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यादों के झरोखे से…

डॉ. जहान सिंह “जहान”

 

कोई यहां रहता था। 
वैसे इस रास्ते से कम गुजरता हूं। 
डरता हूं मेरे चेहरे पर उसका
कोई नाम ना पढ़ ले।
बस्तियों का क्या यकीन 
वो अपना घर छोड़कर
सब की खबर रखती हैं।
न जाने कौन सी कहानी मेरे नाम कर दें। 
वैसे इस रास्ते से कम गुजरता हूं।
गली का वो तीसरा मकान, 
मोड पर हलवाई की दुकान, 
सामने पार्क और दौड़ का मैदान
एक दूसरे को देखने का बहुत अच्छा इंतजाम।
कभी खेल का बहाना, 
कभी हलवाई से जलेबी लाना, 
कभी साइकिल चलाना, 
हर चक्कर में छज्जा निहारना,
आंखें मिल जाए तो देर तक मुस्कुराना
अजनबी को भी बातों में उलझाना
जब तक स्कूल जाने को ना निकले, 
तब तक आसपास रुकने का बहाना, 
कुछ तो खास है उसमें। 
निमंत्रण पत्र जैसा बदन, 
दूर तक संदेश देती आंखें, 
चांद से चेहरे पर खिले गुलाब जैसे होंठ
पालकें बेचैन फाख्ता के पंख
मोड पर मुड़कर उसका पीछे देखना 
अगर मुस्कुरा दी तो दिन बन जाना
कुछ तो खास था उसमें।
फिर एक दिन हलवाई की दुकान पर टकराना
देखकर मुस्कुराना
उसका रुमाल गिरना और चले जाना
मेरा घबराना और रुमाल उठाना
दौड़ कर मेरा पार्क चले जाना
मेरे प्रिय दरख के नीचे बैठकर रुमाल देखना 
कोई नाम नहीं
एक पत्र एक लाइन
तुम अच्छे हो।
वह बेचैनी दिन रात के लिए काफी थी।
समय गुजरता गया 
गर्मी की छुट्टियों में उसका शहर से चला जाना
न जाने क्यों उसे दिन से वक्त तेजी से भागने लगा
मेरा जल सेना में भर्ती होना
मेरा देश विदेशों की खाक छानना 
वो संजीव दृश्य मेरी आंखों में कैद हैं आज भी
कुछ तो खास था उसमें। 
रुमाल पर मेरी धरोहर मेरा बहुमूल्य खजाना है। 
देश वापस आना, उस शहर जाना
सब कुछ बदला सा है
शहर अब वह शहर नहीं था
मेट्रो हो चुका था
उस गली में मकान की जगह बहुमंजिली इमारत
हलवाई की दुकान एक रेस्टरा 
और पार्क पर ऊंची-ऊंची दीवारें
लाफिंग क्लब, फव्वारे
बस वो गली का तीसरा मकान
गाली भी गायब थी 
वो हवाई वो पेड़ का दरख ओजल था।
बड़ी याद आती है उसके पत्र की वो इबारत
तुम अच्छे हो।
आज एक अफसोस पाले जिंदा हूं
मैं उससे ना कह सका 
कि तुम बहुत अच्छे हो।
धन्यवाद।

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