हमारी ये..गऊ-गंवई सी सीधी सादी। अभी नए-नए ब्याह के लाए हैं ना इसी से शहरी चाल-चालाकी नहीं समझती।
मैं सुबह से शाम तक डयूटी पर और वो घर में निपट अकेली। ऊब जाती होगी तभी तो रोज़ मेरी स्कूटर की आवाज़ सुनकर भाग के आ जाती बाहर।
कभी पल्लू कभी चुन्नी की ओट से झांकती इनकी आंखों की वो गजब चमक देखने के लिए मैं सामने के मोड़ से ही हॉर्न बजाना शुरू कर देता। पड़ोस की बिंदो ताई टोक भी चुकी इस खातिर, मगर मैं बुरा नहीं मानता। मेरे पीछे उनकी शीला बहू से बीच-बीच में बोल-बतियाकर ये अपना मन लगाए रहती है ना इसीलिए।
सोचता हूं कभी-कभार थोड़ा घुमा-टहला दूं। चूड़ी, बिंदी, काजल ही खरीदवा दूं खुश रहेगी।
नई नौकरी जेब तंग..इससे ज्यादा खर्चे की सोचता भी नहीं मगर जब भी पूछो इनका वही ना-नुकुर! हिला देती अपना सिर दाएं-बाएं..बावली!
लेकिन आज खुदी तैयार, ‛ए जी बाज़ार ले चलिए।’