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दिव्या

आरती गौतम

वो रेलवे स्टेशन पर अकेला बैठा फोन पर बिजी था कि उसके बगल में कोई सुंदर सी औरत आकर बैठ गयी। औरत के चेहरे पर नजर पङी तो वो अचानक ठिठक सा गया। ये तो वही लङकी थी जो उसकी जिंदगी थी। औरत ने उसकी तरफ देखा भी नहीं वो चेहरे पर से पसीना पोछतें हुए अपना टिकट देख रही थी।
अचानक से वो बोल पङा "दिव्या"। किसी ने नाम लिया तो लङकी ने अपनी बङी बङी आंखें से उस शख्स पर टिका दी और आंखो ही आंखो में पुछा "कौन?” वो बोला "अरे मैं राहुल हुं पहचाना नही क्या? हाँ, पहचान लिया मगर ये क्या बाबाओ जैसी दाङी रख रखी है? वो बोला हाँ बहुत बदल गया हुं, मगर तुम तो जरा भी नहीं बदली। इतने साल बाद देख रहा हुं अकेली यहां क्या कर रही हो? तुम्हारे पति, और बच्चे कहां हैं? वो उदास हो गयी और बोली बच्चे हुए ही नहीं। पति से शादी के 5 साल बाद तलाक हो गया था। अकेली ही रहती हुं। तुम सुनाओ अपनी तुम्हारी बीवी कैसी और बच्चे कितने हैं? कहां रहते हो? मेरी शादी के बाद तुमने गांव ही छोङ दिया ?
वो बोला.... तुम तो मिली नहीं इसलिये शादी की नहीं, माँ के साथ इसी शहर में रहता हुं। प्राईवेट जॉब करता हुं, और मैंने गांव नही छोङा था, तेरे भाईयों ने छोङने पर मजबूर कर दिया था।
ये सब सुनकर लङकी के आंखों में आँसू आ गये। उसी समय उसकी ट्रेन भी आ गयी और वो उठकर जाने लगी... राहुल ने उठकर आगे बङकर उसका हाथ पीछे पकङ लिया और बोला.. ये ट्रेन मिस कर दो ना, अगली ट्रेन से चली जाना।
वो बिना पीछे मुङे बोली...थक गयी हुं अकेले चलते चलते हमेंशा के लिये क्यों नहीं रोक लेते? फिर दोनो रो कर एक दुसरे से लिपट गये। 

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