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अर्धांगिनी

डॉ. कृष्णा कांत श्रीवास्तव

लेफ्टिनेंट कर्नल की नवेली पत्नी सीमा ने जैसे ही पति के पार्थिव शरीर को झंडे में लिपटे हुए देखा, जोर से फफक पड़ी। अपने दिवंगत पति के माथे को चूम कर वह बहुत रोई। इतना रोई कि नाक और आँख सिंदूर की तरह लाल हो गये, परंतु उसके माथे की लाली गायब थी।
दोनों की शादी के अभी मात्र छः महीने ही हुए थे। खेलने-खाने की उम्र में सीमा विधवा हो गई। अब उसके जीवन में न कोई रंग रहा, न ही रस। उसे लगा, जीना बेकार है। आखिर, करे तो क्या करे? इसी ऊहापोह में वह कई महीनों से मर-मर कर जी रही थी।
अचानक एक दिन, वाश रूम में लगे आईने ने उसे धिक्कारते हुए कहा, "अपनी सुरत तो देख, पच्चीस वर्ष की है, और चालीस की लगती है। आँखों के पास झुर्रियाँ और बाल सफ़ेद दिख रहे हैं। पढ़ी-लिखी होकर अपना ये हाल बना लिया।" सुनकर वह धक्क सी रह गयी। तुरंत कमरे में जाकर पति के तस्वीर को गले से लगाया और घंटों तक अपने दुखों को आँसूओं के सैलाब से धोती रहीं।
एकाएक उसके मन से काला, सघन बादल छंट गया, सुनहरी धूप निकल आई। सीमा के उजड़े जीवन में मानो फिर से बहार छा गयी। आत्मविश्वास भरे लहजे में उसने पति की तस्वीर से कहा, "प्रिय, आपसे वादा करती हूँ कि इस तरह रो कर मैं अपना जीवन बर्बाद नहीं करूँगी। आपकी तरह मैं भी देश के लिए शहीद हो जाना चाहती हूँ। आखिर, आपकी अर्धांगिनी जो हूँ।"
वह तैयार होकर सेना में भर्ती के लिए आवेदन करने निकलने लगी। जाते समय उसने अपना चेहरा आईने में फिर से देखा। इसबार आईना मुस्कुरा कर उसे 'जय जवान' कह रहा था।

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