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बड़ों की बात मानो

सरिता देवी

एक बड़ा भारी जंगल था, पहाड़ था और उसमें पानी के शीतल निर्मल झरने थे। जंगल में बहुत-से पशु रहते थे। पर्वत की गुफा में एक शेर, एक शेरनी और शेरनी के दो छोटे बच्चे रहते थे। शेर और शेरनी अपने बच्चों को बहुत प्यार करते थे।
जब शेर के बच्चे अपने माँ-बाप के साथ जंगल में निकलते थे, तब उन्हें देखकर जंगल के दूसरे पशु भाग जाया करते थे। लेकिन शेर-शेरनी अपने बच्चों को बहुत  कम अपने साथ ले जाते थे। वे बच्चों को गुफा में छोड़कर वन में अपने भोजन की खोज में चले जाया करते थे।
शेर और शेरनी अपने बच्चों को बार-बार समझाते थे कि वे अकेले गुफा से बाहर भूलकर भी न निकलें। लेकिन बड़े बच्चे को यह बात अच्छी नहीं लगती थी। एक दिन जब बच्चों के माँ-बाप जंगल में गये थे, बड़े बच्चे ने छोटे से कहा – ‘चलो झरने से पानी पी आवें और वनमें थोड़ा घूमें। हिरनों को डरा देना मुझे बहुत अच्छा लगता है।’
छोटे बच्चे ने कहा – ‘पिताजी ने कहा है कि अकेले गुफा से मत निकलना। झरने के पास जाने को तो उन्होंने बहुत मन किया है। तुम ठहरो। पिताजी या माता जी को आने दो। हम उनके साथ जाकर पानी पी लेंगे।’
बड़े बच्चे ने कहा – ‘मुझे प्यास लगी है। सब पशु तो हम लोगों से डरते ही हैं। डरने की क्या बात है?’
छोटा बच्चा अकेला जाने को तैयार नहीं हुआ। उसने कहा – ‘मैं तो माँ-बाप की बात मानूँगा। मुझे अकेला जाने में डर लगता है।’ बड़े भाई ने कहा – ‘तुम डरपोक हो, मत जाओ, मैं तो जाता हूँ।’ बड़ा बच्चा गुफा से निकला और झरने के पास गया। उसने भर पेट पानी पिया और तब हिरनों को ढूँढ़ने इधर-उधर घूमने लगा।
उस जंगल में उस दिन कुछ शिकारी आये थे। शिकारियों ने दूरसे शेर के अकेले बच्चे को घूमते देखा तो सोचा कि इसे पकड़कर किसी चिड़िया खाने को बेच देने से रुपये मिलेंगे। छिपे-छिपे शिकारी लोगों ने शेर के बच्चे को चारों ओर से घेर लिया और एक साथ उस पर टूट पड़े। उन लोगों ने कम्बल और कपड़े डालकर उस बच्चे को पकड़ लिया।
बेचारा शेर का बच्चा क्या करता। वह अभी कुत्ते-जितना बड़ा भी नहीं हुआ था। उसे कम्बल में खूब लपेटकर उन लोगों ने रस्सियों से बाँध दिया था। वह न तो छटपटा सकता था, न गुर्रा सकता था।
शिकारियों ने इस बच्चे को एक चिड़िया खाने को बेच दिया। वहाँ वह एक लोहे के कटघरे में बंद कर दिया गया। वह बहुत दु:खी था। उसे अपने माँ-बाप की बड़ी याद आती थी। बार-बार वह गुर्राता और लोहे की छड़ों को नोचता था, लेकिन उसके नोचने से छड़ टूट तो सकती नहीं थी।
जब भी वह शेर का बच्चा किसी छोटे बालक को देखता था, बहुत गुर्राता और उछलता था। यदि कोई उसकी भाषा समझता तो वह उससे अवश्य कहता – ‘तुम अपने माँ-बाप तथा बड़ों की बात अवश्य मानना। बड़ों की बात न मानने से पीछे पश्चात्ताप करना पड़ता है। मैं बड़ों की बात न मानने से ही यहाँ बंदी हुआ हूँ।’

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