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  • सारा की छड़ी

    डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव एक लड़का अपने बूढ़े दादा के पास गया और पूछा, "दादाजी, क्या आप मुझे कोई नैतिक शिक्षा वाली कहानी सुना सकते हैं?" बूढ़े दादाजी ने एक पल के लिए सोचा, फिर अपना गला साफ किया और उससे कहा कि बैठ जाओ और जो कहानी सुनानी है उसे सुनो। "सारा नाम की एक अंधी लड़की थी। उसके माता-पिता उसी कार दुर्घटना में मारे गए थे, जिस दुर्घटना में वह छोटी लड़की अंधी हो गई थी। उसकी दादी उसे गांव ले गईं और उसका पालन-पोषण किया। सारा का कोई दोस्त नहीं था। उसकी एकमात्र साथी उसकी छड़ी थी, उसकी छड़ी ने उसके लिए बहुत मदद की थी। इससे उसे अपने परिवेश में घूमने और किसी पर निर्भर हुए बिना जगह-जगह जाने में मदद मिली। चाहे कुछ भी हो, इसने उसे कभी निराश नहीं किया या जानबूझकर उसकी भावनाओं को ठेस पहुँचाई। उसकी छड़ी हमेशा उसे मुस्कुराने पर मजबूर कर देती थी। बाद में, एक अमीर, सुंदर आदमी सारा के प्यार में पड़ गया और उससे शादी करने का फैसला किया। वह उसकी दृष्टि वापस लाने के लिए उसे देश के सबसे अच्छे अस्पतालों में से एक में ले गया सौभाग्य से, सर्जरी सफल रही और सारा को फिर से दिखना शुरू हो गया...'' कहानी ख़त्म हुई जैसे ही बूढ़े दादा रुके, लड़का थोड़ा भ्रमित होकर फुसफुसाया, "लेकिन कहानी में कोई नैतिक शिक्षा नहीं है, दादाजी। इसमें सीखने के लिए कुछ भी नहीं है।" बूढ़े दादा ने कहा, "मैं बेटा आपको कुछ बताऊं। जैसे ही अंधी सारा की दृष्टि वापस आई, उसने कुछ फेंक दिया। क्या आप जानते हो बेटा कि उसने क्या फेंक दिया?" लड़के ने एक पल सोचा, फिर अपना सिर हिलाया और बुदबुदाया, "मुझे नहीं पता... आप बताओ।" बूढ़े दादाजी मुस्कुराये और बोले, "उसने अपनी छड़ी फेंक दी। वह छड़ी जिसने जीवन भर उसकी मदद की थी। उसकी एकमात्र साथी। सिर्फ इसलिए कि उसकी दृष्टि वापस आ गई, वह भूल गई कि किसने उसके साथ खड़े होकर उसकी मदद की जब कोई नहीं था। वह सब कुछ भूल गई जो छड़ी ने उसके लिए किया था।" उस क्षण, बूढ़े दादा ने लड़के के कंधे को थपथपाया, आह भरी और फिर जारी रखा, "सुनो बेटा ... जिंदगी ऐसी ही है। कटु सत्य यह है कि हम लोगों को तब याद करना बंद कर देते हैं जब वे हमारे काम के नहीं रह जाते। हम जो सबसे आम गलती करते हैं वह उन लोगों को भूल जाते हैं जो हमारे साथ खड़े थे और हमारी मदद करते थे जब हम उनके साथ थे जब हमारे जीवन का ख़राब समय था । उनके कार्य और बलिदान उल्लेखनीय हैं, लेकिन हम निश्चित रूप से उन्हें चुकाने का अवसर चूक जाते हैं। हम अपने माता-पिता, यहां तक ​​कि हमारे भाई-बहनों, दोस्तों और उन लोगों के बलिदानों को भी भूल जाते हैं जिन्होंने अतीत में हमारी मदद की है। ******

  • स्वप्न

    मुकेश ‘नादान’ नरेंद्र अकसर कलकत्ता में अपने घर में बैठकर सुदूर दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण के ध्यान में निमग्न श्रीमूर्ति का दर्शन किया करते थे। एक दिन उन्होंने स्वप्न में देखा कि श्रीरामकृष्ण उनके निकट आकर कह रहे हैं, “चल, मैं तुझे ब्रज-गोपी श्रीराधा के समीप ले जाऊँगा।” नरेंद्र ने अनुसरण किया। थोड़ी ही दूर जाकर श्रीरामकृष्ण ने उनकी ओर लौटकर कहा, “और कहाँ जाएगा।' यह कहकर उन्होंने रूप-लावण्यमयी श्रीराधिका का रूप धारण कर लिया। इस दर्शन का फल यह हुआ कि यद्यपि नरेंद्र पहले कुछ ब्रह्मसमाज के गीत ही प्रायः गाया करते थे, लेकिन अब उन्होंने श्रीराधा के कृष्ण-प्रेम के अर्थात्‌ भगवान्‌ के प्रति जीव के आकुलतापूर्ण अनुनय-विनय, विरह-कातरता आदि के गीत गाना भी आरंभ कर दिया। अपने गुरु-शिष्यों से उनके दूवारा इस स्वप्न के विषय में कहने पर उन लोगों ने आश्चर्य से पूछा, “क्या तुम विश्वास करते हो कि यह स्वप्न सच है? ” नरेंद्र ने उत्तर दिया, “हाँ, निश्चय ही विश्वास करता हूँ।” ध्यान के समय नरेंद्र अकसर अपनी प्रतिमूर्ति देखा करते थे कि हू-ब-हू जैसे उनके ही आकार और रूप आदि लेकर एक दूसरा व्यक्ति बैठा है तथा दर्पण में प्रतिबिंबित मूर्ति के हाव-भाव, चाल-ढाल आदि सबकुछ जैसे असली आदमी के समान हो जाता है, वैसे ही इस प्रतिमूर्ति के क्रिया-कलाप भी हू-ब-हू उसी भाँति होते। नरेंद्र सोचते, 'फिर कौन है? ' श्रीरामकृष्ण को यह बतलाने पर उन्होंने उस पर कोई विशेष गंभीरता दिखाए बिना कहा था, “ध्यान की ऊँची अवस्था में ऐसा होता ही है।” एक बार नरेंद्र की यह इच्छा हुई कि वे भाव में निमग्न होकर इस संसार को भूल जाएँ। वे देखते थे कि नित्यगोपाल, मनमोहन आदि श्रीरामकृष्ण के भक्तगण भगवान्‌ का नाम-कीर्तन सुनते-सुनते बह्मज्ञान खोकर किस प्रकार धराशायी हो जाते हैं। उन्हें दुख होता कि वे इस तरह के ऊँचे आध्यात्मिक आनंद का भोग करने से अब तक वंचित हैं। अत: एक दिन उन्होंने श्रीरामकृष्ण से इस अतृप्ति की बात कर उसी प्रकार की भाव-समाधि के लिए प्रार्थना की। इसके उत्तर में श्रीरामकृष्ण ने स्नेहासिक्त दृष्टि से उन्हें देखते हुए कहा, “तुम इतने उतावले क्यों होते हो? उससे भला क्‍या आता-जाता है? बड़े सरोवर में हाथी के उतरने से कुछ हलचल नहीं होती। किंतु छोटे तालाब में उतरने से वहाँ बड़ी हलचल मच जाती है।” उन्होंने और भी स्पष्ट रूप से समझा दिया कि ये सब भक्तगण छोटे पोखर की भाँति हैं, जिनका छोटा आधार है। इन लोगों में भगवत्‌-भक्ति का किंचित्‌ आवेश होते ही हृदय-सरोवर से तूफान उठने लगता है। किंतु नरेंद्र बहुत बड़े सरोवर की भाँति है, इसी से इतनी सहजता से वह विह्वल नहीं होता। जगदंबा के निर्देश और अपनी परीक्षाओं से प्राप्त ज्ञान के फलस्वरूप श्रीरामकृष्ण नरेंद्र पर पूर्ण विश्वास करते थे। भगवत्‌-भक्ति की हानि से रक्षा के लिए अन्य भक्तों के आहार, विहार, शयन, निद्रा, जप, ध्यान आदि सभी विषयों पर तीक्ष्ण दृष्टि रखने पर भी वे नरेंद्र को पूरी स्वाधीनता देते थे। वे भक्तों के सामने स्पष्ट रूप से कहा करते थे, “नरेंद्र यदि उन नियमों का कभी उल्लंघन भी करे तो उसे कुछ भी दोष नहीं लगेगा। नरेंद्र नित्य-सिद्ध है, नरेंद्र ध्यान सिद्ध है, नरेंद्र के भीतर सदा ज्ञानाग्नि प्रज्लित रहकर सब प्रकार के भोजन-दोष को भस्मीभूत कर देती है। इस कारण यत्र-तत्र जो कुछ भी वह क्‍यों न खाए, उसका मन कभी कलुषित या विक्षिप्त नहीं होगा; ज्ञान रूपी खड़्ग से वह समस्त माया-बंधनों को काट डालता है, इसीलिए महामाया उसे किसी प्रकार वश में नहीं कर सकती।” *****

  • लोहार

    डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव एक बढ़ई किसी गांव में काम करने गया, लेकिन वह अपना हथौड़ा साथ ले जाना भूल गया। उसने गांव के लोहार के पास जाकर कहा, 'मेरे लिए एक अच्छा सा हथौड़ा बना दो। मेरा हथौड़ा घर पर ही छूट गया है।' लोहार ने कहा, 'बना दूंगा पर तुम्हें दो दिन इंतजार करना पड़ेगा। हथौड़े के लिए मुझे अच्छा लोहा चाहिए। वह कल मिलेगा।' दो दिनों में लोहार ने बढ़ई को हथौड़ा बना कर दे दिया। हथौड़ा सचमुच अच्छा था। बढ़ई को उससे काम करने में काफी सहूलियत महसूस हुई। बढ़ई की सिफारिश पर एक दिन एक ठेकेदार लोहार के पास पहुंचा। उसने हथौड़ों का बड़ा ऑर्डर देते हुए यह भी कहा कि 'पहले बनाए हथौड़ों से अच्छा बनाना।' लोहार बोला, 'उनसे अच्छा नहीं बन सकता। जब मैं कोई चीज बनाता हूं तो उसमें अपनी तरफ से कोई कमी नहीं रखता, चाहे कोई भी बनवाए।' धीरे-धीरे लोहार की शोहरत चारों तरफ फैल गई। एक दिन शहर से एक बड़ा व्यापारी आया और लोहार से बोला, 'मैं तुम्हें डेढ़ गुना दाम दूंगा, शर्त यह होगी कि भविष्य में तुम सारे हथौड़े केवल मेरे लिए ही बनाओगे। हथौड़ा बनाकर दूसरों को नहीं बेचोगे।' लोहार ने इनकार कर दिया और कहा, 'मुझे अपने इसी दाम में पूर्ण संतुष्टि है। अपनी मेहनत का मूल्य मैं खुद निर्धारित करना चाहता हूं। आपने फायदे के लिए मैं किसी दूसरे के शोषण का माध्यम नहीं बन सकता। आप मुझे जितने अधिक पैसे देंगे, उसका दोगुना गरीब खरीदारों से वसूलेंगे। मेरे लालच का बोझ गरीबों पर पड़ेगा, जबकि मैं चाहता हूं कि उन्हें मेरे कौशल का लाभ मिले। मैं आपका प्रस्ताव स्वीकार नहीं कर सकता।' सेठ समझ गया कि सच्चाई और ईमानदारी महान शक्तियां हैं। जिस व्यक्ति में ये दोनों शक्तियां मौजूद हैं, उसे किसी प्रकार का प्रलोभन अपने सिद्धांतों से नहीं डिगा सकता। *****

  • आजादी

    प्रेम साधना मैं तुम्हारी माँ के बंधन में और नहीं रह सकती, मुझे अलग घर चाहिए, जहाँ मैं खुल के साँस ले सकूँ। पलक रवि को देखते ही ज़ोर से चिल्ला उठी। बात बस इतनी थी कि सुलभा जी ने रवि और पलक को पार्टी में जाता देख कर इतना भर कहा था कि वो रात दस बजे तक घर वापस आ जाए। बस पलक ने इसी बात को तूल दे दिया और दो दिन बाद ही उसने किरण के घर किटी में उसे मकान ढूंढने की बात भी कह दी। मुझे मम्मी जी की गुलामी में रहना पसंद नहीं है। पलक, तुम्हारी तरह एक दिन मैं भी यही सोच कर अपनी सास से अलग हो गई थी। किटी ख़तम होते ही किरण पलक से मुख़ातिब थी। तभी तो आप आज़ाद हो। पलक ने चहक कर कहा तो किरण का स्वर उदासी से भर गया, किरण पलक से दस वर्ष बड़ी थी। नहीं, बल्कि तभी से मैं गुलाम हो गई, जिसको मैं गुलामी समझ रही थी वास्तव मे आज़ादी तो वही थी। वो कैसे, पलक, जब मैं ससुराल में थी दरवाज़े पर कौन आया, मुझे मतलब नहीं था क्योंकि मैं वहाँ की बहू थी। घर में क्या चीज़ है क्या नहीं इससे भी मैं आज़ाद थी, दोनों बच्चे दादा-दादी से हिले थे। मुझे कहीं आने-जाने पर पाबंदी नहीं थी, पर कुछ नियमों के साथ, जो सही भी थे, पर जवानी के जोश में मैं अपने आगे कोई सीमा रेखा नहीं चाहती थी। मुझे ये भी नहीं पसंद था कि मेरा पति आफिस से आकर सीधा पहले माँ के पास जाए। तो!! फिर पलक की उत्सुकता बढ़ गई। मैंने दिनेश को हर तरह से मना कर अलग घर ले लिया और फिर मैं दरवाज़े की घंटीं, महरी, बच्चों, धोबी, दिनेश सबके वक्त की गुलाम हो गई। अपनी मरज़ी से मेरे आने-जाने पर भी रोक लग गई क्योंकि कभी बच्चों का होमवर्क कराना है, तो कभी उनकी तबीयत खराब है। हर जगह बच्चों को ले नहीं जा सकते। अकेले भी नहीं छोड़ सकते। तो मजबूरन पार्टियां भी छोड़नी पड़ती जबकि ससुराल में रहने पर ये सब बंदिश नहीं थीं। ऊपर से मकान का किराया और फालतू के खर्चे अलग, फिर दिनेश भी अब उतने खुश नहीं रहते। किरण की आँखें नम हो उठीं। फिर आप वापस क्यों नहीं चली गयीं। किस मुँह से वापस लौटती। इन्होंने एक बार मम्मी से कहा भी था, पर पापा ने ये कह कर साफ़ मना कर दिया कि एक बार हम लोगों ने बड़ी मुश्किल से अपने आप को संभाला है अब दूसरा झटका खाने की हिम्मत नहीं है, बेहतर है अब तुम वहीं रहो। ओह! पलक, घर से बाहर क़दम रखना बहुत आसान है। पर जब तक आप माँ-बाप के आश्रय में रहते हैं, आपको बाहर के थपेड़ों का तनिक भी अहसास नहीं होता। माँ-बाप के साथ बंदिश से ज़्यादा आज़ादी होती है, पर हमें वो पसंद नहीं होती। एक बार बाहर निकलने के बाद आपको पता चलता है कि आज़ादी के नाम पर ख़ुद अपने पाँव में जंज़ीरें डाल लीं। बड़ी होने के नाते तुमसे यही कहूंगी सोच-समझ कर ही ये क़दम उठाना। मन ही मन ये गणित दोहराते हुए पलक एक क्षण में निर्णय ले चुकी थी। उसे किरण जैसी गुलामी नहीं चाहिए। घर की ओर चलते बढ़ते कदमों के साथ-साथ ही वो मन ही मन बुदबुदा रही थी, कि घर पहुंचते ही सासू मां के पैर छूकर क्षमा मांग लूंगी और सदा उनके साथ ही रहूँगी। मां बाप को साथ नही रखा जाता, मां बाप के साथ रहना होता है। *****

  • मेरी माँ

    आकाश बाजपेयी मेरा नाम सुमन है। मेरी शादी एक बड़े घर में हुई है। मेरे पति विनीत की फैमिली का अच्छा बिज़नेस है। विनीत एकलौते बेटे हैं। सास-ससुर, मैं, और विनीत' हम चार लोगों का ही परिवार है। विनीत और पापा जी सारा बिज़नेस संभालते हैं, इसलिए उनके काम से वापस आने का कोई समय नहीं होता है। विनीत अब एक नया काम शुरू करने वाले हैं, जो एक नई जगह पर है। वहाँ पर हमारा एक फार्महाउस भी है, इसलिए हम दोनों कुछ दिन वहीं जाकर रहेंगे। फार्महाउस में समय बिताने के साथ विनीत अपना काम भी करते रहेंगे। सुबह जल्दी ही हम लोग फार्महाउस में पहुंच गए। फार्महाउस की देखरेख के लिए एक नौकर, रामू, था। वह वहीं पास के एक कमरे में रहता था। हम जैसे ही पहुँचे, दूर से रामू दौड़ता हुआ हमारी कार के पास आया। आकर उसने ही कार का दरवाजा खोला और नमस्ते मालकिन कहते हुए हँसते हुए बोला। विनीत ने कहा, यह रामू है, हमारे फार्म की देखभाल करता है। मैं अंदर जाकर बैठी। थोड़ी देर बाद विनीत अपने काम में बिजी हो गए। उन्होंने रामू से कहा कि मैडम को फार्म दिखा दो। रामू बोला, ठीक है साहब। वह मुझे फार्म दिखाने ले गया। फार्म में हम घूम रहे थे, तभी गेट के बाहर से एक लगभग 6-7 साल की लड़की ने रामू को आवाज लगाई, जो स्कूल से वापस जा रही थी। रामू बोला, मैडम, मैं आता हूँ। वह गेट पर खड़ा होकर उस लड़की से बात करने लगा। मेरी नजर पड़ी तो वह लड़की मेरी तरफ ही देखे जा रही थी। फिर रामू वापस आकर बोला, मैडम, आप आराम करिये, मैं आता हूँ। ऐसा बोलकर वह चला गया। अगले दिन सुबह फिर विनीत अपने काम से जल्दी चले गए। मैं सुबह सोकर उठी तो मुझे दरवाजे पर रामू दिखाई दिया। मैंने पूछा, क्या कर रहे हो यहाँ पर? उसने बोला, मैडम, अभी आया हूँ चाय लेकर। मैंने कहा, ठीक है, यहाँ टेबल पर रख कर चले जाओ। फिर मैं नहा कर किचन में गई, तो रामू वहीँ था, और अपना कुछ काम कर रहा था। फिर उसने मुझसे बातें करने की कोशिश की, लेकिन मैं उसकी बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं दे रही थी। यहाँ का पुराना नौकर था, इसलिए मैं उसकी बातें सुन भी रही थी। अगर ऐसा नहीं होता, तो शायद मैं उसे डांट देती। यहाँ आये हुए मुझे 2-3 दिन हो गए थे और मैंने नोटिस किया कि वह मुझसे बातें करने की कोशिश लगातार करता ही रहता था। एक दोपहर मैं कमरे में अकेली बैठी थी, तभी अचानक रामू कमरे में आता है और बोलता है, मैडम, मुझे कुछ पूछना है। मैंने कहा, क्या? उसने कहा, मैडम, आप बुरा मत मानना, पर क्या मैं आपकी एक फोटो ले सकता हूँ? मेरे मुँह से निकला, क्या? बाहर निकलो अभी कमरे से! रामू बोला, मैडम, आप गलत समझ रही हैं, मेरी बात तो सुनिए। मुझे अचानक गुस्सा आ गया, और मैंने कहा, बाहर निकलो, या अभी तुम्हारे साहब को फोन करूँ। इतना बड़ा घर, और मेरे लिए तो अनजान ही था। ऊपर से वह इस तरह की बातें कर रहा था। मुझे कुछ अजीब लगा। मैंने सोचा, शाम को विनीत आएंगे तो सबसे पहले उसकी छुट्टी करवा दूँगी। शाम को विनीत आए तो मैंने उन्हें सब बताया। विनीत मानने को तैयार ही नहीं थे। बोले, "यह कई सालों से है, उसकी एक बच्ची भी है। तुम कुछ गलत समझ रही हो।" उसकी बच्ची के बारे में मुझे पता नहीं था। मैंने कहा, "कई सालों से यहाँ कोई लड़की भी नहीं आई थी।" विनीत ने कहा, "रुको, अभी उसे बुलाकर बात करते हैं।" विनीत ने रामू को आवाज लगाई। रामू आया तो विनीत ने कहा, "क्या हुआ, रामू? तुम्हारी मैडम कुछ कंप्लेंट कर रही हैं।" रामू ने कहा, "साहब, मैंने सिर्फ फोटो लेने को कहा था।" विनीत ने पूछा, "क्यों चाहिए तुम्हें फोटो?" रामू ने कहा, "साहब, आप तो जानते हैं, मेरी 7 साल की एक बच्ची है। उसकी माँ उसके पैदा होते ही चल बसी थी, और जब वह 2 साल की थी, तब हमारे घर में आग लग गई थी। भगवान की कृपा से हम तो बच गए, लेकिन उसकी माँ की सारी निशानियाँ खत्म हो गईं।" "बिना माँ की बच्ची को संभालना बड़ा मुश्किल होता है, साहब। मैडम, उस दिन जब मैं आपको फार्म दिखा रहा था, तब स्कूल से घर वापस जाते वक्त उसने हमें देख लिया। मेरा घर यहीं थोड़ी दूर पर है, उसकी दादी उसे संभालती है। हमेशा मुझसे पूछती रहती थी कि पापा, मेरी माँ कैसी दिखती थी, कैसी चलती थी, कैसे बातें करती थी। मैं उसे कहता था कि वह बहुत सुन्दर थी। यहाँ गाँव में उसके जैसा कोई नहीं है। जब उसने आपको देखा, तो उस दिन उसने यही पूछा कि पापा, मम्मी ऐसी थी? मैंने कहा, हाँ, ऐसी ही थी। तब से जिद पर अड़ गई कि मुझे मैडम से मिलना है। वह मेरी मम्मी जैसी है।" "वह अब स्कूल नहीं जा रही। इसीलिए मैंने आपसे बात करने की कोशिश की, ताकि आपको यह सब बता सकूँ। लेकिन आपका स्वभाव अलग है। फिर उसने आज सुबह से कुछ खाया नहीं। बोल रही है, 'पापा, फोटो लाना, मैं अपने स्कूल वाले दोस्तों को दिखाऊंगी कि मेरी मम्मी ऐसी थी।' तो मैंने कहा कि मैं तुझे फोटो लेकर दिखा दूँगा। वह बोली, पक्के से लाना।" इतना कहकर रामू फूट-फूट कर रोने लगा। रोते हुए ही बोला, "बच्ची है, मैडम, उसका नसीब ही ऐसा है। पैदा होते ही माँ मर गई और बाप मुझ जैसा मिला। मैडम, हम साहब से कुछ भी बोल देते थे। साहब का कभी मुझे डर नहीं लगा। यही आदत मुझे पड़ गई, और मैंने आपको भी अपना समझ कर बोल दिया। आप मुझे बताने देतीं, तो मैं आपको भी बता देता।" रामू की बातें सुनकर मुझे अपने आप पर गुस्सा आया। विनीत ने रामू को चुप कराया और कहा कि, "बच्ची को वहाँ क्यों रखते हो? उसे यहीं रखो। इतना बड़ा फार्महाउस है।" अगले दिन सुबह रामू अपनी बच्ची को लेकर आया। वह बच्ची को दूर से ही मुझे दिखा रहा था, शायद अब भी झिझक रहा था। मैं खुद बच्ची के पास गई और कहा, "अरे, हम यहाँ 4 दिन से हैं, और आप अब आ रही हो?" मेरे ऐसा कहने पर बच्ची के चेहरे पर जो मुस्कान आयी, वह अनमोल थी। वह मुझसे लिपट गई। जब तक मैं वहाँ रही, मैं उसके साथ खेलती और हँसती रही। एक अलग खुशी मिल रही थी। अब वह एक वजह बन गई थी, मेरे वहाँ बार-बार जाने की! ******

  • असली मानवता

    डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव अमेरिका के एक रेस्तरां में वेट्रेस ने एक आदमी और उसकी पत्नी को लंच का मेनू दिया और मेनू देखने से पहले, उन्होंने उसे दो सबसे सस्ता डिशेस देने के लिए कहा क्योंकि उनके पास इतने पैसे नहीं थे। कई महीनों से वेतन नहीं मिला था। जिस वजह से ये मुश्किल दौर से गुजर रहे थे। वेट्रेस सारा ने ज़्यादा देर तक नहीं सोचा। उसने उन्हें दो डिशेस की सिफारिश की और वो बिना किसी संकोच के सहमत हुए कि वो सबसे सस्ते थे। वह दोनों आर्डर ले आई और उन्होंने भूख से जल्दी खा लिया, और जाने से पहले उन्होंने वेट्रेस से बिल के लिए पूछा। वह अपने बिलिंग वॉलेट में कागज़ का एक टुकड़ा लेकर उनके पास वापस आई जिसमें लिखा था: "मैंने आपके हालात को देखते हुए अपने व्यक्तिगत खाते से आपके बिल का भुगतान किया है। ये मेरी तरफ से गिफ्ट के रूप में सौ डॉलर हैं और कम से कम मैं आपके लिए यही कर सकती हूं। आने के लिए धन्यवाद। सारा के लिए आश्चर्यजनक बात यह थी कि वह अपनी कठिन वित्तीय परिस्थितियों के बावजूद कपल के लंच के बिल का भुगतान करके बेहद खुश थी। हालांकि वह लगभग एक साल से ऑटोमेटिक वाशिंग मशीन खरीदने के लिए पैसे बचा रही थी क्योंकि उसे पुरानी वाशिंग मशीन से कपड़े धोने में मुश्किल थी। उसकी दोस्त को इस मामले के बारे में पता चला तो सारा की दोस्त ने उसे बहुत डांटा। क्योंकि उसने खुद को और अपने बच्चे की जरूरतों को पीछे डालकर यह पैसा बचाया था। उसे दूसरों की मदद करने से अधिक अपने लिए एक वाशिंग मशीन खरीदने की जरूरत थी। इस बीच उसे अपनी माँ का फोन आया जोर से कहा: "साराह तुमने क्या किया? " एक असहनीय सदमे के डर से उसने धीमी, कांपती आवाज़ में जवाब दिया: "मैंने कुछ नहीं किया। क्या हो गया ? उसकी माँ ने जवाब दिया: "सोशल मीडिया आपकी तारीफ़ और आपके व्यवहार की प्रशंसा करने में ज़मीन आसमान एक कर रहा है। उस आदमी और उसकी पत्नी ने फेसबुक पर आपका संदेश पोस्ट किया जब आपने उनकी ओर से बिल का भुगतान किया और कई और लोगों ने इसे शेयर किया। मुझे आप पर फ़ख़्र है। "... उसने अपनी मां के साथ अपनी बातचीत मुश्किल से ख़त्म की थी कि एक स्कूल के दोस्त ने उसे फोन किया और कहा कि उसका मैसेज सभी डिजिटल सोशल प्लेटफॉर्म पर वायरल हो गया है। जैसे ही सारा ने अपना फेसबुक अकाउंट खोला, उसे टीवी प्रोडूसर्स और प्रेस रिपोर्टर्स के सैकड़ों मैसेज मिले, जो उसके ख़ास कदम के बारे में बात करने के लिए उनसे मिलने के लिए कह रहे थे। अगले दिन, सारा, सबसे लोकप्रिय और सबसे अधिक देखे जाने वाले अमेरिकी टीवी शो में से एक में दिखाई दी। प्रस्तुतकर्ता ने उसे एक बहुत ही आलीशान वाशिंग मशीन, एक आधुनिक टेलीविजन सेट और दस हजार डॉलर दिए। इस इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनी से पांच हजार डॉलर का शॉपिंग वाउचर मिला। यहाँ तक कि उसके महान मानवीय व्यवहार की सराहना में हासिल होनेवाली रक़म $100,000 से ज़्यादा तक पहुंच गई। सौ डॉलर से कम कीमत वाले दो डिशेस ने उसकी जिंदगी बदल दी। उदारता ये नहीं है कि जिस चीज़ की आपको ज़रूरत नहीं है वो किसी को दे दें, बल्कि वह उदारता ये है कि जिस चीज़ की आपको ज़रूरत है वो किसी और ज़रूरतमंद को दे दें। असल ग़रीबी मानवता और दृष्टिकोण की ग़रीबी है। *******

  • सज़ा

    निरंजन धुलेकर अब बेटे के पास ढेरों ऐसे काम थे जिनका संबंध घर से तो बिल्कुल भी नही था। पढ़ाई के अलावा बहुत सारी बातें उसके लिए बेहद ज़रूरी हो चुकीं थीं। घर से बाहर जाने की उसे इतनी जल्दी रहती कि घर का काम करना तो दूर उसे काम को सुनने का भी वक़्त नही था। कुछ कहने पर वो उसे अनसुना करता बाहर निकल जाता। घर के किसी काम से बाहर गया भी तो कोई गारंटी नहीं कि उसे वो याद रहेगा। लौटने पर बोलता कि सॉरी भूल गया, और बात ख़त्म। न जाने का वक़्त न आने का समय, किसी के लिए कोई ज़िम्मेदारी ही फील नही होती थी उसे। मेरा बहुत मन करता है कि पास बैठे हाल चाल पूछे अपनी सुनाएँ मेरी सलाह ले, पर वो ऐसा नहीं करता है इसलिए अब बेहद अकेला महसूस करने लगा हूँ। आज भी बेटा बहुत लेट आया और मेरे घर का दरवाजा खोलने के बाद बिना मेरी ओर देखे अपने कमरे में जा कर ज़ोर से दरवाजा बंद कर लिया। रात के डेढ़ बजे हैं, डैड की दशकों पहले लिखी डायरी हाथ लग गयी थी वही पढ़ रहा हूँ, लिखा है .. "आज बेटा फिर देर से लौटा। उसे पता है कि मैं ख़ुश नही होता उसके देर रात घर लौटने से। दरवाज़ा खोला पर वो रुका नही, उड़ती सी नज़र डाल कर अपने कमरे में गया और दरवाज़ा धड़ाम से बन्द कर लिया। लगा जैसे मेरे मुँह पर ही दे मारा हो। उसके इस व्यवहार ने मुझे तोड कर रख दिया बेहद पीड़ा हुई है, आज बहुत अपमानित ... ." पन्ने पर आगे के शब्द अस्पष्ट से थे शायद उन पर गिरी बूँदों से धुल कर कागज़ में समा गए होंगे। उन्ही धुँधले अक्षरों पर आज मेरी ताज़ी गरम बूंदें गिर कर जैसे सॉरी बोल रहीं थीं पर आज क्षमा करता कौन? मुझे उस वक़्त डैड के साथ अपने किये की सजा आज मेरा बेटा दे रहा था। *****

  • दूरी

    सुनील त्रिपाठी यूं तो वह दोनों बहनें हैं और खुशकिस्मती से दोनों सगे भाइयों से ब्याही गई थी। मगर शादी के बाद घर में दोनों देवरानी-जेठानी के रुतबे की वजह से दोनों का अहम बीच में आने लगा था। दोनों एक-दूसरे को नीचा दिखाने से कभी नहीं चूकती थी। आए दिन की नौकझौक छोटी-छोटी से बडी लड़ाइयों में तब्दील होते हुए समय नहीं लेती। दोनों की वजह से कलह इतनी बढ़ गयी कि बड़े भाई को ना चाहते हुए भी छोटे के लिए अलग मकान खरीदना पड़ा। बड़े भाई को डर सता रहा था कि कहीं रोज-रोज की कलह से कोई बड़ा हादसा ना हो जाए। उसपर माता-पिता की मृत्यु के बाद घर का बड़ा था वो और उसका छोटे भाई उसके लिए बेटे जैसा। वहीं उसकी पत्नी उसकी बेटी समान बहु। मगर यदि वह उन दोनों का पक्ष लेता तो पत्नी नाराज हो जाती। वहीं पत्नी का पक्ष लेने पर छोटा भाई और उसकी पत्नी। उन्हें ही बड़े होकर पक्षपात करने का आरोपी बना देते। आखिरकार समस्या के निवारण के लिए उसने छोटे भाई को एक मकान खरीदकर दे दिया। मगर पत्नी को यही कहा कि छोटे ने अपनी कमाई और कुछ लोन उठाकर मकान लिया है। मुझे तो बड़ा होने की वजह से सही ग़लत के चलते बस वहां खड़ा कर दिया था। उसकी पत्नी ने उससे पूछा, “अच्छा, वैसे कहाँ लिया मकान उन दोनों ने?” बहूत दूर है उनका मकान, इतना कहते हुए उसकी आवाज भर्रा गई और आगे वह कुछ नहीं कह पाया। अगले कुछ दिनों में नाजाने कैसे घूमते फिरते उसकी पत्नी ने पता लगवा लिया छोटे देवर देवरानी के मकान का। उसी शाम पति के घर आते ही वह उस पर बरसते हुई बोली, तुम तो कहते थे बहुत दूर लिया है मकान और ये दो गली छोड़कर ही खरीद लिया मकान, अपने ही ब्लाक में। तुम मना नहीं कर सकते थे जब बड़ा बनना था तो दूर किसी और दूसरी कालोनी में मकान नहीं दिलवा सकते थे। यही हमारी छाती पर मूंग दलवानी थी। वह लगातार जाने क्या अनाप-शनाप बके जा रही थी। वहीं बड़ा भाई चुप था क्योंकि उसे तो अपने ही ब्लाक की दो गली की दूरी मीलों जैसे दूर लग रही थी। अब उसे सुबह उठने पर या शाम को फैक्ट्री से लौटकर आने पर अपने बेटे जैसे छोटे भाई का मासूम चेहरा देखने को भी नहीं मिलेगा। उसके दिल से कोई पूछे ये दूरी.....कितनी दूर है। *****

  • ईश्वर के प्रति विद्रोह

    मुकेश ‘नादान’ नरेंद्र का चरित्र अपनी माँ से बहुत प्रभावित था। वे एक धर्मपरायण महिला थीं। मगर इस घोर विपत्ति में उनका विश्वास भी डोल गया। उन्होंने नरेंद्र को ईश्वर-उपासना करते देखकर डाँट दिया कि वह पूजा न करे। माँ की बात सुनकर नरेंद्र सोच में पड़ गया, “क्या वास्तव में भगवान्‌ हैं? यदि हैं, तो वह मेरी प्रार्थना क्यों नहीं सुनते? उसके मन में ईश्वर के प्रति विद्रोह जाग उठा। नरेंद्र अपने मनोभाव दूसरों के सामने व्यक्त करने में तनिक भी नहीं हिचकिचाते थे। उन्होंने ईश्वर के प्रति अपने विद्रोहात्मक उदगार भी परिचितों के समक्ष प्रकट कर दिए, परिणाम स्वरूप नरेंद्र की चारों ओर निंदा होने लगी। लेकिन नरेंद्र को दूसरों द्वारा की गई निंदा-प्रशंसा से कोई सरोकार नहीं था। सर्दी, गरमी, बरसात मौसम-पर-मौसम बीत रहे थे, लेकिन नरेंद्र को कहीं काम नहीं मिला। एक दिन रामकृष्ण कलकत्ता आए। नरेंद्र भी उनके दर्शन करने गया। रामकृष्ण से आग्रहपूर्वक दक्षिणेश्वर ले आए। वहाँ रामकृष्ण नरेंद्र व अपने अन्य भक्तों के साथ कमरे में बैठ गए। रामकृष्ण भावावेश में विलाप करने लगे। उस समय की दशा का वर्णन नरेंद्र ने अपने शब्दों में इस प्रकार किया है, “मैं अन्य लोगों व ठाकुरजी (श्रीरामकृष्ण) के साथ एक कमरे में बैठा था। अचानक ठाकुर को भावावेश हुआ, देखते-ही-देखते वे मेरे निकट आ गए और मुझे प्रेम से पकड़कर आँसू बहाते हुए गीत गाने लगे। जिसका सार था, “बात कहने में डरता हूँ, न करने में भी डरता हूँ। मेरे मन में संदेह होता है कि शायद तुम्हें खो दूँ। अंतर की प्रबल भावराशि को मैंने अब तक रोक रखा था। अब उसका वेग मैं सँभाल नहीं पा रहा। ठाकुर की तरह मेरी आँखों से भी अश्रुधारा बह निकली। हमारे इस आचरण से वहाँ बैठे लोग अवाव्क्त रह गए।” भावनाओं के वेग से बाहर निकलने पर ठाकुर ने हँसते हुए कहा, “हम दोनों में वैसा कुछ हो गया है।” जब सब लोग चले गए, तो उन्होंने मुझसे कहा, “मुझे पता है, तू माँ के काम से संसार में आया है। संसार में तू सदा नहीं रहेगा। इसलिए जब तक मैं हूँ, मेरे लिए तब तक तू रह।” इतना कहकर ठाकुर पुनः रोने लगे। श्रीरामकृष्ण परमहंस की बात सुनकर नरेंद्र कलकत्ता लौट आए। यह तो नरेंद्र को भी अनुभव हेने लगा था कि उनका जन्म साधारण मनुष्यों की भाँति धनोपार्जन के लिए नहीं हुआ है। *****

  • सफल जन्म

    स्नेहा सिंह "दादी मां, हर किसी के जन्म के पीछे विधाता कोई न कोई ध्येय निश्चित किए रहता है? क्या यह बात सच है?" किशोर वया विधि अपनी दादी मीना की गोद में सिर रखे हुए आकाश में तारों को देखते हुए बोली। "हां, बेटा हर आदमी के जन्म के पीछे विधाता का एक निश्चित ध्येय होता है पर अपने जन्म का ध्येय बहुत कम लोग ही पूरा करने में सफल हो पाते हैं।" विधि के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए मीना ने कहा। "ऐसा क्यों दादी मां? हर किसी का ध्येय क्यों नहीं पूरा होता? मम्मी-पापा का तो पूरा हुआ है न? यूएसए में सेट हो गए हैं?" "नहीं बेटा। एक सफल कैरियर से ही जीवन का ध्येय पूरा नहीं हो जाता है। मनुष्य मॉं के शरीर से भले ही एक ही बार पैदा होता है पर इस दुनिया में जन्म लेने के साथ ही समय-समय पर उसके दूसरे तमाम जन्म होते हैं, जैसे- जिम्मेदारियां, चिंताएं, सपने के साथ रोज़ाना नित नए विचार और संबंध तक जन्म लेते हैं। इन सब के बीच संतुलन बनाने में आदमी को कभी पता ही नहीं चल पिता कि उसका जन्म क्यों हुआ है?" "इतने अधिक जन्म और वो भी एक ही जन्म में!" नन्हीं विधि को दादी की गूढ़ बातें भला कैसे समझ में आती? जिम्मेदारियों व चिंता के बारे में तो उसे कुछ पता नहीं था पर वह सपनों के बारे में थोड़ा-थोड़ा समझने लगी थी क्योंकि अब वह स्कूल की पढ़ाई पूरी कर कालेज जाने वाली थी। अत: वह बोली "दादी, आपने भी तो कोई सपना देखा होगा न?" विधि की बात सुनकर मीना अतीत में खो गयी। बोली "मैं अपनी बात करूं बेटा तो जब मेरा जन्म हुआ तो बेटी पैदा हुई है यह जानकर घर में सभी का मुंह लटक गया। पहला बच्चा, वह भी बेटी! किसी के चेहरे पर मेरे जन्म की कोई खुशी नहीं थी। यह वो दौर था जब दहेज के डर से बेटियों को गर्भ में ही मार दिया जाता था, पर मैं शायद थोड़ी किस्मत वाली थी....मेरे जन्म के कुछ सालों बाद मेरे भाई का जन्म हुआ। भाई के जन्म के साथ बड़ी बहन के रूप में मेरा एक और जन्म हुआ। बड़ी बहन होने की वजह से मुझे अपने छोटे भाई को मां की तरह ही संभालना पड़ा, जिससे मुझमें सोचने-विचारने की क्षमता विकसित हुई। मैं जैसे-जैसे बड़ी हुई, विचारों और सपनों ने जन्म लेना शुरू किया था पर इससे पहले कि मेरे सपने पूरे हो पाते, मेरी शादी कर दी गयी और फिर एक पत्नी के रूप में मेरा एक और जन्म हुआ।

  • निश्चिन्ती

    विकास यादव इनकी शुरू से एक आदत है। सोते समय या तो मेरा हाथ पकड़ लेंगे या मेरे गाल पर हाथ रख कर सोएंगे, कुछ नही तो साड़ी का पल्लू ही हाथ मे ले कर सो जाएंगे। एक बार मज़ाक में पूछा तो बोले कि बस मुझे अच्छा लगता है। जैसे कोई छोटा बच्चा माँ का आँचल पकड़ कर सेफ महसूस करता है ठीक वैसे ही पर इनका माजरा कुछ और ही है। आज दोनों कामवालियां गायब, कुक भी गायब, किसी की डेथ हो गयी इनकी बिरादरी में सो वहीं गयीं इकट्ठी, ये भी रात नौ बजे लौटे। काम निपटाते मैं बेहद थक कर आ लेटी। आज इनका हाथ मेरे गालों पर नही मेरे बालों में घूम रहा था जैसे कुछ खोज रहा हो। मुझे सब पता है ख़ुद की परेशानियां भूल इन्हें मेरी चिंता हो रही है। मुँह से कुछ बोलेंगे नही बस ये स्पर्श ही अहसास दिला जाते हैं। मैं इस तरह चुपचाप लेटी हुई इन्हें बिल्कुल अच्छी नही लगती। हाथ फेरते हुए पूछ लिया, "परेशान हो न थक गई न, कुछ कहना है क्या सोच रही हो, कोई प्रॉब्लम, कुछ चाहिए?" बस, इनका इधर ये पूछना और उधर मैं सब भूल जाती हूँ कि क्या सोच रही थी, क्या काम बाकी था, क्या दिमाग में चल रहा था, सब गायब हो जाता है। इनको जवाब देने के लिए याद करने लगती हूँ और फिर से चुप हो जाती हूँ और इन्हें मेरी चुप्पी से उलझन होती है और मुझे इनके सवाल न करने से। मैं जब इनका हाथ अपने गालों पर रखती हूँ तब जा कर इन्हें तसल्ली होती है कि मैं निश्चिन्त हूँ। पर सच तो ये है कि मुझे भी तभी नींद आती है जब मुझे ये तसल्ली हो जाती है कि ये मेरी तरफ से एकदम निश्चिन्त हैं। *****

  • मुक्ति

    रंजना मिश्रा सुबह लगभग चार बजे का समय था। कड़ाके की ठंड के बावज़ूद वे रोज की तरह प्रातः भ्रमण के लिए निकले थे। सुनसान सडक के किनारे-किनारे चले जा रहे थे, जबकि लोग-बाग उस वक्त रजाइयों में लिपटे आराम से सो रहे थे। तभी उन्हें एक ऑटो पीछे से आता दिखाई दे गया। शायद उसे भी कोई मज़बूरी रही होगी, वरना इतनी सुबह, वह भी इस सर्द मौसम में, कोई कहाँ निकलता है जो उसे सवारी मिलती। उन्होंने पीछे मुड़कर देखा और तनिक और किनारे हो लिए। हालाँकि सडक चौड़ी थी और कोई और गाडी चल नहीं रही थी तो हादसे की आशंका कहाँ थी। लेकिन उनके जैसे कुछ लोग हर जगह होते हैं जो प्रिवेंशन इस बेटर दैन क्योर के सिद्धांतो पर ही चलते हैं, चाहे जो हो जाये। बावज़ूद इसके, ना जाने कैसे उस ऑटो ने पीछे से आकर उन्हें धक्का मार दिया और वे गिर पड़े। वह शायद भाग निकलता, लेकिन इत्तेफ़ाक कि धक्का मारते ही ऑटो का इंजन बंद हो गया था। वे गंभीर रूप से घायल थे, लेकिन ना जाने अचानक उनमे कहाँ से इतनी ऊर्जा आ गई कि उठकर खड़े हो गये और ऑटो वाले की कलाई इतने जोर से पकड़ी कि जैसे उसकी कलाई की हड्डी चरमरा गई हो। ऑटोवाले ने कातर दृष्टि से उनकी ओर ताका जैसे कह रहा हो, छोड़ दो बाबूजी मेरे दो छोटे-छोटे बच्चे हैं, भूख से मर जाएंगे। उन्होंने एक नज़र ऑटो वाले के चेहरे पर डाली और उसे मुक्त कर दिया। मुक्त होते ही वह फ़ौरन वहाँ से भाग निकला। इधर वे बेहोश होकर धरती पर गिर पड़े। बेहोशी की हालत में ही उनके अंदर एक दृश्य चलने लगा। देखा कृष्ण अपनी बांसुरी लिए सदा की तरह मुस्कुरा रहे हैं। उन्होंने दृढ दृष्टि से कृष्ण को देखा और मुस्कुरा दिये, बोले, "यह क्या प्रभु! तूने तो मुझे शतजीवी होने का वर दिया था। बोलो, चुप क्यों हो! क्यों दिया था वर!" कृष्ण चेहरे पर मंद मुस्कान के भाव बिखेर कर बोले, "इस कलियुग में इतनी आयु कोई कम नहीं है वत्स! और जिसकी जो आयु होती है वही तो जीता है। प्रकृति द्वारा निर्धरित नियम को मैं ही बदल दूँ तो क्या यह उचित होगा वात्स!" "फिर तूने वर ही क्यों दिया था प्रभु!" वे कृष्ण की ओर देखकर बोले। कृष्ण सदा की तरह मुस्कुराते खड़े थे, बोले, "मैने ऐसा कोई वर तुम्हें नहीं दिया था वत्स! मैंने तो दीर्घजीवी होने का वर दिया था। 99 वर्ष की आयु कोई कम तो नहीं होती वत्स! तेरी यह आयु आज पूर्ण हो गई।" उन्होंने उस वेदना की स्थिति में भी मुस्कुरा दिया, बोले,"तू बड़ा छालिया है प्रभु! तू सदा से छलता आया है। आज तुने मुझे छला है।"कृष्ण रहस्यमय ढंग से मुस्कुराए और उन्होंने हाथ उठाकर अपने भक्त को मुक्ति दे दी। आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी और उनका बूढा शरीर धीरे-धीरे निष्प्राण हो गया। ******

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