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माँ की पीड़ा

राजीव कुमार

एक ठंडी शाम थी। हवा में हल्की ठंडक थी, और आसमान में घने बादल छाए हुए थे। छत पर अकेली बैठी सुलोचना बुत बनी हुई थी, उसकी आँखें कहीं दूर टिकी थीं। बारिश कब से शुरू हो चुकी थी, पर उसे इसका कोई अहसास नहीं था। उसका बदन थर-थर काँप रहा था, मगर मानो वो खुद को महसूस ही नहीं कर रही थी। ठंडी हवाएँ उसे कंपा रही थीं, लेकिन वह अपने विचारों में गुम थी।

अचानक उसे अपने नाम की पुकार सुनाई दी।

"कहाँ हो सुलोचना? पूरा घर छान मारा, और तुम यहाँ छत पर भीग रही हो! जल्दी नीचे चलो, कपड़े बदलो। आज तुम्हारे लिए चाय मैं बनाऊँगा।" शिवकांत जी ने उसकी हथेली थामकर उसे धीरे से उठाया और कमरे की ओर ले गए। ऐसा लग रहा था मानो सुलोचना को अब तक किसी बात का होश ही नहीं था।

शिवकांत जी ने कमरे में पहुँचकर उसे झकझोरते हुए कहा, “जल्दी से कपड़े बदल लो, सुलोचना। ठंड लग जाएगी, बीमार पड़ जाओगी। मैं तुमसे नाराज़ नहीं हूँ। जो हुआ, वो अब गुज़रा वक्त है। वो लोग अब चले गए हैं, कभी वापस नहीं आएँगे। तुम्हें तकलीफ होगी, पर मैं खुश हूँ कि अब कोई तुम्हें अपमानित नहीं करेगा। कोई हमारी इज़्ज़त पर और धब्बा नहीं लगा पाएगा।”

सुलोचना ने कुछ नहीं कहा। चुपचाप अलमारी से कपड़े उठाए और बाथरूम में चली गई। नहा कर, कपड़े बदल कर, वो रसोई की ओर बढ़ी। रसोई का माहौल बिखरा हुआ था, मानो थोड़ी देर पहले हुए घटनाक्रम की गवाही दे रहा हो।

वह खुद से बुदबुदाई, "काश मेरी कोई औलाद ही न होती..." पहली बार उसके मुँह से ऐसी कड़वी बात निकली थी, लेकिन उसके दिल की घुटन इससे कहीं ज्यादा थी।

शिवकांत जी भी उसके पीछे रसोई में आ गए। उन्होंने चाय का पानी चढ़ा दिया और उसके साथ बिखरा सामान समेटने लगे। चाय बनाते हुए शिवकांत ने गंभीर स्वर में कहा, “सुलोचना, देख लो, कुणाल का कोई सामान तो नहीं छूट गया? जो भी उसका है, सब उसके मुँह पर फेंक कर आऊँगा। इतनी बदतमीजी! न अपने माता-पिता की इज्ज़त का ख्याल रखा, न उस प्यार का जो हमने उसे दिया। वह ससुराल के बहकावे में आकर हमें बेइज़्ज़त कर रहा है।”

सुलोचना ने उदासी से सिर झुका लिया। उसने धीरे से कहा, “क्या कमी कर दी थी हमने? सब कुछ तो बाद में उसी का होने वाला था। फिर ये जिद क्यों कि अभी से घर अपने और बहू के नाम करवा लें। मैं तो ममता में अंधी हो जाती अगर बहू की बातें मेरे कानों में नहीं पड़ी होतीं। अच्छा होता अगर हम बेऔलाद ही रहते... ये दुख तो नहीं सहना पड़ता।”

शिवकांत जी का कंधा पकड़ कर वह फूट-फूट कर रोने लगी। उसकी सिसकियाँ पूरे कमरे में गूँज रही थीं, और शिवकांत जी उसे सांत्वना देते हुए उसकी पीड़ा को महसूस कर रहे थे।

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