क़र्ज़
- Rachnakunj .
- 1 day ago
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शिव शंकर मेहता
अखबार में अपने दोस्त की तस्वीर देखकर मुकुंद की आंखों में नमी आ गई। आज उसके दोस्त का कितना नाम है। सारा देश डॉक्टर प्रताप सिंह की उपलब्धियों पर गर्वान्वित महसूस कर रहा है। मुकुंद उसकी तस्वीर को देखते ही अतीत में खो गया।
प्रताप और मुकुंद एक ही गांव में रहते थे। मुकुंद प्रताप से दो साल बड़ा था। प्रताप के पिताजी एक मामूली से किसान थे और मुकुंद के पिता गांव के ज़मीदार थे। मुकुंद के पिता को उसका प्रताप के साथ उठना बैठना पसंद नहीं था। पर मुकुंद के लिए प्रताप सिर्फ दोस्त नहीं बल्कि छोटे भाई समान था। एक दिन भी प्रताप से मिले बिना नहीं रहता था।
समय के साथ-साथ दोनों की दोस्ती और गहरी होती चली गई। मुकुंद, छिपकर पढ़ाई में प्रताप की मदद किया करता था। अपने पिता से पैसे ले, वह प्रताप को पढ़ाई के लिए पुस्तकें लाकर देता था। वह प्रताप को बहुत बड़ा आदमी बनता देखना चाहता था।
और फिर प्रताप ने परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया था उस दिन मुकुंद ने पूरे गांव में मिठाई बांटी थी। प्रताप भी मुकुंद की बहुत इज़्ज़त करता था। उसका मानना था कि मेडिकल की पढ़ाई में इतना बढ़िया प्रदर्शन वह केवल मुकुंद की मदद से ही कर पाया था।
“तू उसकी इतनी मदद करता है। देखना, एक दिन वह तुझे भूल जाएगा।” मुकुंद के पिता अक्सर उसको समझाते थे।
“पिताजी, दोस्ती में किसने किसको कितना दिया, ये मायने नहीं रखता। और हम दोनों की दोस्ती इतनी कच्ची नहीं है कि मुझसे दूर जाकर प्रताप मुझे भूल जाएगा।” मुकुंद मुस्कुराते हुए बोला।
प्रताप मैडिकल की पढ़ाई करने शहर चला गया। कुछ समय तक वह आता जाता रहता था। पर फिर पढ़ाई बढ़ती गई और प्रताप मसरूफ होता चला गया। मुकुंद ने भी ज़मीदारी का काम संभाल लिया, पर हर समय प्रताप के आने का इंतज़ार करता रहता।
जब मुकुंद का ब्याह हुआ तो उसे यकीन था कि प्रताप ज़रूर आएगा। पर प्रताप के फाइनल परीक्षा होने के कारण वह आने में असमर्थ रहा। फिर भी मुकुंद ने बुरा नहीं माना। पर जब मुकुंद की माताजी के देहांत पर भी प्रताप नहीं आया तो मुकुंद को अपने पिता की कही बात सत्य लगने लगी। प्रताप शहर जाकर वहीं का हो गया। उसने गांव और गांववासियों से नाता ही तोड़ लिया।
मुकुंद ने भी धीरे–धीरे प्रताप के वापस आने की आस छोड़ दी। पर उसके माता-पिता का वह बराबर ख्याल रखता था। जब प्रताप के पिता का देहांत हुआ तब प्रताप विदेश में था। वहां से आने में जब उसने अपनी असमर्थता व्यक्त की तो मुकुंद ने ही एक बेटे के सारे कर्तव्य निभाते हुए उनका अंतिम संस्कार किया।
“मैं तेरा ये एहसान कभी नहीं भूलूंगा। बस एक एहसान और कर दे भाई। मैंने माँ को यहां लाने के लिए डाक से टिकट भेजी है। उसे मुझ तक पहुंचा दे।” प्रताप ने फोन पर कहा।
मुकुंद ने केवल ठीक है कह फोन रख दिया और प्रताप की माँ को उसके पास भिजवाने का इंतज़ाम कर दिया।
उसके बाद मुकुंद ने कभी प्रताप से बात करने की कोशिश नहीं की और ना ही कभी प्रताप का कोई खत या फोन आया।
आज इतने सालों बाद प्रताप की तस्वीर देख मुकुंद भावविभोर हो उठा था। मन कर रहा था कि अभी प्रताप उसके सामने आ जाए और वो उसे गले से लगा ले। पर हॉस्पिटल के उस बेड पर पड़ा मुकुंद उठने में भी असमर्थ था। शहर के बड़े से बड़ा डॉक्टर भी उसके कैंसर की बिमारी को ठीक नहीं कर पा रहा था।
उस दिन आंखों में आंसू लिए मुकुंद अपनी पत्नी से बोला, “इस जीवन से अच्छा तो भगवान मुझे उठा ले। तुम सब भी मेरे कारण परेशान हो गए हो।”
“पिताजी, आप फ़िक्र ना करें, मैंने देश के सबसे बड़े डॉक्टर को बुलाया है। देखना आप ठीक हो जाएंगे।” मुकुंद के बेटे ने उसे दिलासा देते हुए कहा।
“बेटा, तू बेकार मुझे जीवित रखने की कोशिश कर रहा है। मैं….अब…” ये कहते – कहते ही मुकुंद बेहोश हो गया।
जब मुकुंद की आंखें खुलीं तो उसने अपने समस्त परिवार को अपने इर्दगिर्द खड़ा देखा।
“आप सब यहां? मैं…मैं मरने वाला हूँ क्या?” मुकुंद ने दुखी स्वर में कहा।
“मेरे होते हुए ऐसा कभी हो सकता है क्या?” मुकुंद के कानों को एक परिचित सी आवाज़ सुनाई दी।
मुकुंद ने मुड़ कर देखा तो प्रताप को खड़ा पाया।
“प्रताप! तू यहां? आखिर याद आ गई तुझे मेरी?” मुकुंद ने आंखों के आंसुओं को पोंछते हुए कहा।
प्रताप उसके गले लग कर खूब रोया।
“माफ़ कर दे दोस्त। शहर की तेज़ रफ़्तार में इतना तेज़ चलने लगा कि अपने कब पीछे छूट गए पता ही नहीं चला। पर तेरी याद हमेशा दिल में थी। माफ़ कर दे भाई। तूने मेरे लिए कितना कुछ किया और मैं तेरे किसी सुख-दुख में काम नहीं आ पाया। तेरी दोस्ती का कर्ज़ तो उतारना ही था मेरा भाई। मरने के बाद ये कर्ज़ अपने साथ ऊपर लेकर जाता तो भगवान को क्या मुँह दिखाता।”
“दोस्ती में कर्ज़ नहीं होता मेरे दोस्त। माना मैं तुझसे नाराज़ था, पर दिल से तेरे लिए हमेशा दुआ ही निकलती थी। तेरी कामयाबी से सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था।” मुकुंद ने कहा।
“पिताजी, प्रताप चाचू ने ही आपका कामयाब ऑपरेशन किया है और अब आप बिल्कुल स्वस्थ हैं।” मुकुंद के बेटे ने कहा।
“हांजी, भाईसाहब का यह कर्ज़ तो हम जीवन भर नहीं उतार पाएंगे। आपको नया जीवन दिया है इन्होंने।” ये कह मुकुंद की पत्नी रोने लगी।
“अरे! भाभी आप शर्मिंदा कर रहे हैं मुझे। आज मैं यदि अपने दोस्त को बचा पाया तो इसके लिए भी सारा श्रेय मुकुंद को ही जाता है। ये मदद ना करता तो मैं डॉक्टरी की पढ़ाई ही नहीं पढ़ पाता।
इसका बहुत बड़ा क़र्ज़ है मुझपर।” प्रताप ये कहते हुए रो पड़ा।
“पगले! दोस्ती में एक दोस्त दूसरे दोस्त पर एहसान नहीं करता। ये तो दिल का रिश्ता है। इसमें कैसा क़र्ज़। दोबारा ऐसा कहना भी मत।”
ये कहते हुए मुकुंद की आंखें खुशी से छलक उठीं। उसने अपने बिछड़े दोस्त को सीने से लगा लिया। और उसके बाद दोनों कभी जुदा नहीं हुए।
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