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शीत ऋतु

देवेन्द्र देशज

सर-सर पछुआ चल रही,
रूप रखी विकराल।
सूर्य संग है मित्रता,
रातों संग मलाल।।
कम्बल से संबल मिला,
राहत देती आग।
चाहत बढ़ती चाय से,
ठंड गई फिर भाग।।
बिगड़े और बिगाड़ती,
जीवन के सुरताल।
इतनी भीषण ठंड में,
क्वारे करें मलाल।।
पानी से परहेज़ हो,
पत्नी से प्यार।
लगे रजाई प्रेमिका,
पलंग लगे संसार।।
तन मन में उमंग भरे,
शीतल मन्द समीर।
शीत काल में ही प्रिए,
बलिष्ठ बने शरीर।।

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