अनजान यात्री
- दीपक गौतम
- Mar 6, 2024
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दीपक गौतम
गौरी का रिजर्वेशन जिस बोगी में था, उसमें लगभग सभी लड़के ही थे। टॉयलेट जाने के बहाने गौरी पूरी बोगी घूम आई, मुश्किल से दो या तीन औरतें होंगी। मन अनजाने भय से काँप सा गया। रात्रि का समय था और बीच के स्टेशनों पर यात्रियों की संख्या बढ़ भी सकती थी और घट भी सकती थी।
पहली बार रात्रि में अकेली सफर कर रही थी, इसलिये पहले से ही घबराई हुई थी। अतः खुद को सहज रखने के लिए चुपचाप अपनी सीट पर बैठकर मोबाइल में देखने लगी।
नवयुवकों का झुंड जो शायद किसी कैम्प जा रहे थे, के हँसी-मजाक, चुटकुले उसके हिम्मत को और भी तोड़ रहे थे। गौरी के भय और घबराहट के बीच अनचाही सी रात धीरे-धीरे उतरने लगी।
सहसा सामने के सीट पर बैठे लड़के ने मौन भंग किया "हेलो, मैं साकेत और आप?"
भय से पीली पड़ चुकी गौरी ने कहा "जी मैं"
"कोई बात नहीं, नाम मत बताइये। वैसे जा कहाँ रहीं हैं आप?"
गौरी ने धीरे से कहा "वाराणसी"
"अच्छा क्या आप भी वाराणसी से ही हैं? मेरा तो यहां ननिहाल है। इस रिश्ते से तो आप मेरी बहन लगीं।" खुश होते हुए साकेत ने कहा और फिर वाराणसी की प्रशंसा चालू हो गई। गंगा, सारनाथ, गंगा घाटों और बनारस की गलियों की विशेषताएं। साकेत अपने ननिहाल की अनगिनत बातें बताता रहा कि उसके नाना जी काफी नामी व्यक्ति हैं, उसके दोनों मामा सेना में उच्च अधिकारी हैं, एक मामी पटना की हैं और दूसरी लखनऊ की। और भी ढेरों नई-पुरानी बातें। गौरी भी मुस्कुरा उठी। धीरे-धीरे सामान्य हो गई और उसके बातों में रूचि लेती रही।
रात जैसे कुँवारी आई थी, वैसे ही पवित्र कुँवारी गुजर गई।
सुबह गौरी ने कहा "मेरा मोबाइल नंबर फीड कर लीजिए, कभी ननिहाल आइये तो जरुर मिलने आइयेगा।"
"कैसी ननिहाल बहन?
वो तो मैंने आपको डरते देखा तो झूठ-मूठ के रिश्ते गढ़ता रहा। मैं तो पहले कभी वाराणसी आया ही नहीं।"
"क्या?" चौंक उठी गौरी।
"देखो बहन ऐसा नहीं है कि सभी लड़के बुरे ही होते हैं कि किसी अकेली लड़की को देखा नहीं कि उस पर गिद्ध की तरह टूट पड़ें। हम ही तो पिता और भाई भी होते हैं।" कह कर प्यार से उसके सर पर हाथ रख मुस्कुराया था साकेत।
गौरी साकेत को देखती रही जैसे अपना ही भाई उससे विदा ले रहा हो।
गौरी की आँखें गीली हो चुकी थीं।
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