नई संस्कृति
- राजीव जैन
- Dec 27, 2024
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राजीव जैन
वह साहब सुबह उठा। नहा धो कर, नाश्ता कर आफिस के लिये तैयार होने लगा कि अचानक ही एक जूते का तस्मा कसते कसते टूट गया। इतना समय नहीं बचा था कि बाजार जाकर नया तस्मा खरीद कर आ पाता। गाड़ी आकर गेट पर लग चुकी थी। जैसे-तैसे पुराने तस्में से जूते कसे और ये सोच कर आफिस रवाना हुआ कि शाम को आफिस से लौटते समय नये तस्में खरीद लायेगें।
आफिस से छुट्टी हुई। साहब गाड़ी में सवार सीधे एक बढ़िया मार्केट में पंहुचे। बड़े-बड़े शो रुम। चमचमाती दुधिया लाईट्स। खूब भीड़। साहब एक शो रुम में घुसे। सेल्समैन भागा-भागा आया-कहिये साहब? किस ब्रान्ड के जूते दिखाऊं? मुझे जूते नहीं सिर्फ तस्में चाहिये कहते हुये साहब ने सोफे पर बैठते हुये कहा। सेल्समैन मुंह बनाकर बोला-साहब यहां केवल नये जूते मिलते हैं, आप कहीं और जा कर पता करें।
इस तरह साहब कई दुकानों पर गये, हर जगह एक जैसा जवाब। यहां पुराने का कोई काम नहीं। एक सेल्समैन ने तो यहां तक कह दिया कि क्या रखा है इस पुराने जूतों में, इन्हें फेकिये व नये जूते ले ले। आज कल तो लोग वृद्ध माता पिता को वृद्धाश्रम छोड़ आते है, ये तो जूते हैं। आईये नये जूते दिखाताहूं, खरीदिये-और सारी प्राब्लम साल्व। न रहेगे पुराने जूते न ढूढने होगे इनके लिये नये तस्में।
साहब नये जूते पहन बाहर आये तो देखा बाहर ठेलो पर लोग पेपर प्लेट्स व पेपर ग्लास मे खा पी कर डस्ट बिन में फेकते जा रहे है। उन्हें लगा जैसे पुराना जूता उनको समझा कर कह रहा था- बाबू मोशाय, कुछ समझ आया। अब भी नहीं समझे क्या? ये है नया कल्चर-आज की नई संस्कृति-यानि कि यूज एन्ड थ्रो। ओल्ड से न करो कोई मोह। समझे क्या।
साहब ने अपने पुराने जूते वहीं डस्टबिन में फेके, चैन की सांस ली और अपनी गाड़ी की ओर बढ़ गये।
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