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तसला और कटोरा

डॉ. कृष्ण कांत श्रीवास्तव

यह कहानी उस वक्त की है, जब किसी आंदोलन के कारण महात्मा गांधी बड़ौदा जेल में बंद थे। इस वक्त तक गांधी जी का नाम काफी सुर्खियों में रहने लगा था। उनकी गिनती स्वतंत्रता संग्राम के अग्रिम पंक्तियों के नेताओं में होती थी। गांधी जी के लाखों अनुयायी उनके एक आवाहन पर एकत्रित हो जाया करते थे।
उस वक्त बड़ौदा जेल का सुपरिटेंडेंट मेजर मार्टिन था। मेजर मार्टिन, गांधीजी की ख्याति से भलीभांति परिचित था। गांधी जी के बड़ौदा जेल में आते ही मेजर मार्टिन ने उनके लिए कुछ आवश्यक वस्तुओं का प्रबंध करवाना आरंभ किया।
गांधीजी ने सुपरिंटेंडेंट से पूछा, “ये सारी वस्तुएँ किसके लिए आ रही हैं?”
सुपरिटेंडेंट ने उत्तर दिया, “आपके लिए। मैंने सरकार को लिखा था कि इतने महान् पुरुष पर कम से कम तीन सौ रुपए महीने का खर्च तो होना ही चाहिए।”
गांधीजी ने कहा, “आपको बहुत-बहुत धन्यवाद। जो आपने मेरे लिए इतना सोचा, परंतु मैं यहां पर भोग विलास के लिए नहीं आया हूं। मैं तो एक साधारण स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हूं। मुझे जेल में किसी विशेष सुविधाओं की आवश्यकता नहीं है। मैं भी अपने दूसरे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के साथ ही एक साधारण इंसान बनकर जेल में रहूंगा। मेरे ऊपर भी सिर्फ उतना ही पैसा खर्च होना चाहिए जितना कि दूसरे कैदियों के ऊपर खर्च किया जा रहा है। इस वक्त हमारा स्वास्थ्य ठीक नहीं है। यदि मैं स्वस्थ होता तो खाना भी ‘सी क्लास’ का ही खाता।”
गांधी जी की बातों को सुनकर सुपरिटेंडेंट मेजर मार्टिन आश्चर्यचकित रह गया। उसने गांधी जी को प्रणाम किया और गांधीजी के आग्रह पर वे सारी वस्तुएँ वापस कर दी। उनके स्थान पर वही तसला और कटोरा आ गया, जो सामान्य कैदी को दिया जाता था।
इसके बाद बड़ौदा जेल में गांधी जी ने अपनी पूरी सजा एक आम कैदी की भांति ही पूरी की।
सीख - महान वही होता है जो अपने को साधारण मनुष्य से अलग नहीं समझता।

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