भाग्य का खेल
- डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव
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डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव
बहुत समय पहले की बात है, एक धनी सेठ जी थे। उनके पास बेशुमार संपत्ति थी, मान-सम्मान और शानो-शौकत की कोई कमी नहीं थी। सेठ जी की एक सुंदर और संस्कारी बेटी थी। उन्होंने अपनी बेटी का विवाह एक प्रतिष्ठित परिवार में किया, जहाँ सभी सुविधाएँ उपलब्ध थीं। किंतु बेटी का दुर्भाग्य देखिए, उसका पति निकला एक जुआरी और शराबी। धीरे-धीरे उनकी सारी संपत्ति जुए और शराब में लुटती चली गई। अब बेटी के पास ना तो पैसा था और ना ही सुख-शांति।
इस दुखद स्थिति में बेटी की मां, सेठानी जी, अपनी बेटी की हालत देखकर बेहद चिंतित रहती थीं। वह अक्सर अपने पति से कहतीं, "आप तो दुनिया भर के जरूरतमंदों की मदद करते हैं। तो फिर अपनी ही बेटी की मदद क्यों नहीं कर सकते, जो इतने कठिन समय से गुजर रही है?"
सेठ जी शांत मन से उत्तर देते, "जब उसके भाग्य का वक्त आएगा, तो मदद खुद-ब-खुद चलकर उसके पास आएगी।"
एक दिन सेठ जी किसी काम से बाहर गए हुए थे। तभी अचानक उनका दामाद उनके घर आ पहुंचा। सेठानी जी ने दिल से उसका स्वागत किया। उनके मन में विचार आया कि बेटी की मदद का यह अच्छा अवसर है। उन्होंने सोचा कि दामाद को आर्थिक सहायता देने के लिए क्यों न कोई विशेष उपाय किया जाए?
तब सेठानी जी ने एक तरकीब निकाली – उन्होंने शुद्ध घी के मोतीचूर के लड्डुओं में सोने की अशर्फियाँ छिपाकर रख दीं। उनकी योजना थी कि दामाद को लड्डू उपहार में दे दिए जाएँ, ताकि उसे बिना सीधे पैसे देने के मदद पहुँचाई जा सके।
दामाद जब वापस जाने लगा, तो सेठानी जी ने उसे बड़े प्रेम से पाँच किलो घी के मोतीचूर के लड्डू भेंटस्वरूप दिए। वह इस बात से संतुष्ट थीं कि उनकी बेटी की कुछ आर्थिक मदद हो जाएगी।
दामाद लड्डुओं का भारी पैकेट लेकर चल पड़ा, लेकिन रास्ते में उसे विचार आया, "इतने भारी लड्डू घर ले जाने में क्या लाभ? क्यों न इन्हें बेच दिया जाए और इनसे कुछ पैसे मिल जाएं?"
वह पास की मिठाई की दुकान पर गया और लड्डू का पैकेट बेच दिया। जो पैसे मिले, वह अपनी जेब में रखकर चला गया।
इधर संयोग देखिए, सेठ जी उसी दिन बाजार से लौटते समय उसी मिठाई की दुकान पर गए और उन्होंने घर के लिए कुछ मोतीचूर के लड्डू खरीदने का सोचा। दुकानदार ने सेठ जी को वही लड्डू का पैकेट बेच दिया, जिसे कुछ ही देर पहले दामाद ने वहाँ बेचा था।
सेठ जी घर पहुंचे और लड्डू का वही पैकेट सेठानी जी को दिया। जैसे ही सेठानी जी ने पैकेट देखा, वह चौंक गईं। उन्होंने एक लड्डू को तोड़कर देखा, तो उसमें से सोने की वही अशर्फियाँ निकलीं जो उन्होंने दामाद के लिए छिपाई थीं।
सेठानी जी अपना माथा पकड़कर बैठ गईं और सेठ जी को पूरी कहानी बताई – दामाद के आगमन से लेकर अशर्फियाँ छिपाने तक की पूरी बात। सेठ जी यह सब सुनकर हल्की-सी मुस्कान के साथ बोले, "भाग्यवान, मैंने पहले ही कहा था कि उसका भाग्य अभी नहीं जागा है। देखो, न तो अशर्फियाँ दामाद के भाग्य में थीं और न ही मिठाई वाले के। इसीलिए कहते हैं कि भाग्य से अधिक और समय से पहले किसी को कुछ नहीं मिलता।"
जीवन में सब कुछ अपने समय पर ही मिलता है। हमारे प्रयास चाहे कितने भी हो, हमें धैर्य रखना चाहिए और जो कुछ ईश्वर हमें देता है, उसमें संतोष करना चाहिए। जैसे झूला जितना पीछे जाता है, उतना ही आगे भी आता है – सुख और दुख जीवन के अभिन्न अंग हैं, जो समय-समय पर हमारे जीवन में आते रहते हैं।
इसलिए हमें किसी की मजबूरी पर हंसना नहीं चाहिए। किसी का बुरा वक्त कब आ जाए, यह किसी को नहीं पता होता। समय और किस्मत की कद्र करना और अपनी मेहनत और आत्म-संतुष्टि में भरोसा रखना ही सच्चे जीवन का सार है।
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