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परिंदे की दास्तां

धीरज सिंह

 

उड़ जा पंछी दूर गगन में
वो ही तेरा बसेरा है,
इस धरती पर और इस जग में
कोई नहीं अब तेरा है।
आसमां तुझे हाथ फैला कर
पल भर में अपना लेगा,
धरती पर ये मानव क्या क्या
तुझसे करवा लेगा।
रुकना मत, थकना मत,
डरना मत उड़ते जाना,
कोई ठिकाना ये आसमां
आखिर तुझको बतला देगा।
 
हर पंछी को एक़ ना एक़ दिन
उड़ना अकेला पड़ता है,
दुनिया में शायद ही कोई
साथ किसी का देता है।
तुझको जो भगवान ने
पंखो का वरदान दिया,
कर उसका उपयोग और
इतरा ले अपनी शक्ति पर।
अपनी किस्मत पर भी तू
शायद अब दंभ भर सकता है,
पर याद रख हर पथ पर
धोखा तू खा सकता है।
 
आसमां में भी ये इंसान
घात लगाए बैठा है,
तेरी इस छोटी सी जान पर
आँख गढ़ाए बैठ है।
भिन्न-भिन्न देश में उड़कर
अब तो तुझको जाना है।
पर भूल कर भी कभी
नीचे उतर नहीं आना है।
पता है मुझको तुझको भी
भूख और तृष्णा सताएगी,
तब तुझको इस धरती की
याद जरूर आएगी।
धरती पर आने की सोच
तेरा जी तो घबराएगा,
रात अंधेरे में तू नीचे
आने को ललचाएगा।
पर इस बात से अबतक तेरा
भोला मन अंजान है,
निशाचर के रूप में भी
मानव नीचे विद्यमान है।
तू नीचे आकर के
धोका अवश्य ही खाएगा,
फिर आसमां के आग़ोश में
कभी नहीं जा पाएगा,
और ये आसमां तुझ पर तब
अपने आँसू बरसाएगा।

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