बीमारा था। दशहरे का कलश स्थापना हो चुका था। लेकिन, दुकानदारी बहुत ठप चल रही थी। वो मेले ठेले में घूम-घूम कर बैलून-फोकना बेचता है। जब से सावन लगा था। तब से ही पूरा का पूरा सावन और भादो निकल गया था। लेकिन कहीं से पैसा नहीं आ रहा था। हाथ बहुत तँग चल रहा था। ये सावन भादो और पूस एक दम से कमर तोड़ महीने होते हैं। बरसात में कहीं आना जाना नहीं हो पाता। पूस खाली खाली रह जाता है। कोई नया काम इस महीने लोग शुरू नहीं करते। किसने बनाया ये महीना। ये काल दोष। खराब महीना या अशुभ महीना। पेट के ऊपर ये बातें लागू नहीं होती। पेट को हमेशा खुराक चाहिए।
मिंटू को पेट से अशुभ कुछ भी नहीं लगता। पेट नहीं मानता शुभ अशुभ! उसको खाना चाहिए। उसको दिन महीने साल से कोई मतलब नहीं है। मनहूस से मनहूस महीने में भी पेट को खाना चाहिए। पेट को कहाँ पता है कि ये मनहूस महीना है। शुभ-महीना है। या अशुभ महीना? काश! कि पेट को भी पता होता कि सावन-भादो और पूस में काम नहीं मिलता है। इसलिये पेट को भूख ना लगे। लेकिन पेट है कि समय हुआ नहीं कि उमेठना चालू कर देता है।
उसको नहीं पता कि मुँबई-दिल्ली में बरसात में काम बँद हो जाता है। काम ही नहीं रहता तो मालिक भला क्योंकर बैठाकर पैसे देगा। सही भी है। वो भी दो महीने से बैठा हुआ है। भर सावन और भादो। लिहाजा ग्राहक का लस नहीं है, बाजार में। मानों कि बाजार को जैसे साँप सूँघ गया हो। बरसात तो जैसे तैसे निकल गई थी। बी.पी. एल. कार्ड से पैंतीस किलो आनाज मिल जाता था। अनाज के नाम पर मिलता ही भला क्या है। रोड़ी बजरी मिले चावल। तिस पर भी पैंतीस किलो की जगह कोटे वाला तीस किलो ही अनाज देता है। पाँच किलो काट लेता है।
एक दिन मिंटू विफर पड़ा था।
गुड्डू पंसारी पर खीजते हुए बोला -"क्या भाई तुम लोगों का पेट सरकारी कमाई से नही भरता क्या? जो हम गरीबों का आनाज काट लेते हो। इस गरीबी में हम घर कैसे चला रहे हैं। हम ही जानते हैं।"
गुड्डू पंसारी टोन बदलते हुए बोला -"अरे यार हम लोग तुमको गरीबों का हक मारने वाले लगते हैं, क्या? जो ऐसा बोल रहे हो। ये जो टेंपो-ट्रैक्टर से आनाज बी. पी. एल. कार्ड धारियों को बाँटते हैं। इसका भाड़ा एक बार में तीन हजार लगता है। सरकार हम लोगों को बाँटने के लिये अनाज जरूर देती है। लेकिन‌, ट्रैक्टर-टेंपो का किराया, गोदाम तक माल पहुँचाने के लिये ठेले का भाड़ा, थोड़े देती है।"
"तब काहे देती है, अनाज हम गरीबों को। जब तुमलोग पैंतीस किलो में से भी पाँच किलो काट ही लेते हो। और भाई तुम भी भला क्यों अपनी जेब से भरते हो। जब इस बिजनस में घाटा है। तो छोड दो ना ये बिजनस।"
"अरे, भाई तुमको नहीं लेना हो तो मत लो। काहे चिक-चिक करते हो। बी. पी. एल. कार्ड़ से जरूर पैंतीस किलो मिलता है। लेकिन इस रूम का भाड़ा। ये जो लाइट जलती है। उसका बिल। फिर सामान तौलने के लिये आदमी रखना पड़ता है। और तुमको तो पता है।  इस बी. पी. एल. कार्ड के आ जाने से सब लोग राजा बन गया है। दशहरा के बाद दीपावली आने वाली है। कल नीचे धौड़ा में दो मजदूर खोजने गये थे। दीपावली पर घर की पुताई करने के लिए। तुम्हारे नीचे धौड़ा के दो मजदूरों को पूछा। बोले दो ठो रूम है। और एक ठो बरंडा है केतना लेगा। ई हराम का पैंतीस किलो चावल खा- खाकर ये लोग मोटिया गया है। दोनों मजदूर ताश खेल रहे थे। अव्वल तो टालते रहे। बोले कि अभी भादो का महीना है। अभी पँद्रह  बीस दिन से हमलोग कहीं बाहर काम करने नहीं गये हैं। बदन बुखार से तप रहा था। अभी भी बदन-हाथ बहुत दर्द कर रहा है। उनको फुसलाकर चौक पर चाय पिलाने ले गया। चाय पी लिये। फिर भी टालते रहे। सोचा होगा गरजू है। समझ गये गुड्डू पंसारी आज काम पड़ा है, तो गधे को भी बाप बना रहा है।
जानते हो हमको क्या जबाब दिया। बोला एक रूम का तीन हजार लेंगे। दो ठो रूम और बरंडा का कुल मिलाकर सात हजार लेंगें। करवाना है करवाओ। नहीं तो छोड़ दो। इस बी. पी. एल. के अनाज ने लोगों को कोढ़िया बना दिया है। दिनभर ताश और मोबाइल में रील्स देखते और बनाते हुए बीत रहा है। अभी तो सरकार हर गरीब घर में दीदी योजना में रूपया दे रही है। एक परिवार में अट्ठारह साल और अट्ठारह साल से अधिक उम्र के लोगों को हजार दो हजार रूपया हर महीना मिल रहा है। हर महीने लोग खाते में पैसा ले रहें हैं। इससे मुसीबत और बढ़ गई है। कटनी रोपनी में मजूर नहीं मिल रहें हैं।
अभी इस दुकान के लड़के को जो रखा है। वो मेरे दूर के साढू का लड़का है। तीन सौ रूपये रोज के दे रहा था। रोज की मजदूरी। तो इधर महीने भर से ये और मेरा दूर का साढू मुँह फुलईले था। बोला साढू भाई रिश्तेदारी अपनी जगह है। लेकिन हमारा लड़का तोरा कोटा में बेगारी काहे खटेगा। आज लेबर कुली का हाजिरी भी सात-आठ सौ है। तो हमरा लड़का बेगारी काम करने थोड़ी आपके यहाँ गया है। कम से कम पँद्रह हजार महीना उसको खिला पिला कर दीजिए। नहीं तो गुजरात से उसको बीस हजार महीना काम के लिये रोज फोन आ रहा है। बोलियेगा तो भेजेंगे। नहीं तो आपके यहाँ जैसा ढेर काम पड़ा है। हमरे लड़का के यहाँ। ऊ तो रिश्तेदारी है, आपके साथ। नहीं तो हमारे घर में खुद की बहुत लँबी-चौड़ी खेती हैl
अब आप ही बोलिये गली के इस टुटपूँजिये दुकान का किराया चार हजार रूपया है। पंखा-लाइट बत्ती का डेढ़-दो हजार रूपये का बिल आता है। दो ठो गोदाम रखें हैं। उसका छ: हजार अलग से दते हैं। सब मिलाकर जोड़ियेगा तो मेरा इसमें बचता उचता कुछ नहीं है। ऊ तो बाप दादा के समय से राशन-पानी और कोटे का काम चल रहा है। इसीलिए खींच-खाच के चला रहे हैं। नहीं तो एक रूपया किलो का कोटे का चावल बेचकर गुजार हो चुका होता। ऊ तो चौक पर एक होटल है। और ये राशन की दुकान है। जिसमें हेन तेन छिहत्तर आइटम रखे हैं। तब जाकर बहुत मुश्किल से कहीं चला पा रहें हैं। नहीं तो कितने लोगों ने जन वितरण प्रणाली की दुकान को बँद कर दूसरा तीसरा बिजनस कर लिया।"
 गुड्डू पंसारी बहुत मक्कार किस्म का आदमी है। बी. पी. एल. चावल में पहले तो पैंतीस की जगह तीस किलो चावल देता ह़ै। बी. पी. एल का बढिया वाला चावल निकालकर सस्ते वाला चावल बाँटता है। जो चावल एक रूपये किलो का होता है। उसको चालीस पचास रूपये किलो बेचता है। अव्वल तो दुकान खोलता ही नहीं। आजकल करके टरकाता रहता है। कई बार इसकी शिकायत ब्लाक के सी. ओ.,  बी. डी. ओ. से भी की गई। लेकिन सब के सब चोर हैं। ये गुड्डू पंसारी सबको पैसे खिलाता रहता है।
मिंटू ने मुआयना किया। बारिश कब की खत्म हो गई थी। आसमान में धूप भी खिल आई थी। उसको कुछ आशा जग गई। कई दिनों से लगातार बारिश ने नाक में दम कर रखा था। बाहर निकलन मुश्किल हो रहा था। दो दिन वो उसी शॉपिंग मॉल के आसपास में ही भटकता रहा था। एक दिन एक खिलौना बिका था। उस दिन, दिन भर बारिश होती रही थी। दस बारह घँटे वो इधर उधर भटकता रहा था। लेकिन उस दिन पता नहीं कैसा मनहूस दिन था। कि एक ही खिलौना पूरे दिन भर में बिका था। घर में बी. पी. एल का चावल था। उसको डबकार किसी तरह माँड भात खाया था। उसके अगले दो-तीन दिन भी वैसे ही कटे थे। गीला मड-भत्ता खाकर। पेट है तो खाना ही पड़ेगा। पेट की मजबूरी है।
"ए फोकना वाले ये कुत्ता कितने का दिया।" पीछे से किसी महिला ने आवाज लगाई।
"ले, लो ना सत्तर रूपये का एक है, बहन।"
"हूँह इतना छोटा कुत्ता। और वो भी प्लास्टिक का। ठीक से बोलो। तुमलोगों ने तो लूटना चालू कर दिया है।"
"क्या लूट लूँगा बहन। सत्तर रूपये में बंगला थोड़ी बन जायेगा। तुम भी कमाल करती हो।"
"ले लो पैंसठ लगा दूँगा।"
"नहीं-नहीं चालीस की लगाओ। दो लूँगी।"
"चालीस में तो नुकसान हो जायेगा, बहन। अच्छा चलो तुम दो के सौ रुपये दे देना।"
"नहीं भैया इतने ही दूँगी। प्लास्टिक के खिलौने का भी भला इतना दाम होता है। देना है तो दो। नहीं तो मैं कहीं और से ले लूँगी।"
मिंटू के पास एक ग्राहक देखकर खुद्दन और पोपन जोर-जोर से अपने मुँह में फँसे हुए बाजे को बजाने लगे।
मिंटू को लगा वो ना देगा। तो हो सकता है। खुद्दन और पोपन दे दें। बेकार में बारह बजे बोहनी हो रही है। वो भी होते-होते रह जाये।
"ले लो बहन चलो, पचास का ही ले ल़ो। दो निकालो सौ रुपये।"
खुद्दन ने मिंटू और उस औरत की बातें सुन ली थी।
खुद्दन मुँह का बाजा बजाना छोड़कर चिल्लाया -"खिलौने ले लो खिलौने। पचास के दो। पचास के दो।"
औरत ने गरजू समझा -"बोली, पचास के एक नहीं दो दोगे। तब लूँगी।"
"छोड़ दो बहन, मैं नहीं दे सकता। उस खुद्दन से ही ले लो। वही पचास के दो दे सकता है। मेरे बस की बात नहीं है। मैं, आपको खिलौने नहीं दे सकता।"
महिला खुद्दन के पास गई। मोल तोल किया। फिर वापस मिंटू के पास आ गयी।
"सही-सही लगालो भईया। खुद्दन पचास के दो दे रहा है। लेकिन उसके कुत्ते की सिलाई खराब है। धागा बाहर निकला हुआ है। नहीं तो खुद्दन से ही ले लेती।"
पोपन महिला और मिंटू के करीब सरक आया था। उसने भी दो तीन दिन से कुछ नहीं बेचा था। बरसात में तो लोग निकल ही नहीं रहे थे। पोपन के बच्चे भी घर में भूख से बिलबिला रहे थे।
पोपन ने आवाज दी -"बढिया खिलौने, छोटे बड़े हर तरह के खिलौने। सस्ते बढ़िया खिलौने। खिलौने ले लो खिलौने। पचास के दो खिलौने।"
महिला पोपन की तरफ मुड़ी। लेकिन फिर आधे रास्ते से लौट गई।
मिंटू से बोली-"लगा दो पचास के दो खिलौने। तुमसे ही ले लूँगी।"
मिंटू खीज गया। उसने सोचा इस बला को किसी तरह टाला जाये। मुस्कुराते हुए बोला -"दो बहन तुम पचास रूपये ही दे दो।"
महिला ने फोन निकाला -"लाओ अपना क्यू आर कोड दो।"
"क्यू आर कोड।"
"हाँ, पैसे किसमें लोगे। मोबाइल नंबर बताओ। उसमें डाल दूँगी। आजकल पैसे लेकर कौन चलता है। लाओ दो जल्दी करो। मुझे जाना है।"
"क्यू आर कोड तो नहीं है। मैं मोबाइल नहीं रखता।"
"आँय।"
"इस डिजीटल युग में भी ऐसे लोग हैं। जो मोबाइल नहीं रखते। अच्छा तुम्हें अपना या अपने किसी परिचित या किसी रिश्तेदार का मोबाईल नंबर या खाता नंबर याद है। उसमें ही डाल देती हूँ।"
"मेरे पास कोई बैंक का खाता नहीं है। हम गरीब लोग हैंl आज खाते हैं, तो कल के लिये सोचते हैं। हमारा  वर्तमान ही नहीं होता है। तो भविष्य कैसा? हाँ हमारा अतीत जरूर होता है।  लेकिन बहुत ही खुरदरा होता है, बहनl बहन, हम बँजारे लोग हैं। हमारा ये काम सीजनल होता है। महीने-दो महीने दुर्गापूजा, दीपावली, छठ तक हम लोग ये प्लास्टिक के खिलौने बेचते हैं। फिर कारखाने में लौट जाते हैं। वहाँ काम करने लगते हैं। " 
"लो, तुम यहाँ हो स्वीटी। मैं तुम्हें मॉल के इस कोने से उस कोने तक ढूँढ़ता फिर रहा हूँ।" ये आदमी उस महिला का पति जैसा लग रहा था।
"अरे, आप आ गये। देखिये इसके पास मोबाइल भी नहीं है। मुझे पेमेंट करनी है। और क्यू आर कोड भी नहीं है, इसके पास। इस डिजीटल होती दुनिया में ऐसे-ऐसे लोग भी हैं।  सचमुच बड़ा ताज्जुब होता है। ऐसे लोगों को देखकर मुझे। आज भी ऐसे लोग हैं, हमारे देश में। हमारा देश ऐसे लोगों के चलते ही बहुत पीछे हैं। छोड़ो मैं भी किन बातों में पड़ गई। ये यू. पी. आई. नहीं ले रहा है। पचास का नोट दो। दो खिलौने लिये है इससे। है, तुम्हारे पास पचास रूपये, खुल्ले।"
महिला के पति ने जेब से पर्स निकाला। और खोज खाजकर कहीं से ढूँढ़-ढाँढ़कर पचास का नोट निकालकर दे दिया।
फिर, उस महिला से बोला -"ऐसे तो कम-से-कम तुम मत इसको बोलो। बहुत से लोग हैं। जिनके पास मोबाइल खरीदने तक के पैसे नहीं है। और मोबाइल खरीद भी लें। तो डाटा कहाँ से भरवायेंगे। सब लोग तो सक्षम नहीं ना होते।"
महिला -"डिस्कसटिंग मैन।"
मिंटू समझ नहीं पाया।
महिला अपने पति से बोली - "अर्णव के जन्मदिन पर आपने क्या लिया।"
पति ने पालीबैग से एक मिंटू के साइज से थोड़ा सा बड़ा साइज का एक कुत्ता निकालकर दिखाया।
"अरे वाह ये तो बहुत प्यारा है। अर्णव बहुत खुश हो जायेगा।"
"कितने का लिया।"
"अरे छोड़ो जाने दो।"
"बताओ ना।"
"ढाई सौ का।"
महिला की नजर मिंटू से एक बार मिली। लेकिन महिला ज्यादा देर तक मिंटू से आँख ना मिला सकी।
मिंटू के चेहरे का भाव कुछ यूँ था। मानो कह रहा हो। कि हम शापिंग मॉल वालों की तरह नहीं ठगते।
"देख लिया, बहन। हमलोग आपको ठगते नहीं। बस पेट पालने के लिए ही खिलौने बेचते हैं। कहाँ पचास के दो कुत्ते। और कहाँ ढाई सौ का एक! "मिंटू के स्वर मे़ व्यंग्य था।
महिला मिंटू का सामना बहुत देर तक ना कर सकी। दौड़कर गाड़ी में जाकर बैठ गई।
पति, मिंटू से -"अच्छा यंगमैन चलता हूँ। फिर मिलेंगे।"
मिंटू मुस्कुराया।
उस औरत के जाते ही मिंटू के सारे खिलौने बिक गये। और छ: सात सौ रूपयों की अच्छी खासी बिक्री हो गयी थी। वो दोपहर में खाना खाने के लिये अपने घर जाने लगा। तभी उसको ख्याल आया कि कुछ सौदा भी घर लेकर जाना है। वो गुड्डू के यहाँ जाना चाहता था। लेकिन उस बेईमान आदमी को याद करते ही उसका मन अंदर से घृणा से भर उठा।
वो जीतू के यहाँ चला गया। और बोला भाई जीतू -"आटा कैसे दिए।"
"तीस रूपये किलो।"
"सरसों तेल?"
"एक सौ अस्सी रूपये किलो।"
"अरे भाई, क्यों लूट मचा रखी है। अभी सप्ताह भर पहले ही तो डेढ़ सौ रूपये किलो था। फिर अचानक से आज एक सौ अस्सी रूपये किलो कैसे हो गया? भला एक सप्ताह में इतना दाम बढ़ता है।"
."एक सप्ताह छोड़ दो भाई। यहाँ रोज दाम बढ़ रहे हैं।"
"और रहड की दाल का क्या भाव है?"
"एक सौ साठ रूपये किलोl"
मिंटू ने मन-ही मन-हिसाब लगाया। अगर एक किलो सरसों का तेल, एक किलो आटा, और एक किलो दाल ली जाये तो तीन चार सौ रूपये तो ऐसे ही निकल जायेंगे। छुटकु बीमार है। पहले उसको डॉक्टर के पास दिखला लेना चाहिए। फिर राशन के बारे में विचार किया जायेगा।

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