पश्चाताप
- रमाकांत मिश्रा
- Nov 24
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रमाशंकर मिश्रा
सुमन की शादी को अभी कुछ ही साल हुए थे। वो अपने पति राजेश और सास के साथ रहती थी। शुरू में सब कुछ ठीक था, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, सुमन के और उसकी सास के बीच छोटे-छोटे मामलों को लेकर मतभेद होने लगे।
एक दिन सुमन को पता चला कि उसका सोने का हार नहीं मिल रहा है। उसने सारा घर छान मारा, हर जगह ढूंढ़ा, लेकिन हार का कहीं नामोनिशान नहीं था। सुमन को अपने मन में शक हुआ कि कहीं उसकी सास ने ही तो हार नहीं चुराया। उसे याद आया कि उसकी सास ने एक बार उसके गहनों को बड़े ध्यान से देखा था। मन ही मन सुमन को यकीन हो गया कि हार की चोरी उसकी सास ने ही की है। वह गुस्से में तमतमाती हुई अपने पति के पास गई।
सुमन ने गुस्से में कहा, "राजेश, मेरा सोने का हार चोरी हो गया है। और मुझे पूरा यकीन है कि तुम्हारी माँ ने ही इसे चुराया है। वो हमेशा मेरे गहनों को बड़े ध्यान से देखती रहती हैं।" राजेश ने सुमन को शांत करने की कोशिश की और कहा, "सुमन, ये तुम क्या कह रही हो? माँ कभी ऐसा नहीं कर सकतीं। तुमने अच्छी तरह से खोजा?"
लेकिन सुमन के मन में शक गहरा बैठ चुका था। उसने अपनी आवाज़ को और ऊँचा करते हुए कहा, "मैंने हर जगह देख लिया, वो हार नहीं मिल रहा। ये जरूर तुम्हारी माँ ने ही चुराया होगा। उनकी नज़र मेरे गहनों पर कब से थी।" राजेश ने एक बार फिर समझाने की कोशिश की, "सुमन, प्लीज चुप हो जाओ। माँ पर इस तरह का इल्ज़ाम लगाना ठीक नहीं है।"
सुमन ने उसकी एक न सुनी और ताने मारते हुए बोली, "अगर मुझे न्याय नहीं मिला, तो मैं ये घर छोड़कर चली जाऊँगी। तुम हमेशा अपनी माँ की ही तरफदारी करते हो।" राजेश को अपनी माँ की यादें एक-एक करके याद आने लगीं। कैसे उसकी माँ ने उसे पालने-पोसने के लिए अपने हिस्से की रोटी तक छोड़ दी थी। उसकी माँ की एक-एक कुर्बानी उसे याद आ रही थी। उसने अपनी आवाज़ को संयम में रखते हुए कहा, "सुमन, अगर तुम्हें लगता है कि ये घर छोड़कर जाना ही सही है, तो तुम चली जाओ। लेकिन एक बात याद रखना, जो माँ अपने हिस्से की रोटी तक बेटे के लिए छोड़ देती थी, वो कभी चोरी नहीं कर सकती।"
यह बात सुनकर सुमन को लगा कि शायद उसने ज्यादा ही कह दिया। वो कुछ क्षणों के लिए चुप हो गई, लेकिन अपने मन के संदेह को छोड़ नहीं पाई। सुमन की बातें और उसके इल्जाम सुनते हुए राजेश की माँ दरवाजे के पीछे खड़ी थी। उसने अपने बेटे की बातें सुनीं, और उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। उसे अपने बेटे पर गर्व हुआ कि उसने अपनी माँ पर भरोसा बनाए रखा, लेकिन साथ ही उसे इस बात का भी दुःख हुआ कि उसकी बहू ने उस पर ऐसे घिनौने आरोप लगाए।
रात हो गई, लेकिन उस घर में सन्नाटा पसरा हुआ था। राजेश और सुमन के बीच जो अनकहा संवाद था, उसने एक अजीब सी खामोशी को जन्म दिया। अगले दिन सुबह सुमन को अचानक एक पुराने बक्से में हार मिल गया। उसे याद आया कि उसने किसी काम के चलते कुछ दिन पहले उसे वहाँ रख दिया था, लेकिन फिर भूल गई। सुमन का दिल धड़क उठा। उसे अपने किए पर गहरा पछतावा हुआ।
उसने सोचा कि क्या वह इतनी छोटी बात को इतना बड़ा मुद्दा बनाकर सही कर रही थी? उसे अपनी सास पर इल्जाम लगाने की बात बार-बार कचोट रही थी। उसने सोचा, "मैंने माँ जैसी सास पर इतनी भयानक बात का इल्जाम लगा दिया।" सुमन का मन अब शर्मिंदगी से भर चुका था। उसे समझ में आ गया था कि वह अपने शक के कारण अनजाने में ही बहुत गलत कर चुकी थी।
फिर वह अपनी सास के कमरे में गई। उसकी सास एक चुपचाप बैठी हुई थी। सुमन ने उनके पास जाकर धीमे स्वर में कहा, "माँजी, मुझे माफ कर दीजिए। मैंने आप पर बेबुनियादी आरोप लगाए। मैं बहुत शर्मिंदा हूँ।" उसकी सास ने उसकी ओर देखा, और बिना किसी नाराजगी के मुस्कुराते हुए उसे गले लगा लिया। वह बोलीं, "बेटी, मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है। मैं जानती हूँ कि कभी-कभी शक और गुस्सा हमसे ऐसी बातें कहलवा देते हैं, जिनका हमें बाद में पछतावा होता है।"
सुमन की आँखों में आँसू आ गए। उसने सोचा कि जो इंसान उसे इतना प्यार और अपनापन दे सकता है, उस पर उसने ऐसा इल्जाम लगाया। उसे समझ में आ गया कि सच्चा अपनापन और प्यार कभी किसी को चोट पहुँचाना नहीं सिखाता।
उस दिन के बाद सुमन ने न केवल अपनी सास के साथ अपना रिश्ता मजबूत किया, बल्कि खुद को भी बदलने का संकल्प लिया। उसने ठान लिया कि वह अब किसी भी रिश्ते में शक और गलतफहमी को कभी जगह नहीं देगी।
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