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मंथन मन का

ममता खरे


खुद से करती हूँ बातें,
खुद ही खुश हो जाती हूँ।
इस झंझावाती दुनियाँ से,
अब मोह नहीं मै लगाती हूँ।
बाहर से है भीड़ भरी,
पर अंतस भारी सूनापन।
स्पनंद रिक्त हृदय उनसे,
अब भेद न मन के बताती हूँ।
माया का मोह नहीं फिर भी,
दंभ द्वेष ने जिनको जकड़ा।
ऐसी मायावी दुनियाँ में,
अब डुबकी नहीं लगाती हूँ।
कितनी हूँ मैं सही गलत,
अब मुझको होता फर्क नहीं।
द्वंद्व झटक सन्मार्ग सफ़र,
निशदिन करती जाती हूँ ।
ये वृथा व्यथा का सदियों से,
घिरता आया ताना बाना।
पल भर न भटके मन मेरा,
अब प्रण मैं रोज उठाती हूँ।
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