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नीलकंठ

Updated: Dec 7

गुलशन नंदा

असावधानी से पर्दा उठाकर ज्यों ही आनंद ने कमरे में प्रवेश किया, वह सहसा रुक गया। सामने सोफे पर हरी साड़ी में सुसज्जित एक लड़की बैठी कोई पत्रिका देखने में तल्लीन थी। आनंद को देखते ही वह चौंककर उठ खड़ी हुई।

'आप!' सकुवाते स्वर में उसने पूछा, 'जी, मैं रायसाहब घर पर हैं क्या?'

'जी नहीं, अभी ऑफिस से नहीं लौटे।'

'और मालकिन। आनंद ने पायदान पर जूते साफ करते हुए पूछा।

'जरा मार्किट तक गई हैं।

'घर में और कोई नहीं?'

'संध्या है, उनकी बेटी! अभी आती है।' वह साड़ी का पल्लू ठीक करती हुई बोली।

'आपको पहले देखने का कभी...।'

'जी, मैं सहेली हूँ उसकी। वह बात काटते हुए बोली, 'आप बैठिए, मैं उसे अभी बुलाकर लाती हूँ।'

जैसे ही वह संध्या को बुलाने दूसरे कमरे की ओर मुड़ी, किनारे रखी मेज से टकरा गई, फिर अपने को संभालती हुई शीघ्रता से भाग गई। आनंद उसकी अस्त-व्यस्त दशा देख मुस्कुरा उठा और दीवार पर लगे चित्रों को देखने लगा। कुछ समय तक न संध्या और न उसकी सखी ही आई तो आनंद ने बिना आहट किए दूसरे कमरे में प्रवेश किया।

सामने वह लड़की खड़ी बाथरूम का किवाड़ खटखटा रही थी। आनंद हौले से एक ओर हट गया।

'अभी कितनी देर और है तुझे !' लड़की ने तनिक ऊँचे स्वर में पूछा।

'चिल्लाए क्यों जा रही है, कह जो दिया आती हूँ, परंतु वह कौन है?' भीतर से सुनाई दिया।

'मैं क्या जानूं? बैठक में बैठा देवी जी की प्रतीक्षा कर रहा है।'

'तू चलकर उसका मन बहला जरा, मैं अभी आई।'

'वाह! अतिथि तुम्हारा और मनोरंजन करें हम।'

साथ ही चिटखनी खुलने की आवाज सुनाई पड़ी।



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